संतुलित वृद्धि के सिद्धान्त के अनेक निर्माता हैं, जो अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करते हैं। कुछ मानते हैं कि किसी पिछड़े हुए क्षेत्र अथवा उद्योग में निवेश करना संतुलित वृद्धि है ताकि वह अन्य क्षेत्रों या उद्योगों के साथ आ जाए। दूसरे इसका अर्थ यह समझते हैं कि सब क्षेत्रों में एकदम साथ-साथ निवेश होता है। कुछ अन्य इसे निर्माणकारी उद्योगों तथा कृषि का संतुलित विकास समझते हैं।
इसलिए
संतुलित वृद्धि यह अपेक्षा रखती है कि विभिन्न उपभोक्ता-वस्तु उद्योगों के बीच और उपभोक्ता-वस्तु
तथा पूँजी-वस्तु उद्योगों के बीच संतुलन हो। इसका यह भी अभिप्राय है कि उद्योग तथा
कृषि में और घरेलू तथा निर्यात क्षेत्र में संतुलन रहे। फिर, इसके लिए सामाजिक व आर्थिक
उपरि-सुविधाओं तथा प्रत्यक्षतः उत्पादक निवेशों के बीच और अनुलम्ब तथा क्षैतिज बाह्य
मितव्ययिताओं के बीच संतुलन आवश्यक है। संक्षेप में, संतुलित वृद्धि का सिद्धान्त
यह व्यक्त करता है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का एक-साथ सामंजस्यपूर्ण
विकास होना चाहिए ताकि सब क्षेत्र साथ-साथ बढ़ें
इसके
लिए पूर्ति एवं माँग पक्षों के संतुलन की आवश्यकता है। पूर्ति पक्ष अर्थव्यवस्था
के उन सभी सम्बन्धित विभिन्न अंगों के एक-साथ विकास पर बल देता है जो वस्तुओं की
पूर्ति बढ़ाने में सहायक होते हैं। इनमें वे सभी उद्योग, जो उपभोक्ता वस्तुओं का
उत्पादन करते हैं, माध्यमिक वस्तुएं, कच्चे माल, विद्युत, कृषि, सिंचाई, परिवहन
आदि साधनों का एक-साथ समान रूप से विकास सम्मिलित है। जबकि माँग पक्ष लोगों को
रोजगार के अधिक साधन प्रदान करके उनकी आय बढ़ने से सम्बन्ध रखता है जिससे वस्तुओं
एवं सेवाओं के प्रति लोगों की मांग बढ़े। सभी प्रकार के उद्योगों को एक-साथ स्थापित
करने से जब लोग रोजगार पर लगेंगे तो वे एक-दूसरे की वस्तुओं के लिए मांग पैदा
करेंगे। इस प्रकार सभी वस्तुएं बिक जाएंगी। मांग पक्ष पूरक उद्योग, उपभोक्ता-वस्तु
उद्योग, विशेषरूप से कृषि तथा निर्माणकारी उद्योगों से सम्बन्धित हैं।
संतुलित
वृद्धि का सिद्धान्त यह आवश्यक बना देता है कि सरकार योजना बनाए और निदेशन तथा
समायोजन करे। इसका अभिप्राय है कि व्यक्तिगत निवेश परियोजनाएं चाहे अलाभदायक हों,
सामूहिक रूप से लाभदायक होंगी। इसलिए केन्द्रीय सरकार द्वारा किसी योजना के अनुसार
उत्पादन की सब दिशाओं में जानबूझ कर एक-साथ निवेश से अर्थव्यवस्था की सन्तुलित
वृद्धि होगी।
रोजेन्स्टीन-रोदान,
रेगनर नरें एवं आर्थर लुइस ने संतुलित वृद्धि के सिद्धान्त का समर्थन किया है।
नीचे हम रोदान और नक्से द्वारा की गई इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं।
सिद्धान्त की व्याख्या (FXPLANATION OF THE THEORY)
रोदान का विचार (Rodan's view)-रोजेन्स्टीन रोदान प्रथम
अर्थशास्त्री था जिसने अपने 1943 ई० के लेख "Problems of Industrialization
of Eastern and South-Eastern Europc" में संतुलित वृद्धि के सिद्धान्त का प्रतिपादन
किया। परन्तु उसने संतुलित वृद्धि शब्द का प्रयोग नहीं किया। उसने तर्क दिया कि पूर्वी
तथा दक्षिण पूर्व यूरोप में सभी निर्माण किए जाने वाले उद्योगों की एक विशाल फर्म या
ट्रस्ट की तरह योजना बनाई जाए। उसका मुख्य विचार यह था कि प्रायः सामाजिक सीमांत उत्पाद
(Social Marginal Product) का निवेश उसके निजी सीमांत उत्पाद (Private Marginal
Product) से भिन्न होता है, और जब उद्योगों के एक ग्रुप का उनकी SMPs के अनुसार इकट्ठा
आयोजन किया जाता है तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि की दर अधिक होती है, अपेक्षाकृत ऐसा
न होने के । यह इसलिए कि एक उद्यमी केवल निवेश के PMP में ही रुचि रखता है, और उसकी
SMP का सही अनुमान नहीं लगा सकता। अपने तर्क की पुष्टि में रोदान बहुत-से उदाहरण देता
है, जहां निवेश का SMP उसके PMP से अधिक होता है। समाज के दृष्टिकोण से विभिन्न उद्योगों
की पूरकता बहुत लाभदायक निवेश की ओर ले जाती है। वह जूता फैक्टरी का प्रसिद्ध उदाहरण
देता है। मान लो कि एक बड़ी जूता फैक्टरी एक क्षेत्र में प्रारम्भ की जाती है, जहां
20,000 बेरोजगार श्रमिक रोजगार पर लगाए जाते हैं। यदि ये श्रमिक अपनी समस्त आय जूतों
पर खर्च करें तो जूतों के लिए मार्केट पैदा हो जाएगी परन्तु कठिनाई यह है कि श्रमिक
अपनी समस्त मजदूरी जूतों पर खर्च नहीं करेंगे। इसकी अपेक्षा यदि सभी उपभोग वस्तुएं
उत्पादित करने वाले उद्योगों की श्रृंखलाएं ही प्रारम्भ कर दी जाएं जिन पर श्रमिक अपनी
मजदूरी खर्च करें तो सभी उद्योग गुणक प्रक्रिया द्वारा फैलेंगे। ऐसे उद्योगों की पूरक
प्रणाली का योजनाबद्ध ढंग से निर्माण करने से उनका वस्तुएं न बेच सकने का जोखिम कम
हो जाएगा और इससे बड़े पैमाने पर आयोजित औद्योगीकरण होगा।
नर्क्से का मत (Narkse's view)-नर्क्से के अनुसार अल्पविकसित देशों में दरिद्रता-दुश्चक्र कार्यशील रहते हैं, जो आर्थिक विकास में बाधा डालते हैं । पूर्ति तथा माँग दोनों पक्षों में दरिद्रता के दुश्चक्र चलते हैं। पूर्ति पक्ष में, आय के नीचे स्तर के परिणामस्वरूप बचत करने की क्षमता बहुत कम होती है, निम्न वास्तविक आय कम उत्पादकता के कारण होती है, जोकि स्वयं, अधिकतर पूँजी के अभाव के कारण होती है। बचत करने की कम क्षमता के कारण पूँजी का अभाव होता है। माँग पक्ष में निवेश की प्रेरणा इसलिए कम होती है कि लोगों की क्रय-शक्ति कम होती है, जिसका कारण है लोगों की वास्तविक आय का नीचा स्तर। इसलिए निवेश की प्रेरणा को मार्केट का आकार सीमित करता है, जोकि स्वयं उत्पादकता पर निर्भर रहता है, क्योंकि क्रय करने की क्षमता वास्तव में उत्पादन करने की क्षमता है और उत्पादन में प्रयुक्त पूँजी की मात्रा पर उत्पादकता निर्भर करती है। परन्तु व्यक्तिगत उद्यमी के लिए पूँजी के प्रयोग में मार्केट का छोटा आकार बाधा प्रस्तुत करता है और स्वयं मार्केट का आकार कम उत्पादकता से सीमित है। इस प्रकार दुश्चक्र पूरा होता है।
इन दुश्चक्रों को कैसे तोड़ा जाए? व्यक्तिगत निवेश-निर्णय
समस्या हल कर सकते हैं । नर्से ने अपने तर्क की पुष्टि करने के लिए रोजेन्स्टीन-रोदान
का जूतों की फैक्टरी का ऊपर वर्णित प्रसिद्ध उदाहरण दिया है। मान लीजिए कि एक जूता-उद्योग
लगाया गया है। यदि उत्पादकता तथा क्रय-शक्ति बढ़ाने के लिए बाकि अर्थव्यवस्था में कोई
प्रयत्न नहीं किए जाते, तो अतिरिक्त जूता उत्पादन की खपत नहीं हो सकेगी। क्योंकि मानवीय
आवश्यकताएं विभिन्न प्रकार की होती हैं, इसलिए उद्योग में लगे हुए लोग अपनी समस्त आय
जूतों पर नहीं खर्च करेंगे। इस नए उद्योग के बाहर के लोग भी हर साल नया जूता नहीं खरीदेंगे
क्योंकि उनके पास अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को ही पूरा करने के लिए काफी धन नहीं है।
इसलिए पर्याप्त मार्केट के अभाव के कारण नया उद्योग विफल हो जाएगा।
मार्केट का विस्तार कैसे किया जा सकता है? मौद्रिक
प्रसार से, विक्रय कला तथा विज्ञापन से और व्यापार नियंत्रण हटाकर तथा आर्थिक आधारिक
संरचना (infrastructure) में विस्तार करके मार्केट का आकार बढ़ाया जा सकता है। कीमतें
घटाकर (जबकि मुद्रा-आय स्थिर रहे) या कीमतों के स्तर को स्थिर रखते हुए मुद्रा-आयों
में वृद्धि करके भी इसे बढ़ाया जा सकता है । इसका अभिप्राय है कि उत्पादक दक्षता तथा
वास्तविक आय में वृद्धि हो। परन्तु अल्पविकसित देशों में मार्केट इतनी बड़ी नहीं होती
कि ऐसे पैमाने पर उत्पादन किया जा सके जिस पर लागतें घट जाएं। फिर, लोचरहित उपभोक्ता-माँग,
तकनीकी असमानताएं और उद्यम का अभाव, पूंजी के लिए माँग को रोके रखते हैं।
इसलिए,
नर्क्से के अनुसार, "इस दलदल से निकलने का एकमात्र तरीका यह है कि विभिन्न उद्योगों
के व्यापक क्षेत्रों में लगभग एक-साथ पूँजी लगाई जाए। गत्यावरोध से बचाव का यही मार्ग
है और इसी के परिणामस्वरूप मार्केट का समग्र विकास होता है। अनेक पूरक परियोजनाओं में
अपेक्षाकृत अधिक तथा अच्छे औजारों से काम करने वाले लोग एक-दूसरे के ग्राहक बन जाते
हैं। जन उपभोग की सामग्री जुटाने वाले अधिकांश उद्योग इस दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक
होते हैं कि वे एक-दूसरे के लिए मार्केट प्रदान करते हैं और इस प्रकार एक-दूसरे का
पोषण करते हैं। 'संतुलित विकास' का प्रश्न 'संतुलित आहार की आवश्यकता पर आश्रित है"
नर्क्से
ने
से के नियम (Say's Law) से संतुलित बुद्धि के सिद्धान्त का सूत्र ग्रहण किया है और
उस नियम के जे० एस० मिल के कथन का उल्लेख किया है, "यदि सब प्रकार के उत्पादनों
के बीच, किसी गलत हिसाब के बिना, उत्पादन की प्रत्येक वृद्धि को ऐसे अनुपात में वितरण
कर दिया जाए जिसे निजी हित निश्चित करते हैं तो वह स्वयं अपनी माँग पैदा ही नहीं बल्कि
संस्थापित कर लेती है।" परन्तु एक निजी उद्यमी के द्वारा, किसी विशिष्ट उद्योग
में किया गया पूँजी का पर्याप्त प्रयोग, मार्केट के छोटे आकार के कारण अलाभदायक हो
सकता है। इसके विपरीत, विभिन्न उद्योगों के अन्तर्गत परियोजनाओं के विस्तृत क्षेत्र
में पूँजी का एक समय प्रयोग आर्थिक दक्षता के सामान्य स्तर को बढ़ा सकता है और मार्केट
के आकार का विस्तार करता है। नर्से के अनुसार, 'इस प्रकार का सीधा आक्रमण- अनेक विभिन्न
उद्योगों में निवेशों की लहर-संतुलित वृद्धि
"ऐसा
करने का यह तरीका है कि ऐसे ढंग से संरचित नए प्लाटों की एक-साथ लहर आए जिससे पूर्ति
पक्ष में पूरकों तथा बाह्य मितव्ययिताओं का, और माँग पक्ष में मार्केटों के पूरकों
का, पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सके।" उद्योगों के विस्तृत क्षेत्र में निवेश के परिणामस्वरूप
उद्योगों का अनुलम्ब (vertical) तथा क्षैतिज (horizontal) एकीकरण, श्रम का अधिक श्रेष्ठ
विभाजन, कच्चे माल तथा तकनीकी दक्षता का सामान्य साधन, मार्केट के आकार का विस्तार
और सामाजिक तथा आर्थिक उपरि-व्यय पूँजी का श्रेष्ठतर उपयोग होता है। भौतिक पूँजी तथा
मानव-पूँजी में निवेश एक-साथ होना चाहिए क्योंकि भौतिक पूँजी में निवेश व्यर्थ होगा,
जब तक कि इसके चलाने के लिए लोग शिक्षित तथा स्वस्थ नहीं होते। नर्से इस बात का समर्थन
करता है कि अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों को प्रेरित तथा पोषित करने के लिए सामाजिक
तथा आर्थिक उपरि-सुविधाएं माँग से पहले उत्पन्न की जाएं।
सरकारी निदेशन (Government Direction)-अल्पविकसित
देश में निजी उद्यम इन बाह्य मितव्ययिताओं का लाभ उठाने में असमर्थ है क्योंकि इसमें
परियोजनाओं के विस्तृत क्षेत्र में 'पूँजी निवेशों की लहर" शुरू करने की क्षमता
नहीं होती। इसलिए संतुलित वुद्धि आर्थिक विकास के लिए केन्द्रीय योजना, निदेश तथा समायोजन
की अपेक्षा रखती है। परन्तु नर्से का विश्वास है कि प्रोत्साहनों की उत्तेजना के अंतर्गत
निजी उद्यम अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सकता है। नर्क्से ने
अपने 1958 के इस्तंबुल भाषण में कहा था, "कुछ लेखकों के अनुसार, संतुलित बुद्धि
तर्क का यह मतलब है कि मार्केट तंत्र समाप्त कर दिया जाता है और किसी सामंजस्यपूर्ण
योजना के अनुसार निवेश होना चाहिए। यह मत “मुझे प्रामक प्रतीत होता है। निवेश की प्रेरणाओं
को उत्पन्न करने वाले साधन के रूप में संतुलित वृद्धि को निजी उद्यम व्यवस्था से प्रमुखतया
संबद्ध कहा जा सकता है। राज्य निवेश तो माकैट-प्रेरणा के बिना हो सकता है और प्रायः
होता रहता है। योजना प्राधिकारी चाहे पूंजी लगा सकते हैं, बशर्ते कि उनके पास हो। निजी
निवेश ही मार्केट द्वारा आकर्षित होते हैं और उन्हें ही बढ़ते हुए मार्केटों की जरूरत
होती है। परस्पर समर्थन का तत्त्व यहीं उपयोगी और शीघ्र वृद्धि के लिए अनिवार्य होता
है।" यह मत ठीक नहीं है क्योंकि कीमत तंत्र अकेला निवेशों की ऐसी एक-साथ तथा परस्पर
पोषक लहर उत्पन्न करने में असमर्थ है, जो संतुलित वृद्धि के लिए अपेक्षित है। चाहे
निजी हों, चाहे सरकारी, पर सुचिन्तित योजना तथा समन्वय ही यह काम कर सकते हैं । परन्तु
नर्से का तर्क यह है कि कीमत-प्रोत्साहन थोड़ी मात्रा में संतुलित वृद्धि ला सकते हैं
। हाँ, प्रारम्भिक निवेश के मौद्रिक प्रभावों तथा अन्य प्रभावों से विभिन्न उद्योगों
के विस्तृत क्षेत्र में पूँजी के नए निवेशों की लहर को बढ़ावा दिया जा सकता है।
1. कृषि एवं उद्योगों में संतुलन (Balance between agriculture and
industries)- कृषि और उद्योग क्षेत्र एक दूसरे के पूरक होते हैं। यदि
किसी एक क्षेत्र में अधिक और दूसरे क्षेत्र में, कम निवेश किया जाए, तब अर्थव्यवस्था
में स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। दूसरे शब्दों में कृषि क्षेत्र उद्योगों के
लिए कच्चा माल पैदा करता है। जबक उद्योग क्षेत्र में उत्पादन बढ़ने के कारण रोजगार
भी बढ़ता है जिससे कच्चे माल एवं खाद्य पदार्थों की मांग भी बढ़ती जाती है। यदि कृषि
क्षेत्र में भी निवेश की मात्राएं उद्योग क्षेत्र के साथ-साथ नहीं बढ़ाई जाती, तब ऐसी
स्थिति में पूर्ति (उत्पादन) पहले से कम रहेगी। जिसके परिणामस्वरूप कृषि पदार्थों की
कीमतें बढ़ जायेंगी।
चित्र में कृषि क्षेत्र को क्षैतिज अक्ष पर व उद्योग क्षेत्र को अनुलंब अक्ष पर दिखाया गया है।
निवेश
संभावना वक्र PC द्वारा व्यक्त किया गया है। यदि दोनों क्षेत्रों में एक ही दर से निवेश
किया जाए तब ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था का संतुलन बिंदु A पर होगा और कृषि क्षेत्र
में निवेश की दर OL=OK उद्योग क्षेत्र में निवेश की दर। इसी कारण एक क्षेत्र में अधिक
अथवा कम निवेश नहीं किया जा सकता। जैसेकि बिंदु B बता रहा है कि उद्योग क्षेत्र में
अधिक निवेश से कृषि क्षेत्र में पहले से कम उत्पादन होगा। बिंदु Bपर कृषि क्षेत्र में
निवेश की दर OL1 < BL1 उद्योग क्षेत्र में निवेश की दर से।
अतः कच्चे माल की लागतों में वृद्धि होगी और अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव बने
रहेंगे। अतः संतुलित वृद्धि यह अपेक्षा रखती है कि विभिन्न उपभोक्ता वस्तु एवं पूँजी
उद्योगों के बीच संतुलन कायम रहना चाहिए।
2. घरेलू तथा विदेशी व्यापार में संतुलन (Balance between domestic
and foreign trade)-घरेलू क्षेत्र तथा विदेशी क्षेत्र के बीच संतुलन
होना भी जरूरी है। मायर एवं बाल्डविन के अनुसार, विकास के "वित्त-प्रबन्धन के
लिए निर्यात क्षेत्र एक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत है; ज्यों-ज्यों उत्पादन तथा रोजगार में
विस्तार होता है, त्यों-त्यों आयात बढ़ते हैं; और स्वयं घरेलू व्यापार के लिए आवश्यक
सामग्री तथा उपकरण के बहते आयातों की जरूरत होती है। इन बढ़ते आयातों का भुगतान करने
के लिए और विकास के लिए निर्यातों के यथासम्भव वित्त-प्रबन्धन के लिए कोई देश अपने
विदेशी व्यापार की कीमत पर अपने घरेलू व्यापार का विस्तार नहीं कर सकता। विदेशी क्षेत्र
के साथ घरेलू क्षेत्र भी अवश्य ही संतुलन में वृद्धि करें।" नर्से लिखता है,
"संतुलित वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अच्छा आधार है और परिसर की रिक्ति
को भरने का अच्छा मार्ग भी है।" वह परिवहन सुविधाओं में सुधार के महत्त्व पर बल
देता है और इस बात का समर्थन करता है कि आर्थिक तथा भौगोलिक अर्थ में मार्केट का विस्तार
करने के लिए परिवहन लागतों में कमी प्रशुल्क-प्रतिबंधों का उन्मूलन, और सीमा-कस्टम
यूनियन का निर्माण होना चाहिए। इस प्रकार, विकासशील देश एक-दूसरे के ग्राहक बन जाएंगे
और अपनी माँग की आय लोचों में वृद्धि होने पर कृषि तथा निर्मित वस्तुओं के अपने प्रति
व्यक्ति उपभोग को बढ़ा लेंगे। नर्क्से आत्म-निर्भरता का समर्थन नहीं करता। घरेलू उत्पादन
में वृद्धि होने पर घरेलू तथा विदेशी मार्केट का विस्तार होगा। परन्तु यदि अन्य देशों
द्वारा लगाए गए नियंत्रणों के कारण विदेशी व्यापार घट जाए, तो भी सबसे अच्छा तरीका
यह है कि घरेलू उपभोग के लिए इसके उत्पादन का विस्तार किया जाए जिससे अर्थव्यवस्था
में रोजगार तथा आय बढ़े।
लुइस
के शब्दों में सारांश यह है : "विकास प्रोगामों में अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों
की एक-साथ वृद्धि हो ताकि उद्योग तथा कृषि के बीच और घरेलू उपभोग के लिए उत्पादन तथा
निर्यात के लिए उत्पादन के बीच संतुलन रहे इस प्रस्थापना का तर्क जितना सरल है, उतना
ही अखण्डनीय भी।
संतुलित वृद्धि के सिद्धान्त की आलोचनाएँ (CRITICISMS OF THE
DOCTRINE OF BALANCED GROWTH)
हर्षमैन,
सिंगर, कुरिहारा तथा अन्य कई अर्थशास्त्रियों ने निम्नलिखित कारणों से संतुलित वृद्धि
के सिद्धान्त की कटु आलोचनाएं की हैं।
1. लागतों में वृद्धि (Rise in costs)- अनेक
उद्योगों की एक-साथ स्थापना उत्पादन की मौद्रिक तथा वास्तविक लागतें बढ़ा देगी और इस
प्रकार, पर्याप्त पूँजी उपकरण, कुशलताओं, सस्ती शक्ति, वित्त तथा अन्य आवश्यक कच्चे
माल के अभाव में उनके कार्यकरण को आर्थिक दृष्टि से अलाभदायक बना देगी।
2. लागतें घटाने की ओर कोई ध्यान नहीं (No attention to reducing
costs)-
किंडलबर्गर (Kindleberger) का मत है कि नर्से का मॉडल नए उद्योग शुरू करने की बजाय
वर्तमान उद्योगों में लागतें घटाने की सम्भावना पर ध्यान नहीं देता ताकि वे अधिक माँग
पैदा करके अन्य उद्योगों के प्रसार में सहायक भी हों।
3. अन्य समस्याएं (Other problems)-नए उद्योगों की स्थापना
करना यदि किसी अल्पविकसित देश की अपनी समर्थ के भीतर भी हो, तो अनेक समस्याएं खड़ी
हो जाएंगी। जब नए उद्योगों की स्थापना होती है, तो वर्तमान फर्मों की वस्तुओं के लिए
मांग घट जाएगी और नए उद्योगों को अलाभदायक बना देगी। साथ ही, उत्पादन के साधनों के
लिए मांग बढ़ जाएगी जो "सब उद्योगों में उत्पादन के साधनों की कीमत बता देगी।
जैसाकि जे०मार्कस फ्लेमिंग ने कहा है, जबकि संतुलित वृद्धि का सिद्धान्त यह मान लेता
हैं कि उद्योगों के बीच सम्बन्ध अधिकांशतः पूरक है, वहां साधन पूर्ति की परिसीमा यह
सुनिश्चित करती है कि सम्बन्ध अधिकांशतः प्रतियोगी
4. विकास के सिद्धान्त के रूप के असफल है (Fails as a theory of
development)- हर्षमैन के अनुसार, विकास के सिद्धान्त के रूप में संतुलित
वृद्धि का सिद्धान्त असफल है। विकास का अर्थ है एक प्रकार की अर्थव्यवस्था के दूसरी
अधिक उन्नत प्रकार की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया। परन्तु संतुलित वृद्धि
के सिद्धान्त में, किसी एकदम नए, आत्म-निर्भर आधुनिक उद्योग-क्षेत्र का स्थिर तथा समान
रूप से आत्म-निर्भर परम्परागत क्षेत्र पर थोपना है। हमेन मत प्रकट करता है कि
"यह वृद्धि नहीं है और किसी पुरानी चीज पर किसी एकदम नई चीज का आरोपण भी नहीं
है; यह तो विकास का पूर्ण दोहरा ढांचा है।
5. अल्पविकसित देशों की क्षमताओं से बाहर (Beyond the capabilites
of underdeveloped countries)-पुनः हर्षमैन के अनुसार, यह सिद्धान्त
"अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं की क्षमताओं के प्रति पराजयवादी वृत्ति को, उनकी उत्पादक
योग्यताओं से संबद्ध पूर्णतया अवास्तविक प्रत्याशाओं से मिला देता है।" एक ओर
अल्पविकसित देशों में अधिकारी इस बात पर दुखी हैं कि अर्थव्यवस्था में विकास के लिए
आवश्यक कुशलता तथा अन्य साधनों का अभाव है। दूसरी ओर, संतुलित वृद्धि के सिद्धान्त
के समर्थक यह धारणा लिए हैं कि कुशलता तथा उद्यमीय योग्यताहीन व्यक्ति रातों-रात सर्वज्ञ
बन जाते हैं और नए उद्योगों की श्रृंखला प्रारम्भ कर सकते हैं। इस प्रकार समस्त सिद्धान्त
अपने आप में अन्तर्विरोधी प्रतीत होता है। बढ़ा अजीब लगता है कि जो काम बांट के नहीं
हो सकता, वह एक बढ़े ढंग से किया जा सकता है और अल्पविकसित देश की भौतिक तथा बौद्धिक
समर्थ के भीतर समझा जाता है। यह ऐसा है जैसे कोई कुशल निर्माता भवन की पहली मंजिल का
तो निर्माण करने की स्थिति में न हो परन्तु उसे अगली दो मंजिलें बनाने की सलाह दी जाए।
जैसाकि सिंगर (Singer) ने कहा है, "बहुत विकास के लाभ पढ़ने में अर्थशास्त्रियों
के लिए तो बहुत रोचक हो सकते हैं, परन्तु अल्पविकसित देशों के लिए वास्तव में दुखद
समाचार हैं। अनेक मोर्चों पर एक साथ विकास के लिए प्रारम्भिक साधनों का आमतौर पर अभाव
होता है। यदि किसी देश के पास काफी कुशलता तथा साधन हों, तो वह शुरू में ही अल्पविकसित
नहीं होगा।
6. साधनों में व्यनुपातिता (Disproportionality in factors)- अल्पविकसित
देशों में एक और समस्या है उत्पादन के साधनों में व्युनपातिता का पाया जाना। कुछ देशों
में श्रम की अधिकता है, परन्तु पूँजी तथा उद्यम-कुशलता दुर्लभ है। जबकि अन्य देशों
में श्रम तथा पूँजी दुर्लभ है परन्तु अन्य साधन अधिकता में मिलते हैं। संतुलित वृद्धि
के सिद्धान्त के व्यावहारिक प्रयोग में यह एक बड़ी बाधा है।
7. साधनों की कमी (Shortage of resources)-यह
सिद्धान्त साधनों की कमी की समस्या भी नहीं हल कर सकता। यह से के नियम पर आधारित है
कि पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न कर लेती है। परन्तु वस्तुओं की पूर्ति का संबंध
साधनों, विशेष रूप से पूँजी, की मांग से है जो अपनी पूर्ति उत्पन्न नहीं करती। जब अनेक
नए उद्योगों में एक-साथ निवेश होंगे तो साधनों के लिए माँग प्रतियोगी बन जाएगी। परन्तु
अल्पविकसित देशों में साधनों की पूर्ति बेलोच होती है। इस प्रकार, सिद्धान्त का प्रमुख
तर्क ही गलत हो जाता है। परनर्स की धारणा है कि शुद्ध निवेश के लिए साधन उपलब्ध होते
हैं और दी दुई श्रमशक्ति को पूँजी के बढ़ते स्टॉक से सज्जित किया जाता है। पर पूँजी
के बढ़ते स्टॉक के आवंटन की समस्या फिर भी रह जाती है। "ऐसी स्थिति में,"
सिंगर लिखते हैं, "अल्पविकसित देशों की परिस्थितियों के लिए सामने से प्रहार की
अपेक्षा छापामार युद्धकला अधिक उपयोगी है।
8. बढ़ते प्रतिफल की गलत मान्यता (Wrong assumption of increasing
returns)- संतुलित वृद्धि का सिद्धान्त बढ़ रही माँग प्रदान करने के
लिए 'संतुलित' निवेश की जरूरत और बढ़ते प्रतिफलों का पाया जाना पहले ही मान लेता है।
परन्तु ये दोनों शक्तियां विपरीत दिशाओं में जोर लगाती हैं। यदि प्रतिफल बहुत अधिक
बढ़ जाएं तो अल्पविकसित देश उन्हीं स्थानों के बीच एक रेलमार्ग और एक सड़क पर निवेश
नहीं करना चाहेगा बल्कि उसे उदाहरण के लिए, तेल-शोध और इस्पात कारखाने में से एक को
चुनना पड़ेगा। यदि सब सबंद्ध क्षेत्रों में एक-साथ निवेश किए जाएंगे, तो कच्चे माल,
कीमतों, साधन-न्यूनताओं इत्यादि की अड़चनों के प्रकट होने का परिणाम घटते प्रतिफल होंगे।
इस प्रकार, बढ़ते नहीं बल्कि घटते प्रतिफल संतुलित वृद्धि के पक्ष में जाते हैं।
9. विकास के लिए पूँजी का गठीलापन आवश्यक नहीं (Capital lumpiness
not essential for development)-यद्यपि कई सामाजिक तथा आर्थिक उपरि-सुविधाओं
का पूँजी गठीलापन' पूँजी की बड़ी मात्राओं के तुरन्त निवेश के लिए कारण बताया जाता
है, फिर भी अनेक उन्नत देशों का अनुभव है कि प्रारंभ में कम निवेश लागतों से कई सेवाएं
प्रदान की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, किसी बड़ी नदी पर बाँध बनाने के अतिरिक्त बिजली
पैदा करने के अन्य तरीके हैं । डीजल के इंजन या तापीय संयंत्र लगाए जा सकते हैं। यदि
पूँजी अत्यन्त दुर्लभ हो तो शीघ्र थोड़े समय में वस्तु प्रदान करने वाली, कम निवेश-अधिक
लागत तकनीक ज्यादा मितव्ययी है। जैसाकि सिंगर कहते हैं, "अल्पविकसित देशों को
'महान चिन्तन करने की राय देना तो अच्छा है परन्तु 'महान ढंग से कार्य करने की राय
देना नासमझी की बात होगीबशर्ते कि इससे उसे उसकी अपेक्षा अधिक करने की उत्तेजना मिलती
है, जितना उसके साधन अनुमति देते
10. सरकारी निदेशन एवं निवेश सम्भव नहीं (Government direction and
investment not possible)- इस सिद्धान्त के विरूद्ध एक आक्षेप यह भी किया
गया है कि यह सिद्धान्त विकास प्रक्रिया चलाने का कार्यभाग सरकार को देता है। हर्षमैन
का मत है कि "सिद्धान्त का अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक विवरण तथा राज्य को सौंपा
गया कार्यभाग उद्यमियों के भावी कार्यों की बजाय उनकी पूर्वाशाओं का विश्लेषण करता
है।" केन्द्रीकृत योजना तथा निदेशन के विरूद्ध कई आपत्तियों की जा सकती हैं। निजी
उद्यम-व्यवस्था में जिस काम को उद्यमी नहीं संभाल सकते, उसे अवश्य ही सरकारी अधिकारी
भी सफलतापूर्वक नहीं कर पायेंगे। कुछ ऐसे काम होते हैं जिन्हें न तो व्यक्ति पूरा कर
सकते हैं और न ही राज्य । लगता है संतुलित वृद्धि भी एक ऐसा ही काम है। फिर, केन्द्रीकृत
योजना तथा निवेश केवल तभी वृद्धिकारक होते हैं, जब आर्थिक बाह्य मितव्ययिताएँ
"आन्तरिक बनाई" जा सकें। परन्तु, वास्तविकता में आर्थिक विकास का मतलब हर
कुछ का नए सिरे से निर्माण नहीं बल्कि सामान्य रूपान्तरण है। इसलिए यह आर्थिक बाह्य
अमितव्ययिताएं लाती हैं और कुछ ऐसी सामाजिक लागतें शामिल करती हैं जिनकी अपेक्षा नहीं
की जा सकती। उदाहरण के लिए, पुरानी कुशलता तथा व्यापार अप्रचलित हो जाते हैं; गंदी
बस्तिया, भीड़भाड़, बेरोजगारी, जुर्म और आत्महत्या इत्यादि बढ़ जाते हैं। इस प्रकार
संतुलित वृद्धि तब संभव है, जब आर्थिक अमितव्ययिताएं और समाजिक लागतों से बचा जा सके।"
परन्तु यह धारणा इतनी असामंजस्यपूर्ण है कि मानी नहीं जा सकती।
11. संतुलित वृद्धि प्रेरित निवेश के लिए आवश्यक नहीं (Balanced
growth not essential for induced investment)-कुरिहारा के अनुसार,
"नर्से की धारणा के विपरीत, जहां तक अल्पविकसित देश का संबंध है, संतुलित वृद्धि
निजी निवेश को प्रेरित करने के लिए नहीं चाहिए बल्कि स्वयं अपनी ही खातिर चाहिए। यदि
क्षमता-वर्द्धक तथा आय-जनक ढंग से स्वायत्त सार्वजनिक निवेश को अधिक कार्य करने दिया
जाए तो निवेश की निजी प्रेरणा को रोकने वाले अल्पविकसित देश के सीमित मार्केटों तथा
नीची वास्तविक आय के बारे में नर्से की शिकायतें अनावश्यक होंगी।"
12. संतुलित वृद्धि की धारणा विकसित देशों पर लागू होती है
(Concept of balanced growth applicable to developed countries)-हर्षमैन
के अनुसार संतुलित वृद्धि का सिद्धान्त वास्तव में केन्ज़ की अल्प-रोजगार की स्थिति
का अल्पविकसित अर्थव्यवस्था पर प्रयोग है। केन्ज़ के सिद्धान्त के अनुसार, व्यापार
चक्र की आरोही गति के दौरान एक-साथ बहुविध विकास के आर्थिक क्रिया का समुत्थान
(recovery) हो सकता है, "क्योंकि उद्योग, मशीनें, प्रबंधकर्ता और श्रमिक तथा उपभोग-आदतें
ये सभी अपने अस्थायी रूप से बन्द कार्यों तथा कार्यभागों को फिर से शुरू करने की ही
प्रतीक्षा में मौजूद रहते हैं।" परन्तु अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में बात ऐसी नहीं
है, चाहे राज्य सहायता दे यान दे। क्योंकि ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक क्रिया अस्थायी
रूप से निलम्बित नहीं होती है बल्कि स्थैतिक होती है। पूँजी, कुशलता, साधन पूर्तियों
तथा आर्थिक आधारिक संरचना का अत्यन्त अभाव होता है, इसलिए विकसित अर्थव्यवस्था पर व्यवहार्य
सिद्धान्त को अल्पविकसित अर्थव्यवस्था पर लागू करना गलत है।
13. दुर्लभताएं एवं अड़चनें वृद्धि को प्रोत्साहित करती हैं
(Scarcities and bottlenecks encourage growth)-पाल स्ट्रीटन (Paul
Streeten) के अनुसार, ऐतिहासिक दृष्टि से, संतुलित वृद्धि ने नहीं बल्कि दुर्लभताओं
तथा अड़चनों ने ही उन आविष्कारों को प्रोत्साहित किया, जिन्होंने इंगलैण्ड तथा संसार
की आर्थिक प्रणाली में क्रांति ला दी थी और उन आविष्कारों ने आगे नई दुर्लभताएं तथा
अड़चनें उत्पन्न की। यदि दुनिया संतुलित विकास पर निर्भर रहती तो वह खोजों के लिए,
अथवा कम से कम उनके व्यवहार के लिए, प्रेरणाओं को घटा देती या समाप्त ही कर देती। इस
प्रकार प्रौद्योगिकीय प्रगति का इतिहास असंतुलित वृद्धि पर स्थित है।
डॉ० सिंगर के शब्दों में निष्कर्ष दिया जा सकता है कि "संतुलित दृद्धि का सिद्धान्त गलत नहीं बल्कि इस दृष्टि से समय-पूर्व है कि यह गत्यावरोध तोड़ने तर लागू होने की बजाय सतत वृद्धि की बाद की अवस्था पर लागू है।"