12. पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

12. पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

12. पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

प्रश्न : बृहत् पारिस्थितिकी तंत्रों पर संक्षेप में प्रकाश डालिये?

अथवा

मुख्य-मुख्य पारिस्थितिकी तंत्र कौन-कौन हैं? उनके उपयोग एवं महत्त्व क्या हैं?

अथवा

मुख्य-मुख्य पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिये।

उत्तर : प्रकृति में अनेक प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र क्रियाशील हैं। ये पारिस्थितिकी तंत्र एक ओर स्वयं में पूर्ण हैं तो दूसरी ओर परस्पर सम्बद्ध भी हैं। प्रकृति के मुख्य पारिस्थितिकी तंत्रों में वन, चरगाहा भूमि, रेगिस्तान, तालाब, झील, नदी, झरना, सागर, नदीमुख (मुहाना) आदि की गणना होती है। ये पारिस्थितिकी तंत्र प्रकृति में स्वतंत्र रूप से कार्यरत पारिस्थितिकी तंत्र हैं। यद्यपि इन सभी पारिस्थितिकी तंत्रों के संगठन की आधारभूत योजना (व्यवस्था) लगभग समान होती है तथापि वे प्रजातियाँ (जीव : organisms) के संघटन, पर्यावरण (पारिस्थितिकी या जलीय), भौगोलिक अवस्थियाँ तथा उत्पादन-दर आदि में एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः इन सभी पारिस्थितिकी तंत्रों की अलग-अलग जानकारी आवश्यक है।

वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (United Nations Food and Agricultural Organization) ने विश्व के भू-क्षेत्र का क्षेत्रफल लगभग 13,076 अरब हेक्टेयर बताया है। यह आँकड़ा 1989 ई. के सर्वेक्षण पर आधारित है। इस संगठन के अनुसार विश्व के इस भू-क्षेत्र का 31% हिस्सा वन-क्षेत्र है।

वनीय पारिस्थितिकी तंत्र अनेक प्रकार की पर्यावरणीय सेवाएँ प्रदान करती है। पौधों तथा वनों का चक्र ऑक्सीज़न का उत्पादन, कार्बन को अलगाना, जैव विविधताओं को बनाये रखना, वन्य जीवों को आवास प्रदान करना, बाढ़ में कमी लाना, वायु से होनेवाले क्षरण को रोकना, निम्न कोटि की भूमि में सुधार लाना आदि इसके मुख्य कार्य हैं। इसके अलावा वनों से मनुष्यों के अनेक मूल्यवान संबंध जुड़े हुए हैं। वनों से मनुष्य को लकड़ी, फल, कंदमूल, जड़ी-बूटियाँ, गोंद आदि मिलते रहे हैं। वनों से आजकल औषधियाँ और कीटनाशक भी प्राप्त किये जाते हैं।

उतरी वन (Boreal Forest):

वनीय पारिस्थितिकी तंत्र विविधताओं से परिपूर्ण है। वन मृदा-प्रकारों, काल, प्रजातियों के संघटन, जलवायु, विकास-स्तर, विस्तार एवं अन्य पहलुओं की दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। उतरी वनीय वनों में शंकुवृक्ष (कोणिक) होते हैं। ये वन अत्यधिक ठंडे प्रदेशों में, अक्षांशक ऊँचाई वाले अक्षांशों और ऊँचाईयों पर पाये जाते हैं। इन वन-क्षेत्रों में 10 से 35 सेंटीग्रेट तापमान शांत-ऋतु में 6° सेंटीग्रेड और ग्रीष्म ऋतु में 20° सेंटीग्रेड होता है। यहाँ का औसत है। उत्तरी वनीय वनों में शंकु-वृक्ष विशेषकर चोड़, देवदारु के वृक्ष, विम्लर (hemlock), फर (firs), सीडर और लार्च आदि के वृक्ष बहुतायत से पाये जाते हैं। इन वनों में कहीं-कहीं कुछ झाड़ियाँ और बड़े-बड़े पत्ते वाली झाड़ियाँ भी पायी जाती हैं। पष्पी वृक्षों में मुख्यतः भूर्ज और एस्प्रेस हैं। आर्थिक दृष्टि से इन वनों का अत्यधिक महत्त्व है। इन वनों से बहुतायत से इमारती लड़कियाँ और कागज़ बनाने की लुग्दियाँ प्राप्त होती हैं। इन वनों में कुछ स्तनपायी पशु जैसे एल्क्स या मूस, हरिण, भेड़िए, पूमास और भालू पाये जाते हैं। छोटी-छोटी गिलहरियाँ और खरगोश भी इन वनों में रहते हैं। लोमड़ी जैसे माँसमभक्षी, पक्षी और प्रत्येक प्रजाति, मुर्गबी, उल्लू एवं ईगल जैसे पृथ्वी पर निवास करने वाले माँसाहारी पक्षी भी पाये जाते हैं। इन वनों के वन दावानल, आँधी और कीड़ों की बढ़ोतरी से नष्ट होते रहते हैं। इन वनों में असंख्य झीलें पायी जाती हैं।

(क) शीतोष्ण वन (Temperate Forest):

शीतोष्ण वन शीत प्रदेशों की अपेक्षा कुछ अधिक उष्ण जगहों में उगने वाले वन हैं। इस तरह के वन उत्तर-मध्य यूरोप, पूर्वी एशिया, एवं पूर्वी संयुक्त राज्यों में पाए जाते हैं। यहाँ औसतन वर्षा लगभग 75 से 150 सेंटीमीटर तक होती है। इस प्रकार के वनों में लम्बे पर्णपाती वृक्षों (deciduous) या वनस्पतियों की भरमार होती है। द्विफली (maple), हिकरी, जैतून (oaks), चिरवेल (elm), बीज एवं चेस्टनट पर्णपाती वृक्षों के उदाहरण हैं। ये वृक्ष शीतोष्ण वनों में मिलते हैं। पर्णपाती वनों का आर्थिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इनसे फर्नीचर बनाने के काम में लाये जानेवाली कठोर लकड़ियाँ मिलती हैं। भवन-निर्माण के लिए भी इनसे बहुत-सी सामग्रियाँ मिलती हैं। इन वनों पर मानव-प्रभाव अधिक देखा जाता है क्योंकि मानव-निवासियों के निकट ही ये वन हैं। मानवजनित परिवर्तनों के कारण शीतोष्ण वनों पर संकट आता रहता है। पर्णपाती वनों में कम संख्या में स्तनपायी पशु पाये जाते हैं। इन वनों के स्तनपायी पशुओं में मुख्य पशु हरिण और भालू हैं। इन वनों में प्रमुखता गिलहरियाँ, मेंढक, सर्प, छिपकली, खरगोश और चूहों की होती है। पर्णपाती वनों में पक्षी और कीट-पतंगों की भी भरमार होती है।

(ख) उष्णकटिबंधीय वर्षा वन (Tropic Rain Forest) :

उष्णकटिबंधीय वर्षा वन विषुवत् रेखा (equator) क्षेत्र के आसपास पाये जाते हैं। इन वनक्षेत्रों का तापमान 18 C से भी अधिक बढ़ जाता है, वर्ष भर में 140 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होती है। ये वन मुख्यतः दक्षिण एवं मध्य अमेरिका, पश्चिमी घाट एवं उत्तर-पूर्व ऑस्ट्रेलिया, कांगो नदी के कछार (अफ्रीका), इण्डोनेशिया, फिलिपाइंस, हवाई और मलेशिया के कुछ भू-भाग में भी उष्णकटिबंधीय वन हैं। भूदृढ़ के लगभग 12वें भाग में उष्णकटिबंधीय वन आच्छादित हैं लेकिन इन वनों में पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्राणियों (जीव-जन्तुओं) और वनस्पतियों का आधा भाग ही पाया जाता है। इन वनों में प्राणी वैविध्य बहुत अधिक है। कोई एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में सैकड़ों प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं। उष्ण एवं आर्द्र जलवायु के कारण बड़े-बड़े पत्तों वाले हरे-भरे वृक्ष इन वनों में बहुत अधिक होते हैं। ये वृक्ष विभिन्न स्तरों की ऊँचाइयों और लम्बाइयों वाले होते हैं। इन वनों में 50 मीटर तक की ऊँचाई वाले वृक्ष होते हैं जो एक प्रकार के खुले आच्छादन का निर्माण करते हैं। इनके कारण सूर्यं की सतह पर मुश्किल से सूर्य का प्रकाश पहुँच पाता है।

उष्णकटिबंधीय वनों में तरह-तरह के पशु रहते हैं। कुछ स्तनपायी पशुओं पर तो कुछ धरती पर रहते हैं। इन पशुओं में बंदरों, उष्णप्रदेशीय पक्षी, चमगादड़ तथा अनेक प्रकार के माँसाहारी पशुओं की प्रचुरता है। विविध प्रकार के कीट-पतंग और अकशेरुकी जीवों की भी यहाँ विविधता होती है।

इन वनों में बहुत कम क्षति होती है लेकिन इनमें वैविध्य के होते हुए भी ये भंगुर होते हैं। इस तरह के वनों की भूमि में बहुत कम पोषण तत्त्व होता है। धरातल पर के मृत जीव पदार्थ इसके अपवाद हैं। अधिकांश पोषण तत्त्व (रासायनिक तत्त्व) जीवित वनस्पतियों में निहित होते हैं।

(ग) विषुवत् प्रदेशीय झाड़ी वन (Chaparral) :

विषुवत् प्रदेशीय झाड़ी वन को भूमध्यसागरीय झाड़ी वन भी कहा जाता है। इस तरह के वन सूखी जलवायु वाले प्रदेशों में पाए जाते हैं। इनमें पत्तों का जमाव कम होता है और शीघ्र महीनों में सूखा पड़ता है। इस इलाके का तापक्रम कम या अधिक हो सकता है। इसका कारण वायु की आर्द्रतायुक्त ठंडी हवा है। इस वन की उत्कृष्टतम विशेषता झाड़ी-वन (chaparral) है। इस झाड़ी-वन को लघु वन भी कहा जा सकता है जिसमें घनी झाड़ियाँ होती हैं। इनकी लम्बाई कुछ मीटर से अधिक नहीं होती। इस तरह के झाड़ी-वन भूमध्य सागर के क्षेत्रों में, कैलिफोर्निया के तट पर, चिली, दक्षिण अफ्रीका एवं दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में होते हैं। इस प्रकार के वनों में सदाबहार बड़ी-बड़ी हरी-भरी पर्णोत्पाती वनस्पतियाँ होती हैं। झाड़ियों के कारण इस प्रकार के वनों में आग लग जाती है। इसका कारण कि जब पौधों और झाड़ियों को टहनियों से सूखी लकड़ियाँ गिरती हैं तो वे बहुत अधिक मात्रा में ईंधन का उत्पादन करती हैं। यहीं कारण है कि ये वन कठिनाई से पचास वर्ष से अधिक नहीं रह पाते, इस वन में अनेक प्रकार की सुगंधित वनस्पतियाँ भी होती हैं।

विषुवत् प्रदेशीय वनों में सरीसृप एवं लघु स्तनपायी जीव पाये जाते हैं। इस वन में पाये जानेवाले पशुओं और वृक्षों का आर्थिक महत्त्व अनन्य है।

(घ) विषुवत् प्रदेशीय सवाना वन :

कर्करेखीय सवाना वन मौसमी वन हैं जहाँ वर्षा औसतन 100 से 150 सेंटीमीटर तक होती है। लेकिन ये वन पूर्णतः मौसमी होते हैं क्योंकि यहाँ के मौसम का बदलाव आर्द्रता से शुष्कता और शुष्कता से आर्द्रता के रूप में होता रहता है। ये वन उष्ण जलवायु वाले मैदानों में पाये जाते हैं। इन वनों में रूक्ष घासें होती हैं और छितराये रूप में वृक्ष उगते हैं। ये वन प्रायः दक्षिण एवं मध्य अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्व एशिया एवं भारत में पाये जाते हैं। इन वनों के वृक्ष और पशु सूखा या उष्णता को सहन करने में सक्षम होते हैं। इन वनों में विविधता नहीं होती। इन वनों में खुर वाले शाकाहारी पशुओं की बहुतायत होती है। जिराफ, जेबरा, हाथी रहते हैं और विविध प्रकार की वनस्पतियाँ सराना वनों में होती हैं। कंगारू केवल ऑस्ट्रेलिया के सवाना वनों में होते हैं।

आग और शाकाहारी पशुओं के कारण हमेशा इन वनों की वनस्पतियों पर संकट छाया रहता है। इस तरह का संकट इस तरह के वनों के लिए सामान्य-सी बात है। लेकिन इस तरह के संकट को इन वनों के लिए आवश्यक भी कहा जा सकता है अन्यथा सवाना वन नम क्षेत्रों के वनों या शुष्क क्षेत्रों के झाड़ी वाले वन क्षेत्रों में बदल जा सकते हैं।

वनों की संरचना एवं कार्य

वन स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र का एक प्रकार है। वन-पारिस्थितिकी के अनेक अवयव होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

(i) अजैविक अवयव (Abiotic Component): अजैविक अवयव मिट्टी और जलवायु में विद्यमान अकार्बनिक एवं कार्बनिक पदार्थ हैं। मृत और सड़े-सड़े कार्बनिक मलवे भी वनों में बिखरे रहते हैं। वनों की दशा के कारण सूर्य की रोशनी भी एक समान इन वनों पर नहीं पड़ती।

(ii) जैविक अवयव (Biotic Component): अनेक प्रकार के जैविक अवयव वन पारिस्थितिकी तंत्र में पाये जाते हैं-

(i) उत्पादक जीव (Producer Organisms): इन जंगलों में वृक्ष ही मुख्य उत्पादक हैं। ये वृक्ष विविध प्रकार के होते हैं। इनके स्तरीकरण में भी भिन्नता होती है। विभिन्न प्रकार के वृक्ष विभिन्न और विशेष प्रकार की जलवायु में पनपते हैं। इन वनों में वृक्षों के अतिरिक्त झाड़ियाँ और धरातलीय वनस्पतियाँ भी पायी जाती हैं।

(ii) उपभोक्ता जीव (Consumer Organisms): किसी भी वन में तीन प्रकार के उपभोक्ता होते हैं- प्राथमिक, द्वितीय और तृतीयक (tertiary) उत्पादक।

प्राथमिक उपभोक्ता शाकाहारी जीव हैं जो सीधे उत्पादों (पादपों) को खाते हैं। इसके अंतर्गत छोटे-बड़े पशु, जैसे चीटियाँ, मेंढक, हाथी, हरिण, कुरंग, जिराफ आदि आते हैं जो गिरें पत्तों, फलों या उत्पादों को खाते हैं।

द्वितीय उपभोक्ता माँसाहारी होते हैं। ये प्राथमिक उपभोक्ताओं को अपना आहार बनाते हैं। इनमें पक्षी, छिपकली, मेंढक और सर्प आदि की गिनती होती है।

तृतीयक उपभोक्ता द्वितीय प्रकार के माँसाहारी हैं जो द्वितीय उपभोक्ताओं को खा जाते हैं, इनमें शेर, बाघ, चीता आदि आते हैं।

(iii) अपघटक जीव (Decomposer Organisms): अपघटक जीवों में विविध प्रकार के मृतोपजीवी सूक्ष्म जीवाणु आते हैं। इनमें बैक्टीरिया (बैसिलस, क्लॉस्ट्रिडियम, एक्टिनोमीसाइसस (स्ट्रेप्टोमाइसेस) इत्यादि प्रमुख हैं। ये मृत या सड़े जीवों के शरीर को अपघटित कर देते हैं। मृत या सड़े शरीरों का अपघटक उपभोग करते हैं और इसके बाद वे उनमें निहित पुनरुपयोगी पोषण तत्त्वों को मुक्त कर देते हैं। विषुवतरेखीय एवं उपविषुवतरेखीय क्षेत्रों के वनों में शीतोष्ण कटिबंधीय वनों की अपेक्षा अपघटन की क्रिया तेजी से होती है।

जलीय पारिस्थितिकी (Aquatic Ecosystems)

जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के अनेक रूप हैं। अवयवों की दृष्टि से जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न रूपों में व्यापक भिन्नता होती है। जलीय पारिस्थितिकी तंत्र विशाल सागर से लेकर लघु या छोटे-छोटे तालाबों तक सीमित होता है। जलीय पर्यावरण में जीवों के गुणों और प्रकारों में वैविध्य आ जाता है। उदाहरण के लिए मछलियाँ केवल पानी में रहती हैं जबकि मेढक, घड़ियाल, दरियाई घोड़ा एवं जलीय पक्षी उभयचर (amphibious) होते हैं अर्थात् ये पानी में भी रहते हैं और घरती पर भी चलते हैं। कुछ जलीय पशु जैसे-कोलेंटेरेट्स (coelenterates) एवं इकिनोड्रम्स (echinoderms) केवल लवणीय (saline) जल में रहते हैं लेकिन हिलसा जाति की मछलियाँ मीठे और लवणीय दोनों प्रकार के जल में रहती हैं। जलीय पारिस्थितिकी तंत्र व्यापक रूप से दो वर्गों-मीठे (शुद्ध) या स्वच्छ जल (fresh water) एवं समुद्रीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में बाँटे गये हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय तथ्य है कि तथाकथित सामुद्रिक एवं स्वच्छ जल पर्यावरण के अनेक पारिस्थितिकी तंत्र होते हैं जो प्रायः एक-दूसरे की सीमाएँ लाँघते (overlapping) रहते हैं और इस कारण इन्हें एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता; जैसे-मुहाना या नदीमुख (estuaries)।

(i) स्वच्छ जल के जीव (Fresh Water Biomes): यद्यपि स्वच्छ या मीठा पानी घरातलीय जल का एक बहुत छोटा-सा अंश होता है और वह तालाबों, झीलों, नदियो और झरनों के जल के रूप में उपलब्ध है। यह जल हमारे लिए अनेक रूप में उपयोगी है। स्वच्छ जल पीने से लेकर घरेलू कार्यों, औद्योगिक एवं कृषि कार्यों के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्वच्छ या मीठा पानी जलविहार का भी साधन होता है तथापि यह शीघ्र और आसानी से गंदला (प्रदूषित) भी हो जाता है। इस जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में अनेक प्रकार के जलीय पौधे, यथा-बहते हुए कवक जिन्हें फाइटोप्लैक्टन समूह का माना जाता है, प्रमुख हैं। जड़वाले पुष्पी पौधे तटों और उथले क्षेत्र के जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उगते हैं।

स्वच्छ जल में अनेक प्रकार के जीवधारी पलते हैं। खुली जलराशि में अकशेरूकी (invertebrate) प्रकार की छोटी-छोटी जीव-प्रजातियाँ पलती हैं। सामूहिक रूप से इन जीवों को जूप्लेंक्टन (zooplankton) कहा जाता है। ये शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के होते हैं। असंख्य प्रकार की कवचधारी मछलियाँ (shellfish) एवं पंखदार मछलियाँ (finfish) खुले जल में रहती हैं।

इस प्रकार स्वच्छ पानी आर्थिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। मछलियों, पंछियों के जीवन, जल-विहार, नौवहन और यातायात की दृष्टि से इनका महत्त्व अनन्य है।

(ii) झील एवं तालाब के जीव (Lake and Ponds Biomes): झील एवं तालाब बँधे हुए स्वच्छ जल के आगार होते हैं। झील और तालाब लगभग सभी प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र में पाये जाते हैं। इनके आकार में व्यापक स्तर पर भिन्नता होती है। इनका आकार कुछ वर्ग मीटर भर का भी हो सकता है और वह हजारों वर्ग मीटर में भी फैला हो सकता है। इनकी गहराइयों में भी भिन्नता होती है। ये कुछ सेंटीमीटर से लेकर सैकड़ों मीटर तक गहरे हो सकते हैं।

तालाब या झील के अजैविक घटक उनकी अदस्थिति, यथा अक्षांशीय स्थिति, ऊँचाईयों और चारों ओर के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर करते हैं। कुछ स्थितियों में झील लवणीय भी हो सकते हैं; यथा, राजस्थान का साँभर झील।

पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में तालाब (Ponds Ecosystem):

पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में जीवन-संधारण की समस्त विशेषताएँ तालाब में पायी जाती हैं। तालाब के तीन प्रधान कार्यात्मक वर्ग हैं। तालाब की निम्नलिखित चार आधारभूत इकाइयाँ होती हैं-

(i) अजैविक पदार्थ : तालाब के अजैविक पदार्थों में आधारभूत अकार्बनिक और कार्बनिक यौगिक उपस्थित रहते हैं। इसमें जल, CO (कार्बन डाय ऑक्साइड), ऑक्सीजन, कैल्शियम, नाइट्रोजन, फास्फोरसीय लवण, एमिनो एसिड आदि होते हैं। जीवों के लिए पोषण तत्त्वों का थोड़ा-सा घोल तालाब में होता है लेकिन पोषण का बहुत बड़ा अंश तालाव के जल में अवसाद या तलछट (sediments) के रूप में मौजूद होते हैं। कुछ पोषक तत्त्व जीवों में भी रहता है।

(ii) उत्पादक जीव (या जैविक पदार्थ) : तालाब में दो मुख्य प्रकार के उत्पादक होते हैं -

(क) जड़युक्त तैरते हुए लम्बे पौधे तालाब में पाये जाते हैं। ये प्रायः उथले जल में पाये जाते हैं।

(ख) तैरनेवाले लघु शैवाल भी तालाब में होते हैं। ये शैवाल कार्बनिक यौगिकों के उत्पादन में जड़युक्त वनस्पतियों की अपेक्षा ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं। तालाब की पारिस्थितिकी के उपभोक्ताओं के आहार की दृष्टि से भी शैवाल का महत्त्व है।

(iii) वृहत् उत्पादक जैव पदार्थ : वृहत् उत्पादक जैव पदार्थों के अन्तर्गत कीटों के लार्वा, मछली आदि आते हैं। प्राथमिक उपभोक्ता शाकाहारी होते हैं जो सीधे-सीधे जीवित पौधों या पौधों के अवशिष्ट को खाते हैं। शाकाहारी उपभोक्ताओं के दो मुख्य वर्ग होते हैं-तल-प्रकार एवं पशु प्लैंकटन। द्वितीय उपभोक्ता मांसाहारी होते हैं। ये प्राथमिक उपभोक्ता को खाते हैं। ये मछलियों और कीट-पतंगों को खाते हैं। स्थलीय उपभोक्ता द्वितीय वर्ग के मांसाहारी होते हैं और द्वितीय उपभोक्ताओं को खाते हैं। ये मछलियों को खाते हैं।

(iv) मृतोपजीवी जैव पदार्थ : मृतोपजीवी जैव पदार्थों में जलीय बैक्टिरिया, फ्लैगलेटस एवं कवक आते हैं। ये पूरे तालाब में विशेषकर उसके तल में फैले होते हैं। तालाब के तल में ही मृत पादपों और जीवों के शरीर होते हैं जिन पर कवक आदि पनपते हैं और उससे पोषण प्राप्त करते हैं। कवक मृत जीवों की देह पर टूट पड़ते हैं। इस तरह मृत जीवों की देह को वे अपघटित कर डालते हैं। मृत शरीर उनके द्वारा खा लिये जाते हैं। उस मृत शरीर से इसी प्रक्रम में पोषण तत्त्व पुनरुपयोग के लिए उन्मुक्त हो जाता है।

इस प्रकार तालाब या झील में जीवन का चक्र सदा चलता रहता है। तालाब या झील के पौधे जब सड़-गल कर नष्ट होते हैं तो इनसे कुछ रासायनिक तत्त्व उत्सर्जित होकर पानी में मिल जाता है। सूर्य के प्रकाश एवं ऊर्जा से तलछटों में पुनः जीव और पौधों का जन्म होता है। तालाब या झील की पारिस्थितिकी इस प्रकार सदा गतिशील रहती है। झील या तालाब में वर्षा का जल जमा होता है। तालाब या झील की पारिस्थितिकी उसके स्रोत या निकास आदि के अवरुद्धीकरण के कारण प्रभावित होती है। इस तरह उसमें जल के जमाव और उत्पादन का संतुलन गड़बड़ा जाता है, अन्यथा इनका स्वच्छ जल का पारिस्थितिकी तंत्र निरंतर चलता रहता है।

चरागाह पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)

तृणभूमि (चरागाह) स्थलीय पारिस्थितिकी का एक उदाहरण है। चरागाही पारिस्थितिकी का निर्माण वैसे स्थलों में होता है जहाँ इतनी वर्षा नहीं होती कि वन उगे और एकदम शुष्कता भी नहीं होती कि वहाँ मरुभूमि बन जाय। उसके उदाहरण में कनाडा, अमेरिका का (prairies) दक्षिण अमेरिका का Pampas एवं एशिया एवं यूरोप का Steppes आदि हैं। इन क्षेत्रों का वर्ष भर में औसत वर्षा 25 से 75 सेंटीमीटर होती है। यह वर्षा भी मौसमी होती है। इन क्षेत्रों का तापमान मध्यम श्रेणी का होता है। इन क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन सूखा एवं शीतकालीन बर्फानी तूफान बहुत अधिक उग्र होता है। समय-समय पर इन तृणभूमियों में अग्निकांड का तांडव चलता रहता है। घास के मैदानों में कम एवं अधिक ऊँचाई वाली घासें पायी जाती हैं। घास के मैदान में पुष्पी पौधे भी उगते हैं। इनमें से कुछ पौधे बारहमासी और अतिविकसित गहरी जड़ों वाले होते हैं।

चरागाहों ने बहुत बड़ी संख्या में स्तनपायी पशु पाये जाते हैं। इन स्तनपायियों में जंगली घोड़ों, गदहों और हरिणों की प्रमुखता होती है। यूरेशियाई हरिण, अमेरिका के हरिण और गवलों के झुण्ड तथा अफ्रीका के अन्य शाकाहारी पशु भी इन क्षेत्रों में पाये जाते हैं।

तृणभूमि (चरागाह) के विभिन्न अवयव इस प्रकार हैं-

(क) अजैविक अवयव : घास के मैदान में अजैविक अवयव मिट्टी और वायविक पर्यावरण में उपलब्ध पोषण तत्त्व हैं। तृणभूमि को C, H, N, O, P, S जैसे आवश्यक तत्त्व पानी के द्वारा मिलते हैं। यहाँ की मिट्टियों में कार्बनडाय ऑक्साइड, नाइट्रोजन, नाइट्रेट्स, सल्फेट, फासफेट आदि मौजूद हैं।

(ख) जैविक अवयव : घास के मैदानों की पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक अवयव के तीन कार्यात्मक या उपचयापचायी (metabolism) वर्ग होते हैं। इन वर्गों को इस प्रकार समझा जा सकता है

(i) उत्पादक जीव या जीवाणु: घास के मैदान के प्रमुख उत्पादक घास हैं। कुछ झाड़ियाँ भी घास के मैदानों में होती हैं। जैवभार (Biomass) के ये भी प्राथमिक उत्पादक हैं। घासों के कुछ प्रमुख प्रकार इस प्रकार हैं-ब्राचियारिया (Brachiaria), सीनोडोन (Cynodon), डेसमोडियम (Desmodium), डिचैनयिथम (Dichanthium), डिजिटारिया (Digitaria) एवं सेटारिया (Sataria) नामक प्रजातियाँ (species) हैं।

(ii) उपभोक्ता जीव या जीवाणु : घास के मैदानों में उपभोक्ता जीवों के भी तीन वर्ग हैं- प्राथमिक, द्वितीय एवं तृतीयक।

प्राथमिक उपभोक्ता घास खाते हैं और ये शाकाहारी होते हैं। ये उपभोक्ता घास चरनेवाले होते हैं, जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरा, हरिण, खरगोश इत्यादि। इनके अतिरिक्त घास के मैदानों में तरह-तरह के कीट और दीमकें भी होती हैं।

द्वितीय उपभोक्ता मांसाहारी होते हैं जो प्राथमिक उपभोक्ताओं को खाते हैं। इनमें मेढक, साँप, छिपकली, पक्षी, सियार और लोमड़ी आदि प्रमुख हैं।

तृतीयक उपभोक्ताओं में बाज आदि आते हैं जो द्वितीय उपभोक्ताओं को खाते हैं।

(iii) अपघटक : मृत या सड़े कवक, बैक्टिरिया और एक्टीनोमीसाइट्स प्रमुख अपघटक हैं। ये मृतोपजीवी होते हैं जो मृत और सड़े पदार्थों को खाने और उसे अपघटित करने में क्रियाशील रहते हैं। ये सूक्ष्म जीवाणु बड़े-बड़े मृत या सड़े पशुओं को खा जाते हैं।

इसके बाद पोषण तत्त्वों को मिट्टी में छोड़ देते हैं। इस तरह वे घास के मैदान के उत्पादकों के लिए पोषण तत्त्व उपलब्ध कराते रहते हैं।

मरुभूमीय पारिस्थितिकी तंत्र (Desert Ecosystem)

भू-क्षेत्र के लगभग 17% भाग में मरुभूभि फैली हुई है। मरुभूमि उन क्षेत्रों में है, जहाँ वर्षा बहुत ही कम होती है और वाष्पीकरण की गति (दर) अत्यंत तीव्र होती है। मरुभूमि क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा 50% होती है। वर्षा का यह न्यून जल भी बहाव की तीव्र गति के कारण पौधों तक नहीं पहुँच पाता। मरुभूमि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ का दिन बहुत गर्म और रात अत्यधिक ठंढी होती है। तापमान में विभिन्न ऋतुओं में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव आता रहता है। विश्व के मुख्य मरुस्थल दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य, मेक्सिको, चिली और पेरू का तटीय क्षेत्र, दक्षिण अफ्रीका (सहारा) मध्य पश्चिम ऑस्ट्रेलिया, एशिया (यथा थार, गोबी, तिब्बत और पश्चिम एशिया) में अवस्थित है। ये सभी मरुस्थल बृष्टि-छाया (rain-shadow) वाले क्षेत्र में है। इन मरुस्थलों में पर्याप्त पोषण तत्त्व मौजूद है लेकिन जैव पदार्थ या तो बहुत कम हैं या नहीं के बराबर हैं। इन क्षेत्रों की उत्पादकता के लिए पानी बहुत जरूरी है जो बहुत ही न्यून मात्रा में उपलब्ध हैं।

मरुस्थल में जीवन और पादप अत्यंत विरल हैं। मरुस्थलों में वे ही जीव जीवित रह सकते हैं जो अपनी शारीरिक संरचना, बनावट और आदतों के कारण अत्यधिक तापमान और सूखे (aridity) को सहने के आदी होते हैं। मरुस्थलों में रूखड़ी और कड़ी घासें, कैक्टस, बबूल (acacias), सेंहुड़ (euphorbios) एवं कुछ गूदेदार या रसीले पौधे होते हैं। मरुस्थल में स्तनपायी बहुत कम तरह के पाये जाते हैं जिनमें बिल्ली, खरगोश, लोमड़ी और सियार प्रमुख हैं। मरुस्थल में कशेरुकी जीवों की बहुतायत होती है जिनमें साँप और सरीसृप वर्ग के अन्य जीव आते हैं। मरुस्थल के अन्य जीवों में मकड़े, छिपकली, बिछू, बर्र, चींटी, टिड्डी (locusts), चूहे और बहुसंख्या में कीटभक्षी पक्षी, बीजभक्षी बटेर एवं पंडुकों की प्रधानता है।

संरचना एवं कार्य

मरुस्थलों के विभिन्न अवयव निम्न प्रकार हैं-

अजैविक अवयव : अजैविक पदार्थों में प्रमुखता मिट्टी और वायविक पर्यावरण में उपलब्ध पोषण तत्त्व हैं। अजैविक पदार्थों की मुख्य विशेषता मिट्टी में जैविक पदार्थों की अनुपलब्धता है। जल भी मरुस्थलों में अपवादस्वरूप मिलता है।

जैविक अवयव : जैविक अवयवों के तीन प्रमुख वर्ग है :

(i) उत्पादक जीव : मरुस्थलों के मुख्य उत्पादक कुछ झाड़ियाँ, घास और कुछ वृक्ष हैं। प्रमुख पादपों में गूदेदार पौधे और रूखड़ी एवं कड़ी घासें हैं। इसके अलावा कुछ निचले स्तर के छोटे पौधे एवं कुछ प्रकार की काइयाँ भी रहती है।

(ii) उपभोक्ता : उपभोक्ताओं में प्रमुखता कीट एवं सरीसृप वर्ग की है जो अत्यंत शुष्क दशाओं में रहने के आदी होते हैं। इनके अतिरिक्त nocturnal rodent पक्षी और स्तनपायी कशेरुकी जीव, यथा-ऊँट आदि भी मरुस्थल में पाये जाते हैं।

(iii) अपघटक : अत्यल्प वनस्पतियों की वजह से मृत कार्बनिक पदार्थों की मरुस्थल में न्यूनता होती है। फलतः मरुस्थल में गिनती के अपघटक होते हैं। सामान्यतः यहाँ कुछ बैक्टिरिया और कवक ही अपघटक का काम करते हैं जो उष्णता और अतिशय ताप को सहन करने में सक्षम होते हैं।

महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र

महासागर के पानी में अत्यधिक लवण और खनिज घुले रहते हैं। लगभग 3.5% तक लवण घुला होता है। प्रमुख खनिज आयनों में सोडियम एवं क्लोराइड होते हैं। महासागरों में गंधक, मैग्नेशियम और कैल्शियम के भी आयन मौजूद होते हैं। महासागर में लवण की स्थिति उसकी गहराई, पानी का खारापन, सागर की गहराई और स्थिति के अनुसार बदलती है। यह नदी के मुहानों और ध्रुव प्रदेशों में कम होता है। प्रशांत, अटलांटिक, हिन्द, अर्कटिक एवं अंटार्कटिक महासागर पृथ्वी के 70 प्रतिशत भूक्षेत्र में फैले हुये हैं। इनमें से प्रत्येक महासागर के अपने स्थिर पारिस्थितिक तंत्र है। अपने खारेपन एवं घुले रासायनिक लवणों के कारण मीठे जल की तुलना में महासागरीय जल अधिक स्थिर होते हैं।

महासागरीय पारिस्थितिकी के जैविक अवयव निम्न प्रकार के होते हैं-

(i) उत्पादक : महासागरों में प्राथमिक उत्पादक वैसे स्वपोषी होते हैं जो विकरण द्वारा आयी सूर्य रश्मियों को अपने pigment से ऊर्जा में परिवर्त्तित कर देते हैं। इनमें से अधिकतर डायटोम्स (diatoms) डिनो (dino) फ्लैगलेट्स एवं सूक्ष्म शैवाल की तरह के काइटोप्लैक्टेस होते है। इनके अलावा प्राथमिक उत्पादक में कुछ घास यथा लाल और भूरे शैवाल होते है जो कार्बनिक पदार्थों का उत्पादन करते है। लेकिन सागर की गहराई के अनुसार इनकी उत्पादकता घटती बढ़ती है।

(ii) उपभोक्ता : सभी उपभोक्ता बड़े परपोषी उपभोक्ता हैं जो प्राथमिक उत्पादों को खाकर जीवन-यापन करते हैं

(क) प्राथमिक उपभोक्ता: महासागरों के प्राथमिक उपभोक्ता शाकाहारी होते हैं जो उत्पादकों को सीधे-सीधे खाते हैं। इनमें मछली, पर्पटीय या पपड़ीदार जीव (crustaceans), मोलस्क (molluscs) आदि प्रमुख हैं।

(ख) द्वितीय उपभोक्ता महासागर के द्वितीय उपभोक्ता मांसाहारी होते हैं। ये महासागरीय शाकाहारी जीवों को खाते हैं। इसमें विविध प्रकार की मछलियाँ, हिलसा मछली मक्रील (mackerel) आदि प्रमुख हैं।

(ग) तृतीयक उपभोक्ता तृतीयक उपभोक्ता सर्वोच्च कोटि के मांसाहारी उपभोक्ता होते हैं जो द्वितीय वर्ग के मांसाहारियों को खाते हैं। इनमें मांसाहारी मछलियाँ, जैसे-कॉड, हैडडॉक (Haddock), शार्क और व्हेल आदि प्रमुख हैं।

(iii) अपघटक : महासागरीय अपघटकों में प्रमुखता बैक्टिरियों एवं कुछ कवकों की है। इनमें कुछ सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो उत्पादकों और उपभोक्ताओं के मृत शरीर के जटिल कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करते हैं।

नदियों एवं झरनों की पारिस्थितिकी

नदी एवं झरना स्वच्छ जल के सबसे बड़े भांडार होते हैं। जैवमण्डल की दृष्टि से नदी एवं झरनों का अत्यधिक महत्त्व हैं। नदियों के द्वारा ही भूतल की सामग्रियाँ सागर में ढोयी जाती है। नदी और झरने एक-दूसरे से न केवल पानी के भांडार की दृष्टि से भिन्न होते हैं अपितु इनकी गतियों में भिन्नता होती है। नदियों और झरनों में आक्सीजन की घुली मात्रा में भी फर्क होता है। भौतिक और रासायनिक पैमाने पर भी नदियों नदियों के पानी में अंतर होता है। प्रकृति और जीव एवं वनस्पतियों की संरचना व्यापक स्तर पर नदियों और झरनों के उद्गम एवं उन स्थलों की पारिस्थितिकी पर निर्भर करते हैं, जिन स्थल मार्गों से होकर ये नदियाँ और झरने गुजरते हैं।

बारहमासी नदियाँ और झरने हिमनदों के पिघलने से बनते हैं जिनमें ठंडे पानी का तीव्र प्रवाह होता है। नदियों और झरनों में सामान्यतः प्लैंक्टन नहीं होते। नदी प्रवाह के क्रम में नदी के बाट चौड़े और पानी का वेग घट जाता है। नदीतल में तलछटें जमती हैं और नदियों के तापमान में तब अधिक वृद्धि हो जाती है जब इन पर धूप पड़ती है। प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया एवं जैविक गतिविधियों में तीव्रता आ जाती है। तलछट नदी तल में जमा होना शुरू हो जाती हैं। निम्नस्थलों पर धाराओं की गति बिल्कुल मंद पड़ जाती है। इन क्षेत्रों में प्लैंक्टन, बाथ, फाइटोप्लैंक्टन और जूटप्लैंक्टन पाये जाते हैं। नदियों के जीवों की बनावट और प्रकृति झीलों के जीवों की बनावट और प्रकृति से मिलती-जुलती हुई होती है। विविध प्रकार के सरीसृप, स्तनपायी एवं पक्षी नदियों के जल से अपना भोजन प्राप्त करते हैं।


पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)











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