Section
- A खण्ड क
(
अति लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।
1. कार्बोहाइड्रेट के मुख्य कार्य क्या हैं।
उत्तर:
ऊर्जा तथा ऊश्णता प्रदान करना
2. वसा में घुलनशील विटामिनों के नाम बताइए।
उत्तर:
विटामिन्स A, विटामिन D, विटामिन E और विटामिन्स K
3. विटामिन 'A' की प्राप्ति के साधन बताइए। इसकी कमी से कौन सा रोग
होता है ?
उत्तर:
शरीर में विटामिन 'A' की भरपाई करने के लिए अंडा, दूध, गाजर, पीली या नारंगी सब्जियां,
पालक, स्वीट पोटेटो, पपीता, दही, सोयाबीन और दूसरी पत्तेदार हरी सब्जियां का सेवन किया
जा सकता है।
इसकी
कमी से होने वाले रोग-
रतौंधी
, अंधापन, श्वसन प्रणाली में संक्रमण, पेशाब की नली में संक्रमण, एनीमिया, रोग प्रतिरक्षा
प्रणाली कमजोर होना
4. अपरिष्कृत वस्तु किसे कहते हैं ?
उत्तर:
पुराना अखबार, टूटे-फूटे घरेलू सामान, खाली-काँच की बोतलें, प्लास्टिक आदि जो दोबारा
प्रयोग नहीं हो पायेगा। उसे अपरिष्कृत वस्तु कहते हैं।
5. मिश्रित तन्तु किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मिश्रित तंतु प्राकृतिक रेशा के साथ मानव निर्मित रेशा को मिलाकर बनाया जाता है। इस
प्रकार के बने वस्त्र टिकाऊ चमकदार, धोने मे आसानी और प्रेस करने की भी जरूरत कम होती
है। इसमे अनुपात 80:20 और 66:33 का होता है। जैसे टेरीकाट ,कार्टवूल आदि।
6. आधारभूत परिसज्जा किसे कहते हैं ?
उत्तर:
आधारभूत परिसज्जा द्वारा वस्त्र साफ, सफेद, चमकीले व कड़क हो जाते हैं।
7. मूल्यांकन के प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मूल्यांकन के प्रकार निम्न है-
1.
निर्माणात्मक मूल्यांकन
2.
संकलनात्मक मूल्यांकन
3.
निर्माणात्मक और संकलनात्मक मूल्यांकन में अंतर
4.
मानक संदर्भित मूल्यांकन
5.
मानदंड संदर्भित मूल्यांकन
Section
- B खण्ड ख
(
लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।
8. कार्य सरलीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
कार्य सरलीकरण से तात्पर्य है कि हमारा काम करने का तरीका इस प्रकार हो कि कम से कम
समय और शक्ति को व्यय कर के अधिक से अधिक कार्य पूरा किया जा सके। देवदास के अनुसार
“किसी भी कार्य को कम मात्रा में समय व शक्ति के उपयोग द्वारा करने की तकनीक को कार्य
सरलीकरण (work simplification) कहते हैं।
9. ऊनी वस्त्र को धोते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए तथा क्यों ?
उत्तर:
ऊनी वस्त्र को धोते समय निम्न सावधानी बरतनी चाहिए-
1.
ऊनी कपड़ों को हमेशा सूखे स्थान पर रखना चाहिए. लापरवाही के चलते कई बार हम बाथरूम
में भी ऊनी कपड़ों को छोड़ देते हैं जो कि सही तरीका नहीं है. जो ऊनी कपड़े आप उपयोग
में ना ला रहे हों उन्हें धूप में सुखाकर किसी सूखी और बंद जगह पर रख दें।
2.
जिस अटैची या बक्से में आप कपड़े रख रहे उसमें पहले अखबार बिछाकर उसपर कुछ नीम की सूखी
पत्तियां रख दें. इससे नमी नहीं रहेगी और आपके कपड़े सुरक्षित रहेंगे।
3.
ऊनी कपड़ों को धुलने के लिए हमेशा लिक्विड डिटरजेंट का ही इस्तेमाल करना चाहिए. इसके
अलावा ऊनी और गर्म कपड़ों को मुलायम ब्रश से ही साफ करना चाहिए. वाशिंग मशीन में भी
ऊनी और गर्म कपड़ों को नहीं धोना चाहिए।
4. नमी, ऊनी और गर्म कपड़ों की दुश्मन होती है. नमी
के कारण ऊनी कपड़ों में फंगस लग जाते हैं जो दिखाई तो नहीं पड़ते लेकिन सेहत के लिए
बहुत नुकसानदेह होते है. इसलिए गर्म कपड़ों को धूप में दिखाना बहुत आवश्यक होता है।
5.
ऊनी और गर्म कपड़े बेहद मुलायम होते हैं. इन्हें गर्म पानी से दूर रखना चाहिए. गर्म
पानी में धुलने से कपड़े सिकुड़ जाने का खतरा रहता है. इसलिए इन्हे ठंडे पानी से ही
धोना चाहिए. हालांकि बहुत गंदे कपड़े धोने के लिए हल्के गुनगुने पानी का उपयोग किया
जा सकता है।
6.
अगर ऊनी कपड़ों पर कोई दाग लग जाए तो पहले पानी को हल्का गुनगुना कीजिए. ध्यान रखें,
पानी बहुत ज्यादा गर्म नहीं करना है. अब इस गुनगुने पानी में थोड़ा-सा स्पिरिट मिला
लें. इस स्पिरिट वाले गुनगुने पानी से ऊनी कपड़े को धोएं।
7.
ऊनी कपड़ों को प्रेस करते समय सामान्य आयन के उपयोग से बचना चाहिए. ऊनी और गर्म कपड़ों
के लिए हमेशा स्टीम आयन का ही प्रयोग करना चाहिए. अगर घर में स्टीम आयन नहीं उपलब्ध है तो ऊनी और गर्म कपड़ों
के ऊपर एक सूती का कपड़ा रखकर प्रेस करें।
10. नायलान को जादुई तन्तु कहा जाता है, क्यों ?
उत्तर:
नायलॉन के आविष्कार का श्रेय डॉ. वेलेस एच. केरोथर्स और उनके साथियों को जाता है। नायलॉन
एक ऐसा जादुई तंतु है जिसके समान प्रकृति में कोई तंतु नहीं है। नायलॉन की खोज के बाद
से वस्त्रोद्योग के क्षेत्र में एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ है। नायलॉन वस्त्र धोने,
सुखाने और प्रेस करने में काफी कम समय और श्रम लगता है। इनकी देखभाल भी आसान है। प्रकृति
में स्थित अन्य तंतुओं से शक्ति तथा लचीलेपन में अन्य कोई तन्तु इसकी बराबरी नहीं कर
सकता। आज के व्यवस्तता तथा संघर्ष के युग में नायलॉन वस्त्र अत्यधिक आरामदेह और टिकाऊ
सिद्ध हुए हैं। यही कारण है कि वे वस्त्र सामान्य जीवन के अभिन्न अंग बन गये हैं। इनकी
लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही जा रही है।
11. संसाधन किसे कहते हैं ? इसके प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
जेम्स फिशर के शब्दों में- ’’संसाधन वह कोई भी वस्तु हैं जो मानवीय आवश्यकताओं और इच्छाओं
की पूर्ति करती हैं।
संसाधन
शब्द का अभिप्राय मानवी उपयोग की वस्तुओं से है। ये प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों
हो सकती हैं। भूमि, जल, वन, वायु, खनिज घरों, भवनों, परिवहन एवं संचार के साधन ये संसाधन
काफी उपयोगी भी हैं और मानव के विकास के लिए आवश्यक भी। संसाधन शब्द का अभिप्राय मानव
उपयोग की वस्तुओं से है।
संसाधनों
को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत कर सकते हैं। इनमें से प्रमुख वर्गीकरण और वर्गीकरण
के आधार इस प्रकार से हैं:
A.
जैविक संसाधन B. अजैविक संसाधन
A.
जैविक संसाधन: इन संसाधनों में वन, वनोत्पाद, फसलें, पछी, वन्य जीव, मछलियां व अन्य
समुद्री जीव जैव संसाधनों के उदाहरण हैं। ये संसाधन नवीकरणीय है क्योंकि ये स्वयं को
पुनरूत्पादित व पुनर्जीवित कर सकते हैं। कोयला और खनिज तेल भी जैविक संसाधन है, परंतु
ये नवीकरणीय नहीं हैं।
1.
वन - भारत में पाई जाने वाली वनस्पतियों को
छ: मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं- उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन,
उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, कटीली झाड़ियाँ, ज्वारीय वन और पर्वतीय वन।
2.
वन्य जीव - भारत में वन्य जीवों की बहुसंख्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ज्ञात विश्व
में, जानवरों की पाई जाने वाली कुल 1.05 मिलियन प्रजातियों में से लगभग 7
(7-46%) भारत में पाई जाती हैं।
3.
पशुधन - विश्व की लगभग 57 प्रतिशत भैंसें व
लगभग 15 प्रतिशत गाय-बैल भारत में पाये जाते हैं। भारत के दो तिहाई से ज्यादा मवेशी
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, उड़ीसा,
कर्नाटक व राजस्थान राज्यों में हैं।
4.
मात्स्यिकी - भारत में विभिन्न प्रकार की मछलियों की 1800 से भी ज्यादा प्रजातियाँ
विद्यमान हैं। भारत में चार प्रकार की माित्स्यकी, जैसे- सागरीय माित्स्यकी, स्वच्छ
जल या अन्त:स्थलीय माित्स्यकी,एस्चुरी माित्स्यकी एवं पेरल मित्स्यकी पायी जाती हैं।
B.
अजैविक संसाधन: इन संसाधनों में पर्यावरण के समस्त निर्जीव पदार्थ सम्मिलित है। भूमि,
जल, वायु और खनिज यथा लोहा, ताँबा, सोना आदि अजैविक संसाधन हैं। ये समाप्त होने योग्य
हैं व पुनर्नवीनीकरण के योग्य नहीं है, क्योंकि ये न तो नवीनीकृत हो सकते हैं और न
ही पुनरूपादित।
1.
भूमि संसाधन - भारत 32,87,263 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत हैं। क्षेत्र एवं
आकार के आधार पर रूस, कनाड़ा, चीन, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्राजील व मिस्र के बाद यह
विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। यह वृहद् आकार स्वत: एक बहुत बड़ा संसाधन है।
लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र पर्वतों से ढका है; जो कि दृश्य सौन्दर्य, सदानीरा नदियों,
वनों एवं वन्य जीवों का स्रोत हैं।
2.
जल संसाधन - संसाधनों में विविधता; हिमानियों, धरातलीय नदियों एवं भूमिगत जल, वर्षा
एवं महासागरों के रूप भू-आकारों में विविधता का परिणाम है। अनुमानित औसत वार्षिक वर्षा
117 से.मी. है। भारत की पुनर्भरण योग्य भू-जल क्षमता 434 अरब घन मीटर है। आज, 70 प्रतिशत
से भी ज्यादा जनसंख्या, अपनी घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूजल का उपयोग करती
है। आधे से भी ज्यादा सिंचाई इस स्त्रोत से प्राप्त होती है।
3.
खनिज संसाधन - भारत खनिज संसाधनों में बहुत ही धनी है और इसमें एक औद्योगिक शक्ति बनने
की क्षमता है। यहाँ लौह अयस्क के आरक्षित क्षेत्र, कोयला, खनिज तेल, बॉक्साइट व अभ्रक
के व्यापक निक्षेप पाये जाते हैं। झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में खनिज निक्षेपों
का वृहद् संकेन्द्रण है। देश के कुल कोयला निक्षेप का तीन चौथाई भाग यहाँ है। भारत
में पाये जाने वाले अन्य महत्वपूर्ण खनिज हैं- लौह अयस्क, मैगनीज, अभ्रक, बॉक्साइट
और रेडियोधर्मी खनिज।
12. घरेलू विधि द्वारा आहार संरक्षण के किन्हीं दो तरीकों का उल्लेख
करें।
उत्तर:
आहार संरक्षण भोजन को सूक्ष्मजैविक वृद्धि से रोकने का एक तरीका है, जिसमें हम खाद्य
को इस प्रकार से रखते हैं जिससे उसमें किसी भी तरह का विषाक्तता ना आए और वह लंबे समय
तक स्वच्छ रहे।
हम
भोजन को कीड़ों द्वारा किसी भी संभावित संक्रमण से बचा रहे हैं जिससे कि खाद्य खराब
ना हो जाए। आहार संरक्षण का उपयोग भोजन को लंबे समय तक संरक्षित
करने के लिए किया जाता है।
1.
रासायनिक विधि: माइक्रोबियल विकास को रोकने के लिए सदियों से नमक और खाद्य्य तेलों
का उपयोग किया जाता रहा है। इस वजह से अचार अतिरिक्त तेल से भरपूर होता है।
नमकीन
बनाना नमक संरक्षण की एक विधि है। नमक लंबे समय तक फलों को सुरक्षित रखता है। नमकीन
मांस और मछलियों को भी सुरक्षित कर सकता है।
रासायनिक
विधि द्वारा खाद्य संरक्षण करने में सिरका, सोडियम मेटाबाइसल्फाइट और सोडियम बेंजोएट
अन्य सिंथेटिक परिरक्षक के रूप में काम करते हैं।
2.
चीनी: एक और आम परिरक्षक चीनी है, चीनी एक उत्कृष्ट नमी अवशोषक है। चीनी नमी की मात्रा
को कम करती है और माइक्रोबियल विकास को रोकती है।
13. फोरटीफिकेशन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
फूड फोर्टिफिकेशन से तात्पर्य खाद्य पदार्थों में एक या अधिक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों
की जानबूझकर की जाने वाली वृद्धि से है जिससे इन पोषक तत्त्वों की न्यूनता में सुधार
या निवारण किया जा सके तथा स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया जा सके।
इसके
माध्यम से केवल एक सूक्ष्म पोषक तत्त्व के संकेन्द्रण में वृद्धि हो सकती है (उदारहण
के लिए नमक का आयोडीकरण) अथवा खाद्य-सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के संयोजन की एक पूरी शृंखला
हो सकती है. यह कुपोषण की समस्या का समाधान करने के लिए संतुलित और विविधतापूर्ण आहार
का प्रतिस्थापन नहीं है.
14. रंगाई से आप क्या समझती हैं ? रंग चढ़ाने की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
वस्त्रों की परिसज्जा करने का एक तरीका उनकी रंगाई करना है। रंगाई से अभिप्राय है वस्त्र
को रंगीन बनाना वास्तव में वस्त्रोपयोगी तन्तु अपनी प्राकृतिक अवस्था में रंगहीन होते
हैं। इन तन्तुओं को बाजार में लाने से पूर्व रंगीन बनाकर आकर्षक रूप प्रदान किया जाता
है। रंगीन बनाने के लिए कई उपायों को अपनाना पड़ता है। लेकिन सभी उपायों में रंग चढ़ाने
के लिए निम्नलिखित विधि अपनायी जाती है।
रंग
चढ़ाने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं
1.
तन्तु रूप में रंग चढ़ाना- रंग चढ़ाने के लिए सर्वप्रथम तन्तुओं को अभीष्ट रंग के घोल
में डुबो दिया जाता है तथा भली प्रकार रंग चढ़ जाने पर रंग के घोल से निकालकर सुखा
लिया जाता है उसके पश्चात् इन तन्तुओं से वस्त्रों का निर्माण किया जाता है।
2.
धागों के रूप में रंग चढ़ाना- रंग चढ़ाने की एक विधि तन्तु से बने धागों पर रंगाई करना
है। इस क्रिया के अन्तर्गत धागों की लच्छियाँ बना ली जाती हैं। इन लच्छियों को किसी
डण्डे पर लटकाकर अभीष्ट रंग के घोल में कुछ समय के लिए डुबो दिया जाता है। इसके पश्चात्
उसी डण्डे पर लटकी धागों की लच्छियों को सूखने के लिए रख दिया जाता है। लच्छियों के
भली प्रकार सूख जाने के बाद वस्त्र निर्माण किया जाता है।
3.
वस्त्र के रूप में रंग चढ़ाना- इस विधि में तैयार वस्त्र को विभिन्न रंगों में रंगा
जाता है। वस्त्र को निम्नलिखित विधियों से रंगा जाता है
(i)
साधारण रंगाई - इस विधि में जिस कपड़े को रंगना है उसे स्वच्छ जल में भिगोकर निचोड़कर
तैयार रंग के घोल में डुबो दिया जाता है। इस विधि में सम्पूर्ण वस्त्र पर एकसमान रंग
चढ़ता है।
(ii)
क्रॉस रंगाई - इस विधि में दो या अधिक रेशों से निर्मित वस्त्रों को रंगा जाता है।
सम्पूर्ण वस्त्र को एक ही रंग में डुबो दिया जाता है जिससे अलग-अलग रेशे अलग-अलग मात्रा
में रंग अवशोषित कर लें। इस प्रक्रिया में कभी-कभी यह भी हो जाता है कि कोई रेशा रंगहीन
रह जाये। बटाई में अन्तर होने के कारण रेशे भिन्न-भिन्न शेड के रंग ग्रहण कर लेते हैं।
(iii)
बाँधकर रंगना - इस विधि से रंगाई करने के लिए कपड़े को धागे की सहायता से नमूनों के
अनुसार बाँध दिया जाता है। उसके पश्चात् उसे रंग में डाला जाता है। बँधे स्थान पर रंग
नहीं चढ़ता है। वस्त्र के सूख जाने पर गाँठ खोल देते हैं। इस विधि में रंगाई के लिए
दो या अधिक रंगों का उपयोग किया जाता है। बँधेज रंगाई विधि का सर्वाधिक प्रयोग जयपुर
में किया जाता है।
Section-C
खण्ड -ग
(
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
तीन प्रश्नों के उत्तर दें।
15. "संतुलित आहार से तात्पर्य महँगा आहार नहीं है।" इस कथन
की पुष्टि करें।
उत्तर:
भ्रमवश अनेक लोग महँगे एवं दुर्लभ आहार को अच्छा, सन्तुलित एवं उपयोगी आहार मान लेते
हैं। परन्तु वास्तव में आहार की कीमत तथा उसके गुणों और उपयोगिता में कोई प्रत्यक्ष
सम्बन्ध नहीं है। महँगे से महँगा आहार भी असन्तुलित आहार हो सकता है, यदि उसमें आहार
के अनिवार्य तत्त्व सही मात्रा एवं अनुपात में न हों। इसके विपरीत सस्ते से सस्ता आहार
भी सन्तुलित आहार हो सकता है, यदि उसमें सभी आवश्यक तत्त्व अभीष्ट मात्रा में उपस्थित
हों; उदाहरण के लिए- हमारे देश में मेवे एवं मीट महँगे खाद्य-पदार्थ हैं, परन्तु यदि
हमारे आहार में केवल इन्हीं पदार्थों को ही ग्रहण किया जाए और शाक-सब्जियों, ताजे फलों,
अनाज, दूध आदि कीअवहेलना की जाए, तो हमारा आहार अधिक महँगा होने पर भी सन्तुलित आहार
की श्रेणी में नहीं आ सकता। इस तथ्य को जान लेने के उपरान्त यह समझ लेना चाहिए कि कम
आय एवं सीमित आर्थिक साधनों वाले व्यक्ति भी सन्तुलित आहार ग्रहण कर सकते हैं। सन्तुलित
आहार प्राप्त करने के लिए सन्तुलित आहार के अनिवार्य तत्त्वों एवं उसके संगठन को जानना
आवश्यक है, न कि अधिक धन व्यय करने की आवश्यकता है। गरीब व्यक्ति भी सन्तुलित आहार
ग्रहण कर सकता है।
16. खाद्य पदार्थ के चुनाव को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख
करें।
उत्तर:
खाद्य पदार्थों का हम प्रतिदिन उपयोग करते हैं। खाद्य पदार्थों का वर्गीकरण हम शीघ्र
नष्ट होने वाले कुछ समय बाद नष्ट होने वाले तथा शीघ्र नष्ट न होने वाले खाद्य पदार्थों
के आधार पर करते हैं। संग्रह करते समय इस वर्गीकरण का विशेष ध्यान रखा जाता है। शीघ्र
नष्ट होने वाले खाद्य पदार्थों का जीवनकाल शीघ्र नष्ट न होने वाले खाद्य पदार्थों के
जीवनकाल से काफी कम होता है। भोज्य पदार्थों का चुनाव करते समय उनकी ताजगी और पौष्टिकता
का भी ध्यान रखा जाता है। भोज्य पदार्थों के चयन को माध्यम, मित्रमण्डली तथा भोजन मूल्य
प्रभावित करते हैं।
खाद्य
पदार्थों के चयन को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं
1.
पारिवारिक तथा सांस्कृतिक मूल्य: व्यक्ति के पारिवारिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव
उसके भोजन पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। दूध, माँस, मछली आदि प्रोटीन के उच्च साधन
युक्त भोजन परिवार के पुरुषों को दिया जाता है। शेष भाग को परिवार के अन्य सदस्यों
में बाँटा जाता है। कुछ राज्यों में विशिष्ट भोजन जैसे- दालें, सब्जियाँ, घी आदि गर्भवती
एवं धात्री माता को नहीं दिया जाता है। ऐसे सांस्कृतिक मूल्य स्त्री के पोषण स्तर को
गिरा देते हैं।
कई
सम्प्रदायों में माँसाहारी भोजन पर प्रतिबन्ध होता है, जो शरीर की कोशिकाओं के निर्माण
के लिए आवश्यक होता है। इन पारिवारिक सांस्कृतिक मूल्यों के कारण भी भोजन का चयन प्रभावित
होता है और उत्तम पोषण से व्यक्ति दूर रहता है।
2.
माध्यम: भोज्य पदार्थों के चयन पर माध्यम का भी प्रभाव पड़ता है। उत्पादक अपने खाद्य
पदार्थों के विज्ञापन पर काफी धन व्यय करते हैं, जिससे वे अपने खाद्य पदार्थों का प्रचार
कर उनकी माँग में वृद्धि कर सकें। यह प्रचार जनता को आकर्षित करने के लिए किया जाता
है। इन विज्ञापनों से ज्ञात होता है कि कौन-सा खाद्य पदार्थ वृद्धि एवं विकास के लिए
आवश्यक होता है। ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किस भोज्य पदार्थ को लेना चाहिए। चाय या
काफी के लिए कौन-सा दुग्ध पाउडर अधिक उपयोगी है। चाय के कौन से ब्राण्ड में क्या विशेषता
है। उत्पादक कुछ ऐसे भोज्य पदार्थों का भी उत्पादन करते हैं, जो समय तथा शक्ति बचाने
में सहायक होते हैं। जैसे- मैगी, नूडल्स आदि ।
3.
आर्थिक कारण: एक समझदार गृह स्वामिनी अपने परिवार के लिए भोज्य पदार्थों का चयन अपने
परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर करती है। वह खाद्य पदार्थों का चयन ऋतु,
मौसम में खाद्य पदार्थों की उपलब्धि, खाद्य पदार्थों की पौष्टिक क्षमता के आधार पर
करती है। एक समझदार गृहिणी घर पर ही विशेष अवसरों पर स्वादिष्ट भोजन बनाना अधिक पसन्द
करती है जिससे कम-से-कम धन खर्च में परिवार के सभी सदस्यों को स्वादिष्ट एवं पौष्टिक
भोजन प्राप्त हो सके। खाद्य पदार्थों की कीमत, मात्रा, समय, ईंधन, ऊर्जा आदि को ध्यान
में रखकर ही आहार का चुनाव किया जाता है।
4.
मित्र समूह: व्यक्ति के भोजन की आदतों को उसके मित्र समूह वर्ग की आदतें अधिक प्रभावित
करती हैं। विकासशील बच्चों में पिज्जा, वर्गर, शीतल पेय पदार्थ, चॉकलेट, केक आदि खाने
की अधिक आदतें होती हैं। उनके द्वारा पसन्द किये जाने वाले भोज्य पदार्थ पौष्टिक तथा
स्वास्थ्य वर्धक नहीं होते हैं। मित्र मण्डली के साथ बच्चे सब कुछ खा लेते हैं। अत:
खाद्य पदार्थों के चयन में मित्र वर्ग का भी प्रभाव पड़ता है।
17. वस्त्रों की परिसज्जा से आप क्या समझते हैं ? इसका मुख्य उद्देश्य
क्या है ?
उत्तर:
करघे से निकला वस्त्र अनुपयोगी, अनाकर्षक एवं त्रुटिपूर्ण होता है। इसे उपयोगी, आकर्षक
एवं त्रुटिहीन बनाने तथा आज की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करने की प्रक्रिया को
वस्त्र परिसज्जा कहते हैं।
वस्त्र
परिसज्जा के उद्देश्य –
→
वस्त्र
के बाह्य स्वरूप में सौन्दर्यात्मक एवं आकर्षण गुणों को बढ़ाना।
→
वस्त्रों
की क्रियात्मक गुणवत्ता बढ़ाना।
→
वस्त्रों
में विभिन्नता उत्पन्न करना।
→
वस्त्र
की उपयोगिता एवं प्रयोजनशीलता बढ़ाना।
→
निश्चित
सेवा विषयक गुण एवं टिकाऊपन में वृद्धि करना।
→
अनुकरणीय
एवं बनावटीपन लाने हेतु।
→
वस्त्रों
का रख-रखाव आसान बनाना।
→
वस्त्रों
को कड़ा एवं वजनी बनाना।
→
घटिया
वस्त्रों को आकर्षक बनाना।
18. प्राकृतिक रेशा क्या है ? यह कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर:
जो रेशे प्राकृतिक स्रोतों जैसे- पौधों या जानवरों से प्राप्त होते हैं प्राकृतिक रेशा
कहलाते हैं।
प्राकृतिक
रेशे दो प्रकार के होते हैं- पादप रेशे एवं जांतव रेशे।
(क)
पादप रेशे: वे रेशे जो पादपों से प्राप्त होते हैं, पादप रेशे कहलाते हैं।
पादप
रेशों के उदाहरण: रुई, जूट, मूंज आदि पादप रेशों के उदाहरण है।
1.
रुई: रुई एक पादप रेशा है। रुई कपास पादप के फल से प्राप्त होती है। इसके फल नींबू
के आकार के होते है। जब यह पूर्ण परिपक्व हो जाते है, तो टूट जाते हैं और कपास तंतुओं
से ढका बिनौला दिखाई देता है।
2.
जूट (पटसन): जूट (पटसन) एक पादप रेशा है। जूट (पटसन) तंतु को पटसन पादप के तनों से
प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम पर पादप को इसकी पुष्पन अवस्था में ही काट लेते हैं।
फिर इसके तनों को कुछ दिनों तक जल में डुबोकर रखा जाता है, जिससे ये गल जाते हैं। इन
तनों से पटसन तंतुओं को हाथ से पृथक कर लिया जाता है। इस प्रकार हमें जो तंतु प्राप्त
होते हैं, उन्हें वस्त्र या अन्य वस्तु बनाने से पहले धागों में परिवर्तित करते हैं।
जूट से पायदान, चटाई, बैग इत्यादि बनाए जाते हैं।
3.
मूॅंज: मूॅंज एक पादप रेशा है। यह मूॅंज घास के पादप से प्राप्त होती है। मूॅंज घास
का वानस्पतिक नाम सेकेरम मूॅंजा है। यह एकबीजपत्री पादप है। इसके रेशों का उपयोग चारपाई,
कुर्सियां व सजावटी सामान बनाने में किया जाता है।
(ख)
जांतव रेशे: वे रेशे जो जन्तुओं से प्राप्त होते हैं, जांतव रेशे कहलाते हैं।
जांतव
रेशों के उदाहरण: रेशम, ऊन आदि जांतव रेशों के उदाहरण है।
1.
ऊन: ऊन एक जांतव रेशा है। भेड़, बकरी, ऊंट, याक, खरगोश आदि जंतुओं के बालों से ऊन प्राप्त
की जाती है। तंतु रूपी से मुलायम बाल ही ऊन बनाने के लिए उपयोग में लिए जाता है।
2.
रेशम: रेशम प्राकृतिक रेशा है, जो रेशम के कीट से प्राप्त होता है। रेशम कीट शहतुत
के पौधे पर रहता है और इसकी पत्तियां खाता है। रेशम कीट के जीवन चक्र की कोकून अवस्था
को वयस्क कीट में परिवर्तित होने से पहले कोकूनों को धूप में या गर्म पानी में अथवा
भाप में रखा जाता है इससे रेशम प्राप्त होता है।
19. भोजन पकाने का मुख्य उद्देश्य क्या है ?
उत्तर:
भोजन पकाने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(1)
भोज्य-पदार्थों को सुपाच्य बनाना: आहार को ग्रहण करने से पूर्ण लाभ तभी प्राप्त होता
है जबकि उसका अच्छी प्रकार से पाचन हो जाए। पाक-क्रिया या भोजन को पकाने का एक मुख्य
उद्देश्य भोज्य-पदार्थों को सुपाच्य बनाना होता है। बिना पकाए भोज्य-पदार्थों को यदि
ग्रहण किया जाता है, तो इस दशा में उनका पाचन प्रायः असम्भव ही होता है। अतः भोज्य-पदार्थों
को सुपाच्य बनाने के उद्देश्य से उन्हें अनिवार्य रूप से पकाया जाता है।
(2)
आहार को अधिकाधिक स्वादिष्ट बनाना: पाक-क्रिया का एक उल्लेखनीय उद्देश्य खाद्य सामग्री
को अधिकाधिक स्वादिष्ट बनाना भी है। विभिन्न खाद्य-सामग्रियाँ कच्ची अवस्था में स्वादिष्ट
नहीं होतीं, बल्कि उनका स्वाद अरुचिकर ही होता है। इन खाद्य-सामग्रियों को यदि सही
पाक-क्रिया द्वारा तैयार किया जाता है, तो ये स्वादिष्ट बन जाती हैं तथा रुचिपूर्वक
खाई जा सकती हैं।
(3)
आकर्षक बनाना: खाद्य-सामग्री को पकाने का एक उद्देश्य उसे आकर्षक बनाना भी होता है।
पकने पर आहार का स्वाद अच्छा हो जाता है, उसका रूप आकर्षक हो जाता है तथा उसमें एक
प्रकार की मनभावन सुगन्ध उत्पन्न हो जाती है। अनेक खाद्य व्यंजनों को मसालों एवं रंगों
से विशेष आकर्षक बना दिया जाता है। उदाहरण के लिए-चावल से जब पुलाव या बिरयानी तैयार
की जाती है, तो उसमें एक मनोहारी सुगन्ध उत्पन्न हो जाती है तथा उसका रूप भी आकर्षक
हो जाता है।
(4)
आहार को विविधता प्रदान करना: पाक-क्रिया का एक उद्देश्य खाद्य-सामग्री को विविधता
प्रदान करना भी है। पाक-क्रिया के माध्यम से एक ही खाद्य सामग्री को भिन्न-भिन्न व्यंजनों
के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। आहार की विविधता व्यक्ति को अधिक सन्तोष प्रदान
करती है। तथा आहार के प्रति रुचि बनी रहती है।
(5)
खाद्य-सामग्री को कीटाणुरहित बनाना: विभिन्न शाक-सब्जियों तथा भोज्य-पदार्थों पर नाना
प्रकार के फफूद एवं जीवाणु होते हैं। वर्षा ऋतु में तो इनकी संख्या अत्यधिक होती है।
बिना पके भोज्य-पदार्थों का सेवन करने से ये कीटाणु शरीर में प्रवेश करके अनेक रोगों
की उत्पत्ति का कारण बन सकते हैं। भोज्य-पदार्थों को पकाते समय उच्च ताप पर ये कीटाणु
लगभग समूल नष्ट हो जाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि भोज्य-पदार्थों
को पकाने का एक उद्देश्य आहार को कीटाणुरहित बनाना भी होता है। जीव जगत से प्राप्त
भोज्य सामग्री (दूध, मांस-मछली एवं अण्डे) में कीटाणुओं की अधिक आशंका रही है अतः इन्हे
आहार के रूप में ग्रहण करने से पूर्व उच्च ताप पर पकाना अति आवश्यक होता है।
(6) आहार का संरक्षण: खाद्य-सामग्री को पकाने का एक उद्देश्य उसे अधिक समय तक सुरक्षित रखना भी है। कच्ची खाद्य-सामग्री शीघ्र ही सड़ने लगती है, परन्तु समुचित पाक-क्रिया द्वारा तैयार खाद्य-सामग्री बहुत समय तक सुरक्षित रह सकती है। उदाहरण के लिए-अचार, मुरब्बे, जैम, सॉस आदि के रूप में खाद्य-सामग्री को बहुत अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसी प्रकार कच्चा दूध शीघ्र ही फट जाता है, परन्तु यदि उसे पका लिया जाए, तो काफी समय तक ठीक हालत में रखा जा सकता है।