BALANCED AND UNBALANCED GROWTH (सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास)

BALANCED AND UNBALANCED GROWTH (सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास)

अल्प-विकसित देश गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने एवं आर्थिक विकास के मार्ग पर तेजी से बढ़ने के लिए विकासोन्नमुख नीति अपनाते हैं। विकास को द्रुत गति देने और अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था को स्वप्रेरित अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए एक उचित रणनीति का अपनाया जाना आवश्यक है। विकास की इस रणनीति अथवा संयोजना को अपनाते समय दो घटकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए-प्रथम, न्यूनतम प्रयास से अधिकतम सम्भावित विकास दर प्राप्त करना तथा द्वितीय, विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने तक न्यूनतम समय लगना।

विकास की नीति का चुनाव करते समय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को रणनीति से जोड़ा जाए अथवाअर्थव्यवस्था के केवल कुछ चुनिन्दा क्षेत्रों तक ही रणनीति को केन्द्रित रखा जाए-इस विचार को लेकर अर्थशास्त्री एक मत नहीं हैं।

आर्थिक विकास की संयोजना को लेकर अर्थशास्त्रियों की दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं-

I. संतुलित विकास (Balanced Growth)-रेगनर नर्कसे, सिटोविस्की, मेयर, बाल्डविन एवं एलिनयंग की विचारधारा।

II. असंतुलित विकास (Unbalanced Growth)-मार्कस फ्लेमिंग, पॉल स्ट्रेटीन, अलबर्ट, हर्षमैन, सिंगर की विचारधारा ।

I. संतुलित विकास (Balanced Growth)

सन्तुलित विकास के विचार की भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ प्रस्तुत की हैं। एक मत के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को एक समान रूप से विकसित करने हेतु एक साथ निवेश करना सन्तुलित विकास कहलाता है। किण्डलबर्जर के अनुसार सन्तुलित विकास का सम्बन्ध सभी क्षेत्रों तथा उद्योगों मेंएक साथ विनियोग किए जाने से है। कुछ अर्थशास्त्री उपभोक्ता उद्योगों एवं पूँजीगत उद्योगों को समान रूप सेविकसित करने को संतुलित विकास का नाम देते हैं। कुछ अन्य अर्थशास्त्री निर्माणकारी उद्योगों एवं कृषि उद्योगों को एक साथ विकसित किए जाने को संतुलित विकास का नाम देते हैं। इसके अतिरिक्त सन्तुलित विकास का अर्थपूँजीगत वस्तुओं तथा उपभोगीय वस्तुओं के उद्योगों तथा घरेलू निर्यात क्षेत्रों में संतुलन स्थापित करने से भी लिया जाता है। अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग ने संतुलित विकास के विचार का विस्तार आर्थिक एवं सामाजिक उपरिपूँजी मेंविनियोग तथा प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक विनियोग में संतुलन स्थापित करने तक ही किया है।

अर्थशास्त्रियों की उपर्युक्त वैचारिक भिन्नता के बावजूद सामान्य अर्थों में यह कहा जा सकता है कि संतुलितविकास से अर्थ देश के विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों का एक साथ विकास करने से है। इसमें सभी उद्योगों को एक साथसंतुलित रूप से आगे बढ़ाया जाता है। दूसरे शब्दों में,संतुलित विकास का आशय सामंजस्यपूर्ण एवं चहुँमुखीविकास से है जिसमें अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास होता है।

अलक घोष के शब्दों में नियोजन के साथ संतुलित विकास का अर्थ है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों काविकास एक ही अनुपात में किया जाए ताकि उपभोग, विनियोग तथा आय एक ही अनुपात में बढ सकें।

संतुलित विकास : रेगनर नर्कसे की विचारधारा (Balanced Growth : Ragner Nurkse's View Point)

गरीबी के दुष्चक्र के प्रतिपादक रेगनर नर्कसे का विचार है कि अल्प-विकसित देशों में गरीबी के दुष्चक्र को केवल संतुलित विकास की तकनीक द्वारा ही तोड़ा जा सकता है। गरीबी का दुष्चक्र अल्प-विकसित देशों में माँग एवं पूर्ति दोनों ही पक्षों पर क्रियाशील होता है और एक अर्थव्यवस्था को निरन्तर गरीबी की अवस्था में बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है। पूर्ति पक्ष की दृष्टि से इन देशों में बचत करने की क्षमता कम होती है जो आय केनिम्न स्तर का परिणाम है, निम्न आय स्तर निम्न उत्पादकता का परिणाम है और निम्न उत्पादकता पूँजी की कमीके कारण पैदा होती है। माँग पक्ष की दृष्टि से विनियोग करने की प्रेरणा अल्प-विकसित देशों में कम होती है जोलोगों की वास्तविक आय कम होने का परिणाम है, कम आय नीची उत्पादकता का परिणाम है जो स्वयं पूँजी की कम मात्रा प्रयोग किए जाने का परिणाम है। इस प्रकार रेगनर नर्कसे की दृष्टि में पूर्ति पक्ष एवं माँग पक्ष दोनों अल्प-विकसित देशों में गरीबी के दुष्चक्र की क्रियाशीलता के लिए उत्तरदायी हैं।

गरीबी के दुष्चक्र को कैसे तोड़ा जाए ?- इस समस्या का समाधान देते हुए रेगनर नर्कसे ने यह विचार व्यक्त किया कि गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए उत्पादन में वृद्धि किया जाना आवश्यक है। उत्पादकता में वृद्धि के लिए दो घटकों का होना आवश्यक है-प्रथम, उत्पादन में पूँजी का प्रयोग किस सीमा तक किया जा रहाहै एवं द्वितीय, बाजार का आकार क्या है। नर्कसे के अनुसार गरीब देशों में बाजार का छोटा आकार पूँजीगत उपकरणों के प्रयोग में बाधक होता है जिससे विनियोग करने की प्रेरणा सीमित हो जाती है। नर्कसे की दृष्टि मेंगरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए सम्पूर्ण बाजार का विस्तार किया जाना आवश्यक है जिसके लिए विभिन्नउद्योगों में एक साथ पूँजी का विनियोग किया जाना आवश्यक है। जब विभिन्न उद्योगों की क्रियाओं के विस्तृत क्षेत्रपर पूँजी का प्रयोग करने से आर्थिक कुशलता का सामान्य स्तर बढ़ता है तो बाजार का आकार स्वत: ही विस्तृतहो जाता है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न उद्योग आपस में पूरक होते हैं और एक-दूसरे के उत्पादन के लिए बाजारउपलब्ध कराने में सहायता प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में नर्कसे का विचार है कि “आम उपभोग की वस्तुएँपैदा करने वाले बहुत-से उद्योग इसलिए पूरक होते हैं क्योंकि वे एक-दूसरे की वस्तुओं के लिए माँगउत्पन्न करके बाजार का विस्तार करते रहते हैं। यह आधारभूत निर्भरता मानव आवश्यकताओं की विविधता के कारण पैदा होती है, अतः संतुलित विकास की अनिवार्यता का आधार संतुलित भोजन की आवश्यकता है।"

इस प्रकार नर्कसै की दृष्टि से बाजार का विस्तार करने, विनियोग के लिए प्रेरणा प्रदान करने एवं गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए संतुलित विकास की रणनीति वांछनीय है।

संतुलित विकास एवं बाहरी बचतें (Balanced Growth and External Economies)

संतुलित विकास अर्थव्यवस्था में अनेक परियोजनाओं के अन्तर्गत एक साथ विनियोग सुनिश्चित करके बाजार के आकार का विस्तार करता है जिसके कारण अर्थव्यवस्था में उद्योगों को बढ़ते प्रतिफल मिलते हैं और परिणामस्वरूप व्यक्तिगत उद्योगों के लिए बाहरी बचतें पैदा करता है। रेगनर नर्कसे के शब्दों में, “विस्तृत क्षेत्रवाली परियोजनाओं में प्रत्येक कुल बाजार के आकार को बढ़ाकर ऐसी बचतें पैदा करती है जो व्यक्तिगत फर्म केलिए बाहरी होती है।" संतुलित विकास तकनीक के अन्तर्गत बड़ी मात्रा में विनियोग करने से उद्योगों का ऊर्ध्व संगठन ही मजबूत नहीं होता बल्कि क्षैतिजीय संगठन भी विस्तृत होता है और साथ ही श्रम-विभाजन, कच्चे काल, तकनीकी ज्ञान, बाजार का आकार एवं आर्थिक-सामाजिक उपरिपूँजी का सर्वोत्तम प्रयोग हो पाना सम्भव हो पाता है।

संतुलित विकास एवं विदेशी व्यापार विशिष्टीकरण (Balanced Growth and Foreign Trade Specialisation)

अल्प-विकसित देशों में बाजार का सीमित आकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मार्ग में बड़ी रुकावट है। बाजार का आकार न केवल विनियोग की प्रेरणा देता है बल्कि विदेशी व्यापार की मात्रा का भी निर्धारक है। संतुलित विकास की तकनीक बाजार के आकार को बढ़ाकर बाहरी बचतँ उत्पन्न करके उत्पादकता बढ़ाने में सक्षम है जिसमें विदेशी व्यापार प्रोत्साहित किया जा सकता है। इस प्रकार संतुलित विकास का विचार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का एक अच्छा मित्र है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिलता है।

संतुलित विकास एवं तीव्र विकास गति (Balanced Growth and High Growth Rate)

संतुलित विकास के समर्थक अर्थशास्त्री इस नीति को आर्थिक विकास की गति बढ़ाने का एक साधन मानते हैं। अल्प-विकसित देशों में बाजार का सीमित आकार विनियोग की प्रेरणा को कमजोर बनाता है ऐसी स्थिति में संतुलित विकास की नीति ही विनियोग उत्पादकता, आदि को बढ़ाकर गरीबी के विषम चक्र को तोड़ने में सहायक है। रेगनर नर्कसे के शब्दों में, "उत्पादन की विभिन्न शाखाओं में विनियोग की एक लहर कुल बाजार को बढ़ा सकती है और अल्प-विकास के स्थैतिक संतुलन के बन्धनों को तोड़ सकती है।"

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संतुलित विकास की रणनीति अल्प-विकसित देशों में तीव्र औद्योगीकरण के साथ आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने की एक कुंजी है।

सन्तुलित विकास सिद्धान्त की आलोचनाएँ

सन्तुलित विकास की विचारधारा को हर्षमैन, फ्लेमिंग, सिंगर, कुरिहारा, आदि अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार नहीं किया और संतुलित विकास रणनीति की अनेक आलोचनाएँ प्रस्तुत की हैं जिनमें प्रमुख है-

1. सन्तुलित विकास रणनीति के लिए एक बड़े विनियोग, तकनीकी ज्ञान, प्रबन्धकीय क्षमता एवं कुशल श्रम-शक्ति की आवश्यकता होती है जिनका अल्प-विकसित देशों में प्रायः अभाव होता है। अपने सीमित संसाधनों के कारण अल्प-विकसित देश इस विकसित नीति को व्यावहारिक रूप से नहीं अपना पाते। दूसरे शब्दों में, संतुलित विकास रणनीति अल्प-विकसित देशों की क्षमता से परे है।

2. संतुलित विकास की विचारधारा यह मानकर चलती है कि इस नीति के अन्तर्गत उद्योग आपस में पूरक बनकर आर्थिक विकास की गति को बढ़ाते हैं जबकि वास्तविकता में विकास की प्रारम्भिक अवस्था‌के दौरान विभिन्न उद्योग परस्पर पूरक न होकर प्रतियोगी होते हैं और इसी प्रतियोगिता के कारण संसाधनों का अपव्यय होता है।

3. प्रो. सिंगर के अनुसार संतुलित विकास का सिद्धान्त इस गलत मान्यता पर आधारित है कि एक अल्प-विकसित देश बिल्कुल आरम्भ से अपना विकास शुरू करता है जबकि वास्तविकता में किसी भी देश में विकास का अंश शून्य नहीं होता।

4. संतुलित विकास रणनीति में उद्योगों में एक साथ निवेश करने पर उत्पादन की वास्तविक एवं मौद्रिक लागतें बढ़ जाती हैं क्योंकि सीमित संसाधनों की पूर्ति के कारण परस्पर प्रतियोगी उद्योग साधनों की‌ऊँची कीमत देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं जिससे उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाती है।

5. हर्षमैन के विचार में संतुलित विकास का सिद्धान्त वस्तुतः विकास का सिद्धान्त नहीं है। विकास का‌अभिप्राय है एक प्रकार की अर्थव्यवस्था को दूसरी प्रकार की उन्नत अर्थव्यवस्था में बदलना, किन्तु‌संतुलित विकास का सिद्धान्त किसी एकदम नए तथा आत्म-निर्भर आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र को एक स्थिर तथा समान रूप से आत्म-निर्भर परम्परागत क्षेत्र के ऊपर आरोपित करने की बात करता है। हर्षमैन के अनुसार, "सही अर्थों में यह विकास नहीं है और यह किसी पुरानी चीज पर नई चीज का आरोपित किया जाना भी नहीं है यह तो पूर्ण रूप से विकास का एक दोहरा प्रारूप है।"

6. आलोचकों के अनुसार संतुलित विकास का सिद्धान्त वास्तव में विकसित देशों के लिए उपयुक्त है और उसे अल्प-विकसित देशों में लागू करना गलत होगा। हर्षमैन के शब्दों में, ".........वह अल्प-रोजगार की स्थिति के लिए निकाले गए इलाज को अल्प-विकास की स्थिति में लागू करना होगा।" इस प्रकार आलोचकों के अनुसार संतुलित विकास का सिद्धान्त अल्प-विकसित देशों की संरचना के अनुकूल नहीं है।

7. संतुलित विकास का सिद्धान्त विकास प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप एवं संयोजन पर आवश्यकता से‌अधिक निर्भर है। इस प्रकार यह सिद्धान्त निजी उद्यमियों की क्षमताओं का विश्लेषण प्रस्तुत नहीं करता।

8. संतुलित विकास की रणनीति का कोई ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त नहीं होता क्योंकि अधिकांश विकसित देशों में विकास प्रक्रिया संतुलित नहीं रही है।

II. असन्तुलित विकास (UNBALANCED GROWTH)

असंतुलित विकास की विचारधारा संतुलित विकास के विपरीत विचार पर आधारित है। असंतुलित विकास से अभिप्राय है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास न करके कुछ अति आवश्यक चुने हुए महत्वपूर्ण उद्योगों में विनियोग का केन्द्रीकरण किया जाना है। असंतुलित विकास की रणनीति इस तथ्य देती है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्था में विनियोग को ऐसे क्षेत्रों पर केन्द्रित किया जाना चाहिए जो विकास की दर को तेजी से बढ़ाने में सहायता दे। असंतुलित विकास का विचार प्रस्तुत करते हुए हर्षमैन एवं सिंगर जैसे अर्थशास्त्रियों ने इसी कारण पूँजीगत वस्तुओं के उद्योगों में विनियोग करने की बात कही है। हर्षमैन अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक बड़े धक्के की आवश्यकता से इंकार नहीं करते किन्तु अल्प-विकसित देशों के सीमित संसाधनों के कारण समूची अर्थव्यवस्था में बड़े धक्के के स्थान पर किसी क्षेत्र विशेष में बड़े धक्के की वकालत करते हैं। हर्षमैन के शब्दों में, एक पूर्व नियोजित योजना के अनुसार अर्थव्यवस्था का जानबूझकर असंतुलित किया जाना आर्थिक विकास करने का सबसे अच्छा तरीका है।" असंतुलित विकास रणनीति

असंतुलित विकास की विचारधारा के प्रवर्तक प्रो. हर्षमैन का मानना है कि अल्प-विकसित देश में आर्थिक विकास असंतुलनों की एक श्रृंखला के द्वारा होता है, अतः अल्प-विकसित देश के लिए विकास रणनीति का उद्देश्य असंतुलनों को समाप्त करने की बजाए उन्हें जीवित रखने का होना चाहिए। "यदि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है तो विकास नीति का कार्य तनाव, व्यनुपातों तथा असंतुलनों को बनाए रखना होना चाहिए।"

एक आदर्श स्थिति तब पैदा होती है जब असंतुलन के द्वारा किया गया विकास पुन: दूसरे असंतुलन को जन्म देता है, विकास की यह नीति निरन्तर चलती रहती है। असंतुलनों की यह शृंखला आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।

हर्षमैन के विचार में असंतुलन उत्पन्न करके अर्थव्यवस्था में किए गए विनियोग दो प्रकार के हो सकते हैं-

1. सामाजिक उपरिपूँजी में विनियोग (SOC),

2. प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में विनियोग (DPA) |

1. सामाजिक उपरिपूँजी में विनियोग (SOC)-सामाजिक उपरिपूँजी से अभिप्राय उन आधारभूत सेवाओं से है जिनके बिना कोई आर्थिक क्रिया सम्पादित नहीं हो सकती। हर्षमैन के विचार में विकास की आरम्भिक अवस्था में विनियोग को सामाजिक उपरिपूँजी के निर्माण पर यदि केन्द्रित किया जाता है तो इससे अर्थव्यवस्था में आधारभूत सेवाओं का विस्तार होगा जिसके परिणामस्वरूप प्रत्यक्ष क्रियाओं में निजी विनियोग को प्रोत्साहन मिलेगा। हर्षमैन के शब्दों में, "सामाजिक उपरिपूँजी के मदों में निवेश का समर्थन इसलिए नहीं किया जाता कि इससे अन्तिम उत्पाद पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है बल्कि वास्तव में यह तो प्रत्यक्ष उत्पाद क्रियाओं को आगे बढ़ाने का एक निमन्त्रण है, अतः डी.पी.ए. (DPA) निवेश के लिए SOC निवेश का होना एक आवश्यक

शर्त है।"

2. प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में विनियोग (DPA)-प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में विनियोग का सम्बन्ध‌औद्योगिक क्रियाओं के विस्तार से है। हर्षमैन के विचार में प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं पर विनियोग को केन्द्रित‌ करके अर्थव्यवस्था में असंतुलन उत्पन्न किया जा सकता है। जब सरकार SOC के स्थान पर DPA में पहले‌विनियोग करती है तो SOC की अर्थव्यवस्था में कमी उत्पादन लागतों को बढ़ा देगी जिसका प्रतिकूल प्रभाव विकास की गति पर पड़ेगा। ऐसी दशा में DPA का विनियोग SOC के विनियोग को स्वतः प्रोत्साहित करेगा।

असंतुलनों द्वारा विकास : चित्र द्वारा निरूपण

चित्र में X-अक्ष पर DPA विनियोग को और Y-अक्ष पर SOC विनियोग को प्रदर्शित किया गया है। a1,a2,a3 वक्र SOC तथा DPA मात्राओं के विभिन्न संयोगों को दिखाते हैं। a1,a2,तथा a3 में से प्रत्येक पर SOC तथा DPA मात्राओं के विभिन्न संयोग एकसमान राष्ट्रीय उपज को प्रदर्शित करते हैं। a2 वक्र a1 की तुलना में तथा a3 , वक्रa2 की तुलना में ऊँचे उत्पादन स्तर को प्रदर्शित करता है। चित्र में OK रेखा 45° का कोण बनाती हुई रेखा है जिस पर SOC और DPA के विनियोग आपस में बराबर हैं। चित्र के अनुसार जबSOC को A से बढ़ाकर A1 किया जाता है तो यह DPA में वृद्धि प्रोत्साहित करता है। DPA के विनियोग में वृद्धि तब तक होती रहेगी जब तक B बिन्दु पर संतुलन स्थापित नहीं हो जाता। इस B बिन्दु पर समूची अर्थव्यवस्था उत्पादन के ऊँचे स्तर पर होगी। यदि SOC को बढ़ाकर पुनः अधिक किया जाता है तो संतुलन बिन्दु B से B2 पर और B2 से C पर परिवर्तित होगा। इस प्रकार विकास का मार्ग AA1BB1C होगा, इसे तीर चित्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है। यह विकास मार्ग SOC विनियोग की वृद्धि से प्राप्त अतिरिक्त क्षमता का परिणाम है।

इसी प्रकार DPA में विनियोग की मात्रा को बढ़ाकर भी विकास आरम्भ किया जा सकता है। जब DPA को A से B1 तक बढ़ाया जाता है तो इस अतिरिक्त DPA विनियोग के कारण SOC के विनियोग को भी बिन्दु B तक बढ़ाना होगा। अब यदि पुनः DPA विनियोग को बिन्दु B से C1 तक बढ़ाया जाता है तो SOC भी बढ़कर बिन्दु C तक पहुँच जाता है। इस स्थिति में विकास का मार्ग AB1BC1C होगा।

असंतुलित विकास सिद्धान्त की आलोचनाएँ

संतुलित विकास के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने असंतुलित विकास के सिद्धान्त की निम्नांकित बिन्दुओं पर आलोचना की है-

1. असंतुलित विकास में संसाधनों का अपव्यय होता है क्योंकि इस नीति में एक क्षेत्र की उत्पादन क्षमता तब तक बेकार पड़ी रहती है जब तक दूसरे क्षेत्र में उत्पादन क्षमता का विकास न हो जाए। ऐसी स्थिति में विकास की आरम्भिक अवस्था में निर्मित SOC विनियोग का पूरा प्रयोग नहीं हो पाता जिससे संसाधनों का अपव्यय होता है।

2. असंतुलित विकास के समर्थक अर्थशास्त्री असंतुलन उत्पन्न किए जाने की वकालत करते हैं किन्तु आलोचकों का कहना है कि यह सिद्धान्त असंतुलन के अनुकूलतम विकास बिन्दुओं की खोज करने में असमर्थ रहा है।

3. असंतुलित विकास का सिद्धान्त विस्तार के लिए मिलने वाली प्रेरणाओं पर तो ध्यान केन्द्रित करता है किन्तु असंतुलित विकास के कारण उत्पन्न होने वाले प्रतिरोधों की उपेक्षा करता है।

4. असंतुलित विकास की रणनीति अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दबाव उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखती है क्योंकि अर्थव्यवस्था में उत्पन्न होने वाला असंतुलन उपभोक्ता वस्तुओं की पूर्ति की तुलना में माँग को बढ़ा देता है।

5. असंतुलित विकास रणनीति के क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त आधारभूत सुविधाओं की आवश्यकता होती

है जिनका अल्प-विकसित देशों में सर्वथा अभाव होता है। अतः असंतुलित विकास की विचारधारा अल्प-विकसित देशों के अनुकूल नहीं है।

6. हर्षमैन द्वारा प्रस्तुत अनुबन्धन प्रभाव विश्लेषण दोषपूर्ण है क्योंकि वह अल्प-विकसित देशों के आँकड़ों पर आधारित नहीं है। इन देशों में आर्थिक एवं सामाजिक उपरि पूँजी के अभाव के कारण अनुबन्ध प्रभाव कमजोर पड़ जाता है।

निष्कर्ष : कौन-सी विचारधारा श्रेष्ठ है ?

सन्तुलित एवं असन्तुलित दोनों ही विचारधाराओं में गुण और दोष विद्यमान हैं किन्तु दोनों ही पद्धतियों का उद्देश्य है तीव्र आर्थिक विकास। दोनों विचारधाराओं में केवल विकास प्रक्रिया का अन्तर है किन्तु उद्देश्य एकसमान है। पॉल स्ट्रीटन के शब्दों में, "संतुलित विकास एवं असंतुलित विकास के सिद्धान्त के बीच चुनाव सम्बन्धी विवाद उत्पन्न करना नि:सन्देह एक निरर्थक विचार है। यह दोनों पद्धतियाँ सही अर्थों में प्रतियोगी न होकर पूरक हैं।"

अल्प-विकसित देशों के सम्बन्ध में विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में असंतुलन उत्पन्न किया जाना एक अनिवार्यता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इन देशों में असंतुलन की प्रकृति का निर्धारण किया जाए।

प्रो. मेयर के शब्दों में, “जब विकास के लिए प्रत्यनशील देश असंतुलन से बच नहीं सकता चाहे वह इसे पसन्द करे या न करे तब असंतुलित विकास की नीति को ही अपनाना उचित होगा ताकि आर्थिक विकास की गति को बढ़ाया जा सके।"

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