जनांकिकी आंकड़े व उनके स्त्रोत (DEMOGRAPHIC DATA AND ITS SOURCES)

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किसी भी क्षेत्र के संपूर्ण अध्ययन के लिए संबंधित जनांकिकी आंकड़ों का विशेष योगदान होता है। ये आंकड़े किसी समय विशेष तथा कालखण्ड के होते हैं, जो उस क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दशाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं। किसी समय विशेष के आंकड़े जनगणना द्वारा तथा कालखण्ड के आँकडे जन्म, मृत्यु, विवाह एवं प्रवास पंजीकरण द्वारा प्राप्त होते हैं।

जनांकिकीय आँकड़ों के प्रकार एवं उनके स्त्रोत (Types & Sources of Demographic Data)

जनांकिकीय आँकड़ों को संग्रहित करने के निम्नलिखित स्त्रोत प्रमुख है।

जनगणना (Census) : जनगणना उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिसके अंतर्गत किसी क्षेत्र अथवा देश की जनसंख्या से संबंधित आर्थिक, सामाजिक व जनांकिकीय आँकड़ों का संग्रहण व प्रकाशन किया जाता है। इसके प्रकाशन से उस क्षेत्र अथवा देश की मानव शक्ति, कृषि, उद्योग, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार संबंधी तथ्यों का आँकलन तथा तत्संबंधी नियोजन प्रस्तुत किया जाता है। ईसा के 3000 वर्ष पूर्व बेबीलोनिया, मिस्र तथा चीन में इसका किसी न किसी रूप में प्रयोग होता था, परन्तु विकसित रूप में यह 1870 के बाद दिखाई देने लगा। भारतवर्ष में सर्वप्रथम 1873 में जनगणना का प्रयास किया गया, परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर प्रयुक्त कार्य पद्धति की समरूपता के अभाव में यह प्रयत्न सफल न रहा। इसके बाद फिर से 1881 में जनगणना हुई उसके बाद प्रति दस वर्षों में जनगणना होने लगी है। संयुक्त राज्य संघ के प्रतिवेदन के अनुसार 1944 तक विश्व के लगभग 50 देशों में ही जनगणना का कार्य होता था, परन्तु धीरे-धीरे जनगणना के उद्देश्य की व्यापकता बढ़ने से देशो की संख्या बढ़ती गई। सन् 1961 से विश्व में प्रायः प्रत्येक देश ने इसे व्यापक रूप से अपनाया।

जनगणना की विशेषताएँ (Characterstics of Census)

जनगणना की निम्नलिखित सामान्य विशेषताएँ होती है।

1. यह कार्य देश की सरकार पर आधारित होता है।

2 यह देश की पूरी जनसंख्या के लिये होती है।

3. यह निश्चित समय अंतराल पर नियमित रूप से होती है।

4. इस प्रक्रिया में जानकारी संबंधित व्यक्ति से ही प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की जाती है।

जनगणना की विधियों को निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है -

प्राचीन विधियाँ - इसके अंतर्गत दो विधियों का समावेश किया जाता है।

(i) सत्ता सिद्ध रीति - इस विधि के अंतर्गत जनगणना की तिथि निश्चित कर दी जाती है तथा उस तिथि को जो व्यक्ति जहाँ रहता है वह वहीं का निवासी मान लिया जाता है। चूंकि यह जनगणना एक ही दिन या रात्रि में हो जाती है, इसलिये इसे 'एक रात्रि प्रणाली' के नाम से जाना जाता है। इस रीति में दोष है, जो इस प्रकार-

(a) इस विधि से प्राप्त जनगणना के तथ्यों की सत्यता की पुष्टि नहीं की जा सकती है।

(b) जनगणना की नियत तिथि को यात्रा कर रहे यात्रियों की गणना नहीं हो पाती है।

(ii) विधि सिद्ध रीति - इस रीति के अंतर्गत जनगणना एक ही दिन अथवा रात्रि में नहीं बल्कि कुछ दिनों तक होती रहती है। इसमें किसी स्थायी स्थान पर निवास करने वाले व्यक्ति की गणना की जाती है। यदि कोई व्यक्ति अस्थायी तौर पर माना जाता है, तो उसकी गणना स्थाई रूप से रहने के स्थान पर की जाती है। इसके अंतर्गत एक प्रमुख दोष यह है कि अस्थायी या स्थानांतरणशील जनसंख्या की जनगणना नहीं हो पाती है।

वर्तमान विधियाँ : इसके अंतर्गत निम्न विधियों का समावेश किया जाता है।

(1) अभिलेख विधि - राज्य सरकारों द्वारा रिकार्ड के रजिस्टर रखे जाते हैं, जिसके आधार पर जनसंख्या का अनुमान लगाया जाता है। रिकार्ड रजिस्टर निम्नलिखित हैं -

(a) प्रशासन संबंधी रजिस्टर - इस रजिस्टर में करदाताओं, मालगुजारी देने वालों आदि की सूचियाँ होती है, जिसके आधार पर जनगणना का कार्य किया जाता है।

(b) जन्म मृत्यु संबंधी रजिस्टर - इस प्रकार का सही रजिस्टर बना पाना आज के विश्व में असंभव है। इसके अंतर्गत जन्म मृत्यु, विवाह तथा तलाक आदि की सूचनाएँ अंकित की जाती हैं, जिनके आधार पर जनगणना की जाती हैं।

(c) जनगणना संबंधी अभिलेख - इसके अंतर्गत जन्म मृत्यु के आंकड़ों के साथ आव्रजन आदि के भी आंकड़े भी रखे जाते हैं।

2. गणना विधि - इस विधि के अन्तर्गत प्रगणक घर-घर जाकर गृहस्वामी से उसके परिवार के बारे में जानकारी एकत्रित करता है। इसमें धन व समय का अधिक व्यय होता है। इसके अंतर्गत निम्नांकित विधियाँ अपनाई जाती है

(a) गृहस्वामी विधि - इस विधि के अंतर्गत शिक्षित परिवारों का सर्वेक्षण किया जाता है। सर्वेक्षण हेतु तैयार की गई प्रश्नावली को प्रत्येक परिवार में दिया जाता है, जिसे भरकर परिवार का मुखिया प्रगणक को लौटा देता है।

(b) अनुयाचक विधि - यह विधि निरक्षर परिवारों के लिये प्रयुक्त होती है। इस विधि के अंर्तगत जनगणना कर्मचारी घर-घर जाकर प्रश्नों को पूछ कर जानकारी एकत्रित करता है।

3. निर्देशन विधि - जनगणना की यह विधि विश्व में अधिक प्रचलित है, जिसके अंतर्गत धन व समय की बचत होती है। इस विधि के अंतर्गत निर्देशन पद्धति से कुछ क्षेत्र व परिवारों को चुन लिया जाता है। तत्पश्चात उनका व्यापक स्तर पर सर्वेक्षण किया जाता है। यह विधि गणना की ही विशिष्ट पद्धति है।

पंजीकरण - इस विधि में जनांकिकीय तथ्यों - जन्म-मृत्यु, विवाह, तलाक, वैध्वय, पृथक्करण, पुनर्विवाह आदि के आंकड़ों का पंजीकरण किया जाता है, जिसके माध्यम से बाद में जनगणना के आँकड़े एकत्र करने में सहायता मिलती है।

भारतीय जनगणना (Census of India)

भारतवर्ष में जनगणना का प्रथम प्रयास सन् 1872 में किया गया, परन्तु वह सफल नहीं रहा। सन् 1881 से प्रति 10 वर्ष के अंतराल पर जनगणना की नियमित प्रक्रिया प्रारंभ हुई जो आज तक चल रही है। भारतीय जनगणना की विशेषताओं का अध्ययन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में निम्नांकित रूप में किया जा सकता है।

(1) 1881 से 1931 तक की जनगणना

इस अवधि की जनगणना में निम्न तथ्यों पर विशेष बल दिया गया था।

(i) जनसंख्या का वितरण (घनत्व, ग्रामीण व नगरीय जनसंख्या)

(ii) जनसंख्या का प्रव्रजन (प्रवास)

(iii) व्यवसाय

(iv) जातिगत वितरण

(v) लिंगानुसार जनसंख्या

(vi) शिक्षा एवं धर्म

(vii) सामाजिक दशा।

सन् 1901 तक की गई जनसंख्या में जीविका के साधन, 1901 से 1911 के मध्य उद्योग एवं 1991 से 1921 के मध्य जाति व धर्म के सर्वेक्षण पर अधिक जोर दिया गया। 1921 से 1931 के मध्य जनगणना का स्वरूप अपेक्षाकृत व्यापक रहा, परन्तु उसका ढंग वैज्ञानिक नहीं था। इस समय तक जनगणना कालावधि परिगणक - प्रणाली से ही होती थी।

जनगणना की प्रक्रिया - जनगणना की तिथि दो से तीन वर्ष पूर्व एक अधिनियम पास करके केन्द्र सरकार को जनगणना आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार दिया जाता था। इसी के तहत सरकार को देशवासियों से सूचना प्राप्त करने का भी अधिकार होता था। इसके अंतर्गत उन व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी, जो सूचना देने से इनकार करते थे अथवा गलत सूचना देते थे। जनगणना संगठन का प्रमुख अधिकारी आयुक्त होता था। प्रत्येक प्रांत में प्रान्तीय जनगणना अधीक्षक, जनपद में जिला जनगणना अधिकारी, तहसील में तहसीलदार व नगरीय क्षेत्र मे नगरपालिका के सचिव की नियुक्ति होती है। प्रारंभिक जनगणना प्रारंभ करने के पूर्व मकानों पर नम्बर लगाने का कार्य किया जाता है। मकान का अर्थ चूल्हें से होता था। एक मकान के सदस्य वे माने जाते थे, जिनका भोजन एक साथ पकता था। गणकों द्वारा सारणियाँ भरी जाती थी। जिनके जाँच सुपरवाइजर करते थे। जनगणना की रात्रि को प्रारंभिक गणना पूर्ण कर ली जाती थी। इस रात्रि के ठीक बाद 7.00 बजे प्रगणकों द्वारा सारणियाँ सुपरवाइजर को तथा क्रमशः जनगणना अधिकारी तक पहुँचा दी जाती थी। वह समस्त आंकड़ों से संकलित कर प्रतिवेदन प्रकाशित करता था।

(2) सन् 1941 की जनगणना -

यह जनगणना उस समय हुई जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। इस कारण इस जनगणना के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन निम्नानुसार हुआ। इस परिवर्तन के स्वरूप में दो वर्गों में रखकर अध्ययन किया जा सकता हैं -

(a) जनगणना विधि में परिवर्तन

(i) एक रात्रि जनगणना प्रणाली का अंत - इस जनगणना में एक रात्रि की जाने वाले प्रक्रिया को समाप्त कर 6 दिन की अवधि का प्रावधान किया गया, जिससे जनगणना का कार्य अधिक सरल व विश्वसनीय हो गया।

(ii) पर्ची विधि का प्रयोग - इस जनगणना से पूर्व प्राथमिक रूप से समंक सारणियों में लिखे जाते थे, पुनः उसे पर्चियों पर उतार कर जनगणना का कार्य किया जाता था, परन्तु इसमें सीधे पर्चियों का प्रयोग किया गया, जिससे श्रम व समय की बचत हुई।

(iii) दैव प्रतिदर्श प्रक्रिया की जाँच - प्रगणकों द्वारा प्राप्त पर्चियों के 2 प्रतिशत पर्चियों का दैव-प्रतिदर्श विधि से लेकर यान्त्रिक सारणीयन किया गया तथा उसकी भलीभाँति जाँच की गई, जिससे जनसंख्या समंकों में अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीयता आती गई।

(iv) गृह-सूची में वृद्धि - 1941 ई. की जनगणना के पूर्व की जनगणानाओं में मकानों की संख्या को ही गृह सूची में रखा जाता था।

(v) मुद्रण का केन्द्रीकरण - इस जनगणना में जनगणना प्रतिवेदन का मुद्रण एक स्थान से एक साथ किया गया, जिससे प्रतिवेदन समरूप शीघ्र प्रकाशित हुआ।

(3) सन् 1951 की जनगणना-

यह स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना थी। कश्मीर को छोड़कर समस्त देश के लिए हुए इस जनगणना का महत्व आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से अधिक था। देश के आर्थिक नियोजन को दृष्टिगत करते हुए जनसंख्या के आर्थिक पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया गया। इस जनगणना में प्रगणक द्वारा वर- घर जाकर सूचनायें संग्रहीत की गयीं। संग्रहीत की जाने वाली प्रमुख सूचनायें निम्नांकित थी-

(i) व्यक्ति का नाम तथा परिवार के मुखिया से उसका संबंध

(ii) राष्ट्रीयता, धर्म व वर्ग,

(iii) अविवाहित, विवाहित व विधवा,

(iv) जन्मस्थान, आयु, मातृभाषा, द्वितीय भाषा,

(v) पाकिस्तान से आने वालों के जनपद का नाम, विस्थापितों की संख्या,

(vi) आर्थिक दशा - आत्मनिर्भर, कमाने वाले, न कमाने वाले, आश्रित, आश्रितों की संख्या,

(vi) जीविका के मुख्य साधन,

(viii) साक्षर व शिक्षित,

(ix) बेरोजगारी,

(x) लिंग

इस जनगणना में आर्थिक तथ्यों से संबंधित सूचनाओं के संकलन पर विशेष बल दिया गया। इस जनगणना की निम्नांकित सूचनाएँ ऐसी हैं, जो प्रथम बार संकलित की गई।

(i) व्यक्ति का नाम व परिवार के मुखिया से संबंध,

(ii) विस्थापितों की भी सूचना एकत्र की गई,

(iii) जाति से संबंधित आँकड़े एकत्रित न करके विशेष वर्ग व पिछड़े वर्गों के आंकड़े एकत्रित किये गये।

(iv) तलाक प्राप्त लोगों की भी सूचना एकत्र की गयी।

प्रमुख विशेषतायें एवं परिवर्तन - सन् 1951 की जनगणना स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना होने के कारण महत्वपूर्ण रही है। इसकी निम्नांकित विशेषतायें रही हैं -

(i) इस जनगणना में 'जनगणना अधिनियम' को स्थायी रूप प्रदान किया गया।

(ii) जनगणना आयुक्त के कार्यालय की स्थायी स्थापना।

(iii) इस जनगणना में प्रथम बार घर व परिवार में अन्तर स्पष्ट किया गया।

(iv) इस जनगणना में प्रथम बार 'राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर' तैयार किया गया।

(v) इस जनगणना में प्रथम बार जनसंख्या का वर्गीकरण निर्भरता व रोजगार के आधार पर किया गया।

(4) सन् 1961 ई. की जनगणना -

यह जनगणना स्वतंत्र भारत की दूसरी जनगणना थीं। इस जनगणना के प्रारंभ होने तक हम अपनी दो पंचवर्षीय योजनायें समाप्त कर चुके थे। इन योजनाओं से प्राप्त अनुभवों के आधार पर वांछित समंको की आवश्यकता को ध्यान में रखकर 1961 के जनगणना प्रारंभ की गई। इस जनगणना में जम्मू-कश्मीर व अन्य हिमाच्छादित भाग भी सम्मिलित किये गये। गणना की सुविधा के लिये संपूर्ण देश को ग्रामीण व नगरीय दो भागों में विभक्त कर दिया गया। इस जनगणना में 10 लाख प्रगणकों व निरीक्षकों ने 8.5 करोड़ परिवारों से पूछताछ की और सूचनाएँ एकत्रित की।

इस जनगणना में समस्त सूचनाएँ दो विधियों द्वारा एकत्रित की गई -

(i) व्यक्तिगत पर्ची द्वारा संकलित सूचनाएँ

a. इस पर्ची में 13 प्रश्न थे।

b. उत्तर संकेताक्षरों द्वारा प्राप्त किये गये थे।

c. जनांकिकीय प्रश्नों में नाम, आयु, वैवाहिक स्तर, जन्म स्थान व लिंग आदि से संबंधित प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किये गये।

d, आर्थिक प्रश्नों में - कृषक, कृषि श्रमिक, गृह उद्योग, अन्य कार्य आदि प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किये गये।

e. सामाजिक प्रश्नों में अनुसूचित जाति, शिक्षा एवं मातृभाषा संबंधी प्रश्न पूछे गये।

(ii) परिवार पर्ची से संकलित सूचनायें

a. परिवार एक संस्था के रूप में

b. परिवार के मुखिया का नाम,

c. कृषि, उद्योग, या इन दोनों में संलग्न परिवारों का विस्तृत वर्णन

d. परिवार क्या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है?

सन् 1961 के जनगणना की विशेषताएँ

a. प्रगणकों को प्रशिक्षण दिया गया।

b. कर्मण्य होते हुए भी काम न करने वालों की संख्या ज्ञात की गई।

c. जनसंख्या को कार्यशील व अकार्यशील दो भागों में बाँटा गया।

d. ग्रामीण व नगरीय प्रवजन संबंधी सूचनायें संकलित की गई।

e. केवल वैधानिक गारण्टी के कारण अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आँकड़े एकत्र किये गये।

f. इस जनगणना में प्रथम बार भवन, मकान व परिवार में अन्तर स्पष्ट किया गया।

g. पहली बार इस जनगणना में निम्नांकित प्रपत्रों को उपयोग में लाया गया -

(i) गृह सूची,

(ii) परिवार सूची,

(iii) व्यक्ति प्रगणन अनुसूची।

(5) सन् 1971 की जनगणना -

इस जनगणना के साथ ही सरकारी जनगणना की एक शताब्दी पूर्ण हुई। इसमें मुख्यतः प्रतिदर्श प्रणाली का उपयोग किया गया। इस कार्य में 12.50 लाख कर्मचारी लगाये गये।

सन् 1971 की जनगणना की विशेषताएँ

(i)  प्रगणकों व निरीक्षकों की गणना कार्य का प्रशिक्षण दिया गया।

(ii) लगभग 20 प्रतिशत आँकड़ों के विश्लेषण के लिये प्रथम बार कम्प्यूटरों का प्रयोग किया गया।

(iii) पहली बार इस जनगणना में स्नातक या इससे अधिक शिक्षा प्राप्त लोगों के विषय में अलग से एक कार्ड पर सूचनायें संकलित की गई।

(iv) इस जनगणना में रोजगार संबंध में प्रत्यक्ष प्रश्न पूछे गये।

(v) परिवार नियोजन के संबंध में महिलाओं से दो प्रश्न पूछे गये।

(a) विवाह के समय आयु।

(b) विगत एक वर्ष में किसी बच्चे का जन्म

(vi) प्रत्येक व्यक्ति से उसके मुख्य व गौण कार्य के बारे में प्रश्न पूछे गये।

(vii) इस जनगणना में जनसंख्या का आर्थिक विभाजन इस प्रकार किया गया ।

(i) कार्यशील जनसंख्या - काश्तकार, कृषि मजदूर, पारिवारिक उद्योग या अन्य उद्योग में रत।

(ii) अकार्यशील जनसंख्या - सेवानिवृत्त व्यक्ति, गृहिणी, विद्यार्थी, बीमार, अपंग, भिखारी।

(6) सन् 1981 की जनगणना -

यह जनगणना फरवरी-मार्च 1981 में प्रारंभ हुई। इस कार्य में प्रायः उन्हीं लोगों को सम्मिलित किया गया। जिन्होंने मकान सूची बनाने का कार्य किया था। फलस्वरूप सुगमतापूर्वक सूचनायें एकत्रित की गई। इस जनगणना में नक्शे (MAP) प्रयोग में लाये गये, जिनमें प्रगणक ब्लाक की स्थिति स्पष्ट की गई। इस जनगणना में कुछ विशिष्ट शब्दावली प्रयुक्त हुई है, जिन्हें स्पष्ट कर देना आपेक्षित है।

(i) जनगणना-मकान- यह भवन का ही एक भाग है जिसका प्रवेश द्वार अलग होता है, एक स्वतंत्र इकाई के रूप में माना जाता है।

(ii) भवन - प्रायः एक पूरी इमारत को ही भवन कहते हैं। परन्तु यदि एक इमारत के कई खण्ड अनेक उपयोग में प्रयुक्त होते हैं तो उन्हें एक भवन नहीं माना जायेगा। अर्थात् एक ही छत के नीचे अनेक संस्थाये हैं तो उन्हें पृथक-पृथक माना जायेगा। यदि एक अहाते में एक ही व्यक्ति के प्रयोग की संस्थायें हैं तो एक ही भवन का अंग होती है।

(ii) परिवार - परिवार एक, दो या अनेक व्यक्तियों का समूह होता है जो एक साथ रहता व भोजन करता हो।

इस जनगणना की एक प्रमुख विशेषता यह भी थी कि जनगणना के अतिरिक्त इस वर्ष प्रतिदर्श क्षेत्रीय अध्ययन भी किया गया। इस अध्ययन के दौरान निम्नांकित प्रश्न पूछे गये जो आवास, प्रजननता व बेरोजगारी के बारे में सूचना प्रदायक थे-

(i) जन्म स्थाना

(ii) पूर्व निवास स्थान।

(iii) पूर्व निवास - स्थान छोड़ने के कारण।

(iv) गाँव या शहर में निवास की अवधि।

(v) प्रजननता के बारे में प्रश्न केवल विवाहितों (महिलाओ) से।

(7) सन् 1991 की जनगणना -

सन् 1991 की जनगणना स्वतंत्र भारत की 5वीं ओर देश की 12वीं जनगणना थी। जिसे दो चरणों में संपादित किया गया।

(i) प्रथम चरण -

(a) यह चरण 15 जून, 1990 से 15 जुलाई, 1990 तक चला।

(b) इस चरण में मकानों को नंबर प्रदान करने तथा मकान सूची बनाने का कार्य किया गया।

(c) मकान सूचियों के आधार पर जनगणना हेतु प्रगणक खण्ड बनाये गये, जिनमें से फरवरी-मार्च 1991 के दौरान गणना के लिये एक खण्ड एक प्रगणक को निर्धारित किया गया।

(d) मकानों की गणना के दौरान उन सभी की जानकारी प्राप्त की गई, जहाँ व्यक्ति रहते थे या रहने की संभावना थी।

(ii) द्वितीय चरण

(a) इस जनगणना का द्वितीय चरण 9 फरवरी, 1991 से प्रारंभ होकर 5 मार्च, 1991 तक चला।

(b) इस चरण में गणना अवधि 9 फरवरी, 1991 से 28 फरवरी, 1991 तक निश्चित की गई और संदर्भ काल 1 मार्च, 1991 का सूर्योदय निर्धारित किया गया। अथात एक दिन देश की जो जनसंख्या होगी, उसका पूर्ण विवरण इस जनगणना के आंकड़ों में सम्मिलित होगा।

(c) एक मार्च 1991 के सूर्योदय तक जो भी बच्चे ने जन्म लिया, उसकी भी पर्ची भरकर गणना की गई और उस दिन सूर्योदय तक जिनकी मृत्यु हो गई, उसके नाम की पर्चा रद्द कर दी गयो।

(d) प्रत्येक प्रगणक ने 1 मार्च, 1991 से 5 मार्च, 1991 के मध्य जाँच का कार्य किया।

(e) सन् 1981 की जनगणना की तरह इस जनगणना में भी निम्नांकित पत्रक एवं अनुसूचियाँ प्रयोग की गई हैं।

(i) नजरी नक्शा/खाका, (ii) मकान-सूची, (iii) मकान-सूची-सार, (iv) उद्यम-सूची, (v) उद्यम सूची सार, (vi) व्यक्तिगत पर्ची, (vii) परिवार अनुसूची, (viii) स्नातक एवं स्नातकोत्तर डिग्री धारकों और तकनीकी कर्मियों के लिये सूची।

(10) सन् 2001 की जनगणना -

यह जनगणना देश की 14वीं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की 6वी तथा 21वीं शताब्दी की पहली जनगणना थी। जनगणना के प्रथम चरण का कार्य 9 फरवरी से 28 फरवरी 2011 तक चला। इस अवधि में 20 लाख से भी अधिक प्रशिक्षित प्रमाणकों ने देश भर में 593 जिला, 5564 तहसील/तालुको, 5161 कस्बों, तथा लगभग 6.40 लाख गांवों में जाकर सूचनाओं को एकत्रित किया। 01 मार्च से 05 मार्च 2011 तक की जनगणना के द्वितीय चरण में सुधार संबंधी कार्य किये गए। भारत की जनगणना 2001 में प्रगणकों द्वारा पूछे जाने वाले कुल 23 प्रश्नो के आधार पर देश की भावी नीतियों तथा कार्यक्रमों के चित्रण का प्रयास किया गया।

2001 जनगणना की विशेषताएँ

(i) जनगणना की निर्देश पुस्तिका 18 भाषाओं में मुद्रित थी तथा 23 प्रश्नों की सूची दी गई।

(ii) साधारण व विशेष वर्ग में सूचनाएँ एकत्र की गई। साधारण वर्ग में आने वाली सूचनाएँ - उम्र, साक्षरता का स्तर, परिवार का आकार, सम्पत्ति की मिल्कियत, नगरीकरण, जन्म दर, मृत्यु दर, अनुसूचित जाति व जनजाति, भाषा, धर्म स्थानांतरण, रोजगार आदि है। विशेष वर्ग की सूचनाएँ अर्थव्यवस्था की नई आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर एकत्रित की गई है। इनमें कार्यालय से आवास की दूरी, आने-जाने के लिए वाहन का प्रयोग आदि मुख्य हैं।

(iii) सन् 2001 में पहली बार महिलाओं के कार्यों की विस्तार से विवेचना की गई।

(iv) इस जनगणना में विकलांगों की गणना का प्रावधान किया गया है, जिसमें देखने, बोलने, सुनने, चलने तथा मानसिक रूप से असमर्थ लोगों की जनगणना की गई।

(v) कृषि तथा उद्योगों के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सूचनाएँ एकत्रित की गई।

(vi) इस जनगणना में वेश्याओं को भिखारियों की श्रेणी में रखा गया है जिस पर समाजशास्त्रियों ने खिन्नता व्यक्त की।

(vii) किन्नरों को पुरुषों की श्रेणी में रखा गया।

(viii) भारत का जनगणना अभियान विश्व में विशेष जनगणना अभियान माना जाता है, क्योंकि यहाँ प्रत्येक घर में जाकर प्रगणक प्रत्येक व्यक्ति की गणना करते हैं, जबकि अन्य देशों में केवल नमुनों के आधार पर जनगणना की जाती है।

जनगणना 2001 में विभिन्न जातियों की आर्थिक सामाजिक स्थिति के आकलन के लिये कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गई है, जबकि इन आंकड़ों को सोशल इंजीनियरिंग के लिए विशेष महत्व होता है।

(11) सन् 2011 की जनगणनाः

यह जनगणना देश की 15वों तथा स्वतंत्रता के बाद 7वीं तथा 21वीं शताब्दी की दूसरी जनगणना थी। जनगणना 2011 के प्रथम चरण का कार्य 1 मई 2010 से 15 जून 2010 तक चला। इसका द्वितीय चरण 9 फरवरी 2011 से 5 मार्च 2011 तक चला। फरवरी 2011 में सम्पन्न भारत की 15वीं जनगणना के अंतिम परिणाम देश के महापंजीयक व जनगणना आयुक्त (Registrar General and Census Commissioner) 'सी चन्द्रमौलि' ने देश के गृह सचिव ‘जी. के. पिल्लै' की उपस्थिति में 31 मार्च, 2011 को जारी किए। इस जनगणना में देश की कुल जनसंख्या 1,21,01,93,422 (121.02 करोड़) आकलित की गई। इस प्रकार विगत एक दशक में देश की जनसंख्या में 18.15 करोड़ (17.64 प्रतिशत) की वृद्धि हुई है। इससे पूर्व 1981-91 के दशक में 23.87 प्रतिशत व 1991-2001 के दशक में 21.54 प्रतिशत वृद्धि देश की जनसंख्या में हुई थी। इस प्रकार अंतिम आँकड़ों के अनुसार जनसंख्या वृद्धि की दर में गिरावट इस दशक में दर्ज की गई है। 2011 में देश की कुल जनसंख्या विश्व जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है। वर्तमान अनंतिम आंकड़ों अनुसार 2011 में देश की कुल जनसंख्या में 6 वर्ष से कम उम्र की जनसंख्या का भाग 13.12 प्रतिशत के है। कुल 121.02 करोड़ जनसंख्या में पुरुषों की संख्या 62.37 करोड़ व महिला संख्या 58.65 करोड़ आकलित की गई। इस प्रकार प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 940 है। इससे पूर्व 2001 की जनगणना यह अनुपात 933 स्त्रियों प्रति हजार पुरुष पाया गया था। 2001 की तरह इस बार भी राज्यों में न्यूनतम स्त्री-पुरुष अनुपात (877) हरियाणा में है। 2001 में हरियाणा में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 861 थी, जो राज्यों में न्यूनतम थी। प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की सर्वाधिक संख्या (1084) केरल में ही बरकरार है। बड़े राज्यों में बिहार, गुजरात व जम्मू कश्मीर तीन ऐसे राज्य हैं, जहां लिंगानुपात में गिरावट इस बार दर्ज की गई है।

विभिन्न दशको में भारत में जनसंख्या वृद्धि

भारत में लिंगानुपात

दशक

जनसंख्या में वृद्धि (प्रतिशत)

दशक

लिंगानुपात (प्रति हजार पुरुषों पर महिलाएं)

1901-1911

5.75

1901

972

1911-1921

-0.31

1911

964

1921-1931

11.00

1921

955

1931-1941

14.22

1931

950

1941-1951

13.31

1941

945

1951-1961

21.64

1951

946

1961-1971

24.80

1961

941

1971-1981

24.66

1971

930

1981-1991

23.87

1981

934

1991-2001

21.54

1991

926

2001-2011

17.64 (अनंतिम)

2001

933

 

 

2011

940


देश में सर्वाधिक जनसंख्या वाला प्रदेश उत्तर प्रदेश है। जनगणना 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.95 करोड़ पाई गई है, जो देश की कुल जनसंख्या का 16.49 प्रतिशत है। 11.23 करोड़ (9.29 प्रतिशत) जनसंख्या के साथ महाराष्ट्र का दूसरा तथा 10.38 करोड़ (8 प्रतिशत) जनसंख्या के साथ बिहार का तीसरा स्थान है। चौथा व पाँचवा स्थान क्रमशः पश्चिम बंगाल व आन्ध्र प्रदेश का राज्यों में सबसे कम जनसंख्या (6.07 लाख) इस बार भी सिक्किम में है।

विगत जनगणनाओं से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य

महत्वपूर्ण विवरण

1971

1981

1991

2001

2011

कुल जनसंख्या (करोड़ में)

54.80

68.5

84.4

102.70

121.01

दशक वृद्धि दर (% में)

24.80

25.0

23.7

21.34

17.64

पुरुष-स्त्री अनुपात (प्रति हजार)

930.0

934.0

927.0

933.0

940

ग्रामीण जनसंख्या का %

80.09

76.27

63.80

--

68.84

जन्म दर (प्रति हजार)

39.00

33.0

31.5

26.1

-

मृत्यु दर (प्रति हजार)

17.00

12.5

10.4

8.7

-

जीवन प्रत्याशा (वर्षो में)

46.00

54.00

58.0

64.0

-

साक्षरता (% में)

29.40

36.2

52.21

65.38

74.04

जनसंख्या घनत्व (प्रति वर्ग किमी.)

173.00

216.0

267.0

324.0

382

क्रियाशील जनसंख्या का कुल जनसंख्या से प्रतिशत

32.93

36.77

37.7

39.11

-


जनसंख्या आंकड़ों की आवश्यकता (Need of Population Data)

वर्तमान समय में अन्य सामाजिक विज्ञानों की भांति जनसंख्या भूगोल में मात्रात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति में तीव्रता आयी है जिसके लिए उपयुक्त तथा विश्वसनीय आंकड़ों की उपलब्धि अनिवार्य होती है। एक जनसंख्या भूगोलवेत्ता को जनसंख्या के विविध लक्षणों के सम्यक अध्ययन के लिए कई प्रकार के आंकड़ों की आवश्यकता होती है जिन्हें कई विधियों तथा स्त्रोतों से एकत्रित करना पड़ता है। भौगोलिक अध्ययन किसी स्थान या क्षेत्र से संबंधित होते हैं। अतः अध्ययन क्षेत्र के आकार के अनुसार सर्वप्रथम आंकड़ों की संग्रह की विधि के चुनाव की समस्या सम्मुख आती है। जब भूगोल का विद्यार्थी छोटे पैमाने पर कार्य करता है, क्षेत्र सीमित होने के कारण वह आवश्यक आंकड़ें स्वयं एकत्रित करने में समर्थ हो सकता है। लघु क्षेत्रों के संबंध में व्यापक सूचनाएं सरकारी प्रकाशनों या अभिलेखों से प्रायः नहीं उपलब्ध हो पाती हैं। यही कारण है कि लघुस्तरीय अध्ययनों, जैसे ग्राम, विकास खण्ड, लघु नगर आदि के लिए जनसंख्या आंकड़ों को शोधकर्ता स्वयं अथवा अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर एकत्रित करता है। विस्तृत क्षेत्र से सम्बंधित जनसंख्या आंकड़ों को व्यक्तिगत स्तर पर एकत्रित करना प्रायः सम्भव नहीं हो पाता है। अतः किसी बड़े प्रदेश या देश के लिए जनसंख्या संबंधी आंकड़े विविध प्रकाशनों तथा सरकारी एवं गैर सरकारी अभिलेखों से प्राप्त किये जाते हैं। बृहद स्तरीय अध्ययनों के लिए भूगोल के विद्यार्थी को जिन सूचनाओं की आवश्यकता होती है उसके लिए सामान्यतः राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों और जनसंख्या रिपोर्टों का सहारा लेना अनिवार्य हो जाता है। अतः जनसंख्या भूगोलवेत्ताओं के अध्ययन क्षेत्र की माप, उपलब्ध समय और धन तथा अध्ययन की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए आंकड़ों का संग्रह और उनका प्रयोग करना आवश्यक होता है।

जनसंख्या आंकड़ों के प्रकार (Types of Population Data)

संग्रह प्रक्रिया के अनुसार समस्त जनसंख्या आंकड़ों को मुख्यतः दो श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है

(1) प्राथमिक आंकड़े (Primary data) - वे आंकड़े जो प्रथम बार एकत्रित किये जाते हैं, प्राथमिक आंकड़े कहलाते हैं। इन्हें मौलिक आंकड़ें भी कहा जाता है। ऐसे आंकड़े कच्चेमाल के रूप में होते हैं जिनके प्रयोग से द्वितीयक आंकड़े प्राप्त किया जाते हैं। किसी व्यक्तिगत सर्वेक्षक या संस्था द्वारा प्रत्यक्ष गणना,. मौखिक अन्वेषण, तालिका तथा प्रश्नावली और स्थानीय रिपोर्टों के माध्यम से प्राथमिक आंकड़ों को एकत्रित किया जाता है। किसी क्षेत्र में नियत समय पर गणना द्वारा प्राप्त पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या, बच्चे, युवक -युवतियों तथा वृद्धों की संख्या, साक्षर व्यक्तियों की संख्या, श्रमिकों की संख्या आदि प्राथमिक आंकड़ों के उदाहरण है। इसी प्रकार किसी निश्चित समयावधि में जन्मे शिशुओं की संख्या आदि प्राथमिक आंकड़ों के उदाहरण हैं। इसी प्रकार किसी निश्चित समयावधि में जन्मे शिशुओं, मृत व्यक्तियों, प्रवासियों आदि की संख्याओं से संबंधित आंकड़े भी इसी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं क्योंकि इनका संग्रह पहली बार किया जाता है ओर वे अभी तक सांख्यिकीय प्रक्रिया में सम्मिलित नहीं होते हैं।

(2) द्वितीयक आंकड़े (Secondary data)- द्वितीयक आंकड़े वे होते हैं जो प्राथमिक आंकड़ों पर आधारित होते हैं और सांख्यिकीय व्यवस्था के अंतर्गत कम से कम एक बार अवश्य गुजर चुके हों। ये प्रायः तैयार आंकड़े के रूप में होते हैं। कच्चेमाल के रूप में प्राथमिक आंकड़ों का प्रयोग करके विश्लेषण तथा निर्वाचन के उद्देश्य से विभिन्न सांख्यिकीय विधियों द्वारा द्वितीयक आंकड़े प्राप्त किये जाते है। द्वितीयक आंकड़े सामान्यतः योग, प्रतिशत, अनुपात, सूचकांक आदि के रूप में व्यक्त किये जाते है। जनसंख्या का घनत्व, जन्मदर, मृत्युदर, स्त्री-पुरुष अनुपात, साक्षरता दर, निर्भरता-अनुपात, ग्रामीण-नगरीय अनुपात आदि द्वितीयक आंकड़ों के उदाहरण हैं।

जनसंख्या आंकड़ों के संग्रह की विधियाँ एवं स्त्रोत (Methods and Sources for Collection of Population Data)

प्राथमिक और द्वितीयक आंकड़ों को एकत्रित करने की विधियाँ प्रायः भिन्न-भिन्न होती हैं जिसका कारण यह है कि प्राथमिक आंकड़े के लिए संख्याओं को प्रथम बार एकत्रित किया जाता है। जबकि द्वितीयक आंकड़े के लिए संकलित की गयी सामग्री के प्रयोग द्वारा कार्य का संचालन किया जाता है। आंकड़ों के संग्रह के लिए किसी विधि के चयन पर निम्नलिखित कारकों का प्रभाव होता है-

(1) धन की उपलब्धि- जब अन्वेषक के पास आवश्यक वित्तीय साधन अपर्याप्त होते हैं तब वह कम खर्चीली विधियों का ही प्रयोग करने के लिए बाध्य होता है भले ही उसके परिणाम तथा विश्वसनीयता का स्तर उच्च न हो। इसके विपरीत पर्याप्त धन उपलब्ध होने पर उत्तम तथा व्यय-साध्य विधियों का उपयोग किया जा सकता है।

(2) समय सीमा - कोई भी अनुसंधानकर्ता अपने पास उपलब्ध समय के अनुसार ही आंकडों को एकत्रित करने के किसी विधि का चयन करता है। समय कम होने पर प्रायः द्वितीयक आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है।

(3) शोध की प्रकृति एवं उद्देश्य - शोध कार्य की प्रकृति तथा आंकड़ों को एकत्रित करने के उद्देश्य का भी उल्लेखनीय प्रभाव है। गहन शोध के लिए प्रत्यक्ष व्यक्तिगत विधि उपयुक्त होती है जबकि विस्तृत शोध के लिए तालिका और प्रश्नावली विधि का प्रयोग किया जा सकता है।

(1) प्राथमिक आंकड़ों का संग्रह (Collection of Primary Data)-

प्राथमिक आंकड़ों के संग्रह के लिए जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है, उनमें प्रमुख निम्नलिखित

(I) प्रत्यक्ष व्यक्तिगत सर्वेक्षण (Direct Personal Survey) : इसके अंतर्गत शोधकर्ता को अपने अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न जनसंख्या लक्षणों से संबंधित आंकड़े स्वयं एकत्रित करना होता है। इसके लिए वह क्षेत्र में स्वयं जाता है और वह उन व्यक्तियों के प्रत्यक्ष रूप से मिलता है जिनसे सूचनाएँ एकत्रित करनी होती हैं। यह विधि सामान्यतः लघु क्षेत्रों तथा गहन अनुसंधानों के लिए उपयुक्त होती है।

(2) अनूसूची तथा प्रश्नावली द्वारा सर्वेक्षण (Survey by Schedules and Questionaires)- आंकड़ों को एकत्रित करने की इस विधि के अंतर्गत शोध समस्या से संबधित प्रश्नों की एक सूची तैयार की जाती है और उसे प्रकाशित किया जाता है। इस सूची को संबंधित व्यक्तियों, ज्ञापनों या संस्थाओं को भेजा जाता है और उनसे अनुरोध किया जाता है कि उस सूची को भली प्रकार भरकर अन्वेषक के पास लौटा दें। इस विधि का लाभ यह है कि इससे अपेक्षाकृत कम समय और कम खर्च से ही अधिक विस्तृत क्षेत्र आंकड़ें एकत्रित किये जा सकते हैं इसमें आंकड़ों को शुद्धता का मूल उत्तरदायित्व ज्ञापकों पर होता है।

(3) परोक्ष मौखिक सर्वेक्षण (Indirect Oral Survey): अनुसंधान क्षेत्र अपेक्षाकृत विस्तृत होने अथवा अन्य कारणों से जब प्रत्यक्ष व्यक्तिगत सर्वेक्षण करना कठिन होता है, तब इस विधि का प्रयोग किया जाता है । इसके अंतर्गत अन्वेषण विषय पर जानकारी रखने वाले अन्य व्यक्तियों से वांछित सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है। इस विधि से एकत्रित आंकड़ों की शुद्धता प्रयुक्त व्यक्तियों के ज्ञान, विचार, निष्पक्षता आदि पर निर्भर करती है, अतः ऐसे व्यक्तियों के चुनाव में अत्यंत सतर्कता की आवश्यकता होती है।

(4) स्थानीय रिपोर्टो द्वारा सर्वेक्षण - प्राथमिक आंकड़ों के संग्रह गणनाकारों द्वारा एकत्रित नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें स्थानीय अभिकर्ताओं तथा पत्रकारों के प्राप्त किया जाता है।

(5) नमूना सर्वेक्षण (Sample Survey) - नमूना या प्रतिदर्श सर्वेक्षण में समष्टि में से कुछ चुने हुए सदस्यों के विषय में ही सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं और उनके आधार पर ही संपूर्ण (समष्टि) के लिए निष्कर्ष निकाला जाता है। किसी विस्तृत क्षेत्र के लिए जनसंख्या संबंधी आंकड़ों के संग्रह में इस विधि के प्रयोग से समय और व्यय अपेक्षाकृत बहुत कम लगता है। इस प्रकार एकत्रित आंकड़ों की विश्वसनीयता और उपयोगिता मुख्यतः नमूना या प्रतिदर्श के चुनाव की उपयुक्तता पर ही निर्भर होती है।

(II) द्वितीयक आंकड़ों का संग्रह (Collection of Secondary Data)-

द्वितीयक आंकड़ें वे होते हैं जो किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा पहले ही एकत्रित, संकलित तथा विश्लेषित किये गये होते हैं। अतः सूचना संग्रह के समय उत्पन्न होने वाली समस्याएँ इस प्रकार के आंकड़ों के संग्रह में नहीं उपस्थित होती है। द्वितीयक आकड़े प्रकाशित अथवा अप्रकाशित दोनों प्रकार के हो सकते हैं। ये आंकड़े दूसरे के द्वारा संग्रहित होते हैं। अतः इनके प्रयोग से पहले आंकड़ों के सत्यापन की जांच के साथ ही उनका सम्पादन की भी आवश्यकता होती है।

(1) विश्वसनीयता- आंकड़ों का विश्वसनीय होना आवश्यक होता है। इसके लिए कई प्रकार की जाँच आवश्यक होती है। आंकड़ों की विश्वसनीयता के लिए जिन पक्षों की जाँच की जाती है। इनमें प्रमुख है- (a) संग्रहकर्ता तथा आंकड़ों के स्त्रोत, (b) आंकड़े संग्रह की विधि, (c) आंकड़े संग्रह की अवधि, (d) व्यक्तिनिष्ठता की सम्भावना, तथा (e) संकलन का उद्देश्य आदि।

(2) उपयुक्तता - जिन द्वितीयक आंकड़ों का प्रयोग किया जाये वे वांछित शोध कार्य के लिए उपयुक्त होने चाहिए जो आंकड़ों एक प्रकार के शोधकार्य में उपयोगी होते हैं वे अन्य प्रकार के शोध कार्य के लिए पूर्णतः अनुपयुक्त हो सकते हैं।

(3) पर्याप्तता - आंकड़ों के विश्वसनीय और उपयुक्त होने के साथ ही शोध कार्य के लिए उनका पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना भी आवश्यक हैं। जिस क्षेत्र का अध्ययन करना हो, आंकड़े उसी से संबंधित होने चाहिए। यदि आंकड़ें ऐसे क्षेत्र से संबंधित हो जिमका विस्तार वर्तमान अध्ययन क्षेत्र में बहुत कम हो अथवा बहुत अधिक हो, तो ऐसे आंकड़े का प्रयोग बिना आवश्यक संशोधन के नहीं किया जा सकता है।

द्वितीयक जनसंख्या आंकड़ों के स्त्रोत (Sources of Secondary Population Data)

जनसंख्या संबंधी द्वितीयक आंकड़े प्रकाशित तथा अप्रकाशित दोनों प्रकार के स्त्रोतों से प्राप्त किये जा सकते हैं। अप्रकाशित आंकड़े सामान्यतः शोध प्रबंधों, शोधकर्ताओं, प्रोजेक्ट रिपोर्टों, कार्यालय अभिलेखों, व्यापार संघों के अभिलेखों आदि से प्राप्त किये जाते हैं। इन आंकड़ों से कई प्रकार की व्यक्तिगत जांचकी जाती है किन्तु इन जाँच परिणामों को सामान्यतः प्रकाशित नहीं किया जाता है। अतः इस प्रकार के आंकड़े प्रायः संस्था के सदस्यों द्वारा ही प्रयोग किये जाते हैं। जनसंख्या भूगोलवेत्ता जनसंख्या के विविध लक्षणों से संबंधित आंकड़े जिन स्त्रोतों से प्राप्त करता हैं उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं :-

(A) जनगणना रिपोर्ट (Census Report) :-

किसी नियत समय पर किसी देश या प्रदेश की समस्त जनसंख्या की गिनती को जनगणना कहते हैं। 'क्लार्क' के शब्दों में, "किसी समय विशेष पर किसी निश्चित क्षेत्र में बसे हुए समस्त व्यक्तियों से संबंधित जनांकिकीय आंकड़ों के संग्रह, संकलन तथा प्रकाशन संबंधी संपूर्ण प्रक्रिया को जनगणना कहते हैं।" प्राचीन काल में भी यूनान, मिश्र, रोम, बेबीलोन, चीन, भारत आदि सभ्य देशों में कर को एकत्रित करने अथवा सेना में भर्ती के लिए जनसंख्या संबंधी आंकड़ों का संग्रह एवं संकलन किया जाता था। तत्कालीन जनगणना का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना होता था कि देश में ऐसे कितने व्यक्ति हैं जिनसे कर लिया जा सकता है अथवा ऐसे कितने युवक हैं जिन्हें सेना में सम्मिलित किया जा सकता था। आधुनिक प्रकार की जनगणना का आरंभ 17वीं शताब्दी से माना जाता है। 17वीं शताब्दी में इटली के छोटे-छोटे राज्यों के जनगणना कराई थी किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर सम्भवतः प्रथम जनगणना 18वीं शताब्दी में स्वीडन (1749) द्वारा कराई गयी थी। संयुक्त राज्य अमेरिका में नियमित जनगणना का आरंभ सन् 1790 में हुआ। ब्रिटेन और फ्रांस में नियमित जनगणना सन । 801 से आरंभ हुई। इन जनगणनाओं में वर्तमान समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जनगणना अनुसूची तथा प्रश्नावली का निर्माण किया जाने लगा। जिनमे जनसंख्या के विविध आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक लक्षणों को सम्मिलित किया गया। सन् 1860 तक विश्व के छोटे बड़े लगभग 35 देशों में नियमित जनगणना आरंभ हो गयी थी।

भारत की प्रथम जनगणना सन् 1872 में सम्पन्न हुई थी। भारत में जनगणना कराने की स्वीकृति तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1865 में प्रदान की थी। इसके लिए 'नमूना जनगणना अनुसूची तथा प्रश्नावली' बनायी गयी थी जिसके आधार पर सन् 1865 से 1872 के मध्य जनगणना की गयी थी किन्तु देश के अनेक दुर्गम भाग इसमें सम्मिलित नहीं थे। इसमे न तो कोई एक निर्धारित समय बिन्दु था और न ही नियत समय बिन्दु पर जनगणना सम्पन्न हुई थी। यही कारण है कि 1881 जनगणना को प्रथम पूर्ण जनगणना माना जाता है। भारत की अंतिम जनगणना 2011 में हुई है। इस प्रकार भारत में अब तक कुल 15 जनगणनाएँ हो चुकी हैं। भारतीय जनगणना में विविध प्रकार के जनसंख्या लक्षणों से संबंधित आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं जिनमें कुल जनसंख्या, आयु, लिंग, ग्रामीण, और नगरीय, प्रमुख व्यवसाय साक्षरता, प्रवास अनुसूचित जनजाति, धर्म आदि के अनुसार जनसंख्या संबंधी आंकड़े प्रमुख हैं।

जनगणना की विशेषताएँ : आधुनिक जनगणना की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं -

(1) जनगणना एक राष्ट्रीय मूल्यांकन है जिसमें देश के सभी व्यक्तियों की गणना के साथ ही विविध प्रकार के जनांकिकीय, आर्थिक एवं सामाजिक लक्षणों के संबंध में विस्तृत सूचनाओं का संग्रह किया जाता है।

(2) जनगणना राष्ट्रीय सरकारों द्वारा कराई जाती है क्योंकि इसके लिए व्यापक संगठन और आर्थिक साधनों की आवश्यकता होती है जिसे 'प्रायः केन्द्रीय सरकारें ही वहन करने में समर्थ होती है। राज्य सरकारे सहायक रूप में कार्य करती है।

(3) जनगणना एक निर्धारित समय अंतराल पर नियमित रूप से होती है। अधिकांश देशों में 10 वर्ष के समय अंतराल पर जनगणनाएँ सम्पन्न होती हैं।

(4) जनगणना स्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र तक ही सीमित होती है।

(5) संपूर्ण देश में जनगणना एक निश्चित समय बिन्दु पर एक साथ करायी जाती है। इसके अभाव में आंकड़े पूर्ण तुलनीय नहीं होते हैं।

(6) जनगणना के आंकड़ों को एकत्रित कर लेने के पश्चात उनका सम्पादन, विश्लेषण और प्रकाशन किया जाता है।

जनगणना की सीमाएँ एवं समस्याएँ- जनगणना की प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं

(1) विकसित देशों के पास सफल जनगणना के लिए पर्याप्त कोष, उच्च तकनीक तथा अन्य साधन हैं। इनके प्रयोग से जनसंख्या संबंधी सभी वांछित सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं जिनकी विश्वसनीयता और शुद्धता उच्च होती है।

(2) अविकसित एवं विकासशील देशों में ही नहीं बल्कि कई विकसित देशों में भी लोग व्यक्तिगत तथा पारिवारिक सूचनाओं को छिपा लेते हैं और प्रगणकों के सम्मुख प्रकट नहीं करते हैं।

(3) विश्व के सभी देशों में जनगणना का समय और अन्तराल एक समान न होने के कारण आंकड़े पूर्ण तुलनीय नहीं रह जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के अनुसार विश्व के सभी देशों को जनगणना से समाप्त होने वाले वर्ष जैसे 1950,1960,1970,1980,1990 अथवा उसके आस- पास करानी चाहिए जिससे आंकड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुलनीय हो सकें। जापान तथा कोरिया जैसे कुछ देशो में 5 वर्ष के अंतराल पर जनगणना की परम्परा है।

(4) जिन देशों में नियमित जनगणनाएँ सम्पन्न होती हैं उन सभी देशों में समान प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित नहीं की जाती है जिससे अंतर्राष्ट्रीय तुलनीयता कम हो जाती है। अब अधिकांश देश संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित मानक का प्रयोग करने लगे हैं जिससे जनसंख्या संबंधी आंकड़े अधिक तुलनीय हो जाते है।

(5) विश्व के कई देश ऐसे भी है जहाँ जनगणना का प्रचलन आज भी नहीं है। वियतनाम, लाओस, भूटान, अफगानिस्तान, इथोपिया (इथोपोइया), यमन आदि इसी प्रकार के देश हैं।

(6) निवास स्थान अथवा उपस्थिति के आधार पर जनगणना दो प्रकार की होती है- (a) वास्तविक प्रकार की जनगणना और, (b) विधिक जनगणना। प्रथम प्रकार को जनगणना के अंतर्गत एक निश्चित दिन अथवा रात्रि को संपूर्ण देश में जनगणना एक साथ होती है और जो व्यक्ति जहां उपस्थित होता है. उसको गणना वहीं कर ली जाती है भले हो उसका निवास अन्यत्र हो। इसके विपरीत द्वितीय प्रकार की जनगणना में व्यक्ति को गणना उसके निवास स्थल पर की जाती है भले ही गणना के समय वह अपने निवास स्थल पर उपस्थित न हो। ज्ञातव्य है कि विश्व के कुछ देशों में वास्तविक जनगणना की जाती है तो कुछ देशों में विधिक या कानूनी जनगणना। अनेक ऐसे भी देश है जहाँ दोनों प्रकार को गणना को व्यवस्था है।

(B) पंजीयन अभिलेख (Registration Records)

जनसंख्या भूगोल का विद्यार्थी जनगणना के अतिरिक्त पंजीयन संस्थाओं से भी द्वितीयक आंकड़े प्राप्त करता है। चीन, जापान, कोरिया आदि पूर्वी एशियाई देशों में प्राचीन काल में भी पंजीकरण की प्रथा थी। मध्यकाल में कुछ यूरोपीय देशों जैसे फ्रांस और स्वीडन में जन्म, मृत्यु और विवाह का पंजीकरण किया जाता था किन्तु उसका क्षेत्र लघु तथा पंजीयन अनियमित होता था। इस प्रकार प्राचीन और मध्यकाल में भी विश्व के अनेक देशों में मृत्यु, विवाह, धर्म परिवर्तन आदि के संबंध में कुछ सूचनाएँ अंकित की जाती थी किन्तु जन्म, मृत्यु और विवाह के व्यापक नागरिक पंजीयन की परम्परा का आरंभ 19वीं और 20वीं शताब्दी में ही आरंभ हो पाया। आधुनिक पंजीयन का आरंभ इग्लैंड और वेल्स में 1836 में आरंभ हुआ। वहाँ पर सन् 1874 से जन्मों का पंजीकरण करना अनिवार्य कर दिया गया। पंजीयन के अंतर्गत विभिन्न जनांकिकीय घटनाओं यथा, जन्म, मृत्यु, विवाह, तलाक आदि को परिवार के सदस्यों द्वारा पंजीयन संस्था में अंकित कराया जाता है।

भारत में पंजीयन रजिस्टर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय मालगुजारी कार्यवाहक या सचिव (पंचायत) के पास और नगरीय क्षेत्रों में नगर पालिका के कार्यालय में होता है। जनसंख्या भूगोलवेत्ता को जन्म और मृत्यु संबंधी आंकड़े निम्न पंजीयन संस्थाओं के अभिलेखों से प्राप्त होते है -

(1) जन्म-मृत्यु पंजीयन (Vital Registration) - इसके अंतर्गत जन्म, मृत्यु, विवाह, तलाक, गोद लेना, प्रवास आदि जनांकिकी घटनाओं को पंजीयन कार्यालय में अंकित कराना होता है इस कार्य का उत्तरदायित्व प्रायः परिवार के मुखिया या सदस्य का होता है।

(2) जनसंख्या रजिस्टर (Population Register) - कुछ देशों में जनसंख्या रजिस्टर रखने की परम्परा है जिसमें प्रत्येक देशवासी का नाम अंकित होता है। इसमें प्रवासी लोगों का भी अभिलेख रहता है। इन रजिस्टरों से देश की वर्तमान जनसंख्या, प्रवास तथा जीवन संबंधी अन्य आंकड़े भी प्राप्त होते हैं। भारत सर्वप्रथम जन्म-मृत्यु के पंजीयन का शुभारंभ सन् 1844 में मद्रास (चेन्नई) में हुआ किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति तक जीवन संबंधी आंकड़ों को एकत्रित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर का कोई संगठन नहीं था। देश में प्रथम बार सन 1949 में महापंजीयक के पद पर नियुक्ति की गयी और सन 1968 में पंजीयन संबंधी एक अधिनियम बनाया गया। इसके द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर जन्म-मृत्यु और विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य बनाया गया जिसमें पंजीकरण न कराये जाने पर दण्ड की भी व्यवस्था है।

(C) राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (National Sample Survey)

जनगणना सामान्यतः एक नियत समय अन्तराल (प्रायः 10 वर्ष) पर होती है। अतः जनगणना के मध्यवर्ती वर्षों के लिए सूचनाएँ एकत्रित करने के उद्देश्य से नमूना सर्वेक्षण कराते हैं। भारत सहित बहुत से देशों में 'राष्ट्रीय सर्वेक्षण' नामक संस्थायें स्थापित की गयी हैं जो प्रतिमाह, छपाही अथवा वार्षिक रूप से जनसंख्या संबंधी आंकड़ों का संग्रह करती हैं और उन्हें प्रकाशित भी करती हैं।

(D) अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन (International Publications)

संयुक्त राष्ट्र संघ सहित कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठन संपूर्ण विश्व तथा विभिन्न देशों के जनसंख्या संबंधी आंकड़ों को समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं के रूप में प्रकाशित करते है। ये संगठन विभिन्न देशों से जनांकिकीय आंकड़ों को एकत्रित करते हैं और उन्हें सूचीबद्ध करके प्रकाशित करते हैं। विश्व के विभिन्न देश स्वयं द्वारा एकत्रित आंकड़ों को संयुक्त राष्ट्र संघ को उसके मानक के अनुसार व्यवस्थित करके प्रेषित करते हैं। विभिन्न देशों के संकलित आंकड़ों को विश्व स्तर पर तुलनात्मक बनाने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ उनमें आवश्यक परिमार्जन भी करता है।

(i) जनांकिकीय वार्षिक पत्रिका (Denographic Year Book) - इस पत्रिका का प्रकाशन सन् 1948 से निरंतर प्रतिवर्ष हो रहा इसमें संपूर्ण विश्व और पृथक देशों के जनसंख्या आंकड़े प्रकाशित होते हैं। यह पत्रिका जनसंख्या भूगोल के विद्यार्थियों तथा लेखकों के लिए अत्यंत उपयोगी है। इसमें जनसंख्या आकार, क्षेत्रफल घनत्व, वृद्धि, जन्मदर, मृत्युदर, विवाह संख्या एवं आदि का प्रकाशन होता है।

(ii) सांख्यिकीय वार्षिक पत्रिका (Statistical Year Book) - संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित इस पत्रिका में विश्व के विभिन्न देशों में राष्ट्रीय आय, ऊर्जा उपभोग, खाद्यान्न उत्पादन, शैक्षिक सुविधा, श्रम शक्ति, चिकित्सा सुविधा आदि से संबधित आंकड़े प्रकाशित होते हैं।

(iii) अन्य प्रकाशन (Other Publications) - संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या संबंधी अन्य प्रकाशनों में प्रमुख हैं - (a) जनसंख्या और जन्म-मरण सांख्यिकी, (b) महामारी तथा जन्म-मरण अभिलेख, (c) सांख्यिकी की मासिक पत्रिका, (d) जनसंख्या सांख्यिकी सार-संग्रह आदि। इन प्रकाशनों में विश्व के विभिन्न देशों के जन स्वास्थ्य, जन्मदर, मृत्युदर आदि विविध जनांकिकीय आंकड़े प्रकाशित होते हैं जो जनसंख्या भूगोलवेत्ता के लिए बहुत उपयोगी होते हैं।

जनसंख्या आंकड़ों के प्रयोग संबंधी समस्याएँ (Problems related to Utilization of Poupulation Data)

विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किये गये जनसंख्या संबंधी आंकड़ों के प्रयोग में भूगोलवेत्ता के सामने निम्न प्रकार की व्यावाहारिक समस्यायें आती हैं-

1. भौगोलिक सीमाओं में परिवर्तन - क्षेत्रीय इकाई की सीमाओं में परिवर्तन होते रहने से आंकड़ों की तुलना करना कठिन हो जाता है। इस प्रकार के सीमा परिवर्तन अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर पाये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए भारत में जनसंख्या वृद्धि, नगरीकरण आदि के संबंध में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्ववर्ती वर्षों के लिए भारत और पाकिस्तान दोनो के संयुक्त आंकड़े मिलते हैं जिन्हें अलग-अलग करना सुगम नहीं होता हैं। इसी प्रकार देश के भीतर राज्य, जनपद, तहसील आदि प्रशासकीय इकाइयों की सीमा और आकार में परिवर्तन होते रहने से भी आंकड़ों की तुलना तथा उनके विश्लेषण में असुविधा होती है।

2. परिभाषा में भिन्नता - किसी जनांकिकीय तत्व की परिभाषा जब विश्व के सभी देशों में एक समान नहीं होती है अथवा जब देश के भीतर ही विभिन्न जनगणना वर्षों में परिभाषा में परिवर्तन कर दिया जाता है, जब आंकड़ों के प्रयोग तथा विश्लेषण में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है।

भारतीय जनगणना में नगर, श्रमिक, साक्षरता आदि की परिभाषा तथा मापदंड को सभी जनगणना वर्षों में एक समान नहीं रखा गया है बल्कि उनमें समय-समय पर उल्लेखनीय संशोधन किये गये हैं।

3, विश्वसनीयता एवं गुणवत्ता का अभाव - विश्व के सभी देशों के आंकड़ों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता एक समान नहीं पायी जाती है क्योंकि आंकड़ों की तकनीकें तथा प्रयुक्त साधन सर्वत्र समान नहीं होते हैं। विकसित देशों के आंकड़े प्रायः अधिक पूर्ण और विश्वसनीय होते हैं किन्तु विकासशील देशों के आंकड़े कम विश्वसनीय और मध्यम कोटि के माने जाते हैं। गुणवत्ता तथा विश्वसनीयता में कमी के कुछ प्रमुख कारण निम्नानुसार हैं

(a) आयु संबंधी सूचनायें पूर्णतः सत्य नहीं होती है। जनगणना के समय व्यस्क बालिकाओं तथा महिलाओं की आयु प्रायः कम और वृद्ध व्यक्तियो की आयु वास्तविकता से अधिक बनायी जाती है।

(b) सभी देशो में जन्म, मृत्यु, विवाह, तलाक, गर्भपात, शिशु मृत्यु, भ्रूण मृत्यु आदि से संबंधित पूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध नहीं होती है। कुछ सूचनाओं को छिपा लिया जाता है। जिसके कारण ऐसे आंकड़ों को विश्वसनीयता संदेहास्पद होती है।

(c) अधिसंख्यक विकासशील देशों में शिक्षा की कमी तथा संसाधनों के अभाव के कारण जनसंख्या आंकड़े एकत्रित करने का कार्य प्रायः अल्प शिक्षित तथा अप्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जिससे त्रुटि की काफी सम्भावना रहती है।

(d) व्यापक अशिक्षा, अज्ञानता, रूढ़िवादिता, उदासीनता आदि के कारण परिवार का मुखिया या अन्य सदस्य परिवार से संबंधी सही सही जनांकिकीय सूचनाएँ नहीं प्रदान करते हैं।

4. अपूर्ण जनगणना - विश्व के कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ नियमित जनगणना नहीं करायी जाती है। इतना ही नहीं, कभी - कभी विभिन्न सामाजिक राजनीतिक कारणों से एक ही देश के सभी भागों में एक साथ जनगणना करना संभव नहीं हो पाता है। उदाहरणार्थ, भारत की जनगणना 1991 में असम और 1991 में जम्मू एवं कश्मीर में जनगणना नहीं हो पायी थी।

5. मानचित्रों का अभाव - अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तर पर मानव बसाव के वास्तविक स्थलों को दिखाने वाले मानचित्रों की कमी है। ऐसे मानचित्रों के अभाव में जनसंख्या वितरण के वास्तविक प्रतिरूपों को दर्शाने और उनके विश्लेषण में कठिनाई होती है।

भारतीय जनगणना की आलोचनात्मक व्याख्या

भारतीय जनगणना की आलोचनात्मक व्याख्या करने से पूर्व भारतवर्ष की प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दशाओं, प्रगणक व ऑकलन व्यवस्था पर एक दृष्टि डालना अपेक्षित है। जनगणना प्रायः मार्च- अप्रैल में होती है, जबकि देश के उत्तरी पर्वतीय प्रदेश हिमाच्छादित रहते हैं तथा दुर्गम पर्वतीय भागों में जाकर जनगणना का कार्य करना दुष्कर होता है। इसी समय रेगिस्तानी भागों में दिन के तापमान की अधिकता के कारण निकलना कठिन होता है। केवल प्राकृतिक ही नहीं वरन भाषा, धर्म, संस्कृति व खान-पान में भी

इतनी विषमता पाई जाती है, जिनके कारण प्रगणक को प्रश्न पूछने, समझने आदि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं, अधिकांश जनता के निरक्षर होने के कारण सभी प्रश्नों का उत्तर भी नहीं मिल पाता है, क्योंकि अनपढ़ अशिक्षित जनता के मन में अनेक प्रकार के भ्रम बने रहते हैं।

भारतीय जनगणनाओं में कुछ महत्वपूर्ण दोष निम्नलिखित हैं

(1) आयु संबंधी आंकड़ों के संबंध में - आयु संबंधी आंकड़ों की शुद्धता संदेहास्पद पाई जाती है, क्योंकि हमारे देश में सूचना देने वाले अधिकांशतः निरक्षर हैं, इसलिये वे आयु के बारे में सही सूचना नहीं देते।

(2) सामाजिक स्थिति संबंधी सूचनायें - सन् 1941 तक सामाजिक आंकड़ों को दो भागों में विभाजित किया जाता था - विवाहित व विधवा। परन्तु 1951 में तलाकशुदा लोगों की अलग श्रेणी बना दी गई। 1961 में इस प्रकार के आंकड़ों की 5 श्रेणियों बनाई गई। इस समय केवल उन्हीं लोगों को विवाहित माना गया, जिनका विवाह सामाजिक नियमों द्वारा विधिपूर्वक हुआ हो। 1961 की जनगणना में वेश्या, कॉल गर्ल, सोसायटी गर्ल को अविवाहित नहीं माना गया।

(3) व्यवसाय संबंधी सूचनायें - सन् 1931 से पूर्व की जनगणनाजों में व्यवसाय संबंधी सूचनाये अपूर्ण व दोषपूर्ण हुआ करती थी। केवल मुद्रा अर्जित करने वाले प्रमुख व्यवसाय को ही मान लिया जाता था। परन्तु 1931 में प्रथम बार व्यवसाय को मुख्य एवं सहायक दो रूपों में माना गया। 'प्रो. बटिलियन' ने मुख्य व सहायक व्यवसायों का एक वर्गीकरण, जिसमें 4 मुख्य व 12 सहायक व्यवसाय थे, प्रस्तुत किया था तथा अपील की थीं कि यह वर्गीकरण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर लिया जाय, जिससे विश्वस्तर पर सूचनाओं में समरूपता आ सके।

(4) धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति संबंधी सूचनायें - इस प्रकार की सूचनायें पहले संकलित ही नहीं की जाती थीं। 1921 में धर्म संबंधी प्रश्न पूछे गये, परन्तु उनसे प्राप्त निष्कर्ष असंतोषजनक थे, क्योंकि उस समय धर्म को परिभाषा भिन्न-भिन्न थी। अंग्रेजी की भेद नीति के तहत धर्म, सम्प्रदाय, जाति सम्बंधी सूचनाएँ एकत्रित की जाती थीं। परन्तु स्वतंत्रता में भाग लेने वाले हमारे नेताओं के विरोध के परिणामस्वरूप 1941 से धर्म संबंधी सूचना संकलित करने की प्रणाली छोड़ दी गई, क्योंकि ऐसी सूचनाओं से संबंधित तथ्यों के प्रचार-प्रसार से देश की एकता को धक्का पहुंचता था। अब केवल अनुसूचित जाति व जनजाति के हित व सुरक्षा की व्याख्या भारतीय संविधान में हैं।

(5) भाषा संबंधी सूचनाएँ - भारतीय जनगणना में भाषा संबंधी सूचनायें सावधानीपूर्वक संकलित नहीं की गई। प्रगणक बोली को भाषा मानकर सर्वेक्षण करते थे। परिणामस्वरूप 1910 में 147 भाषायें सर्वेक्षित हुई, जबकि 1951 में उनकी संख्या बढ़कर 225 हो गई।

(6) साक्षरता एवं शिक्षा संबंधी सूचनायें - साक्षरता व शिक्षा संबंधी आंकड़ों का संकलन अवैज्ञानिक ढंग पर आधारित था। 1891 तक 'एतद' संबंधी सूचनाओं को तीन वर्गों- साक्षर, निरक्षर जो सीख रहे हो में प्राप्त किया गया। उन सभी लोगों को जो पढ़ना-लिखना जानते हों, को साक्षर, जो न जानते हों निरक्षर कहा गया। सीख रहे लोगों में उन सभी लोगों को रखा गया जो प्राथमिक माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त हों या प्राप्त कर रहे हों। यह विडम्बना (समस्या) ही थी कि ऐसे लोग साधर श्रेणी में नहीं रखे गये। 1901 में केवल साक्षर व निरक्षर दो ही श्रेणियां थी। इसमें निरक्षर अंतर्गत 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे रखे गये जो सन् 1931 तक चलता रहा। इस समय साक्षरों को दो वर्गों में रखा गया है-

1. जो केवल पढ़ सकते है,

2. जो लिख सकते हो।

परन्तु इस प्रणाली में भारी दोष यह आ गया जो सत्यता से परे था। पहली बार 1951 में शिक्षा के स्तर संबंधी सूचनाएँ एकत्रित की गई। उच्च शिक्षा संबंधी आंकड़े संकलित किये गये। यहीं प्रणाली आज तक लागू हैं।

(7) प्रकाशन में विलम्ब - भारतीय जनगणना के प्रमुख दोषों में जनगणना सूचनाओं (जनगणना- पुस्तिका) का विलम्ब से प्रकाशित होना है। 1971 के जनगणना की पुस्तिकायें 1981 तक प्रकाशित होती रही। 1961 की एक भी जनपद जनगणना हस्तपुस्तिका अभी तक प्रकाशित नहीं हुई। इससे देश की सामाजिक आर्थिक स्थिति के आँकलन में बड़ी असुविधा उत्पन्न होती है।

जनगणना के संबंध में सुझाव

भारतीय जनगणना के तीन महत्वपूर्ण घटक - प्रगणक, सूचना देने वाला, जनगणना प्रशासन एवं उसकी प्रविधि है। इसमें समन्वय एवं वैज्ञानिकता का प्रयोग अपेक्षित है। भारतीय जनगणना के संबंध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत है-

(1) भारतीय कार्य को वैतनिक किया जाना चाहिए, क्योंकि इतना अधिक महत्वपूर्ण कार्य बिना वेतन के सही एवं सुचारू रूप से सम्पादित हो पाना कठिन होता है। इस कार्य के लिए बेरोजगार स्नातकों को लगाना जाना चाहिए।

(2) प्रगणकों को प्रशिक्षण देना चाहिए। इस कार्य के लिये महाविद्यालय के विभिन्न विभागों - अर्थशास्त्र, जनांकिकीय, भूगोल, समाजशास्त्र आदि के शिक्षकों तथा छात्रों के ज्ञान का उपयोग किया जाना चाहिए।

(3) जनगणना के प्रकाशनों में सरल व बोधगम्य तालिकाओं के निर्माण को वरीयता दी जानी चाहिए।

(4) जनगणना प्रकाशन समय से हो सके, इसके लिए सारणीयन हेतु मशीनों, कम्प्यूटरों का प्रयोग आवश्यक है।

(5) प्रगणकों के रूप में स्थानीय व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जानी चाहिए तथा महिलाओं से संबंधित प्रश्नों के लिए महिला प्रगणकों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

(6) समाज के विभिन्न वर्गो की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के गहन अध्ययन के लिए समाज की प्रमुख जातियों के विषय में सूचना एकत्रित करनी चाहिए।

(7) आय संबंधी सूचनायें भी एकत्रित की जानी चाहिए, ऐसे समंक योजना बनाने के लिए उपयोगी होंगे।

(8) वर्तमान अवैतनिक जनगणना की व्यवस्था में गुणात्मक सुधार अपेक्षित है।

(9) आर्थिक क्रियाओं का स्पष्ट वर्गीकरण होना चाहिए तथा व्यावसायिक जनगणना के कार्यालय राज्यों में स्थापित किये जाने चाहिए। इस व्यवस्था को समुचित व सुदृढ़ बनाने के लिए जनगणना आयोग का गठन आवश्यक प्रतीत होता है, जिसके अंतर्गत विभिन्न समितियाँ भी होनी चाहिए।

(10) जनगणना के महत्व का प्रचार किया जाना चाहिए। इसके माध्यम से भूचनाओं के संकलन में सतर्कता, शुद्धता व अभिरूचि उत्पन्न की जाय, ताकि समंकों की शुद्धता व सार्थकता पर आँच न आ सके।

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