JPSC_Decentralized_Planning(विकेंद्रीकृत नियोजन)

Decentralized Planning (विकेंद्रीकृत नियोजन)
(अभिप्राय और महत्व, पी.आर.आई.एस. और विकेंद्रीकृत नियोजन, भारत में उठाए गए मुख्य कदम)
विकेन्द्रीकृत नियोजन
इस योजना के अन्तर्गत सरकार, स्थानीय निकाय, व्यक्तिगत उद्यमी आदि मिलकर योजना सम्बन्धी निर्णय लेते हैं। इस योजना में निर्णय निचले स्तर से उच्च तक लिये जाते हैं।
भारत में वर्ष 1993 में 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के द्वारा स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करते हुए विकेन्द्रीकृत नियोजन की दिशा में बढ़ने का प्रयास किया गया है। इसे नीतिगत नियोजन या निर्देशात्मक नियोजन भी कहते हैं। प्रादेशिक तथा विकेन्द्रीकृत नियोजन की आवश्यकता तथा नियोजन प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को पिछले दशकों में पर्याप्त महत्व मिला है। छठी पंचवर्षीय योजना ग्रामीण विकास तथा ग्रामीण नियोजन के पक्ष में अभिनत थी। अतः योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत प्रपत्र में राज्य के नीचे के स्तरों विशेषत: जिला एवं विकास खण्ड की योजनाओं पर अधिक जोर दिया गया था।
"विकास खण्ड स्तर पर नियोजन" पर दातवाला कमेटी एवं पंचायती राज्य संस्था' पर अशोक मेहता कमेटी बनाई गई थी। इनका प्रमुख उद्देश्य छठी पंचवर्षीय योजना द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु निर्देश देना था। विकास के स्तर पर नियोजन के विचार ने फिर जोर पकड़ा क्योंकि योजना आयोग की यह धारणा रही है कि विकास खण्ड नियोजन की प्राथमिक इकाई हैं तथा इसके द्वारा स्थानीय पर्यावरण एवं क्षमता के अनुरूप नियोजन किया जा सकता है।
दातवाला कमेटी के अनुसार निम्नलिखित क्रियाएं विकास खण्ड के स्तर पर नियोजित और कार्यान्वित की जा सकती हैं-
1. कृषि एवं सम्बन्धित क्रियायें
2. गौण सिंचाई
3. मृदा संरक्षण एवं जल-प्रबन्ध
4. पशुपालन एवं मुर्गी पालन
5. मत्स्यन
6. वानिकी
7. कृषि उत्पादों का प्रक्रमण
8. कृषि उत्पादन के साधनों की पूर्ति
9. कुटीर एवं लघु उद्योग
10. स्थानीय सुविधा आधार
11. सार्वजनिक सुविधाएं
(क) सार्वजनिक सुविधाएं, (ख) स्वास्थ्य तथा पोषण, (ग) शिक्षा, (घ) आवास, (ङ) सफाई, (च) स्थानीय परिवहन, (छ) जनकल्याण कार्यक्रम
12. स्थानीय युवकों को प्रशिक्षण तथा स्थानीय जनसंख्या के कौशल में वृद्धि
विकास खण्ड के स्तर पर नियोजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस स्तर पर नियोजन को कोई संस्था नहीं है। विकास खण्ड अधिकारी योजनाओं के ऊपर निर्देशानुसार कार्यान्वित करने के लिए उत्तरदायी हैं। लघुस्तर पर नियोजन के लिए आवश्यक है कि इसके लिए उपयुक्त इकाइयां बनाई जायें (चाहे वह गांवों का एक समूह ही क्यों न हो)। इन समूहों में से कुछ विकास केन्द्रों का चयन करके उनका विकास करना आवश्यक है।
पंचायती राज संस्थाएं और विकेन्द्रीकृत नियोजन
आर्थिक नियोजन केन्द्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था (समाजवादी तथा साम्यवादी) का एक तत्व है। नियोजित अर्थव्यवस्था (Planned Economy) के पक्ष में निर्णय लेते समय भारत के समक्ष दो चुनौतियां थीं
(i) पहली चुनौती थी कि नियोजन के उद्देश्यों को निर्धारित समय सीमा में साकार किया जाए।
(ii) दूसरी चुनौती नियोजन की प्रक्रिया का प्रजातंत्रीकरण तथा
विकेंद्रीकरण था।
सरकार ने नियोजन की प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण राष्ट्रीय विकास परिषद् को स्थापित करके तथा बहु-स्तरीय नियोजन को प्रोत्साहित करके किया, लेकिन इसके उत्साहवद्धर्क परिणाम नहीं हुए। वर्ष 1980 के दशक के अन्त तक एक प्रत्यक्ष संबंध विकास तथा प्रजातंत्र के बीच स्थापित की गई। यह सिद्ध हो गया कि उपरोक्त चुनौतियां मूलतः सम्पूरक हैं-दूसरी चुनौती (विकेन्द्रीकरण) का समाधान ढूंढे बगैर पहली चुनौती (विकास) का समाधान ढूंढ़ना मुश्किल है। पंचायती राज संस्थानों को सांविधिक दर्जा दिए जाने के बाद नियोजन अब सभी स्तर पर एक संविधानिक प्रक्रिया बन गई है।
यद्यपि केंद्रीय तथा राज्य स्तर नियोजन अभी भी अतिरिक्त संविधानिक निकायों के स्तर पर एक संविधानिक प्रक्रिया बन चुकी है। फिर भी स्थानीय निकायों को अपनी विकास की योजनाएं बनाने से पहले अभी अनेक बाधाओं को पार करना है। विशेषज्ञों के अनुसार ये बाधाएं निम्नलिखित हैं ये
(i) पंचायती राज संस्थानों का वित्तीय दर्जा अभी भी स्थापित नहीं है।
(ii) अभी भी यह स्पष्ट नहीं हैं कि किन करों को पंचायती राज संस्थान लागू कर सकते हैं।
(iii) राज्यों की विधानसभाएं पंचायती राज संस्थानों को यथासमय तथा जरूरी अधिकार सौंपने में व्यवधान उत्पन्न कर रही है।
(iv) सूचना के अधिकार के संबंध में तथा पंचायती राज संस्थानों के कार्यों के संबंध में स्थानीय लोगों को जागरूकता कम है।
(v) कुछ राज्यों में पंचायती राज संस्थानों के चुनाव को पैसा तथा बल प्रभावित करता है।
वर्ष 2002 के मध्य में एक अखिल भारतीय पंचायत अध्यक्ष सम्मेलन नई दिल्ली में हुआ। सम्मेलन के अंत में पंचायत अध्यक्षों ने एक '21 सूत्रीय ज्ञापन-पत्र' सरकार को सौंपा, जो पंचायती राज संस्थानों के वित्तीय दर्जे से संबंधित था। जुलाई 2002 में जिला ग्रामीण विकास एजेन्सी (District Rural Development Agency-DRDA) के वार्षिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की कि पंचायती राज संस्थानों को 'वित्तीय स्वायत्तता' जल्दी ही दी जाएगी। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह घोषणा कि यदि राजनीतिक आम सहमति हुई तो सरकार इसके लिए संवैधानिक संशोधन करेगी। दुर्भाग्यवश एन.डी.ए. गठबंधन अगले आम चुनाव में सत्ता में वापस नहीं आ सकी। यू.पी.ए. सरकार ने प्रजातांत्रिक सहभागिता के मुद्दे पर गंभीरता नहीं दिखायी है। वर्ष 2006 के मध्य में योजना आयोग ने पत्र लिखकर प्रत्येक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को यह सूचित किया कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना प्रारंभ होने से पहले आयोग यह चाहता है कि प्रत्येक राज्यों में पंचायती राज संस्थानों को उनकी कार्यात्मक शक्ति सौंप दिए जाए अन्यथा स्थानीय विकास की निधि उन्हें नहीं प्रदान की जाएगी। यह केन्द्र सरकार की गंभीरता को दर्शाता है।
फरवरी 2015 में नये निकाय, नीति आयोग की स्थापना के उपरांत, देश में विकेन्द्रीकृत नियोजन की रूपरेखा एक तरह से पुनः आरेखित हो गई होती है। इसके अंतर्गत शामिल नये पहलू कुछ निम्न प्रकार हैं-
• विकास का नियोजन एक समेकित तरीके से होगा जिसमें राष्ट्र, राज्यों एवं स्थानीय निकायों तीनों स्तरों की जरूरतों को ध्यान में रखना तय है।
• विकास के इस नये मॉडल में 'टॉप-डाऊन' (Top Down) की जगह पर 'बॉटम-अप' (Bottom-up) अवधारणा का उपयोग तय है।
• जहां तक नियोजित विकास के लिए धन आवंटन का प्रश्न है तो इसके निर्णय प्रक्रिया का कार्य नीति आयोग के 'शासी परिषद्' (Governing Council) द्वारा किया जाएगा जिससे राज्यों को इस प्रक्रिया में भी हिस्सा लेने का अवसर प्राप्त होगा।
• विकास की अवधारणा में 'टीम भारत' को बोध होगा जो कि एक 'राष्ट्रीय एजेंडा' के तहत कार्य करेगा।
• सरकार द्वारा 'सरकारी संघवाद' के आधार पर कार्य करने पर बल दिया गया है जो विकेन्द्रीकृत विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है।
वित्तीय वर्ष 2015-16 से केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के विकास को बढ़ावा देने संबंधी उनकी धन की कमी की तरफ विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है-
(i) राज्यों को अब केन्द्रीय करों से 42 प्रतिशत (32 प्रति प्रतिशत से बढ़ाकर) हिस्सा प्राप्त हो रहा है (सरकार द्वारा 14वें वित्त आयोग की सिफारिश को मान लिया गया)।
(ii) राज्यों को अब केन्द्र से अपने राज्य योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए उदारीकृत तरीके से धन (ऋण एवं अनुदान) प्राप्त हो रहा है।
(iii) वस्तु एवं सेवा कर (GST) को जल्दी लागू करने के पीछे एक उद्देश्य राज्यों के राजस्व आय को स्वतः बढ़ाना है।
(iv) अब राज्य बिना केन्द्र से अनुमति लिए बाजार से ऋण ले सकते हैं (लेकिन इसके लिए पहले केन्द्र की पहल अब भी जरूरी है।) राज्यों को विद्युत वितरक कंपनियों के विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा क्रियान्वित 'उदय' (UDAY) इसी तरह की पहल है।
भारत में मुख्य पहल-3
हमारे संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। इस दिशा में बेहतर प्रयास हेतु अब तक कई कमिटियों का गठन किया जा चुका है, यथा-
• बलवंत राज मेहता समितिः इसका गठन वर्ष 1957 में किया गया था। इस समिति ने त्रि-स्तरीय पंचायती राज ढांचे की सिफारिश की थी, जिसमें ग्राम स्तर पर ग्राम सभा, प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद् के गठन की बातें शामिल थी।
• अशोक मेहता समितिः इसका गठन वर्ष 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा किया गया था। इस समिति ने सुझाव दिया कि जिला परषिद् को मजबूत बनाया जाए तथा ग्राम पंचायत के स्थान पर मंडल पंचायत की स्थान की जाए। अर्थात् इस समिति ने द्वि-स्तरीय व्यवस्था की सिफारिश की, जिसमें निम्नस्तर पर मंडल पंचायत एवं जिला स्तर पर जिला परिषद् की।
• सिंघवी समितिः इस समिति का गठन वर्ष 1986 में किया गय था। इस समिति ने भी त्रि-स्तरीय व्यवस्था की सिफारिश की इस समिति ने प्रथम बार पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने का सुझाव दिया था।
73वां एवं 74वां संवैधानिक संशोधनः
वर्ष 1922 में पारित 73वां और 74वां संवैधानिक संशोधन क्रमश: पंचायती राज और नगरपालिका से संबंधित है। 73वें संसोधन के तहत देश में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्थ अप्रैल, 1993 से लागू है, यद्यपि स्थानीय स्वशासन के परम्परागत ढाँचे को बनाए रखने के लिए नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र तथा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले आदि को बाहर रखा गया है।
74वें संवैधानिक संशोधन के अंतर्गत नगर स्वशासन के तीन स्तर है- नगर पंचायत, नगरपालिका परिषद् और नगर निगम।

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