JPSC_Public_Expenditure(सार्वजनिक व्यय)

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(सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत, सार्वजनिक व्यय के वृद्धि के कारण और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव, आंतरिक और‌बाह्य देनदारियाँ।)

सार्वजनिक व्यय सार्वजनिक वित्त का महत्वपूर्ण अंश होता है। सरकार द्वारा किए जाने वाले व्यय को सार्वजनिक व्यय कहते हैं। व्यक्तिगत व्ययmकी भांति सार्वजनिक व्यय राज्य की क्रियाओं का आदि और अन्त दोनों होते हैं। व्यक्तिगत व्यय व सार्वजनिक व्यय में कुछ मौलिक भेद होता है। व्यक्ति अपनी आय के अनुरूप व्यय करता है जबकि सरकार पहले अपना व्यय निर्धारित करती है फिर आय के स्त्रोतों को जुटाती है। इसलिए सार्वजनिक वित्त के अन्तर्गत सार्वजनिक आय का अध्ययन सार्वजनिक व्यय के बाद किया जाता है। इसका कारण यह है कि एक बार व्यय काmनिर्धारण करने के बाद सरकार आय प्राप्त करने के लिए कर, सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त आय जैसे परम्परागत साधनों के साथ-साथ घाटे के बजट भी बना सकती है।

सरकार सार्वजनिक व्यय के द्वारा नागरिकों की सामूहिक व अन्य आवश्यकताओं को पूरा करके उनके आर्थिक व सामाजिक कल्याण में वृद्धि करती है। आधुनिक समय में राज्य के कार्य बढ़ने के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में अत्यधिक वृद्धि हो गई है। इस बढ़ते हुए सार्वजनिक व्यय ने देश में उत्पादन, वितरण, विनिमय, उपभोग व सामान्य आर्थिक क्रियाओं को अत्यधिक प्रभावित किया है। साथ ही सार्वजनिक व्यय के द्वारा राज्य सामान्य व कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न करके कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्राप्त करता है।

सार्वजनिक व्यय का महत्व

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक सार्वजनिक व्यय को कोई महत्व नहींmदिया जाता था व अर्थशास्त्री लगभग सभी प्रकार के सार्वजनिक व्यय को बुरा समझते थे। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही सार्वजनिक व्यय की महत्ता को समझने का प्रयास किया जाने लगा। आधुनिक अर्थशास्त्री सभी प्रकार के सार्वजनिक व्यय को उत्तम मानते हैं। यदि विवेकपूर्ण तरीके से किया जाए तो उसका लाभ सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था तक पहुँचता है। विशेषकर आर्थिक संकटकाल (मंदी) में सार्वजनिक व्यय बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इस काल में निजी क्षेत्र के क्रिया-कलापों की शक्ति मंद (धीमी) हो जाती है व सरकार द्वारा विभिन्न आर्थिक व सार्वजनिक क्रियाओं द्वारा अर्थव्यवस्था को गति प्रदान की जाती है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय सार्वजनिक वित्त की एक महत्वपूर्ण शाखा है व इसका महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है।

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण

लगभग पिछले 80 वर्षों में सरकार द्वारा किए जाने वाले कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। सन् 1930 की महान मंदी ने सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता को बहुत स्पष्ट कर दिया था। वैगनर ने अपने प्रसिद्ध राज्य के बढ़ते हुए कार्यों के नियम में स्पष्ट किया है कि लगभग सभी देशों में केन्द्रीय व राज्य सरकारों के कार्यों में वृद्धि होती जा रही है। वर्तमान समय में यह स्पष्ट हो गया है कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया अपने साथ आर्थिक व सामाजिक सम्बंधों में बढ़ती हुई जटिलता की प्रवृत्ति लाती है और बढ़ते हुए सार्वजनिक व्यय को बाजार व्यवस्था में आवश्यक बना देती है। सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण निम्न हैं-

आवश्यकताओं की सामूहिक संतुष्टि

वर्तमान समय में नगरों में पानी, बिजली, यातायात, सड़कों पर विद्युत व्यवस्था सार्वजनिक पार्कों का निर्माण आदि कार्य सरकारों द्वारा किए जाते हैं क्योंकि इन कार्यों को व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न किए जाने पर एक तो सेवाओं की दुबारगी के कारण बहुत अपव्यय होगा व बड़े पैमाने कीmउत्पत्ति के लाभ भी प्राप्त नहीं होंगे। साथ ही अत्यधिक उपयोगी सेवाओं में एकाधिकार स्थापित होने के कारण समाज का शोषण होने का भय

भी रहेगा। इसलिए इन कार्यों का सम्पादन सरकार द्वारा किया जाता है जो सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का प्रमुख कारण है।

कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु

वर्तमान समय में राज्यों को कल्याणकारी कार्य भी करने पड़ते हैं। अब राज्य कल्याणकारी राज्य बन गए हैं व राज्य के आधारभूत कार्यों में व्यापार चक्रों को दूर करना पूर्ण रोजगार प्राप्त करना, आर्थिक कार्यक्रमों को बढ़ाना, आर्थिक असमानता को दूर करना आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय तीव्र गति से बढ़ रहा है।

युद्ध व सुरक्षा

राष्ट्रीय सुरक्षा पर व्यय कुल व्यय का महत्वपूर्ण अंश होता है। देश में शांति व सुरक्षा का वातावरण आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान समय में सैन्य व्यय में काफी वृद्धि हो गई है व हथियार अत्यन्त उच्च तकनीक आधारित होने से विकसित व विकासशील दोनों प्रकार के देशों में सुरक्षा व्यय काफी ऊँचा पाया जाता है।

जनसंख्या में वृद्धि

जनसंख्या वृद्धि व तेजी से बढ़ता हुआ शहरीकरण सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का महत्वपूर्ण कारक है। शहरीकरण के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, विद्युत व्यवस्था, मनोरंजन एवं खेल-कूद आदि पर किए जाने वाले व्यय में अत्यधिक वृद्धि हो गई है।

मूल्य स्तर में वृद्धि

मूल्य स्तर में वृद्धि का प्रजातांत्रिक सरकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फलतः मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए सरकार अनुदान देती है। मूल्य वृद्धि से मंहगाई भत्तों में वृद्धि हो जाती है व सरकार की विकास योजनाओं का व्यय भी बढ़ जाता है फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है।

मंदीकाल

तीसा की महामंदी ने स्वचालित अर्थव्यवस्था की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया था व सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता को बढ़ाया था। देश में समग्र मांग व पूर्ति को बराबर रखने के लिए सरकारी नियमन व नियंत्रण आवश्यक हो जाते हैं। मंदीकाल में सरकार सार्वजनिक व्यय द्वारा व करों में छूट देकर अर्थव्यवस्था को गतिमान रखने का प्रयास करती है फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो रही है।

सार्वजनिक व्यय के नियम

प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय के नियमों का निर्माण इस उद्देश्य से किया है कि इन नियमों के आधार पर सार्वजनिक व्यय करने से समाजके कल्याण को अधिकतम किया जा सकता है व व्यय राशि का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। सार्वजनिक व्यय के मुख्य नियम हैं जो निम्नलिखित हैं :

लाभ का नियम

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त सार्वजनिक व्यय का सर्वोच्च नियम है। इस नियम के अनुसार सार्वजनिक व्यय इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि सार्वजनिक व्यय से किसी एक व्यक्ति या समूह को ही लाभ नहींक्षहो वरन् सम्पूर्ण समाज लाभ प्राप्त करे। लाभ को अधिकतम करने के लिए सम सीमान्त उपयोगिता नियम के अनुसार समस्त व्यय को विभिन्न उपयोगों में इस प्रकार विभिाजित किया जाता है कि प्रत्येक व्यय से प्राप्त सीमान्त लाभ समान हो। सार्वजनिक व्यय के लाभ को अधिकतम करने के लिए कुछ कसौटियों का होना आवश्यक है जैसे सार्वजनिक व्यय के द्वारा समाज के आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो रही है या नहीं, राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो रही है या नहीं। समाज में आय व धन का वितरण न्यायपूर्ण हो रहा है अथवा सार्वजनिक व्यय वितरण की असमानताएं बढ़ा रहा है। सार्वजनिक व्यय से मूल्य अस्थिरता उत्पन्न नहीं हो तथा पूर्ण रोजगार को प्राप्त किया जा सके। साथ ही वर्तमान में किए गए सार्वजनिक व्यय के लाभों को भीवी पीढ़ी को भी हस्तान्तरित किया जा सके। उपर्युक्त आधारों पर किया गया सार्वजनिक व्यय देश को निश्चित रूप से लाभ पहुंचाता है।

मितव्ययिता का नियम

मितव्ययिता से तात्पर्य है सरकारी धन को सोच-समझकर विवेकपूर्ण तरीके से व्यय करना। सरकार को केवल उन्हीं मदों पर व्यय करना चाहिए जहाँ आवश्यक हो तथा सार्वजनिक व्यय से उत्पादन शक्ति बढ़ रही हो। सरकार को अनावश्यक व अनुत्पादन व्यय पर नियन्त्रण लगाना चाहिए। व्यय में मितव्ययिता से करदाता के हितों की रक्षा होती है व देश की भावी राजस्व क्षमता में भी वृद्धि होती है। किन्तु आजकल प्रजातान्त्रिक देशों में पर्याप्त नियोजन, दूरदर्शिता सार्वजनिक अधिकारियों में उत्तरदायित्व और पर्याप्त विकास नियन्त्रण के अभाव में अनावश्यक सार्वजनिक व्यय बढ़ता जा रहा है जिससे देशों के आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।

स्वीकृति का नियम

इस नियम के अनुसार प्रत्येक अधिकारी को व्यय करते समय अपने उच्च अधिकारी से स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। इससे अनावश्यक व्यय पर रोक लगेगी। साथ ही व्यय की गई राशियों के हिसाब-किताब का अंकेक्षण भी होना चाहिए जिससे अनुचित व्यय पर रोक लगाई जा सके। संघीय सरकार को प्रत्येक प्रकार के व्यय के लिए संसद से स्वीकृति लेनी पड़ती है अत: सार्वजनिक व्यय पर संसद का नियन्त्रण भी बना रहता है।

आधिक्य का सिद्धान्त

फिण्डले शिराज की मान्यता है कि सार्वजनिक व्यय सामान्यतया सार्वजनिक आय से अधिक नहीं होना चाहिए। इस नियम का अभिप्राय राजकीय व्यय में घाटों को दूर करना है। राज्य को अपना व्यय आय के समान ही रखना चाहिए इससे अपव्यय में कमी होगी व अर्थव्यवस्था पर कम भार पड़ेगा। इस सिद्धान्त से आशय यह नहीं है कि सरकार को प्रतिवर्ष बचत का बजट बनाना है वरन् आशय यह है कि सरकार को घाटे के बजट की प्रवृति को रोकना चाहिए।

वर्तमान समय में बचत के बजट का कोई औचित्य नहीं रह गया है क्योंकि अधिकांश सरकारों को उनकी आय की अपेक्षा अधिक मात्रा में व्यय रखना पड़ता है। आजकल अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित रखना व पूर्ण रोजगार के स्तर को बनाए रखना अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है,

फलस्वरूप घाटे के बजट का उपयोग आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हो गया है।

लोच का नियम

शिराज द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त चारों नियमों के अतिरिक्त अर्थशास्त्रियों ने कुछ अन्य नियमों का भी प्रतिपादन किया है जो निम्न है। लोच के नियम के अनुसार सार्वजनिक व्यय का ढाँचा लचीला होना चाहिए, अर्थात् राजकीय व्यय में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके। यदि सरकार के पास पर्याप्त साधन हो तो सार्वजनिक व्यय में सरलता से वृद्धि की जा सकती है किन्तु साधनों के अभाव में इसमें कमी करना अत्यन्त कठिन होता है। अतः सरकार को अपने व्यय का ढाँचा ऐसा बनाना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर इसमें कमी की जा सके व एक मद से दूसरे मदक्षमें व्यय का पुनर्वितरण किया जा सके।

उत्पादकता का नियम

सार्वजनिक व्यय से देश की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होनी चहिए। इसका उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। जिस सार्वजनिक व्यय से उत्पादन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से थोड़ी भी वृद्धि होती है उसेउत्तम व्यय की संज्ञा दी जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी तक सुरक्षा व्यय को अनुत्पादन तथा अनुचित माना जाता था तथा सामाजिक सेवाओं पर होने वाले व्यय को भी ठीक नहीं समझा जाता था। किन्तु वर्तमान शताब्दी में यह निश्चित रूप से समझा जाता है कि सुरक्षा व्यय राजनीतिक शान्ति बनाए रखने के लिए आवश्यक है व बिना राजनीतिक शान्ति के कोई भी उत्पादन कार्य सम्भव नहीं है। इसलिए वर्तमान में सुरक्षा व्यय को अप्रत्यक्षरूप से उत्पादक माना जाता है। इसी पर सामाजिक सेवाओं तथा सामाजिक सुरक्षा पर किया जाने वाला व्यय व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है इसलिए वह भी उत्पादक होता है। संक्षेप में जिस सार्वजनिक व्यय से पूँजी निर्माण की गति बढ़े, बेकारी दूर हो, उत्पादक व उपभोग वस्तुओंक्षके उत्पादन में वृद्धि हो, व्यक्ति को कार्यक्षमता में वृद्धि हो उसे उत्पादकक्षव्यय कहा जाएगा।

समान वितरण का नियम

सार्वजनिक व्यय के माध्यम से समाज में आर्थिक समानता स्थापित करने के प्रयास किए जा सकते हैं। इस रूप में सार्वजनिक व्यय का औचित्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह कहीं तक धन के वितरण में समानता उत्पन्न करने में सहायक हुआ है। इसके लिए सरकार को समाज के कमजोर वर्गों के लाभ के लिए विशेष प्रकार के कार्यक्रम चलाकर उनके कल्याण में वृद्धि करनी होती है। निर्धन व पिछड़े वर्ग के लिए रोजगार, निर्धनता उन्मूलन, शिक्षा चिकित्सा, आवास व पेयजल कार्यक्रमों के द्वारा इनके जीवन स्तर व कार्यक्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।यदि सार्वजनिक व्यय से धनी व्यक्तियों व पूंजीपतियों को लाभ पहुँचता है तो ऐसा व्यय अनुचित होता है क्योंकि इससे धन के वितरण की असमानताएँ और बढ़ेगी।

समन्वय का सिद्धान्त

विभिन्न विभागों में समन्वय के अभाव में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है व विभिन्न कार्यक्रमों का लाभ भी समाज को प्राप्त नहीं हो पाता। उदाहरणार्थ ग्रामीण विकास व निर्धनता उन्मूलन के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अलग-अलग कार्यक्रम चलाए जाते हैं जिनमें समन्वय की आवश्यकता है। व्यय को कम करने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में दोहराव को समाप्त करना आवश्यक है। केवल राजनीतिक कारणों से बेरोजगारी अथवा निर्धनता उन्मूलन के लिए अनेक कार्यक्रम लागू करने का कोई लाभ नहीं है। इसके स्थान पर ठोस कार्यक्रम चलाकर सार्वजनिक व्यय से प्राप्त लाभ को अधिकतम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विभागों में आपसी समन्वय के द्वारा कार्य को शीघ्र व कम लागत पर पूर्ण करके सार्वजनिक व्यय में कमी की जा सकती है।

स्पष्ट है कि सार्वजनिक व्यय से प्राप्त लाभ को अधिकतम करने के लिए आवश्यक है कि सार्वजनिक व्यय को कुछ नियमों के अनुसार किया जाय। तभी सार्वजनिक आय का अनुकूलतम प्रयोग हो सकेगा व वांछित नतीजों की प्राप्ति होगी।

सार्वजनिक व्यय के प्रभाव

बीसवीं शताब्दी से पूर्व लगभग सभी अर्थशास्त्रियों ने प्रतिष्ठित विचारधारा के समान सार्वजनिक व्यय को एक प्रकार का अपव्यय माना। उन्होंने इसे सुरक्षा, आन्तरिक प्रशासन, चाय, आधारभूत ढांचे के विकास तक ही सीमित रखा। उनकी मान्यता थी कि सरकार की अपेक्षा व्यक्ति धन का उपयोग अधिक कुशलता से कर सकते हैं तथा सरकार को उसी क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए जहाँ निजी क्षेत्र आगे आने को तैयार न हो। किन्तु 1919 की भयानक मन्दी ने अर्थशास्त्रियों की इस विचारधारा को बदल दिया। कीन्स के आर्थिक विचारों ने सार्वजनिक व्यय के महत्व को काफी बढ़ा दिया। वर्तमान समय में सार्वजनिक व्यय को रोजगार सृजन, उत्पादन एवं आय वृद्धि, उपभोग वृद्धि, साधनों के अनुकूलतम आवंटन, मूल्य स्थिरता, धन तथा आय के वितरण की समानता के सन्दर्भ में अति महत्वपूर्ण स्थान है। डाल्टन ने सार्वजनिक व्यय के प्रभावों को निम्न श्रेणियों में बांटा है-

उत्पादन पर प्रभाव • वितरण पर प्रभाव • अन्य पर प्रभाव

उत्पादन पर प्रभाव

डाल्टन के अनुसार सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उन्होंने उत्पादन पर सार्वजनिक व्यय के प्रभावों को तीन भागों में विभाजित किया है

(अ) व्यक्तियों के कार्य, बचत व निवेश करने की क्षमता पर प्रभाव

(ब) व्यक्तियों के कार्य, बचत व निवेश करने की इच्छा पर प्रभाव

(स) विभिन्न स्थानों एवं उपयोगों में साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव

(अ) व्यक्तियों के कार्य, बचत व निवेश करने की क्षमता पर प्रभाव-सार्वजनिक व्यय द्वारा व्यक्तियों की कार्य, बचत व निवेश करने की क्षमता को प्रभावित किया जा सकता है। यदि सार्वजनिक व्यय से व्यक्तियों की कार्य-कुशलता में वृद्धि हो सकती है तो इससे देश के उत्पादन व राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि होती है व आय में वृद्धि होने सेबचत व निवेश की क्षमता में भी वृद्धि होती है। निर्धनों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास पेयजल आदि पर किए गए सार्वजनिक व्यय से लोगों की कार्य-कुशलता में वृद्धि होती है जिससे उनकी आय व बचत तथा निवेश की क्षमता भी बढ़ जाती है। सार्वजनिक व्यय के द्वारा आधारभूत संरचना जैसे-रेल, सड़क, संवादवहन, शक्ति व सिंचाई आदि को बढ़ा कर लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाया जा सकता है। अधिक पूंजी की आवश्यकता वाले या अधिक जोखिम वाले उद्योगों को सरकार द्वारा स्थापित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति सरकार द्वारा की जा सकती है। इस प्रकार के सार्वजनिक व्यय से देश में उत्पादन व रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है। फलस्वरूप लोगों की कार्य, बचत व निवेश क्षमता में भी वृद्धि होती है व देश काविकास होता है।

(ब) व्यक्तियों के कार्य, बचत व निवेश करने की इच्छा पर प्रभाव-व्यक्तियों के कार्य, बचत व निवेश करने की इच्छा पर सार्वजनिक व्यय के प्रभाव अस्पष्ट माने गए हैं क्योंकि इच्छा भावात्मक होती है व प्रत्येक व्यक्ति की कार्य, बचत व निवेश की क्षमता पर सार्वजनिक व्यय का प्रभाव भिन्न-भिन्न पड़ता है। सार्वजनिक व्यय के श्रम की पूर्ति पर पड़ने वाले प्रभाव सरकारी सेवाओं की प्रकृति व इनसे लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की आय पर निर्भर करते हैं। उदाहरणार्थ हस्तान्तरण भुगतान जैसे-पेन्शन, छात्र वृत्तियाँ, बेरोजगारी भत्ते, प्रोविडेन्ट फण्ड आदि व्यक्ति की आय को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं व इससे व्यक्ति के कार्य के घण्टों में कमी हो सकती है क्योंकि वह आराम पसन्द करने लगता है। यदि सामाजिक वस्तुएं आराम की पूरक होती हैं तो भी कार्य के घण्टों में कमी आ जाती है व सामाजिक वस्तुओं के निजी वस्तुओं का पूरक होने पर काम की इच्छा और बढ़ जाती है। शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं इसी श्रेणी में आती हैं। जॉन एफ.ड्यू व फ्राइड लैण्डर ने इसे प्रतिस्थापन प्रभाव व आय प्रभाव कहा है। प्रतिस्थापन प्रभाव में व्यक्ति सार्वजनिक व्यय से आय बढ़ने पर आराम का प्रतिस्थापन काम के साथ करता है, इससे उनके कार्य घण्टों में वृद्धि हो जाती है एवं वह अधिक कार्य करता है। आय प्रभाव के अन्तर्गत व्यक्ति को काम करने की इच्छा कम हो जाती है क्योंकि व्यक्ति को इसकी इच्छित आय कम कार्य करके ही प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार आय प्रभाव का साधन पूर्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है व इससे उत्पादन भी कम हो जाती है।

बचत की इच्छा पर सार्वजनिक व्यय के प्रतिकूल व अनुकूल दोनों प्रभाव पड़ते हैं। सार्वजनिक व्यय से यदि काम के घण्टों में वृद्धि होती है तो आय में वृद्धि से बचत भी बढ़ेगी। किन्तु यदि व्यक्ति काम के घण्टे कम कर देता है तो सरकारी संरक्षण से निश्चिन्त होकर बचतों को भी कम कर सकता है। सार्वजनिक व्यय का निवेश की इच्छा पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। सरकार व्यावसायिक गतिविधियों की अनिश्चितता को कम करके जोखिम को कम करती है व निवेश के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है, फलस्वरूप निवेश में वृद्धि होती है।

(स) विभिन्न स्थानों एवं उपयोगों में साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव-सार्वजनिक व्यय का साधनों के वैकल्पिक प्रयोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह दो प्रकार का हो सकता है प्रत्यक्ष एवंक्षपरोक्ष। प्रत्यक्ष रूप से राजकीय व्यय स्वयं साधनों का हस्तान्तरण है अर्थात् राज्य व्यक्तियों के धन को स्वयं राज्य की प्राथमिकताओं के अनुसार व्यय करता है। यदि राज्य ऐसा न करे तो व्यक्ति इसी धन को अलग अलग तरीके से व्यय करेंगे। इस प्रकार सरकार धन के प्रत्यक्ष हस्तान्तरण के द्वारा व्यक्तियों की उत्पादन क्षमता व आय में वृद्धि करता है। परोक्ष रूप से राजकीय व्यय व्यक्तियों को अपने धन को व्यय करने के तरीके बदलने के लिए प्रेरित कर सकता है व उन्हें विभिन्न प्रकार की छूट प्रदान करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

साधनों के वर्तमान व भविष्य के बीच उत्तम आवंटन का कार्य भी सार्वजनिक व्यय द्वारा किया जाता है। व्यक्ति भविष्य की अपेक्षा वर्तमान को प्राथमिकता देता है जबकि राज्य भावी पीढ़ी के हितों के संरक्षण का कार्य भी करता है। यातायात, सिंचाई, वृहद् परियोजनाओं, शोध एवं अनुसंधान व अन्य ऐसे क्षेत्रों जिससे तुरन्त लाभ प्राप्त नहीं होता पर व्यय करके राज्य भविष्य के लिए साधनों का आवंटन करता है व विकास को सुस्थिर बनाता है।

सार्वजनिक व्यय द्वारा पिछड़े क्षेत्रों का विकास करके राज्य इन साधनों पर साधनों का अनुकूल आवंटन करता है व विकास को संतुलित करता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय की साधनों के अनुकूल आवंटन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

वितरण पर प्रभाव

सार्वजनिक व्यय अर्थव्यवस्था में वास्तविक आय के वितरण को प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों ही प्रकार से प्रभावित करता है। वितरण पर सार्वजनिक व्यय के प्रत्यक्ष प्रभाव वे होते हैं जिनके कारण निजी क्षेत्र में व्यय योग्य राशि में कमी या वृद्धि होती है। अप्रत्यक्ष प्रभावों साधनों के सापेक्ष मूल्यों व रोजगार स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों को लिया जाता है। कल्याणकारी प्रकृति के सार्वजनिक व्यय से आय में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है जैसे राहत कार्य, वृद्धावस्था पेन्शन, बेरोजगारी भत्ता आदि। कुछ सार्वजनिक सेवाओं से प्राप्त की वास्तविक आय में वृद्धि होती है जैसे-अनुदानित या मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा, सार्वजनिक वितरण आदि। इस प्रकार की सेवाओं से निम्न आय वर्ग को विशेष रूप से लाभ होता है।

सामाजिक सेवाओं से पूरे समाज की वास्तविक आय में वृद्धि होतीहै क्योंकि इन सेवाओं से मिलने वाला लाभ व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होता है। सार्वजनिक कार्यों के लिए साधनों के निजी क्षेत्र से सार्वजनिक क्षेत्र में हस्तान्तरण होने से समाज के धनी वर्ग की आय कम हो जाती है व आय का पुनर्वितरण होने से निर्धनों की आय में वृद्धि हो जाती है तथा आय के असमान वितरण में कमी आती है। राज्य द्वारा सामाजिक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने से उत्पादन के साधनों की सापेक्ष माँग व मूल्यों में भी परिवर्तन आ जाता है व साधनों की आय बढ़ जाती है। सार्वजनिक व्यय द्वारा रोजगार सृजन करके आय व धन के वितरण की असमानता को दूर किया जाता है। डाल्टन ने धन के वितरण पर सार्वजनिक व्यय के प्रभावों को तीन भागों में विभाजित किया है।

1. प्रतिभागी व्यय यदि सार्वजनिक व्यय से धनी को अधिक व निर्धन को कम अनुपात में लाभ प्राप्त होता है तो वह व्यय प्रतिभागी कहलाता है जैसे-मँहगाई भत्ते की दर आय बढ़ने पर बढ़े।

2. आनुपातिक व्यय यदि सार्वजनिक व्यय से सभी व्यक्तियों को समान अनुपात में लाभ प्राप्त हो तो वह आनुपातिक व्यय कहलाता है।

3. प्रगतिशील व्यय यदि सार्वजनिक व्यय से धनी को कम व निर्धन को अधिक अनुपात में लाभ प्राप्त हो तो वह प्रगतिशील व्यय कहलाता है।

प्रतिभागी सार्वजनिक व्यय से आय व धन के वितरण की असमानताएं बढ़ती है व प्रगतिशील व्यय से कम होती हैं। प्रगतिशील व्यय के कई रूप हो सकते हैं जैसे निर्धनों को नकदी के रूप में आर्थिक सहायता, नि:शुल्क या सस्ती सेवाएं व वस्तुएं, सस्ते मकान आदि। अतः सार्वजनिक व्यय का ही अर्थशास्त्रियों द्वारा समर्थन किया जाता है।

सार्वजनिक ऋण का अर्थ

सार्वजनिक व्यय हेतु संसाधन प्राप्ति का प्रमुख साधन सार्वजनिक ऋण है। सरकार संसाधन एकत्रीकरण के साधन के रूप में करारोपण को एक सीमा तक ही प्रयुक्त कर सकती है क्योंकि कर की ऊँची दर सामाजिक असंतोष उत्पन्न करेगा। वहीं घाटे की वित्त व्यवस्था का परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में आता है। अतः सरकार सार्वजनिक आय सरकार सार्वजनिक व्यय के अंतर के रूप को समाप्त करने के उपाय के रूप में सार्वजनिक ऋण को अपनाती है।

सार्वजनिक ऋण उस ऋण को कहते हैं जिसे राज्य अपने नागरिकों अथवा अन्य देशों के नागरिकों से प्राप्त करती है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण के रूप में सरकार लोगों की बचत को प्राप्त करती है और इस धन को ब्याज सहित एक निश्चित समय के पश्चात वापस करती है।

सार्वजनिक ऋण के सम्बन्ध में अलग-अलग मत रहे हैं। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री सार्वजनिक ऋण को अच्छा नहीं मानते थे। एक व्यक्ति सदा ऋण की सहायता से अपना कार्य नहीं चला सकता, उसी प्रकार सरकार भी सदा ऐसे साधनों से काम नहीं चला सकती। परन्तु प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उत्पादक परियोजनाओं के लिए प्राप्त किए गए सार्वजनिक ऋण के पक्षधर थे जिनसे ऋण के मूलधन के साथ-साथ ब्याज का भुगतान सरलता से किया जा सके।

प्रो. कीन्स प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रों से असहमत थे। उनके अनुसार सरकार सार्वजनिक ऋण के द्वारा अप्रयुक्त संसाधनों कर अर्थव्यवस्था में रोजगार, उत्पादन एवं आय को बढ़ा सकती है।

कीन्स उपरांत अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक ऋण की सार्वजनिक आय प्राप्ति के महत्वपूर्ण साधन के रूप में स्वीकार किया तथा इसे आर्थिक नीति के महत्वपूर्ण अस्त्र के रूप में भी स्वीकृति प्रदान की। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के मतानुसार आंतरिक सार्वजनिक ऋण की तुलना में विदेशी ऋण न्यूनतम होना चाहिए।

सन् 1980 के उपरान्त राजकोषीय क्रियाओं के लिए अत्यधिक सार्वजनिक ऋण को उपयुक्त नहीं माना गया। सरकार को अनुत्पादक परियोजनाओं एवं उपभोग व्यय के लिए ऋण लेने से बचना चाहिए, क्योंकि जब ब्याज को भुगतान ऋण क्षमता को पार कर जाता है तो देश ऋण जाल में फंस जाता है।

सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य

सार्वजनिक ऋण सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोणों के अध्ययन के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी राज्य को अग्रलिखित उद्देश्यों से ऋण लेना चाहिए :

 • सार्वजनिक आय एवं राजस्व प्राप्ति के लिए।

आर्थिक एवं व्यापारिक दशाओं में स्थायित्व के लिए।

विकासात्मक कार्यों के सुचारू संचालन हेतु वित्तीय आवश्यकता को पूर्ण करने।

• सार्वजनिक उपक्रमों के संचालन एवं प्रबन्ध के लिए।

शिक्षा, स्वास्थ सेवा एवं आवास सुविधाओं आदि कल्याणकारी योजनाओं के लिए।

प्रतिरक्षा कार्यों के लिए।

सार्वजनिक आय प्राप्ति के पूर्व प्रशासनिक व्ययों को पूर्ण करने के लिए।

जनमत को अनुकूल बनाने तथा समाजवादी समाज की स्थापना के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए।

निजी ऋण एवं सार्वजनिक ऋण की तुलना

निजी ऋण एवं सार्वजनिक ऋण की तुलना करने पर अधोलिखित समानताएं एवं असमानताएं दृष्टिगत होती है :

समानताएं

आय की तुलना में व्यय अधिक होने पर ही सरकार एवं व्यक्ति दोनों ही ऋण लेते हैं।

सरकार एवं व्यक्ति दोनों की ब्याज भुगतान क्षमता के आधार पर ही ऋण-सीमा निर्धारित होती है।

• सार्वजनिक एवं निजी ऋण दोनों में ही धन एक उपयोग से दूसरे उपयोग की ओर स्थानान्तरित होता है।

सरकार को भी निजी ऋणियों के समान ऋणदाताओं को निश्चित ब्याज का भुगतान करना पड़ता है।

असमानताएं

आपातकाल में सरकार नागरिकों को ऋण देने के लिए बाध्य कर सकती है जबकि निजी ऋण के सम्बन्ध में यह सब नहीं है।

सार्वजनिक ऋण उत्पादक व सामाजिक कल्याण के उद्देश्य के लिए किए जाते है जबकि निजी ऋण सामाजिक उत्सवों त्यौहारों आदि अनुत्पादक उद्देश्यों तथा निजी लाभ के लिए किए भी लिए जाते हैं।

• व्यक्तिगत ऋणों की तुलना में सार्वजनिक ऋण निम्न ब्याजदर पर प्राप्त किये जाते हैं।

राज्य स्थायी संस्थान होने के कारण दीर्घावधि ऋण सरलता से प्राप्त कर लेती है जबकि निजी ऋण के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है।

सरकार ऋण का भुगतान मुख्यतः कर से प्राप्त आय द्वारा करती है जबकि व्यक्ति ऋण का भुगतान व्यक्तिगत बचत अथवा निजी सम्पत्ति आदि द्वारा करता है।

सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण

सार्वजनिक ऋण के प्रयोग, उद्देश्य, भुगतान अवधि एवं शर्ते आदि में पाई जाने वाली भिन्नता के आधार पर इसे अनेक वर्गों में विभाजित किया जाता है।

आंतरिक एवं बाह्य ऋण

जब सरकार देश के नागरिकों से ऋण प्राप्त करती है तो यह आंतरिक ऋण कहलाता है और जब सार्वजनिक ऋण विदेशी संस्थाओं नागरिकों अथवा सरकार से प्राप्त किया जाता है तो यह बाह्य ऋण कहलाता है। आतरिक ऋण उत्तम माने जाते हैं क्योंकि इससे देश को सम्पत्ति देश के अंदर रहती है जबकि बाह्य ऋण में पूँजी देश के बाहर चली जाती है। ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ आंतरिक बचत कम होती है वहाँ बाह्य ऋण आवश्यक हो जाते हैं।

ऐच्छिक व अनिवार्य ऋण

ऐच्छिक ऋण ऐसे ऋण होते हैं जिसे ऋणदाता स्वेच्छा से एक निश्चित ब्याज अवधि के लिए सरकार को देता है जबकि अनिवार्य ऋण ऐसे ऋण होते हैं जिनके लिए सरकार ऋणदाता को बाध्य करती है। इस प्रकार के ऋण विशिष्ट परिस्थितियों में लिए जाते हैं।

उत्पादक ऋण एवं अनुत्पादक ऋण

ऐसे ऋण जिनके निवेश के पश्चात् सरकार को आय की प्राप्ति होती है उत्पादक ऋण माने जाते हैं। ऐसे ऋण जिनके प्रयोग के पश्चात् सरकार को आय की प्राप्ति नहीं होती अनुत्पादक ऋण कहलाते हैं।

निधिक ऋण एवं आवधिक ऋण

निश्चित एवं दीर्घकालिक ऋण निधिक ऋण कहलाते हैं। इनके भुगतान के लिए एक निधि बनाई जाती है जिससे सरकार द्वारा प्रतिवर्ष धन जमा किया जाता है। निर्धारित अवधि पूर्ण होने पर जमा राशि से ऋण का भुगतान किया जाता है। दूसरी ओर अनिधिक ऋण अल्प-अवधि के ऋण होते है, जिनका भुगतान वर्तमान प्राणियों से किया जाता है।

शोध्य एवं अशोध्य ऋण

ऐसे सार्वजनिक ऋण जिनके भुगतान का वायदा सरकार एक निश्चित अवधि के अंदर करती है, शोध्य ऋण कहलाते हैं। इन ऋणों पर सरकार द्वारा नियमित रूप से ब्याज का भुगतान किया जाता है, और वापिस करना पड़ता है। जबकि अशोध्य ऋण में मूलधन को वापिस करने की चिन्ता नहीं रहती परन्तु इसके ब्याज का नियमित भुगतान सरकार को करना पड़ता है।

विकासशील देशों में सार्वजनिक ऋण में वृद्धि के कारण

• विकासशील देशो में सतत् एवं सुदृढ़ आर्थिक विकास हेतु पर्याप्त साधन नहीं होते। अतः सार्वजनिक क्षेत्रों में विनियोग आवश्यकता की पूर्ति हेतु इन देशों द्वारा बड़ी मात्रा में सार्वजनिक ऋण लिए जाते हैं।

उत्पादन क्षमता में अभिवृद्धि तथा वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु इन राष्ट्रों में अधिक ऋण लिया जाता हैं।

• सार्वजनिक ऋण को बचत सक्रिय करने तथा आर्थिक स्थिरता के महत्त्वपूर्ण अस्त्र के रूप में देखा जाता है। इन देशों ने इस परिप्रेक्ष्य में भी अधिक ऋण लिए।

• सभी देश घाटे की वित्त व्यवस्था एवं करारोपण का प्रयोग एक सीमा के अंदर ही कर सकते हैं जबकि सार्वजनिक ऋण आय का ऐसा स्रोत माना जाता है जिससे सामाजिक असंतुष्टि में अभिवृद्धि नहीं होती।

भारत में सार्वजनिक ऋण में वृद्धि के कारण

स्वतंत्रता के पश्चात् तीव्र और संतुलित आर्थिक विकास के सत्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से योजनाबद्ध विकास की रणनीति को अपनाया गया जिसके लिए पूँजी की आवश्यकता पड़ी। अपर्याप्त घरेलू संसाधनों की वजह से आंतरिक व बाह्य ऋण लिए गए। परन्तु सहायता का सही प्रयोग न होने के कारण ऋणों का भुगतान न हो सका।

• भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक व्यय की अधिकता एवं तुलनात्मक रूप से सार्वजनिक आय की कमी से उत्पन्न घाटे की वित्तीय अवस्था के लिए भी बड़ी मात्रा में आंतरिक ऋणों का आश्रय लिया गया।

सन् 1968 के पूर्व आतंरिक सार्वजनिक ऋण में अल्पकालीन प्रतिभूतियों का अंश अधिक था। फलत: तरलता बढ़ने के कारण स्फीतिजनक प्रवृत्ति उत्पन्न होने का संकट था परन्तु इसके साथ यही भी सत्य था कि इस प्रवृत्ति के कारण आज भुगतान का भार कम था। परन्तु सन् 1968 के पश्चात् दीर्घकालीन प्रतिभूतियों के अंश में वृद्धि हुई परिणामतः ब्याज अदायगी का बोझ भी तेजी से बढ़ा।

• मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाने के कारण सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की गई। सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश के लिए सार्वजनिकऋण लिए गए।

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