पर्यावरणीय प्रदूषण (Environmental Pollution)
प्रश्न : पर्यावरण प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? पर्यावरण प्रदूषण
को पारिभाषिक दृष्टि से विवेचित करें।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण का अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य के इच्छित या अनिच्छित, जाने या
अनजाने में किये गये क्रियाकलापों द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र में इतना अधिक
परिवर्तन आ जाता है कि वह परिवर्तन मनुष्य की सहन-शक्ति को पार कर जाये, तब उसे
पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इस असहनीय पर्यावरणिक परिवर्तनों के फलस्वरूप पर्यावरण
की प्राकृतिक गुणवत्ता में आवश्यकता से अधिक ह्रास होने लगता है। पर्यावरण की
गुणवत्ता में ह्रास का मनुष्य और समाज पर दूरगामी हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
पारिभाषिक शब्दावली में पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास के फलस्वरूप मानव-समाज के
लिए उत्पन्न हानिकारक समस्या को ही पर्यावरण प्रदूषण कहा जाता है।
पर्यावरण
प्रदूषण को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि मनुष्य जाने या अनजाने पर्यावरण में
कुछ पदार्थों या ऊर्जा को उसमें डालता रहता है। मनुष्य द्वारा पर्यावरण में अनेक
प्रकार के अपशिष्ट पदार्थ फेंके जाते हैं। मनुष्य द्वारा अनेक प्रकार से पर्यावरण
में जब अतिशय ताप, विकिरण एवं ध्वनि ऊर्जा उत्सर्जित किया जाता है, तब पर्यावरण का
संतुलन नष्ट हो जाता है। पर्यावरण के इस असंतुलन का जीव सहित समस्त प्राकृतिक
अवयवों पर हानिकारक कुप्रभाव पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण में नाना प्रकार का
संसर्गीय दूषण (contamination) भी शामिल होता है।
प्रदूषण दो प्रकार के होते हैं-प्राथमिक प्रदूषण और द्वितीय
प्रदूषण। जब प्रदूरक पदार्थों के पर्यावरण में मिलते ही उसका तात्कालिक प्रभाव सामने
आ जाता है, तब इस प्रकार के प्रदूषण को 'प्राथमिक प्रदूषण' कहा जाता है। द्वितीय प्रकार
का प्रदूषण नमी, अन्य प्रदूषकों और धूप आदि की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है। प्रदूषण
वैश्विक भी हो सकता है या फिर स्थानीय। प्रदूषण क्षेत्रीय और अन्तर्देशीय भी होता है।
प्रदूषण का प्रभाव प्रत्पना का अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में पड़ता है। प्रदूषण के प्रभाव
का अनुभव तुरंत भी हो सकता है या कुछ समय बाद भी प्रदूषण का प्रभाव स्थायी हो सकता
है और अस्थायी भी। वायुमंडल, जलमंडल, महासागर, भौम जल और मृदा का प्रदूषण आज की सामान्य
वात है। कभी-कभी प्रदूषण कुछ जीवों और उत्पादकों तक सीमित रह सकता है। प्रदूषण का प्रभाव
अल्पावधिक और दीर्घावधिक हो सकता है। प्रदूषण से कई प्रकार की मानवीय, जैविक और पर्यावरणिक
संकट उत्पन्न हुआ है। प्रदूषण विषैला भी हो सकता है प्रदूषण रासायनिक, जैविक, विकिरणिक,
तापीय, प्रकाशीय, ध्वनिमूलक, धूलजनित और दुर्गंधात्मक समस्याओं वाला होता है।
1970 ई. में मैसाच्युसेट्स इन्स्टीट्युट ऑफ टेक्नालॉजी ने
अपने अध्ययन और शोष के आधार पर लिखा था कि उद्योगों में उत्पादन के क्रम में और उत्पादित
पदार्थों के उपभोन की प्रत्येक अवस्था में अपशिष्ट पदार्थों का भी उत्पादन हो जाता
है। इन अपशिष्ट पदार्थों के कारण पर्यावरण के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
ये अपशिष्ट पदार्थ प्रदूषक (pollutants) के कारक बन जाते हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव
वायुमण्डल, महासागरीय एवं स्थलीय पर्यावरण पर पड़ता है।
हवा, जल एवं मृदा में भौतिक, रासायमिक एवं जैविक में से किसी
एक या अनेक अथवा उनके समवेत प्रभावक गुणों के कारण पर्यावरण में आये अवांछित परिवर्तन
को ही प्रदूषण कहा जाता है। इस अवांछित परिवर्तन का कारण प्रायः स्वयं मनुष्य होता
है जिसका प्रतिकूल हानिकारक प्रभाव न केवल स्वयं पर पड़ता है अपितु सम्पूर्ण परिवेश
के प्राकृतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों पर पड़ता है। ये निष्कर्षात्मक विचार
पर्यावरणा विद् ई. पी. ऑडम के हैं जिन्होंने उपर्युक्त स्थितियों को प्रदूषण के रूप
में निरूपित किया है।
इससे पूर्व वर्ष 1965 ई. में ही संयुक्त राज्य अमेरिका में
राष्ट्रपति विज्ञान समिति की पर्यावरण उपसमिति ने प्रदूषण को इस प्रकार व्याख्यापित
किया "प्रदूषण मानवीय कृत्यों का ही परिणाम है। उसके कृत्यों के फलस्वरूप कुछ
ऐसी चीजें बनती हैं (by products) जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ऊर्जा के ढाँचा
में, विकिरण स्तर में, जीवों के भौतिक एवं रासायनिक संरचना में प्रतिकूल परिवर्तन लाता
है। यह परिवर्तन मानव मात्र को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इसके
प्रतिकूल प्रभाव से जल-संसाधन और जैविक उत्पाद भी अछूते नहीं रह पाते।"
(Pollution is The unfavourable alteration of our surroundings wholly or largely
as a byproduct of man's action, through direct or indirect effects of changes
in energy, patterns, radiation level, chemical or physical constitution and the
abundance of organisms quoted in.)
एक अन्य पर्यावरण विज्ञानी के. सी. अग्रवाल की नजर में
"वायु, जल, मृदा आदि के गुणों में अवांछित परिवर्तन ही प्रदूषण है। इस प्रदूषण
के कारण स्वास्थ्य के लिए भयानक खतरा उत्पन्न हो जाता है। प्रदूषण ने जीवों के जीवित
रहने के सुरक्षा कवच को तोड़ दिया है।"
(Undesirable change in the physical, chemical or
biological characteristic of Air, Water and Soil that may create a hazard or
potential hazard to health, safety or welfare of living species is called
pollution.)
पर्यावरण प्रदूषण की रूपरेखा को रोचक शैली में श्याम सरन
अग्रवाल 'विक्रम' ने प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि पृथ्वी को 24-25 कि. मी. तक
की मोटाई का वायु आवरण लपेटे हुए हैं। इनमें से 15-16 कि. मी. तक की वायु-पट्टी डोषोस्फीयर
(toposphere) कहलाती है। इसी पट्टी से हमें जीवनोपयोगी विभिन्न गैरों मिलती है जिनमें
78% नाइट्रोजन, और 21 प्रतिशत ऑक्सीजन गैस हैं शेष एक प्रतिशत गैस में ही जलवाष्प,
रजकण, सूक्ष्म जीवाणु, सूक्ष्म परागकण (pollen), आर्गन, नियान, कार्बन डायऑक्साइड,
हिलियम, क्रिप्टन, और ओजोन आदि गैसें हैं। इनमें से नाइट्रोजन वनस्पति जैसे जैवों के
लिए तो ऑक्सीजन, मनुष्यों, पशुओं और पक्षी आदि जीवों के लिए उपयोगी और प्राणवायु है
लेकिन मानवीय कृत्यों ने इनको गंदला कर दिया है। इनके संतुलन को बिगाड़ दिया है। इसी
प्रकार जल जीवन के लिए कितना आवश्यक है, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन पानी
के प्रत्येक स्रोत को गंदे नाले, उद्योगों के भपशिष्ट आदि ने पूर्णतः प्रदूषित कर दिया
है। वायु को उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुआँ, गैस आदि ने, नाना प्रकार के
वाहनों में खनिज तेलों के दहन से उत्पन्न जहरीली गैसों ने यथा, सल्फर ऑक्साइड, नाइट्रोजन
ऑक्साइड, कार्बनमोनोऑक्साइड, मर्करी, एस्बेटस, सीसा, अमोनिया, कोबाल्ट, आर्सेनिक और
रेडियोधर्मी गैसों ने प्रदूषित कर दिया है।
पर्यावरण पर प्रदूषण तब तक हानिकारक प्रभाव नहीं डालता, जब
तक कि वह पर्यावरण को अवशोषण क्षमता की सीमा को पार नहीं कर जाता। इसका अर्थ यह है
कि सीमित अवस्था में छेड़छाड़ तो पर्यावरण बर्दाशत कर लेता है और धरती एवं जीयों कों
उसके हानिकारक प्रभाव से बचा लेता है लेकिन ज्यों ही यह छेड़छाड़ सीमा का उल्लंघन करती
है पर्यावरण प्रदूषण का भयानक परिणाम सामने आने लगता है। यदि समय रहते पर्यावरण प्रदूषण
पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो उससे शनैः शनैः अथवा एकबारगी जटिल
समस्या उत्पन्न हो जायेगी। पर्यावरण की प्रदूषण अवशोषण क्षमता के हास की भरपाई यदि
असंभव नहीं तो अतिशय कठिन अवश्य है। इसलिए पर्यावरण प्रबंधन में लगे व्यक्तियों और
निकायों के लिए इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि प्रकृति और पर्यावरण से छेड़छाड़
की सीमा अतिक्रमित नहीं होने पाये।
पर्यावरण प्रदूषण के नियंत्रण के लिए उसकी मानिटरिंग तकनीक
में सुधार की आवश्यकता है। आज से कुछ दशक पहले तक जो तकनीक सुरक्षित समझी जाती थी,
आज उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है। चिन्ता की बात यह भी है कि पर्यावरण सुरक्षा
की जो प्रविधि वर्त्तमान समय में अपनायी जा रही है भविष्य में उसकी कोई उपयोगिता नहीं
रह जायेगी। प्रदूषकों के लिए एक 'सुरक्षित पृष्ठभूमि का स्तर' आगे चलकर आहार-श्रृंखला
के उच्च स्तर पर जीवों के लिए खतरनाक वन जा सकता है। इसका कारण यह है कि कुछ जीवाणु
कुछ प्रदूषकों को खा जाते या अवशोषित कर लेते हैं। कुछ प्रदूषक उच्चवर्गीय जीबों (मानव
सहित) के ऊतकों में जाकर जमा हो जाते हैं। डी. डी. टी. और पोलीक्लोरिनेटेड वाइफिनाइल
(पी सी बी) बसा में स्ट्रोल्टियम 90 जैसे रेडियो आइसोटोप अस्थियों में और रेडियो आयोडिन
टेंटुआ में जाकर जमा हो जाते हैं। ये प्रदूषक आस-पास के ऊतकों को प्रभावित कर क्षतिग्रस्त
कर सकते हैं। सर्वप्रथम प्रदूषक या अपशिष्ट पानी में बहाये जाते हैं अथवा ये वायुमंडल
में पहुँचते हैं। ये दोनों आपस में मिल भी जाते हैं। हवा में उड़ती धूल पानी में गिरकर
बैठ जाती है। प्रदूषित जल वाष्पित होकर वायुमण्डल में पहुँच जाता है। प्रदूषित पानी
रिसकर भौम जल में जाकर मिल जाता है जो बाद में ऊपर आ जाता है। अतः इन सब तथ्यों को
ध्यान में रखकर ही पर्यावरण प्रदूषण की नियंत्रण-नीति अथवा प्रविधि विकसित की जानी
चाहिए।
प्रदूषक क्या हैं :
पर्यावरण या पारिस्थितिकी के संतुलन
में व्यतिक्रम उत्पन्न करने वाले कारकों को ही प्रदूषक (pollutants) कहा जाता है। इन
प्रदूषकीय कारकों के कारण ही पर्यावरण प्रदूषित होता है।
प्रमुख प्रदूषकों का विवरण :
प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(i) प्राकृतिक एवं
(ii) मानविक।
जो प्रदूषण प्राकृतिक परिघटनाओं जैसे बिजली के कौंधने, ज्वालामुखी
फटने अथवा भूकम्पीय प्रभाव के कारण उत्पन्न होते हैं, उन प्राकृतिक परिघटनाओं को ही
'प्राकृतिक प्रदूषक' कहा जाता है।
लेकिन पर्यावरण में सर्वाधिक असंतुलन और व्यतिक्रम का कारण
मानव-निर्मित प्रदूषक हैं। मनुष्य नित्य प्रति कूड़ा, कचरा, घर की अन्य गंदगियाँ खुले
में फेंका करता है। इससे ज्यादा प्रदूषण फैलने में औद्योगिक कल-कारखानों, स्वचालित
वाहनों, कीटनाशकों, अस्पतालों के अपशिष्ट तथा कल-कारखानों के अपशिष्टों का जल-स्रोतों
में वहा दिया जाता है। कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुआँ या गैस रिसाव भी
प्रमुख प्रदूषक का काम करते हैं। ये सब प्रदूषक मानवीय कृत्यों के उपउत्पाद हैं और
पर्यावरण प्रदूषण में इन सबका सबसे बड़ा योगदान है। पर्यावरण प्रदूषण की मुख्य समस्या
इन्हीं मानवीय कृत्यों के उपउत्पाद जनित प्रदूषक द्वारा उत्पन्न की जा रही है।
प्रमुख प्रदूषकों की दो कोटियाँ 'युनाइटेड स्टेट्स क्लीन
एयर एक्ट आफ 1970, में बतायी गयी हैं। ये दो कोटियाँ हैं-
(i) प्राथमिक प्रदूषक एवं
(ii) द्वितीय प्रदूषक।
प्राथमिक प्रदूषक अत्यंत हानिकारक रूप में मुक्त हुआ करता
है। द्वितीय कोटि का प्रदूषक विलम्ब से संकट उत्पन्न करता है। जब कुछ चीजें हवा से
प्रतिक्रिया करती हैं तो वे खतरनाक प्रदूषक बन जाती हैं और इनका प्रभाव तत्काल नहीं,
बहुत बाद में जाकर दृष्टिगोचर होता है। फोटोकेमिकल ऑक्सीडेंट (जो यौगिक सूर्य की ऊर्जा
के संयोग से बनते हैं) तथा वायुमण्डलीय अम्ल (atmospheric acid) संभवतः सर्वाधिक खतरनाक
द्वितीय कोटि के प्रदूषक हैं। अस्थायी उत्सर्जन धुओं के साथ वायुमण्डल में नहीं पहुँचता
अपितु वह मिट्टी के अपरदनों (soil erosion) से खुले खदानों से, पत्थरों के चटकने से,
भवन निर्माण अथवा भवनों के तोड़ने से उड़नेवाली धूलों के रूप में इस तरह का प्रदूषक
वायुमण्डल में पहुँचता है।
मुख्य प्रदूषक प्राकृतिक और मानव निर्मित ही हैं। मानव निर्मित
प्रदूषकों के मुख्य स्त्रोत-उद्योग, कृषि और बढ़ती हुई आबादी है।
(1) औद्योगिक स्त्रोत : आजकल दुनिया भर में नाना प्रकार के उद्योगों का विस्तार
हो चुका है। इन उद्योगों में नित्य प्रति की उपयोगी वस्तुओं से लेकर आराम एवं विलासिता
की सामग्रियों का उत्पादन होता है। वस्त्र, उद्योग, प्रसाधन उद्योग, खाद्य वस्तु उद्योग,
चमड़ा उद्योग, औषधि उद्योग, यंत्र निर्माण उद्योग, उर्वरक उद्योग, कीटनाशक दवा उद्योग
आदि उद्योगों में नित्य प्रति विपुल मात्रा में अर्थात् अनुमान से परे मात्रा में गैस,
अम्ल युक्त धुआँ, ठोस अपशिष्ट, धूलें एवं निलम्बित ठोस कण, रसायन मिश्रित जल आदि हवा,
पानी एवं धरती के अन्दर रिस रहे हैं। आज रक्षा सामग्रियों के निर्माण के कारखानों की
संख्या भी बढ़ गयी है। इनमें परमाणु ऊर्जा का व्यापक उपयोग होता है। परमाणु धमन भट्ठियाँ
(atomic reactor), परमाणविक अख परीक्षण केन्द्र तथा परमाणु बिजली घरों के कचरे एवं
अपशिष्ट पर्यावरण को अनेक रूपों में सांघातिक तौर पर प्रदूषित कर रहे हैं। टी. वी.
और कम्प्यूटर के कचरों में उसमें प्रयुक्त कैडिमियम नामक पदार्थ ने विश्व में भयानक
पर्यावरणिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न कर दी है।
इस प्रकार खदानों से नाना प्रकार के खनिज निकाले जाते हैं।
इन खनिजों की तकनीक के उपउत्पाद और अर्जशष्ट भी समूने पंर्यावरण को पवित कर रहे हैं।
अतः मानवजनित प्रदूषकों में औधोगिक स्रोतों का मुख्य हिस्सा
है, ऐसा कहा जा सकता है।
(ii) कृषि स्रोत : पहले
की खेती और आज की खेती में बहुत अन्तर आ गया है। पहले उपज बढ़ाने के लिए कम्पोस्टों
का उपयोग होता था, आज उपज के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता बढ़ गयी है। इन रासायनिक
उर्वरकों के उपयोग से अन्न प्रदूषित हो रहे हैं।
अन्न आदि में इन रसायनों का समावेश हो रहा है। उपभोग के बाद
ये मानव शरीर एवं अन्य जीवों में पहुँच कर जानलेवा बीमारियाँ फैलाकर भयानक समस्याएँ
उत्पन्न कर रहे हैं। इनमें से सबसे खतरनाक वे कीटनाशक रसायन हैं जो कीटों से रक्षा
के लिए फसलों पर छिड़के जाते हैं। ये तो लगभग सीधे-सीधे मानव या जीव जंतु के शरीर में
गहुँच कर उनमें अनेक प्रकार के सांघातिक आवयविक विकार उत्पन्न कर रहे हैं।
(iii) बढ़ती हुई आबादी स्रोत: आज हर देश की आबादी बढ़ती जा रही है। घरों एवं
भवनों का निर्माण इस तरह हो रहा
है कि मनुष्य स्वच्छ वायु में खुली साँस लेने के लिए तरस गया है। इससे सांसर्गिक प्रदूषण
पर्यावरण में बढ़ रहा है। मनुष्य निम्नलिखित रूपों में पर्यावरण को प्रदूषकों का भण्डार
बना रहा है।
(क) औद्योगिक बहिर्साय (Industrial effluents)
(ख) घरेलू कचरा (Domestic effluent)
(ग) वाहित मल (Sewage)
(घ) कृषि वहिःस्त्राव (Agriculture effluents)
(ङ) तैलीय स्रोत (Oil effluent)
(च) तापीय स्रोत (Thermal source)
(छ) रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Radioactive waste)
(ज) खनन अपशिष्ट (Mining waste)
(ज) परिवहन अपशिष्ट (Transportation waste)
वायु प्रदूषण (Air Pollution)
वायु प्रदूषण वायु में बाहरी पदार्थों की सांद्रता का आधिक्य
है। वायु प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वायु प्रदूषण सम्पत्तियों
को भी नुकसान पहुँचाता है। हम जहाँ कहीं भी रहते हों कमोबेश वहाँ की बायु प्रदूषित
होती है। आज से पूर्व बायु के जिन प्रदूषकों से मनुष्य का परिचय था, उनमें धुआँ, वाष्प,
राख और गैस प्रमुख थे। इन सभी प्रदूषकों की उत्पत्ति की मूल प्रकृति रही है। ज्वालामुखियों
के विस्फोट से निकलने वाली गैसें, लावा एवं अन्य पदार्थ, जंगलों की आग (दावानल), आँधियों
के कारण उड़ती धूलें, आदि प्रदूषक प्राकृतिक कारणों की ही उपज हैं। लेकिन वायु प्रदूषण
की वास्तविक समस्या की शुरूआत तब हुई जब मानवीय-स्रोतों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषक वायु
में संघनित होने लगे। वायु प्रदूषण के सभी आयामों पर विचारोपरांत विभिन्न देशों की
विभिन्न, संस्थाओं और संगठनों ने वायुप्रदूषण को परिभाषाबद्ध किया है।
'विश्व
स्वास्थ्य संगठन' (World Health Organisation) के अनुसार
"मनुष्यों द्वारा हवा में डाले गये पदार्थों की वैसी सांद्रता जो न केवल उसके
स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाती है अपितु वह वनस्पतियों और सम्पत्तियों को भी नुकसान पहुँचाती
है, वायु प्रदूषण कहलाती "(Substances put into air by the activity of
mankind into concentration sufficient to cause harmful effect to his health.
vegetables, property or to interfere with the enjoyment of his property.)
भारतीय
मानक संस्थान (Indian Standards Institute) की दृष्टि
में वायु प्रदूषण आसपास के वातावरण में मनुष्य के क्रियाकलापों के चलते निर्मित पदार्थों
की हया में लम्बे समय तक विपुल मात्रा में सान्द्रता है जो मनुष्य के सुख चैन, स्वास्थ्य,
कल्याण एर्व सम्पत्ति के सुखपूर्वक उपभोग को नुकसान पहुँचाता है, वायु प्रदूषण कहलाती
है (Air pollution is the presence in ambient atmosphere of substances,
generally resulting from the activity of man, in sufficient concentration,
present for a sufficient time and under circumstances which interfere
significantly with the comfort, health or welfare of persons or with the full
use of enjoyment of property.)
वायुमण्डल
पृथ्वी का प्रावरण है। वायुमण्डल रूपी प्रावरण नाना प्रकार की गैसर्सी, निलम्बित द्रव
एवं ठोस पदार्थों से बना हुआ है। वायुमण्डल का वितान सैकड़ों मील ऊपर तक है। लेकिन
शुद्ध वायु तो पृथ्वी-तल के निकट की ही है। शुद्ध वायु रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन
होती है। इसमें प्राकृतिक तत्त्वों के अतिरिक्त कोई बाह्य तत्त्व अर्थात् मानव निर्मित
कोई पदार्थ नहीं होता। वायुमण्डल में अनेक प्रकार की गैसें और जलवाष्प हैं। वायुमण्डल
की निचली परत में प्रदूषणरहित शुष्क हवा होती है जिसमें मुख्यतः नाट्रोजन, ऑक्सीजन,
आर्गन और कार्बन डायऑक्साइड गैस हैं। कुछ गौण गैसें, जैसे नियॉन, हीलियम, मिथेन, हाइड्रोजन,
कार्बन मोनोऑक्साइड और ओजोन आदि हैं। शुष्क वायु में चार मुख्य गैसों, यथा नाइट्रोजन,
ऑक्सीजन, आर्गन, और कार्बन डायऑक्साइड का कुल प्रतिशत 99% है। शेष गैसें 1% के भीतर
ही हैं जिनमें किसी का भी प्रतिशत 0.02% अधिक नहीं है। वायुमण्डल में सर्वाधिक 78%
नाइट्रोजन है और लगभग 21% ऑक्सीजन है। लगभग 0.03% कार्बन डायऑक्साइड गैस है, शेष निष्क्रिय
गैसें हैं।
स्वच्छ
वायु (अर्थात् अप्रदूषित ऑक्सीजन) मानव के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमारी
साँसों के माध्यम से ऑक्सीजन गैस फेफड़ों में प्रवेश करती है। यह गैस रक्तशोधक है।
खून को साफ करती है। स्वच्छ हवा के शरीर से स्पर्श से नीरोग रहने में मदद मिलती है।
त्वचा के साथ जब ठण्डी हवा का स्पर्श होता है तब उसके अन्दर की छोटी ग्रंथियाँ चेतन
रहती हैं और शरीर को रोग के प्रकोप से बचाती हैं। अतः खुली हवा में टहलना और खुले स्थान
पर साँस लेना रक्त कोशिकाओं को ऑक्सीजन से भरना एक स्वस्थ जीवन का प्रारंभ है। यदि
वायु में जीवनदायक गुण हैं तो उसमें जीवन को क्षति पहुँचाने वाले तत्त्व भी हैं। एक
आदमी दिन-रात मिलाकर औसतन 22,000 बार साँसें लेकर लगभग 16 किलोग्राम वायु ग्रहण करता
है। यदि श्वासों के साथ अशुद्ध वायु का प्रवेश होने लगेगा तो निश्चय ही इससे मनुष्य
के स्वास्थ्य को अनेक प्रकार से नुकसान पहुँचेगा।
वायु
प्रदूषकों के स्रोत : वायु प्रदूषकों का स्रोत प्राकृतिक
और मानवीय दोनों प्रकार का हो सकता है। वायु के प्राकृतिक प्रदूषकों में ज्वालामुखी
विस्फोट, दावानल (जंगल की आग), विकिरण रजकण (धूल), परागकण, रेत की ऑधियाँ, हाइड्रोजन
सल्फाइड, कार्बनिक पदार्थों के वातनिरपेक्ष अपघटन, आदि प्रमुख हैं जबकि वायु के मानवीय
स्रोत जनित प्रदूषकों में प्रमुखता जीवाश्मीय ईधनों का दहन विभिन्न प्रकार के वाहनों
से उत्सर्जित गैसें त्वरित उद्योगीकरण,
कृषि सम्बन्धी गतिविधियाँ, युद्ध आदि (युद्ध में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के आग्नेयाख
एवं विस्फोटकों के प्रयोग) की है।
वायु प्रदूषकों का वर्गीकरण :
वायु प्रदूषकों को तीन वर्गों में बाँटा गया है - (1) उत्पत्ति
की दृष्टि से (2) रासायनिक यौगिक की दृष्टि से तथा (3) पदार्थ की स्थिति (अवस्था) की
दृष्टि से।
(1) उत्पत्ति के अनुसार वायु प्रदूषक: उत्पत्ति के विचार से वायु प्रदूषकों को दो कोटियों में
रखा गया है (i) प्राथमिक कोटि और (ii) द्वितीय कोटि।
(i) प्राथमिक वायु प्रदूषक :
प्राथमिक वायु प्रदूषक वे प्रदूषक
हैं जो सीधे वायुमण्डल में जाते हैं और उसी रूप में वायुमण्डल में विद्यमान रहते हैं,
जिस रूप में वे वहाँ पहुंचते हैं। पृथक्कीकृत (particulate) कार्बन मोनो ऑक्साइड, गंधक
के ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड,
हाइड्रोकार्बन्स,
रेडियोधर्मी, यौगिक,
धातुकर्म, परागकण, एवं बैक्टिरिया पाँच प्रमुख वायु प्रदूषकों का वैश्विक वायुप्रदूषण में लगभग 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
(ii) द्वितीय वायु प्रदूषक : द्वितीय प्रकार वे वायु प्रदूषक के वायु प्रदूषक है जो वायुमण्डल
में दो या दो से अधिक प्राथमिक वायु प्रदूषकों के पारस्परिक संयोग की प्रतिक्रियाओं
से उत्पन्न होते हैं। द्वितीय कोटि के वायु प्रदूषक सामान्य वायुमण्डलीय संघटक भी हो
सकते हैं। ये संघटक रेडियोधर्मिता युक्त या उनसे रहित भी हो सकते हैं। ओजोन ,
परऑक्सीएसीटिल नाइट्रेट (PAN), फार्मलडिहाइड, अम्लीय कुहासा, कुहरा कोयले के धुआँ या प्रकाश रसायन धुआँ, इत्यादि द्वितीय कोटि के वायु प्रदूषक हैं।
(iii) पदार्थों की अवस्था की दृष्टि से : पदार्थों की अवस्था की दृष्टि वायु प्रदूषकों को कणीय प्रदूषक (particulates) एवं गैसीय वायु
प्रदूषक के रूप में जाना जाता है। कणीय वायु प्रदूषक को अंतिमतः ठोस एवं गैसों में
छितरायी दशा में तरल के रूप में बाँटा गया है। धूल, धुआँ, उड़ती हुई राख (fly
ash), अवनालिकाएँ (flumes) आदि ठोस पदार्थ की विविक्तियों के उदाहरण हैं। कुहासा, नाना
प्रकार के छिड़काव, कोहरा एवं बेंजीन, मिथेन, बुटेन, एल्डीहाइड्स, कीटोन्स एवं अकार्बनिक
गैसें जैसे आदि गैसों के कणीय प्रदूषकों के उदाहरण हैं।
वायु प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
जो वायु हमारे लिए प्राणदायी है, वही वायु प्रदूषित होने
पर प्राणघातिनी हो जाती है। सामान्य मनुष्य प्रतिदिन लगभग 22,000 बार साँस लेता है।
इस प्रकार वह लगभग 16 कि. ग्रा. वायु साँसों द्वारा ग्रहण करता है। साँसों द्वारा गृहीत
अशुद्ध या प्रदूषित वायु मानव-स्वास्थ्य को अनेक प्रकार से हानि पहुँचा सकती है। प्रदूषित
वायु का मानव-स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभारः, प्रदूषण की प्रकृति एवं वायु में घुली
प्रदूषण की सांद्रता पर निर्भर करता है। इसका प्रभाव प्रदूषित वायु में रहने की अवधि
और व्यक्ति विशेष की आयु पर भी निर्भर है। रासायनिक प्रदूषकों की मात्रा और प्रकृति
का भी मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रासायनिक प्रदूषक कितनी मात्रा
में वायु में मौजूद हैं, यह बात भी महत्त्वपूर्ण है। बच्चे, वृद्ध, वयस्क और फेफड़ों
था हृदय रोग से ग्रसित व्यक्ति पर प्रदूषित वायु का असर ज्यादा और तीव्रता के साथ पड़ता
है। शीत ऋतु में वायु प्रदूषण की प्रतिकूलता में तेजी आ जाती है। मानव-स्वास्थ्य पर
प्रदूषित वायु के अन्य विविध प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(1) नाइट्रोजन के ऑक्साइड, ओजोन,परऑक्सीएसीटिल
नाइट्रेट (PAN), कुहासा आदि के कारण
आँखों में भयानक प्रदाह (जलन) हो सकता
है।
(2)
गंधक के ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, कीटनाशकों के कारण नाक एवं गलें में प्रदाह
हो सकता है।
(3)
H2S, SO2, NO2 एवं हाइड्रोकार्बन जैसे गैसीय प्रदूषकों
के कारण दुर्गंधजनित कष्ट हो सकते हैं। इनकी वायु में थोड़ी सी उपस्थिति भी परेशानी
का कारण बन सकती है।
(4)
श्वसन द्वारा शरीर में प्रविष्ट होने पर प्रदूषक में पाये जाने वाले बड़े कण श्वसन
नली के ऊपरी भाग की श्लेष्मा भित्तियों में रुक जाते हैं, परन्तु छोटे कण फेफड़े तक
पहुँच जाते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसा समझा जाता है कि सबसे खतरनाक वायु प्रदूषण
विषैली गैसों की वजह से होता है। विशेषकर SOx, NOx, O3
और CO3 का श्वसन नली पर सर्वाधिक बुरा असर पड़ता है।
(5)
प्रदूषित वायु, मृत्यु एवं रुग्णता की दर में निरंतर वृद्धि कर रही है।
(6)
अनेक प्रकार के कण, विशेषकर परागकणों के कारण दमा का आक्रमण हो सकता है।
(7)
वायु में सल्फर ऑक्साइड (SO2) नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO2) वायु
में निलम्बित अनेक प्रकार के कण एवं प्रकाशीय रसायन युक्त कुहासों के जमाव के कारण
पुराना फुफ्फुसीय रोग (pulmonary), ब्रंकाइटिस एवं दमा का प्रकोप उग्र हो जा सकता है।
(8)
कार्बन मोनोऑक्साइड ऑक्सीजन से दो सौ गुना अधिक प्रतिक्रियाकारक है। अतः जब वह हीमोग्लोबिन
के साथ रक्त में मिल जाता है, तो हृदयरोगियों एवं फेफड़ों की बीमारियों से रुग्ण व्यक्तियों
के लिए प्राणघातक बन जाता है। इसी तरह नाइट्रिक एसिड भी हीमोग्लोबिन से प्रतिक्रिया
कर रक्त के ऑक्सीजन वहन की क्षमता को बहुत कम कर देता है।
(9)
हाइड्रोजन फ्लोराइड से फ्लोरिसिस होने की संभावना बढ़ जाती है जो दंत-क्षय का कारण
बन जाता है।
(10)
हवा में विद्यमान पोली कार्बनिक यौगिकों एवं एलिफैटिक हाइड्रोकार्बनों आदि के कारण
कैंसर भी हो सकता है।
(11)
धूलकणों से श्वास-संबंधी विशेष प्रकार की बीमारी यथा, सिलिकोसिस (सिलिका के धूलकणों
के कारण), एसबेसटोसिस (एस्बेस्टस के धूलकणों के कारण) हो सकती है।
(12)
शीशा जैसी भारी धातु (गाड़ियों से निकलने वाली गैस) फेफड़ों के माध्यम से शरीर में
पहुँच जा सकती है जिसके विषैले प्रभाव से शरीर को अनेक प्रकार के रोग हो सकते हैं।
अगर शरीर में अधिक मात्रा में शीशा जमा हो जाय तो गुर्दा (kidney) और यकृत (liver)
दोनों खराब हो जा सकते हैं। इससे स्त्री की प्रजनन क्षमता भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित
हो सकती है। बच्चे इसके कारण मानसिक अपविकास के शिकार हो सकते हैं।
(13)
रेडियोधर्मी समस्थानिकों यथा आयोडिन, 131, फास्फोरस - 32, कोबाल्ट - 60, रेडियम
226 आदि के कारण रक्ताल्पता (anemia) से मनुष्य ग्रसित हो सकता है। उपर्युक्त रेडियोधर्मी
पदार्थ रक्त में लौहकण की मात्रा को घटा देते हैं। इनके कारण ल्युकेमिया (लालरक्त कण
की कमी), कैंसर और अनुवांशिक रोग हो सकते हैं।
वायु प्रदूषण का पौधों पर प्रभाव
पानी और मिट्टी के प्रदूषण की अपेक्षा वायु प्रदूषण अधिक
हानिकारक है। इसका कारण यह है कि वायु प्रदूषण सीमित क्षेत्रों तक नहीं रह पाता और
उसका तेजी के साथ प्रसार होता है। जीवों के लिए यह भी संभव नहीं है कि वह साँस रोककर
अधिक देर तक शरीर में वायु प्रदूषणों को पहचाने से रोक सके। लेकिन मनुष्य और पशुओं की अपेक्षा पौधे
चामु प्रदूषण से शीघ्र ही संक्रमित हो जाते हैं क्योंकि पौधे लायु प्रदूषण के
प्रति कई गुना अधिक संवेदनशील होते हैं। प्रदूषण से जंगलों का विनाश होता है और
फसलों की क्षति से पूरे विश्व की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है।
वायु प्रदूषकों में सर्वाधिक
हानिकारक प्रभाव डालने वाले विषाक्त पदार्थों में सल्फर डायऑक्साइड मुख्य है।
हसेलहाफ एवं लिपडाव ने 1903 ई. में सर्वप्रथम वायु प्रदूषण से पौधों के विषैले हो
जाने का आकलन प्रस्तुत किया था। गंधयुक्त प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयला और खनिज
तेल जलाने से सल्फर डायऑक्साइड पैदा होती है। ताप-विद्युत केन्द्र, पेट्रोलियम
रिफाइनरी तथा खाद कारखाने इसके मुख्य स्त्रोत हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय
कोयले में । से 4% तक गंधक होता है जिसका 95% भाग जलकर सल्फर डायऑक्साइड बन जाता
है। पहले भी बताया जा चुका है कि अन्य महत्त्वपूर्ण वायु प्रदूषक फ्लोराइड,
नाइट्रोजन डायऑक्साइड, ओजोन तथा परआक्सी एसिटिल नाइट्रेट (PAN) हैं। फ्लोराइड
प्रदूषण औद्योगिक क्षेत्रों में फ्लोराइडयुक्त संसाधनों से पैदा होता है। इसके
मुख्य स्रोत अल्युमिनियम के कारखाने हैं। स्वचल वाहनों एवं शोधक कारखानों से
नाइट्रोजन डायऑक्साइड निकलता है। नगरीय वातावरण में नाइट्रोजन डायऑक्साइड सौर
ऊर्जा के प्रभाव से ओजोन बन जाता है।
वायु प्रदूषण का पौधे पर दो प्रकार
का प्रभाव पड़ता है-
(1) प्रत्यक्ष और (2) अप्रत्यक्ष।
1. प्रत्यक्ष प्रभाव : प्रत्यक्ष प्रभाव भी दो प्रकार का
होता है- (i) तीक्ष्ण और (ii) दीर्घकालीन। तीक्ष्ण प्रभाव का अर्थ है कि पौधे की
कोशिका भित्तियाँ शीघ्रता के साथ असंतुलित हो जाती हैं। फलस्वरूप कोशकीय पदार्थ
समाप्त हो जाते हैं, और कोशिकाएँ मर जाती हैं। दीर्घकालीन लक्षण पौधों में सामान्य
कोशिकीय क्रियाओं के क्रमशः प्रभावित होने पर उत्पन्न होते हैं। पत्तियों में
धीरे-धीरे हरियाली कम होती जाती है और अंत में वे रंगहीन हो जाती हैं और उसमें
तीक्ष्ण क्षति जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। पत्तियों का जल्दी झड़ जाना भी
दीर्घकालीन लक्षण का प्रमाण है जो थोड़े से प्रदूषण में भी अधिक समय तक रहने से भी
दिखायी देता है।
2. अप्रत्यक्ष प्रभाव : वायु प्रदूषण के कारण पौधों की
कार्यात्मक तथा जैवरासायनिक क्रियाओं में अवांछित परिवर्तन होता है। इसके कारण
पौधों की वृद्धि और विकास रुक जाता है तथा पौधों की उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर
भी प्रभाव पड़ता है। वैसे पौधों में कोई अन्य लक्षण गोचर नहीं होता। प्रयोगशाला
जाँच से ही पता चल पाता है कि पौधों के प्रकाश-संश्लेषण की क्षमता में भी ह्रास
होता है। फलस्वरूप उपज घट जाती है। कोयले के धुएँ से प्रभावित गेहूँ की पैदावार
लगभग 12% से अधिक घट जाती है, और दोनों के रासायनिक एवं जैवरासायनिक गुण बदल जाते
हैं।
वायु प्रदूषकों का पौधों पर
अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ता है और उसकी बहुत सी सी क्रियात्मक एवं जैव रासायनिक
क्रियाओं में भी असर पड़ जाता है।
वायु प्रदूषकों का पौधों पर प्रभाव
की मात्रा उसकी पत्तियों द्वारा गैस अवशोषण की क्षमता पर निर्भर करती है।
पत्तियों के अधोभाग में उसका
मुखछिद्र होता है। इसी मुखछिद्र (stomata) के माध्यम से पत्तियाँ गैसों का अवशोषण
करती हैं। पत्तियों का मुखछिद्र जितना अधिक खुला रहेगा, पत्तियाँ उतनी ही अधिक
मात्रा में गैसों का अवशोषण करेंगी। इसी मुखछिद्र के द्वारा पत्तियाँ कार्बन
डायऑक्साइट का अवशोषण करती हैं तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का सम्पादन करती
हैं। दिन में पत्तियों का मुखछिद्र अधिक खुला होता है और रात में कम खुला रहता है।
पत्तियों का मुखछिद्र जब अधिक खुला होता है तब उसके माध्यम से उसके भीतर अधिक प्रदूषित वायु का प्रवेश होता है। रात में अधिकांश पौधों
की पत्तियों के मुखछिद्र बंद हो जाते हैं, इसलिए उनकी प्रतिरोधक क्षमता भी बहुत
अधिक होती हैं। पौधों को जो वायु प्रदूषक हानि पहुंचाते हैं उनमें सल्फर
डायऑक्साइड, ओजोन (०) फ्लोराइड, नादायक (NO), परऑक्सीएसीटिल नाइट्रेट (PAN), इथीलिन,
अमोनिया (NH3) मर्करी, घूम और वनस्पतिनाशक (Herbecidos) प्रमुख हैं।
ये प्रदूषक पौधों की वृद्धि, उत्पादन क्षमता एवं प्रकाश
संश्लेषण की क्षमता में डास लाते हैं। धूल और धूम या कोहरे के कारण पत्तियों तक
पर्याप्त मात्रा में सूर्य की किरणें नहीं पहुँच पात्ती हैं। इनके कारण पत्तियों
के मुखछिद्रों के बंद हो जाने से पत्तियों द्वारा कार्बनडायऑक्साइड के अवशोषण की
क्षमता भी घट जाती है। वनस्पतियों की प्रजातियों की भिन्नता के अनुसार वायु
प्रदूषकों का उन पर प्रभाव में भी भिन्नता आ जाती है। कुछ पौधे फ्लोराइड के प्रति
अति संवेदनशील होते हैं। इसके विपरीत वे सल्फर डायऑक्साइड के प्रति प्रतिरोधी भी
होते हैं। वायु प्रदूषकों के प्रति पौधों या वनस्पतियों की संवेदनशीलता जलवायु की
परिस्थितियों, (यथा प्रकाश-प्राप्ति (ग्रहण) की अवधि, तापमान, आर्द्रता और प्रकाश
की संघनता), मृदा, जल एवं उर्वरकता पर निर्भर करती है।
पशुओं पर वायुप्रदूषक का प्रभाव और परिणाम
मानव जीवन पर वायु प्रदूषण के पड़ने वाले विषैले प्रभाव से
उसका नितांत भिन्न प्रभाव पशुओं पर पड़ता है। पशुओं पर वायु प्रदूषण का प्रभाव दो
तरह से पड़ता है-
1. वनस्पतियों एवं चारा (forage) में एकत्र वायु प्रदूषकों
का पशुओं पर पड़नेवाला प्रभाव, तथा
2. पशुओं द्वारा वायु प्रदूषण से संक्रमित वनस्पतियों और
चारा को खा लेने के बाद उन पर पड़ने वाला प्रभाव।
पशुधन को निम्नलिखित वायु प्रदूषक सर्वाधिक क्षति पहुँचाते
हैं-
फ्लोरिन :
फ्लोरिन का सबसे ज्यादा विषैला प्रभाव बाड़े में रहने वाले पशुओं, मवेशियों और
भेड़ों पर पड़ता है। घोड़े फ्लोरिन के प्रति प्रायः प्रतिरोधी होते हैं जबकि
मुर्गियाँ उसके प्रति बाड़े में रहने वाले अन्य पशुओं से अधिक प्रतिरोधी होती हैं।
फ्लोरिन का विषैला प्रभाव आवर्तीमूलक होता है। यदि फ्लोरिन अधिक मात्रा में पशुओं
द्वारा ग्रहण कर लिये जाएँ तो इसका उन पर बड़ा बुरा असर पड़ता है। फ्लोरिन से
प्रभावित पशुओं की भूख मर जाती है। वे मंदाग्नि से पीडित हो जाते हैं। वजन बढ़ने
लगता है। उनमें पंगु होने के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। वे लँगड़े हो जाते हैं।
बीच-बीच में वे लगातार डायरिया से भी पीड़ित होने लगते हैं। उनकी माँसपेशियाँ
कमजोर पड़ जाती हैं। उनके दाँत सड़ने लगते है और अंततः वे मृत्यु के मुँह में समा
जाते हैं।
सीसा (Lead): सीसा के दीर्घकालीन विषैले प्रभाव अक्सर पशुओं में देखे जाते हैं। पशु जब
सीसे के कल-कारखानों तथा सीसा के खदानों के निकट घास आदि चरते हैं तब सीसा उनके
शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। सीसा का पशुओं पर घातक प्रभाव पड़ता है। उनको साँस
लेने में कठिनाई होने लगती है तथा उनपर पक्षाघात का आक्रमण होता है। यदि पशुओं के
भीतर अधिक मात्रा में सीसा जम जाय तो वे अचानक पक्षाघात और श्वासारोध के शिकार हो
जाते हैं।
संखिया (आर्सेनिक)
पशु यदि अधिक मात्रा में आर्सेनिक का उपभोग कर लें तो कुछ
ही घंटों में उनकी मृत्यु हो जा सकती है। आर्सेनिक के कारण पशुओं के मुख से अतिशय
मात्रा में लार चूने लगता है।
अत्यधिक लार-साव के कारण उनकी प्यास
बढ़कर उग्र रूप धारण कर लेती है। उन्हें कै लगती है। उनको नाड़ी की गति सामान्य से
बहुत अधिक बढ़ जाती है। उनके शरीर का तापमान भी असामान्य रूप से बढ़ जाता है। फलतः
कुछ ही घंटों के अन्दर उनकी मृत्यु हो जाती है। आर्सेनिक पशुओं में कफ, डायरिया, रक्ताल्पता,
गर्भपात, पक्षाघात आदि असाध्य बीमारियों की संभावना बढ़ा देती है।
वायु-प्रदूषण और उसके नियंत्रण का उपाय
वायु में अत्यधिक मात्रा में बाह्य
पदार्थ की उपस्थिति वायु प्रदूषण कहलाती है। प्रदूषित वायु का मानव-स्वास्थ्य और सम्पत्तियों
पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। विभिन्न कारणों से वायु प्रदूषित हो जाती है। सृष्टि
के आरंभिक काल में वायु मुख्यतः प्राकृतिक कारणों और कारकों (factors) से प्रदूषित
हुआ करती थी। वाष्प, धुआँ, राख, ज्वालामुखी विस्फोटों से उत्सर्जित राख, लावा और गैस,
दावानल (जंगल की आग), बालू, धूल, आँधी एवं अन्य प्राकृतिक कारणों से हवा प्रदूषित होती
थी। उस समय बायु के यही मुख्य प्राकृतिक प्रदूषक (natural pollutants) थे। लेकिन वायु
प्रदूषण की वास्तविक समस्या का आरंभ तब से हुआ, जब से मानव ने वायु में प्रदूषक पदार्थों
को डालना प्रारंभ किया। आगे चलकर प्राणि-जगत ही वायुमंडल में प्रदूषण डालनेवाला मुख्य
स्त्रोत बन गया। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की परिभाषा के अनुसार- "मानवीय कृत्यों
और गतिविधियों के कारण वायुमंडल में अधिक मात्रा में जमा हुए बाह्य पदार्थों ने वायु
को इस सीमा तक प्रदूषित कर दिया कि उसका प्रतिकूल प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य, वनस्पतियों
एवं सम्पत्तियों पर पड़ा। वायु में इस प्रकार के पदार्थों की अवांछित उपस्थिति ही वायु
प्रदूषण कहलाती है।"
विश्व में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण और
उसके कारण सम्पूर्ण जैव मण्डल के लिए उत्पन्न संकट के प्रति पर्यावरणविदों ने गंभीर
चिन्ता प्रकट की और उन्होंने वायु प्रदूषण की मात्रा को कम करने, उसकी रोकथाम एवं नियंत्रण
के उपायों पर विचार-विमर्श शुरू किया। उन्होंने प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार
पर लक्ष्य किया कि स्वयं प्रकृति ने अपने भीतर कुछ ऐसे प्राकृतिक उपाय विकसित कर रखा
है कि उनके माध्यम से वायु बहुत बड़ी सीमा तक गंदगी, बाह्य पदार्थों की उपस्थिति एवं
अन्य प्रदूषकों से मुक्त हो जाती है।
प्रकृति द्वारा स्वनिर्मित वायु स्वच्छीकरण
के साधनों में प्रमुख हैं परिक्षेपण या फैलाव, गुरुत्वाकर्षणीय जमाव (settlement),
पदार्थों का गुच्छीकरण (fluccese), अवशोषण (absorption), वर्षा-वहन एवं अधिशोषण
(adorption)।
जब तेज गति से हवा चलती है या आँधी
आती है, तब स्थान विशेष के वायुमण्डल में विद्यामान प्रदूषक या बाह्य पदार्थ दूर-दूर
जाकर छितरा जाते हैं और इस तरह स्थान विशेष का वायु प्रदूषण कम हो जाता है। इस प्रकार
के प्राकृतिक छितराव, फैलाव या बिखराव को प्रकृति निर्मित वायु स्वच्छीकरण का एक साधन
समझा जाता है। लेकिन इस प्राकृतिक उपाय से वायु प्रदूषण से सर्वथा मुक्त नहीं हो पाती
अपितु प्रदूषक एक स्थान से दूसरे स्थान तक मात्र स्थानांतरित भर हो जाते हैं।
वायु को प्रदूषण से मुक्त करने में
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल भी सहायक बनता है। गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वायुमण्डल
में विद्यमान भारी पदार्थ खींचाकर पृथ्वी पर चले आते हैं और वे पृथ्वी की सतह पर बैठ
जाते हैं। वायुमण्डल में गुच्छीकरण या ऊर्णन की प्रक्रिया भी चलती रहती है। इस प्रक्रिया
में एक बड़े कण के इर्द-गिर्द छोटे कण जमा हो जाते हैं। इस प्रक्रिया के कारण कणों
का लच्छा या गुच्छा बन जाता है। ये लच्छे या गुच्छे इतने भारी हो जाते हैं कि हवा उनका
बोझ ढो नहीं पाती। फलस्वरूप वे गुरुत्वाकर्षण बल के खिंचाव के कारण पृथ्वी की सतह पर
आकर बैठ (settle) जाते हैं। इस प्रक्रिया में बड़ा कण छोटे कणों के लिए ग्राहक
(percipator) का काम करता है। वायु स्वच्छीकरण का एक प्राकृतिक साधन 'अवशोषण' भी है।
इस प्रक्रिया में कण या गैसीय प्रदूषक (gaseous pollutants) वर्षा या कुहरा द्वारा
अवशोषित (absorbed) कर लिये जाते हैं। वर्षा या कुहरा की नमी (moisture) द्वारा वे
गैस सोख लिये जाते हैं। प्रकृति के स्वच्छीकरण की इस प्रक्रिया को पारिभाषिक शब्दावली
में घुलाई (washout) या सफाई कहा जाता है। लेकिन वायुमण्डल के स्वच्छीकरण की यह प्रक्रिया
मात्र पृथ्वी की सतह के निकटवर्ती बादलों में ही चलती है।
जब वर्षा होती है तब उसकी तेज धार में
बहुत से वायु प्रदूषक बह जाते हैं। वर्षा द्वारा वायुमण्डल की सफाई प्रकृति की एक महत्त्वपूर्ण
सफाई प्रक्रिया है। जब वर्षा होती है तब वायुमण्डल में उपस्थित प्रदूषक कण बादलों के
संपर्क में आकर 'संघनित केन्द्रक' (condensation nuclie) के रूप में कार्य करने लगते
हैं। इन केन्द्रकों के इर्द-गिर्द जल की बूँदें बनती हैं। इसके चलते वर्षा में वृद्धि
होती है किन्तु देहाती क्षेत्रों में घना कुहरा भी बनता है।
अधिशोषण (adorption) की प्रक्रिया वायुमण्डल
के घर्षण क्षेत्र (friction area) में होती है। इसका आशय यह है कि यह प्रक्रिया पृथ्वी
की सतह से सटे वायुमण्डल की परतों में चलती है। इस प्रक्रिया के कारण प्रदूषक पदार्थ
(pollutants) मिट्टी, पत्थर, पत्तों और घास की पत्तियों आदि पर इकट्ठे होकर वहीं रह
जाते हैं।
यद्यपि प्रकृति किसी-न-किसी उपाय से
वायुमण्डल को स्वच्छ बनाने के काम में स्वयं जुटी रहती है लेकिन वर्तमान काल में वायु
प्रदूषणा की गहनता और सघनता इतनी अधिक बह गयी है कि उसकी सफाई में प्रकृति असहाय हो
गयी है। इसलिए वर्तमान युग के मनुष्य को स्वयं आगे बढ़कर वायुमण्डल के स्वच्छीकरण का
उपाय ढूँढना पड़ा है। उसने वायु प्रदूषणा के नियंत्रण के लिए अनेक उपाय ढूंढ निकाले
हैं तथा अनेक ऐसे उपकरण (device) और प्रविधि (mechanism) आविष्कृत कर लिये हैं जिनसे
कुछ सीमा तक वायु प्रदूषण को रोकथाम संभव बनी है। वायु प्रदूषण को उसी स्थान पर रोकना
या नियंत्रित करना आवश्यक होता है जो स्थान उसके उद्गम स्थल होते हैं। अभी तक चार प्रकार
के उपायों और विधियों का विकास किया जा सका है जिनके द्वारा वायुमण्डल में उत्सर्जित
प्रदूषकों (emitted pollutants) को जाने से रोका जा सकता है। ये निम्नलिखित हैं-
1. स्त्रोत-स्थानों को प्रसृत करना : वायु प्रदूषण को रोकने या नियंत्रित करने के लिए उसके प्रदूषक
स्त्रोत (source of pollutants) को फैला या प्रसूत कर दिया जाता है। स्लोत को फैलाने
या प्रसूत करने का मतलब यह है कि एक ही स्थान पर उद्योगों का सघन जाल नहीं फैलाया जाय
अपितु उद्योगों को एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर के स्थलों पर योजनाबद्ध ढंग से विकेन्द्रित
कर स्थापित किया जाय।
2. तन्चीकरण (Dilution) : तन्वीकरण का अभिप्राय है प्रदूषकों के गाढ़ापन को कम करना।
उद्योगों और ताप विद्युत-घरों की चिमनियों से बहुत अधिक मात्रा में गाढ़ा धुआँ निकलता
है जिसमें अनेक प्रकार के पदार्थों के भारी कण हुआ करते हैं। कम ऊँचाई की चिमनियों
से निकलनेवाले सांद्र धुओं के प्रदूषक पृथ्वी के अत्यंत समीपवर्ती वायुमण्डल में फैल
जाते हैं और भयानक समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। इसीलिए उद्योग लगानेवालों एवं ताप-विद्युत
घर बनानेवालों को सलाह दी जाती है कि वे चिमनियों की ऊँचाई पृथ्वीतल से बहुत ऊपर रखें।
इस तरह अधिक ऊँचाई पर निकलनेवाला धुआँ वायुमण्डल की उस सतह के पास पहुँच जाता है जहाँ
वायु का बहाव क्षैतिज एवं ऊर्ध्व दिशा में बहुत अधिक होता है लेकिन इसकी अधोमुखी गति
बहुत ही कम होती है। इस तरह चिमनियों से निकलनेवाला प्रदूषक पृथ्वीतल तक बहुत कम मात्रा
में पहुँच पाता है तथा उसका अधिक अंश ऊपरी वायुमण्डल में विस्तृत एवं व्यापक क्षेत्र
में फैल जाता है। तन्वीकरण (dilution) के इस उपाय के अवलम्बन से स्रोत या उद्गम स्थल
के निकट प्रदूषकों के अधिक जमाव एवं सांद्रता की संभावना क्षीण हो जाती है।
3. प्रदूषकों के उद्गम स्थल की प्रक्रिया में निम्नलिखित परिवर्त्तन लाकर वायु-प्रदूषण की मात्रा या गहनता कम की जा सकती है -
(i) कच्ची सामग्रियों के उपयोग-विधि में परिवर्तन : कल-कारखानों में वस्तुओं के उत्पादन के निमित्त अनेक प्रकार
की कच्ची सामग्रियों का उपयोग होता है। इन कच्ची समाग्रियों में से बहुतेरी ऐसी होती
हैं जिनसे अधिक प्रदूषण उत्पन्न होता है। यदि ऐसी कच्ची सामग्रियों की जगह उन कच्ची
सामग्रियों को काम में लाया जाय जिनसे कम मात्रा में प्रदूषण उत्पन्न हों तो इस परिवर्तन
के द्वारा प्रदूषण में न्यूनता लायी जा सकती है। वाष्पशील कोयला एक ऐसी कच्ची सामग्री
है जिसका कल-कारखानों में बहुधा उपयोग होता है लेकिन कोयला बहुत धुआँ उत्पन्न करता
है। यदि ईंधन के रूप में अधिक वाष्पशील (volatile) कोयले की जगह कम वाष्पशील कोयले
का उपयोग किया जाय तो इससे धुआँ भी कम निकलेगा और कालिख भी कम बनेगी।
(ii) ईंधनों में परिवर्त्तन : कल-कारखानों में ऐसे ईंधन का उपयोग करना जिनसे कम गंधक और राख
उत्पन्न हो। प्रदूषण कम करने का यह एक अच्छा उपाय है। कोयले जैसे ईंधनों की जगह प्राकृतिक
गैसों के उपयोग से राख, धुआँ और गंधक के कण उड़कर वायुमण्डल में प्रवेश करेंगे।
(iii) प्रक्रिया में सुधार : कल-कारखानों के ज्वलनशील पदार्थों का निस्तार एक कठिन कार्य
होता है। अक्सर इस काम के लिए दाहित्रों का उपयोग किया जाता है लेकिन इसका एक अच्छा
विकल्प है कि ज्वलनशील पदार्थों को स्वच्छ करके भूमिगत कर दिया जाय।
(iv) उपकरणों में सुधार और उनका रख-रखाव : काम करते-करते कल-कारखानों के उपकरण एवं यंत्र आदि घिस जाते
हैं। वे अच्छे ढंग से काम नहीं कर पाते। साथ ही उनसे प्रदूषण फैलने की संभावना बढ़
जाती है। यदि समय-समय पर उपकरणों की साफ-सफाई, देखरेख, मरम्मत और रखरखाव का काम होता
रहे तो वायुमण्डलीय प्रदूषण में गुणात्मक सुधार हो सकता है।
(v) उद्गम स्थल पर नियंत्रक उपकरणों की स्थापना (Installation Erection) : वायु-प्रदूषण के जो उद्गम स्थल है,
उन्हीं जगहों पर बायु प्रदूषण नियंत्रक उपकरणों की 'स्थापना द्वारा' वायुमण्डलीय प्रदूषण
की रोकथाम में बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। पर्यावरण विज्ञानियों की दृष्टि में वायुमण्डलीय
प्रदूषण नियंत्रण का यह सबसे सफल, प्रभावी एवं सर्वोत्तम उपाय है। वर्तमान समय में
अनेक प्रकार के 'वायु प्रदूषण नियंत्रक उपकरण' उपलब्ध हैं। उद्गमस्थलों और प्रदूषण
की प्रकृति और प्रकार के अनुरूप उपकरणों की स्थापना के द्वारा वायु-प्रदूषण को वश में
किया जा सकता है।
उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त पर्यावरण
विज्ञानियों ने निम्नलिखित अन्य चार प्रकार के सिद्धांत सामने रखे है
(i) प्रदूषक मानक सिद्धांत
(ii) वायु मानक सिद्धांत
(iii) प्रदूषण दण्ड सिद्धांत
(iv) प्रभावलक्षी व्यय सिद्धांत।
अभी तक वायु-प्रदूषण के नियंत्रण के
जिन उपायों और विकल्पों की चर्चा की गयी है उन सबका प्रायः संबंध उद्योग-धंधों से फैलनेवाले
वायु प्रदूषणों से है। परन्तु आधुनिक युग में वायु-प्रदूषण का एक मुख्य माध्यम मोटरगाडी
(automobile) हो गये हैं। कुछ ऐसे छोटे-छोटे उद्योग भी हैं जिनका वायु प्रदूषण में
कम योगदान नहीं है। ऐसे उद्योगों में ईंट भट्ठा, मिट्टी के बर्तन बनाने का आवाँ आदि
प्रमुख हैं। जंगल में लगी आग भी वायु को मयानक रूप से प्रदूषित करती हैं। वायु प्रदूषण
के इन माध्यमों को नियंत्रित करके वायु प्रदूषण में न्यूनता लायी जा सकती है। इसके
लिए निम्नलिखित उपाय किया जाना चाहिए-
(1 ) पुराने ईंजन वाले वाहनों से अधिक
धुँआ निकलता है जिसमें विषैला कार्बन मोनोक्साइड होता है। सर्वप्रथम पुराने ईजन को
तुरत बदलवा देना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। पुरानी गाड़ियों में धुओं को छानने के
लिए छलनी लगायी जानी चाहिए। इंजनों को भली-भाँति ट्यून करवा देना जरूरी कर दिया जाना
चाहिए। वाहनों में सीसा एवं गंधक रहित पेट्रोल का ही उपयोग होना चाहिए। डीजल में भी
संयोजी पदार्थ मिलाया जाना चाहिए।
(2) घरों में लकड़ी, कोयला और गोबर
से बने उपलों जैसे परंपरागत ईंधनों की जगह प्राकृतिक गैस के चूल्हों के उपयोग को प्रोत्साहित
किया जाना चाहिए।
(3) ईंट के भट्ठों और मिट्टी के बर्तन
आदि बनाने के आवाँ आबादी से बहुत दूर में लगाया जाना चाहिए।
(4) वायु प्रदूषण के नियंत्रण का एक
प्रभावक्षम उपाय रूपांतरण भी है। रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा हानिकारक रसायनों की
प्रकृति बदली जा सकती है। इस दिशा में अभी अधिक शोध की आवश्यकता है।
(5) वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने
के लिए निःसादन और अधिशोषण आदि विधियाँ विकसित की जा चुकी है। इन विधियों और उपकरणों
की सहज और सस्ती उपलब्धि पर सरकार एवं संस्थाओं को ध्यान देना चाहिए।
(6) जंगल में लगी आग अनेक दृष्टि से
भयावह है। जंगल में लगी आग से वायु प्रदूषण एक अनुषंगी घटना है। अतः जहाँ कहीं भी जंगल
में आग लगी हो, उसे तुरत बुझा दिया जाना चाहिए। जंगल में आग न लगे, ऐसे उपाय किये जाने
चाहिए।
(7) वायु प्रदूषण के नियंत्रण के लिए देश
में कठोर कानून बनाकर उसे लागू करवाया जाना चाहिए। वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी लोगों
को कठोर दंड देने का प्रावधान हो लेकिन इससे भी ज्यादा आवश्यक है जनचेतना को स्फूर्त
करना। वायु प्रदूषण का सबसे कारगर उपाय जनचेतना को जगाना है। जनजागरूकता ही इस समस्या
का वास्तविक निदान है।
जल-प्रदूषण (Water Pollution)
जल प्रदूषण के बारे में कहा गया है कि सामान्य रूप से स्वच्छ
जल में किसी प्रकार का ऐसा विचलन या परिवर्तन जो उसके मूल और स्वाभाविक गुणों और कार्यविधियों
को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर दे, 'जल-प्रदूषण' कहलाता है। जल-प्रदूषण का अर्थ उसमें
बाहरी तत्त्वों और पदार्थों की इतनी मात्रा में उपस्थिति है जिसके कारण पानी की स्वाभाविक
गुणवत्ता में उल्लेखनीय कमी का आना है। इस प्रकार का [प्रदूषित] जल जब मानवीय उपयोग
योग्य नहीं रह जाता तथा वह मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालने लगता है तो ऐसे
जल को ही प्रदूषित जल कहते हैं। जल के प्रदूषित होने की प्रक्रिया जल-प्रदूषण है।
प्राचीन काल में जल प्रदूषण से मनुष्य
का परिचय लगभग नहीं था। कालांतर में दुर्गंधयुक्त जल से उसका परिचय हुआ। धीरे-धीरे
अनेक कारणों से जल प्रदूषण का विस्तार होता गया। इनमें से अधिकांश प्रदूषण मानवीय कृत्यों
के परिणाम हैं, मानव द्वारा ही उत्पादित हैं। सागर, महासागर, नदी, झील और सरिता के
पानी की सतह पर तैलीय पदार्थ और ग्रीस आदि का फैलाव बढ़ा है। पानी में उगने वाले खरपतवारों
की अधिकता के कारण भी जल प्रदूषित हुआ। पानी का क्षारीय या खराव स्वाद भी जल के प्रदूषित
होने का प्रमाण है। पहले-पहल लोग, जल में जल-जीवों (मछलियाँ आदि) की घटती संख्या के
आधार पर जल-प्रदूषण का अनुमान लगाया करते थे।
वर्तमान समय में जल प्रदूषण के कारणों
का अध्ययन वैज्ञानिक रीति से किया जा रहा है। जल-प्रदूषण का वैज्ञानिक अध्ययन तीन उपशीर्षकों
में किया जा सकता है-
(i) अन्तर्देशीय घरातलीय जल-प्रदूषण,
(ii) स्थलीय जल प्रदूषण, और
(iii) सागरीय जल प्रदूषण।
इनमें से भूपृष्ठीय या घरातलीय जल प्रदूषण
को सर्वाधिक गंभीर माना जाता है।
जल-प्रदूषण के स्त्रोत
जल-प्रदूषण के मुख्य स्त्रोत प्राकृतिक,
कृषीय, खननीय, घरेलू या नगरपालिका आपাফাহ (waste), औद्योगिकीय एवं आकस्मिक अपशिष्ट
हैं। ये स्त्रोत इस प्रकार जल में प्रदूषण फैलाते हैं -
1. संक्रमित वायु से जल का जब वर्षा के समय संपर्क होता है,
तब जल प्रदूषित हो जाता है। बर्फ के पिघलने से भी जल का प्रदूषण होता है। मृत पेड़-पौधे,
मृत पशु की सड्न युक्त पदार्थ, जैविक पदार्थ तथा पशुओं के मलमूत्र आदि वर्षा-जल जल
में या अन्य जल-प्रबाहों में घुलकर जल-स्रोतों में आ जाते हैं तो उस जल स्त्रोत में
सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति होती है। सूक्ष्म जीवाणुयुक्त ऐसा जल प्रदूषित होता है।
इन कारकों से होने वाले जल-प्रदूषण को 'प्राकृतिक स्त्रोतजन्य' जल प्रदूषण कहा जाता
है।
2. पृथ्वी तल पर विद्यमान मिट्टी, गाद (silt), उर्वरक
(fertilizers), कीटनाशक (insectisides) एवं जीवनाशक (pesticides), रसायन
(chemicals) जल-प्रवाहों के साथ जल के स्त्रोत में प्रविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार
का जल प्रदूषण 'कृषि जल-प्रदूषण' कहलाता है।
3. खदानों से निकले अयस्कों के शुद्धीकरण के निमित्त उसकी जुलाई
की जाती है। अयस्कों की धुलाई वाला पानी भी जल स्त्रोत में पहुँचता है। इस तरह अनेक
प्रकार के अक्रिय निलम्बित ठोस, विलेय विषाक्त पदार्थ एवं अम्लीय निस्सारणों (acid
discharge) के कारण होनेवाले जल-प्रदूषण को 'खानजन्य प्रदूषण' कहा जाता है।
4. घरों के मल एवं जल (sewage) के साथ (effluents), अनेक प्रकार
के संस्थानों, वाणिज्यिक एवं औद्योगिक परिसरों के मल-जल का स्त्राव भी जल को प्रदूषित
कर देता है। इस तरह के जल-प्रदूषण को 'नगरपालिकीय प्रदूषण' (municipal pollution) कहा
जाता है।
5. विभिन्न उद्योगों, यथा-खाद्य-उद्योग, औषधि उद्योग, रासायनिक
पदार्थ निर्माता उद्योग तथा ऊर्जा निर्माता संयंत्र के बहिर्सावों से भी जल प्रदूषित
होता है। इस तरह का जल प्रदूषण 'औद्योगिकीय जल-प्रदूषण' (industrial water
pollution) कहलाता है।
6. तेल एवं रसायनों को टैंकरों में बाप कहाओं से कोते या उन्हें
टैंकर से या वाहनों से उतारते समय छलक कर या रिसकर तेल एवं रसायन पानी के स्रोत तक
पहुँच जाते हैं। तेल-शोधक कारखानों अथवा औद्योगिक भंडारणों से भी तेल एवं रसायनों का
आकस्मिक रिसाव (leakage) होता है। यह रिसाव किसी-न-किसी प्रकार जल-स्रोतों तक अपनी
पहुँच बना लेता है। इन रिसावों के कारण होनेवाले जल प्रदूषण को 'आकस्मिक जल-प्रदूषण'
कहते हैं।
प्रदूषण स्रोतों की निश्चितता एवं अनिश्चितता के आधार पर उसकी
निम्नलिखित दो कोटियाँ बतायी गयी हैं- (i) सुनिश्चित स्रोत (Point Source) एवं
(ii) विश्रृंखलित स्रोत (Diffused Source)
(i) सुनिश्चित स्त्रोत (Point Source) जल-प्रदूषण के स्त्रोतों के ठिकाने का जब ठीक-ठाक
पता चल जाता है, तब जल प्रदूषण के ऐसे स्रोतों को 'सुनिश्चित स्त्रोत' (point,
source) कहा जाता है। उदाहरणार्थ उद्योग नगरपालिकीय मल एवं जल (sewage), उपचार संयंत्र
(treatment plant) और शोधक संयंत्रों का मल-जल का एक साथ उपला कर बहने और टटके, मल
के स्राव आदि को 'सुनिश्चित स्त्रोत' (point source) कहा जाता है। सुनिश्चित स्रोतों
से होनेवाले प्रदूषण को नियंत्रित करना आसान होता है। यदि इस प्रकार के बहिर्खावों
को एक स्थान पर जमा करके उसका उपचार या शोधन (treatment) स्वीकार्य पुनर्ठपयोग सीमा
तक कर दिया जाय तो उपर्युक्त प्रकार के प्रदूषणों में बहुत ब बहुत बड़ी सीमा तक कमी
लायी जा सकती है।
(ii) विश्रृंखलित स्त्रोत (Diffused Source) विश्रृंखलित या अनिश्चित जल-प्रदूषण के स्त्रोत
वे स्रोत हैं जिनके स्त्राव का कोई निश्चित स्थल या ठिकाना नहीं हो पाता। विश्रृंखलित
स्रोतों के अपशिष्टों के स्रोतों का पता सहजता से नहीं चल पाता। प्रदूषक पृथ्वी पर
जहाँ-तहाँ फैले होते हैं। अंततः वे जल स्रोतों में बहकर उसे गंदला और प्रदूषित बना
देते हैं। कृषि-कर्म, वन, खदान, निर्माण स्थलों आदि से बहकर आनेवाले अवांछित पदार्थ
का जल-स्स्रोतों से मिल जाना विश्रृंखलित स्रोत के जल प्रदूषण के उदाहरण हैं। इस प्रकार
के अपशिष्ट जल-स्रावों का नियंत्रण सहज में संभव नहीं होता। फिर भी कृषीय जल-प्रदूषण
का नियंत्रण फसलों का उत्पादन अदल-बदल कर किया जा सकता है। फसलोत्पादन के तरीकों को
बदलकर एवं कृषि-कर्म में उच्च प्रबंधन की तकनीक अपनाकर कृषीय जल-प्रदूषण को नियंत्रित
किया जा सकता है।
जल-प्रदूषकों का वर्गीकरण
जल का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों से किया जाता है। नहाने के लिए,
मल धोने के लिए, वस्त्रों, फर्श एवं उपकरणों की सफाई-धुलाई के लिए, खाना बनाने के लिए,
उद्योगों को चलाने के लिए, कृषि-कर्मों के लिए एवं अन्य अनेक कामों के लिए हम प्रतिदिन
प्रतिपल जल का उपयोग करने हैं। इन कामों में उपयोग के बाद बहनेवाला अपशिष्ट जल अनेक
प्रकार के प्रदूषकों से संक्रमित होता है। विविध प्रकार के जल प्रदूषकों को निम्नलिखित
पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-
1. जैविक या कार्बनिक प्रदूषक,
2. अजैविक या अकार्बनिक प्रदूषक,
3. रेडियोधर्मी प्रदूषक,
4. निलम्बित ठोस एवं अवसाद (तलछट)।
5. तापीय प्रदूषण
1. कार्बनिक प्रदूषक :
कार्बनिक रासायनिक यौगिक मनुष्य एवं पृथ्वी पर के अन्य सभी
प्रकार के जीवों के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। जीवों की रचना जिन पदार्थों से हुई
है, उनमें से अधिकांश पदार्थ कार्बनिक पदार्थ हैं। इसके साथ ही जितने भी खाद्य
पदार्थ हैं (जिनमें वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट प्रमुख हैं) वे सभी कार्बनिक
यौगिकों वाले होते हैं। आज लोग आधुनिक जीवन-यापन के लिए जिन पदार्थों एवं वस्तुओं
का उपभोग कर रहे हैं, वे सब के सब कार्बनिक यौगिक ही हैं। कपड़ा, खनिज तेल, रबर,
प्लास्टिक, प्रतिजैविक (antibiotics) इत्यादि सभी कार्बनिक यौगिकों से ही बनाये
जाते हैं। लेकिन इन पदार्थों की जल में उपस्थिति एक अवांछनीय हानिकारक स्थिति है
क्योंकि इनके कारण न केवल जल का स्वाद खराब हो जाता है अपितु वह पानी की स्वाभाविक
गंघ और रंग को भी बिगाड़ देता है। उद्योगों के कुछ रासायनिक स्त्राव न केवल अतिशय
विषैले प्रभाव वाले होते हैं अपितु उनके उपयोग से कैंसर जैसी असाध्य व्याधि भी
होती है।
कार्बनिक प्रदूषकों को भी निम्नलिखित श्रेणियों में
पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा विभाजित किया गया है-
(i) प्राकृतिक कार्बनिक प्रदूषक,
(ii) मल-जल एवं औद्योगिक बहिर्साव,
(iii) संश्लिष्ट (synthetic) कार्बनिक दूषक,
(iv) सूक्ष्म जीवाणविक प्रदूषक,
(v) तैलीय प्रदूषक।
(i) प्राकृतिक कार्बनिक प्रदूषक कार्बनिक पदार्थों के स्वाभाविक रूप से सड़-गल या खराब हो जाने
से जो संदूषक पदार्थ जल में मिल जाते हैं, उसे प्राकृतिक कार्बनिक प्रदूषक कहा जाता
है। सड़े पत्तों और पौधों एवं मृत पशुओं या जीवों में सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न होते
हैं और इनका सम्पर्क जब जल के स्त्रोत से हो जाता है, तब पानी कार्बनिक यौगिकयुक्त
प्रदूषकों से भर जाता है। कोशिकीय पदार्थ, बहुत से पौधे एवं सूक्ष्म जीवाणु जल में
चयापचय द्वारा कार्बनिक पदार्थों को उत्सर्जित करते हैं। जल में बहुत तरह के कवकों
और वनस्पतियों की उत्पत्ति के कारण भी उसमें अवांछित कार्बनिक यौगिकों की मात्रा बढ़
जाती है। यदि अचानक वनस्पतियाँ नष्ट होने लगें तो इसका अर्थ होगा कि पानी का गुण बहुत
बड़ी सीमा तक नष्ट हो चुका है।
(ii) मल-जल स्त्राव एवं औद्योगिक बहिर्खाव: कार्बनिक प्रदूषकों के दो मुख्य स्रोत हैं-घरेलू मलजल का बहिर्खाव
एवं उद्योगों का बहिर्खाव। उद्योगों के बहिर्साव के मुख्य स्रोत खाद्य प्रसंस्करण इकाइयाँ,
कागज के मिल, पशु वधशाला, पाकशाला, चमड़े धोने का कारखाना (tanneries) आदि के स्त्राव
भी जल में कार्बनिक प्रदूषकों के महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हैं।
(iii) कृत्रिम कार्बनिक प्रदूषक कृत्रिम कार्बनिक प्रदूषक मानव निर्मित होते हैं और ये मल-जल
एवं अन्य अपशिष्टों के साथ जलाशयों आदि में प्रविष्ट हो जाते हैं। कृत्रिम कार्बनिक
प्रदूषक दो तरह के होते हैं-वाष्पशील कार्बनिक रसायन एवं कृत्रिम कार्बनिक रसायन। बाष्पशील
कार्बनिक रसायन की श्रेणी में औद्योगिक विलायक जैसे कार्बन टेट्राक्लोरोइथलीन एवं टेट्राक्लोराइड
प्रमुख हैं। कृत्रिम कार्बनिक रसायन का सबसे सुलभउदाहरण जीवनाशक रसायन एवं वनस्पति
रसायन एवं अन्य प्रकार के रसायन हैं जिनका उपयोग औद्योगिक (प्रक्रियाओं) में किया जाता
है। इनमें से कुछ रसायन पौधों पर विषैला प्रभाव डालनेवाले हैं और कुछ रसायनों का पशुओं
और मनुष्यों पर भी विषैला प्रभाव पड़ता है।
वर्तमान समय में जल प्रदूषकों में सर्वाधिक विवादास्पद प्रदूषक
पोलिक्लोरिनेटेड बायफिनाइल एवं डायऑक्सिन हैं। ये प्रदूषक अत्यंत घातक एवं विषैले प्रभावकारी
हैं। इनके कारण कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होती है। थोड़ी मात्रा में भी जल में इनकी
उपस्थिति मानव जीवन के लिए कई प्रकार के संकट उत्पन्न कर सकते हैं।
(iv) सूक्ष्म जीवाणविकीय प्रदूषक: अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु (यथा बैक्ट्रिया, वायरस [विषाणु],
प्रोटोजोआ, कवक एवं कृमि) अशुद्ध एवं प्रदूषित जल में पाये जाते हैं। इन सूक्ष्म जीवाणुओं
के कारण साधारणतया मानव-स्वास्थ्य संकटग्रस्त नहीं हो पाता। जिन जीवाणुओं के कारण मनुष्य
बीमार पड़ता है, उन जीवाणुओं को रोगोत्पादक (pathogenic) जीवाणु कहते हैं। यद्यपि आधुनिक
जलशोधक (उपचारक) संयंत्र सुरक्षित स्तर तक जल को इस प्रकार के जीवाणुओं से मुक्त कर
देता है फिर भी जलस्रोत इन संदूषकों से जितना अधिक मुक्त रहे, मानव-स्वास्थ्य के लिए
यह बात उतनी ही लाभप्रद है।
(v) तैलीय प्रदूषक : तेल हजारों प्रकार के हाइड्रोकार्बन यौगिकों का प्राकृतिक मिश्रण
है। ऐसा समझा जाता है कि इसकी उत्पत्ति विशाल वनस्पतियों या पौधों के निक्षेप से होती
है। कुछ हद तक पृथ्वी की मीलों गहराइयों में दफन एवं संपीड़ित मृत पशुओं के अवसादों
से भी तेल बनता है। हाइड्रोकार्बन में कार्बन और हाइड्रोजन के परमाणुओं के अतिरिक्त
आक्सीजन, गंधक, नाइट्रोजन, बैनेडियम, निकेल एवं अन्य अनेक प्रकार के परमाणु एवं परमाणुओं
के समूह रहते हैं। कच्चे तेल में सामान्यतः पाराफिन, साइक्लोपाराफिन, आर्मेटिक्स, नेष्थिनो-आर्मेटिक्स
आदि होते हैं।
तेल
शोधक कारखानों के कचरों के साथ जल में तैलीय पदार्थों का समावेश हो जाता है। तेलों
की ढुलाई के समय तेल के छलक जाने के कारण या तेल के टैंकरों के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने
के कारण, समुद्रों एवं महासागरों में अन्तराष्ट्रीय तैलीय स्राव के कारण तथा तेल मिश्रित
मल-जल पदार्थों के पानी में मिल जाने से भी जल प्रदूषित हो जाता है।
2.
अकार्बनिक प्रदूषक
पृथ्वी
तल के ऊपर एवं भूतल स्थित जल स्त्रोतों में अनेक प्रकार के अकार्बनिक रसायन मिले होते
हैं। भूगर्भीय निर्माण जिसके सम्पर्क में जल आता है, वे अकार्बनिक रसायनों के सबसे
बड़े स्रोत हैं। अकार्बनिक रसायनों के दूसरे प्रमुख स्रोत औद्योगिक एवं कृषीय बहिर्त्ताव
हैं। जल में निहित अकार्बनिक प्रदूषकों में लवण, खनिज, अम्ल, धातु, घातु के यौगिक एवं
आर्गनामेटॉलिक यौगिक पाये जाते हैं। इनमें से अधिकांश अकार्बनिक रसायन बहुत अधिक विषाक्त
होते हैं तो कुछ मध्यम श्रेणी के विषाक्त पदार्थ होते हैं।
वस्तुतः
अकार्बनिक संदूषक मुख्यतः जल में पाये जानेवाली धातुओं में निहित होते हैं। इसके अतिरिक्त
जल में उपस्थित अन्य पदार्थों में भी अकार्बनिक रसायन होते हैं। नाइट्रेट, फास्फेट
एवं सल्फेट अकार्बनिक पौधा पोषक पदार्थ हैं। जल में अधिक मात्रा में इन अकार्बनिक पदार्थों
की विद्यमानता के कारण उसमें कवकों एवं अन्य जलीय पौधों की उत्पत्ति में असामान्य रूप
से वृद्धि होती है। ये कवक एवं जलीय पौधे अंत में सड़कर पानी में जमा हो जाते हैं और
इनके अवसादों को अधिक मात्रा में ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है। परिणामतः जल में घुले ऑक्सीजन के विनष्ट हो जाने के कारण जलीय पशु,
जीय अथवा मछलियाँ पटापट मरने लगती हैं। संग्रहीत आँकड़े बताते हैं कि
नाइट्रेटयुक्त पेयजल रक्त की ऑक्सीजन वहन क्षमता को कम कर देता है। इसके कारण
गर्भस्थ शिशु की मृत्यु हो जाती है। तीन महीने से कम उम्र के बच्चे इसके कारण
मृत्यु मुख में समा जाते हैं।
3. रेडियोधर्मी प्रदूषक
जल में प्राकृतिक कारणों से रेडियोधर्मिता (radioactivity)
उत्पन्न होती है। लेकिन अनेक प्रकार की चिकित्सकीय प्रक्रियाओं एवं विविध प्रकार
के उद्योगों से भी रेडियोधर्मी अणु स्रावों के साथ जल में जा मिलते हैं। ऊर्जा
संयंत्रों में आणविक अस्त्रों के निर्माण में चिकित्सा के क्षेत्र में,
रेडियोधर्मियों के समस्थानिकों के उपयोग के कारण जल में रेडियोधर्मी पदार्थ मिल
रहे हैं। उद्योगों एवं अनुसंधान कार्यों, खदानों में तथा अयस्कों से उपयोग एवं
प्रयोग के लायक रेडियोधर्मी पदार्थों के उपयोग के कारण भी जल में रेडियोएक्टिव पदार्थ
मिल जाते हैं। जल में घुले इन सभी रेडियोएक्टिव पदार्थों के कारण कैंसर होता है।
जल में पाये जानेवाले अधिकांश रेडियोएक्टिव पदार्थों में यूरेनियम, रेडियम-326 एवं
228, रैडल एवं थोरियम 230 एवं 232 आदि प्रमुख हैं। आवासीय क्षेत्रों की जानेवाली
आपूर्ति के जल में सामान्यतः रैडन पाया जाता है।
4. निलम्बित ठोस एवं अवसाद
मिट्टी के कटाव के कारण जलस्रोतों में मिट्टी एवं अन्य ठोस
पदार्थ बहकर मिल जाते हैं। प्राकृतिक कारणों खनन कार्यों, कृषि कर्मों एवं निर्माण
कार्यों के कारण भी जल में मिट्टी एवं ठोस पदार्थों का जमाव होता है। उद्योगों के
बहिस्स्रावों एवं मलजल के स्रावों के कारण भी जलस्रोतों में ठोस एवं अवसादीय
पदार्थों की मात्रा बढ़ती रहती है। ये ठोस एवं अवसादीय पदार्थ प्रायः कार्बनिक एवं
अकार्बनिक पदार्थों के कण रूप में होते हैं। अमिश्रणीय तरल (तेल एवं ग्रीज) भी जल
में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ाते हैं। इसके बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण जल
तक सूर्य का प्रकाश बहुत कम मात्रा में पहुँच जाता है। जलीय पौधों के
प्रकाश-संश्लेषण के लिए उन तक पर्याप्त मात्रा में प्रकाश नहीं पहुँच पाता जिसके
कारण उनका विकास रुक जाता है और वे मर जाते हैं। उनके कारण जलीय जीव (मछली आदि) की
साँसें भो घुटती हैं। नदियों और जलाशयों में ठोसों और अवसादों के कारण गाद मर जाता
है। इनसे पम्पिंग उपकरणों और ऊर्जा टर्बाइनों को भी क्षति पहुँचती है।
5. तापीय प्रदूषण
ऊर्जा संयंत्रों एवं उद्योगों में ताप के छितराव के लिए व्यापक
पैमाने पर पानी का उपयोग होता है। बाद में इस गर्म जल को जल स्त्रोतों में बहा दिया
जाता है। इसका जलीय जीवों के जीवन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। तापमान में वृद्धि
के कारण जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है है और जीवीय गतिविधियाँ बढ़ जाती
हैं। इसके कारण जल में वायु की मात्रा घटने लगती है और वह लगभग शून्य की स्थिति तक
पहुँच जाती है। फलस्वरूप जल की गुणवत्ता में ह्रास होता है। बढ़े हुए तापमान के कारण
रासायनिक प्रदूषकों की विषक्तता भी बढ़ जाती है।
जल-प्रदूषण का प्रभाव
वैज्ञानिकों का कहना है कि जीब की पहली उत्पत्ति जल में ही
हुई थी। जल की एक बूँद में असंख्य जीवों की जीवन-लीला चलती रहती है। यह एक
स्वयंसिद्ध तथ्य है कि पृथ्वी पर जल के कारण ही जीवन संभव हुआ। पृथ्वी पर जल ही
जीवन-धारण का सबसे महत्त्वपूर्ण स्त्रोत है। अतः इस स्रोत की रंचमात्र विकृति का
मानव जीवन पर तात्कालिक तथा दीर्घकालिक प्रभाव का पड़ना स्वाभाविक ही है। समस्त
प्राणिजगत पर, विशेषकर मानव-स्वास्थ्य पर जल-प्रदूषण का दूरगामी प्रभाव पड़ता है।
अतः जल-प्रदूषण के प्रभावों से परिचित हो लेना मनुष्य के लिए हितकर है। इस दृष्टि
से यहाँ जल-प्रदूषण के प्रभावों का अध्ययन निम्नलिखित उपशीर्षकों में प्रस्तुत
किया जा रहा है।
(1) भौतिक प्रभाव (Physical effects),
(2) ऑक्सीकरण प्रभाव (Oxidation effects),
(3) विषाक्त रासायनिक प्रभाव (Toxic chemical effects),
(4) रासायनिक पोषण प्रभाव (Chemical nutrient effects),
(5) सूक्ष्म जीवाणविक प्रभाव (Micro organism effects),
(6) रेडियो न्युक्लाइड प्रभाव (Radio-nuclide effects),
इन प्रभावों का विवरणात्मक उल्लेख किया जा रहा है-
1. भौतिक प्रभाव (Physical Effects): जल प्रदूषण के भौतिक प्रभावों के अनेक कारण हैं।
जल-स्रोतों में ठोस कण मिलते रहते हैं। ऊर्जा या विद्युत संयंत्रों का प्रशीतक जल
(cooling water) बहकर जल स्रोतों में मिलता रहता है। जल की सतह पर अनेक प्रकार से
तैलीय आच्छादन (oil film) फैल जाता है। जल-स्रोतों में बहकर पहुँचने वाले ठोस
पदार्थ अक्रिय पदार्थों के अपशिष्ट या कचरे (waste) हो सकते हैं। ठोस पदार्थों के
कणों में विखंडित कार्बनिक ठोस पदार्थ भी हो सकते हैं। अक्रिय ठोस पदार्थ शनैः
शनैः जलीय पौधों के पत्तों पर जमा होते जाते हैं। इसके चलते नदी-तल तलछट से भरने
लगता है। इसके कारण पौधों की (पत्तों के माध्यम से) सौर ऊर्जा के अवशोषण की क्षमता
घट जाती है। फलस्वरूप जलीय-पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती
है और नदी-तल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम पड़ जाती है। निलम्बित पदार्थों के
कारण पानी गंदला हो जाता है। फलस्वरूप पानी तक रोशनी की पहुँच में अवरोध उत्पन्न
होता है। पौधों की प्रकाश-संश्लेषण क्षमता घटती है और इन कारणों से पौधों का विकास
रुक जाता है। जल का गंदलापन पशुओं की श्वसन क्षमता एवं भोजन-संग्रह-क्षमता को
न्यूनातिन्यून बना देता है।
इसके कारण जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा में भी कमी
आती है। इन सभी भौतिक कारणों से पारिस्थितिकी तंत्र में गम्भीर असंतुलन उत्पन्न
होता है।
ऊर्जा-संयंत्रों के प्रशीतक जल (cooling water) के कारण जल
का तापमान बढ़ जाता है। फलस्वरूप जल में तापीय प्रदूषण उत्पन्न होता है। तापमान के
परिवर्तन से आयनिक क्रियाओं का मेटाबोलिज्म भी प्रभावित होता है। शुद्ध एवं स्वच्छ
जल के तापमान में वृद्धि के कारण जलीय जीव मर जाते हैं और वनस्पतियों की विकास दर
बढ़ जाती है। जल के तापक्रम के बहुत अधिक बढ़ जाने पर नील-हरित शैवाल (blue-green
algae) एवं मलीय कबक काफी संख्या में पैदा होने लगते हैं। इनकी विकास दर का अंतिम
परिणाम जलीय पौधों की मृत्यु के रूप में सामने आता है। जल के तापमान में वृद्धि के
कारण ऑक्सीजन संतृप्ति का प्रतिशत भी घट जाता है। जैवीय गुणों की निम्नता में
वृद्धि होती है। इन दोनों कारणों से जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा
न्यूनातिन्यून होने लगती है।
अपशिष्ट तेल (waste oil) और ग्रीज (grease) अनेक स्त्रोतों
की यात्रा तय करके अंततः जल-स्त्रोतों में ही आकर मिल जाते हैं। इन तैलीय पदार्थों
की एक महीन परत पानी की सतह पर फैल जाती है। इसके चलते जल स्रोतों और थायुमण्डल के
बीच ऑक्सीजन के आदान-प्रदान की क्रिया बाधित् होती है। इसी अवरोध के कारण जल की
ऑक्सीजन के संतृप्ति-स्तर में भी गिरावट आती है। तेल के टैंकरों से छलक या रिस कर
गिरने वाला तेल समुद्रीय-जल के प्रदूषण का कारण बनता है। इस प्रदूषण के कारण
समुद्र का तटवर्ती क्षेत्र प्रदूषित होता है। तेल की चिकनाहट पक्षियों की मृत्यु
का कारण बनती है। तैलीय झिल्ली के कारण जल की तापरोधी (insulation) क्षमता में
ह्रास आता है। उसकी शीत प्रतिरोधी क्षमता भी घटती है। समुद्र के जिन किनारों पर
तैलीय प्रदूषण बहुत अधिक होता है वहाँ भी समुद्री किनारी पक्षीविहीन हो जाता है और
सागरीय बनस्पति पर भी उसका अत्यन्त खराब प्रभाव पड़ता है। जो तट तैलीय जमाव के
कारण प्रदूषित हो जाते हैं, वहाँ के पशुओं का जीवन निरावरित (denude) हो जाता है।
तैलीय झिल्ली के कारण समुद्र के खरपतवार (sea weeds) भी प्रभावित होते हैं।
2. ऑक्सीकरण प्रभाव : ऑक्सीकरण का प्रभाव दो प्रकार का होता है- (i)
बैक्टिरिया द्वारा कार्बनिक प्रदूषकों का ऑक्सीकरण और (ii) अन्य प्रदूषकों का
रासायनिक ऑक्सीकरण। इन दोनों प्रकार के ऑक्सीकरण की प्रक्रिया में जल में घुले
ऑक्सीजन का उपयोग होता है। इससे जैवीय ऑक्सीजन की माँग बढ़ जाती है। इस माँग के
कारण जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है। बैक्टिरियाजनित ऑक्सीकरण के
कारण सल्फाइड सल्फेट में बदल जाता है। अमोनिया नाइट्राइट में और नाइट्राइट
नाइट्रेट में बदल जाता है।
रासायनिक ऑक्सीकरण के कारण फेरिक साल्ट फेरससाल्ट में बदल
जाता है। फेरिक साल्ट लाल जिलेटिन पदार्थ की तरह जल में एकत्र होने लगता है। इस
जिलेटिन पदार्थ में फिलामेंटस बैक्टिरिया होते हैं। इन बैक्टिरिया का जीवों पर
विषपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
3. विषाक्त रासायनिक प्रभाव : कुछ
कार्बनिक एवं अकार्बनिक रासायनिक पदार्थ, पशुओं और मनुष्यों पर विषाक्त प्रभाव
डालते हैं। इन रसायनों से प्रदूषित जल का उपयोग जब पेयजल के रूप में रूप में होता
है, तब वह उत्तकों द्वारा अवशोषित हो जाता है। इसके कारण प्राणियों की मृत्यु होती
है। रसायनों का विषैला प्रभाव कितना पड़ेगा, यह बात विषैले रसायनों की सांद्रता,
कार्य-अवधि एवं जीवों के चयापचय पर निर्भर है।
इन विषाक्त रासायनिक पदार्थों को स्थूलतः धातु, लवण,
कीटनाशक, एसिड, क्षार और फेनोल तथा सायनाइड जैसे कुछ कार्बनिक पदार्थों में में
बगीकृत किया जा सकता है। सामान्य विकास एवं मेटोवोण्जिय के लिए धातुओं की अत्यन्त
अल्प मात्रा की आवश्यकता होती है। यदि धातुओं की मात्रा की यह सीमा टूट जाती है तो
शरीर पर उसका विषाक्त प्रभाव पड़ सकता है। इसके कारण श्वसन में अवरोध उत्पन्न हो
सकता है। प्रकाश संश्लेषण में कमी आ सकती है। पौधों एवं प्राणियों का विकास
प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो सकता है। ऐसे प्रदूषित समुद्र में पायी जानेवाली
मछलियों विषैली हो जाती है। इनके खाने से कैडमियम, पारा (mercury), सीसा (lead),
क्रोमियम आदि के विष के कारण यकृत (liver) क्षतिग्रस्त हो जाता है। गुर्दा
(kidney) और मस्तिष्क के स्नायविक तंत्र में भयानक गड़बड़ी उत्पन्न होती है।
खेती, बागवानी तथा खाद्य संस्करण प्लांट में व्यवहृत
कीटनाशक वहाँ से बहकर बाहर आते है और जल प्रदूषित करते हैं। DDT इनमें से एक है जो
शरीर को अत्यन्त नुकसान पहुँचाता है।
अम्ल एवं क्षार जल के पीएच मान (pH value) को बदल देते हैं।
जल का उदासीन पीएच मान 7 है। इस मान-स्तर को अम्ल और क्षार बहुत अधिक बदल देते
हैं। बहुत से पशुओं एवं पौधों का विकास पीएच के मान-स्तर 5 एवं 9 के बीच ही संभव
है। पीएच मान में परिवर्तन का अर्थ शारीरिक क्रियाओं का प्रतिकूल रूप से प्रभावित
होना है। इस परिवर्तन का शरीर पर विषैला प्रभाव भी पड़ सकता है।
प्लास्टिक, लुब्रिकेण्ट्स, रबर एवं कागज के कारखानों का एक
उपउत्पाद पोलीक्लोरीनेटेड बॉयफिनायल है। यह पदार्थ जल में अविलेय एवं स्थिर
(stable) एवं तेल में घुलनशील होते हैं। मछलियों, परभक्षी पक्षियों, समुद्र एवं
तटवर्ती पश्चियों के लिए यह सर्वाधिक हानिकारक हैं। सायनायड तो समस्त प्राणियों के
लिए प्राणघातक विष है। सायनायड पाचक रसों (enzymes) की गतिविधियों में अवरोध
उत्पन्न कर देता है। वह मनुष्य एवं पशुओं की तंत्रिका-प्रणाली को अगतिशील बना देता
है। क्लोरोफेनाल्स मछलियों और बैक्टिरिया के लिए विष का कार्य करता है।
4. रासायनिक पोषज प्रभाव : पौधे और जीवों को अपने विकास एवं मेटाबोलिज्म के लिए
रासायनिक पोषज (chemical nutrient) चाहिए। जल में नाइट्रेट एवं फास्फेटों की बहुत
कम मात्रा होती है। उनकी यह थोड़ी-सी मात्रा ही जीवों के विकास के लिए पर्याप्त
होती है। मृत कार्बनिक पदार्थों के सड़ने से यह बढ़ता है जिसे एजिंग (ageing) या
यूटरोफिकेशन (eutroplication) कहा जाता है।
पौधों को प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया, श्वसन एवं डी. एन.
ए. के केन्द्रकों के निर्माण के लिए फास्फोरस की जरूरत होती है। नाइट्रोजन,
प्रोटीन की संरचना का एक आवश्यक अवयव है। जल में नाइट्रेटों और फास्फेटों की
मात्रा बढ़ जाने से पौधों और पशुओं के समग्र विकास की दर प्रभावित होती है।
एककोशिकीय हरित एवं नील शैवाल तथा खरपतवारों का आच्छादन जल में सूर्य के प्रकाश के
प्रवेश का मार्ग अवरुद्ध कर देता है। फलतः जल में ऑक्सीजन का पुनः प्रवेश अवरुद्ध
हो जाता है। इसके कारण नदियों एवं नहरों में नौकायन, स्नान एवं मछली मारना मुश्किल
हो जाता है। खाद्य पदार्थों एवं पेयों के माध्यम से शरीर में पहुँचनेवाली
नाइट्रेटों की अधिक मात्रा के कारण रक्त संबंधी बीमारियाँ एवं गैस्ट्रिक कैंसर
होता है।
5. सूक्ष्म जीवाणुविकीय प्रभाव : जो
कचरे या अपशिष्ट जल-स्रोतों तक पहुँच जाते हैं, उनमें रोगोत्पादक (pathogenic)
जीवाणु होते हैं। रोगोत्पादक जीवाणुओं के कारण मनुष्य को नाना प्रकार की बीमारियाँ
होती हैं। बैक्टिरिया से हैजा, टॉयफॉयड, बुखार, शूल या अतिसार गैस्ट्रोइण्ट्राइटिस
आदि रोग होते हैं। विषाणुओं के कारण पोलियों, हेपेटाइटिस आदि होते हैं। मांसजनित
कृमि इससे उत्पत्र होते है तथा ये व्याधियों के कारण हैं।
6. रेडियोन्युक्लाइड प्रभाव : नाभिकीय ऊर्जा एवं हथियारों के उत्पादन में वृद्धि के कारण
पर्यावरण में रेडियो सक्रिय कचरों की भरमार होती जा रही है। इन कचरों में विभिन्न
प्रकार के रेडियोन्युक्लाइड होते हैं। वर्षा के जल-प्रवाह के साथ ये कचरें
जलस्रोतों में जाकर जमा हो जाते हैं। रेडियो न्युक्लाइड के ठोस कचरों को कनस्तरों
में बंद करके समुद्र में फेंक दिया जाता है। समुद्र में कनस्तर क्षयकारी प्रभावों
के कारण सड़ जाते हैं और उनसे बाहर निकलकर रेडियो सक्रिय ठोस पदार्थ जल में समाहित
हो जाते हैं। रेडियो-सक्रिय पदार्थों से प्रदूषित जल के किसी प्रकार के उपभोग से
मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है। धूल एवं
वायु के माध्यम से भी रेडियो न्युक्लाइड मानव शरीर में प्रविष्ट हो सकते हैं। इन
रेडियोन्युक्लाइडों को पौधे और पशु भी अवशोषित कर ले सकते हैं। फलतः इनसे पशुओं और
पौधों को तो क्षति पहुँचती ही है, उनके खाद्य-श्रृंखला के प्रकारांतर उपभोग से
मानव-स्वास्थ्य को भी भयानक क्षति पहुँचती है।
उपसंहार :
जल-प्रदूषण के प्रभावों के अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रदूषित जल के कारण
नाना प्रकार की बीमारियाँ जैसे-आंत्र रोग, पीलिया, हैजा, टायफाइड, अतिसार, पेचिश
आदि होती हैं। इन रोगों के कारण देश के सात करोड़ तीस लाख कार्य दिवसों की हानि
होती है। इन रोगों से ग्रस्त लोगों के उपचार एवं उद्योगों की प्रकारांतर क्षति से
600 करोड़ रुपयों की हानि होती है।। पङ्कण्कि छलिया जेल प्रदूषण के कारण मेरे रही
है। फलस्वरूप मत्स्योत्पादन की दर में चिन्ताजनक ह्रास हुआ है। प्रदूषित जल खेती
लायक भूमि को भी अनुर्वर बना रहा है। रंगाई-छपाई उद्योगों से स्रावित जल कृषि भूमि
को बर्बाद कर रहा है। कृषि-भूमि की बर्बादी के कारण रेगिस्तान का विस्तार हो रहा
है। प्रदूषित जल से सिंचित भूमि से उत्पन्न फसलों में धातुओं के अंश पाये जाने लगे
हैं जो भयानक रोग फैला रहे हैं। औद्योगिक कारखानों, संयंत्रों आदि के अपशिष्ट से
युक्त प्रदूषित जल का प्रवाह नदियों तक पहुँच जाता है। प्रदूषित जल के स्वच्छ जल
से मिल जाने के कारण स्वच्छ जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है। ऑक्सीजन
हास का जलीय जीवों एवं वनस्पतियों पर प्रतिकूल एवं हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
जल प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय
जल मानव जीवन के लिए ही नहीं अपितु समस्त जीवजगत एवं
वनस्पति जगत के लिए परमावश्यक है। पृथ्वी पर जल के कारण ही जीवन बना हुआ है।
सुदूरवर्ती ग्रहों में जीवन का विकास न हो पाने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण वहाँ जल
की पूर्ण अनुपलब्धता है। परन्तु पृथ्वी पर भी जीवन तभी तक ही संभव है, जब तक जीवन
धारण के लिए स्वच्छ एवं शुद्ध जल उपलब्ध है। लेकिन वर्तमान समय में कई कारणों से
स्वच्छ, शुद्ध, उपयोग्य एवं पेय जल की मात्रा घटती जा रही है। यदि इसकी मात्रा इसी
तरह घटती चली गयी तो शायद एक दिन पृथ्वी पर से कहीं जीवन का चिह्न ही न मिट जाय।
अतः मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य पृथ्वी पर स्वच्छ, शुद्ध, उपयोगी एवं पीने योग्य जल
की उपलब्धता को बनाये रखना है। स्वच्छ, शुद्ध, उपयोगी एवं पेय योग्य जल की कमी का
कारण स्वच्छ जल स्रोतों का दिनानुदिन प्रदूषित होते चले जाना है। वर्तमान विश्व
में जल प्रदूषण की समस्या इतनी गंभीर बन गयी है कि उसके चलते जीवन संकटापन्न हो
गया है।
जल-प्रदूषण का अभिप्राय क्या है? पर्यावरण विज्ञानियों ने
जल प्रदूषण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि शुद्ध एवं स्वच्छ जल-स्रोतों में
बाह्य-पदार्थों की इतनी मात्रा में उपस्थिति को जल का प्रदूषण कहा जाता है जो
बाह्य पदार्थ स्वच्छ जल की मूलभूत प्रकृति, स्वभाव, गुण एवं कार्यक्षमता को
प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर दे। इस तरह प्रदूषित जल अन्य प्राणियों सहित मनुष्य
के पीने एवं उपयोग करने लायक नहीं रहे तथा जिसके उपयोग से मानव जीवन संकट में पड़
जाय तथा उसके स्वास्थ्य के लिए अनेक प्रकार की गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँ।
यही कारण है कि आज विश्व की सरकारों, आम नागरिकों और मानव-कल्याणकामी लोगों का
ध्यान जल प्रदूषण की समस्या के निदान की ओर केन्द्रित है। जल-प्रदूषण के
निदानात्मक उपायों में सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है जल-प्रदूषण का नियंत्रण, उनकी
रोकथाम और प्रदूषण की मात्रा को बहुत बड़ी सीमा तक न्यूनातिन्यून बनाना।
जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए आज तीन प्रकार के उपायों को
अमल में लाया जा रहा है। इनमें से प्रथम उपाय है वैधानिक (कानूनी) प्रतिबंध, दूसरा
उपाय है वैज्ञानिक विधियों द्वारा जल प्रदूषण का नियंत्रण तथा तीसरा एवं अन्तिम
सफलतम उपाय है मनुष्य की आदतों और मानसिकता में परिवर्तन लाना।
इस प्रश्न पर अब कोई विवाद शेष नहीं रह गया है कि पृथ्वी पर
का उपलब्ध प्रत्येक जल-स्रोत भयानक रूप से प्रदूषित हो चुका है। नदी, झील, सागर,
महासागर, कूप, बाबड़ी, सरिता एवं झरनों का जल विभिन्न कारणों से प्रदूषित हो गया
है और प्रदूषित होता चला जा रहा है। स्वच्छ एवं शुद्ध जल की उपलब्धता
न्यूनातिन्यून हो गयी है। अतः स्वच्छ जल की उपलब्धता की संभावना को बढ़ाने के लिए
जल को प्रदूषित होने से तत्काल बचाना जरूरी है। इसके साथ ही प्रदूषित जल को स्वच्छ
बनाकर उसे पुनरुपयोग योग्य बनाना भी अत्यावश्यक हो गया है।
जल-प्रदूषण के प्राकृतिक कारणों के निवारण में प्रकृति
स्वयं लगी रहती है। प्रकृति ने प्राकृतिक कारणों से प्रदूषित जल को स्वच्छ बनाने
के लिए स्वयं उपाय विकसित कर लिया है। लेकिन जल का वास्तविक प्रदूषण तो उसका
पृथ्वी के संसर्ग से प्रारम्भ होता है। जल-प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मानव कृत्य
है। जल प्रदूषण का वास्तविक कारण मानव निर्मित ही है। उद्योगों, अस्पतालों और
घरेलू अपशिष्टों, कचरों और स्रावों की जल-प्रदूषण में मुख्य भूमिका होती है। अतः
इन पर नियंत्रण आवश्यक हो गया है।
जल-प्रदूषण के नियंत्रण का वैधानिक उपाय : आज
से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व 1388 ई. से ही इंगलैंड में जल प्रदूषण नियंत्रण के लिए
कानून बना और उसे प्रचलन में लाया गया। आधुनिक विश्व में जल प्रदूषण के नियंत्रण
के वैधानिक उपचार का यह ज्ञात पहला प्रयास है। इस कानून के अनुसार नदियों, नालों,
पानी की क्यारियों में पशुओं का मूल-मत्र, घर का कूड़ा-कचरा एवं अन्य गंदगी और
रद्दी फेंकना वर्जित है। जल को प्रदूषित कर उसे अपेय बनाना, नदियों को गंदा करना
जिससे कि उसमें जलीय जीव, विशेषकर मछली जीवित नहीं रह सकें, पानी को कृषि कर्म के
योग्य नहीं रहने देना, सादे जल में खारा (क्षारीय) या लवणीय जल को मिलाना, नहरों
के जल को प्रदूषित करना, व्यावसायिक या औद्योगिक अपशिष्ट (waste), कचरा, मल,
दुर्गंधयुक्त पदार्थों को जल में डालना आदि कृत्य उपर्युक्त कानून के अन्तर्गत
संज्ञेय अपराध माने जाते हैं।
भारतवर्ष में सर्वप्रथम प्रदूषण (नियंत्रण एवं रोकथाम)
कानून 1974 ई. में बना। इस कानून के अनुसार भारतीय मानक के अनुसार उद्योगों से
निकलने वाले जल तथा नगरों के मल-मूत्र को नलिकाओं (drains) से निकलने वाले जल की
जाँच की जाती है। इस कानून के अनुसार उद्योगों के जल-स्त्राव को स्वच्छ रखना
उद्योग विशेष का दायित्व है। इन उद्योगों को अपनी ही पूँजी से उद्योगों के
जल-स्राव को स्वच्छ बनाने का उपाय करना है।
जल-प्रदूषण कानून को और भी व्यापक बनाना आवश्यक है। किसी के
द्वारा भी किसी तरह के जल-प्रदूषण का कृत्य वर्जित होना चाहिए। इस कानून के
उल्लंघनकर्ता को कठोर दण्ड भी मिलना चाहिए। जल प्रदूषण की विविधता और जटिलता को
ध्यान में रखकर ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए कि स्वच्छ जल सर्वसुलभ बन सके। जल
प्रदूषण पर रोक लगायी जा सके। जल-प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।
जल-प्रदूषण नियंत्रण की वैज्ञानिक विधि :
(i) स्त्रोत-नियंत्रण (Input Control): जहाँ से प्रदूषण प्रारंभ होता है अर्थात्
जिस स्रोत से प्रदूषण पैदा होता है, जिस उद्गम से जल में प्रदूषण फैलता है, उसी
प्राथमिक स्रोत या उद्गम स्थल पर प्रदूषण की रोकथाम की जानी चाहिए।
(ii) बहिर्नियंत्रण (Output Control): प्रदूषण के उत्पन्न हो जाने के बाद
प्रदूषकों और उसके प्रभाव को नियंत्रित करने की विधि अपनायी जानी चाहिए।
(iii) उचित मल-जल-प्रणाली (Sewager System): इसके विकास तथा औद्योगिक स्त्राव
प्रणाली को काम में में लाने से प्रदूषण की मात्रा कम हो सकती है।
(iv) अनिश्चित या विश्रृंखलित प्रकृति के प्रदूषण की रोकथाम का सर्वोत्तम उपाय है
वन-रोपण।
(v) घरेलू, नगरपालिकीय एवं उद्योगों के प्रदूषित जल को मानक स्तर तक उपचारित करने के पश्चात ही
उसे नदियों या पृथ्वी पर बहाया जाना चाहिए।
(vi) प्रदूषण कानून का कठोरतापूर्वक पालन
उपर्युक्त नियंत्रणात्मक उपायों के अतिरिक्त निम्नलिखित
उपचारात्मक (remedial) विधियों को भी कार्यन्वित किया जाना चाहिए-
(i) जल-स्रोतों में किसी भी प्रकार के ठोस कचरे एवं स्त्रावों
को मिलाया नहीं जाना चाहिए।
(ii) नदियों, तालाबों, झीलों जैसे जल स्रोतों की इस प्रकार
घेराबंदी की जानी चाहिए कि उस तक कचरे या प्रदूषित जल पहुँच ही नहीं पायें।
(iii) घरेलू या नगरपालिकीय मल-जल की उपचार प्रणाली का
प्रारूप इस प्रकार तैयार किया जाना चाहिए कि नदियों में उसे प्रवाहित करने के बाद
उसका उपयोग सिंचाई कार्यों के लिए किया जा सके।
(iv) जल-स्रोतों के निकट स्नान और बस्त्र आदि की धुलाई का
कार्य प्रतिबंधित होना चाहिए। पशुओं द्वारा होने वाले जल प्रदूषण भी रोका जाना
चाहिए।
(v) उपचारित औद्योगिक जल-स्राव जल स्रोतों में छोड़े जा
सकते हैं। उद्योगों के स्स्रार्वो के पृथक् पृथक् स्त्राव का अलग-अलग उपचार करना
आवश्यक होना चाहिए।
(vi) उर्वरकों, जीवनाशी एवं कीटनाशी औषधियों और छिड़कावों
का अधिक उपयोग नहीं होने पाय, इस बात की निगरानी की जानी चाहिए।
(vii) तालाबों, झीलों आदि की सफाई नियमित रूप से करवायी
जानी चाहिए ताकि वे खरपतवारों और जलीय पौधों से मुक्त रह सकें।
(viii) जल-स्रोतों में उन मछलियों के उत्पादन को बढ़ावा
दिया जाना चाहिए जो मच्छड़ों के अंडे, बैक्टिरिया और जलीय खरपतवार को खाती हैं।
आदतों और मानसिकता में परिवर्तन : जल
को प्रदूषित करना सामान्य लोगों की आदत-सी बन गयी है। भारतीय तीर्थ स्नान एवं
विभिन्न अवसरों पर नदियों तथा सरोवरों में स्नान करने को पुण्य कार्य समझते हैं।
इस प्रकार का स्नान उनके संस्कारों का अभिन्न अंग बन चुका है। वे समझते हैं कि इस
तरह का स्नान शुद्धीकरण, पवित्रीकरण एवं स्वर्गप्राप्ति का सर्वोत्तम कृत्य है।
इसलिए उन्होंने इसका संबंध धर्म और संस्कृति से जोड़ रखा है। नदियों के तट पर
शवदाह, जले शवों की राख एवं अस्थियों का जल में विसर्जन भारतीयों की दृष्टि में एक
पवित्र संस्कार एवं मृतकों के लिए स्वर्गप्राप्ति का सोपान है। यह मानसिकता
अनपड़ों, अर्द्धशिक्षितों, और साधारण शिक्षितों को ही जकड़े हुए नहीं है, पं.
जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति भी इस मानसिकता से मुक्त नहीं रह पाये थे।
लेकिन जल प्रदूषण को रोकने के लिए इस प्रकार की मानसिकता में परिवर्तन लाया जाना
जरूरी है। सामूहिक स्नानों और कपड़ों की घुलाई आदि से नदी-सरोवर झीलें आदि भयानक
रूप से प्रदूषित हो गयी हैं। नदी-तट पर शौच या मल-त्याग तो भारतीयों की सर्वविदित गंदी आदत है।
इस आदत में भी सुधार की जरूरत है। हम भारतीयों के लिए इस बात की गहन छानबीन करना जरूरी
है कि इस विषय में हमारा धर्म और हमारी संस्कृति क्या कहती है। इस प्रसंग में 'मनुस्मृति'
का निम्नलिखित कथन विचार-योग्य है-
"नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्टोवनं
समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि
वा ।।"
अर्थात 'जल में मल-मूत्र, थूक एवं अन्य
दूषित पदार्थ, रक्त या विष का विसर्जन न करें।' इतना ही नहीं, हमारे चैदिक ऋषि पवित्र
जल की उपलब्धता की कामना करते हैं। यथा
"शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु
।"
अर्थात् हमारे शरीर के लिए शुद्ध जल
प्रवाहित होता रहे। भारतीय संस्कृति में जल को देवता माना गया है। सरिताओं को जीवनदायिनी
कहा गया है। ऐसी संस्कृति में सरिताओं, तालाबों, पोखरों में मलमूत्र त्याग की कल्पना
भी नहीं की जा सकती परन्तु आज हम यह कर रहे हैं। अपनी पुरानी संस्कृति के इस कोमल तंतु
को यदि हम समझने की चेष्टा करें, जल के साथ देवता-तुल्य श्रद्धापूर्ण पवित्र व्यवहार
करें तो जल-प्रदूषण की समस्या का निवारण सरलतापूर्वक हो सकता है।
मृदा-प्रदूषण (Soil Pollution)
वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार मिट्टी मृत नहीं अपित जीवित वस्तु
है। उसका अपना जीवित संसार है। मिट्टी भी साँस लेती है। मिट्टी या मृदा (soil) में
सूक्ष्म जीवियों सहित समस्त गंदगी को बिनष्ट करने की उसमें एक निश्चित क्षमता होती
है। पृथ्वी के जिस क्षेत्र में मानव सहित समस्त जीवधारियों की जीवन-क्रिया एवं गतिविधियाँ
चल रही हैं, पृथ्वी का वह भाग एक बहुत पतले और झीने आवरण (mantle) से ढका हुआ है। इस
पृथ्वी और पर्यावरण के अन्य घटकों के बीच एक बहुत ही जटिल संबंध है। मनुष्य एवं जीव
पृथ्वी के एक विशिष्ट क्षेत्र के उपलब्ध संसाधनों का इतना तीव्र गति के साथ उपभोग करते
हैं कि प्राकृतिक शक्तियाँ उतनी ही तेजी के साथ उपभोगित पदार्थों की रिक्त जगह की भरपाई
नहीं कर पार्टी अर्थात् प्रकृति उतनी ही शीघ्रता के साथ उपभोगित पदार्थों के बराबर
नये पदार्थों का सृजन या उत्पादन नहीं कर पाती। प्राणियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों
की पर्याप्त उपलब्धता प्रकृति की उत्पादन क्षमता पर निर्भर है। यदि पृथ्वी की इस उत्पादन
क्षमता को नाना प्रकार के वाह्य साधनों, यथा विविध प्रकार के जीव एवं कीटनाशियों आदि
के उपयोग द्वारा घटाया जाता है तो मिट्टी में गंदगी (प्रदूषण) घटने की जगह बढ़ेगी।
अंतिमतः उसके दुष्प्रभाव का सहभागी मनुष्य ही बनेगा और इस दुष्प्रभाव से अन्य प्राणी
भी अछूते नहीं रह पायेंगे।
मृदा (soil) उस विराट पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण अंग है जिस पर
समस्त प्रकार का प्रदूषण हो रहा है। सभी प्रकार के प्रदूषणों-वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण
की सहभागिनी और सहभुक्ता मृदा ही है। यही कारण है कि जल और वायु प्रदूषण की अपेक्षा मृदा-प्रदूषण
की संभावना से वैज्ञानिक अधिक संत्रस्त हैं। मृदा को ऊष्मीय प्रदूषण (thermal
pollution) एवं नाभिकीय प्रदूषण (nuclear pollution) भी समान रूप से आतंकित कर रहे
हैं। इसका नतीजा हमारे सामने हैं। इस प्रकार के प्रदूषणों को मृदा अपने तक सीमित रख
पाने में असमर्थ हो गयी है। फलतः वह उन प्रदूषणों को अपने तक सीमित नहीं रख करके उसे
वनस्पतियों में स्थानांतरित कर रही है। मृदा से वनस्पतियों में स्थानांतरित प्रदूषण
आहार-श्रृंखला (food chains) के माध्यम से पशुओं में और अंततः मनुष्यों तक पहुँच जाता
है। प्रकृति में प्रदूषण का यह चक्र निरंतर चल रहा है। धुआँ, धूल, गर्दा और मृत वनस्पतियों
एवं जीवों की सड़न के संसर्ग में आकर मृदा लगातार प्रदूषित हो रही है। प्रकृति कभी
भी नितांत स्वच्छ नहीं रही। मनुष्य प्रकृति को स्वच्छ रखने का जितना भी प्रयास कर रहा
है, वह उतनी ही अधिक गंदी होती जा रही है। प्रकृति के गंदा होने की प्रक्रिया सृष्टि
के आरंभिक काल से ही चालू है लेकिन इधर जिस तीव्र गति से उद्योगीकरण हुआ है, उसके कारण
मृदा का प्रदूषण बेहिसाब बढ़ा है। आज विश्वजनीन अवशिष्टों (waste) का मृदा कूड़ादान
बन चुकी है जिसमें सभी प्रकार की रही वस्तुएँ, पदार्थ और अपशिष्ट बिना परिणाम सोचे-विचारे
फेंक दिये जा रहे हैं।
मृदा-प्रदूषण की सर्वमान्य परिभाषा
:
मृदा-प्रदूषण की एक सरल परिभाषा डॉ.
शिवगोपाल मिश्र ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है 'कोई भी सजातीय या विजातीय पदार्थ
मृदा-तंत्र में मिलकर भूमि की उत्पादकता को प्रभावित करें, मृदा-प्रदूषक कहलाते हैं।
प्रदूषकों के कारण उत्पन्न जो असामान्य स्थिति उत्पन्न होती है, वह 'मृदा-प्रदूषण'
कहलाती है। यह असामान्य स्थिति संतुलन के विनाश या अस्थिरता की सूचक है।
प्रदूषित मृदा प्राणियों को हानि पहुँचाती
है। प्रदूषण के कारण मृदा की बनावट, प्रकृति स्वभाव एवं गुण में परिवर्तन आ जाता है।
मृदा-तंत्र का रासायनिक एवं अन्य पदार्थों के संसर्गित प्रदूषणों के कारण भूमि की फसलों
की मात्रात्मक एवं गुणात्मक उत्पादकता में हास को 'मृदा-प्रदूषण' कहा जाता है। इस प्रदूषण
का आहार-श्रृंखला से गहरा संबंध है। आहार-श्रृंखला के माध्यम से मृदा का विविध प्रदूषण
मनुष्यों और पशुओं तक पहुँच जाता है जो उनके स्वास्थ्य और जीवन के लिए गंभीर संकट उत्पन्न
करते हैं। अर्थात् इन प्रदूषणों का जीवों पर हानिकारक एवं विषाक्त प्रभाव पड़ता है।
पर्यावरण विज्ञानिकों ने इसी स्थिति को मृदा-प्रदूषण कहा है।
डॉ. सक्सेना मृदा-प्रदूषण को परिभाषित
करते हुए लिखते हैं "मृदा-प्रदूषण का अभिप्राय मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक
स्थितियों में मानवीय हस्तक्षेपों एवं भूमि के दुरुपयोग के कारण होने वाला परिवर्तन
है।" इन परिवर्तनों का मनुष्य एवं जीवों पर अवांछित प्रभाव पड़ता है। मृदा की
प्राकृतिक गुणवत्ता एवं उपयोगिता नष्ट हो जाती है" (Soil pollution can be
defined as the changes in physical, chemical and biological conditions of the
soil through man's intervention or misuse of quality and productivity of the
soil)
बाह्य पदार्थों एवं कारणों से मृदा
में दो प्रकार के परिवर्तन आते हैं-धनात्मक प्रदूषण (positive pollution) एवं ऋणात्मक
प्रदूषण (negative pollution)। प्रदूषित मृदा प्राणियों को हानि पहुँचाती है तथा मृदा
में परिवर्तन आता है। मृदा के इस प्रदूषण को धनात्मक प्रदूषण कहा जाता है। लेकिन इससे
भी भयावह प्रदूषण वह है जिसमें स्थलाकृति में बदलाव आ जाता है। इस स्थिति को ऋणात्मक
प्रदूषण कहा जाता है। भूमि-क्षरण (soil erosion) इसी प्रकार का प्रदूषण है जिसे 'ऋणात्मक
प्रदूषण' कहा जाता है। इस तरह के मृदा-प्रदूषण का कारण अत्यधिक पशु-चारण एवं वनस्पति
विनाश है। पृथ्वी पर मरुस्थलों की उत्पत्ति और विस्तार का कारण मृदा का ऋणात्मक प्रदूषण
ही है।
मृदा संबंधी एक और प्रकार का प्रदूषण
देखने को मिलता है। समृद्ध देशों में अपने घर को साफ-सुथरा रखने के उद्देश्य से लोग
न केवल कूड़ा-कर्कट अपितु धातु, टीन, प्लास्टिक, काँच की बोतलें, प्लास्टिक बैग, अखबार
आदि ठोस रद्दी (solid waste) खुली भूमि या खेतों में फेंक देते हैं। समृद्ध वर्गों
की इस मानसिकता के कारण उत्पन्न प्रदूषण को तृतीय प्रदूषण (third pollution) कहा जाता
है। एक आँकड़े के अनुसार अमेरिका का प्रत्येक नागरिक 250 कि. ग्रा कागज का प्रयोग करके
उसे फेंक देता है।
मृदा-प्रदूषक के प्रकार
मृदा-प्रदूषण के बारे में
उल्लेखनीय बात यह है कि मृदा-प्रदूषण स्थानिक (local) होता है जबकि जल एवं वायु
प्रदूषण सार्वभौम (universal) होता है। यद्यपि एक खेत की मिट्टी से दूसरे खेत की
मिट्टी में भी प्रदूषण फैलता है लेकिन ऐसा कम ही होता है। इसी कारण मृदा-प्रदूषण
को 'स्थानीय' कहा जाता है। फिर भी इस प्रकार का मृदा-प्रदूषण विश्व भर में हो सकता
है। मृदा के निम्नलिखित प्रमुख प्रदूषक हैं-
(1) वायुमण्डल से प्राप्त प्रदूषक,
(2) औद्योगिक अपशिष्टजनित प्रदूषक,
(3) कृषि अपशिष्ट एवं नगरीय
(घरेलू) कूड़ा-कर्कट जनित प्रदूषक,
(4) लवणीय पदूषक,
(5) जीवनाशी प्रदूषक,
(6) रासायनिक एवं धात्विक प्रदूषक,
(7) रेडियो सक्रिय प्रदूषक,
(8) जैवीय प्रदूषक,
(9) अन्य स्रोतों के प्रदूषक।
इनका विवरण इस प्रकार है-
1. वायुमण्डल से प्राप्त प्रदूषक : पृथ्वी पर निरंतर धूलकणों की वर्षा होती रहती है। ये धूलकण
वास्तव में वायु-क्षरण के कारण दूर-दूर से उड़ उड़कर आनेवाले मिट्टी के कण होते हैं।
इन धूलकणों में कल-कारखानों में जलाये जानेवाले ईधनों की राख और उसके ठोस कण भी होते
हैं।
2. औद्योगिक अपशिष्टजनित प्रदूषक : विभिन्न प्रकार के उद्योगों से मुख्यतः तीन प्रकार के प्रदूषक
निकलते हैं- (i) सल्फर डायऑक्साइड (SO₂) (ii) फ्लोराइड तथा (iii) भारी धातुएँ। वायु
प्रदूषण में सल्फर डायऑक्साइड की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन मृदा-प्रदूषण में
भी उसका योगदान कम नहीं होता। सल्फर डायऑक्साइड के कारण मृदा (मिट्टी) का पीएच मान
घटता है। सल्फर डायऑक्साइड के कारण ही अनेक देशों के औद्योगिक क्षेत्र की मिट्टी अम्लीय
बन चुकी है। विगत छः सात दशकों में मिट्टी की धनायन क्षमता (plus capacity or
fertility) 50% से घटकर बहुत कम हो गयी है। एक आकलन के अनुसार SO₂ के कारण अम्लीय बनी
मिट्टी का पीएच मान घटकर 4.5 तक ही रह गया है। सल्फर डायऑक्साइड के कारण नदियों, झीलों
एवं अन्य स्रोतों का पानी भी अम्लीय हो चुका है। फ्लोराइड मृदा के साथ अभिक्रिया करके
अवक्षेपित होता है और जब उसकी
मात्रा बढ़ जाती है तब जल एवं पौधों में इसकी विषाक्तता अंतरित होने लगती है। बाद
में वह मनुष्यों और पशुओं में आहार-श्रृंखला के माध्यम से स्थानांतरित होकर उन्हें
गहरी क्षति पहुँचाने लगता है।
विभिन्न प्रकार के उद्योगों से ताँबा, कैडमियम और पारा जैसी
भारी धातुएँ भी मृदा-प्रदूषण बढ़ाने में सहायक होती हैं। कारखानों में ईधन रूप में
कोयले के प्रयोग से बहुत-सी राख (flyash) निकलती है जिससे मिट्टी का प्रदूषण बढ़ता
है।
3. कृषि अपशिष्ट एवं घरेलू कूड़ा-कचरा घरा एवं कर्कटजनित
प्रदूषक : यद्यपि कूड़ा-कर्कट
मृदा की उर्वरता बढ़ानेवाला होता है लेकिन यह तभी संभव है जबकि उनका उचित रीति से
कम्पोस्ट बना लिया जाय। लेकिन बहुत बड़ी मात्रा में कूड़ा-कर्कट को ढोकर ले जाना
और उसका उचित रीति से उपचार करना एक कठिन समस्या है। इस काम में बहुत अधिक श्रम
एवं धन के व्यय की जरूरत पड़ती है। फिर भी कूड़ा-कर्कटों में बहुत-सा ऐसा अंश होता
है जो ठोस अवस्था में होने के कारण विघटित नहीं हो पाता। फलतः शहरी कचरों ने
प्रदूषण की बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न कर दी है। इन कचरों में डिटर्जेण्ट बोरेट,
फास्फेट तथा लवण की मात्रा बहुत अधिक होती है। मृदा में मिलकर ये पदार्थ उसकी
उत्पादकता को बुरी तरह प्रभावित कर डालते हैं।
नाले और पनाले का गंदा पानी और वाहित मल (sewage) शहर के
समीपवर्ती क्षेत्रों में सब्जियाँ उगाने के उपयोग में लाया जाता है किन्तु मल-जल
के अतिशय प्रयोग से मिट्टी की भौतिक दशा विकृत हो जाती है। इनके कारण मिट्टी के
रन्ध्र (छिद्र) बंद या अवरुद्ध हो जाते हैं। यह अवरोध मिट्टी को कई तरह से रुग्ण
बना देता है। यदि वाहित मल-जल में कीटनाशी दवाइयाँ एवं भारी धातुएँ मिल गयी हों तो
स्थिति और भी गंभीर तथा भयावह बन जाती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं के गोबर और उनके मलमूत्र आदि
गंदगी के मुख्य स्त्रोत हैं किन्तु यदि इनका उपयोग कम्पोस्ट के रूप में कर लिया
जाय तो इससे भूमि की उर्वरता बढ़ेगी। फिर भी पशु-मल आदि ने उन्नत देशों में विकट
समस्या पैदा कर दी है। जिन उन्नत देशों में संगठित पशु उद्योग और डेरी फार्म हैं,
वहाँ की स्थिति गंभीर बन चुकी है। बहुत बड़ी मात्रा में पशुओं के मलमूत्र का
भली-भाँति उपचार और उसका निस्तार इन देशों के लिए कठिन काम हो गया है। इस तरह
पशुमल मृदा सहित अनेक प्रकार के प्रदूषणों के स्त्रोत बन गये हैं।
यंत्रीकृत देशों में कृषि के अवशेषों के कारण भी विकट
समस्या उत्पन्न हुई है। यंत्रोपयोग के कारण पुआल, डण्ठल, पत्तियाँ आदि सब कुछ बच
जाते हैं। अल्पविकसित देशों में इन कृषि अपशिष्टों का उपयोग पशु के चारे (forage /
fodder) के रूप में हो जाता है। हमारे देश में भी चावल मिलों के पास भूसी के ढेर
पड़े रहते हैं। चीनी मिलों के पास गन्ने की खोई तथा शीरा फैला रहता है। इनके कारण
प्रदूष प्रदूषण बढ़ता है। कागज की मिलों तथा कृषि उद्योग के अपशिष्ट भी उग्र रूप
धारण कर चुके हैं। प्रतिवर्ष सहस्त्राधिक टन फल एवं सब्जियों के कचरे, यथा उनके
डंठल, पत्ते, डाल-डालियाँ, छिलके, खोई आदि इधर-उधर फेंक दिये जाते हैं। इनके कारण
भारत के अनेक नगरों में मृदा-प्रदूषण बढ़ा है। इन कृषि अपशिष्टों का नगण्य अंश भी
कृषि - कार्य में प्रयुक्त नहीं हो पाता। इस वजह से भयानक मृदा-प्रदूषण फैल रहा
है।
4. लवणीय प्रदूषक : भारतवर्ष में ऊसर तथा लवण से युक्त मिट्टी की भरमार है।
इनकी उत्पत्ति लवणों के अत्यधिक संचयन के कारण हुई है। लवण के जमा होने से भूमि की
भौतिक दशा में गंभीर किस्म का विकार उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें से
होकर वर्षा का जल रिसकर नीचे नहीं जा पाता और जिसका अंतिम परिणाम यह होता है कि
फसलें उग नहीं पातीं।
5. जीवनाशी प्रदूषक : अधिक उत्पादन के लक्ष्य को सामने रखकर कृषक फसलों की
कीटों से रक्षा के निमित्त अनेक प्रकार के कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग करते हैं।
इन जीवनाशियों में आर्गेनोक्लोरीन यौगिक एवं आर्गेनोफास्फेट विशेष रूप से
उल्लेखनीय है। डी. डी. टी. तथा उसी के समान कुछ रासायनिक यौगिक जब मिट्टी में मिल
जाते हैं तो वे दीर्घ अवधि तक मिट्टी में में ज्यों के त्यों बने रहते हैं। उनका
यह स्थायित्व मृदा-प्रदूषण का कारण बन जाता है। ऐसी प्रदूषित मृदा या मिट्टी में
उगने वाली वनस्पतियों में भी डी. डी. टी. का रसायन पहुँच जाता है और उसकी मात्रा
शनैः शनैः बढ़ती ही जाती है। डी. डी. टी. की यह वर्द्धित मात्रा अंततः मनुष्यों
एवं पशुओं के लिए प्राणघातक बन जाती है। हानिकारक प्रभावों की दृष्टि से
आर्गेनोफास्फेट कम हानिकारक है क्योंकि यह रसायन मिट्टी में कुछ सप्ताहों से
ज्यादा टिक नहीं पाता और वह विघटित हो जाता है। डी. डी. टी. का प्रभाव तो
नाइट्रोजन-चक्र अर्थात् उसकी उपलब्धता पर भी पड़ता है। छिड़काव के रूप में
प्रयुक्त डी. डी. टी. का 75% अंश पृथ्वी पर गिरकर उसी में संचित हो जाता है। इससे
मिट्टी में रहने वाले अनेक प्रकार के जीव नष्ट हो जाते हैं।
6. रासायनिक एवं धात्विक प्रदूषक : वस्त्र उद्योग, रंगाई उद्योग, साबुन उद्योग, कृत्रिम
डिटर्जेण्ट उद्योग, औषधि उद्योग, सीमेंट एवं रबर उद्योग, कागज एवं लुगदी उद्योग
तथा धातु उद्योग जैसे अनेक अनगिनत उद्योग अपने स्रावों को अव्यवस्थित ढंग से
पृथ्वी पर छोड़ देते हैं। फलतः ये स्राव रिसकर पृथ्वी की सतह के नीचे पहुँचता है।
उद्योगों के बहिर्साव (effluents) के निस्तार हेतु उसे नदी में बहा दिया जाता है
जिनके कारण मृदा और जल एक साथ प्रदूषित हो जाते हैं। इन प्रदूषणों का प्राणि-जगत
पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।
कृत्रिम संश्लिष्ट रसायन तथा उर्वरक में अल्प मात्रा में
धात्विक अंश भी होते हैं। ये रसायन जानबूझकर मिट्टी में मिलाये जाते हैं अथवा ये
अशुद्ध पदार्थ के रूप में भूमि में समा जाते हैं। बहुत जगह की मिट्टियों में जटिल
कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिक होते हैं। इनका प्रभाव मिट्टी के जैवीय एवं कार्बनिक
पदार्थों पर भी पड़ता है। इनसे मिट्टी की बनावट और उसकी उत्पादकता भी प्रभावित
होती है।
7. रेडियो सक्रिय प्रदूषक इस समय की दुनिया में आणविक आयुधों में निरन्तर वृद्धि
होती जा रही है। नाभिकीय विस्फोट की घटनाएँ, परीक्षण एवं युद्धादि के कारण विश्व
में रोज घट रही हैं। इन विस्फोटों से उत्सर्जित रेडियो सक्रिय पदार्थ मिट्टी के
अवयवों के साथ अभिक्रिया करके उसी में समा जाते हैं। निरीक्षण एवं प्रेक्षण द्वारा
ज्ञात हुआ है कि धूलिकणों के रूप में Sr90 मिट्टी की सतह
पर संचित होकर पड़ा रहता है किन्तु यदि विलयन में से अवसाद द्वारा Sr90 का
ग्रहण होता है तो उसकी सांद्रता में 90 गुनी वृद्धि हो जाती है। अतः जलोढ़ का
अवशोषण बढ़ जाता है। पौधों के मार्फत Sr90
पशुओं में और पशुओं के माध्यम से वह मनुष्य तक पहुँच जाता है। रेडियो सक्रिय
पदार्थों में रेडियम, थोरियम, यूरेनियम, कार्बन (कार्बन - 4) बहुत ही सामान्य हैं
जो मिट्टियों, पत्थरों, जल एवं वायु में नाभिकीय विस्फोटों एवं उनके नानाविध
प्रयोग के कारण समा जाते हैं।
8. जैवीय प्रदूषक : मिट्टी में नित्य प्रति बहुत बड़ी मात्रा में मानव एवं
पशुओं आदि के मलमूत्र (excreta) मिलते रहते हैं। यह मलमूत्र और विष्ठा (faecial)
मृदा-प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है। मलमूत्र एवं विष्ठा से उत्पन्न जीवाणु इस तरह
के मृदा-प्रदूषण के संवाहक होते हैं। मलमूत्र का पचित गाढ़ा पंक एवं खाद कुछ समय
के भीतर ही पौधों में लवणों के स्थायी संचयन के कारण बनते हैं मल के पंकों में
बहुत अधिक संख्या में आंत्र कृमियाँ रहती हैं। ये कृमियाँ रोगोत्पादक होती हैं।
9. अन्य स्रोतों के प्रदूषक: मृदा-प्रदूषण के प्रदूषकों के कई अन्य स्त्रोत भी हैं,
यथा-विषाक्त धातुओं का अवशोषण, घुलनशील लवण, खनन कार्य के अपशिष्ट मिट्टी में
संग्रहीत खराब जल, मिट्टी में मिला ठोस कचरा, ईख की खोई एवं घरेलू कचरा इत्यादि।
मृदा-प्रदूषण में वनों की अंधाधुंध कटाई का भी बहुत बड़ा
हाथ है। वनों के उजड़ने से मिट्टी के जैवीय गुणों में कमी आने लगती है जिसके चलते
मिट्टी का जैवीय एवं अजैवीय संतुलन बिगड़ने लगता है। वनों के उजड़ने से बंजरपन
बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर मृदा
के उर्वरीय गुणों में लगातार ह्रास के
लक्षण दृष्टिगोचर हो रहा है। वनों के उजड़ने के कारण मिट्टी के चरण में भी वृद्धि हो रही
है।
विभिन्न प्रकार की सिंचाई परियोजनाओं और उनके संसाधनों के
कारण भी मृदा प्रदूषण में बढ़ोत्तरी हुई है। बाँधों और नहरों के कारण डूब क्षेत्र
की जटिल समस्या सामने आयी है। डूब क्षेत्रों के मिट्टी का बेतहासा क्षरण हुआ है।
इनके कारण मृदा में क्षारीयता बढ़ी है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन कहते हैं
"कई सिंचाई परियोजनाओं में सिंचाई प्रारंभ होने के कुछ ही वर्षों के भीतर
क्षारीय एवं जल जमाव (डूब) जैसे दोष प्रकट हुए हैं। इस तरह ये सिंचाई योजनाएँ
किसानों के लिए लाभप्रद होने की जगह हानिप्रद ही सिद्ध हुई हैं।"
बढ़ती जनसंख्या के पेट को भरने के उद्देश्य से भारत में गहन
कृषि योजना (intensive agriculture scheme) प्रारंभ की गयी। गहन कृषि में सीमित
भूमि में वैज्ञानिक विधि द्वारा विभिन्न प्रकार की फसलें और अन्न उत्पादित किया
जाता है। गहन और सघन कृषि वास्तव में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग पर ही निर्भर रहा
लेकिन रसायनों का संतुलित उपयोग ही वांछित था। किन्तु किसानों ने स्वार्थवश
रासायनिक उर्वरकों का अधिक मात्रा में असंतुलित उपयोग किया। इस लालच का उल्टा
परिणाम शीघ्र सामने आ गया। इन उर्वरकों ने भूमि की उर्वरा शक्ति और मृदा के
स्वाभाविक गुणों को नष्ट कर दिया। मृदा में जैवीय एवं अजैवीय तत्त्वों की कमी के
कारण असंतुलन उत्पन्न हो गया। झूम खेती करने वाले आदिवासी कृषक एवं सघन-गहन तथा
स्थिर खेती करने वाले आधुनिक किसान, दोनों ही एक समान धरती की उर्वरा शक्ति को
नष्ट करने के अपराधी बन गये। रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग की प्रवृत्ति पर
यदि समय रहते अंकुश नहीं लगाया गया तो भविष्य में भयानक मृदा-प्रदूषण के कारण देश
और समाज को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ेगी।
मृदा-प्रदूषण का प्रभाव
पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव
प्राणि-जगत पर पड़ता है। पर्यावरण में ह्रास के प्रमुख कारण उद्योगों के विस्तार
का बढ़ता दबाव, नगरों का विस्तार, सघन अनादी एवं अनेक प्रकार के अन्य कारण हैं।
इनके चलते यह पृथ्वी संक्रमण फैलाने बाले जीवाणुओं और पदार्थों का स्वर्ग बन गयी
है। पर्यावरण में दीर्घावधिक प्रदूषणों ने वायु, जल, आहार एवं मृदा को प्रदूषित कर
दिया है। इनके कारण पानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विकासशील
देशों में लगभग 80 प्रतिशत व्याधियों का कारण मृदा और जल का प्रदूषण है। नदियों के
जल के प्रदूषण का मुख्य कारण उसमें नाहित मल-जल एवं मूत्र आदि हैं। मृदा अनेक
प्रकार के रोगाणुओं की भरमार के कारण प्रदूषित हो गयी है। मृदा, जल एवं वायु को
उद्योगों एवं कल-कारखानों के अव्यवस्थित विस्तार ने सर्वाधिक प्रदूषित किया है।
मृदा-प्रदूषण नगरीय तकनीकी क्रांति का प्रतिफल है। मृदा-प्रदूषण का एक मुख्य कारण
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की हरे संभावना का उपयोग भी है। मृदा प्रदूषण के
हानिकारक प्रभावों का विवेचन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) औद्योगिक प्रदूषकों का प्रभाव
(2) नगरीय कचरा-कर्कट जनित प्रदूषकों का प्रभाव
(3) रेडियो सक्रिय पदार्थों का प्रभाव
(4) आधुनिक कृषि तकनीक का प्रभाव
(5) कीटनाशकों का प्रभाव
1. औद्योगिक प्रदूषकों का प्रभाव :
(i) औद्योगिक कल-कारखानों के नाना प्रकार के कचरों अथवा अपशिष्टों
(waste) में अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ होते हैं। इनका बहुत अधिक विषैला प्रभाव
जीवों पर पड़ता है। विविध प्रकार के उद्योगों से विविध प्रकार के हानिकारक विषाक्त
पदार्थ निकलते रहते हैं। इन विषपूर्ण, रसायनों एवं पदार्थों का समावेश आहार-श्रृंखला
में होता है जिसके कारण अनेक प्रकार के अवांछित प्रभाव वनस्पतियों, पशुओं, मनुष्यों
आदि पर पड़ते हैं।
(ii) औद्योगिक बहिर्साव मल-जल उपचार प्रणाली से मिलकर उसे विषाक्त
बना देते हैं। फलस्वरूप मृदा एवं जल जनित अनेक बीमारियाँ फैलती हैं।
(iii) धात्विक प्रदूषण (Hg, Zn, Cd, etc) मृदा में स्थित वैक्टिरिया
एवं अन्य लाभप्रद सूक्ष्म जीताणुओं को विनष्ट कर देता है।
(iv) घुलनशील लवणों के कारण भयानक आर्थिक क्षति होती है। घुलनशील
लवण के कारण फसलों की पैदावर बहुत अधिक घट जाती है और मिट्टी नष्ट हो जाती है। खानों
की धातुएँ बर्बाद हो जाती हैं।
(v) कुछ व्यापारिक अपशिष्टों में रोगाणु, बैक्टिरिया पाये जाते
हैं, जैसे एंथ्रेक्स, वैसिली बैक्टिरिया इत्यादि। इन घातक बैक्टिरिया के स्रोत चमड़ा
धोने के कारखाने हैं।
2. नगरीय कचरा-कर्कट जनित प्रभाव :
(i) भारत में उच्च पथों के किनारे तथा अन्य जगहों पर लाखों टन
कूड़ा-कर्कट के ढेर पड़े होते हैं। इन कचरों के कारण अनेक प्रकार की असाध्य बीमारियाँ
फैलती हैं।
(ii) भवन-निर्माण सामग्री, कीचड़, मृत पशुओं के कंकाल एर्व सार्वजनिक
स्थलों पर फेंके गये कूड़ा-कर्कटों के कारण जहाँ दैनिक जीवन का कार्य व्यापार बाधित
होता है, वहीं इनसे बीमारियाँ भी फैलती हैं।
(iii) रोगाणुओं के जन्म के सबसे उपयुक्त माध्यम मल-मूत्र हैं।
इनसे उत्पन्न वैक्टिरिया एवं विषाणुओं के कारण हैजा होता है।
(iv) ठोस कचरों से असाध्य दुर्गंध निकलती रहती है ठोस कचरे पृथ्वी
में जल के रिसने के छिद्र को बंद कर देते हैं। निलम्बित मलीय पदार्थ पृथ्वी पर आच्छादन
का काम करते हैं जिससे पृथ्वी की नमी प्रभावित होती है।
(v) प्रदूषित भू-जल जिसमें मानवीय मल, मलीय कीचड़ आदि मिले होते
हैं, वे सूक्ष्म जीवाणुओं को मारकर मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर देते हैं।
3. रेडियो सक्रिय प्रदूषकों का प्रभाव
जमीन के अन्दर गाड़ दिये गये रेडियो सक्रिय तत्त्वों से उत्पन्न
समस्या अत्यंत गंभीर और जटिल होती हैं। रेडियो सक्रिय तत्त्व बहुत लम्बे समय तक पृथ्वी
के नीचे सक्रिय रहते हैं। इनका निम्नलिखित हानिकारक प्रभाव पड़ता है-
(i) जब मनुष्य रेडियोन्युक्लाइड पदार्थ युक्त भोजन करता है,
तब यह पदार्थ उसके शरीर के विभिन्न अवयवों में पहुँच कर अनेक प्रकार की घातक बीमारियाँ
उत्पन्न करता है। इसके कारण मानव-जीवन घोर संकट में पड़ जाता है।
(ii) विकिरण मृदा एवं मृदा की उर्वरा शक्ति को क्षीण कर देता
है। इन विकिरणों के कारण अनेक प्रकार की वनस्पतियों की प्रजातियाँ खत्म हो जाती हैं।
(iii) पौधों, वृक्षों और झाड़ियों की रेडियो संवेदनशीलता में
अपक्रमण या रूपांतरण (variation) के कारण उनके क्रोमोजोम की संख्या और आकार में अन्तर
आ जाता है।
(iv) हाल के एक आँकड़े के अनुसार जैवीय प्रणाली में बहुत बड़ी
संख्या में रेडियोन्यूक्लाइड्स का प्रवेश हो चुका है। ऐसे रेडियोन्यूक्लाइडों में कार्बन-14,
फेरस -55, कार्बन - 57 आदि हैं।
4. आधुनिक कृषि तकनीक का प्रभाव :
(i) मृदा में पोटाशियम उर्वरकों के अधिक उपयोग के कारण मूल्यवान
पोषक तत्त्व एस्कोर्बिक एसिड (विटामिन सी) एवं सब्जियों एवं फलों में कैरोटिन की मात्रा
घटती जा रही है।
(ii) नाइट्रोजन्स उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी
में नाइट्रेट का जमाव होता जा रहा है। इनके अधिक जमाव के कारण, डायरिया और बच्चों को
साइनोसिस नामक व्याधियाँ होती हैं।
(iii) फास्फेट उर्वरकों को फसलोत्पादन के लिए हानिकारक माना
जा चुका है।
(iv) ज्वार, बाजरा जैसे अनाज की फसले क्षारीय मिट्टी में होती
हैं। क्षारीय मिट्टी बहुत अधिक फ्लोराइड का अवशोषण कर लेती है जिसके चलते फ्लोरोसिस
नामक बीमारी फैलती है।
5. जीवनाशकों का प्रभाव :
(i) मिट्टी में संचित जीवनाशक रसायन फसलों और सब्जियों में पहुँच
आते हैं। ये जीवनाशक रसायन फसलों और सब्जियों में ऐसी विकृति उत्पन्न कर देते हैं कि
वे खाने लायक नहीं रह जाते ।
(ii) डी. डी. टी. जैसा जीवनाशक रसायन एवं इन्ड्रीन इत्यादि धीरे-धीरे
मिट्टी से रिसकर भू-जल में समाविष्ट हो जाते हैं। फलस्वरूप पेयजल प्रदूषित हो जाता
है।
(iii) आर्गेनोफास्फेट नामक जीवनाशी रसायन के कारण मांसपेशियाँ
अत्यधिक कमजोर पड़ जाती हैं। फलस्वरूप कंपन और चक्कर जैसी बीमारियों से पशु ग्रसित
हो जाते हैं।
मृदा-प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय
निम्नलिखित उपायों का सहारा लेकर मृदा-प्रदूषण में कमी लायी
जा सकती है-
(i) कूड़ा-कर्कटों और कचरों में अनेक प्रकार की वस्तुएँ और पदार्थ
मिलित होते हैं। कूड़ा-कर्कटों में मिश्रित पदाथों में से प्रत्येक पदार्थ अलग-अलग
करके छोटे या बीन लेन्स चाहिए। इनमें से प्रत्येक छाँटे या बोने गये पदार्थ को आसानी
के साथ उपयोग अपशिष्ट पुनर्चक्रण (waste recycling) के लिए आसानी से किया जा सकता है।
(ii) कागज के रद्दी को काँच या प्लास्टिक के साथ नहीं मिलाया
जाना चाहिए। कागज और काँच के मिश्रण को अलग करना बड़ा दुष्कर कार्य होल है। मिश्रित
रूप में इसका पुनर्चक्रम के लिए उपयोग संभव नहीं है। इसलिए रदी कागज और काँच को एक
साथ नहीं मिलाने की सावधानी बरती जानी चाहिए।
(iii) रही के कम सूजन के प्रति जनस्ता को विशेष रूप से जागरूक
बनाया जाना चाहिए।
(iv) जो लोग रद्दी के पुनर्चक्रण के उद्योग में लगे हुए हैं,
सरकार को चाहिए कि यह उन्हें करों में विशेष छूट देकर प्रोत्साहित करे। इस तरह भूमि
पर से रद्दी और कचरों का बोझ हल्का हो सकता है।
(v) नये कागजों की जगह पुनर्चक्रित कागजों के
उपयोग की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जापान के प्रशासनिक कार्यालयों में
नये कागजों की जगह रही से बने (recycled) कागजों का उपयोग होता है। इस प्रयास से रद्दी
के पुनर्प्रयोग को जापान में प्रोत्साहन मिला है।
(vi) रद्दी के उत्पादन में कमी लाने
से रद्दी की समस्या में स्वतः कमी आ जायेगी।
मृदा-प्रदूषण-नियंत्रण के अन्य प्रभावशाली
उपाय निम्नलिखित हैं -
(i) सफाई अभियान : यूरोप में द डच इलेक्ट्रीसिटी जेनेरेटिंग
बोर्ड ने एक महत्त्वाकांक्षी सफाई अभियान चलाया था। अपने देश में भी इस तरह के सफाई
अभियान चलाने की आवश्यकता है। द डच इलेक्ट्रीसीटी जेनरेटिंग बोर्ड ने उष्णकटिबंधीय
क्षेत्र की हजारों एकड़ की भूमि पर पुनर्वनरोपण कार्य प्रारंभ किया। इस अभियान का सकारात्मक
परिणाम सामने आया। इस अभियान के कारण मृदा-प्रदूषण में कमी आयी और पूर्वी यूरोप को
वायु की कमी से उत्पत्र घुटन की समस्या से मुक्ति मिली। इस अभियान की सफलता से उत्साहित
होकर बोर्ड ने पच्चीस वर्षों की अवधि में 1,20,000 हेक्टेयर भूमि में वनरोपण कार्य
का लक्ष्य अपने सामने रखा और इसके लिए 300 मिलियन डॉलर की निधि की भी व्यवस्था की।
न्यूयार्क टाइम्स (1992) के एक अंक
में मालिसे साइमन्स ने लिखा था कि बोर्ड गंघक का बोझ कम करने के लिए तत्काल 35 मिलियन
डॉलर से वृक्षारोपण का कार्य प्रारंभ करेगा। यह गंधक पोलैंड के एक बहुत ही पुराने पावर
स्टेशन से निकलकर वायुमण्डल में समा रहा था। बोर्ड के इस अभियान से मृदा में संचित
होने वाले गंधक की मात्रा में भी कमी का अनुमान लगाया गया था।
(ii) प्राकृतिक पट्टी : कुछ अच्छी किस्मों की घास प्राकृतिक
बाड़ के रूप में बदल गयी है। इसका पता हाल में ही चला है। मृदा-क्षरण को रोकने के लिए
एक उत्तम घास का बाड़ लगाना चाहिए। दक्षिण भारत में खड़ी ढालों पर एक विशेष प्रकार
की घास को गोदों रोकती है। वह गाद को बह जाने से बचाती है। ऊँची जगहों पर घासों को
उगा देने पर वे प्राकृतिक कगार का काम करती हैं। यह कगार पानी को नदियों और सरिताओं
में बह जाने की जगह मिट्टी में रिस जाने के लिए विवश करता है।
(iii) पुनर्चक्रित वृक्ष : इस तकनीक के उपयोग से सिकुड़ती भूमि
भरी जाती है। पुनर्चक्रित वृक्षारोपण से ठोस कचरों के निस्तार में भी सहायता मिलती
है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्रिसमस वृक्षों की बिक्री बढ़ाकर इस अभियान को प्रोत्साहित
किया है।
टैक्सास के खाड़ी-तट पर कुछ समुदाय
के लोगों ने तटीय क्षरण को रोकने के उद्देश्य से क्रिसमस वृक्षों को बहुत बड़ी संख्या
में लगाया। इस प्रयास से बालू के टीलों के लिए आधार का निर्माण हो गया।
(iv) प्रबुद्ध नागरिक वृक्षोपहार के द्वारा कर में भी छूट
प्राप्त कर सकते हैं।
(v) भारत में उत्सर्जित मल का उपयोग : भारत में अभी भी मात्र दस प्रतिशत शहरी आबादी के लिए ही मल-जल-वहन
की सुविधा उपलब्ध है। देहाती क्षेत्रों में या छोटे शहरों में अभी भी संडास या कमाऊ
शौचालयों की व्यवस्था ही काम कर रही है। संडासों या कमाऊ शौचालयों से मल निकालकर स्थान
विशेष पर उसे जमा कर दिया जाता है। इस मल-जमाव के कारण मृदा प्रदूषित हो जाती है और
असाध्य बीमारियाँ फैलती हैं। अतः सम्पूर्ण देश में मल-जल-बहन प्रबंधन की सुचारू व्यवस्था
होनी चाहिए। तभी मृदा प्रदूषण रुक सकता है।
द एसोशियेटेड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड
इंडस्ट्रीज ऑफ इण्डिया (एसोचेम) ने मृदा-प्रदूषण में कमी लाने तथा उसे नियंत्रित करने
के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाये हैं-
(1) देश में एक 'स्वायत्तशासी कचरा
प्रबंधन संस्थान' की स्थापना की जानी चाहिए। इस संस्थान का मूल दायित्व सरकारों (राज्य
एवं केन्द्र) को नीति-विषयक परामर्श देना होगा। वह इस प्रकार के उपाय सुझायेगा जिनसे कचरों के उत्पादन / सृजन में
कमी आये। इस तरह जल एवं मृदा को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
(2) विषयुक्त या विषैले कचरों के निस्तार
एवं प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार करने की आवश्यकता है। इस नीति का उद्देश्य
विषैले कचरों में कमी लाना, इन विषैले कचरों के पुनर्चक्रित उत्पादन को प्रोत्साहित
करना, जिसमें कि उनसे संसाधनों का उत्पादन संभव हो सके। शेष अवशिष्ट कचरों का उपचार
और निस्तार इस प्रकार संभव बनाया जाय ताकि वे पर्यावरण के लिए शत्रु नहीं, मित्र सिद्ध
हों।
(3) कचरों के उत्पादों के लिए राजस्व
में छूट प्रदान किया जाना चाहिए। साथ-ही-साथ कचरों के उत्पादों के लिए बाजार समर्थन
भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
(4) जिन जगहों पर कचरा के प्रबंधन और
उपचार या शोधन के लिए नगरपालिकीय उपचार संयंत्र उपलब्ध न हों, वहाँ सभी उद्योगों और
संस्थाओं के लिए एक सामान्य उपचार संयंत्र एवं निस्तार सुविधा उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
(5) ई. सी. ओ. की योजनाओं और तकनीकों
का स्वागत किया जाना चाहिए।
हाल फिलहाल में राष्ट्रीय पर्यावरण
अभियंत्रण अनुसंधान संस्थान (National Environmental Engineering Research Institute) नागपुर ने मल-बल के निस्तार की
समस्याओं के प्रति सकारात्मक एवं यथार्थपरक दृष्टिकोण अपनाया है तथा उसने मल-जल के
संपूर्ण उपयोग पर शोध कार्य संचालित करने का लक्ष्य अपने सामने रखा है। यदि एसोचैम
एवं पर्यावरण अभियंत्रण अनुसंधान संस्थान जैसी संस्थाओं के सुझावों को यथाशीघ्र कार्य
रूप में परिणित किया जा सके तो भारतवर्ष में मलजल से होनेवाले सभी प्रकार के प्रदूषणों
से देश को बहुत बड़ी सीमा तक मुक्ति मिल सकती है।
ध्वनि-प्रदूषण (Sound Pollution)
आज हम जिस पर्यावरण में जीने के लिए विवश हैं, वह पर्यावरण विभिन्न
कारणों से भयानक रूप से प्रदूषित हो गया है। वायु, जल एवं मृदा के प्रदूषणों की तरह
ही 'ध्वनि-प्रदूषण' भी नगर नियोजकों एवं वैज्ञानिकों के लिए कठिन समस्या बन गया है।
दिनानुदिन बढ़ती जनसंख्या, उद्योग-धंधों, अनेक प्रकार की मोटरगाड़ी मोटर साइकिल, ट्रक,
मालवाहक गाड़ियाँ, हवाई जहाज, राकेट, जेट, संगीत माध्यम (यथा-रेडियो, टेप रिकॉर्डर,
बी.सी.डी., डी.वी.डी., स्टिरियो और टी.वी.) तथा कल-कारखानों आदि से इतना अधिक शोर उत्पादित
होता है कि जिसके चलते आदमी का चैन छिन गया है।
सरल शब्दों में अवांछित ध्वनि का ही दूसरा नाम शोर (sound
pollution/noise) है। अनावश्यक ध्वनि उसे कहना चाहिए जो मनुष्य को अच्छी नहीं लगती
हो। उदाहरण के लिए वायुयानों की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, क्रैकरों (पटाखों) का विस्फोट
विभिन्न प्रकार के वाहनों और गाड़ियों की ध्वनि तथा असहनीय संगीत-इसी प्रकार की अनावश्यक
ध्वनियाँ हैं। संगीत किसी को कर्णप्रिय और किसी को कर्णकटु प्रतीत हो सकता है। कर्टकटु
ध्वनि से मनुष्य पर पीड़क प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिक भाषा में वायु अथवा द्रव में
अणुओं के बीच की दूरी घटने-बढ़ने से ही ध्वनि उत्पन्न होती है और इसी ध्वनि में तीव्र
गति उत्पन्न हो जाने पर बह 'शोर' बन जाती है। शोर मनुष्य की निद्रा में ही केवल बाधक
नहीं है अपितु इससे प्रभावित व्यक्ति अपनी श्रवण-शक्ति भी खो देता है।
मनुष्य का पीछा शोर उसी दिन से करता
आ रहा है जिस दिन से पृथ्वी पर उसका आगमन प्रारम्भ हुआ। एक सुप्रसिद्ध लोकोक्ति है-"
ध्वनि या तो संगीत होती है या फिर शोर।" इस लोकोक्ति का अभिप्राय यह है कि कर्णप्रिय
ध्वनि संगीत और कर्णकटु ध्वनि शोर है। शोर इतना अनावश्यक एवं कष्टप्रद प्रभाव उत्पन्न
करता है कि समवेत रूप से इसे 'शोर या ध्वनि प्रदूषण' की संज्ञा दे दी गयी है। शोर मनुष्य
को बहुत परेशान करता है। उसे कष्ट पहुँचाता है। शोर का व्यक्ति पर मनोवैज्ञानिक और
शारीरिक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ता है। इन्हीं कारणों से शोर या ध्वनि प्रदूषण की
परिभाषा इन शब्दों में दी गयी है- "जिस अनिच्छित ध्वनि का मानव जीवन की सुख-सुविधा,
स्वास्थ्य, कल्याण और सम्पूर्ण आनन्दोपभोग में महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप होता है, उसे
शोर कहते हैं।" (The undesirable sound that interferes significantly with
the comfort, health or welfare of persons, or with the full use or enjoyment of
property.) शोर का हस्तक्षेप रह-रह कर या लगातार, दोनों प्रकार से हो सकता है।
ध्वनि किसी वस्तु या यंत्र के कम्पन्न
से होती है। ध्वनि तरंगों के माध्यम से संचरित होती है। दबाव के घटने-बढ़ने से ध्वनि
तरंगों में परिवर्तन होता है। ध्वनि किसी माध्यम के द्वारा आगे बढ़ती है। जल में कंकड़ी
फेंक देने मात्र से जैसे, उसमें छोटी-छोटी लहरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और वे फैलती
हैं, उसी तरह ध्वनि की तरंगें भी फैलती है। ध्वनि की गति, माध्यम की प्रकृति के अनुरूप
बदल जाती है। जब हम ध्वनि की गति की गात करते हैं तो इसका अर्थ होता है समुद्रतल पर
ध्वनि की यात्रा की गति। सामान्यतः समुद्रतल पर ध्वनि की गति 331 मीटर/सेकेण्ड होती
है। पानी में इसकी गति पाँच गुनी बढ़ जाती है। लोहा और इस्पात में इसकी गति और भी तीव्र
होती है।
जल, वायु एवं मृदा प्रदूषणों की भाँति
ध्वनि प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव भावी पीढ़ियों पर नहीं पड़ता क्योंकि तत्त्वों, यौगिकों
और पदार्थों की तरह स्थायी रूप से एक स्थान पर एकत्र होकर स्थिर नहीं रह पाता। ध्वनि
प्रदूषण एक प्रकार का तरंग प्रभाव है जो सामान्यतः वायु के माध्यम से संचरित होता है।
ध्वनि कान के द्वारा मनुष्य एवं पशुओं द्वारा ग्रहण की जाती है।
मैक्सवेल की ध्वनि प्रदूषण सम्बन्धी
परिभाषा यह है "वह अनिच्छित ध्वनि जो मानवीय सुविधा, स्वास्थ्य तथा गतिविधि में
हस्तक्षेप करती है 'ध्वनि प्रदूषण' कहलाती है।"
ध्वनि-प्रदूषण की एक अन्य परिभाषा यह
भी दी गयी है- "Noise is defined as unwanted high intensity sound without
agreeable musical quality."
ध्वनि-प्रदूषण के स्रोत और कारण
सामान्यतः ध्वनि प्रदूषण के दो ही प्रमुख
स्रोत हैं (1) प्राकृतिक एवं (2) मानवीय। इन दोनों स्त्रोतों में से प्राकृतिक ध्वनि
प्रदूषण बहुत अधिक महत्त्व नहीं रखता क्योंकि वह क्षणिक होता है। ध्वनि प्रदूषण का
सबसे बड़ा स्रोत मानवीय कृत्य है। उसकी गतिविधियों से उत्पादित शोर की प्रकृति दो प्रकार
की होती है (क) स्थिर (स्थायी) स्त्रोत और (ख) गतिशील स्रोत।
उद्योग, लाउडस्पीकरों का उपयोग, खनन
कार्य, बुलडोजरों का उपयोग, खनन-यंत्र (ड्रिलर) का उपयोग, पत्थरों को तोड़ने के लिए
डायनामाइट का उपयोग, अनेक प्रकार के घरेलू उपकरण जैसे वैक्यूम क्लीनर, टी.वी., स्टिरियों,
ग्राइंडर, मिक्सर, सब्जी एवं मछली बाजार का शोर आदि ध्वनि प्रदूषण के स्थायी एवं स्थिर
स्रोत हैं।
गतिशील स्रोत में सड़क परिवहन, रेलवे,
वागुयान एवं नौवहन आदि आते हैं।
1. परिवहन एवं यातायात से उत्पन्न शोर
:
परिवहन एवं गातायात स्रोत से उत्पन्न
शोर को तीन उपवर्गों में बाँटा जा सकता है-
(i) सड़क परिवहन
(ii) वायुयानों के शोर एवं
(iii) रेलगाड़ियों के शोर।
(i) सड़क परिवहन का शोर :
सड़कों पर चलनेवाली गाड़ियों से उत्पन्न
शोर ध्वनि प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है। सड़क पर दो तरह के वाहन चलते हैं- (i) निजी
वाहन तथा (ii) सभी प्रकार के वाहनों का लगातार आवागमन। इन दोनों प्रकार के परिवहनों
से शोर का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। निजी वाहनों के इंजनों की ध्वनि, संचरण ध्वनि,
निर्गम ध्वनि, कार के दरवाजों का जोर से या धम से बंद करने की ध्वनि एवं हॉर्मों की
ध्वनि से शोर उत्पन्न होता है। निजी वाहनों या परिवहन की इन ध्वनियों से अधिक शोर उनके
तीव्र गति से चलने से शोर उत्पन्न होता है। गाड़ी की गति जैसे ही बढ़ती है, शोर का
परिमाण भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त परिवहन उत्पादित शोर परिवहन-परिचालन
की सघनता पर निर्भर करता है। संचालन के अनगिनत तरीके एवं परिस्थितियाँ और प्रकार भी
शोर के परिमाण को बढ़ा देते हैं। नगरों में प्रातःकाल परिवहनों का आवागमन शीर्ष पर
होता है। सड़कों पर ट्रक, बस जैसे डीजल संचालित जो भारी गाड़ियाँ चलते हैं, उनसे बहुत
अधिक शोर पैदा होता है। डीजल गाड़ियाँ छोटी-छोटी कारों और स्कूटरों की अपेक्षा अधिक
तीव्रतावाला शोर उत्पन्न करती हैं। भारी गाड़ियों द्वारा उत्पादित शोर से तीव्रता में
तीस गुना अधिक होता है।
(ii) वायुयान का शोर : हाल के वर्षों में शोर में अप्रत्याशित
वृद्धि हुई है। अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डों के निकटवर्ती महानगरों में शोर का प्रदूषण
बेहिसाब बढ़ा है। वायुयानों का शोर परिवहनीय शोर से इस अर्थ में भिन्न होता है कि जहाँ
परिवहनों से लगातार शोर पैदा होता रहता है, वहाँ वायुयानों से रह-रहकर बीच-बीच में
शोर उत्पन्न होता है। इंजिन वाले वायुयानों से उत्पन्न शोर की अपेक्षा जेट-यानों द्वारा
उत्पन्न शोर अधिक बेचैन कर देता है। इसका मूलभूत कारण यह है कि ये यान बहुत अधिक ऊँचाई
पर उड़ते हैं। वायुयानों से शोर उसके उड़ने या पृथ्वी तल पर उतरते समय अधिक उत्पन्न
होता है। आकाश से नीचे उतरते समय जब वायुयान पृथ्वी के तल के बहुत निकट होता है, तब
वह बहुत अधिक शोर करता है लेकिन जमीन से उड़ान भरते समय शोर का परिमाण अपेक्षाकृत बहुत
कम होता है। शोर से पर्यावरण में एक प्रकार की स्थायी अशान्ति उत्पन्न हो जाती है।
महानगरों में वायुयानों की रात्रि उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। महानगरों में
वायुयानों द्वारा उत्पन्न शोर की सीमा निर्धारित कर दी गयी है। आकाश में दिन में उड़ते
समय जहाजों की ध्वनि 110 पीएन डेसीबल से अधिक नहीं होना चाहिए, जबकि रात में 102 पीएन
डेसीबल के करीब ही उनकी ध्वनि होनी चाहिए। (PN = Perceived Noise Level)।
(iii) रेल परिवहन शोर रेल परिवहन द्वारा
उत्पादित शोर सड़क परिवहन एवं वायुयानों के शोर की तुलना में कम बेचैनीवाला होता है।
सड़क परिवहन की अपेक्षा रेल परिवहन का शोर कम फ्रिक्वेंशी का होता है। रेलगाड़ियाँ
प्रायः शहरों से दूर ग्रामीण क्षेत्रों से होकर चलती हैं। इसलिए उनके शोर से नगर आदि
अप्रभावित रह जाते हैं। रेलपटरियों के निकट निर्मित भवनों पर रेलगाड़ियों के शोर का
प्रभाव अधिक देखा जाता है। विद्युत परिचालित रेलगाड़ियों के प्रचलन से रेल परिवहन का
शोर बहुत बड़े परिमाण में घटा है।
2. औद्योगिक शोर :
उद्योगों में शोर ऊर्जा-परिवर्तन का
उपउत्पाद होता है। उद्योगों द्वारा उत्पादित शोर के मुख्य स्रोत विद्युत यांत्रिक मशीन
(जैसे मोटर, जेनरेटर इत्यादि), संघात यंत्र (पंचिंग, स्टैम्पिंग, बैनर्स), फर्नेस,
कल्प्रेटर, पंखें, असंतुलित या अनुचिता रीति से फिट किये गये यांत्रिक जीस्ट, गियर्स
आदि हैं। उद्योगों के शीर प्रष्ट उसके अंतिम ताक ही ॉमित रह जाते हैं। आपदा-मिल, फाउंड्री,
मर्जीन टूल्स, एवं बहन (automobile) उद्योग, सकीना एवं माती स्थीतों वाले उद्योगों
से बहुत बड़े परिनाम में शोर-टूममा उत्पादित होता है। औद्योगिक इकाइयों द्वाला उत्पादिता
शोर-प्रदूशमा पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इसया बहुत बड़ा दुष्प्रभाव
इन उद्योगों में काम करने वाली लाखों लाख श्रनिकों पर पड़ता रहता है।
3. निर्माणा उद्यानों के शोर :
कल-कारखानों से पैदा होने वाले शोर
की अपेक्षा निर्माण स्थलों व्या शोर अधिक खतरनाक होता है। इस सीर के दो प्रमुख कारण
हैं। एक तो किसी भी चैत्रा में सड़क, पुल, भवान या बाँय का निर्माणा आवश्यक होता है,
दूसरे निर्माण कार्यों में जिन उपकरणों या यंत्रों का उपयोग किया जाता है, वे अत्यधिक
सौर उत्पादक हुआ करते हैं।
4. पड़ोस का शौर
पड़ोस के शोर में विविष्य प्रकार का
और शामिल होता है। इस प्रकार का और सामान्य रूप से लोगों की परेशानी का कारण होता है।
पडोम्लीय शोर का मुख्य स्रोत है विभिन्न अवसरों पर ध्वनि-विस्तारकों
(loudspeakers) का नेकपूर्ण उपयोगा। इस तरह के और कया दूस्ता स्रोत वैक्यूम क्लीनर्स,
टी.बी., रेडियो, वाशिंग मशीन, पानी के मोटर, डेक आदि हैं।
5. प्राकृतिक स्रोत से उत्पन्ना ध्वनि :
ध्वनि-प्रदूषण का प्राकृतिक स्रोत भी
हुब्या करता है। बदलों की गड़गड़ाहट, बिजली की कौष, तीव्र आँधी-तूफान और झंझावत, ज्वालामुखी
विस्फोटक समुद्री लहनों की तट से टकराहट, ऊपर से निस्ता तीव्र गति का जल-प्रवाह बंगलों
में हिंल पशुओं की दहाड़, आदि ध्वनि-प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत हैं। लेकिन प्रकृति
द्वारा उत्पादित शोर बिल्कुल क्षणिक होता है। इसकी प्रकृति भी स्थानीय होती है। अतः
इसका प्रभाव भी तात्कालिक एवं क्षणिक हुआ करता है। इस स्रोत से उत्पन्न प्रदूषण मानव
मात्र के लिए आन्य बीतों से उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण से कम कष्टप्रद और भयावह होता है।
ध्वनि-प्रदूषण का प्रभाव एवं उसके
नियंत्रण के उपाय
शोर का मानव शरीर पर अनेक प्रकार
का दुष्प्रभाव पड़ता है। शोर से मनुष्य का मन और तन दोनों प्रभावित होता है। शोर
उसमें मनोविकार से लेकर अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है। शोर के
कुछ प्रमुख दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1. श्रव्यगत दुष्प्रभाव : अधिक तीव्रता वाला शोर मनुष्य में अस्थायी वधिरता उत्पन्न करनेवाला होता है। इस प्रकार की वधिरता के लक्षण कारखानों के श्रमिकों में
सामान्य रूप से देखा गया है। जो श्रमिक बहुत अधिक समय तक कारखानों में काम करते
हैं, उनमें शीघ्र ही बधिरता (बहरापन) के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। विशेषज्ञों के
अनुसार 80 से लेकर 100 डेसीबल (db) से अधिक तीव्रता वाली ध्वनि कम समय के भीतर ही
मनुष्य की सुनने की क्षमता को कम कर देती है। शनैः शनैः मनुष्य की श्रवण क्षमता
पूर्णतः विनष्ट हो जा सकती है और वे ध्वनि-आधात के भी शिकार हो जा सकते हैं। ध्वनि-आघात
की व्याधि तब होती है जब ध्वनि की तीव्रता 150 डेसीबल से अधिक की होती है।
2. वाक्-श्रव्य-व्यवधान : बहुत अधिक शोर-शराबे वाले स्थान
में व्यक्ति दूसरों की बात ठीक से सुन नहीं पाता। कार्यालयों, स्कूलों एवं अन्य जगहों
पर आपसी संवाद सम्प्रेषण का बहुत अधिक महत्त्व होता है। वहाँ पर लोग अधिक शोर होने
पर वक्ता की बातों को अच्छी तरह से सुनकर ग्रहण नहीं कर पाते। इन जगहों पर ध्वनि का
स्वीकार्य स्तर 55 db से अधिक नहीं होना चाहिए। ध्वनि का नेपथ्यस्थित स्तर 70 डीवी
(db) से अधिक नहीं होना चाहिए।
3. निंद्रा-व्यवधान : नींद से जग जाने के अनेक कारण हैं।
इनमें से कुछ है-शोर की प्रचंडता, नींद की प्रगाढ़ता, पहले कितना सोया जा चुका है,
आयु, किसी नशीले पदार्थ का सेवन इत्यादि। लगातार नींद का उचटना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त
संकटमय है। गहरी नींद से मनुष्य के अंगों में स्फूर्त्ति आती है और उसकी खोई ऊर्जा
पुनः वापस मिलती है। किन्तु शोर के पारण बार-बार नींद उचट जाती है। अंगों में स्फूर्त्ति
नहीं रहती और काम करने का जी नहीं करता। नींद के समय ध्वनि का स्वीकार्य स्तर 40 डेसीबल
(db) से अधिक नहीं होना चाहिए।
4. स्वभाव में चिड़चिड़ापन का उत्पन्न
होना : 75 से 85 डेसीबल का शोर मनुष्य को चिड़चिड़ा बना देती है। उसकी रक्त नलिकाएँ सिकुड़ जाती हैं।
साँस लेने में अबरोध उत्पन्न होता है और मांसपेशियों में तनावजनित विकार उत्पन्न हो
जाता है।
5. कार्य कुशलता में व्यवधान : यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि शान्त वातावरण में शान्तचित्त से काम
सुचारु रूप से किया जा सकता है। शान्त वातावरण में मनुष्य दत्तचित्त होकर अपना कर्त्तव्य
पूरा कर लेता है लेकिन अत्यधिक शोरपूर्ण वातावरण में चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती
है और वह उचित रीति से अपना दायित्व नहीं निभा पाता। शोरपूर्ण वातावरण में काम करनेवाले
लोगों की बातें सुनने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि शोर ने उन्हें मानसिक रूप से
बीमार बना दिया है और उनकी कार्य क्षमता घटा दी है। धीमे शोर की अपेक्षा शोर का आकस्मिक
स्फोट (burst) अधिक हानिकारक होता है। 90 डेसीबल से अधिक के शोर से मनुष्य की कार्यक्षमता
में अत्यधिक ह्रास होता है। शोर से काम की परिमाणात्मकता से अधिक उसकी गुणवत्ता प्रभावित
होती है। जटिल कामों पर तो शोर का और भी अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
6. आचरणगत दुष्प्रभाव : शोर के कारण मनुष्य की सुनने की क्षमता कम हो जाती है। फलस्वरूप
वह न तो अन्य की बातें ठीक से सुन पाता है और न ही उस पर अपना ध्यान केन्द्रित कर पाता
है। शोर के कारण व्यक्ति के आचरण और स्वभाव में चिड़चिड़ापन और खीझ का समावेश हो जाता
है जिससे कुछ भी सीखने की उसकी योग्यता घट जाती है। रुक-रुक कर होनेवाला आवेगपूर्ण
शोर मनुष्य का ध्यान बँटा देता है और उसमें अतिशय उत्तेजना एवं घबड़ाहट पैदा करता है।
7. भावनात्मक एवं वैयक्तिक दुष्प्रभाव : शोर का भावनात्मक और वैयक्तिक दुष्प्रभाव असाध्य कोटि का होता
है। यदि लम्बे समय तक मनुष्य को अधिक शोर-शराबे वाले अशान्त वातावरण में काम करना पड़
जाता है तो इसकी बड़ी बुरी प्रतिक्रिया उसमें उत्पन्न हो जाती है। इस तरह के वातावरण
में रहने वाले बच्चों में अपने आप में अपूर्णता, अपर्याप्तता और आत्मविश्वास की कमी
का बोध जाग्रत होता है। इस कारण उनमें हीन-भावना घर कर जाती है। तनाव, अनिंद्रा, थकावट,
रक्तचाप और बधिरता के लक्षण उन लोगों में अधिक दिखायी देते हैं।
निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता
कि शोर के कारण मनुष्य में पागलपन पैदा होता है लेकिन लोगों में मानसिक तनाव तो इससे
अवश्य उत्पन्न होता है।
8. एकांतता भंग होने का संकट : कुछ बातें लोग गुपचुप रूप से करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि
उनकी बातें दूसरे नहीं सुन पाएँ। इसलिए वे धीमे स्वर में बातचीत करना चाहते हैं किन्तु शोर-शराबे के कारण धीमे स्वर में
बातवीत करना सम्भव नहीं होता। फलतः वातार्थत की एकांतता भंग होती है। इस तरह की समस्या
का सामना बहुमंजिली इमारतों में रहने वाल लोग ज्यादा करते हैं, जिन इमारतों का निर्माण
कम भारवाली सामग्रियों (खोखले स्लैबों आदि) से होता है। इस तरह के भवनों में शोर या
ध्वनि बहुत अधिक गूँजती है और दूम लोगों को इससे कष्ट पहुँचता है।
9. रोगात्मक दुष्प्रभाव : मानव शरीर पर विशेष प्रकार की ध्वनि, ध्वनि तरंगों और कम्पन
का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्य श्रव्य-सीमा से अधिक आवृत्तिः गले अल्ट्रासोनिक
ध्वनि जिसकी आवृत्ति 20,000 हर्ज होती है, के कारण कान के अंदर की नलिका प्रभावित हो
जाती है। फलस्वरूप व्यक्ति में मिचली, सिरदर्द और थकावट के लक्षणा उत्पन्न होते हैं
और अन्ततः ये रोग के कारण बन जाते हैं। इसके विपरीत निम्न आवृत्ति वाली (श्रव्य-सीमा
के सामान्य स्तर से कम) ध्वनि के कारण हृदय की सामान्य घड़कन में कमी आती है। रक्तचाग
में उतार-चढ़ाव होने लगता है। साँस लेने में कठिनाई का अनुभव होता है।। ध्वनि के प्रदूषण
से मनुष्य की मृत्यु भो सम्भावित हैं। प्रकृति द्वारा उत्पादित mfra-sound के कारण
पशु विचलित हो उठते हैं। प्राकृतिक विवंसजन्य ध्वनियों (जैसे भूकम्प एर्व ज्वालामुखी
के फटने की भयानक ध्वनियाँ) का पशु एर्व मनुष्य पर बहुत बराक असर पड़ता है। कभी-कभी
तो ध्वनि की तीव्रता, गहनता और आवृत्ति इतनी अधिक होती है कि उससे बड़े-बड़े भवनों
में दरार पड़ जाती है और मनुष्य रास्ते से छिटक कर दूर फेंका जा सकता है। 1945 ई. में
जापान के नागासाकी और हिरोशिमा में परमाणु बम विस्फोट के कारण उत्पन भयानक ध्वनि के
इस तरह के प्रभाद का लोगों ने प्रत्यक्ष अनुभव किया था।
10. अन्य दुष्प्रभाव : ध्वनि प्रदूषण के कारण जन्मता विकलगिता, मृत्त शिशु का जन्मा
कम वजन वाले दुर्बल शिशुओं के जन्म की घटनाएँ सामने आर्वी हैं। जो नर्भिणी खी अधिक
शोर-शराबे बाले क्षेत्रों में रहती हैं उनके गर्भस्थ शिशुओं पर इस तरह के दुाग्रमाक
अधिक देखे गये हैं। शिशुओं के सामान्य विकास को भी ध्वनि प्रदूषण प्रभावित करता है।
शोर के कारण मनुष्य की आँखों की पुतलियाँ भी फैल जाती हैं और इस तरह उनके देखने की
क्षमता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।
ध्वनि प्रदूषण के शमन और नियंत्रण के
उपाय
यद्यपि ध्वनि प्रदूषण वैज्ञानिकों के
सामने एक महत्त्वपूर्ण समस्या है, फिर भी इससे बचने के उपाय खोज लिये गये हैं। ध्वनि-प्रदूषण
का शमन तीन प्रमुख विधियों द्वारा सम्भव है- (1) स्रोत की शोर-अमता कम करके (2) ध्वनि-माध्यम
में अवरोध उत्पन्न करके तथा (3) श्रोताओं को संरक्षित करके। इन तीनों उपायों में सबसे
अच्छा उपाय शोर के स्रोत को कम करना ही समझा जाता है। उदाहरण के लिए नगरों में घने
बसे क्षेत्रों में शोर करनेवाले परिवहन साधनों यथा, ट्रकों, बलों, मोटर साइकिलों तथा
स्कूटरों की संख्या में कानूनी प्रतिबंध द्वारा कमी लाकर शोर के परिनाम और गहनता में
कमी लायी जा सकती है।
कारखानों में मशीनों से पैदा होनेवाली
तीव्र ध्वनि साइलेंसर जैसी प्रतिरोधक लगाकर कम की जा सकती है। कारखानों में काम करनेवाले
श्रमिकों को ईअर प्लग्स, ईअर-मकल, हेलमेट आदि उपकरणों से लैस करके शोर के घातक प्रभाव
से बचा जा सकता है। मशीनों में समय-समय पर तेल और ग्रीज डालकर उनसे होनेवाले शोर को
कम किया जा सकता है। स्वीडन में शौर के प्रभाव से बचने के लिए कान में लगाने के एक
ऐसे यंत्र का आविष्कार हुआ है जो आसानी से कान में लगाया जा सकता है। इसकी विशेषता
यह है कि आपसी बातचीत तो तनी जा सकती है परन्तु मशीनों की गड़गड़ाहट मजदूरों तक नहीं
पहुँच पाती। ध्वनि-निरोधक दीवारों और छतों का निर्माण करके भी ध्वनि के स्तर को कम
किया जा सकता है।
पुरानी गाड़ियों से शोर ज्यादा
होता है। ऐसी गाड़ियों का परिचालन कानूनी रूप से वर्जित कर दिया जाना चाहिए। गाड़ी
के हॉर्तों के अनावश्यक उपयोग पर रोक लगनी चाहिए।
वाहनों के आने-जाने के लिए,
विशेषकर, भारी वाहनों के आवागमन के लिए नगर के बाहरी क्षेत्रों में सड़कें होनी
चाहिए।
नगरों में एकमार्गीय व्यवस्था होनी
चाहिए। इससे शोर में काफी कमी आयेगी।
रेल की ध्वनि को ब्लास्टविहीन
रेलमार्गों के द्वारा कम की जा सकती है।
वायुयानों के शोर नियंत्रित करने
के लिए वैज्ञानिक विधि विकसित की जानी चाहिए।
आजकल जेट इंजनों में ध्वनि अवशोषक
लगाकर उसकी ध्वनि कम करने के उपाय किये गये हैं।
सघन वृक्षारोपण विशेषकर
रेलमार्गों, सड़कों आदि के पार्श्व (किनारे) में करने से शोर के परिणाम में कमी
आयेगी।
निष्कर्ष :
ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण का सबसे
कारगर उपाय मनुष्य द्वारा अपने व्यवहार एवं आचरण
में परिवर्तन लाना है। तेज संगीत बजाने, अत्यधिक शोर करने वाले उपकरणों के प्रयोग
आदि की आदत छोड़कर व्यक्ति स्वयं ध्वनि प्रदूषणों को कम कर सकता है। यदि वाहन
चलाते समय वह थोड़ी सावधानी बरते तो कम शोर उत्पन्न होगा।
देश में ध्वनि प्रदूषण को रोकने के
लिए कड़ा प्रतिबंधक और दण्डनीय कानून बनना चाहिए।