नई विदेश व्यापार नीति (Exim Policy)
राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन की वामपंथी सरकार की घोषित 2002-07 की नई विदेश व्यापार नीति /
आयात-निर्यात नीति को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में
वाणिज्य मंत्री श्री कमलनाथ ने परिवर्तित कर नई व्यापार नीति 2004-09
घोषित कर दी, जिसकी निम्नांकित विशेषताएँ है-
(1)
व्यापार संतुलन की प्रतिकूलता को कम करना
:- हाल के वर्षों में भारत व्यापार संतुलन प्रतिकूल रहा है। अतः सरकार की विदेशी व्यापार
नीति का मुख्य उद्देश्य व्यापार संतुलन की प्रतिकूलता को कम करना है। इसके लिए अनेक
कदम उठाये गये
है जिनमें आयात नियंत्रण एवं निर्यात प्रोत्साहन प्रमुख है।
(2)
आयात नियंत्रण :- आयात-नियंत्रण की समस्याओं पर विचार
करने के लिए 1950 ई. में भारत सरकार द्वारा श्री. जी. एल. मेहता की अध्यक्षता में आयात-नियंत्रण जाँच समिति की नियुक्ति की
गयी। पुनः 1962 ई. में आयात नीति पर विचार करने के लिए मुदालियर समिति की नियुक्ति
को गयी। इन समितियो की सिफारिशों के अनुसार सरकार ने आवश्यक वस्तुओं के आयात पर रोक
लगा दी और आयात के लिए लाइसेन्स लेना अनिवार्य बना दिया गया। आयात नियंत्रण नीति के
सम्बन्ध मे सलाह देने के लिये एक आयात सलाहकार परिषद् की स्थापना की गयी। आयात-नियंत्रण
का मुख्य उद्देश्य व्यापार संतुलन की प्रतिकूलता को कम करना तथा विदेश विनिमय की बचत
करना है।
(3)
आयात-प्रतिस्थापन :- व्यापार संतुलन की प्रतिकूलता को कम
करने के लिए आयात में कमी करना जरूरी है और आयात में कमी करने का एक तरीका आयात-प्रतिस्थापन
भी है। आयात प्रतिस्थापन का मतलब यह है कि विदेशों से हम जिन वस्तुओं का आयात करते
है उनके बदले स्वयं देश के उद्योग द्वारा वे वस्तुएँ तैयार की जाये ताकि
उनका आयात कम किया जा सके या पूर्णतः समाप्त किया जा सके। भारत
में सरकार आयात प्रतिस्थापन की नीति को बढ़ावा दे रही है तथा जो उद्योग आयात की प्रतिस्थापन
वस्तुओं का उत्पादन करते है उन्हें कई तरह के प्रोत्साहन एवं वित्तीय सहायता दी जा
रही है। भारत मे उद्योगों को आयात प्रतिस्थापन के क्षेत्र में काफी सफलता मिली है।
इन उद्योगो में मशीनरी -उद्योग, इंजीनियरिंग -उद्योग, रसायन उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग
आदि प्रमुख है। इन्होने आयात-प्रतिस्थापन द्वारा करोड़ों की विदेशी मुद्रा की बचत की
है।
आयात प्रतिस्थापन
मदें |
योजना के पूर्व 50-51 |
प्रथम योजना के अंत में 55-56 |
द्वितीय योजना के अंत में 60-61 |
तीसरी योजना के अंत में 65-66 |
वार्षिक योजना के अंत में 68-69 |
चौथी योजना के अंत में 73-74 |
पाँचवी योजना के अंत में 77-78 |
1. खाद्यान्न |
5.9 |
1.7 |
4.7 |
9.5 |
5.6 |
4.2 |
0.2 |
2. लोहा एवं इस्पात |
25.2 |
39.9 |
35.7 |
16.7 |
9.3 |
18.5 |
1.1 |
3. मशीनरी |
68.9 |
41.0 |
40.7 |
27.8 |
24.6 |
17.0 |
15.3 |
4 . पेट्रोलियम |
92.5 |
93.8 |
94.6 |
76.6 |
66.2 |
70.8 |
63.1 |
5. नाइट्रोजन खाद |
72.5 |
39.8 |
80.3 |
58.3 |
60.9 |
38.3 |
27.5 |
इस
तालिका से स्पष्ट है कि भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत आयात-प्रतिस्थापन के
क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है; क्योकि तालिका में दी गई सभी वस्तुओ की स्वदेशी
आपूर्ति में आयातो का प्रतिशत योगदान कम हुआ है। योजना के पूर्व (1950-51) में स्वदेशी
आपूर्ति में खाद्यान्नो के आयात का प्रतिशत 5.9 था जो 1977-78 में 0.2 हो गया। इस प्रकार
देश में खाद्यान्नों का आयात अब बहुत ही कम हो गया है। पुनः योजना के पूर्व
(1950-51) स्वदेशी आपूर्ति मे लोहा एवं इस्पात, मशीनरी, पेट्रोलियम एवं नाइट्रोजन खाद
के आयात का प्रतिशत क्रमशः 25.2,68.9,92.5 एवं 72.5 था जो 1977-78 में घटकर क्रमशः
1.1,15.3,63.1,27.5 हो गया। इस प्रकार पेट्रोलियम को छोड़कर अन्य वस्तुओं के आयात में
काफी कमी हुई है।
वास्तव
में आयात प्रतिस्थापन की नीति निम्नलिखित तीन स्तरो से होकर गुजरी -
(1)
प्रथम स्तर में आयात प्रतिस्थापन ने उपभोक्ता वस्तुओं के घरेलू उत्पादन का रुप लिया।
(2)
दूसरे स्तर से हमारा ध्यान उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन से हटकर पूँजीगत वस्तुओ के
घरेलू उत्पादन की ओर गया
(3)
तीसरे स्तर में आयातित तकनीक में कमी लाने तथा देशी तकनीक को बढ़ावा देने पर जोर दिया
गया।
आयात
प्रतिस्थापन की नीति के कार्यान्वयन के फलस्वरूप हम कई वस्तुओं का स्वयं उत्पादन करने
लगे जिनका पहले आयात करना पड़ता था। इससे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की की बचत हुई।
(4)
निर्यात प्रोत्साहन :- भारत सरकार की विदेश व्यापार
नीति की मुख्य विशेषता निर्यात को प्रोत्साहन देना भी है। निर्यात प्रोत्साहन के लिये
निम्नलिखित कदम उठाये गये है।
(i)
1966 में शुरू किये गये नगद क्षतिपूर्ति समर्थन अथवा cash compensatory support
(ccs) की नीति के अन्तर्गत निर्यातको
द्वारा आदानो, ढुलाई तथा बाजार विकास पर अदा
किये गये अप्रत्यक्ष करी के लिये क्षतिपूर्ति के रूप मे नगद सहायता दी जाती थी ।
1988-89 तक 260 निर्यात मदों पर यह सहायता उपलब्ध थी। लेकिन CCS को जुलाई 1991 में
रुपये के अवमूल्यन के बाद समाप्त कर दिया गया।
(ii)
बम्बई, कान्डला, मेद्रा, फट्ठा, न्वायडा तथा कोचीन में Export processing zones (EPZ) की स्थापना की
गई जिनके अन्तर्गत अवस्थित इकाइयों को विश्व के देशों के साथ मुक्त व्यापार करने की
अनुमति तथा पाँच वर्षों के लिये कर अवकाश दिया गया।
(iii)
दिसम्बर 1980 में 100 percent Export oriented units (EOUs) की योजना open general
Licence (OGL) पर
कच्चे पदार्थों, मध्यवर्ती वस्तुओं, पूँजीगत वस्तुओं तथा तकनीक के आयात पर शत प्रतिशत
छूट देने के लिये
प्रारंभ की गई।
(iv)
निर्यात प्रोत्साहन के लिये सरकार द्वारा कई संस्थाओ की स्थापना भी की गई। इन संस्थाओं
में निर्यात विकास परिषदो, 1956 ई में स्थापित राजकीय व्यापार निगम, 1963 ई में स्थापित
खनिज एवं धातु व्यापार निगम, सितम्बर 1964 ई में स्थापित मेटल स्क्रैप व्यापार निगम
तथा 1 जनवरी 1982 ई को स्थापित भारत का निर्यात-आयात बैंक (EXIM Bank) प्रमुख है।
सरकार
ने निर्यात प्रोत्साहन के लिये कुछ अन्य कदम भी उठाये जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है-
(v)
विदेशो में व्यापार- दूतावास की स्थापना करना तथा समय-समय पर व्यापार प्रतिनिधि मंडलो
को विदेशों में भेजना
(vi)
निर्यात वस्तुओं के परिवहन के लिये सुविधाएँ प्रदान करना
(Vii)
निर्यातको के लिये साख का प्रबन्ध करना
(viii)
निर्यात वस्तुओ के मूल्यों में स्थिरता लाना
(ix)
कुछ वस्तुओं के निर्यात पर से नियंत्रण हटाना अथवा कम करना तथा
(x)
कई वस्तुओं के लिये निर्यात कर में छूट प्रदान करना
(5)
आयात उदारीकरण :- अस्सी के दशक में और विशेषकर 1985 के
बाद सरकार ने आयात उदारीकरण की नीति अपनायी। उदारीकरण के उपायों में निम्नलिखित प्रमुख
है -
(i)
सरकार ने OGL श्रेणी के अन्तर्गत अनेक पूँजीगत वस्तुओं को ला दिया यानी बिना लाइसेंस
के ही उनका आयात किया जा सकता था
(ii)
पूँजीगत वस्तुओं की तरह ही कच्चे पदार्थों के अनेक भागो को भी OGL श्रेणी मे ला
दिया गया
(iii)
अस्सी के दशक में आयात नीतियो को निर्यात परक बनाया गया
(iv)
सरकार ने तकनीक के आयात को भी उदार बना दिया ताकि उसके माध्य से निर्यात वस्तुओं के
उत्पादन को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा का सामना करने लायक बनाया जा सके।
(6)
द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय समझौते :- विदेशी व्यापार
की कठिनाइयों को दूर करने के लिये
सरकार ने कई देशों के साथ द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय व्यापारिक समझौते भी किये सरकार
ने निर्यात प्रोत्साहन के लिये जो कदम उठाये उनसे हमारे निर्यातो से प्राप्त आय में
वृद्धि हुई जिसमें कुल निर्यातों का GDP में अनुपात प्रायः बढ़ता गया। तालिका से
कुल
निर्यातों का GDP में अनुपात
चौथी योजना (1970-74) |
3.7% |
पाँचवी योजना (1974-79) |
5.4% |
1979-80 |
5.6% |
छठी योजना (1980-85) |
4.9% |
सातवी योजना, तीन वर्ष (1985-88) |
4.4% |
1988-89 |
5.2% |
1990-91 |
6.1% |
आलोचना
(1)
अवास्तविक निर्यात लक्ष्य :- इस नई नीति में यह दावा
किया गया था कि इन पाँच वर्षों में भारतीय निर्यात को दोगुना कर दिया जाएगा। आलोचकों
के अनुसार एक काल्पनिक लक्ष्य है, ऐसा असंभव दिख रहा है।
(2)
करो की रियायत का बोझ :- इस नीति में कई प्रकार की करो में
रियायतें दी गयी है जिससे सरकार को प्रतिवर्ष 55 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार उठाना
पड़ेगा जिससे राजकोषीय घाटा
बढ़ जाएगा। इतने बड़े रियायत का कोई औचित्य नहीं है।
(3)
बेकार मशीनों के आयात का भय :-
इस नीति के माध्यम से बराबर इस बात का खतरा बना रहता है कि कही पुरानी एवं बेकार मशीनों
का आयात न हो जाय जो भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक भार बन जाएगी।
(4)
अधिकांश व्यापार संबंधी मुद्दो पर नीति की रखामोशी
:- T.N.C राजगोपालन का अभिमत है कि अधिकांश व्यापार संबंधी मुद्दों पर यह नई नीति एकदम
खामोश है कि इसमें भारत का रवैया कैसा रहेगा, विकास एवं वैश्वीकरण में किस प्रकार सामंजस्य
स्थापित होगा। WTO में भारत की भूमिका क्या होगी?
(5) टारगेट प्लस योजना का दुरुपयोग :- इस नीति की मुख्य खामी है कि इसमे निर्यात सम्वर्द्धन के नाम पर टारगेट प्लस के दुरुपयोग की पूरी गुंजाइश बनी रहती है, क्योंकि उससे लगभग 8000 करोड़ रुपए से अधिक राजस्व की हानि हुई। इसी से 2004-09 के दूसरे अनुपूरक में टारगेट प्लस योजना को समाप्त कर दिया गया।