राज्य सरकारों की आय (आगम) के स्रोत (SOURCES OF REVENUE OF STATE GOVERNMENT)

राज्य सरकारों की आय (आगम) के स्रोत (SOURCES OF REVENUE OF STATE GOVERNMENT)

भारतीय संविधान में केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकारों की आय के स्रोत तथा व्यय की मदों स्पष्ट विभाजन किया गया है ताकि दोनों सरकारों के मध्य किसी तरह का टकराव उत्पन्न न हो। अन्य शब्दों में, भारत में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों की आय के स्रोत जहाँ पृथक् पृथक् हैं वहीं उनके द्वारा किये जाने वाले व्यय की मदें भी एक-दूसरे से सर्वथा अलग-अलग हैं।

राज्य सरकारों की आय के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

I. कर-आय स्रोत (Tax Revenue Sources), II. गैर-कार आय स्रोत (Non-Tax Revenue Sources)

I. कर-आय स्रोत (SOURCES OF TAX REVENUE)

राज्य सरकारों की आय के प्रमुख कर-स्रोत निम्नवत् हैं-

1. मालगुजारी या भू-राजस्व (Land Revenue)—यह राज्य सरकारों को महत्वपूर्ण कर आय स्रोत है। भारता जब स्वान्त्र हुआ. उस समय दो प्रकार के स्वत्वाधिकार प्रचलित थे-(i) स्थाबी बन्दोबस्त तथा (1। अस्थायी बन्दोबस्त । इसके भी तीन भागथे-(1) जमींदारी,(b) महलदारी, (वितवारी। 1947 के बाद भारत सरकार ने सभी राज्यों में मध्यस्थों का उन्मूलन करके शू धारण सुधार अधिनियम लागू कर दिया। किसी भी राज्य की भू राजस्व व्यवस्था वहाँ को भू धारण पद्धति (Land Tenure System) पर निर्भर होती है और वह पद्धति भूतकाल में विभिन राज्यों में भिन्न-भिन्न थी। अनेक भूमि-सुधारों के लागू किये जाने से ये भिन्नताएँ अब मिटती जा रही हैं। वर्तमान में विभिन्न राज्यों के भू राजस्व में कम अन्तर पाया जाता है।

भूमि पर कर लगाने की रीतियाँ ( Method for Applying Tax on Land)-इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में मालगुजारी निर्धारण करने की विभिन्न रीतियाँ हैं-

(i) शुद्ध आदेय आधार-पंजाब, उत्तर-प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, बिहार तथा उड़ीसा आदि राज्यों में मालगुजारी शुद्ध आदेयों के आधार पर निर्धारित की जाती है। कुल उत्पत्ति में से उत्पादन लागत घटा देने से शुद्ध आदेयों का पता चल जाता है।

(ii) वार्षिक मूल्य आधार-मद्रास में शुद्ध उत्पादन के वार्षिक मूल्य के आधार पर मालगुजारी निश्चित की जाती है।

(iii) व्यावहारिक आधार-मुम्बई, हैदराबाद, मैसूर व त्रिपुरा में व्यावहारिक आधार पर मालगुजारी निश्चित की जाती है।

(iv) पूँजी मूल्य-भारत में पूँजी को मालगुजारी निर्धारित करने का कहीं भी आधार नहीं बनाया गया है।

आय-राज्य सरकारों को मालगुजारी से प्राप्त आय को निम्न तालिका में प्रदर्शित किया गया-

सारणी 1-भू-राजस्व कर

2. कृषि आयकर (Agricultural Income Tax)—यूँ तो सन् 1860 में ही सामान्य आयकर के साथ ही कृषि आयों पर भी कर लगाया गया था, जो कि लगभग 6 वर्ष तक चलता रहा, किन्तु उसके उपरान्त इसे हटा दिया गया। इसके हटाने का कारण सम्भवतः यह था कि इसका भार बड़े-बड़े जमींदारों पर ही पड़ता था जिन्हें विदेशी सरकार रुष्ट नहीं करना चाहती थी। सन् 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों को कृषि आय कर लगाने का अधिकार दे दिया गया और उसे आय-कर से अलग समझा गया। भारत के वर्तमान संविधान के अन्तर्गत भी कृषि आयकर सामान्य आयकर से अलग रखा गया है।

सन् 1944 से बंगाल में तथा सन् 1947 से उड़ीसा में बह कर लगाया गया। आजकल यह कर 8 राज्यों आगम, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उहीसा, राजस्थान व पश्चिमी बंगाल में यह कर लागू है।

3. राज्य उत्पादन शुल्क (State Excise Duty)—उत्पादन-शुल्क या आबकारी-कर वह है जो राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में नशीली वस्तुओं जैसे-शराब, भाँग, चरस, अफीम आदि पर लगाया जाता है। यद्यपि इस कर का उद्देश्य लाभ कमाना न होकर नशीली वस्तुओं के प्रयोग को हतोत्साहित करना है, परन्तु फिर भी इस मद से राज्य सरकारों को आय प्राप्त होती है। राज्य सरकारें इस मद से दो प्रकार की आय प्राप्त करती हैं- लाइसेन्स पीस के रूप में तथा उत्पादन शुल्क के रूप में। यद्यपि देश में मद्यनिषेध के सम्बन्ध में कई बार प्रयास किया जा चुका है, परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण मद्यनिषेध आज तक सम्भव नहीं हो सका है। वास्तविकता यह है कि इस मद से राज्य सरकारों की आय में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है, क्योंकि देश में इन वस्तुओं का उपभोग विगत वर्षों में काफी बढ़ा है।

राज्य उत्पादन शुल्क से प्राप्त राजस्व को निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

सारणी 2-राज्य उत्पादन शुल्क से प्राप्त राजस्व

4. बिक्री कर (Sales Tax)—भारत में यद्यपि विक्री-कर का प्रयोग मौर्यकाल में ही हो चुका था, किन्तु आधुनिक समय में इसका इतिहास प्रान्तीय स्वशासन से प्रारम्भ होता है। 1935 में भारत सरकार के अधिनियम के अन्तर्गत वस्तुओं की बिक्री पर कर लगाने का अधिकार प्रान्तों को सौंप दिया गया था। सबसे पहले 1938 में यह कर मध्य प्रदेश में पेट्रोल पर लगाया था, तत्पश्चात् अन्य प्रान्तों ने इसका अनुसरण किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश के नवीन संविधान में समाचार-पत्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर कर लगाने और उनका संग्रह करने का अधिकार राज्यों को दिया है। विभिन्न राज्यों में बिक्री कर में असमानताएँ पायी जाती हैं फिर भी कुछ समान विशेषताएँ हैं-

(i) प्रशासनीय सुविधा के दृष्टिकोण से छोटे-छोटे दुकानदारों को इस कर से छूट दी गयी है।

(i) कुछ वस्तुओं पर भी बिक्री कर नहीं लगाया जाता जैसे खादी, हैण्डलूम कपड़ा।

(iii) विभिन्न राज्यों में साधारणतया कर की दर निम्न प्रकार से है-

(a) बिलासिता की वस्तुएँ जैसे = 10 से 15% तक

रेफ्रीजरेटर, वाटर कूलर, शृंगार, प्रसाधन (Toilet), मोटर गाड़ी शराब आदि।

(b) अर्द्ध-विलासिता की वस्तुएँ = 6 से 8% तक

जैसे स्टेनलेस स्टील की वस्तुएँ, नकली ज्वेलरी, आदि

(c) आवश्यकता की वस्तुएँ = 4% तक

तथा कच्चा माल जैसे खाद्यान्न, घी, कोयला, लोहा व इस्पात, जूट तथा कोपरा,

केन्द्रीय बिक्री कर-सन् 1956 में संविधान में एक संशोधन के द्वारा अन्तर्राज्यीय क्रय-विक्रय को वस्तुओं पर कर लगाने का अधिकार केवल संघ सरकार को ही सौंप दिया गया। सन् 1956 में एक केन्द्रीय-विक्रय पर अधिनियम भी पास किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य ऐसे बिक्री-करों के बीच में समानता लाना था जो अन्तर्राज्यीय व्यापार की वस्तुओं पर लगाये जायें।

भारत में बिक्री कर राज्यों की आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्रत्येक राज्य में बिक्री-कर की दरें क्रमश: बढ़ती रही हैं। राज्यों के कुल राजस्व में बिक्री-कर से प्रायः प्राप्ति का स्थान सर्वोच्च है। योजना काल में विभिन्न राज्यों ने अपनी आय बढ़ाने के लिए बिक्री-कर का उपयोग किया है। राज्यों को बिक्री कर से सुलभ होने वाले राजस्व की दृष्टि से ही इसका महत्व नहीं है बल्कि आवश्यकता के अनुसार इसमें परिवर्तन की सुविधा इसे महत्वपूर्ण बना देती है।

निम्न तालिका में बिक्रीकर राजस्व की प्राप्तियों को दर्शाया गया है-

सारणी 3-समस्त राज्यों को बिक्रीकर से प्राप्त आय

1 अप्रैल, 2005 से बिक्री कर प्रणाली के स्थान पर मूल्य सम्मिलित (VAT) लागू करने पर राज्यों के बीच व्यापक सहमति बनी। तदानुसार अब सभी राज्यों सभी राज्य क्षेत्रों में वैट प्रणाली अपना ली है।

5. व्यवसाय कर (Profession Tax)—कुछ राज्यों में स्थानीय निकायों द्वारा व्यवसाय एवं वृत्तिmकर लगाया जाता है। यह एक प्रकार से आय पर लगाये जाने वाला कर ही है। एक निश्चित आय से अधिक आय होने पर प्रगतिशील दर से करारोपण किया जाता है। राज्यों को इस कर से प्राप्त होने वाली आय कृषि आय-कर से अधिक है। व्यापार कर राज्य सूची की 60वीं प्रविष्टि एवं संविधान की धारा 276 का प्रावधान है। यह कर अधिकतम 750 रुपये प्रतिवर्ष किसी भी व्यक्ति पर लगाया जा सकता है। इस नियम में निर्धन लोगों को छूट दी गयी है। पेन्शन प्राप्तकर्ता को विनियोग से आय, कृषि रोजगार से आय को इस व्यवसाय कर में शामिल नहीं किया गया है।

6. अन्य कर व शुल्क (Other Taxes and Duties)—राज्य सरकारों की आय के स्रोत के रूप में अन्य करों का विवेचन निम्न प्रकार से हैं-

(i) स्टाम्प शुल्क-स्टाम्प अदालती और गैर अदालती दो प्रकार के होते हैं। इसमें अदालती स्टाम्प के रूप में वसूल की गयी कोर्ट फोस तथा अदालती स्टाम्पों की बिक्री सम्मिलित है। गैर- अदालती स्टाम्पों में बिल ऑफ एक्सचेंज, हुण्डियों तथा अन्य दस्तावेजों पर लगाये जाने वाले स्टाम्पों की बिक्री तथा दस्तावेजों के मुद्रांकित करने का शुल्क आदि से होने वाली आय सम्मिलित हैं।

(ii) रजिस्ट्रेशन-इससे अभिप्राय उस फीस से है जो दस्तावेजों की रजिस्ट्री करते समय तथा सकी नकल प्राप्त करते समय सरकार द्वारा लोगों से ली जाती है।

(iii) मनोरंजन कर-इस कर से अभिप्राय उस कर से है, जो सिनेमा, ड्रामा, कुश्ती, नाच-गानों के विशेष कार्यक्रमों पर लगाये जाते हैं, किन्तु इसमें निश्चितता और लोचकता नहीं होती।

(iv) वाहनों पर कर-राज्य सरकारों को मोटर गाड़ियों के विक्रय, पेट्रोल के विक्रय, विद्युत के विक्रय आदि पर कर लगाने का अधिकार प्राप्त है। इन करों से राज्यों को बहुत बड़ी मात्रा में आय प्राप्त होती है।

II. राज्यों की गैर-कर आय (SOURCES OF NON-TAX REVENUE OF STATES)

1. केन्द्रीय कर से मिलने वाला भाग

(i) सरकार द्वारा लगाये गये सम्पत्ति करों में से राज्य सरकारों को हिस्सा दिया जाता है।

(ii) आयकर कर प्राप्त धनराशि सरकारों में वितरित कर दी जाती हैं।

(iii) उत्पादन करों का वित्तीय आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य सरकारों में वितरित करना।

2. प्रशासनिक प्राप्तियाँ राज्यों को एक ओर तो प्रशासनिक कार्यों पर काफी बड़ी धनराशि व्यय करनी पड़ती है, किन्तु दूसरी ओर प्रशासनिक विभागों से फीस, शुल्क आदि के रूप में काफी आय भी प्राप्त होती है। शिक्षा, चिकित्सा, जनस्वास्थ्य विभाग आदि सरकार को अच्छी आय प्रदान करते हैं।

3. सार्वजनिक व्यवसाय से शुद्ध आय-इसमें वन, सिंचाई, जल व स्थल परिवहन, उद्योग आदि से प्राप्त आय की गणना होती है। इन मदों की आय के सम्बन्ध में उल्लेखनीय बात यह है कि इन विभागों की आय में से विभागीय व्यय निकाल दिये जाते हैं और जो शुद्ध आय बच जाती है वह सरकारmको हस्तान्तरित हो जाती है।

4. ब्याज प्राप्तियों तथा अन्य उपायों से राज्य सरकार को काफी आय प्राप्त होती है। राज्य सरकारें अपने क्षेत्र में स्थित व्यावसायिक संस्थानों से ऋण लेती रहती हैं और उन्हीं पर ब्याज प्राप्त होता है।

राज्य सरकारों की कर आय और गैर कर आय को सारणी में दर्शाया गया है।

सारणी 4-राज्य सरकारों की आय

1. राज्य सरकारों की पूँजीगत खाते में आय

केन्द्र सरकार की भाँति राज्य सरकारों को भी पूँजीगत प्राप्ति होती है। ये प्राप्तियाँ 11 प्रमुख भागों में विभाजित हैं, जो इस प्रकार हैं-

1. आन्तरिक ऋण-इसमें बाजार, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया व अन्य बैंकों, जीवन बीमा निगम तथा अन्यों से लिये गये ऋण सम्मिलित हैं,

2. केन्द्र से प्राप्त ऋण,

3. ऋण व अग्रिम को वसूली,

4. लघु बचते, भविष्य निधि आदि,

5. अन्तर्राज्यीय समायोजना,

6. काण्टिजेन्सी फण्ड,

7. रिजर्व फण्ड,

8. जमा तथा अग्निम,

9. उचंत तथा विविध,

10. काण्टिजेन्सी फण्ड से समायोजन,

11. अन्य।

I. राज्य सरकारों की आय की मुख्य प्रवृत्तियाँ (MAIN TRENDS OF STATE GOVERNMENT REVENUE)

राज्य सरकारों के आय की प्रवृत्तियों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते है-

1. गैर कर राजस्व (Non-Tax Receipts)—गैर कर राजस्व 1951-52 में ₹ 726 करोड़ थे, जो‌2000-01 में बढ़कर ₹ 68,243 करोड़ हो गये, परन्तु कुल राजस्व में उनका हिस्सा 31% से घटकर 28% रह गया है। इस प्रवृत्ति का मुख्य कारण सार्वजनिक उपक्रमों का खराब निष्पादन। दर्शकों के दौरान, राज्यों के राजस्व में वृद्धि हो रही है। इसके कारण हैं-नये करों को लागू करना, विशेषकर वस्तुओं पर, करों की दरों में वृद्धि, केन्द्र सरकार के करों का अधिक भाग प्राप्त करना, और केन्द्र सरकार से सामान्य एवं विशेष अनुदानों आदि के रूप में अधिक प्राप्ति।

1951-52 में राज्यों का चालू रजस्व केवल ₹ 396 करोड़ था, परन्तु यह बढ़कर 2006-07 में ₹5,20,150 करोड़ हो गया है।

2. व्यक्तिगत आयकर और केन्द्रीय उत्पादन शुल्क में केन्द्र से मिलने वाला अंशदान-राज्यों के कर-राजस्व का एक भाग केन्द्र द्वारा लगाए एवं एकत्र किए गए करों से प्राप्त होता है जिनके राजस्व को राज्यों के साथ सहभाजित किया जाता है। ये कर हैं वैयक्तिक आयकर और केन्द्रीय उत्पाद शुल्क। 1951-52 में, राज्यों को केन्द्र से 53 करोड़ रुपचे अर्थात् कुल कर-राजस्व का 19 प्रतिशत प्राप्त हुए परन्तु 2006-07 में यह बढ़कर 1,09,120 करोड़ रुपये अर्थात् केन्द्र के कुल कर-राजस्व का 30 प्रतिशत हो गया।

3. बिक्री कर प्रथम स्थान (Primary Place to Sales Tax)-1951-52 में बिक्री कर ने राज्यों को सबसे अधिक राजस्व उपलब्ध कराया। उसके बाद क्रमश: स्थान है राज्यीय उत्पाद शुल्कों एवं भू-राजस्व का। अब भी, बिक्री कर राज्यों की आय का सबसे बड़ा स्रोत है-2006-07 में लगभग 1,60,930 करोड़ रुपये।

4. गैर कर राजस्व (Non-Tax Receipts) कर राजस्व के अतिरिक्त, राज्यों के आय के दो और स्त्रोत हैं-कर भिन्न राजस्व में प्रशासनिक सेवाओं से प्राप्त आय, राज्य द्वारा चलाए जा रहे उद्यमों के लाभ और केन्द्र से प्राप्त अनुदान शामिल हैं। 1952-2007 में चाहे राज्यों का कर-भिन्न राजस्व 90 करोड़ रुपये से बढ़कर 55,340 करोड़ रुपये हो गया, केन्द्र से अनुदान इसी अवधि के दौरान 30 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,00,190 करोड़ रुपये हो गए।

5. प्रतिगामी करों में वृद्धि (Increase in Regressive Taxes)—पिछले वर्षों में अप्रत्यक्ष करों (Indirect Taxes) जैसे बिक्री कर, मनोरंजन कर, स्टाम्प रजिस्ट्रेशन (Registration) तथा राज्य उत्पादन करों में काफी वृद्धि हुई हैं। इन करों का अमीरों की अपेक्षा गरीब लोगों पर ज्यादा भार पड़ता है। इसके फलस्वरूप राज्य वित्त में अवरोही कर ज्यादा हो गये हैं अर्थात् गरीबों को इनका भाग अधिक उताना पड़ता है।

6. विविधता (Diversification)- स्वतन्त्रता के बाद राज्य सरकारों के करों में काफी विविधता आ गई है अर्थात् पहले की अपेक्षा राज्य सरकारों ने कई नये कर लगाये हैं, जैसे मनोरंजन कर, मोटर गाड़ियों पर कर, बिजली कर आदि। इसके फलस्वरूप राज्य सरकारों की आय में काफी वृद्धि हुई है।

7. अन्य विशेषताएँ (Other Characteristics)-(i) प्रतिवर्ष केन्द्रीय सरकार से राज्यों को वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर काफी बड़ी मात्रा में सहायक अनुदान प्राप्त होता है जिसकी सहायता से प्रादेशिक सरकारें योजना कार्यक्रमों को पूरा करती हैं।

(ii) विगत वर्षों में कृषि आय-कर का महत्त्व कम होता जा रहा है और इस कर में राज्यों को कोई विशेष आय प्राप्त नहीं होती।

(iii) केन्द्रीय करों में राज्यों का हिस्सा निरन्तर बढ़ता जा रहा है। केन्द्र से राज्यों को साधनों का हस्तान्तरण भारत में संघीय अर्थव्यवस्था को मुख्य विशेषता है।

राज्य वित्त की त्रुटियाँ (SHORTCOMINGS OF STATE FINANCE)

राज्य वित्त की त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं-

1. अनुदार वित्तीय नीति-राज्य सरकार की वित्तीय नीति अनुदार एवं दकियानूसी है। वे आय के साधनों में वृद्धि करने की अपेक्षा व्यच में कमी को अधिक अच्छा समझती है। उदाहरण के लिए वनों का विकास करके राज्य सरकारें अपनी आय में पर्याप्त वृद्धि कर सकती हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश अधिकांश राज्यों ने ऐसा करने का प्रयत्न ही नहीं किया है।

2. अपर्याप्त एवं बेलोचदार साधन-राज्य सरकारों की बढ़ती हुए वित्तीय आवश्यकताओं को देखते हुए उनकी आय के वर्तमान साधन न केवल अपर्याप्त ही हैं, बल्कि स्थिर एवं बेलाचदार भी हैं। उदाहरण के लिए मालगुजारी एवं स्टाम्प शुल्कों से राज्य सरकारों को होने वाली आय लगभग स्थिर ही है। इसी प्रकार सरकारों की उत्पादन करों से होने वाली आय निरन्तर घट रही है।

3. घाटे का बजट (Deficit Financing)—राज्य सरकारों के अधिकतर बजट घाटे के बजट होते जा रहे हैं। 1979-80 में ₹ 441 करोड़ का घाटा था। 1985-86 में घाटा बढ़कर ₹ 945 करोड़ का हो गया, परन्तु 2006-07 में यह बढ़कर ₹3,950 करोड़ हो गया।

4. आय की वृद्धि दर में कमी (Fall in the Growth Rate of Revenue)-राज्यों की आय की वृद्धि दर निरन्तर कम होती जा रही है। 1975-76 में कुल आय की वृद्धि दर 23 प्रतिशत थी। 1976-77 में यह कन होकर 13 प्रतिशत तथा 2008-09 में 7% रह गई है।

5. व्यय का असन्तोषजनक विवरण राज्य सरकारों के व्यय का विवरण भी असन्तोषजनक है। राज्य सरकारों की आय का मुख्य भाग राजस्व की प्रत्यक्ष माँगों एवं सुरक्षा सेवाओं द्वारा हड़प लिया जाता है। सामाजिक एवं विकासात्मक सेवाओं के लिए बहुत कम बचा रहता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों का व्यय गरीबों की अपेक्षा अमीरों को अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।

6. विकास एवं गैर-विकास व्यय (Development and Non-Development Expenditure)–विगत कुछ वर्षों तक विकास एवं गैर-विकास व्यय दोनों ही कुल व्यय के 50 प्रतिशत के बराबर रहे, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से विकास-व्यय, गैर विकास व्यय से बढ़ गया। उदाहरणार्थ, 2009-10 में राज्यों का विकास व्यय लगभग 55% था और गैर विकास व्यय केवल 45% था।

7. एकरूपता का अभाव-विभिन्न कर संरचनाओं (Tax structures) में एकरूपता का सर्वथा अभाव है। विभिन्न राज्यों की प्रति व्यक्ति कराधान में भी विभिन्नता पायी जाती है। मुख्यतः यह विभिन्न राज्यों के विकास स्तरों की भिन्नता के कारण ही है। उदाहरण के लिए प्रति व्यक्ति कराधान महाराष्ट्र में सबसे अधिक तथा उड़ीसा में सबसे कम है

8. कराधान में समानता का अभाव-राज्यीय कराधान का भार समुदाय के विभिन्न वर्गों पर समानता के आधार पर वितरित नहीं किया गया है अर्थात् राज्यीय कराधान का मुख्य भार धनिकों की अपेक्षा निर्धनों पर अधिक पड़ता है। मालगुजारी सिंचाई कर, बिक्री कर एवं स्टाम्प शुल्क का मुख्य भार निर्धनों पर ही अधिक पड़ता है।

राज्य सरकारों द्वारा आय बढ़ाने सम्बन्धी सुझाव (SUGGESTIONS TOR AUGMENTING REVENUE OF STATE GOVERNMENTS)

राज्य सरकारों द्वारा आय बढ़ाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. नवीन स्तर-राज्य सरकारों की आय में वृद्धि करने के लिए समुचित नये कर लगाना गैर कर साधनों का विकास तथा कर प्रशासन में आवश्यक सुधार किया जाना चाहिए।

2. कर सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करना-राज्य सरकारों को अपने कुछ विशेष करों की त्रुटियों को यथासम्भव दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए मालगुजारी में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने चाहिए। विशेषकर गैर आर्थिक जोतों के स्वामियों को मालगुजारो से मुक्त कर देना चाहिए इसके साथ हो बिक्री कर में आवश्यक विवेकीकरण करने की आवश्यकता है।

3. बिक्री कर की दरों में वृद्धि-एक सुझाव यह भी दिया जाता है कि बिक्री कर को अधिक गहन तथा व्यापक करने का प्रयास किया जाना चाहिए। विशेष रूप से विलासिता की वस्तुओं पर कर की दरों में वृद्धि करके राजस्व को बढ़ाया जा सकता है।

4. राजकीय उपक्रमों की कुशलता में वृद्धि करना-राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अपने-अपने क्षेत्र के सरकारी उपक्रमों की प्रबन्ध-व्यवस्था में सुधार लायें जिससे कि उनकी उत्पादकता बढ़ सके। विशाल पूँजीगत विनियोग वाले ये उपक्रम प्रायः हानि पर चलते रहते हैं जोकि एक तरफ राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय है तो दूसरी तरफ राज्य सरकारों के वित्तीय प्रसाधनों में कमी लाते हैं।

5. ग्रामीण ऋण पत्र जारी करना-ग्रामीण क्षेत्रों से अतिरिक्त स्रोत जुटाने की दृष्टि से राज्य सरकारें ग्रामीण ऋण पत्र जारी कर सकती हैं। इस प्रकार जो धा इकट्ठा होगा उससे राज्यों के विकास कार्यक्रमों को पूरा करने में काफी हद तक सहायता मिल सकती है।

6. करों में विविधीकरण-राज्य सरकारों को अपनो आय के लिए केवल बिक्री कर तथा मालगुजारी आदि थोड़े से करों पर ही निर्भर न रहकर विभिन्न प्रकार के कर लगाने चाहिए और निवेश को बढ़ाना चाहिए।

7. कृषि आय पर आरोही कर एवं धनी वर्गों पर ऊँचे कर-राज्यीय वित्त के अवरोहीपन को दूर कर कृषि आय पर आरोही कर तथा इसके साथ ही साथ धनी वर्गों द्वारा प्रचुका की जाने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं पर राज्य सरकार को ऊँचे कर लगाने चाहिए।

8. समुचित समन्वय-राज्यीय एवं स्थानीय वित्त में समुचित समन्वय किया जाना चाहिए, ताकि प्रशासन की दोनों इकाइयौं मिल-जुल कर लोगों को आवश्यक सामाजिक सेवाएँ प्रदान कर सकें।

9. कृषि जोत कर-डॉ. के. एन. राज समिति ने सिफारिश की थी कि राज्यों के स्रोत विस्तृत करने के लिए कृषि जोत कर लगाया जाना चाहिए। समिति के मतानुसार इस कर से सभी राज्यों को लगभग 200 करोड़ रुपये की वार्षिक आय प्राप्त हो सकती है।

10. खुशहाली कर तथा सिंचित क्षेत्र कर-जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों का पूर्ण विकास हो गया है, उन क्षेत्रों में बढ़ी हुई कृषि उत्पादकता तथा खुशहाली के आधार पर कर लगाने का सुझाव दिया जा सकता है। यह कर न्याय संगत होने के साथ साथ राज्यों के पूँजीगत व्ययों को | पूरा करने में सहायक सिद्ध होगा। 'निजलिंगप्पा समिति' ने भी इस कर का सुझाव रखा था।

सारणी : राज्य सरकार एवं केन्द्रशासित राज्य

Revenue Receipts of States and Union Territories with Legislature (Contd.)

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