प्रसिद्ध
फ्रैंच अर्थशास्त्री जे. बी. से (Jean Baptiste Say) ने अपनी पुस्तक 'ट्रेट डी
एकनोमिक पोल्टिक' (Traitc D' Economique Politique) में बाजार
सम्बन्धी एक संक्षिप्त नियम का प्रतिपादन किया था। इस नियम को 'से'
का बाजार नियम (Say's Law of Market) कहा जाता है।
जे.
बी. 'से' ने यह धारणा व्यक्त की कि “पूर्ति स्वयं अपनी माँग पैदा करती है"
(supply creates its own demand) जिसके कारण अर्थव्यवस्था में
अत्यधिक उत्पादन और बेरोजगारी की समस्या पैदा नहीं होती। यदि
किसी कारण अत्यधिक उत्पादन के कारण श्रमिकों को हटा दिया जाता है और अर्थव्यवस्था
में माँग और पूर्ति एक-दूसरे के समान हो जाते हैं।
'से'
के शब्दों में, “उत्पादन ही वस्तुओं के लिए बाजार पैदा करता है। ज्योंही किसी वस्तु
का उप्पादन होता है, त्याही उसी क्षण से, वह अपने मूल्य की पूरी
मात्रा में अन्य वस्तुओं के लिए बाजार पैदा करता है। दूसरी वस्तु की पूर्ति जितनी
एक वस्तु की माँग के अनुकूल होती है, उतनी कुछ और नहीं।'' संक्षेप में, 'से' के
नियम के अनुसार देश में सामान्य अति उत्पादन एवं सामान्य बेरोजगारी की दशायें
उत्पन्न हो ही नहीं सकती क्योंकि जो कुछ उत्पादन किया जाता है, उसका उपभोग अवश्य
ही हो जाता है।
'से' का नियम सारांशत: निम्नलिखित रूप में है-
(i)
"पूर्ति सदैव अपनी माँग का स्वयं सृजन करती है" (Supply always creates
its own demand) तथा
(ii)
"यह उत्पादन ही है जो वस्तुओं के बाजार का सृजन करता है" (It is
production which creates market for goods)
नियम की व्याख्या-उपर्युक्त कथनों का यह
अर्थ है कि बाजार ही उत्पादन का सृजन करता है। उसके मतानुसार माँग का मुख्य
स्त्रोत उत्पादन के विभिन्न साधनों से प्राप्त होने वाली आय होती है और यह आय
उत्पादन प्रक्रिया से स्वत: ही उत्पन्न होती है। जब कभी उत्पादन की कोई नवीन
प्रक्रिया शुरू की जाती है और उसके परिणामस्वरूप एक निश्चित उत्पादन उपलब्ध होता
है तो उत्पादन के साथ ही साथ माँग इसलिए बढ़ती है कि फलतः जितना माल तैयार होता
है, वह सारा स्वतः बिक जाता है। 'से' के अनुसार, "यह उत्पादन है जिसके द्वारा
वस्तु की बाजार उत्पन्न की जाती है" (It is production which creates market
for goods)|
'से' के नियम की मौद्रिक अर्थ-प्रणाली में क्रियाशीलता को अनलिखित विधि
द्वारा व्यक्त किया जा सकता
अग्रांकित उदाहरण से ज्ञात होता है कि प्रथम वर्ष अर्थव्यवस्था में 10 करोड़ रु. का उत्पादन (समस्त पूर्ति) होता है। इसके फलस्वरूप उत्पादन के साधनों की आय में 10 करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। वे 10 करोड़ रुपये की आय को कुल पूर्ति खरीदने में खर्च कर देंगे। इस प्रकार कुल माँग में 10 करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। अतएव कुल पूर्ति अपनी माँग का स्वयं निर्माण कर लेगी। कुल माँग के कारण राष्ट्रीय आय फिर से उत्पादकों के पास पहुँच जायेगी तथा वे दूसरे वर्ष 10 करोड़ रुपये का उत्पादन कर सकेंगे। इस प्रकार यह चक्रीय प्रवाह चलता रहेगा और किसी प्रकार की सामान्य बेरोजगारी या अति उत्पादन की शंका नहीं रहेगी।
'से' के बाजार नियम की क्रियाशीलता के कारण (Reasons for Operation
of Say's Law of Markets)—'से' के बाजार नियम की क्रियाशीलता के निम्नलिखित
दो कारण हैं-
(1) लोचपूर्ण व्याज की दर (Flexible Rate of Interest) उपर्युक्त
तर्क इस धारणा पर आधारितहै कि साधन स्वामियों द्वारा अर्जित समस्त आय उन वस्तुओं के
क्रय में व्यय हो जाती है जिनके उत्पादन में वे सहायक होते है। यदि उनकी आय कुछ भाग
व्यय नहीं होता, वह बच जाता है तो उसका स्वत: विनियोग हो जाता है। इस प्रकार बचत विनियोग
के सदैव बराबर होता है। यदि दोनों में कोई अन्तर होता है तो ब्याज की दर के माध्यम
से सामान्यतः स्थापित हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी समय बचतों की मात्रा अधिक
हो जाती है तो इससे ब्याज दर कम हो जाती है। ब्याज की कम दर एक ओर अधिक विनियोग के
लिए उत्प्रेरणा का कार्य करती है, वहीं दूसरी ओर अधिक बचत को निरुत्साहित करती है।
ब्याज की दर उस समय तक कम होती जायेगी जब तक सारी अतिरिक्त बचतों का विनियोग नहीं हो
जाता है। अतः अतिरिक्त बचते ब्याज की दरों में कमी होने की प्रक्रिया द्वारा स्वत:
ही विनियोजन का रूप ले लेती हैं। इस प्रकार ब्याज-दर की लोचशीलता सदैव ही बचत और विनियोग
को बराबर रखती है।
(2) लोचपूर्ण मजदूरी (Flexible Wages)-प्रो.
ए. सी. पीगू ने 'से' के नियम को श्रम-बाजार (Labour Market) के प्रसंग में प्रस्तुत
किया है। उनके अनुसार स्वतन्त्र प्रतियोगिता के अधीन आर्थिक प्रणाली की यह प्रवृत्ति
रहती है कि श्रम-बाजार अपने आप पूर्ण रोजगार प्रदान करे। मजदूरी के ढाँचे में कठोरता
(Rigidity) और स्वतन्त्र बाजार की अर्थव्यवस्था की कार्य-प्रणाली में हस्तक्षेप से
बेरोजगारी होती है। इस संदर्भ में यहाँ इस बात का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि प्रतिष्ठित
अर्थशास्त्री कीमतों और मजदूरी को पूर्णत: लोचपूर्ण मानते हैं तथा वे यह स्वीकार करते
हैं कि अर्थव्यवस्था अपने आपको स्वत: ही पूर्ण रोजगार के स्तर पर समायोजित कर लेती
है। पीगू ने इसी आधार पर रोजगार सिद्धान्त की व्याख्या करते समय अपनी विचारधारा को
'से' (Say) के नियम को श्रम-बाजार पर लागू कर प्रतिष्ठित विचारधारा को व्यवस्थित रूप
प्रदान किया है। पीगू की विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि यदि मजदूर अपना पारिश्रमिक
अपनी सीमांत उत्पादकता के बराबर लेने को तैयार रहें तो श्रम-बाजार में कभी भी बेरोजगारी
की स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती।
अपने
निष्कर्ष को सिद्ध करने के लिए प्रो. पीगू ने एक गणितीय सूत्र का उपयोग किया जो निम्न
प्रकार है-
N
=q Y/W
जहाँ
N
= कार्यरत श्रमिकों की संख्या
W
= मजदूरी की दर
Y=
राष्ट्रीय आय
qY
= राष्ट्रीय आय का अनुपात जो मजदूरियों के रूप में दिया जाता है।
पीगू
का मत है कि श्रमिकों की संख्या (N) को सदा ही मजदूरी की दर (W) में वृद्धि करके बढ़ाया
जा सकता है। जिस प्रकार किसी वस्तु का मूल्य बहुत नीचा होने की स्थिति में उसकी समस्त
पूर्ति बिक जाती है, ठीक उसी प्रकार मजदूरी की दर बहुत नीची होने की दशा में सभी श्रमिकों
को रोजगार मिल जायेगा।
'से' के रोजगार सिद्धान्त की मुख्य बातें (MAIN POINTS OF SAY'S
EMPLOYMENT THEORY)
1.
प्रत्येक अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार के स्तर पर कार्य करती है।
2.
अर्थव्यवस्था में स्वतः समायोजन की क्षमता होती है अत: जो कुछ भी उत्पादित किया जाता
है, वह सब उपभोग कर लिया जाता है।
3.
देश में अति उत्पादन असम्भव है क्योंकि प्रत्येक अतिरिक्त उत्पादन समाज में अतिरिक्त
क्रय शक्ति को जन्म देता है। फलतः कुल आय कुल व्यय के बराबर होती है।
4.
चूंकि अति उत्पादन असम्भव है, 'सामान्य बेरोजगारी' भी सम्भव नहीं है।
5.
व्याज दर का लचीलापन सदैव बचत और विनियोग को बराबर रखता है।
6.
पूर्ण स्पर्धा की दशा में मजदूरी की कटौती करके पूर्ण रोजगार स्थापित किया जा सकता
है।
7.
बेरोजगारी की स्थिति केवल तभी आती है जब मजदूरी की दर, ब्याज तथा अन्य कीमतों में अपरिवर्तनशीलता
अथवा जड़ता होती है तथा सरकार व श्रमिक संघों द्वारा बाजार की शक्तियों को स्वतन्त्र
रूप से कार्य करने में हस्तक्षेप किया जाता है।
मान्यताएँ (Assumptions)—इस सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित
हैं-
(1) पूर्ण प्रगतियोगिता (Perfect Competition) श्रम-बाजार
तथा पदार्थ बाजार (Product Market) में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति पाई जाती है।
(2) पूर्ण रोजगार की प्रकृति (Tendency towards Full
Employment) एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की अवस्था को प्राप्त
करने की प्रवृत्ति पाई जाती है आर्थात् पूर्ण रोजगार की सामान्य अवस्था है।
(3) हस्ताक्षेप न करने की नीति (Laisser-faire Policy)-सरकार
द्वारा आर्थिक शक्तियों की क्रियात्मकता में कोई बाधा नहीं डाली जाती।
(4) बंद अर्थव्यवस्था (Closed Economy)-इस सिद्धान्त
की एक अन्य मान्यता यह है कि अर्थव्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं हो रहा
है।
(5) लोचशीलता (Flexibility)—इस सिद्धान्त की एक अत्यन्त
ही महत्वपूर्ण धारणा यह है कि कीमतों, मजदूरी की दरों, ब्याज की दरों में लोचनशीलता
होती है जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में स्वचालित साम्य (Automatic Equilibrium) की
अवस्था को प्राप्त करना सम्भव हो पाता है।
(6) मुद्रा की सीमित भूमिका (Limited Role of Money)-मुद्रा
की अर्थव्यवस्था में सीमित भूमिका है अर्थात् यह एक विनियम माध्यम (Medium of
Exchange) के रूप में ही कार्य करता है और अर्थव्यवस्था के वास्तविक सन्तुलन को प्रभावित
नहीं करता।
(7) संग्रह का अभाव (No Hoarding)—'से' के नियम
की एक अन्य मान्यता यह है कि समस्त आय अपने आप उपयोग और निवेश पर खर्च हो जाती है और
अर्थव्यवस्था में मुद्रा का संग्रह नहीं होता।
(8) विस्तृत बाजार (Wide Extent of Market)-बाजार
के विस्तार की सम्भावना हो सकती है।
(9) दीर्घकाल (Long Period)—“से' का नियम दीर्घकालीन
पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है। अल्पकाल में किसी वस्तु विशेष का अति उत्पादन
सम्भव हो सकता है जो कि दीर्घकाल में स्वत: समाप्त हो जाता है।
'से' के नियम की आलोचनाएँ (CRITICISMS OF SAY'S LAW)
‘से’
के बाजार नियम की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1.
केन्ज ने ‘से’ के बाजार नियम की आलोचना करते हुए सिद्ध किया है कि अर्थव्यवस्था में
अति उत्पादन सम्भव है।
2.
केन्ज ने ‘से’ के नियम के इस निष्कर्ष की भी आलोचना की है कि सामान्य बेरोजगारी सम्भव
नही है।
3.
‘से’ के बाजार नियम की यह धारणा भी गलत है कि अर्थव्यवस्था में स्वतः समन्वय आ जाता
है।
4.
बचत और निवेश में सन्तुलन की धारणा भी गलत है। केन्ज के अनुसार बचत और निवेश में समानता
ब्याज की दर में परिवर्तन होने के कारण नही आती बल्कि आय के स्तर में परिवर्तन होने
के कारण आती है।
5.
इस नियम की यह भी आलोचना की जाती है कि मुद्रा केवल विनियम का माध्यम नही है बल्कि
धन संचय का साधन भी है।
6.
केन्ज ने इस बात की भी आलोचना की है कि सरकार को आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप नहीं
करना चाहिए। सरकार को आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करके समन्वय स्थापित करना चाहिए।
7. केन्ज ने ‘से’ के बाजार नियम की आलोचना करते हुए कहा है कि दीर्घकालीन सन्तुलन के स्थान पर अल्पकालीन सन्तुलन का हमारे जीवन में अधिक महत्व है क्योंकि दीर्घकाल में तो हम सब मर जाएंगे।