कार्ल गुन्नार मिर्डल अर्थशास्त्र में 1 9 74 नोबेल पुरस्कार |
प्रोफेसर
मिर्डल का कहना है कि आर्थिक विकास का परिणाम चक्रीय कार्यकारण प्रक्रिया होती है जिससे
धनिकों को अधिक लाभ होता है और जो पिछड जाते हैं उनके प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं।
अतिनिर्यात प्रभाव (back wash effects) अधिकार जमा लेते हैं और प्रसरण प्रभाव
(spread
effects) मंद हो जाते हैं। इससे अन्तर्राष्ट्रीय असमानताएं संचयी रूप से बढ़ने लगती
है और अल्पविकसित देशों के भीतर प्रादेशिक असमानताएं भी आ जाती
हैं।
अल्पविकसित
देशों में चक्रीय एवं संचयी प्रक्रिया, जिसे 'दरिद्रता का दुश्चक्र' भी कहते हैं, नीचे
की ओर परिचालन करती है और अनियमित होने के कारण बढ़ती असमानताएं लाती हैं। मिर्डल
का विश्वास है कि हमारी पैतृक सैद्धान्तिक पद्धति आर्थिक असमानताओं की समस्या हल करने
में अपर्याप्त है। "अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त और दरअसल, आर्थिक
सिद्धान्त कभी इस उद्देश्य से नहीं बनाए गए कि आर्थिक अल्पविकास तथा विकास की
वास्तविकता की व्याख्या करें।'' इसका कारण यह है कि परम्परागत आर्थिक सिद्धान्त
स्थिर सन्तुलन की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। मिर्डल का विश्वास है कि
सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तनों की व्याख्या के लिए सिद्धान्त बनाने में स्थिर
सन्तुलन की धारणा लागू करना गलत है। पर, यदि हम स्थिर सन्तुलन विश्लेषण को लागू
करने का हठ करें ही तो एक परिवर्तन नियमित रूप से व्यवस्था में परिवर्तनों के रूप
में प्रतिक्रिया की माँग करेगा और वे परिवर्तन कुल मिलाकर पहले परिवर्तन से विपरित
दिशा में होंगे। मिर्डल लिखते हैं कि "मैं इस पुस्तक में जिस विचार की
स्थापना करना चाहता हूं वह यह है कि, इसके विपरीत, सामान्य स्थिति में सामाजिक
व्यवस्था में स्वतः चालित आत्म-स्थिरीकरण की ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं होती।
व्यवस्था अपने आप शक्तियों में किसी प्रकार के संतुलन की ओर गतिशील नहीं है बल्कि
इस तरह की स्थिति से निरन्तर दूर जा रही है। सामान्य स्थिति में कोई परिवर्तन
बराबर के परिवर्तनों की मांग नहीं करता बल्कि इसकी बजाय परिवर्तनों का समर्थन करता
है, जो व्यवस्था को उसी दिशा में ले जाते हैं जिस दिशा में पहला परिवर्तन ले गया
था, परन्तु ये व्यवस्था को उससे भी बहुत आगे तक ले जाते हैं। इस तरह के चक्रीय
कार्यकारण सम्बन्ध से सामाजिक प्रक्रिया संचयी बन जाती है और प्रायः तीव्र दर से
गति पकड़ने लगती है।"
एक
अन्य अयाथार्थिक मान्यता, जिसका स्थिर संतुलन पद्धति से गहरा सम्बन्ध है, आर्षिक साधनों
की है। क्लासिकी आर्थिक सिद्धान्त का एक प्रमुख दोष यह था कि वह गैर-आर्थिक साधनों
की ओर ध्यान नहीं देता जबकि ये साधन "आर्थिक परिवर्तन की संचयी प्रक्रियाजों
में चक्रीय कारणता के प्रमुख वाहनों में हैं।" इन दो अवास्तविक मान्यताओं के
कारण ही परम्परागत सिद्धान्त आर्थिक अल्पविकास तथा विकास की गत्यात्मक समस्याओं का
उल्लेख करने में असफल रहा।
मिर्डल का थीसिस (THE
MYRDAL THESIS)
मिर्डल
ने आर्थिक अल्पविकास तथा विकास का अपना सिद्धान्त राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समतलों
पर प्रादेशिक असमानताओं के विचार के गिर्व निर्मित किया है। इसकी व्याख्या करने के
लिए उसने "अतिनिर्यात्त" (backwash) तथा "प्रसरण" (spread) प्रभावों
की धारणा को प्रयोग किया है। उसके द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार अतिनिर्यात प्रभाव
"एक स्थान में आर्थिकश्रविस्तार के वे सभी सुसंगत प्रतिकूल परिवर्तन हैं जो उस
स्थान के बाहर होते हैं। मैं इस लेबल के अन्तर्गत उन सभी प्रभावों को सम्मिलित करता
हूं जो देशान्तरण तथा पूँजीपतियों तथा व्यापार के मार्ग से होते हैं और उन कुल संचयीभूत
प्रभावों को भी शामिल करता है जो "गैर-आर्थिक" एवं 'आर्थिक" सभी साधनों
में चक्रीय कार्यकारण की प्रक्रिया के परिणाम है।" प्रसरण प्रभाव "आर्थिक
विस्तार के केन्द्रों से अन्य क्षेत्रों की ओर विस्तारशील संवेग के कुछ अपकेन्द्री
प्रसरण प्रभावों" को दर्शाते हैं। मिर्डल के अनुसार, प्रादेशिक असमानताओं का प्रमुख
कारण अल्पविकसित देशों में प्रथल अतिनिर्यात प्रभाव तथा दुर्बल प्रसरण प्रभाव रहे हैं।
हम पहले राष्ट्रीय स्तर पर और फिर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस घटनावृत्त के लिए उत्तरदायी
प्रधान शक्तियों का विश्लेषण करेंगे।
(क) प्रादेशिक असमानताएं (Regional Inequalities)
देश
के भीतर प्रादेशिक असमानताओं की उत्पत्ति का आधार गैर-आर्थिक होता है। यह पूँजीवादी
व्यवस्था से सम्बन्ध रखता है जो लाभ के उद्देश्य से चालित होती है। लाभ के उद्देश्य
के परिणामस्वरूप उन क्षेत्रों का विकास होता है जहां लाभों की प्रत्याशाएं अधिक होती
हैं, जबकि अन्य क्षेत्र अल्पविकसित रह जाते हैं। मिर्डल इस घटनावृत्त का श्रेय बाजार
शक्तियों की स्वतन्त्र क्रीड़ा को देता है जोकि प्रादेशिक असमानताओं को घटाने की बजाय
बढ़ाती हैं। वह कहता है कि "यदि बात बाजार शक्तियों पर ही छोड़ दी जाए और उन्हें
किन्हीं नीति हस्तक्षेपों से न रोका जाए, तो औद्योगिक उत्पादन, वाणिज्य, बैंकिंग, बीमा,
नौवहन और दरअसल वे सभी आर्थिक सक्रियताएं जो विकासशील अर्थव्यवस्था को औसत से अधिक
प्रतिफल प्रदान करती हैं-और इसके अतिरिक्त, विज्ञान, कला, साहित्य, शिक्षा और सामान्यतः
ऊंची संस्कृति-कुछ स्थानों तथा प्रदेशों में एकत्रित हो जाएंगी और देश के शेष भाग को
न्यूनाधिक पश्चजल (backwater) में छोड़ देंगी।" इस प्रकार प्रादेशिक असमानताएं
तब उभरती हैं, जब कुछ स्थान अन्य प्रदेशों की कीमत पर वृद्धि करते हैं और वे प्रदेश
गतिहीन रहते हैं।
देशान्तर पूँजीगतियों तथा व्यापार के अतिनिर्यात प्रभाव (The
backwash effects of migration, capital movements and trade)
फिर मिर्डल पिछड़े हुए प्रदेशों पर देशान्तर, पूँजीगतियों व व्यापार के अतिनिर्यात प्रभावों का विश्लेषण करता है। उसने अपने थीसिस में यह बताने की कोशिश की है कि किस प्रकार श्रम का देशान्तर, पूँजीगतियों व व्यापार के अतिनिर्यात प्रभाव पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास में बाधा डालते हैं। साथ ही समस्त अर्थव्यवस्था के विकास को धीमा करते हैं। जब एक क्षेत्र का विकास अन्य पिछड़े हुए क्षेत्र की अपेक्षा अधिक होने लगता है तो विकसित क्षेत्र में संचयी प्रसार की श्रृंखला चालू होने से अन्य क्षेत्रों पर अतिनिर्यात प्रभाव कार्यशील हो जाते हैं जिससे विकास अंतरशुरू होते हैं। मिर्डल अपने थीसिस में दो क्षेत्रों के विकास का अंतर लेता है, जिसे हम विकसित क्षेत्र (X) और पिछडा क्षेत्र (Y) मान लेते हैं। दोनों क्षेत्रों में मजदूरी का निर्धारण माँग व पूर्ति की शक्तियों द्वारा होता है ।
चित्र
1 A & B में क्षैतिज अक्ष पर मजदूरी की माँग व पूर्ति को लिया गया है जबकि अनुलंब
अक्ष पर मजदूरी दर। प्रारम्भ में क्षेत्र X में मजदूरी का माँग वक्र Dx
व पूर्ति वक्र Sx है दोनों वक्र बिंदु e पर Wx मजदूरी का निर्धारण
कर रहे हैं जबकि क्षेत्र Y में मजदूरी का माँग वक्र Dy व पूर्ति वक्र Sy
है। दोनों वक्र बिंदु e पर Wy मजदूरी का निर्धारण करते हैं। प्रारंभ में
दोनों क्षेत्रों में मजदूरी एक समान है अर्थात Wx =Wy
अर्थव्यवस्था
में निवेश करने से क्षेत्र X में श्रम की मांग बढ़ जाती है जिससे इस क्षेत्र में मजदूरी
अन्य क्षेत्र Y की अपेक्षा बढ़ जाती है। मजदूरी में वृद्धि को माँग वक्र को Dx1
से दिखाया गया है जोकि पुराने माँग वक्र Dx से ऊपर की ओर है और पूर्ति वक्र
Sx को बिंदु e1 पर काटता है। अब क्षेत्र X में मजदूरी दर Wx1
है। इस बढ़ी हुई मजदूरी के लालच में क्षेत्र Y के श्रमिक क्षेत्र X में आना शुरू कर
देंगे जिससे क्षेत्र Y में श्रम की पूर्ति कम होनी शुरू हो जायेगी अर्थात पूर्ति वक्र
Sy से Sy1 ऊपर सरक जायेगा। जो माँग वक्र Dy को बिंदु
e1 पर काटेगा जिससे इस क्षेत्र में श्रम की पूर्ति कम होने से पूँजीपति
मजदूरी दर में थोड़ी सी वृद्धि कर देंगे जिसे चित्र 1 B में Wy1 से दिखाया
गया है।
दूसरी
ओर, क्षेत्र X में श्रम की पूर्ति बढ़ने से पूर्ति वक्र Sx नीचे की ओर सरक
कर Sx1 हो जाता है और योग वक्र Dx1 को बिंदु e1 पर
काटता है। परिणामस्वरूप मजदूरी दर Wx1 से कम होकर Wx2 हो जायेगी।
क्षेत्र
Y से श्रमिकों के क्षेत्र X में स्थानान्तरण हो जाने से क्षेत्र Y में वस्तुओं व सेवाओं
की मांग कम होने लगती है जिससे योग वक्र नीचे को सरककर Dy हो जाता है जो
पूर्ति वक्र Sy1, को बिंदु e2 पर काटता है और श्रमिकों को सिर्फ
न्यूनतम मजदूरी Wy मिलने लगती है।
अब
हम क्षेत्र X की स्थिति को लेते हैं। क्षेत्र X में वस्तुओं व सेवाओं की मांग पहले
से अधिक हो जाती है। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में कार्यरत उद्यमियों को नया उत्साह
मिलता है। वस्तुओं की मांग बढ़ने से मांग वक्र Dx1, से ऊपर सरक कर Dx2 हो जाता है जो पूर्ति वक्र Sx1 को बिंदु
e2 पर काटने से इस क्षेत्र में Wx3 के बराबर मजदूरी का निर्धारण
होता है।
चकीय
व संचयी कार्यकरण की प्रक्रिया के कारण मांग तथा पूर्ति में परिवर्तनों से संतुलन की
स्थिति निष्प्रभावी बन जाती है जिससे दोनों क्षेत्रों में मजदूरी की दरों में अन्तर
बढ़ता जाता है।
अर्थव्यवस्था
में संतुलन लाने की बजाए संचयी गतियों द्वारा दोनों क्षेत्र एक दूसरे से दूर होते जाते
हैं जिससे पिछड़े क्षेत्र और अधिक निर्धन होते है।
पूँजीगतियां
भी प्रादेशिक असमानताओं को बढ़ाती है। जो प्रदेश विकसित हैं उनमें बदी हुई मांग निवेश
को प्रेरित करेगी जोकि आगे आय तथा माँग बढ़ाएगी और परिणामतः निवेश का दूसरा दौर आएगा
तथा यह क्रम जारी रहेगा। विस्तार के केन्द्रों में अपेक्षाकृत श्रेष्ठ निवेश की गुंजाइश
पिछडे हुए प्रदेशों में पूँजी की कमी ला सकती है। मिडल लिखता है कि "कई देशों
में अध्ययनों से स्पष्ट हो गया है कि यदि बैंकिंग व्यवस्था को भिन्न रूप से कार्य करने
के लिए नियमित न किया जाए तो वह किस प्रकार अपेक्षाकृत दरिद्र प्रदेशों से बचतों को
निकाल कर उन धनी एवं अधिक प्रगतिशील प्रदेशों में पहुंचाने का साधन बन जाती है जिनमें
पूंजी के प्रतिफल ऊंचे तथा सुरक्षित होते हैं।"
इसी
प्रकार, व्यापार भी आधारभूत झुकाव से विकसित प्रदेशों के पक्ष में तथा कम विकसित प्रदेशों
के विपक्ष में परिचालित होता है। विकसित प्रदेशों में उद्योगों का विकास पिछड़े प्रदेशों
के वर्तमान उद्योगों को तबाह कर सकता है और अधिक दरिद्र प्रदेश मुख्य रूप से कृषि-प्रदेश
रह जाते हैं। मिर्डल के अनुसार, "बाजारों को स्वतन्त्र तथा विस्तार करने से प्रायः
विस्तार के स्थापित केन्द्रों में उन उद्योगों को, जो बढ़ते प्रतिफलों की स्थितियों
के अन्तर्गत कार्य करते हैं, इस तरह के प्रतियोगितामूलक लाभ प्राप्त होंगे, जिससे कि
अन्य प्रदेशों में पहले से विद्यमान उद्योग और दस्तकारी तक भी रुक जाएंगे क्योंकि इस
विकास में औद्योगीकरण ही गत्यात्मक शक्ति है, अतः यह कहना लगभग पुनरुक्ति ही है कि
अधिक दरिद्र प्रदेश प्रमुखतः कृषि प्रधान रह जाते हैं। इन प्रदेशों में भी, केवल उद्योग
तथा गैर-कृषि प्रयत्न ही नहीं अपितु स्वयं कृषि-प्रयत्न भी धनी प्रदेशों की तुलना में
उत्पादकता का बहुत नीचा स्तर प्रदर्शित करते हैं।"
प्रसरण प्रभाव (The spread effect)-प्रसरण प्रभावों के
संबंध में मिर्डल लिखता है, "पर, अतिनिर्यात-प्रभावों के मुकाबले कुछ प्रसरण प्रभाव'
भी होते हैं जो आर्थिक विस्तार के केन्द्रों से अन्य प्रदेशों की ओर विस्तारशील संवेग
से जाते हैं। स्वाभाविक है कि विस्तार के आदर्श केन्द्र के आसपास का सारा प्रदेश-उत्पादनों
के बढ़ते निकासों से लाभान्वित होगा और उसे तकनीकी उन्नति से धुर तक प्रोत्साहन मिलेगा।"
उन स्थानों पर भी प्रसरण प्रभाव होंगे जो केन्द्रों में वृद्धिशील उद्योगों के लिए
कच्चा माल उत्पादन करते हैं और उपभोक्ता वस्तु उद्योगों वाले स्थानों को भी प्रोत्साहन
मिलेगा। ये पुराने केन्द्रों से अतिनिर्यात प्रभावों पर काबू पा लेंगे और नये केन्द्रों
को आत्मविस्तार के लिए उत्साहित करेंगे। इसी तरह, जो प्रसारण प्रभाव औद्योगिक विस्तार
के केन्द्र से अन्य स्थानों तथा प्रदेशों की ओर प्रवाहित होते हैं और अपने उत्पादनों
के लिए बढ़ी हुई माँग के माध्यम से तथा कई और तरीकों से परिचालन करते हैं, वे प्रसारण
प्रभाव चक्रीय कार्यकरण संबंध से अपने आप को संचयी सामाजिक प्रक्रिया में मिला लेते
हैं।
अतिनिर्यात बनाम प्रसरण प्रभाव (Backwash vs spread effects)-पर,
यह संभव नहीं कि अतिनिर्यात प्रभाव तथा प्रसरण प्रभाव संतुलन में हों। इसके समर्थन
में मिडल ने यूरोप के लिए संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक आयोग के अध्ययनों से दो व्यापक
परस्पर संबंध अवतरित किए हैं :प्रथम, धनी देशों की अपेक्षा दरिद्र देशों में प्रादेशिक
असमानताएं बहुत बड़ी होती हैं; और दूसरे, प्रादेशिक असमानताएं दरिद्र देशों में तो
बढ़ रही हैं और धनी देशों में घट रही हैं। "इन दो व्यापक परस्पर संबंधों की अधिकांश
व्याख्या इस महत्त्वपूर्ण तथ्य में निहित है कि कोई देश आर्थिक विकास का जितना अधिक
ऊंचा स्तर पहले ही उपलब्ध कर चुका है, प्रसारण प्रभाव भी उतने ही अधिक सशक्त होंगे।"
और "विकास के साथ-साथ परिवहन तथा संचार में सुधार होता है, शिक्षा का स्तर ऊंचा
उठता है तथा विचारों एवं मूल्यों का अधिक गत्यात्मक सम्पर्क स्थापित होता है-ये सभी
आर्थिक विस्तार के अपकेन्द्री प्रसार की शक्तियों को सशक्त बनाते हैं या उसके परिचालन
की बाधाओं को दूर करते हैं।" कुल मिलाकर, जब एक देश विकास का ऊचा स्तर उपलब्ध
कर लेता है, तो आर्थिक विकास स्वतःचालित प्रक्रिया बन जाती है। इसके मुकाबले, अल्पविकसित
देशों के पिछेडेपनाका प्रमुख कारण दुर्बल प्रसरण प्रभाव तथा प्रबल अतिनिर्यात प्रभाव
रहे हैं जिससे संचयी प्रक्रिया में दरिद्रता स्वयं अपना कारण बन जाती है।"
राज्य की भूमिका (The role of the state)-राष्ट्रीय
नीतियों ने दरिद्र देशों में प्रादेशिक असमानताओं को बल दिया है दुर्बल प्रसरण प्रभावों
की उपस्थिति में प्रादेशिक असमानताएं उत्पन्न करने में बाजार शक्तियों की स्वतंत्र
क्रिड़ा, तथा अबंध नीति दो प्रबल शक्तियां रही हैं। दरिद्र देशों में प्रादेशिक विषमताओं
के लिए उत्तरदायी अन्य साधन"अन्तःनिर्मित सामान्ती तथा असमतावादी संस्थाएं एवं
शक्ति-ढांचे रहें हैं।जो गरीबों का शोषण करने में धनिकों की सहायता करते हैं।"
इसलिए अल्पविकसित देशों की सरकारों को चाहिए कि वे ऐसी समतावादी नीतियां अपनाएं जो
अतिनिर्यात प्रभावों को दुर्बल बनाएंऔर प्रसरण प्रभावों को शक्ति दें ताकि प्रादेशिक
असमानताएं दूर हों और सतत आर्थिक प्रगति की आधारशिलाएं मजबूत हों। मिर्डल के शब्दों
में, "विकास का अधिक ऊंचा स्तर प्रसरण प्रभावों को बल देगा और प्रादेशिक असमानताओं
की ओर प्रवाह को रोकेगा; यह आर्थिक विकास को बनाए रखेगा और साथ ही ऐसी नीतियों के लिए
अधिक अनुकूल स्थितियां उत्पन्न करेगा जिनका लक्ष्य प्रादेशिक, असमानताओं को और कम करना
होगा। जितना ही अधिक प्रभावशाली ढंग से कोई राष्ट्रीय राज्य एक कल्याणकारी राज्य बनता
है प्रादेशिक असमानताएं लाने वाली अंधी बाजार शक्तियों को निष्फल बनाने की उतनी ही
अधिक प्रेरणा तथा क्षमता होगी; और यह देश आर्थिक विकास को पुनः प्रेरित करेगी और यह
क्रम चलता रहेगा और शीघ्र ही चक्रीय कार्यकरण प्रक्रिया चल पड़ेगी।"
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय असमानताएं (International Inequalities)
मिर्डल
के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अल्पविकसित देशों पर प्रबल अतिनिर्यात प्रभाव
हो सकते हैं। एक अन्य स्थान पर वह लिखता है कि "नियमतः व्यापार धनी तथा प्रगतिशील
प्रदेशों के पक्ष में आधारभूत पक्षपात लेकर तथा कम विकसित देशों के प्रतिकूल परिचालन
करता (और जारी रहता है।' यदि दो देशों में से एक औद्योगिक हो और दूसरा अल्पविकसित,
तो उन दोनों देशों में अबाधित व्यापार औद्योगिक देश को बल देगा और अल्पविकसित देश को
कंगाल बना दे देगा। धनी देशों में प्रबल प्रसरण प्रभावों वाले निर्माण-उद्योगों का
विस्तृत आधार होता है। अपनी औद्योगिकावस्तुओं को सस्ती दरों पर अल्पविकसित देशों में
निर्यात करके उन्होंने अल्पविकसित देशोकिलाघु उद्योगों तथा दस्तकारी को परे धकेल दिया
है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पिछड़े हुए देशनिर्यात की प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादक
बन कर रह गए हैं। क्योंकि निर्यात बाजार में प्राथमिक वस्तुओं की माँग लोचरहित होती
है, इसलिए, उन्हें कीमतों के बहुत अधिक उतार-चढ़ावों से हानि सहनी पड़ती है। परिणामतः
वे अपने निर्यातों की विश्व कीमतों के गिरने या चढ़ने से लाभ नहीं उठा पाते। अपने निर्यातों
के लिए लोचरहित बाजार के कारण आयात करने वाले देश अपनी वस्तुओं के सस्ते हो जाने का
लाभ उठा लेते हैं। इसी तरह का लाभ वहां भी होता है जहां उनके निर्यात उत्पादन में किसी
प्रकार का प्रौद्योगिक सुधार होता है। जब उनकी वस्तुओं की विश्व कीमतें बढ़ती हैं,
तब भी वे उससे लाभ नहीं उठा पाते। बढ़े हुए निर्यात अर्जनों से स्फीतिकारी दबाव आते
हैं, निवेशव्यय का कुआवंटन होता है और भुगतान-शेष की कठिनाइयां सामने आती हैं।क्योंकि
वे सट्टे, प्रदर्शन उपभोग, वास्तविक सम्पदा, विदेशी मुद्रा धारणों आदि में व्यर्थ जाती
है।
अल्पविकसित देशों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के अतिनिर्यात प्रभाव को चित्र 2 (A) व (B) से सपष्ट किया गया है
जिसमें
एक औद्योगिक देश X व दूसरा देश Y जो कि खाद्यान्न व कच्चे माल का उत्पादक है। चित्र
में राष्ट्रीय आय को क्षैतिज अक्ष व बचत, निवेश, आयात, निर्यात को अनुलम्ब अक्ष पर
दिखाया गया है। Id+X घरेलू निवेश जमा निर्यात फलन व S+M बचत जमा आयात फलन है जो राष्ट्रीय
आय का निर्धारण दर्शाने के लिए प्रयुक्त किए गए हैं।
पहला
देश X औद्योगिक वस्तुएं व मशीनरी अल्पविकसित देश Y को निर्यात करता है जो कि देश Y
के लिए आयात के रूप में प्राप्त होते हैं । ऐसी स्थिति को चित्र 2 के भाग A व भाग
B में दिखाया गया है। देश X के निर्यात करने से Idx+X रेखा ऊपर सरक कर
Idx+X1 बन जाती है जो बचत जमा आयत रेखा (S+M) को बिंदु a1
पर काटती है। देश X का a1b1 निर्यात देश Y को करने से, राष्ट्रीय
आय बढ़ कर ON से ON1 हो जाती है।
दूसरी
तरफ, देश Y में बचत जमा आयत रेखा (S+M) से सरककर (S1+M1) हो
जाती है क्योंकि देश X का निर्यात a1b1=c2d2
आयात देश Y के जिससे देश Y की राष्ट्रीय आय में कमी NN2 के बराबर हो जाती
है। देश Y देश X को निर्यात के रूप में कच्चा माल सप्लाई करता है जिससे Idy+X ऊपर सरककर
Idy+X1 बन जाती है जो S+M रेखा को बिंदु a2 पर काटती है। देश
Y की राष्ट्रीय आय में वृद्धि eb2 के बराबर है जो कि आयात के मूल्य c2d2
से कम है। इसका मुख्य कारण यह है कि अल्पविकसित देशों को अपनी अर्थव्यवस्था की प्रारंभिक
विकास आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारी मात्रा में आयात करना पड़ता है और साथ ही निर्यात
के रूप में खाद्यान्न व कच्चे माल का मूल्य कम प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप इस प्रकार
के अल्पविकसित देशों में सामान्यतः भुगतान-शेष की समस्या बनी रहती है और ऐसे देश विदेशी
ऋण के जाल में से बाहर नहीं निकल पाते।
पूंजी-गतियां
भी अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं की रोकथाम करने में असफल रही हैं। क्योंकि उन्नत देश
स्वयं ही निवेशकर्ताओं को वस्तुएं, लाभ तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं, इसलिए पूँजीअल्पविकसित
देशों से दूर रहेगी। औपनिवेशिक व्यवस्था के अन्तर्गत जो पंजी अल्पविकसित देशों की ओर
प्रवाहित हुई थी वह प्रमुख रूप से निर्यात के लिए प्राथमिक उत्पादन के निमित्त थी।
परन्तु उसने प्रबल अतिनिर्यात प्रभावों के माध्यम से उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर
प्रतिकूल प्रभाव डाला । विदेशियों ने सड़कों, बन्दरगाहों, रेलों आदि के रूप में जो
थोड़ा-बहुत निवेश किया था, उसका लक्ष्य राजनैतिक स्थिरता तथा औपनिवेशिक सरकार की मार्थिक
लाभदायकता थी। अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं की समस्या के हल के रूप में अल्पविकसित तथा
विकसित देशों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय देशान्तरण अब बिल्कुल संभव नहीं रह गया है।
इस
प्रकार जो अबाधित व्यापार तथा पूँजी-गतियां उन्नत देशों में आर्थिक प्रगति लाई हैं,
उन्हीं ने अल्पविकसित देशों में प्रबल अतिनिर्यात प्रभाव उत्पन्न किए हैं। "जो
कानून-निर्माण में प्रशासन में, और अधिक सामान्य रूप से कहा जाए तो भाषा में आधारभूत
मूल्यों एवं विश्वासों में, जीवन के स्तरों, उत्पादन क्षमताओं तथा सुविधाओं में विधमान
रहते हैं, वे उन सीमा रेखाओं की उपेक्षा-जो किसी भी देश में हो सकती है-राष्ट्रीय सीमाओं
को विस्तारशील संवेग के प्रसरण में कहीं अधिक बाधक बना सकती हैं सीमाओं तथा प्रत्येक
वस्तु, जिसके लिए वे स्थित हैं, की अपेक्षा विदेश से विस्तारशील संवेग के प्रसरण में
बाधकों के रूप में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य अधिक दरिद्रता एवं अल्पविकसित देशों
के अपने भीतर के दुर्बल प्रसरण प्रभाव ही हैं मूल रूप से देशों के बीच जो दुर्बल प्रसरण
प्रभाव विद्यमान हैं, वे इस प्रकार अधिकांशतः अल्पविकसित देशों के अपने ही भीतर के
उन दुर्बल प्रसरण प्रभावों की झलक मात्र हैं जो उनके उपलब्ध विकास के निम्न स्तर के
कारण उत्पन्न हुए हैं।"
समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)
मिर्डल का थीसिस अल्पविकास के अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण अन्तर लक्ष्य करता है। उसने बह्त सुन्दर ढंग से उन राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों को मिला दिया है जो विश्व के अल्पविकसित देशों को उस संचयी प्रक्रिया में रखने का प्रयत्न करती है जहां 'दरिद्रता स्वय अपना कारण बन जाती है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अल्पविकसित देशों में प्रबल अतिनिर्यात प्रभाव प्रसरण प्रभावों को मंद कर देते हैं। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्तिया उन्हें रोकने का प्रयत्न करती हैं और प्रादेशिक तथा विश्व-असमानताओं को प्रेरित करती हैं। और फिर, बाजार शक्तियों की स्वतंत्र क्रीड़ा तथा अबाधित व्यापार ने ऐसे देशों की निर्यात समर्थता को दबाया है। परिणामतः अल्पविकसित देशों के आयातों तथा निर्यातों में बड़ा अन्तराल आ गया है जिसने उनके आर्थिक विकास को एक महंगा एवं लम्बा मामला बना दिया है। आनुभाविक प्रमाण भी लक्ष्य करता है कि मिर्डल का थीसिस पुष्टीकृत हो चुका है।