Section
- A खण्ड-क
( अति लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें। 2x5= 10
1. "भारत छोड़ो आंदोलन" कब और कहाँ से प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर:
भारत छोड़ो आन्दोलन, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त 1942 को आरम्भ किया गया था।
यह आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुम्बई अधिवेशन में
शुरू किया गया था।
2. पानीपत का दूसरा युद्ध कब और किसके बीच लड़ा
गया ?
उत्तर:
पानीपत का दूसरा युद्ध 5 नवम्बर 1556 को उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र
विक्रमादित्य (लोकप्रिय नाम- हेमू ) और अकबर की सेना के बीच पानीपत के मैदान में लड़ा
गया था।
3. संविधान निर्मात्री सभा के स्थायी अध्यक्ष कौन
थे ?
उत्तर:
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान निर्मात्री सभा के स्थायी अध्यक्ष थे
4. संथाल विद्रोह के प्रमुख नेता कौन थे ?
उत्तर:
संथाल विद्रोह के नेता सिंधु, कान्हू, चाँद और भैरव थे
5. जालियाँवाला बाग हत्याकांड कब और कहाँ हुआ था ?
उत्तर:
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट
जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था।
6. 1857 की क्रांति के समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था ?
उत्तर:
1857 के विद्रोह के दौरान लॉर्ड कैनिंग भारत के गवर्नर-जनरल (1856 - 1860) थे।
7. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापारिक गतिविधि का प्रथम
केन्द्र की स्थापना कहाँ की ?
उत्तर:
1615-18 ई. में सम्राट जहाँगीर के समय ब्रिटिश नरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस
रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद
ही कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारख़ानें
स्थापित किये।
Section
- B खण्ड-ख
(
लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें। 3x5=15
8. मनसबदारी व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: फ़ारसी में 'मंसबदार' का अर्थ है मंसब (पद
या श्रेणी) रखनेवाला। मुगल साम्राज्य में मंसब से तात्पर्य उस पदस्थिति से था जो बादशाह
अपने पदाधिकारियों को प्रदान करता था। मंसब दो प्रकार के होते थे, 'जात' और 'सवार'।
मंसब की प्रथा का आरंभ सर्वप्रथम अकबर ने सन् 1575 में किया।
मनसबदारी प्रणाली मुगल काल में प्रचलित एक प्रशासनिक
प्रणाली थी जिसे अकबर ने आरम्भ किया था। 'मनसब' मूलतः अरबी शब्द है जिसका अर्थ 'पद'
या 'रैंक' है। मनसब शब्द, शासकीय अधिकारियों तथा सेनापतियों का पद निर्धारित करता था।
सभी सैन्य तथा असैन्य अधिकारियों की मनसब निश्चित की जाती थी जो अलग-अलग हुआ करती थी।
मनसब के आधार पर अधिकारियों के वेतन और भत्ते निर्धारित होते थे।
9. प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस कब और क्यों मनाया गया था ?
उत्तर:
प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस 16 अगस्त, 1946 ई. को मनाया था। दरअसल लॉर्ड वेवल ने
1946 ई. में काँग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों को अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित
किया था। काँग्रेस ने वेवल के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, परंतु मुस्लिम लीग अपनी
जिद पर अड़ी रही। अप्रैल, 1946 ई. में दिल्ली में मुस्लिम लीग का अधिवेशन हुआ तथा घोषणा
की गयी कि लीग पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए 16 अगस्त, 1946 ई. को प्रत्यक्ष कार्यवाही
दिवस (Direct Action Day) मनायेगी। इसके परिणामस्वरूप 16 अगस्त, 1946 को कलकत्ता में
व्यापक हिंसा व रक्तपात हुआ। कलकत्ता के नोआखाली में दंगा हुआ, जिसमें सैकड़ों निर्दोष
लोग मारे गये। गाँधी जी ने वहाँ जाकर अनशन किया और तब जाकर ये नरसंहार रुक सका।
10. 1857 की क्रांति के तात्कालिक कारणों की चर्चा करें ।
उत्तर: 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह
अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह
अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये
राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं। 29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पांडे नाम
के एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफसरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया
11. गाँधीजी के चम्पारण सत्याग्रह पर प्रकाश डालें ।
उत्तर:
चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह
और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया.
यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे. इसी
आंदोलन के बाद उन्हें 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया गया.
12. हड़प नीति क्या थी?
उत्तर: व्यपगत का सिद्धान्त या हड़प नीति (अँग्रेजी:
The Doctrine of Lapse, 1848-1856)।पैतृक वारिस के न होने की स्थिति में सर्वोच्च सत्ता
कंपनी के द्वारा अपने अधीनस्थ क्षेत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की नीति व्यपगत
का सिद्धान्त या हड़प नीति कहलाती है। यह परमसत्ता के सिद्धान्त का उपसिद्धांत था,
जिसके द्वारा ग्रेट ब्रिटेन ने भारतीय उपमहाद्वीप के शासक के रूप में अधीनस्थ भारतीय
राज्यों के संचालन तथा उनकी उत्तराधिकार के व्यवस्थापन का दावा किया।
13. भारतीय संविधान के दो प्रमुख अवसाद कौन से थे ?
उत्तर:
भारतीय संविधान के मुख्य मतभेद (अवसाद) निम्न हैं-
1.
नागरिकों के अधिकारों का प्रश्न: नागरिक अधिकारों के निर्धारण में मुख्यतया कुछ प्रश्नों
(बातों) जैसे-अल्पसंख्यकों, शोषित वर्गों को किस प्रकार परिभाषित किया जाए तथा इन वर्गों
को कौन से विशेषाधिकार प्रदान किये जायें, इत्यादि विषयों पर संविधान सभा में रोचक
तथा महत्वपूर्ण वाद-विवाद हुए।
2.
राष्ट्रभाषा का प्रश्न: भारत भौगोलिक दृष्टि से एक विशाल देश है। देश में सांस्कृतिक
दृष्टि से भी विभिन्नताएं विद्यमान है। यहां पर विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोग निवास
करते हैं। जब समस्त देश एकता के सूत्र में बँध रहा हो तो इसके लिए एक राष्ट्रभाषा का
होना अनिवार्य है किन्तु भारत जैसे भाषायी विभिन्नता वाले देश में इस प्रश्न का समाधान
आसानी से नहीं किया जा सकता था।
14. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में "डांडी मार्च" के महत्व
का वर्णन करें ।
उत्तर: नमक कानून के खिलाफ शुरू हुआ था दांडी सत्याग्रह।
इसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों द्वारा लागू नमक कानून के विरुद्ध सविनय कानून को भंग
करना था। दरअसल अंग्रेजी शासन में भारतीयों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था। उन्हें
इंग्लैंड से आने वाला नमक का ही इस्तेमाल करना पड़ता था। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने
इस नमक पर कई गुना कर भी लगा दिया था। लेकिन नमक जीवन के लिए आवश्यक वस्तु है इसलिए
इस कर को हटाने के लिए गांधी ने यह सत्याग्रह चलाया था।
Section
- C खण्ड-ग
(दीर्घ
उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
तीन प्रश्नों के उत्तर दें। 5x3 = 15
15. 1857 के विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारणों की चर्चा करें ।
उत्तर: 1857 के विद्रोह की भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम
संग्राम माना जाता है। क्रांति का संगठन करने के लिए छावनियों मे रोटी व कमल के प्रतीकों
का व्यापक प्रचार किया गया, यह एक मौलिक सूझ थी। रोटी के प्रचार का यह संकेत था कि
भारतीय पेट के इतने गुलाम बने है कि आजादी की रोटी को कमाने की बात भूल बैठे। कमल के
प्रचार का यही अर्थ था कि उन्हें अपने देश मे खुशहाली लाना है।
1857 की क्रांति की असफलता के प्रमुख कारण निम्म थे--
1. संगठन और एकता का अभाव- 1857 के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम के असफल रहने के पीछे संगठन और एकता का अभाव प्रमुख रूप से उत्तरदायी रहा।
इस क्रांति की न तो कोई सुनियोजित योजना ही तैयार की गई न ही कोई ठोस कार्यक्रम था।
इसी कारण यह सीमित और असंगठित बन कर रह गया।
2. नेतृत्व का अभाव- क्रांतिकारियों के पास यद्यपि
नाना साहब, तात्याटोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे आदि योग्य नेता थे, किन्तु फिर
भी इस आंदोलन का किसी एक व्यक्ति ने नेतृत्व नही किया जिस कारण से यह आंदोलन अपने उद्देश्य
मे पूर्णतः सफल नही हो सका।
3. परम्परावादी हथियार- प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
मे भारतीय सैनिकों के पास आधुनिक हथियार नही थे जबकि अंग्रेज सैनिक पूर्णतः आधुनिक
हथियार व गोला-बारूद का उपयोग कर रहे थे। भारतीय सैनिक अपने परम्परावादी हथियार तलवार,
तीर-कमान, भाले-बरछे आदि के सहारे ही युद्ध के मैदान मे कूद पड़े थे जो उनकी पराजय
का कारण बना।
4. सामन्तवादी स्वरूप- 1857 के संग्राम मे एक ओर अवध,
रूहेलखण्ड आदि उत्तरी भारत के सामन्तों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया तो दूसरी
ओर पटियाला, जींद, ग्वालियर हैदराबाद के शासकों ने विद्रोह के उन्मूलन मे अंग्रेजी
हुकूमत को सहयोग किया। इस तरह यह स्वतंत्रता संग्राम अपने उद्देश्य मे सफल नही हो सका।
5. बहादुरशाह द्वितीय की अनभिज्ञता- क्रांतिकारियों
द्वारा बहादुरशाह द्वितीय को अपना नेता घोषित करने के बावजूद भी बहादुरशाह के लिए यह
क्रांति उतनी ही आकस्मिक थी जितनी कि अंग्रेजों के लिए थी। यही कारण था कि अंततः बहादुरशाह
को लेफ्टीनेण्ट हडसन ने बंदी बना कर रंगून भेज दिया।
6. समय से पूर्व और सूचना प्रसार मे असफल क्रांति-
1857 की क्रान्ति का असफलता का एक बड़ा कारण यह भी था कि यह क्रांति समय से पूर्व ही
प्रारंभ हो गयी। यदि यह क्रांति एक निर्धारित कार्यक्रम के तहत लड़ी जाती तो इसकी सफलता
के अवसर ज्यादा होते। इसी तरह आंदोलन के प्रसार-प्रचार मे भी क्रांतिकारी नेतृत्व असफल
रहा। इसका असर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर गहराई से पड़ा।
7. स्थानीयता- 1857 की क्रान्ति मे स्थानीय उद्देश्य
होने से आम भारतीयों का व्यापक जुड़ाव इसमे नही हो सका। इस समय केवल उन्हीं शासकों
ने क्रांति मे हिस्सा लिया जिनके हित सामने आ रहे थे। 1857 की क्रान्ति की असफलता का
यह भी एक कारण था।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे यद्यपि पराजय
का सामना करना पड़ा किन्तु इस क्रांति के बड़े गहरे व दूरगामी परिणाम सामने आये जो
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास मे भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। क्रांति
ने अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया था।
16. स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं के बारे में लिखें
।
उत्तर:
स्थाई बन्दोबस्त (1793)-बंगाल में बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा बनारस खण्ड, उत्तरी
कर्नाटक तथा उत्तर प्रदेश के बनारस खण्ड में लगभग 19% भाग इसके अन्तर्गत था।
स्थायी
बन्दोबस्त की विशेषताएँ -
1.सरकार
ने जमींदारों से सिविल और दीवानी सम्बन्धित मामले वापस ले लिये।
2.
जमींदारों को लगान वसूली के साथ-साथ भूमि स्वामी के अधिकार भी प्राप्त हुये।
3.सरकार
को दिये जाने वाले लगान की राशि को निश्चित कर दिया गया जिसे अब बढ़ाया नहीं जा सकता
था।
4.
जमींदारों द्वारा किसानों से एकत्र किये हुये भूमि कर का 10/11 भाग सरकार को देना पड़ता
था। शेष 1/11 भाग अपने पास रख सकते थे।
5.
सरकार द्वारा निश्चित भूमि कर की अदायगी में जमींदारों की असमर्थता होने पर सरकार द्वारा
उसकी भूमि का कुछ भाग बेचकर यह राशि वसूल की जाती थी।
6.
भूमिकर की निश्चित की गई राशि के अलावा सरकार को कोई और कर या नजराना आदि जमींदारों
को नहीं चुकाना होता था।
7.
किसानों और जमींदारों के आपसी विवादों में सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी ऐसा कहा
गया था।
17. मुग़ल प्रशासन का विवरण दें।
उत्तर:
मुगल प्रशासन
मुगल
प्रशासन भारतीय तथा विदेशी प्रणालियों के मिश्रण से बना था। यह भारतीय वातावरण में
अरबी फारसी प्रणाली थी।
बादशाहः
शासन प्रशासन का सर्वेसर्वा होता था। वह प्रधान सेनापति, न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च
अधिकारी, इस्लाम का संरक्षक तथा जनता का आध्यात्मिक नेता होता था। सिद्धांत रूप में
बादशाह की शक्ति असीमित होती थी, परंतु वह अपनी प्रजा की इच्छा का ध्यान रखते हुए स्वयं
के द्वारा नियुक्त सलाहकारों की सम्मति से शासन करता था।
वकील
ए मुल्क : बादशाह के बाद वकील ही सबसे बड़ा अधिकारी होता था। एक तरह से सभी विभागों
का अध्यक्ष होता था। इसे मंत्रियों को नियुक्त करने तथा हटाने का भी अधिकार था। धीरे
धीरे इसके अधिकारों में कमी कर दिया गया। बैरम खां के बाद वकील के पद को ही समाप्त
कर दिया गया।
दीवान
: यह वित्त तथा आर्थिक मामलों के संबंध में बादशाह को सलाह देता था।
मीर
बख्शी : यह सैनिक प्रशासन का प्रधान होता था जो सेना में नियुक्ति, वेतन, मनसबदारों
की सेनाओं का निरीक्षण आदि कार्य देखता था।मीर बख्शी सेनापति नहीं होता था।
काजी
उल कुजात : यह प्रधान काजी या न्यायाधीश होता था जो इस्लामी कानून के आधार पर फैसला
करता था।
सद्र
उस सुदूर : प्रधान सद्र शाही परिवार के द्वारा विद्वानों, उलेमाओं, फकीरों, साधु संतों
आदि को दिए जाने वाले दान और शासकीय सहायता से संबंधित मामलों की देख रेख करता था।
मीर
समा : यह राजमहल, हरम (शाही परिवार की महिलाओं का निवास स्थान), रसोई तथा कारखानों
का प्रबंधक होते थे।
प्रांतीय
शासन
मुगल
काल में प्रांतों को सूबा कहा जाता था, अकबर के शासनकाल के अंतिम समय में सूबों की
संख्या 15 थी जो औरंगजेब के समय बढ़कर 21 हो चुकी थी।
सूबेदार
: यह सूबे का प्रमुख तथा बादशाह द्वारा नियुक्त उसका प्रतिनिधि होता था।
दीवान
: सूबे का दीवान सूबेदार के नियंत्रण में नहीं रह कर केंद्रीय दीवान के अधीनस्थ होता
था। इसी प्रकार सूबे का अपना काजी तथा बख्शी भी होता था।
कोतवाल
: थाना स्तर पर पुलिस अधिकारी होता था।
जिला
मुगल प्रशासन
प्रत्येक
सूबा कई जिलों में बंटा होता था। जिला को सरकार कहा जाता था।
फौजदार
: जिले का सैनिक अधिकारी होता था जिसके अधीन सैनिकों का एक दल होता था।यह जिले में
शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होता था।
अमलगुजार
: यह जिला स्तर पर राजस्व अधिकारी होता था जो किसानों को कर्ज बांटने तथा वसूल रकम
को शाही खजाने में जमा करने का काम करता था।
बितिकची
अमलगुजार का सहायक होता था जो कृषि संबंधी रिकॉर्ड और आंकड़े रखता था।
शिकदार
परगना का मुख्य अधिकारी होता था।
फोतदार
परगने के खजांची को कहते थे।
सैन्य
प्रशासन
बादशाह
प्रधान सेनापति होता था। सेना के प्रायः तीन रूप थे-
1.
मनसबदारों की फौजें,
2.
अहदी वे सिपाही होते थे जिन्हें मनसब में नहीं रखा गया हो, तथा
3.
राजपूतों की सहायक सेनाएं।
ये
सभी सेनाएं युद्ध में बादशाह की ओर से लड़ती थीं।
सेना
के पांच विभाग थे-
1.
पैदल,
2.
घुड़सवार,
3.
हाथी,
4.
तोपखाना में बड़ी भारी तोपें भी होती थी जिन्हें जिन्सी कहा जाता था जबकि दस्ती तोपखाने
में हल्की तोपें और बंदूकें होती थीं।
5.
जलसेना- मुगलों के पास नियमित जलसेना नहीं होती थी। पश्चिमी तट की रक्षा का भार अबीसीनियनों
और जंजीरा के सिद्दियों को दे रखे थे।
18. असहयोग आंदोलन का प्रारंभ, कार्यक्रम तथा प्रगति का वर्णन करें
।
उत्तर:
प्रारम्भ में गांधीजी ब्रिटिश शासन के प्रति सहयोग करने के पक्ष में थे, क्योंकि ब्रिटिश
सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् भारत को स्वराज्य देने की बात कही थी। परन्तु
विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात् भारतीयों को स्वराज्य देने के बजाय भारतीयों पर
अत्याचार प्रारम्भ कर दिए, इसलिए गांधीजी को भी स्वराज्य प्राप्त करने के लिए असहयोग
आन्दोलन का सहारा लेना पड़ा।
असहयोग
आन्दोलन प्रारम्भ करने के कारण
महात्मा
गांधी ने निम्नलिखित कारणों से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया-
(1)
रौलट एक्ट -
कांग्रेस
ने सन् 1918 के अपने दिल्ली अधिवेशन में सरकार से यह माँग की थी कि उन सारे कानूनों,
अध्यादेशों, रेग्यूलेशनों को समाप्त कर दिया जाए जिनके द्वारा राजनीतिक समस्याओं पर
स्वतन्त्रतापूर्वक वाद-विवाद नहीं हो सकता और नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है व
देश निकाला दे दिया जाता है। परन्तु सरकार ने इस प्रार्थना का उत्तर दमनकारी 'रौलट
एक्ट' के रूप में दिया। इस सम्बन्ध में गांधीजी ने कहा था कि "हमने माँगी थी रोटी,
मगर मिले पत्थर।"
जस्टिस
सिडनी रौलट की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने भारत के मौजूदा कानूनों को क्रान्तिकारी
अपराधों को रोकने के लिए अपर्याप्त बताया। समिति की रिपोर्ट के आधार पर फरवरी,
1919 के केन्द्रीय विधानमण्डल में दो बिल पेश किए गए। इन बिलों के आधार पर सरकार किसी
भी सन्देहास्पद व्यक्ति को मुकदमा चलाए बिना इच्छानुसार समय तक जेल में बन्द रख सकती
थी। केन्द्रीय विधानमण्डल के सदस्यों ने इन बिलों को 'काला विधेयक' का नाम देते हुए
विरोध किया। महात्मा गांधी ने सरकार से निवेदन किया कि इन बिलों को पारित करने से पूर्व
पुनर्विचार कर ले, क्योंकि इनसे स्थिति बिगड़ सकती है। भारतीय 'नेताओं के विरोध के
बावजूद भी 17 मार्च, 1919 को रौलट एक्ट पारित कर दिया गया।
गांधीजी
पहले ही घोषणा कर चुके थे कि यदि ये विधेयक पास हुए तो वे सत्याग्रह करेंगे, अत: उन्होंने
देश का तूफानी दौरा किया और लोगों को सलाह दी कि वे सत्य व अहिंसा के द्वारा इस काले
कानून का विरोध करें।
(2)
जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड -
13
अप्रैल, 1919 का दिन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा। इस
दिन क्रूर जनरल डायर ने सैकड़ों निरपराध पुरुषों व बच्चों की जलियाँवाला बाग में हत्या
की थी। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर की जनता ने जलियाँवाला बाग में एक विशाल सभा का आयोजन
किया, क्योंकि 10 अप्रैल को सैनिक अधिकारियों ने उस जुलूस पर गोलियां चलाईं थीं जो
अपने दो नेताओं डॉ. सत्यपाल सिंह और डॉ. किचलू की रिहाई की माँग कर रहा था, जिन्हें
मजिस्ट्रेट ने अपने यहाँ बुलाकर उन्हें गिरफ्तार कर अज्ञात स्थान पर भेज दिया था। सरकार
ने अमृतसर में सैनिक शासन घोषित कर दिया और 12 अप्रैल को जालन्धर डिवीजन के कमाण्डेण्ट
जनरल डायर को सैनिक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया।
13
अप्रैल को जलियाँवाला बाग की सभा में लगभग 20 हजार व्यक्ति उपस्थित थे। जनरल डायर
100 भारतीय और 50 अंग्रेज सैनिकों को लेकर सभा स्थल पर जा पहुँचा। जनरल डायर ने बिना
कोई चेतावनी दिए सैनिकों को गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार
इस हत्याकाण्ड में 379 व्यक्ति मारे गए और 137 घायल हुए। इस काण्ड के पश्चात् जनता
में आतंक फैलाने के लिए अनेक अत्याचार किए गए और समस्त पंजाब में मार्शल लॉ घोषित कर
दिया।
उक्त
काण्ड की जाँच के लिए जो हण्टर कमीशन नियुक्त हुआ, उसके अंग्रेज सदस्यों ने डायर के
काले कारनामों को छिपाया। यही नहीं, ब्रिटेन में डायर के कार्यों की प्रशंसा की गई।
इधर कांग्रेस ने इस काण्ड की जाँच के लिए एक समिति नियुक्त की, जिसके एक सदस्य स्वयं
गांधीजी भी थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जनरल डायर ने पूर्व निश्चित योजना
के अनुसार जानबूझकर निःशस्त्र, निरपराध पुरुषों व बच्चों की हत्या की है। समिति ने
अपराधियों को दण्डित करने और पीड़ितों को आर्थिक सहायता देने की माँग की, परन्तु सरकार
ने समिति की माँगों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फलत: गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्य के
शत्रु बन गए।
(3)
खिलाफत का प्रश्न -
प्रथम
विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने टर्की के विरुद्ध भी युद्ध में भाग लिया था। युद्ध के बाद
'सेव्रे की सन्धि' द्वारा टर्की के सुल्तान को, जो कि मुस्लिम जाति का खलीफा भी था,
गद्दी पर से पृथक् कर दिया गया। टर्की साम्राज्य का विघटन किया गया। मुसलमानों ने इसके
विरुद्ध खिलाफत आन्दोलन प्रारम्भ किया। गांधीजी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने
के लिए हिन्दुओं को भी इस आन्दोलन में भाग लेने को कहा।
कांग्रेस
की नीति में परिवर्तन –
सितम्बर,
1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, उसमें गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन
सम्बन्धी प्रस्ताव रखा और सभापति लाला लाजपत राय सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं के विरोध
के बावजूद गांधीजी का प्रस्ताव भारी बहुमत से स्वीकृत हो गया। दिसम्बर, 1920 में कांग्रेस
का नियमित अधिवेशन नागपुर में हुआ, जिसमें गांधीजी के असहयोग आन्दोलन प्रस्ताव को पुनः
भारी बहुमत से पारित कर दिया गया।
असहयोग
आन्दोलन का उद्देश्य एवं कार्यक्रम
सन्
1920 में गांधीजी ने जो असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया, उसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश
शासन तन्त्र को पूरी तरह ध्वस्त करना था। इस आन्दोलन का कार्यक्रम निम्नलिखित था
(I)
निषेधात्मक कार्यक्रम- असहयोग आन्दोलन के इस पक्ष में निम्नलिखित कार्यक्रम शामिल थे
(1)
सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों को छोड़ दिया जाए।
(2)
स्थानीय संस्थाओं के मनोनीत सदस्य अपना-अपना त्याग-पत्र दे दें।
(3)
न तो सरकारी दरबारों व समारोहों में सम्मिलित हुआ जाए और न ही सरकार के स्वागत में
कोई समारोह आयोजित किया जाए।
(4)
सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार किया जाए।
(5)
अदालतों का बहिष्कार किया जाए।
(6)
विदेशी माल का बहिष्कार किया जाए।
(7)
मॉण्ट-फोर्ड योजना (1919 का अधिनियम) के अन्तर्गत बनने वाले विधानमण्डल के निर्वाचनों में खड़े उम्मीदवारों को बिठाना और मतदाताओं
द्वारा अपने मताधिकार का प्रयोग न करना।
(8)
सैनिक, क्लर्क और मजदूरी पेशा करने वाले मेसोपोटामिया में अपनी सेवाएँ अर्पित न करें।
(II)
रचनात्मक कार्यक्रम - उपर्युक्त के अतिरिक्त कांग्रेस ने अपना कुछ रचनात्मक कार्यक्रम
भी घोषित किया
(1)
स्वदेशी वस्तुओं का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाए।
(2)
चरखे, कताई-बुनाई का व्यापक प्रचार किया जाए।
(3)
सरकारी स्कूलों के स्थान पर राष्ट्रीय विद्यालय खोले जाएँ।
(4)
अस्पृश्यता का निवारण किया जाए।
(5)
हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूत किया जाए।
(6)
पंचायतों की स्थापना की जाए।
असहयोग
आन्दोलन की प्रगति-
आन्दोलन
को लोकप्रिय बनाने के लिए गांधीजी ने देश का व्यापक दौरा किया। उन्होंने स्वयं केसर-ए-हिन्द'
की उपाधि छोड़ दी। फिर सैकड़ों लोगों ने अपनी पदवियों का परित्याग कर दिया। पं. मोतीलाल
नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई
पटेल जैसे नेताओं ने वकालत छोड़ दी। विद्यर्थियों ने सरकारी स्कूलों व कॉलेजों में
जाना छोड़ दिया। कई राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित किए गए; जैसे—काशी विद्यापीठ, गुजरात
विद्यापीठ, दिल्ली का जामिया मिलिया विश्वविद्यालय आदि। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार
किया गया तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। इस दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकता भी देखी
गई। आन्दोलन में डॉ. अंसारी, अली बन्धुओं और मौलाना आजाद जैसे मुस्लिम नेताओं ने भी
भाग लिया।
सरकार
द्वारा दमन चक्र -
नवम्बर,
1921 में सम्राट जॉर्ज पंचम के ज्येष्ठ पुत्र प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आने वाले थे। कांग्रेस
ने उनका बहिष्कार करने का निर्णय किया। फलस्वरूप सरकार ने आन्दोलन को कुचलने के लिए
दमन चक्र प्रारम्भ किया। नेताओं को गिरफ्तार व तंग किया गया। लोगों पर जुर्माने लगाए
गए। कांग्रेस तथा खिलाफत समिति को गैर-कानूनी घोषित किया गया।
चौरी-चौरा
काण्ड और आन्दोलन स्थगन -
दिसम्बर,
1921 के अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में आन्दोलन को तीव्र करने का निश्चय किया
गया। गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड रीडिंग को । फरवरी, 1922 को पत्र लिखा कि यदि
सरकार
ने एक सप्ताह के अन्दर अपनी दमन नीति का परित्याग नहीं किया, तो वे बारदोली और गुण्टूर
में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करेंगे।
परन्तु
अभी एक सप्ताह भी पूरा नहीं हो पाया था कि 5 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर
जिले में चौरी-चौरा नामक स्थान पर उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी, जिसमें
21 सिपाही और एक सब-इंस्पेक्टर जिन्दा जल गए। इस हिंसक घटना से गांधीजी ने अपना असहयोग
आन्दोलन एकदम स्थगित कर दिया। सरकार ने 10 मार्च, 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया।
राजद्रोह के आधार पर मुकदमा चलाकर उन्हें 6 वर्ष की सजा दी गई।
19. भारत के राजनैतिक एकीकरण की समस्या से आप क्या समझते हैं ? भारत ने इस समस्या का समाधान किस प्रकार किया ?
उत्तर- स्वतंत्र होने के समय भारत राष्ट्र के समक्ष अनेकानेक समस्याएं थीं जिनमें विभाजनोत्तर शरणार्थी समस्या और नए संविधान का निर्माण मुख्य समस्याएँ थीं। आजादी के समय भारत में 562 से अधिक देशी रियासतें थी। इन रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण एक अत्यन्त जटिल कार्य था। इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा 3 जून, 1947 की माउण्टबेटन योजना थी जिसके अनुसार भारत को विखण्डित आजादी प्राप्त हुई थी। इस योजना के अनुसार देशी रिसायतों को इस बात की पूरी छूट दी कि यदि वे भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल न होना चाहें तो वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सकती थी। इस प्रावधान का लाभ उठाकर हैदराबाद, भोपाल, त्रावणकोर तथा कश्मीर के शासक अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखना चाहते थे। जूनागढ़ का मुसलमान शासक अपनी बहुसंख्यक हिन्दू जनता के प्रबल विरोध के बावजूद पाकिस्तान में सम्मिलित होने का प्रयास कर रहा था।
इन समस्याओं को सुलझाने में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 27 जून, 1947 को नवगठित 'रियासत विभाग का अतिरिक्त कार्यभार संभाल कर सरदार पटेल ने इस मुद्दे को प्राथमिकता के आधार पर हल करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक नयी योजना ‘इन्स्टूमेंट ऑफ एक्सेशन' तैयार की। इस योजना के अनुसार उन्होंने 5 जुलाई, 1947 को रियासतों से इस पर हस्ताक्षर करने की अपील की। प्रलोभन, धमकी और राष्ट्र प्रेम का हवाला देकर पटेल, ने 25 जुलाई, 1947 तक अधिकतर रियासतों के शासकों से इस पर हस्ताक्षर करवा लिया। तीन रियासतों (कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद) को छोड़कर शेष सभी रियासतों का 15 अगस्त, 1947 तक भारत में विलय हो गया। हैदराबाद को सैन्य कार्यवाई के द्वारा 1 नवम्बर, 1948 को संघ में मिलाया गया। जूनागढ़ को पुलिस कार्यवाई के द्वारा संघ में मिलाया गया। कश्मीर पर जब पाकिस्तानी सेना ने कबायिली के वेश में आक्रमण किया, तब बाध्य होकर वहाँ के शासक हरि सिंह ने विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिया।