देश
अथवा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति, प्रकार, आर्थिक विकास के स्तर आदि की
जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यद्यपि किसी भी राष्ट्र में क्षेत्रीय
आधार पर भिन्न-भिन्न भौतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों के कारण व्यवसायगत वैविध्य
मिलता है। परिणामस्वरूप क्षेत्रीय व्यवसायगत वैविध्य अथवा विभिन्नता का कारणयुक्त
तुलनात्मक अध्ययन, क्षेत्र के सम्पूर्ण नियोजन के लिए ठोस आधार प्रस्तुत करता है।
इसके लिए जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना को अध्ययन आवश्यक हो जाता है। इन प्राथमिक
संसाधनों के प्रयोग का व्यापारीकरण प्रमुख रूप से व्यवसायों की विविधता को
निर्धारित करता है। औद्योगिक तथा प्राविधिक विकास भी कई तरह के व्यवसायों को
विकसित करते हैं। कभी-कभी राजनीतिक प्रणालियाँ भी व्यवसायों की संरचना को नियंत्रित
करती हैं।
मानवीय
विज्ञानों में सामाजिक-आर्थिक विकास के मापदण्ड के रूप में व्यावसायिक संरचना के
अध्ययन को प्रयोग में लाया जाता है। सभ्यता के विकास स्तर का निश्चित व्यवसायगत
विभिन्नता के आधार पर कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त करते हैं।
उपरोक्त
अध्ययन के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है कि व्यवसायगत वैविध्य, विभिन्न देशों में
भौतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों से परिलक्षित होता है। अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर इन व्यवसायों की क्रमवार सूची पर्याप्त लम्बी हो जाएगी चूँकि एक ही देश
में क्षेत्रीय आधारों पर व्यवसायों की पर्याप्त विषमता मिलती है। 1951 में
इंग्लैण्ड और वेल्स में जनगणना विभाग ने 40,000 व्यवसायों का वर्णन किया था।
भारतीय जनगणना विभाग भी 1,000 व्यवसायों को मान्यता देता है। इसलिए स्पष्ट हो जाता
है कि जनांकिकीय जनसंख्या भूगोल के लिए इन व्यवसायों का वर्गीकरण एक समस्या है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा व्यवसायों का निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया गया।
(i)
सेवा, खेल एवं मनोरंजन कार्य में संलग्न लोग;
(ii)
प्रबन्ध, अधिशासी और प्रशासनिक कार्य करने वाले;
(iii)
पेशेवर तकनीकी एवं संबंधित कार्य करने वाले लोग;
(iv)
क्राफ्टमैन, उत्पादन-प्रक्रिया में संलग्न लोग तथा अवर्गीकृत श्रमिक; और
(v)
कृषि, मत्स्यपालक, आखेटक, काश्तकार और संबंधित कार्य करने वाले
(vi)
लिपिक
(vii)
सैनिक;
(viii)
विक्रय-कार्य:
(ix)
परिवहन एवं संचार कार्य करने वाले;
(x)
खनन एवं संबंधित कार्य करने वाले;
(xi)
व्यावसायिक आधार पर अवर्गीकृत श्रमिक।
किसी
समाज, देश अथवा व्यक्ति विशेष का व्यावसायिक स्तर पर सामाजिक आर्थिक स्तर से प्रत्यक्ष
सम्बद्ध होता है। सामाजिक-आर्थिक विकासक्रम के अनुरूप व्यवसाय भी परिवर्तित होता रहता
है। प्रायः विकसित और उन्नत देशों में इसीलए व्यवसायिक विभिन्नता पाई जाती है। व्यवसायिक
स्तर और सामाजिक निर्माण के आधार पर विश्व-समाज का विभाजन निम्न रूपों में किया जाता
है-
(i)
प्राथमिक ग्रामीण समाज, जो आदिवासी सभ्यता से प्रभावित हो- अफ्रीका और भारत के आदिवासी
(ii)
विभिन्न परम्परा, तकनीक एवं जीवन स्तर युक्त औपनिवेशिक समाज जो अफ्रीका के उत्तरी तथा
दक्षिणी भाग में पाया जाता है;
(iii)
परम्परागत पश्चिमी ग्रामीण समाज जिसमें ग्रामीण कृष्येत्तर जनसंख्या का उच्च प्रतिशत
हो, उदाहरण के लिए-पश्चिमी जर्मनी में; और
(iv)
उच्च जीवन स्तर वाले अल्प ग्रामीण जनसंख्यायुक्त समाज जिसमें बहुसंख्यक लोगों का पेशा
वाणिज्य तथा व्यवसाय हो, उदाहरण के लिए-आस्ट्रेलिया में।
(v)
कृषि श्रमिक की बाहुल्यता वाला ग्रामीण समाज;
(vi)
जमींदार एवं खेतिहर युक्त ग्रामीण समाज, जैसे-इराक तथा ईरान में;
(vii)
औद्योगिक समाज जिसमें स्पष्ट नगरीकरण तथा वर्ग विभेद दृष्टिगत हो;
(viii)
साम्यवादी समाज जहाँ जीवन स्तर में अधिक भिन्नता रहती है; जैसे-सोवियत संघ;
(ix)
साम्यवादी समाज जहाँ जीवनस्तर में अल्प भिन्नता हो, यथा-यूगोस्लाविया और चीन;
यहाँ
उल्लेखनीय है कि प्राविधिक विकास के स्तर के अनुसार इन समाजों में परिवर्तन की दर भी
अलग-अलग रही है, पूर्वापक्ष अथवा समाज संरचनात्मक आधार पर बदलाव हो चुके हैं। इस तरह
इसके आधार पर व्यवसायों का सामान्यीकरण उपयुक्त नहीं हो सकता इसीलिए व्यवसायिक संरचना
का वर्तमान आर्थिक कार्यों के अनुसार ही बँटवारा किया जाना अधिक उपयुक्त है।
औद्योगिक वर्गीकरण- राष्ट्रसंघ ने निम्नलिखित
9 औद्योगिक कार्यों का वर्गीकरण किया है-
(a)
निर्माण उद्योग;
(b)
यातायात/परिवहन, संग्रहण एवं संचार;
(c)
सेवाएँ
(d)
खान तथा खदान संबंधी कार्य; और
(e)
कृषि, जंगल लगाना, शिकार और मत्स्यपालन
(f)
निर्माण;
(g)
वाणिज्य;
(h)
बिजली, गैस, जल तथा स्वास्थ्य सेवाएँ;
(i)
अवर्गीकृत;
वर्तमान
समय में सामान्यतः जनगणनाएँ राष्ट्रसंघ के मानकों के अथवा उनके द्वारा सुझाए गए प्रारूपों
के अनुसार ही की जाती हैं और प्रत्येक सदस्य राष्ट्र के जनसंख्या आँकड़े भी उसी रूप
में प्रेषित करता है। 1971 में भारतीय जनगणना विभाग ने निम्न प्रकार का वर्गीकरण अपनाया
था।
(a)
खनन और खदान संबंधी कार्य,
(b)
निर्माण उद्योग प्रक्रिया और मरम्मत कार्य-
(i)
पारिवारिक उद्योग, (ii) पारिवारिक उद्योगों के अतिरिक्त;
(c)
व्यापार और वाणिज्य;
(d)
पशुपालन, जंगल लगाना, मछली पकड़ना, शिकार करना, बगीचे लगाना और संबंधित कार्य;
(e)
रूप सेवाएँ
(f)
निर्माण कार्य
(g)
काश्तकार;
(h)
खेतिहर मजदूरः
(i)
यातायात, संग्रहण और संचार।
इस
वर्गीकरण की श्रेणियों को तीन आधार पर विकास कार्यों का वर्णन निम्न प्रकार है।
(1) प्राथमिक कार्य- सम्पूर्ण विश्व में विकास
क्रम के इस प्रतिरूप का विकास एक साथ न होकर क्रमशः हुआ कहीं क्रमशः तीनों स्थितियाँ
जल्दी से आ गई और कहीं देर से। अभी तक अफ्रीका, एशिया प्राथमिक कार्यों को पूरा कर
द्वितीयक कार्यों की ओर अग्रसर हैं। और दक्षिणी अमेरिका के देशों में जनसंख्या के विभिन्न
प्रभाग प्राथमिक कार्यों को ही कर रहे हैं। कुछ देश
(2) द्वितीयक कार्य- द्वितीयक कार्यों में कार्यरत
जनसंख्या का बढ़ता हुआ भाग वर्तमान युग की एक विशेषता है और एक तरह से यह आर्थिक विकास
के बदलाव का सूचक है। इसमें यांत्रिक परिश्रम के प्रयोग भी बढ़ रहे हैं, इसलिए द्वितीयक
कार्यों में वृद्धि किसी देश की आर्थिक संभावना शक्ति को निर्देशित करती है।
(3) तृतीयक कार्य- तृतीयक कार्यों में वृद्धि
राष्ट्रीय सुख और समृद्धि के उच्च स्तर को व्यक्त करती है। यहाँ जैसा कि टिवार्था ने
संकेत किया है कि “तृतीयक कार्यों में अप्रत्याशित वृद्धि, द्वितीयक कार्यों की कमी,
राष्ट्रीय समृद्धि और विकास को स्थायित्व नहीं प्रदान कर सकते हैं," इसीलिए तीनों
कार्यवर्गों में संतुलन का होना जरूरी है। यह सही है कि लैटिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका
के अनेक देशों में प्राथमिक कार्यों में संलग्न जनसंख्या 50 से 80 प्रतिशत तक है लेकिन
अब यह प्रतिशत विकास क्रम के अनुरूप समाप्ति है; जबकि उत्तरी अमेरिका के देशों में
प्राथमिक कार्यों में लगी जनसंख्या 10 से 15 प्रतिशत है। इन दो श्रेणियों के देशों
के बीच की स्थिति यूरोपीय देशों, आस्ट्रेलिया, सोवियत रूस आदि की ही है।
पिछले
दो दशकों के दौरान भारत में, द्वितीयक और तृतीयक कार्यों में भी जनसंख्या वृद्धि हुई
है। भारत के सन्दर्भ में तथ्य यह है कि यहाँ तृतीयक कार्यों में द्वितीयक कार्यों से
अधिक जनसंख्या कार्यरत है। सही मायने में तृतीयक कार्यों में वृद्धि द्वितीयक कार्यों
में क्रमबद्ध विकास का प्रतिफल नहीं है, प्रायः आयातित अर्थव्यवस्था का परिणाम है,
इसलिए तृतीयक कार्यों में हुई असन्तुलित वृद्धि को प्रायः जनांकिकीय दबाव माना जाता
है। यही वजह है कि कम विकसित देशों में तुलनात्मक रूप से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था
की तुलना काफी मन्द गति से बदलाव आया है।
संक्षेप
में यह माना जा सकता है कि व्यवसायों और औद्योगिक कार्यों का प्राथमिक, द्वितीयक और
तृतीयक कार्यों में विभाजन जनसंख्या के आर्थिक संरचना का तुलनात्मक विश्लेषण करने में
सहायक है।
भारतीय
जनसंख्या की निम्नलिखित व्यावसायिक विशेषताएँ परिलक्षित होती है-
(i)
भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि है, जिसमें सम्प्रति लगभग 66.69% जनसंख्या संलग्न है।
(ii)
जनसंख्या के सर्वाधिक प्रतिशत की संलग्नता के बावजूद भारतीय कृषि पिछड़ी अवस्था में
है।
(iii)
भारत में औद्योगिक जनसंख्या 5% से कम है, जो विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है।
(iv)
यहाँ निर्माण कार्यों में लगी जनसंख्या (1.1%) भी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम
है।
(v)
यहाँ व्यापार एवं वाणिज्य में 6% जनसंख्या संलग्न है, जबकि ब्रिटेन, जापान एवं संयुक्त
राज्य अमेरिका में क्रमशः 14.1%, 16.5% तथा 19.00% जनसंख्या की संलग्नता है।
(vi)
भारत के परिवहन एवं संचार कार्यों में लगभग 2.5% जनसंख्या लगी है, जबकि संयुक्त राज्य
अमेरिका में 77%, ब्रिटेन 7.1% में तथा जापान में 7.4% जनसंख्या उक्त कार्य में संलग्न
है। यद्यपि यहाँ इन कार्यों में जनसंख्या अधिक बढ़ रही है।
उपर्युक्त
विश्लेषण से स्पष्ट है कि भारत की जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण संतुलित नहीं है।
क्रियाशील एवं अक्रियाशील जनसंख्या-
भारत
जैसे देश में आर्थिक दृष्टि से सक्रिय या निष्क्रिय जनसंख्या में कोई आधारयुक्त महत्वपूर्ण
विभाजन नहीं किया गया है। यहाँ जनसंख्या को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है-
(1) क्रियाशील जनसंख्या के अन्तर्गत वह जनसंख्या शामिल
की जाती है, जो शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से आर्थिक उत्पादन कार्य में संलग्न होती
है। ऐसे कार्यों में वे लोग भी सम्मिलित किये जाते हैं, जो कार्य-निर्देशन एवं देखभाल
में लगे हैं।
सन्
2001 की जनगणना में सप्ताह भर या सप्ताह में एक दिन भी कार्य में लगे लोगों को क्रियाशील
जनसंख्या में सम्मिलित किया गया है।
(2) अक्रियाशील जनसंख्या में ऐसे लोगों को सम्मिलित
किया जाता है जो गृहकार्य (मुख्य रूप से घर में रहने वाली स्त्रियाँ) शिक्षा प्राप्त
करने वाले (विद्यार्थी) तथा बिना किसी आर्थिक क्रियाशीलता के आय प्राप्त करने वाले
लोग (किराया प्राप्त करने वाले लोग, पेंशन भोगी आदि) एवं चोर, पाकेटमार, कैदी एवं भिखारी
आदि है।
भारत
में क्रियाशील जनसंख्या के वितरण में पर्याप्त क्षेत्रीय भिन्नता पाई जाती है। तमिलनाडु,
महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, ओड़ीसा तथा राजस्थान राज्यों में
क्रियाशील जनसंख्या का अनुपात देश के औसत अनुपात से अधिक पाया जाता है; जबकि जम्मू
व कश्मीर, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल में औसत अनुमान कम
पाया जाता है। क्रियाशील जनसंख्या का सर्वाधिक (56.36%) तमिलनाडु सबसे कम प्रतिशत
(40.77%) केरल में पाया जाता है। देश के औसत अनुपात से कम अनुपात वाले राज्यों में
केरल, उत्तरप्रदेश, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल मुख्य
है तथा औसत से अधिक प्रतिशत वाले राज्यों में तमिलनाडु, सिक्किम, मेघालय, ओड़ीसा, गुजरात,
आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र प्रमुख हैं।
निष्कर्ष
रूप में कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश की क्रियाशील जनसंख्या
के स्वरूप में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है। कृषि एवं उससे संबंधित व्यवसाय
में संलग्न जनसंख्या के अनुपात में कमीमंद गति से परिलक्षित होती है। 1901 से 2011
के मध्य क्रियाशील जनसंख्या में लगभग 6% की वृद्धि तथा अक्रियाशील जनसंख्या में भी
लगभग 6% की कमी आई है।
ग्रामीण
एवं नगरीय स्तर पर भी क्रियाशील जनसंख्या में अत्यधिक विभेद दृष्टिगत होता है। नगरों
में अल्प प्रतिशत के लिए वहाँ पाये जाने वाले समाज की अर्थव्यवस्था की प्रकृति उत्तरदायी
है। नगरीय कार्यों में शिक्षा तथा कुशलता की अधिक आवश्यकता होने के कारण नौकरी प्राप्त
करने का समय बढ़ जाता है। पुनः ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरों में बच्चों की
कार्य सहभागिता बहुत ही कम होती है, जिसके कारण भी क्रियाशील जनसंख्या अनुपात में अन्तर
दृष्टिगोचर होता है।
विभिन्न
कार्यों में लगे लोगों के प्रतिशत की दृष्टि से प्राथमिक कार्यों में भारत की सर्वाधिक
जनसंख्या संलग्न है। काश्तकार तथा खेतिहर मजदूर दोनों मिलकर 66.5 प्रतिशत (1991) की
सहभागिता निश्चित करते हैं, जबकि 2001 में यह प्रतिशत घटकर 58.2% हो गया है। द्वितीयक
कार्यों के अतिरिक्त विविध कार्यों में जनसंख्या प्रतिशत बढ़कर 37.6% हो गया है। क्षेत्रीय
वितरण की दृष्टि से देश के 80 प्रतिशत जनपदों में कृषि ही लोगों का प्रमुख कार्य है।
शेष जनपदों के अधिकांश में कृषि मजदूरों का प्रतिशत प्रथम स्थान पर आता है। वस्तुतः
ऐसे प्रतिरूप के लिए हमारी सामाजिक संरचना, आर्थिक स्वरूप तथा कृषि में आई हरित क्रांति
के फलस्वरूप किराये के कृषि मजदूरों की माँग में वृद्धि तथा कृषि का व्यापारीकरण प्रमुख
कारण है।
भारत
में क्रियाशील जनसंख्या का बदलता अनुपात
वर्ष |
वर्ग |
व्यक्ति % |
पुरुष % |
स्त्री % |
1971 |
कुल |
34.17 |
52.75 |
14.22 |
ग्रामीण |
35.33 |
53.78 |
15.92 |
|
नगरीय |
29.61 |
48.88 |
07.18 |
|
1981 |
कुल |
36.70 |
52.62 |
19.67 |
ग्रामीण |
38.79 |
53.77 |
23.06 |
|
नगरीय |
29.99 |
49.06 |
08.31 |
|
1991 |
कुल |
37.68 |
51.56 |
22.73 |
ग्रामीण |
40.24 |
52.50 |
27.20 |
|
नगरीय |
30.44 |
48.95 |
09.74 |
|
2001 |
कुल |
39.11 |
51.67 |
25.62 |
2011 |
कुल |
47.14 |
57.84 |
31.82 |
विभिन्न पारिवारिक उद्योगों के अंतर्गत देश की मात्र 4.2 प्रतिशत क्रियाशील जनसंख्या आती है तथा इसका संकेन्द्रण जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा आन्ध्रप्रदेश के साथ ही लक्षद्वीप तथा मणिपुर में अधिकतम है। अन्य क्रियाकलापों में लगभग 37 प्रतिशत जनसंख्या संलग्न है। जम्मू और कश्मीर तथा पश्चिम बंगाल में क्रमशः 45 तथा 48 प्रतिशत क्रियाशील जनसंख्या संदर्भित वर्ग के अन्तर्गत आती है, जबकि चण्डीगढ़, दिल्ली, दमन दीव, लक्षद्वीप, गोवा एवं केरल में क्रमशः 98%, 55%, 91%, 94%, 80%, व 73%, जनसंख्या अन्य क्रियाकलापों में संलग्न है।