एडम स्मिथ (Adam Smith)अर्थशास्त्र का जनक |
एडम
स्मिथ प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में सबसे प्रमुख माना जाता है तथा उसे
'अर्थशास्त्र का पिता' कहा जाता है। उसकी विख्यात पुस्तक An Enquiry into the
Nature and Causes of the Wealth of Nations, जो 1776 में प्रकाशित हुई,
मुख्यतः आर्थिक विकास की समस्या से संबद्ध है। यद्यपि उसने
आर्थिक विकास के बारे में व्यवस्थित सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया, फिर भी बाद
के अर्थशास्त्रियों ने सुव्यवस्थित सिद्धान्त बनाया है जिसकी व्याख्या निम्नलिखित
है :
प्राकृतिक नियम (Natural Law)
आर्थिक
मामलों में एडम स्मिथ प्राकृतिक नियम' में विश्वास करता था। वह मानता था कि प्रत्येक
व्यक्ति अपने हित का श्रेष्ठतम निर्णायक है और उसे अपने हित के पालन करने में
स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। अपने स्वार्थ को बढ़ाने में वह सामान्य हित को भी
बढ़ाएगा। इसके पालन में कोई अदृश्य हाथ' प्रत्येक व्यक्ति का मार्ग-प्रदर्शन करता
है जो मार्किट तन्त्र को चलाता है। स्मिथका कथन था कि "ब्रैड बनाने वाले की
उदारता से नहीं बल्कि उसके अपने स्वार्थ के कारण हमें ब्रैड प्राप्त होती
है।"क्योंकि यदि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए, तो वह अपने धन को
अधिकतम बनाने का प्रयत्न करेगा। अतः यदि सब व्यक्तियों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए
तो वे
'कुल धन' को अधिकतम बनाएंगे। स्वभाविक रूप से एडम स्मिथ इस बात के विरुद्ध था कि उद्योग तथा वाणिज्य में सरकार किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करे। वह
कट्टर स्वतंत्र व्यापारी तथा आर्थिक मामलों में अबंध की नीति का समर्थक था।
'अदृश्य हाथ'-अर्थात पूर्ण प्रतियोगी मार्किट का संतुलन स्थापित करने वाला
तंत्र-राष्ट्रीय धन को अधिकतम बनाता है।
श्रम विभाजन (Division of Labour)
श्रम
का विभाजन स्मिथ के आर्थिक वृद्धि के सिद्धान्त का प्रारम्भ बिन्दु है। श्रम के
विभाजन से 'श्रम की उत्पादक शक्तियों में अधिकतम सुधार' होता है। उसके
अनुसार उत्पादकता में इस वृद्धि का श्रेय (1) प्रत्येक श्रमिक की
निपुणता में वृद्धि; (2) वस्तुओं के उत्पादन में समय की बचत और (3) श्रम बचत करने
वाली बहुत सारी मशीनों के आविष्कार को हैं।' उत्पादकता में वृद्धि का मुख्य कारण
श्रम से नहीं बल्कि पूँजी से उत्पन्न होता है। सुधरी हुई प्रौद्योगिकी
(technology) से श्रम का विभाजन तथा मार्किट का विस्तार होता है। परन्तु जिससे
श्रम का विभाजन होता है, वह मानव स्वभाव की सौदा करने, वस्तु-विनिमय तथा एक वस्तु का
दूसरी वस्तु से बदला करने की विशेष प्रवृत्ति है। पर,श्रमका विभाजन मार्किट के आकार
पर निर्भर करता है। स्मिथ का प्रसिद्ध कथन है कि"श्रमका विभाजन मार्किट के विस्तार
क्षेत्र के द्वारा सीमित हो जाता है।" इसका अर्थ है कि मार्किट का विस्तार होने
पर श्रम का विभाजन बढ़ जाता है। इस उद्देश्य के लिए वाणिज्य तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
का विस्तार विशेष रूप से लाभदायक होता है। यदि जनसंख्या तथा परिवहन सुविधाओं में वृद्धि
होती है, तो उनके साथ श्रम का अधिक विभाजन तथा पूँजी में वृद्धि भी अवश्य होगी।
पूँजी-संचय की प्रकिया (Process of Capital Accumulation)
स्मिथ
ने इस बात पर बल दिया कि पूँजी-संचय अवश्य ही श्रम-विभाजन से पहले होना चाहिए।आधुनिक
अर्थशास्त्रियों की भांति, एडम स्मिथ भी पूँजी-संचय को आर्थिक विकास के लिए आवश्यक
शर्त मानता है। इसलिए आर्थिक विकास की समस्या लोगों की अधिक बचत करने तथा देश में अधिक
निवेश करने की योग्यता पर निर्भर थी। इस प्रकार बचत की दर से निवेश की दर निर्धारित
होती थी और सम्पूर्ण बचतें निवेश कर दी जाती थीं। जैसाकि स्मिथ ने कहा है, "एक
व्यक्ति प्रति वर्ष जितना अंश बचाता है, वह तुरंत पूँजी के रूप में प्रयोग हो जाता
है।" परन्तु लगभग सब बचतें निवेशों अथवा भूमि को लगान पर देने के परिणामस्वरूप
होती हैं। इसलिए यह समझा जाता था कि केवल पूँजीपति अथवा भूमिपति ही बचत कर सकते हैं।
श्रमिक वर्गों को बचत करने में असमर्थ समझा जाता था।
(i) मजदूरी (Wages)- यह विश्वास मजदूरी के लौह
नियम (Iron Law of Wages) पर आधारित था। स्मिथ भी 'मजदूरी कोष' के अस्तित्व में विश्वास
रखता था। वास्तविकता यह है कि मजदूरी उस राशि के बराबर होती है जो श्रमिकों के निर्वाह
के लिए आवश्यक हो। यदि किसी समय निर्वाह-स्तर की अपेक्षा मजदूरी कोष बढ़ जाए तो श्रम-शक्ति
बढ़ जायेगी, रोजगार के लिए प्रतियोगिता तीव्रतर हो जायेगी और मजदूरी घटकर निर्वाह-स्तर
पर आ जायेगी। ऐसी स्थिति में कुछ श्रमिकों के लिए आदी सामान्य जीवन-स्तर से निम्न-स्तर
पर निर्वाह कठिन हो जायेगा, इसलिए वे शादी अथवा बच्चों का पालन-पोषण नहीं कर पायेंगे।
काम करने वाले श्रमिक कम हो जायेंगे और श्रमिकों को रोजगार में लगाने के लिए पूँजीपतियों
में प्रतियोगिता से मजदूरी बढ़ जायेगी। इस प्रकार स्मिथ का विश्वास था कि "स्थैतिक
परिस्थितियों में मजदरी की दरें निर्वाह-स्तर पर आ जाती हैं, जबकि शीघ्र पूँजी-संचय
की अवधियों में वे इससे बढ़ जाती हैं। जिस सीमा तक वे बढ़ती हैं, वह पूँजी-संचय की
दर तथा जनसंख्या वृद्धि की दर, दोनों, पर निर्भर करती है।" लेकिन , मजदूरी कोष
बचतों से बनता है और निवेशों के माध्यम से श्रम को मजदूरी पर लगाने के काम आता है।
स्मिथ का विश्वास था कि बचतें जैसे-तैसे अपने-आप निवेश में लग जाती हैं। इस प्रकार
शुद्ध निवेश की दर बढ़ाने से मजदूरी कोष बढ़ाया जा सकता है।
(ii) लाभ (Profit)- पूँजीपति निवेश क्यों करते
हैं? स्मिथ के अनुसार निवेश इसलिए किए जाते थे कि पूँजीपति उन पर लाभ कमाने की आशा
रखते थे; और लाभों के संबंध में भावी प्रत्याशाएं निवेश के लिए वर्तमान परिस्थिति तथा
वास्तविक लाभों पर निर्भर रहती हैं। परन्तु विकास प्रक्रिया के दौरान लाभों की क्या
स्थिति होती है? स्मिथ का विश्वास था कि जब आर्थिक प्रगति होती है, तो उसके साथ लाभ
कम होने लगते हैं। जब पूँजी-संचय की दर बढ़ती है तो पूँजीपतियों में बढ़ती प्रतियोगिता
लाभों को घटा देती है।
(iii) व्याज (Interest)- स्मिथ के अनुसार, समृद्धि,
उन्नति एवं जनसंख्या के बढ़ने से ब्याज दर कम होती है जिससे पूँजी की पूर्ति में वृद्धि
होगी। इसका कारण यह होता है कि ब्याज दर कम हो जाने पर साहूकार अपना जीवन-स्तर पूर्ववत
बनाये रखने के लिए अधिक ऋण देंगे, जिससे वह अधिक ब्याज कमा सकें। इस प्रकार व्याज दर
और कम होने से उधार के लिए पूँजी की मात्रा में वृद्धि होती है। इससे ब्याज दर कम होती
है तथा साहूकार और ऋण देकर निर्वाह के लिए आय प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते। ऐसी
परिस्थिति में वे स्वयं ही निवेश करना प्रारम्भ कर देंगे और उद्यमियों का रूप धारण
कर लेंगे। अतः व्याज दर कम होने पर भी देश में पूँजी संचय और आर्थिक विकास में वृद्धि
होती रहेगी।
(iv) लगान (Rent)- जहाँ तक लगान का संबंध है,
स्मिथ का विश्वास था कि आर्थिक प्रगति से मुद्रा एवं वास्तविक लगानों में वृद्धि होती
है और राष्ट्रीय आय के लगान भाग में बढ़ोत्तरी। ऐसा इसलिए कि भूमिपतियों का हित समाज
के सामान्य हित से जुड़ा हुआ है।
विकास के दूत (Agents of Growth)
स्मिथ
के अनुसार किसान, उत्पादक तथा व्यापारी, उन्नति और आर्थिक विकास के दूत हैं मुक्त व्यापार,
साहस एवं प्रतिस्पर्धा के होने पर ही कृषकों, उत्पादकों एवं व्यापारियों ने मार्किट
को विस्तृत किया जिससे आर्थिक विकास सम्भव हो सका। इन तीनों के कार्य परस्पर संबद्ध
होते हैं स्मिथ के अनुसार कृषि में विकास होने पर ही निर्माण कार्यों एवं वाणिज्य में
वृद्धि होती है। कृषि विकास से जब कृषि अतिरेक (surplus) उत्पन्न होता है तो वाणिज्य,
सेवाओं तथा निर्मित वस्तुओं की मांग बढ़ती है जिससे वाणिज्य में उन्नति और निर्माणकारी
उद्योगों की स्थापना होती है। दूसरी ओर, इनके विकास से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती
है जब किसान उन्नत उत्पादन विधियों का प्रयोग करते हैं। अतः किसान, उत्पादक एवं व्यापारी
के होने से ही पूँजी संचय और आर्थिक विकास होता है।
विकास की प्रक्रिया (Process of Growth)
प्रोफेसर
शूम्पीटर ने स्मिथ के विकास सिद्धान्त की प्रक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया,
संस्थानिक', राजनैतिक तथा प्राकतिक साधनों को निश्चित मानकर एक सामाजिक ग्रुप, जिसे
हम राष्ट्र' कह सकते हैं, आर्थिक वृद्धि की विशेष दर का अनुभव करेगा जिसके लिए जनसंख्या
में वृद्धि तथा बचत उत्तरदायी हैं। इससे 'मार्किट के विस्तार' को प्रोत्साहन मिलता
है जिसके परिणामस्वरूप श्रम के विभाजन में वृद्धि होती है और इस प्रकार उत्पादकता बढ़ती
है इस सिद्धान्त में अर्थव्यवस्था एक वृक्ष की भाँति बढ़ती है। निस्सन्देह ऐसी प्रक्रिया
में ऐसे बाह्य साधन गड़बड़ पैदा करते हैं जो आर्थिक नहीं होते परन्तु यह प्रक्रिया
अपने-आप में धीरे-धीरे निरन्तर चलती रहती है। प्रत्येक स्थिति पहली स्थिति में एक अद्वितीय
निश्चित ढंग से उत्पन्न होती है और वे व्यक्ति,जिनके कार्य मिलकर प्रत्येक स्थिति उत्पन्न
करते हैं,व्यक्तिगत रूप से एक वृक्ष की व्यक्तिगत कोषिकाओं (cells) से अधिक नहीं होते।"
स्मिथ के अनुसार विकास की यह प्रक्रिया संचयी (cumulative) होती है। जब कृषि, निर्माणकारी
उद्योगों एवं वाणिज्य के कारण समृद्धि होती है तो उससे पूँजी-संचय, तकनीकी उन्नति,
जनसंख्या में वृद्धि, मार्किट का विस्तार, श्रम-विभाजन, लाभ में वृद्धि होती है और
यह क्रम चलता रहता है।
स्थिर अवस्था (Stationary State)
परन्तु
यह प्रगतिशील अवस्था सदैव नहीं चलती रहती है। प्राकृतिक साधनों की कमी विकास को रोकती
है। जब अर्थव्यवस्था अपने साधनों का पूर्ण विकास कर लेती है तो ऐसी समृद्ध अवस्था में
श्रमिकों में रोजगार के लिए प्रतिस्पर्धा मजदूरी को कम करके निर्वाह स्तर पर ला देती
है और व्यापारियों में प्रतिस्पर्धा लाभों को बहुत कम कर देती है। जब एक बार लाभ घटते
हैं तो घटते चले जाते हैं जिससे निवेश भी घटता जाता है और इस प्रकार विकास का अन्तिम
परिणाम होता है स्थिर अवस्था। जब ऐसा होता है तो पूँजी-संचय रुक जाता है, जनसंख्या
स्थिर हो जाती है, लाभ न्यूनतम होते हैं, मजदूरी निर्वाह-स्तर पर होती है, प्रति व्यक्ति
आय तथा उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता है और अर्थव्यवस्था गतिहीनता की अवस्था
में पहुँच जाती है। यह सब मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में होता है।
स्मिथ का सिद्धांत चित्र के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है जिसमें समय क्षैतिज अक्ष पर लिया गया है और पूँजी-संचय की दर dk/dt अनुलम्ब-अक्ष पर दी गई है।
अर्थव्यवस्था
समय गति में K से S तक बढ़ती है। T के बाद अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध स्थिर अवस्था को
प्राप्त होती है, जहाँ आगे वृद्धि नहीं हो पाती क्योंकि मजदूरी इतनी बढ़ जाती है कि
लाभ शून्य हो जाते हैं और पूँजी-संचय रुक जाता है।
समीक्षात्मक टिप्पणी (CRITICAL APPRAISAL)
एडम
स्मिथ के विकास मॉडल के कई गुण और दोष हैं, जो इसकी अल्पविकसित देशों के लिए उपयुक्तता
को भी बताते हैं।
स्मिथ
का सिद्धांत विकास के कुछ निम्नलिखित मूलभूत कारकों की ओर संकेत करता है जो कि किसी
भी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए आवश्यक समझे जाते हैं :
(i) बचत (Saving)-पूँजी-संचय के लिए मितव्ययिता
से रहने पर जोर दिया है। मितव्ययिता (कमखर्ची)रा ही बचतों में वृद्धि होती है और पूँजी-संचय
संभव होता है। यह तथ्य अल्पविकसित देशों पर पूरी तरह सत्य बैठता है। ऐसे देशों में
उपभोग प्रवृत्ति ऊँची होने के कारण विकास होने पर आय बढ़ने से उपभोग व्यय बहुत बढ़ता
है। यदि बढ़ी हुई आय को मितव्ययिता से खर्च किया जाए तो कीमतें बढ़ती हैं और आर्थिक
विकास में बाधा पड़ती है। इस कारण बचतों में वृद्धि मितव्ययिता द्वारा ही संभव हो सकती
है, जो पूँजी-संचय के लिए आवश्यक है।
(ii) पूँजी-संचय (Capital accumulation)-स्मिथ
पूँजी-संचय को आर्थिक विकास का मुख्य साधन मानता है जोकि हर प्रकार की अर्थव्यवस्था
में मान्य है। पूँजी-संचय अधिक होने से अधिक पूँजी-निर्माण होता है जिससे आर्थिक विकास
की दर बढ़ती है।
(iii) मार्किट का विस्तार (Expansion of market)-एडम
स्मिथ ने आर्थिक विकास में सुधरी हुई प्रौद्योगिकी के महत्त्व को बताया। प्रोद्योगिकी
द्वारा श्रम का विभाजन और मार्किट का विस्तार होता है जिससे उत्पादन को प्रोत्साहन
मिलता है। यह तथ्य भी विकसित एवं अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं पर लागू होता है और विकास
का आधार समझा जाता है।
(iv) अबंध नीति (Laisser faire policy)-स्मिथ
का अबंध अर्थव्यवस्था पर विश्वास आज भी विकास के लिए कई क्षेत्रों में ठीक समझा जाता
है, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, निजी क्षेत्र में उत्पादन आदि क्योंकि सार्वजनिक
क्षेत्र में अकुशलता और हानि की सम्भावना अधिक पाई जाती
(v) सन्तुलित विकास (Balanced growth)-स्मिथ
के सिद्धान्त में सन्तुलित विकास की प्रक्रिया निहित है। कृषकों, व्यापारियों और उत्पादकों
की परस्पर निर्भरता और परस्पर संबंध इस बात के द्योतक हैं कि कृषि-उत्पादन में वृद्धि
होने के लिए वाणिज्य एवं निर्माणकारी उद्योगों में भी विकास करना अनिवार्य है। कृषि-प्रधान
अल्पविकसित देशों में कृषि विकास को प्राथमिकता देने के साथ निर्माणकारी उद्योगों और
वाणिज्य का विकास करने से ही आर्थिक वृद्धि तीव्र गति से हो सकती है।
सिद्धान्त की कमियाँ (Weaknesses of the Theory)
इस
सिद्धान्त के गुणों के बावजूद यह कई कारणों से त्रुटियुक्त भी है :
1. समाज का कठोर विभाजन (Rigid division of society)-एडम
स्मिथ का सिद्धान्त ग्रेट ब्रिटेन तथा यूरोप के अन्य भागों में उस समय पाये जाने वाले
सामाजिक तथा आर्थिक वातावरण पर आधारित है। इसमें पूँजीपतियों (जिनमें भूमिपति भी शामिल
हैं) और श्रमिकों के बीच समाज के एक कठोर विभाजन का अस्तित्व मान लिया है। परन्तु आजकल
के समाज में मध्यवर्ग का बहुत महत्त्व पाया जाता है। अतः इस सिद्धान्त में मध्यवर्ग
की उपेक्षा की गई है, जोकि आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करता है।
2. एकपक्षीय बचत आधार (One-sided saving base)-एडम
स्मिथ के अनुसार पूँजीपति, भूमिपति और साहूकार ही बचत करते हैं। यह बचतों का एकपक्षीय
आधार है क्योंकि उसे यह सूझा नहीं कि उन्नत समाज में पूँजीपति एवं भूमिपति ही नहीं
बल्कि आय प्राप्तकर्ता बचत करने वाले प्रमुख वर्ग हैं।
3. पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक धारणा (Unrealistic assumption
of perfect competition)-एडम स्मिथ का सम्पूर्ण मॉडल पूर्ण प्रतियोगिता
की धारणा पर आधारित है जो कि अवास्तविक है। किसी भी अर्थव्यवस्था में अबंध नीति या
पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पाई जाती। आन्तरिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध,
निजी क्षेत्र पर रुकावटें आदि हर देश में पाये जाते हैं।
4. सार्वजनिक क्षेत्र की उपेक्षा (Neglect of public sector)-स्मिथ
अपनी अबंध नीति के कारण पूँजी-संचय तथा आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व
को समझने में असमर्थ रहा। आजकल हर देश में सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार हो रहा है,
जो पूँजी-निर्माण में बहुत सहायक होता है।
5. उद्यमी की अवहेलना (Neglect of entrepreneur)-स्मिथ
विकास में उद्यमी के कार्य की अवहेलना करता है। यह एक बहुत बड़ी त्रुटि है। उद्यमी
विकास का केन्द्र-बिन्दु होता है, जैसाकि शूम्पीटर का विचार है, क्योंकि उद्यमी ही
विभिन्न साधनों को संगठित करता है और वही नवप्रवर्तन (innovations) लाता है जिससे पूँजी-निर्माण
होता है।
6. स्थिर अवस्था की अवास्तविक धारणा (Unrealistic assumption of
stationary state)-स्मिथ का यह विचार है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
की अन्तिम अवस्था स्थिर स्थिति की है। इसका अभिप्राय यह है कि ऐसी अर्थव्यवस्था में
परिवर्तन तो होता है परन्तु एक संतुलन बिन्दु के गिर्द। इसमें प्रगति तो होती है परन्तु
वृक्ष की भांति नियमित तथा एकरूप एवं निरंतर। परन्तु आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया की
यह व्याख्या संतोषजनक नहीं है क्योंकि आर्थिक विकास एकरूप तथा निरन्तर नहीं बल्कि रुक-रुक
कर (by fits and starts) होता है । अतः स्थिरावस्था की धारणा अवास्तविक है।
7. स्थैतिक मॉडल (Static in model)-हिक्स के अनुसार, स्मिथ
का मॉडल, यद्यपि यह वृद्धि मॉडल की तरह दिखाई देता है आधुनिक दृष्टि से यह एक वृद्धि
मॉडल नहीं है क्योंकि यह क्रम (sequence) प्रदर्शित नहीं करता। इसलिए यह एक स्थैतिक
मॉडल है।
अल्पविकसित देशों के संबंध में इसकी उपयुक्तता (ITS APPLICABILITY
TO UNDERDEVELOPED COUNTRIES)
अल्पविकसित
देशों के लिए आर्थिक वृद्धि के एडम स्मिथ के विश्लेषण की सत्यता सीमित है। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं
में मार्किट का आकार छोटा होता है। परिणामस्वरूप बचत की क्षमता और निवेश की प्रेरणा
कम होती है। उत्पादन की मात्रा से मार्किट का परिमाण निर्धारित होता है। फिर, यह आय
के स्तर पर निर्भर है। 'क्रय-क्षमता का अर्थ है उत्पादन करने की क्षमता।' और किसी हद
तक उत्पादकता उत्पादन में निवेशित पूँजी की कोटि पर निर्भर करती है। अब क्योंकि मार्किट
का आकार कम है, इसलिए उत्पादकता कम है, और कम उत्पादकता का मतलब है आय का निम्न स्तर।
आय के निम्न स्तर का परिणाम यह होता है कि बचत की क्षमता तथा निदेश की प्रेरणा थोड़ी
रहती है और वे मार्किट आकार को छोटा रखती हैं। केन्ज की शब्दावली का प्रयोग किया जाए
तो अल्पविकसित देशों में वास्तविक आय का स्तर कम होता है परन्तु उपभोग प्रवृत्ति बहुत
अधिक होती है और आय में होने वाली प्रत्येक वृद्धि खाद्य वस्तुओं पर खर्च होती है।
बचत तथा निवेश कुछ नहीं होता। परिणामस्वरूप मार्किट का आकार कम रहता है। इस कारण स्मिथ
का सिद्धान्त, जो श्रम-विभाजन तथा मार्किट के विस्तार पर आधारित है, अल्पविकसित देशों
पर लागू नहीं होता।
फिर,
स्मिथ का सिद्धान्त जिन राजनैतिक, समाजिक एवं संस्थानिक मान्यताओं पर आधारित है वे
अल्पविकसित देशों में सर्वथा भिन्न हैं और उनकी समस्याओं से मेल नहीं खातीं। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं
में अबंध नीति या पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पाई जाती। प्रतियोगिता के स्थान पर एकाधिकारी
प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनसे गरीबी के दुश्चक्र शक्तिशाली होते हैं। इसलिए अबंध नीति
के स्थान पर सरकारी हस्तक्षेप अपनाने से विकास सम्भव हो सकता है।
ऐसा
होने पर भी स्मिथ के सिद्धान्त की विकास प्रक्रिया अल्पविकसित देशों के लिए कुछ तत्त्वों
की और निर्देश करती है जो उनके आर्थिक विकास सहायक हो सकते हैं। अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं
में स्मिथ द्वारा बताए गए विकास के तीन दूत-कृषक, उत्पादक एवं व्यापारी-अपने-अपने क्षेत्र
में उत्पादन बढ़ाकर पूँजी-संचय तथा विकास में सहायक हो सकते हैं। दूसरी ओर, ऐसे देशों
में मुक्त बाजार व्यवस्था न होने पर भी सरकार इनको आर्थिक सहायता देकर उत्पादन बढ़ाने
में प्रोत्साहित कर सकती है जैसेकि भारत में किया जा रहा है। इनकी परस्पर-निर्भरता
ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में संतुलित विकास के महत्त्व की ओर निर्देश करती है।
विशेषतया,
स्मिथ बचतों की अच्छाई का गुणगान करता है जोकि पूँजी-निर्माण के लिए ऐसे देशों में
एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना जाता है। उसने लिखा है, "हर फिजूलखर्च करने वाला
समाज-शत्रु दिखाई देता है, और प्रत्येक मितव्ययी व्यक्ति लोक कल्याण करने वाला है।"
फिर, स्मिथ का विकास प्रक्रिया में सुधरी हुई प्रौद्योगिकी, श्रम-विभाजन एवं मार्किट के विस्तार पर बल देना ऐसी अर्थव्यवस्थाओं की नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। जैसाकि रोस्टोव ने ठीक कहा है : "आजकल के दृष्टिकोण से देखने पर वैल्थ ऑफ नेशन्ज एक गत्यात्मक विश्लेषण और एक अल्पविकसित देश के लिए नीति का प्रोगाम है।'