नियोजन के प्रकार (TYPES OF PLANNING)

नियोजन के प्रकार (TYPES OF PLANNING)

विभिन्न अर्थव्यवस्थाएँ अपनी आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि के अनुरूप आर्थिक नियोजन के विभिन्न स्वरूपों को अपनाने का प्रयास करती हैं। यही कारण है कि प्रचलन में नियोजन के कई स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक नियोजन के कुछ प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित

I. केन्द्रित एवं विकेन्द्रित नियोजन (Centralized and Decentralized Planning)

II. सांकेतिक नियोजन (Indicative Planning)

III. क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक नियोजन (Regional Planning)

IV. प्रजातान्त्रिक नियोजन (Democratic Planning)

V. सूक्ष्मस्तरीय नियोजन (Microlevel Planning)

I. केन्द्रित एवं विकेन्द्रित नियोजन (Centralized and Decentralized Planning) योजना के निर्माण के आधार पर नियोजन को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

1. केन्द्रित नियोजन (Centralized Planning)—यह उस नियोजन विधि को कहते हैं जिसके अनुसार योजना का निर्माण, संचालन तथा नियन्त्रण एक केन्द्रीय योजना अधिकारी द्वारा होता है। केन्द्रीय योजना अधिकारी ही सरी योजना के लिये उत्तरदायी होता है। इस प्रकार के नियोजन को 'ऊपर से किया गया नियोजन' (Planning from Above) भी कहा जाता है।

केन्द्रित नियोजन की प्रमुख विशेषतायें संक्षेप में निम्नलिखित हैं-

(i) केन्द्रीय नियोजन के अन्तर्गत नियोजन की कार्यप्रणाली से सम्बन्धित सभी प्रकार के निर्णय केन्द्रीय सत्ता द्वारा लिये जाते हैं।

(ii) सम्पूर्ण शक्ति केन्द्र में निहित होती है तथा निम्नस्तरीय बिन्दुओं पर केवल संचालन एवं देख रेख का कार्य होता है, नियन्त्रण एवं निराकरण के अधिकार उनमें समाहित नहीं होते हैं।

(iii) केन्द्रीय बोजना अधिकारी द्वारा निर्धारित अधारभूत नीतियों के आधार पर क्षेत्रीय तथा स्थानीय योजनाओं का निर्माण किया जाता है।

केन्द्रित नियोजन का प्रमुख दोष यह है कि इसमें तानाशाही प्रवृत्ति के उभरने का डर सदैव बना रहता है। केन्द्रित नियोजन विशेषकर समाजवादी अर्थव्यवस्था में दृष्टिगोचर होता है क्योंकि इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधन पर राज्य का स्वामित्व एवं नियन्त्रण होता है। अतः ऐसी दशा में यह आवश्यक हो जात है कि निर्णय लेने का सम्पूर्ण अधिकार केन्द्र के पास हो।

2. विकेन्द्रित नियोजन (Decentralized Planning)- इसमें बनाई जाने वाली योजनाओं का निर्माण स्थानीय, क्षेत्रीय और व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा बनाई गई योजनाओं को सम्बन्धित करके किया जाता है। इसे 'नीचे से ऊपर किया गया नियोजन' (Plumning from Below) भी कहते हैं।

संक्षेप में विकेन्द्रित नियोजन में कुछ मुख्य निर्णय ही सरकार द्वारा लिये जाते हैं, शेष निर्णयों, विशेष रूप से सामान्य समस्याओं पर जनसहयोग लिया जाता है।

अर्थशास्त्री प्रो. डाब ने विकेन्द्रित नियोजन को नियोजन को एक शुद्ध स्वरूप नहीं माना है। उनका कहना है कि केन्द्रित एवं विकेन्द्रित दोनों शब्दों में प्रारम्भ में ही विरोधाभास रहा है। फिर भी आज दोनों ही नियोजन के समुचित उदाहरण देखने में आते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि न तो विशुद्ध केन्द्रित नियोजन उचित हे और न ही विशुद्ध विकेन्द्रित नियोजन ही उपयुक्त कहा जा सकता है।

II. सांकेतिक नियोजन (Indicative Planning)

अर्थ (Meaning! सांकेतिक नियोजन फ़्राँस की मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनी एक विशिष्टता है। सांकेतिक नियोजन अन्य मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में प्रचलित नियोजन से काफी भिन्न है। जैसा कि हम जानते हैं कि मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र एक साथ कार्यरत रहते हैं और निजी क्षेत्र पर कई प्रकार के नियन्त्रण, जैसे- लाइसेन्स, कोटा, उत्पादन का निर्धारण, कीमत में निर्धारण आदि होते हैं, ताकि यह क्षेत्र भी सार्वजनिक क्षेत्र की भाँत सरकार के लक्ष्यों और प्राथमिकताओं के अनुरूप‌कार्य कर सकें। इस प्रकार निजी क्षेत्र को भी सरकार के आदेशानुसार ही कार्य करना पड़ता है परन्तु सांकेतिक नियोजन में सरकार कोई आदेश नहीं देती है बल्कि संकेत मात्र करती है कि निजी क्षेत्र किन दिशाओं में योजना को कार्यान्वित करने में योगदान दे सकता है।

विशेषताएँ (Characteristics)

सांकेतिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय योजना में उत्पादन और निवेश लक्ष्य, सार्वजनिक एवं निजी दोनों क्षेत्रों के लिए निर्धारित किये जाते हैं।

2. राष्ट्रीय योजना का आधार आर्थिक तालिका होती है जिसका उपभोग, बचत, निवेश, विदेशी व्यापार के आँकड़ों से निर्माण किया जाता है। यह तालिका अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र की आगतों और निर्गतों को दर्शाती है।

3. योजना की रूपरेखा तैयार करते हुए योजना को अन्तिम रूप देने के लिए योजना आयोग अनेक समितियों, जिन्हें आधुनिकीकरण समितियाँ कहते हैं, में निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों के साथ योजना पर विचार-विमर्श करती है।

4. आधुनिक समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-

(i) समस्तरीय (Horizontal) समितियाँ-ये अर्थव्यवस्था के विभिन्न सन्तुलनों का विवेचन करती हैं। उदाहरण के लिए, वित्तीय एवं भौतिक अनुमानों में सन्तुलन, बन्चत एवं विनियोग में सन्तुलन, सरकार की आय व व्यय में सन्तुलन आदि।

(ii) ऊर्ध्वस्तरीय (Vertical) समितियाँ-ये समितियाँ अर्थव्यवस्था को विभिन्न क्षेत्रों की क्रियाओं का विश्लेषण करके अन्तिम रूप देती हैं। ये क्षेत्र हैं-शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कल्याण, कृषि, विनिर्माण, परिवहन, विद्युत आदि।

5. सांकेतिक नियोजन में निजी क्षेत्र, आर्थिक नियोजन में साझेदार बन जाते हैं और योजना के लक्ष्यों को पूरा करने में सहायता करते हैं, जबकि सरकार निजी क्षेत्र को अनुदानों, कों, कर छूटों आदि से प्रोत्साहित करती है।

6. सांकेतिक नियोजन में निजी क्षेत्र को योजना के लक्ष्यों तथा प्राथमिकताओं की पूर्ति के लिए कोई आदेश नहीं दिये जाते और न ही उस पर कड़ा नियन्त्रण होता है।

7. निजी क्षेत्र पर सरकारी नियन्त्रण नहीं होता, फिर भी इससे अपेक्षित है कि वह योजना को सफल बनाने में लक्ष्यों को पूरा करेगा।

8. सरकार निजी क्षेत्र को हर प्रकार की सुविधाएँ ! । करती है परन्तु कोई आदेश नहीं देती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सांकेतिक नियोजन में सरकार आदेश जारी न करके निजी साहस को आर्थिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ तथा प्रलोभन देकर नियोजन के लक्ष्यों तथा प्राथमिकताओं की पूर्ति हेतु प्रोत्साहन देती है।

संक्षेप में, सांकेतिक नियोजन बाजार और नियोजित अर्थव्यवस्था के बीच मध्यम मार्ग है।

व्यवहार में सांकेतिक नियोजन-सांकेतिक नियोजन का फ्रांस में प्रयोग 1947-50 की मोनेल योजना (Monnel Plan) से किया जा रहा है। फ्राँस की नियोजन प्रणाली में, सार्वजनिक क्षेत्रों में आधारीय क्षेत्र शामिल हैं; जैसे-कोयला, इस्पात, ईंधन, सीमेण्ट, विद्युत, परिवहन, रासायनिक खाद, पर्यटन, फार्म, मशीनरो आदि। इन क्षेत्रों में उत्पादन तथा विनियोग लक्ष्यों की पूर्ति आदेशात्मक होती है। इसके अतिरिक्त, कुछ मूल क्रियाएँ होती हैं जो आधारीय क्षेत्रों के संचालन के लिए आवश्यक समझी जाती हैं इसलिए वे सीधे राज्य के अधीन होती हैं। ये शेत्र हैं-(1) वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुसन्धान, जिसमें अणु-शक्ति शामिल है, का विकास, (2) कृषि पदार्थों का मार्केट संगठन, (3) दीर्घकालीन प्रोग्रामिंग तथा युक्तिकरण (Rationalisation) द्वारा लागतों को कम करना; (4) पुरानी फर्मो का पुनः परिवर्तन तथा विस्तापित मानव शक्ति का धारण, (5) औद्योगिक कम्पनियों का विशिष्टीकरण तथा पुनः वर्गीकरण। अर्थव्यवस्था के बाकी के क्षेत्रों में ऊपर वर्णित क्षेत्रों में भी जहाँ निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ कार्य करता है, आयोजन सांकेतिक है।

जापान में इस नियोजन का मुख्य कार्य उन उद्योगों तथा क्षेत्रों की पहचान (Indentification) करनी थी जिनले भविष्य में विकास के अवसर हैं। राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियों का प्रयोग ऐसे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए किया गया जिनका विकास किया जाता है तथा ऐसे उद्योगों को हतोत्साहित करने के लिए किया था जिनका कोई भविष्य नहीं है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में भी सांकेतिक नियोजन के इसी रूप को स्वीकारा गया है। योजना में अनिवार्य सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक व्यापक ब्ल्यूप्रिन्ट (Blueprint) तैयार किया गया है जिसमें उन दिशाओं का संकेत होगा जिनमें अर्थव्यवस्था तथा अन्य उपक्षेत्र (Sub- sectors) आगे बढ़ेंगे। इसमें उन क्षेत्रों का स्पष्ट उल्लेख होगा जिन्हें विकास करना है। इन क्षेत्रों को गम्भीर बाधाओं से बचाने के पहले से ही कदम उठाने होंगे। वास्तव में, भारत में निजी क्षेत्र के लिए तो प्रारम्भ से ही संकेतात्मक सांकेतिक नियोजन की विधि को अपनाया जा रहा है परन्तु नई आर्थिक नीति से पहले के सांकेतिक नियोजन तथा इसके बाद के सांकेतिक नियोजन में मुख्य अन्तर यह है कि उस समय सांकेतिक नियोजन को सरकार अपनी राजकोषीय नीति, मौद्रिक, नीति, लाइसेन्स प्रणाली, कीमत नियन्त्रण आदि द्वारा कुछ सीमा तक नियन्त्रित करती थी परन्तु अब संकेतात्मक नियोजन को सरकारी नियन्त्रणों से मुक्त कर दिया गया है। अब ये अपने निर्णय लेने में लगभग पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं। श्री प्रणव मुखर्जी के शब्दों में, "नियोजन की अत्यधिक केन्द्रीकृत प्रणाली से अब हम सांकेतिक योजना प्रणाली की ओर अग्रसर हो रहे हैं। लक्ष्यों की प्राथमिकता स्पष्ट रूप से निर्धारित करके बाधाएँ कम से कम करने का प्रयास किया जायेगा, ताकि विकास की ऊंची दर प्राप्त की जा सके। यदि अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र अपने लक्ष्यों की स्पष्ट रूपरेखा बना ले, वह उन्हें प्राप्त करने के लिए अपने आप को उसी तरह तैयार कर सकता है। सांकेतिक नियोजन के माध्यम से सरकार की नीति में किसी भी परिवर्तन से समस्त अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में स्पष्ट रूप से जानने का अवसर प्राप्त होगा।"

सांकेतिक नियोजन के लाभ (Advantages of Indicative Planning)

सांकेतिक नियोजन के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

1. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं लोचशीलता (Individual Freedom and Flexibility)- सांकेतिक नियोजन में चुनाव और कार्यकरण की पर्याप्त व्यक्तिगत स्वतन्त्रता होती है। वस्तुतः यह नियोजन स्वतन्त्रता एवं निजी क्षेत्र व सरकारी क्षेत्र के बीच परस्पर समझौते को व्यक्त करता है जिसमें स्वतन्त्र बाजार और नियोजित अर्थव्यवस्था दोनों के गुण पाये जागे हैं।

2.निर्णयों में सरलता (Simplicity Decisions)- इस नियोजन में फर्म को अपनी माँग आदि का ज्ञान बिना कीमत यन्त्र के ही | जाता है। अत: वह विनियोग व उत्पादन के उचित निर्णय सरलता से ले सकती है।

3. आर्थिक स्थिरता (Economic Stability)- सांकेतिक नियोजन में तेज व मन्दी की स्थिति उत्पन्न होने की सम्भावना अत्यन्त कम होती है क्योंकि इस नियोजन में भविष्य सम्बन्धी माँग का ज्ञान होता है। अत: बिनियोग अधिक व कम नहीं होते हैं।

4. ऊँची आर्थिक विकास दर (Irigh Economic Growth Rate)- सांकेतिक नियोजन में उत्पादन बाधाओं को दूर करके ऊँची आर्थिक विकास की दर को प्राप्त करना सम्भव होता है।

सीमाएँ । Limitations)—सांकेतिक नियोजन की प्रमुख सोमाएँ निम्नलिखित हैं

(i) सरकार द्वारा दी गयं प्रेरणाएँ ऊपादकों तथा उपभोक्ताओं के लिए पर्याप्त नहीं होती।

(ii) इस नियोजन को निजी क्षेत्र लागू करता है, इसलिए माँग तथा पूर्ति के असन्तुलन को समस्या बनी रहती है।

(iii) फ्राँस का अनुभव बताता है कि जब विकास कार्यक्रम उनकी लाभ प्रत्याशाओं के साथ मेल नहीं खाते तो फर्मे अपनी चाल ठीक ढंग से नहीं चलती हैं। अवसर एकाधिकारात्मक संगठन सरकार द्वारा निर्धारित आय नीति की परवाह नहीं करते तथा अपनी शक्ति को निजी लाभ के लिए प्रयोग करते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि फ्राँस में सांकेतिक नियोजन का कार्यकारण स्वतन्त्र बाजार तथा नियोजित अर्थव्यवस्थाओं के बीच स्वर्णिम मध्य मार्ग (Golden Mean) होने के बारे में संशय उत्पन्न करता है।

III. क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक नियोजन (Regional Planning)

अर्थ (Meaning)-अर्थव्यवस्था के किसी क्षेत्र विशेष या स्थान विशेष के लिए किया गया नियोजन क्षेत्रीय नियोजन कहलाता है। वास्तव में, यह नियोजन का विकेन्द्रीकरण है। यह राष्ट्रीय नियोजन का ही अभिन्न अंग होता है।

क्षेत्रीय नियोजन को निम्न दो अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है-

1. राष्ट्रीय नियोजन के अर्थ में-प्रथम अर्थ में क्षेत्रीय नियोजन राष्ट्रीय नियोजन का अंग माना जाता है और इसका निर्माण राष्ट्रीय नियोजन ढाँचे के अन्तर्गत ही किया जाता है लेकिन प्रान्तों व क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुरूप उनका स्वरूप दूसरे राज्यों व प्रान्तों से अलग रखा जाता है। भारत में इसी प्रकार का नियोजन पाया जाता है। यहाँ राज्यों की अलग-अलग योजनाएँ होती हैं जो उन्हें संचालित करते हैं लेकिन ये सभी योजनाएं पंचवर्षीय योजनाओं का ही अंग होती हैं।

इस क्षेत्रीय योजना का लक्ष्य (i) प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान संसाधनों के समुचित प्रयोग की व्यवस्था करना; (ii) प्रत्येक क्षेत्र के निवासियों द्वारा उपलब्ध संसाधनों का प्रभावी प्रयोग करना तथा (iii) प्रत्येक क्षेत्र के जीवन स्तर और सांस्कृतिक स्तर में महत्वपूर्ण वृद्धि करना होता हैं इन सभी लक्ष्यों की प्राप्ति राष्ट्रीय योजना की सीमाओं और नीतियों के अनुरूप की जाती है। वस्तुतः क्षेत्रीय नियोजन को परिकल्पना का आशय स्थान विषयक नियोजन (Spatial Planning) से है।

2. क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए-अविकसित क्षेत्र विशेष को आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नियोजन किया जाता है तो उसे क्षेत्रीय नियोजन कहते हैं। इस दृष्टि से किया गया क्षेत्रीय नियोजन, पूर्णतया स्वतन्त्र नियोजन होता है और यह आवश्यक नहीं कि वह किसी राष्ट्रीय नियोजन का एक अंग हो। उदाहरणार्थ, अमेरिका में टेनेसी घाटी योजना (Tennesse Valley Project) टेनेसी क्षेत्र के विकास के लिए की गयी एक स्वतन्त्र योजना है।

"वस्तुतः क्षेत्रीय नियोजन प्रक्रिया और राष्ट्रीय नियोजन प्रक्रिया में कोई अन्तर्विरोध नहीं है क्योंकि इसका निर्माण और कार्यान्वयन राष्ट्रीय नियोजन की पृष्ठभूमि में ही प्रत्येक क्षेत्र की आवश्यकताओं और संसाधनों की उपलब्धि को आधार बनाकर किया जाता है।' इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ज्वीग ने क्षेत्रीय नियोजन की परिभाषा दी है। इस परिभाषा के अनुसार, "इस प्रकार का नियोजन राष्ट्रीय योजना के ढाँचे के अन्तर्गत ही किसी क्षेत्र विशेष और वहाँ के निवासियों की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपनाया है। "क्षेत्रीय नियोजन के सन्दर्भ में इसी प्रकार के विचार प्रो. टिन्बरजन ने भी व्यक्त किये हैं। टिन्बरजन के अनुसार, “क्षेत्रीय नियोजन से आशय विभिन्न क्षेत्रों में विभक्त किसी राष्ट्र के लिए एक संगत योजना का निर्माण करने से है।"

क्षेत्रीय नियोजन की विशेषताएँ (Characteristics of Regional Planning)

1. स्वतन्त्र अस्तित्व (Independent Identify) क्षेत्रीय नियोजन का 'स्वतन्त्र अस्तित्व' एक अमान्य शर्त है।

2. स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य (Independent Workingक्षेत्रीय योजनाएँ यद्यपि स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं तथापि वे राष्ट्रीय नियोजन का एक अटूट अंग हैं।

3. समन्वित आधार (Integrated Base) योजनाओं के निर्माण, संचालन व कार्यान्वयन सम्बन्धी नीति एकीकृत व समन्वित आधार पर तैयार की जाती है।

4. समानता का सिद्धान्त (Principle of Equality) विभिन्न क्षेत्रीय योजनाओं के साधनों का आवण्टन करते समय सामान्यतया 'समानता के सिद्धान्त' का पालन किया जाता है।

क्षेत्रीय नियोजन का महत्व (Importance of Regional Planning)

क्षेत्रीय नियोजन की आवश्यकता प्रायः क्षेत्र' की दृष्टि से बड़े देश कहलाने वाले राष्ट्रों के लिए होती है। यह सामान्य अनुभव की बात है कि इस प्रकार के देशों में क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक असमानताएँ, रीति-रिवाज, प्राकृतिक साधनों को उपलब्धता तथा सामाजिक वातावरण आदि में पूर्णतया विभिन्नता होती है जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर तैयारी सभी क्षेत्रों के अनुरूप की जा सकती है।

संक्षेप में, क्षेत्रीय नियोजन का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पाट हो जायेगा-

1. तीव्र आर्थिक विकास (Rapid Economic Developrnent)—अर्थव्यवस्था के तीव्र आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि सभी क्षेत्रों का विकास हो। यदि कुछ क्षेत्र विकसित किये जाते हैं और अन्य अविकसित रह जाते हैं तो क्षेत्र की प्रगति पूर्ण रूप से नहीं होगी क्योंकि "राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रगति विभिन्न क्षेत्रों द्वारा उपलब्ध वृद्धि की दर में प्रकट होगी और आगे क्षेत्रों में साधनों का पहले से आंधक विकास समस्त देश को गति दर त्वरित करने में योगदान देगा।"

2. लागत कम करना (Reduction of Costs) उद्योगों के विशिष्ट क्षेत्रीकरण से प्रति इकाई उत्पादन व्यय कम हो सकता है। यदि क्षेत्रीय नियोजन में उस क्षेत्र विशेष की विशेषताओं से काम किया जायेगा तो स्वाभाविक है कि लागत कम पड़ेगी और वस्तुएँ कम मूल्य पर अच्छी किस्म की उत्पादित की जा सकेंगी।

3. सन्तुलित विकास (Balanced Development)—अर्थव्यवस्था के सन्तुलित विकास के लिए सभी क्षेत्रों का विकसित होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर पिछड़े क्षेत्र विकसित क्षेत्रों की विकास की गति को मन्द कर देंगे क्योंकि निम्न आय स्तर रह जाने से विकसित क्षेत्रों की वस्तुओं एवं सेवाओं के पिछड़े क्षेत्रों की माँग पर्याप्त नहीं होती।

4. साधनों का समुचित विकास (Properr Development of ReSTIITices) क्षेत्रीय नियोजन द्वारा साधनों का समुचित विकास होता है क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र का विकास वहाँ उपलब्ध संसाधनों के आधार पर ही किया जाता है। उदाहरण के लिए, जिस क्षेत्र में खनिज संसाधनों; जैसे-लोहा, कोयला आदि अधिक होते हैं. वहाँ इस्पात और थर्मल शक्ति के कारखाने लगाकर उस क्षेत्र का विकास किया जाता है। इसी प्रकार जो क्षेत्र कृषि-प्रधान होते हैं, वहाँ कृषि तथा उससे सम्बन्धित उद्योग स्थापित किये जाते हैं। डॉ. बालकृष्ण के शब्दों में, "क्षेत्रीय विकास का उद्देश्य यह होना चाहिए कि उपलब्ध साधनों के उपयोग में अधिकतम कुशलता प्राप्त की जाए।"

5. राष्ट्रीय समस्याओं के ठीक से समाधान हेतु (Proper Solution of National Problems)—कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ समस्याओं का समाधान राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हो

जाता है, फिर भी कुछ क्षेत्र विशेष में वे समस्याएँ बनी रहती हैं। उदाहरणस्वरूप- बेकारी की समस्या। हो सकता है कि पूरे देश के लिए यह समस्या न हो, पर किसी क्षेत्र विशेष में हो। ऐसी स्थिति में उसके समाधान के लिए आवश्यक होता है कि उस क्षेत्र विशेष में ऐसी योजना चलाया जाए जिसकी विशेष सहायता से बेकारी की समस्या का समाधान हो सके। यह आवश्यक नहीं है कि समस्या सभी क्षेत्रों में समान रूप से हल हो जाय। डॉ. बालकृष्ण ने भी ऐसा ही कहा है।

6. क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण (Regional Decentralisation}—आजकल क्षेत्रीय नियोजन अधिकांशतः आर्थिक विकास और साधनों के क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण के दृष्टिकोण से भी अपनाया जाने लगा है।

7. आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए. (For Success of Economic Planning) आजकल क्षेत्रीय नियोजन पर इसलिए अधिक जोर दिया जा रहा है कि इसे आर्थिक नियोजन को अधिक सफल और अधिक योग्य बनाने में सहायक समझा जाने लगा है। इसमें क्षेत्रीय साधनों का अधिकतम उपयुक्त प्रयोग हो सकता है

8. नगरीय नियोजन के लिए (For Urban Planning)- आधुनिक युग में विकास के साथ नगरीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। इसका मुख्य कारण बड़े-बड़े नगरों में उद्योग स्थापित होना और उनका केन्द्र-बिन्दु बनना है जिससे वे नये उद्योग, पूँजी, श्रम आदि को आकर्षित करते हैं। बाद में ये औद्योगिक केन्द्र सामाजिक बुराइयों के केन्द्र भी बन जाते हैं, जैसे-दुषित वातावरण, आवास, परिवहन, जल, विद्युत आदि की समस्याएँ। इन सबका समाधान क्षेत्रीय नियोजन है जिससे विकेन्द्रीकरण भी होता है और उसके समस्त लाभ प्राप्त होते हैं

9. राजनीतिक स्थिरता (Political Stability)- क्षेत्रीय नियोजन, अर्थव्यवस्था में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के दृष्टिकोण से भी आवश्यक है। कारण यह है कि जो क्षेत्र अविकसित होते हैं, उनमें आय-स्तर निम्न होते हैं और जनसाधारण की आर्थिक स्थिति दयनीय होती है। फलत: इस प्रकार के क्षेत्रों में साम्यवादी विचारधारा बहुत शीघ्र पनपती है और लोगों में विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है। यह राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देतो है जिससे राष्ट्रीय एकता में बाधा पड़ती है।

10. देश की सुरक्षा (Defence of Country)- देश की सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी क्षेत्रीय नियोजन आवश्यक है। यदि देश में सभी उद्योग कुछ विकसित क्षेत्रों में ही केन्द्रित हों तो उनको शत्रु द्वारा हवाई हमलों से नष्ट करने की सम्भावना बहुत अधिक होती है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि क्षेत्रीय नियोजन द्वारा देश के सभी क्षेत्रों को समान रूप से विकसित किया जाये।

11. क्रय-शक्ति (आय) में वृद्धि |Increase in Purchasing Power (Income)] क्षेत्रीय नियोजन द्वारा पूरे देश के निवासियों को कार्य उपलब्ध कराया जाता है जिससे सभी का क्रय-शक्ति में समान रूप से वृद्धि सम्भव होती है। क्षेत्रीय नियोजन द्वारा क्षेत्रीय विषमताएँ उत्पन्न नहीं होती हैं जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए भी खतरा पैदा कर सकती हैं। आर. बालकृष्ण के अनुसार, "यदि देश में औद्योगिक विकास दुतगति से एवं सन्तुलित ढंग से करना है तो अधिकतम ध्यान उन प्रदेशों की तरफ दिया जाना चाहिए जो अब तक अविकसित रहे हैं।"

भारत में क्षेत्रीय नियोजन (Regional Planning in India)

भारत एक विशाल देश है जहाँ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभिन्नताएँ विद्यमान हैं। देश के कुछ क्षेत्र कुछ अधिक विकसित हैं तथा कुछ क्षेत्र पिछड़े हुए हैं जिनका तीव्रगति से विकास करना आवश्यक है। फलत; भारत में भी सन्तुलित विकास के लिये क्षेत्रीय नियोजन को अपनाया गया है। भारतीय नियोजन में प्रत्येक प्रान्त की अलग-अलग योजना बनाई जाती है फिर भी इन योजनाओं का मूल स्रोत भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं में निहित है। दूसरे अर्थ में, यह नियोजन राष्ट्रीय स्तर पर न करके किसी अविकसित क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये किया जाता

IV. प्रजातान्त्रिक नियोजन (Democratic Planning)

अर्थ (Meaning)—प्रजातान्त्रिक नियोजन एक तरह से पूँजीवादी तथा समाजबादी नियोजन का सम्मिश्रण होता है। इस प्रकार के नियोजन में समाजवादी नियोजन के उद्देश्यों की पूर्ति प्रजातान्त्रिक विधियों से होती है। इसमें व्यक्ति को स्वतन्त्रता को मान्यता दी जाती है। किन्तु उसका प्रयोग सामाजिक कल्याण के लिये करने का प्रयत्न किया जाता है।

सरल शब्दों में प्रजातान्त्रिक नियोजन वह नियोजन है जो जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के परामर्श (Consent) से बनाया जाता है। इस प्रकार के नियोजन में सरकार को जनता एवं सहयोग प्राप्त होता है। नियोजन की किसी अवस्था में जनता पर राज्य की ओर से किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला जाता है। इसके अन्तर्गत भारत आदि देशों में प्रजातन्त्रात्मक नियोजन ही पाया जाता है।

प्रजातान्त्रिक नियोजन की विशेषताएँ (Features of Democratic Planning)

प्रजातान्त्रिक नियोजन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. परस्पर विचार-विमर्श-इस नियोजन में जनता का ऐच्छिक सहयोग तथा परस्पर विचार-विमर्श का बहुत महत्त्व है। योजना का निर्माण करते समय जनता की राय को ध्यान में रखा जाता है।

2. स्थानीय साधनों का ध्यान केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा जिलों के स्तर पर योजना बनाते समय स्थानीय साधनों को ध्यान में रखा जाता है तथा जनता से विचार-विमर्श कर लिया जाता है।

3. निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों को स्थान- इसमें निजी व सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों को स्थान दिया जाता है, लेकिन निजी क्षेत्र को नियन्त्रित कर दिया जाता है।

4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता-इसमें व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्वतन्त्रता रहती है।

5. समन्वय-व्यक्तिगत हित एवं जनकल्याण में 'समन्वय' स्थापित किया जाता है।

6. विकेन्द्रित समाज-देश में विकेन्द्रित समाज की स्थापना की जाती है। यह कार्य सहकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है।

7.स्वतन्त्र विपणन व्यवस्था-स्तन्त्र विपणन व्यवस्था को उचित स्थान प्रदान किया जाता है व मानव कल्याण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाता है।

8. राष्ट्रीयकरण-आवश्यक व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तथा विदेशी सहायता का महत्व बना रहता है।

9. जन-कल्याण-इसमें जनहित, स्वतन्त्रता एवं जनकल्याण को अधिक महत्व दिया जाता है।

अन्य विशेषताएँ-

(i) केन्द्रीय योजना अधिकारी निजी क्षेत्र को राजकोषीय तथा मौद्रिक उपायों द्वारा राष्ट्रीय हित में अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रित करता है।

(ii) इस योजना में जनता को उचित प्रोत्साहन देकर योजना के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

(iii) प्रजातन्त्रात्मक नियोजन में कीमत संयन्त्र (Price Mechanism) तथा सरकारी निर्णय दोनों का ही महत्व है।

प्रजातान्त्रिक व मिश्रित अर्थव्यवस्था में नियोजन की सीमाएँ Limitations of planning in Democratic and Mixed Economy)

1. मिश्रित अर्थव्यवस्था में नियोजन सफल नहीं हो पाता।

2. 'सुदृढ़ सरकार के अभाव' में निजी उपक्रम अर्थव्यवस्था को कमजोर बना देता है।

3. उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से 'श्रम कार्यक्षमता' में वृद्धि होना आवश्यक नहीं है।

4. नियोजन के लिए उद्योगों का राष्ट्रीयकरण आवश्यक नहीं है।' राष्ट्रीयकरण की तुलना शराब से की जाती हैं जिसमें एक बार राष्ट्रीयकरण होने से श्रमिक बार-बार राष्ट्रीयकरण की ही माँग करते हैं।

भारत, विश्व में प्रथम देश है जिसने प्रजातान्त्रिक राज्य में पूर्ण नियोजन प्रारम्भ किया है। विश्व के नियोजन के इतिहास में यह नया अध्याय प्रारम्भ हुआ।

V. सूक्ष्मस्तरीय नियोजन (Microlevel Planning)

'माइक्रो' शब्द ग्रीक भाषा के 'मिक्रोस' (Mikros) शब्द से बना है जिसका अर्थ छोटा (Small) होता है। इस प्रकार माइक्रो छोटी इकाइयों से सम्बन्धित है। सुक्ष्मस्तरीय नियोजन का अर्थ अर्थव्यवस्था के छोटे छोटे क्षेत्रों का विकास करने से है। इसमें क्षेत्रों प्रदेशों के वैयक्तिक अथवा विशिष्ट इकाइयों, स्थानों एवं क्षेत्रों का विकास किया जाता है। सूक्ष्मस्तरीय नियोजन विशिष्ट स्थानों, भू-भाग, ग्राम इकाई का विकास करता है।

यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश योजनाएँ विशेषज्ञों द्वारा बनायी जाती रही हैं जो 'टाप डाउन' का तरीका है वे योजनाएँ स्थानीय तकनीक ज्ञान व संसाधनों को ज्यादातर समावेशित नहीं करती। फलस्वरूप इन्हें आशानुरूप सफलता नहीं मिलती है। इसके अन्तर्गत समाज के सभी वर्गों को लाभ प्राप्त नहीं होता क्योंकि योजना की रूपरेखा ही इस प्रकार की होती है "The first will get first and the last will get or not" it is always uncertain” अत: सूक्ष्म नियोजन में 'The last will get first' के सिद्धान्त को अपनाया जाता है जिसमें आम लोगों के अनुभवों, स्थानीय ज्ञान एवं संसाधनों को ध्यान में रखा जाता है। इस प्रकार 'सूक्ष्म नियोजन' न केवल स्थानीय तथ्यों व संसाधनों पर आधारित होता है बल्कि उसमें स्थानीय लोगों, समुदायों को प्रत्येक को भागीदारी का मौका मिलता है। इस प्रकार, "ग्रामीण सहभागिता एवं सूक्ष्म नियोजन योजना की सफलता एवं स्थिरता के लिए सहायक सिद्ध हो रही है।"

डॉ. के. एन. राज का इस सम्बन्ध में कहना है कि "नियोजन के इस स्वरूप से देश में पिछले कुछ समय से काफी असन्तोष बढ़ा है क्योंकि इससे सामान्य व्यक्ति' के कल्याण में कोई विशेष वृद्धि नहीं हो सकी, ग्रामीण क्षेत्र आज भी पूर्व की तरह अछूते पड़े हैं इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि देश में 'सूक्ष्म स्तरीय नियोजन' की प्रणाली को स्वीकार किया जाये तथा विभिन्न राज्यों में स्थित जिलों को पूरे अधिकार दिये जायें ताकि वे स्थानीय दशाओं एवं समस्याओं को देखते हुए अधिक सक्रिय कदम उठा सकें।" महाराष्ट्र राज्य की आर्थिक विकास परिषद् (Economical Development Council)ने भी इस विचार का समर्थन किया है।

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