जैव-भू-रासायनिक चक्र (Bio-Geo-Chemical Cycle)
प्रश्न : जैव-भू-रासायनिक चक्र (Bio-Geo-Chemical Cycle) का
अभिप्राय क्या है? इसके कितने प्रकार हैं? इस पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर
: जीव से भूमि में और भूमि से जीवों के मध्य रासायनिक पदार्थों या यौगिकों का
आदान-प्रदान निरंतर चलता रहता है। जीव और भूमि के बीच रासायनिक पदार्थों या
यौगिकों के आदान-प्रदान के इसी चक्र को पारिभाषिक शब्दावली में जैव-भू-रासायनिक
चक्र (Bio-Geo-Chemical Cycle) कहा जाता है। हमें यह भलीभाँति मालूम है कि पौधे
अपने विकास के लिए सौर ऊर्जा, जल तथा कार्बनडायऑक्साइड के अतिरिक्त मिट्टी से
रासायनिक पदार्थों अर्थात् खनिजों को प्राप्त करते हैं। पौधे और प्राणी विभिन्न
पोषण स्तरों से होते हुए वे खनिज जीवों के नष्ट होने के बाद पुनः मिट्टी में मिल
जाते हैं। ऊर्जा का उपयोग जब जीव एक बार कर लेते हैं तो वह पुनः उपयोग के लिए
उपलब्ध नहीं होती। लेकिन खनिज उपभोग कर लिए जाने के बाद भी अन्य माध्यमों से अन्य
के लिए उपलब्ध हो जाते हैं अर्थात् खनिजों को पौधे बार-बार सोखते हैं और इन पौधों
या उत्पादकों को जब दूसरे जीव खाते हैं तो ये रासायनिक पदार्थ उनमें चले जाते हैं।
जीवों या वनस्पतियों के नष्ट होने के बाद उनमें निहित रासायनिक खनिज भूमि में
विलीन हो जाते हैं और इस प्रकार भूमि से इस पदार्थ को पुनः पौधे प्राप्त कर लेते
हैं। इसे ही जैव-भू-रासायनिक चक्र कहा जाता है। खनिज रसायनों के इस चक्र में भूमि
एक महत्त्वपूर्ण कारक की भूमिका निभाती है अर्थात् यह चक्र भूमि से होकर ही गतिमान
रहता है और चक्रीय रूप में भ्रमण करता है। इसलिए इस प्रक्रिया को जैव-भू-रसायनिक
चळ (Bio-Geo-Chemical Cycle) कहा जाता है। कुछ रासायनिक पदार्थ या खनिज वायुमण्डल
के माध्यम से भी परिभ्रमण करते हैं। उदाहरण के लिए कार्बन और ऑक्सीजन तथा कुछ अन्य
तत्त्वों के चक्रण में वायुमण्डल, स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं सभी प्रकार के जीवों का
योगदान होता है। नाइट्रोजन एक ऐसा पदार्थ है जो यद्यपि वायुमण्डल में मौजूद है
तथापि वह सीधे पौधों द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। नाइट्रोजन सर्वप्रथम ऑक्साइड के
रूप में जल के साथ मुलकर पृथ्वी की तहों में पहुँचता है और फिर नाइट्रेट के रूप
में वह पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। इन रासायनिक खनिजों के इसी पारस्परिक
ग्रहण, त्याग और घुलने की समस्त प्रक्रियाओं को जैव-भू-रासायनिक चक्र कहा जाता है।
जैव-भू-रासायनिक चक्र मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-
(i)
जलीय चक्र (Hydrological Cycle)
(ii)
गैसीय पोषण चक्र (Gaseous Nutrient Cycle)
(iii)
अवसाद (मलबा) पोषण चक्र (Sedimentary Nutrients Cycle)
जलीय-चक्र (Hydrological Cycle)
जल
ही पृथ्वी पर जीवन का स्रोत है। यह बात अक्षरशः सत्य है। जल-मंडल (Hydrosphere) का
मुख्य घटक जल है। जल के मुख्य आगार महासागर, सागर, नदियाँ, झरने, हिमनद, झील, जलाशय,
ध्रुवीय हिमाच्छादन एवं उथले स्थलीय जलागार आदि हैं। इसके अतिरिक्त पानी रिस-रिस कर
धरती की सतह के नीचे भी जमा होता रहता है। धरती की सतह के भीतर पानी का रिसाव वहाँ
रुक जाता है, जहाँ पर से जीवित चट्टानों के स्तर शुरू हो जाते हैं। लगभग 70.8% भूभाग
जल से आच्छादित है। यह जलाच्छादन महासागरों के रूप में है। एक अनुमान के अनुसार लगभग
1,360 मिलियन घन किलोमीटर जल जलमण्डल में है। इस जल का 97% भाग महासागर और अन्तर्देशीय
सागरों में है किन्तु सागरीय जल अत्यधिक लवणीय होते हैं, फलस्वरूप मानवों के उपभोग
के लिए किसी रूप में उपयोगी नहीं है। जल का लगभग 2% भाग हिमनदों या हिमाच्छादनों से
बँका हुआ है। मात्र 1% से भी कम जल ही स्वच्छ जल है। यही जल मानवोपभोग एवं उसके अन्य
कामों के लिए उपयोगी है। भूपृष्ठीय जल के मुख्य स्रोत नदी, झरने, झील एवं जलाशय है।
इसके अतिरिक्त भूतल में भी रिसा हुआ जल संग्रहीत है।
यद्यपि
महासागरीय एवं स्वच्छ जल का सकल भंडार ज्ञात भूगर्भीय इतिहास काल से निरंतर स्थिर रहा
है लेकिन जलवायबिक कारणों से महासागरीय एवं स्वच्छ जल के अनुपात में अंतर आता रहता
है। जिस समय जलवायु अत्यधिक ठंडी होती है उस समय महासागर का पानी हिमनदों और हिमाच्छादनों
द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं। इस अवधि में महासागरीय जल के मूल्य पर स्वच्छ जल
के भंडार में वृद्धि हो जाती है लेकिन जिस समय जलवायु अत्यधिक गर्म हो जाती है, उस
समय हिमनद और हिमाच्छादन पिबलने लगते हैं और महासागर के जलस्तर में वृद्धि हो जाती
है। पिछले कई दशकों में किये गये सर्वेक्षण के आँकडे बताते हैं कि महासागर का जल स्तर
धीरे-धीरे ही सही बढ़ता चला जा रहा है। इसी कारण विश्व के तापमान में भी वृद्धि हो
रही है।
जल
जीवन के लिए अत्यंत जरूरी है। जल का महत्त्व न केवल मनुष्यों के लिए है, अपितु वह पशुओं
और वनस्पतियों के लिए भी अत्यावश्यक है। जल जीवन का ही अभिन्न अंग है। जल ही वह माध्यम
है जिसमें सभी प्रकार की जैव-गतिविधियाँ चलती रहती हैं। जल अपने में पोषण तत्त्वों
को घुला लेता है और इसे कोशिकाओं (cells) तक पहुँचा देता है। जल शरीर के तापमान को
नियमित करता है। जीवन संरचना को जल सहायता पहुँचाता है और हर प्रकार के मलबों को दूर
करता है। शरीर का लगभग 60% हिस्सा पानी ही है। शरीर के पानी की इस मात्रा में किसी
प्रकार की कमी प्राणी के लिए बहुत बड़े संकट का कारण बन जाती है। पानी की कमी जीवन
को खतरे में डाल देती है। मनुष्य बिना भोजन के महीनों जीवित रह सकता है लेकिन पानी
के बिना वह कुछ दिन भी जीवित नहीं रह सकता। इस तरह जल ने प्राणी के जीवन में महत्त्वपूर्ण
स्थान बना लिया है। जल की अवस्थिति ने ही आदिकाल से मनुष्य के आवास, रहन-सहन, सभ्यता
और संस्कृति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
उपर्युक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि जल अजैविक या भौतिक संघटक का एक मुख्य घटक है। जल के बिना पृथ्वी
पर जीवन संभव नहीं है। पारिस्थितिकी तंत्र में जल के माध्यम से ही पोषक तत्त्वों का
आना-जाना और संचरण संभव हो पाता है। जल ही वह साधन है जो जैव-मण्डल (biosphere) में भू-जैव रासायनिक चक्र को सूक्ष्म एवं प्रभावकारी
बनता है। कल एक सर्वोतम विलायक है। प्रकाश संश्लेषण में कार्बनडायऑक्साइड में भी जल
की आवश्यकता हाती है। जल ऊष्मा को अवशोषित करने में सक्षम है। अपने इसी गुण के कारण
यह अपने चतुर्दिक के वातावरण के तापमान को प्रभावित करता है। ओवन का भौतिक आधार जन्द्रव्य
(protoplasma) का लगभग 80 से 90% भाग जल का ही होता है। रक्त संचरण प्रणाली जीवद्रव्य
के संस्लेषण में जल को बड़ी मात्रा काम में आती है। जोषित या हरे-भरे पौधों और वनस्पतियों
के वाष्पोत्सर्जन तथा पशुओं के वाष्पन द्वारा पर्याप्त जल वायुमण्डल में वापस चला जाता
है।
स्वच्छ जल पारिस्थितिकी तंत्र में जल के सभी पहलुओं यथा प्राकृतिक,
रासायनिक, भूगर्भिक एवं जैविक आयामों का अध्ययन किया जाता है। पृथ्वी पर जल दो स्थितियों
में दिखायी देता है-स्थिर (lentic) और गतिशील (lotic) रूप में। अर्थात जल, तालाबों,
जलाशयों आदि में स्थिर या बँधे हुए रूप में स्थिर रहता है जबकि नदी, सागर, महासागर
और इत्रनों में इसका प्रवाहसोल रूप दिखायी पड़ता है। पृथ्वी पर जल की उपलब्धता प्रायः
स्थिर रहती है। सौर ऊर्जा का तृतीयांश जल-चक्र के संचालन में व्यय हो जाता है। महानगरों,
झीलों और सरिताओं तथा नम (आई) मिट्टी की सतह से जल का वाष्पन होता है। जीवों के शरीर
का जल भी बाष्पीकृत होता रहता है। यह वाष्पित जल हो मेघ रूप में वायुमंडल में एकत्र
हो जाता है। बाष्प बादलों के रूप में संघनित होकर हवा के वेग के साथ पृथ्वी-तल के ऊपर
उड़ता-फिरता है। मेघ या बादल वायुमण्डल में जब अत्यधिक ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तो
वे संघनन या शीतलन तथा प्रवण के बाद जल वर्षा या हिमपात के रूप में पुनः पृथ्वी पर
वापस पहुँच जाता है। पृथ्वी से वायुमण्डल में और वायुमण्डल से पृथ्वी पर जल के इस आवागमन
या परिसंचरण को ही जलचक्र कहा जाता है। पृथ्वी पर बरसने वाले जल का कुछ अंश मिट्टी
से रिसकर पृथ्वी के संतृप्ति-क्षेत्र (saturation area) तक पहुँच जाता है। पृथ्वी के
संतृप्ति क्षेत्र में जीवित शैलों के स्तर होते हैं। इस स्तर को बेघ कर पानी भूतल में
उसके और नीचे नहीं जा पाता। सैल-स्तरों के ऊपर भूतल में संग्रहीत जल को भौम-जल-स्तर
(ground water level) कहा जाता है। वर्षा जल के अधिकांश भाग के एक साथ मिलकर बहने से
ही नदियाँ बनती हैं। नदियों से होता हुआ यह जल सागरों और महासागरों तक पहुँचता है और
वाष्पीकरण की प्रक्रिया से वह वायुमण्डल में पहुँचता है। जल के संचरण को इसी आवृत्ति
को ही 'जलीय चक्र' कहा जाता है।
गैसीय चक्र: कार्बनडायऑक्साइड चक्र
वायुमण्डल कई प्रकार के गैसों के मिश्रण से बना हुआ है। इन
गैसों का अलग-अलग महत्त्व है। ये गैस जीवों के लिए विभिन्न रूपों में उपयोगी और आवश्यक
हैं। इन गैसों का प्रकृति में निरंतर अलग-अलग चक्र चलता रहता है।
वायुमण्डल का एक महत्त्वपूर्ण अवयव कार्बन डायऑक्साइड है।
कार्बन जीवों की सेवा दो रूपों में करता है
(1) कार्बन जीवों की संरचना का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है
(2) कार्बन यौगिकों का रासायनिक बंध (chemical bonds) जीवों
के लिए उपचयापचायी (metabolic) ऊर्जा उपलब्ध कराता है।
प्रकाश संश्लेषण से कार्बन-चक्र का प्रारंभ होता है। प्रकाश
संश्लेषण के माध्यम से जीव कार्बन डायऑक्साइड प्राप्त करते हैं। एक बार जब कार्बन के
अणु जैविक अवयवों में प्रविष्ट हो जाते हैं, तब उसका पुनर्चक्रण या तो बहुत तीव्र गति
से होता है या बिल्कुल मंद गति से। फल के रस में घुली चीनी को जब हम पीते हैं तो चौनी के अणु में निहित
कार्बन रक्त प्रवाह से मिल जाता है। यही कार्बन कोशिकीय श्वसन अथवा अधिक जटिल जैविक
अणुओं के बनाने के काम में आता है। चीनी या अन्य खाद्य पदार्थों में निहित कार्बन,
कार्बनडायऑक्साइड के रूप में शरीर से प्रश्वास के माध्यम से बाहर निकल आता है। इस प्रक्रिया
में एक घंटा या उससे भी कम समय लगता है। इस तरह रात में पौधे भी कार्बनडायऑक्साइड उत्सर्जित
करते हैं।
पेय या खाद्य रूप में शरीर में आगत कार्बन कोशकीय संरचना
का अंग बन जाता है। शरीर में निहित कार्बन जीव के मृत्युपर्यंत विद्यमान रहता है। शरीर
से वह सड़न या अपघटन के बाद ही विलग होता है। इस तरह पौधों या वृक्षों की लकड़ियों
में निहित कार्बन सहस्त्राधिक वर्षों तक उसमें संचित पड़ा रहता है। लकड़ियाँ सड़ने
या अपघटित होने के बाद जब बैक्टिरिया के द्वारा पचा ली जाती हैं तब उनके श्वसन के माध्यम
से उप-उत्पाद (byproduct) के रूप में कार्बनडायऑक्साइड उन्मुक्त होता है।
कभी-कभी कार्बन के पुनर्चक्रण में बहुत लम्बा समय लग जाता
है। कोयला या खनिज तेल पौधों या वृक्षों के संपीड़ित और रासायनिक रूप हैं। ये रूपांतरित
सूक्ष्म जीवाणुओं के भी रासायनिक और संपीड़ित (compressed) रूप हो सकते हैं। ये पौधे
या जीवाणु हजारों वर्ष पुराने हो सकते हैं। कोयले और खनिज तेल में निहित कार्बन तभी
उन्मुक्त होता है जब इन्हें (ईंधन के रूप में) जलाया जाता है। इसके साथ उनमें अवस्थित
हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और गंधक आदि भी उन्मुक्त होते हैं। बहुत बड़ी मात्रा
में कार्बन कैल्शियम कार्बनिट के रूप में भी प्रकृति में उपलब्ध है। इसी कैल्शियम कार्बनिट
से समुद्रीय जीवों, यथा लघु प्रोटोजोआ से लेकर प्रवालों तक के कवच और कंकाल बने होते
हैं। विश्व के व्यापक धरातलीय चूने (limestone) का निक्षेप जैविकीय प्रक्रिया से निर्मित
कैल्शियम कार्बनिट ही है। ये कैल्शियम कार्बनिट पुराने महासागरों द्वारा भूगर्भीय परिघटनाओं
के कारण बाहर निकल आते हैं। कैल्शियम कार्बोनेट में कार्बन अरबों वर्ष से बंद पड़े
हुए हो सकते हैं। संभवतः कार्बन सागरीय अवसाद के रूप में सागर में जमा होते हैं। सागरों
की गहराई में जमा कार्बन का पुनर्चक्रण तब होता है जब वे पिघले हुए रूप में ज्वालामुखी
विस्फोटों के रूप में बाहर आते हैं। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार कार्बन के प्रत्येक
अणु ने 4 बिलियन वर्षों में कम-से-कम 30 बार का चक्कर लगाया है।
कार्बन का भण्डार कार्बन कुण्ड (Carbon Sink) में रहता है
जो प्रायः हमारे वन और भूगर्भीय खनिज हैं। जब हम जीवाश्मों को जलाते हैं और वायुमण्डल
में कार्बनडायऑक्साइड छोड़ते हैं अथवा बनों को व्यापक रूप से उजाड़ डालते हैं, तब कार्बन
का प्राकृतिक चक्र प्रणाली का क्रियाशील रहना कठिन हो जाता है। विश्व के बढ़ते हुए
तापमान का मूल कारण यही है। अतिरिक्त वायुमंडलीय कार्बन डायऑक्साइड वृक्षों के त्वरित
विकास में सहायक बनता है और इससे कार्बन के पुनर्चक्रण को भी गति मिलती है।
कार्बन चक्र प्रकृति में एक पूर्ण चक्र है। पर्यावरण से निकलने
वाला कार्बन शीघ्रता से पुनः पर्यावरण में ही वापस लौट जाता है। पृथ्वी के निर्माण
के बाद एक ऐसा समय आया जो भूगर्भविज्ञानियों की दृष्टि में कार्बनीफेरस
(carboniferous period) युग था। इस अवधि में पृथ्वी के नीचे दबे पौधे, पशुओं एवं अन्य
जीवों के अवशेष (जीवाश्म) कोयले, खनिज तेल एवं प्राकृतिक गैस के रूप में परिवर्तित
होकर पृथ्वी की गहराई में एकत्र होते चले गये। इन चीजों को खदानों से निकालकर जब ईंधन
के रूप में जलाया जाता है तब जीवाश्मों में निहित कार्बनडायऑक्साइड के रूप में परिवर्तित
होकर वायुमण्डल में मिल जाता है। कार्बन के उपभोग का मार्ग अत्यंत सीमित है जबकि वायुमण्डल
में इसके लौटने के रास्ते बहुत अधिक हैं। इस तरह पर्यावरण में कार्बन की पुनर्भरण प्रक्रिया
(self regulating feed back mechanism) चलती रहती है। इस प्रक्रिया के कारण पर्यावरण
में एक समस्थैतिक तंत्र (homeostatic system) स्थापित हो जाता है। खाद्य-श्रृंखला के
विभिन्न पोषण स्तरों से गुजरते हुए श्वसन के माध्यम से कुल कार्बन का कुछ अंश सीधे
वायुमंडल में लौट जाता है।
भूगर्भ एवं मौसम विज्ञानी बताते हैं कि बाउंड कार्बन (आबद्ध कार्बन) का आधा भाग अपघटिन होकर मिट्टी में मिल जाता है। जिस समय कल-कारखानों का जाल नहीं बिछा था, उस समय वायुमण्डल, महाद्वीपों एवं समुद्रों के बीच कार्बन का चक्र (प्रवाह) संतुलित अवस्था में था लेकिन नगरों के विस्तार, बढ़ते प्रदूषणों और औद्योगिक विकास के कारण पर्यावरण में कार्बन का संतुलन गड़बड़ा गया।
पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि कार्बन की सर्वाधिक मात्रा कैल्सियम कार्बोनेट और उसके बायोकार्बोनेट आयन के रूप में सागर में मौजूद है। यह भी ज्ञात है कि महासागरों में वायुमण्डल की तुलना में 50 गुना अधिक कार्बन डायऑक्साइड मौजूद रहता है। प्रकाश-संश्लेषण के अन्तर्ग्रहण (intake) के बाद भी वायुमण्डल में कार्बन डायऑक्साइड का स्तर 0.032% तक ही बना रहता है।
वायुमण्डल, जीवों तथा समुद्र के मध्य कार्बनडायऑक्साइड का परस्पर आदान-प्रदान निरंतर चलता रहता है। इसके बावजूद घुला हुआ कार्बन डायऑक्साइड का अधिकांश भाग समुद्र में ताप-प्रवण स्तर के नीचे रहता है। इसलिए वह वायुमण्डल की पकड़ से बाहर हो जाता है। समुद्र का ताप प्रवण स्तर वह स्तर है, जहाँ तापमान एकाएक गिर जाता है। यह स्तर वास्तव में पानी की ही एक परत होता है। यही परत ऊपर के गर्म जल के स्तर को ठंडे जल के स्तर से अलग करती है। अतः समुद्री स्रोत से वायुमण्डल को प्राप्य कार्बनडायऑक्साइड का अंश समुद्र की ऊपरी सतह तक ही सीमित रह जाता है।
नाइट्रोजन-चक्र
जीव एमिनोएसिड, पाचक रस, इरस, (peptides) एवं प्रोटीना के किना जीविता नहीं रह सकते। एमिनोएसिड, पाचक रस एवं प्रोटीन, आदि कार्बनिक अणु हैं जिनमें नाइट्रोजाना होता है। अतः नाइट्रोजन सभी प्रकार के जीवों के जीवन के लिए एक नहत्वपूर्ण पोषक डाल्वया है। नाइट्रोजन घरेलू सामग्रियों और कृषि उर्वरकों क्या एक अनिवार्य अवयवा होता है।। अतिशया उपयोग और उपभोग के बाद भी हमारे आस-पास के वायुनाण्डल में नाइट्रोजन की मात्रा लगभग 78% तक निरंतर बननी रहती है। पौधे या पादप हवा में निवता रूपा ससे उपलब्या नाइट्रोजन के द्विपरमाणुक (N₂) रूप का उपयोग नहीं कर पाते।
पौधों को जटिल नाइट्रोजन चक्र के माध्यम से नाइट्रोजन की
प्राप्ति की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन के यौगिकों को बनानेवाली एक तरह की बैक्टिरिया
होती है (इनमें कुछ नोले-हरे शैवालों या साइनोबैक्टिरिया भी शामिल है।) ये जीवाणु नाइट्रोजन
के यौगिकों के निर्माण में विशेष रूप से दक्ष होते हैं। ये जीवाणु गैसीय नाइट्रोजन
का हाइड्रोजन से संयोग कराकर उसे अमोनिया अर्थात् NH, में बदल देते हैं। कुछ अन्य बैक्टिरिया
अमोनिया का ऑक्सीजन से संयोग कराकर उसे नाइट्राइटस (Nitrites NO₂) में बदल देती है।
वैक्टिरिया का दूसरा वर्ग नाइट्राइटस (Nitrites) को नाइट्रेटस (NO)) में परिवर्तित
कर देती है। इसी नाइट्रेटस को अवशोषित करने तथा अपने लिए उपयोग में लाने में पौधे सक्षम
होते हैं। पौधों की कोशिका ज्यों ही नाइट्रेटस को अवशोषित कर लेती हैं त्यों ही उसे
वह अमोनियम (NH) 4) में बदल देती है। इसी अमोनिया का उपयोग पौधों की कोशिका एमिनो एसिड
बनाने के लिए करती है। इनसे ही पाचकों एवं प्रोटीन के ब्लॉक बनते हैं। शिम्ब
(legumes) परिबार के छिमीदार पादप या कुछ अन्य प्रकार के पौधे जिनकी जड़ों के उत्तकों
(tissues) में वस्तुतः नाइट्रोजन के बैक्टिरिया होती है, खेती के लिए अत्यंत उपयोगी
होती है। छिमीदार लता और पौधों में रहने वाली बैक्टिरिया मृदा को नाइट्रोजन प्रदान
करती है।
छिमीदार पौधों या पादपों को फसलों के साथ चक्रीय क्रम से
उगाने से फसलों को बहुत फायदा पहुँचता है। विशेषकर मकई, दलहन, मटर, एल्काल्का क्लोवर
आदि फसलें अन्य फसलों के लिए उपयोगी सिद्ध होती हैं क्योंकि वे मिट्टी में निहित नाइट्रेटस
को हटा नहीं पातीं।
वायुमण्डल में नाइट्रोजन का कई प्रकार से पुनकेंद्रीकरण
(recenters) होता है। इसका सबसे अधिक सुलभ मार्ग जीबों या जीवाणुओं की मृत्यु है। कबक
और बैक्टिरिया मृत जीवों या जीवाणुओं को अपघटित करते हैं। अपघटन की इस प्रक्रिया में
अमोनिया और अमोनियम आयन मुक्त होते हैं। यही आयन नाइट्रेट के बनाने के लिए पुनः सुलभ
हो जाते हैं। जीव या जीवाणु मरकर पर्यावरण को प्रोटीन नहीं देते। लेकिन पौधे अपने पत्तों,
फूलों, फलों और शंकुफलों को गिराते हैं। पशु अपने केशों को त्यागते हैं। वे अपने खोल
(केंचुल), पंख, चमड़े, सिल्क और प्यूपा को भी त्यागते हैं। जानवर की विष्ठा और मूत्र
में भी नोट्रोजेनस यौगिक हुआ करते हैं। मूत्र में नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती
है। जीवों के ये सभी उपउत्पाद जब अपघटित होते हैं तो मिट्टी की उर्वराशक्ति की क्षतिपूर्ति
हो जाती है।
नाइट्रोजन वायुमण्डल में किस प्रकार अपना चक्र पूरा करके
प्रविष्ट होता है? डिनाइट्रिफाइंग (विनाइट्रीकरण) बैक्टिरिया नाइट्रेटस को तोड़कर
NO₂ एवं नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) के रूप में बदल डालती है और यह गैस के रूप में वायुमण्डल
में लौट जाता है। विनाइट्रीकरण बैक्टिरिया पौधों की जड़ों में नाइट्रेटस बनाती है।
विनाइट्रीकरण जल जमाव बाली मिट्टियों (water logged soil) में अधिक हुआ करता है जिसमें
कम मात्रा में ऑक्सीजन होती है। लेकिन जिसमें अपघटक पदार्थ अधिक मात्रा में होते हैं।
इस प्रकार की मृदा दलदल या कछार वाले क्षेत्रों में जंगली वृक्षों के शीघ्र बढ़ने की
परिस्थितियों के अनुकूल होती है लेकिन खेती योग्य फसलों के लिए इस प्रकार की मिट्टी
उपयुक्त नहीं होती लेकिन धान की फसल जो मुख्यतः नम भूमि की फसल है, के लिए उपयोगी होती
है।
हाल के समय में मनुष्य ने नाइट्रोजन चक्र के साथ बहुत अधिक
छेड़छाड़ किया है। कृत्रिम खादों के उपयोग द्वारा नाइट्रोजन यौगिककृत फसलों को अधिक
मात्रा में उगाकर तथा जीवाश्मों (कोयला और खनिज तेल आदि) को जलाने से अधिक मात्रा में
नाइट्रोजन का उत्सर्जन पर्यावरण में हो रहा है। नाइट्रोजन की यह मात्रा प्राकृतिक प्रक्रमों
से मिलकर और भी बढ़ जाती है। नाइट्रोजन की इस बढ़ती मात्रा के कारण मिट्टी के पोषण
तत्त्वों में बहुत अधिक कमी आती जा रही है। फलस्वरूप कैल्शियम और पोटाशियम की मात्रा
घट रही है लेकिन नदियों और झीलों में अम्ल की मात्रा बढ़ रही है। नाइट्रस ऑक्साइड जैसी
गैसें (जो ग्रीन हाउस गैस कहलाती है) वायुमण्डल में बहुत अधिक बढ़ गयी है। इसके कारण
प्रशाद्वल क्षेत्रों में खरपतवारों (weeds) में वृद्धि होती है जबकि कृषि फसलों के
लिए यह बहुत कम नाइट्रोजन बाला पर्यावरण बनता है। जहरीले शैवालों और डायनोफ्लैलेट्स
के उगने से तटीय क्षेत्रों में नदियों द्वारा अधिक मात्रा में नाइट्रोजन पहुँचायी जाती
है।
पौधे नाइट्रोजन को सीधे ग्रहण नहीं करके उसके यौगिकीकृत रूपों
के माध्यम से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। नाइट्रोजन के यौगिकीकरण तीन तरह से होता
है-
(क) कुछ मुक्त जीवी और सहजीवी (symboitic) जीवाणु एवं हरित
शैवाल नाइट्रोजन के यौगिक तैयार करते हैं
(ख) उद्योगों के माध्यम से, विशेषकर कृत्रिम खादों (उर्वरकों)
में भी नाइट्रोजन के यौगिकीकृत रूप ही व्यवहत होता है तथा
(ग) प्राकृतिक परिघटनाओं यथा बिजली के कड़कने या चमकने से
भी नाइट्रोजन के यौगिक पर्यावरण में तैयार हो जाते हैं।
पर्यावरण में बने नाइट्रोजन के यौगिक वर्षा के माध्यम से
पृथ्वी पर पहुँचते है और वे मृदा की सतहों में चले जाते हैं। मृदा से वे पौधों को प्राप्त
होते हैं। कुछ सूक्ष्म जीवाणु नाइट्रोजन के यौगिक बनाने में अधिक दक्ष होते हैं। कुछ
पौधे अमोनिया के आयन के रूप में नाइट्रोजन को सीधे ग्रहण कर लेते हैं अथवा कुछ विशिष्ट
प्रकार के सूक्ष्म जीवाणुओं (बैक्टिरिया) इन आयनों को नाइट्राइटों या नाइट्रेटो को
ऑक्सीकृत कर देते हैं।
मिट्टी में जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित नाइट्रेट पौधे ग्रहण
करते हैं। इन पौधों को शाकाहारी पशु खाते हैं। शाकाहारी पशुओं को मांसाहारी जीव खाते
हैं। जीवों के मलमूत्रोत्सर्जन एवं उनके मृत शरीर के अपघटन के कारण अमोनिया के रूप
में नाइट्रोजन पुनः मिट्टी में वापस चला आता है। नाइट्रोजन जल में अत्यधिक घुलनशील
है। इस कारण नाइट्रेट की कुछ मात्रा पानी के साथ बहकर नष्ट हो जाती है। जिस तरह मिट्टी
में विनाइट्रीकरणक जीवाणु होते हैं उसी तरह वे समुद्र में भी होते हैं। ये जीवाणु नाइट्रेटों/नाइट्राइटों
को नाइट्रोजन (तत्त्व रूप में) रूप में मुक्त कर देते हैं। यह मुक्त नाइट्रोजन वायुमण्डल
में लौट जाता है। इस प्रकार नाइट्रोजन का चक्र पूरा हो जाता है।
फास्फोरस चक्र
जीवों एवं जीवाणुओं को खनिज चट्टानों से मुक्त होने के बाद
प्राप्त होते हैं। जीवों के लिए दो खनिजों का चक्न विशिष्ट महत्त्व का है। ये खनिज
क्रमशः फास्फोरस और गंधक हैं। उर्वरकों को तैयार करने के लिए फास्फोरस महत्त्वपूर्ण
संघटक (ingradient) क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ऊर्जा सम्पन्न
फास्फोरस के यौगिक ऊर्जा स्थानांतरण की प्रतिक्रिया में मुख्य रूप से भाग लेता है।
पर्यावरण में उपलब्ध फास्फोरस नाटकीय ढंग से उत्पादकता को प्रभावित करता है। फास्फोरस
की अतिशयता से रसीले पौधों (lush) और शैवालों की विकास दर बढ़ जाती है। फलस्वरूप फास्फोरस
जल-प्रदूषण का एक बड़ा कारक बन जाता है।
फास्फोरस चक्र का प्रारंभ फास्फोरस के यौगिकों के चट्टानों
से बाहर निकलने के बाद प्रारम्भ हो जाता है। चट्टानों में फास्फोरस के यौगिक खनिजों
के रूप में चट्टानों में सहस्त्राब्दियों से बंद पड़े रहते हैं। वायुमंडल में फास्फोरस
का कोई रूप उपलब्ध नहीं होता। इसलिए फास्फोरस सामान्यतः जल द्वारा इधर से उधर वाहित
होते हैं। उत्पादक जीव अकार्बनिक फास्फोरस को ग्रहण करते हैं और इन्हें अपने कार्बनिक
अणुओं में संचित कर रख लेता है। पर्यावरण में फास्फोरस अपघटन की प्रक्रिया से वापस
पहुँचता है। फास्फोरस चक्र की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह चक्र अपने माध्यम से
फास्फोरस के परमाणुओं को गुजरने देने में बहुत लम्बा समय ले लेता है। गहरे महासागरों
में अवसाद के रूप में एकत्र फास्फोरस बहुत अधिक पुराना है। महासागर का तल फास्फोरस
का एक वृहत कुण्ड है। खदानों से निकाला गया फास्फेट अयस्क अपमार्जकों (detergent) और
अकार्बनिक उर्वरक बनाने के काम में आता है। सागर में जमा अवसादीरूप फास्फेट अरबों-खरबों
वर्ष पुराना है। आज फास्फेट का प्रयोग इतना अधिक बढ़ गया है कि वह बहकर नदी में जमा
हो रहा है और नदी से होते हुए वह समुद्र में पहुँच जाता है। फलस्वरूप समुद्र के फास्फोरस
की उपचयापचायी क्रिया बहुत अधिक बढ़ जाती है। इसके कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र बुरी
तरह प्रभावित हो रहा है। इसके कारण शैवालों और प्रकाश संश्लेषी बैक्टिरिया की संख्या
में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। इसके चलते पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता में विचलन
उत्पन्न हो गया है।
फास्फोरस एक महत्त्वपूर्ण लवणीय खनिज है। इस खनिज की जरूरत
जीवों को पोषक तत्त्व के रूप में पड़ती है। चट्टानों से अपघटित या विघटित फास्फोरस
मिट्टी में मिल जाता है। पौधे मिट्टी में निहित फास्फोरस को अपनी जड़ में स्थित जल
में घुलाकर खींच लेता है। फास्फोरस से यौगिक बनाकर पौधे अपने शरीर के अवयवों की रचना
करते हैं। पौधों में पहुँचने से पूर्व फास्फोरस फास्फेट के रूप में बदल जाता है। फास्फेट
पौधों से शाकाहारी जीवों में और पुनः उनसे मांसाहारी जीवों में भोजन रूप में पहुँचता
है। प्राणियों और पादपों की मृत्यु के बाद उनके शरीर का फास्फेट सड़ने के बाद जैबीय
फास्फेट में बदल जाता है। यह फास्फेट खनिजीकरण के माध्यम से पुनर्चक्रण हेतु प्राप्त
होता है। फास्फोरस का कुछ अंश चक्रण और पुनर्चक्रण में विनष्ट भी हो जाता है। जो फास्फेट
समुद्र या झील में जमा होता है, वह पौधों की पहुँच से दूर हो जाता है लेकिन दीर्घावधि
के बाद चट्टानी फास्फोरस के रूप में वह पुनः प्राप्त भी होता है।
गंधक चक्र
जीवों में गंधक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। गंधक प्रोटीन
का मामूली किन्तु अनिवार्य अवयव है। गंधक के यौगिक अम्लीय वर्षा के कारण भी बनते हैं।
वायुमण्डल में गंधक की हवा में लटकी बूंदें (droplets) जलवायु को संतुलित रखने में
भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पृथ्वी पर उपलब्ध गंधक का अधिकांश चट्टानों के स्तरों
में पड़ा हुआ है। वह पायरेट (आयरन डायसल्फाइड) या जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट) खनिज के
रूप में उपलब्ध है। सागरतल के मुख तथा ज्वालामुखी विस्फोट से अकार्बनिक गंधक पानी और
हवा में मुक्त होते हैं।
सल्फर चक्र अत्यंत जटिल है। इसकी जटिलता का कारण इसकी अनेक
ऑक्सीकृत (oxidised) अवस्था है। सल्फर के ऑक्सीकरण से ही हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S),
सल्फर डायऑक्साइड (SO₂) सल्फर आयन (SO₂) आदि बनते हैं। अकार्बनिक प्रक्रम गंधक के इन
रूपांतरणों के लिए उत्तरदायी हैं लेकिन सूक्ष्म जीवाणु (living organism) बिशेषकर बैक्टिरिया
भी गंधक को उसके जैविक अवक्षेपों से अलग कर देती है अथवा इसे वायुमण्डल में मुक्त कर
देती हैं। आक्सीजन के केन्द्रण, पी-एच (pH) एवं प्रकाशीय स्तर के आधार पर गंधकीय बैक्टिरिया
के विभिन्न प्रकार निर्भर करते हैं।
पौधे मिट्टी से सल्फेटों के रूप में गंधक अवशोषण के माध्यम
से प्राप्त करते हैं। पौधों में निहित गंधक शाकाहारी जीवों में खाद्य-श्रृंखला के माध्यम
से जाता है। शाकाहारी जीवों के मल त्याग के कारण उनके शरीर से गंधक की अनावश्यक मात्रा
बाहर निकल जाती है। शाकाहारी पशु मांसाहारी द्वारा खाये जाते हैं। इस तरह गंधक उनके
शरीर में पहुँचता है। पशुओं की मृत्यु के बाद खाद्य-श्रृंखला में प्रोटीनों और विटामिनों
में निहित गंधक अपघटन के बाद मुक्त हो जाता है, इस प्रकार मिट्टी में गंधक जमा होते
रहते हैं और मिट्टी से पुनः यह पौधों में पहुँचता है। इस प्रकार गंधक का चक्र अपना
क्रम पूरा कर लेता है।
मानवीय कृत्यों से भी बहुत अधिक मात्रा में विशेषकर जीवाश्म
ईंधन को जलानी के गंधक मुक्त होता है। मानवीय गतिविधियों द्वारा उत्सर्जिता गंधक नैसर्गिक
प्रक्रम द्वता उत्सर्जित गंधक से होड़ लेने लगा है फलस्वरूप अम्लीय वर्षा होने लगी
है। अम्लीय व (सल्फ्युरिक एसिड) के वायुमंडल में जमाव के कारण होती है। वायुमण्डल में
सल्फ्युरिक एसिड के जमाव के कारण कल-कारखानों में प्रयुक्त होने वाली जीवाश्म ईंचना
का प्रयोगा है।। सल्फर डायऑक्साइड और सल्फेटों की अधिकता के कारण मानव स्वास्थ्य के
लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। इसने भवनों और वनस्पतियों को भी क्षति पहुँचाकी
है तथा इससे मनुष्य की दृष्टिमंदता में भी वृद्धि हुई है। ये पराबैंगनी
(ultravoilet) विकिरणों को भी सौख लेते हैं और बादलों का आच्छादन बनाते हैं जिससे शहरों
में ठंडक बढ़ जाती है।। यह कार्बन डायऑक्साइड (CO₂) की मात्रा को बढ़ाकर ग्रीन हाउस
प्रमावा के खतरे में भी वर्द्धतती करता है।
महासागरीय फाइटोप्लैंक्टन के जैवीय गंधक का उत्सर्जन वैश्विक जलवायु के नियमना का भी काम करता है। जिस महासागर का पानी गर्म होता है अत्यंत लघु एकलकोशीका जीवाणु डायमिथाइल सल्फाइड (dimethyl sulphide) को उत्सर्जित करता है जिल्ल गंधक का वायुमण्डल में ऑक्सीकरण (oxidized) SO, एर्व SO, के रूफा म होता है।। गंधक के ऑक्सीकृत रूप बादलों के संघनित बूंदों और केन्द्रक के रूप में कार्यों करता है जिससे पृथ्वी की प्रत्यावर्तन क्षमता बढ़ जाती है। फलस्वरूप पृथ्वी ठंडी होने लगती है। महासागर को जब कम धूप (सूर्य का प्रकाश) मिलती है, तब उसका तापमाना निह जाता है।। फलस्वरूप फाइटोप्लैक्टन गतिविधि घटती है। डायमिथाइल सल्फाइड काा उत्पादना वाट जाता है और बादल तिरोहित हो जाते हैं। इस प्रकार डाय मिथाइल सल्फाइड (DMS) जो जैवीय गंधक के उत्सर्जन का लगभग आधा भाग होता है वह पुनः पर्यावरणा को शप्ता को जाता है तथा यह तापमान को जीवन के अनुकूल स्तर तक बनाये रखने में उपयोगी सिद्ध होता है।
पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)