वर्ग- 11 |
विषय- समाजशास्त्र |
पूर्णांक-40 |
समय - 1:30 घंटे |
सेट-2 (Set-2)
1. कार्ल मार्क्स
के अनुसार संसार में कौन-कौन से दो वर्ग होते हैं?
उत्तर; मार्क्स के अनुसार समाज
में दो वर्ग बताये गए हैं । पहला उत्पादन (Production) वर्ग तथा दूसरा वितरण (Distribution)
वर्ग ।
2. अन्तः समूह
की अवधारणा किसने दी है ?
उत्तर: डब्ल्यू, जी. समर ने
।
3. 'जाति एक
बंद वर्ग है?।' यह कथन किनका है
उत्तर: मजूमदार एवं मदान
4. जी. एस. घूरिये
ने जाति की कितनी विशेषताओं का उल्लेख किया है ?
उत्तर: घूरिये ने जाति की छ:
विशेषताओं का वर्णन किया है-
समाज का खण्डात्मक विभाजन,संस्तरण,भोजन
तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध,नागरिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार,निश्चित
व्यवसाय,विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध
5. 'सामाजिक
नियंत्रण' नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर: रॉस (1901)
6. ग्रामीण समाज
की विशेषता क्या है ?
उत्तर: ग्रामीण समाज की सबसे
मुख्य विशेषता कृषि है।
7. 'प्राथमिक
समूह' की अवधारणा सर्वप्रथम किसने दी ?
उत्तर: प्राथमिक समूह की अवधारणा
सर्वप्रथम कूले ने दी थी।
8. प्राथमिक
समूह किसे कहते हैं ?
उत्तर: लुण्डवर्ग ने प्राथमिक
समूह को परिभाषित करते हुए कहा है, “प्राथमिक समूह का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे
व्यक्तियों से है जो घनिष्ठ, सहभागी और वैयक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं।”
9. औपचारिक और
अनौपचारिक समूहों में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: औपचारिक और अनौपचारिक
संगठन के बीच अंतर
1. उद्भव: औपचारिक
संगठन, नियमों एवं सिद्धांतों के आधार पर जान बूझकर उत्पन्न । अनौपचारिक संगठन व्यक्तियों
की अतः व्यैक्तिक क्रियाओं से स्वतः उत्पन्न ।
2. उद्देश्य: औपचारिक
संगठन का उद्देश्य होता है, प्रबंध द्वारा निर्धारित कार्यों को संपन्न करना । अनौपचारिक
संगठन का ध्येय होता है, समूह के सदस्यों को सामाजिक संतुष्टि उपलब्ध करवाना ।
3. संहिता/चार्ट: औपचारिक
संगठन में एक लिखित संहिता या चार्ट होता है जिसमें प्रत्येक कार्मिक के उत्तरदायित्व
व कार्य लिखे होते हैं । अनौपचारिक संगठन में अलिखित आचार संहिता होती है । इसके द्वारा
समूह में प्रत्येक व्यक्ति का योगदान या प्रभाव अपेक्षित रहता है ।
5. आकार: औपचारिक
संगठन बड़े होते हैं जबकि अनौपचारिक संगठन छोटे-छोटे होते हैं ।
6. परस्पर आश्रितताः औपचारिक
संगठन प्रारंभ में स्वयं होता है लेकिन बाद में अनौपचारिक संगठन का प्रयोग करने लगता
है । अनौपचारिक संगठन तब तक अस्तित्व में नहीं आते जब तक कि औपचारिक संगठन नहीं ।
10. अन्तःसमूह
तथा बाह्य समूहों में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर: अन्तः एवं बाह्य समूहों
में अन्तर निम्न हैं-
1. अन्तः समूह' स्वय के समूह
को इंगित करता है और 'बाह्य समूह ' दूसरे समूह को इंगित करता है।
2. अन्त: समूह में सदस्यों
के लिए 'हमलोग' शब्द का उपयोग होता है जब की बाह्य समूह जो सदस्यों के लिए 'वे' शब्द
का प्रयोग किया जाता है।
3. यह पाया गया है की अन्त:
समूह में सामान्यतया व्यक्तियों में समानता मानी जाती है, उन्हें अनुकूल दृष्टि से
देखा जाता है और उनमे वांछनीय विशेषक पाए जाते है। बाह्य समूह के सदस्यों को अलग तरीके
से देखा जाता है और उनका प्रत्यक्षण अंतः समूह के सदस्यों की तुलना में प्रायः नकारात्मक
होता है।
11. द्वितीयक
समूह की विशेषता बताएँ।
उत्तर: द्वितीयक समूह की विशेषताएं-
1.संबंधों मे घनिष्ठता का अभाव
रहता हैं।
2. संबंध अवैक्तिक होते हैं।
3. द्वैतीयक समूह योग्यता और
कार्यकुशलता के आधार पर निर्देशित होते हैं।
4. संबंध सर्वागीण न होकर सीमित
होते हैं।
5. द्वैतीयक समूहों का आकार
बड़ा होता हैं अर्थात् इसके सदस्यों की संख्या अधिक रहती हैं।
6. द्वैतीयक समूह विशाल क्षेत्र
मे फैले हुए होते हैं।
7. सदस्यों के सम्बन्ध वैयक्तिक
न होकर सामूहिक होते हैं।
8. इनका निर्माण किसी विशेष
उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। इसीलिए इनको विशेष हित समूह भी कहा जाता हैं।
9. सदस्यों मे व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
की भावना का अभाव पाया जाता हैं।
10. द्वैतीयक समूह का निर्माण
जानबूकर चेतन अवस्था मे किया जाता हैं।
11. द्वैतीयक समूह मे सामाजिक
नियन्त्रण के साधन औपचारिक होते है, जैसे पुलिस, न्यायालय आदि।
12. द्वैतीयक समूह तुलनात्मक
दृष्टि से अस्थिर होते है। ये उद्देश्य की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं।
13. द्वैतीयक समूह मे संबंध
बहुत कुछ औपचारिक होते हैं।
14. द्वितीयक समूह विशेष हितों
पर आधारित होते हैं।
12. अन्तः समूह
की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर: जिन समूहों के साथ कोई
व्यक्ति पूर्ण एकात्मकता या तादात्म्य स्थापित करता है उन्हें उसका अन्त:समूह कहा जाता
है। अन्त:समूह के सदस्यों के मध्य अपनत्व की भावना पाई जाती है। वे अन्तःसमूह के सुख
को अपना सुख तथा दुःख को अपना दुःख मानते हैं। समूह का अस्तित्व सदस्य स्वयं का अस्तित्व
मान लेते हैं। दूसरे शब्दों में इस प्रकार के समूह में हम की भावना' (We feeling) पाई
जाती है। प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे से भावात्मक सम्बन्धों द्वारा बंधा होता है। प्रेम,
स्नेह, त्याग और सहानुभूति का भाव स्पष्ट रूप से सदस्यों के मध्य दृष्टिगोचर होता है।
अधिकांश व्यक्तियों के लिए परिवार अन्तः समूह का एक चिरपरिचित उदाहरण है। अपना गाँव,
जाति, धार्मिक सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि अन्त:समूह के अन्य उदाहरण हैं। प्रत्येक व्यक्ति
का राष्ट्र उसका अन्त: समूह है। वह अपने देश की प्रशंसा उसकी प्रगति से प्रारम्भ करता
है। इसके विपरीत देश की अवनति या बुराई से उसे दुःख होता है। ठीक इसी प्रकार पड़ोस
या जिस शिक्षण संस्था का वह सदस्य है, वह व्यक्ति का अन्त: समूह होता है । वह उस अन्त:
समूह से विशेष लगाव व स्नेह रखता है तथा ठीक वैसे ही कार्य करता है, जैसे कि समूह की
इच्छा होती है। अतः अन्त:समूह, सदस्यों की दृष्टि में उसका अपना समूह होता है। उसके
साथ सदस्य अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं। अन्त:समूह प्राथमिक भी हो सकते हैं, द्वितीयक
भी, वे स्थायी भी हो सकते हैं तथा अस्थायी भी।
13. प्रस्थिति
से क्या तात्पर्य है ? इसके प्रकार बताएँ।
उत्तर: इलियट एवं मैरिल के
अनुसार- “इलियट जी का कहना है कि प्रस्थिति व्यक्ति का वह पद है, जो किसी समूह में
अपने लिंग, आयु, परिवार, वर्ग, व्यवसाय, विवाह अथवा प्रयाशों आदि के कारण प्राप्त करता
है।”
आर. लिण्टन ने समाज में पायी
जाने वाली प्रस्थितियों को दो भागों में बाँटा है
1. प्रदत्त प्रस्थिति- प्रदत्त
प्रस्थिति वह है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को किसी प्रकार के प्रयत्न नहीं
करने पड़ते बल्कि सामाजिक व्यवस्था के अनुसार उसे यह स्थिति अपने आप ही प्राप्त होती
है ।
2. अर्जित प्रस्थिति – अर्जित
स्थिति व्यक्ति की कुल स्थिति का वह भाग है जिसे वह अपने प्रयत्नों और योग्यता से समाज
से प्राप्त करता है ।
14. प्रस्थिति
की विशेषताओं का उल्लेख करें। अथवा, प्रस्थिति के तत्त्वों की विवेचना करें।
उत्तर: प्रस्थिति की निम्नलिखित
विशेषताएं हैं--
1. स्थिति का हस्तांतरण: स्थितियों
के संस्थाकरण के द्वारा समाज की संस्कृति का एक अंग बन जाती है और अन्य सांस्कृतिक
उपकरणों के समान ये भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती हैं।
2. सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा
निर्धारण: समाज मे व्यक्ति की स्थिति का निर्धारण समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मूल्यों
के आधार पर होता हैं।
3. सापेक्षिक अवधारणा: हम किसी
प्रस्थिति का अर्थ अन्य स्थितियों के संन्दर्भ मे ही समझ सकते है। उदाहरण के लिए पति
की स्थिति का अर्थ पत्नी की स्थिति के संन्दर्भ मे ही स्पष्ट किया जा सकता हैं।
4. प्रस्थिति की विविधता: एक
ही समय मे एक व्यक्ति की अनेक स्थितियाँ होती है अर्थात् वह विभिन्न समूहों मे विभिन्न
स्थानों को ग्रहण करता हैं।
5. एक लम्बे समय तक समाज मे
विद्यमान रहने के कारण स्थितियां होती हैं: अर्थात् वह विभिन्न समूहों के विभिन्न स्थानों
को ग्रहण करता है। समाज को प्रत्येक स्थिति नये सिरे से निर्धारित नही करनी होती, बल्कि
वह पहले से ही समाज मे विद्यमान होती हैं।
15. समाजशास्त्र
की परिभाषा दें तथा इसके विषय-क्षेत्र की विवेचना करें।
उत्तर: ऑगस्त कॉम्टे को समाजशास्त्र
का जन्मदाता कहा जाता हैं। ऑगस्त कॉम्टे से इसे 'सामाजिक भौतिकशास्त्र का नाम दिया।
इसके बाद सन् 1838 मे कॉम्टे ने ही इसे समाजशास्त्र नाम दिया था।
इनके अनुसार, "समाजशास्त्र
सामाजिक व्यवस्था और प्रगति का विज्ञान है।"
प्राय: कुछ लोग विषय क्षेत्र
(Scope) तथा विषय-वस्तु (Subject-matter) को एक ही समझ लेते हैं जबकि दोनों में पर्याप्त
अन्तर है। विषय क्षेत्र का तात्पर्य वे सम्भावित सीमाएँ हैं जहाँ तक किसी विषय का अध्ययन
सम्भव होता है, जबकि विषय-वस्तु वे निश्चित सीमाएँ हैं जिनके अन्तर्गत अध्ययन किया
जा सकता है। प्रत्येक सामाजिक विज्ञान व्यक्तियों के सामाजिक जीवन को तथा विभिन्न घटनाओं
को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ, अर्थशास्त्र आर्थिक
दृष्टिकोण से, राजनीतिशास्त्र राजनीतिक दृष्टिकोण से, मनोविज्ञान मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
से तथा समाजशास्त्र सामाजिक दृष्टिकोण से घटनाओं का अध्ययन करते हैं। विभिन्न दृष्टिकोण
होने के बावजूद किसी भी सामाजिक विज्ञान का विषय क्षेत्र निर्धारित करना एक कठिन कार्य
है। एक आधुनिक विज्ञान होने के नाते समाजशास्त्र में यह कठिनाई अन्य विज्ञानों की अपेक्षा
कहीं अधिक है। कालबर्टन (Calberton) के अनुसार समाजशास्त्र क्योंकि लचीला विज्ञान है
अतः यह निश्चित करना पूर्ण रूप से कठिन कार्य है कि इसकी सीमा कहाँ से प्रारम्भ होती
है, कहाँ समाजशास्त्र मनोविज्ञान तथा कहाँ मनोविज्ञान समाजशास्त्र बन जाता है अथवा
जैविक सिद्धान्त समाजशास्त्रीय सिद्धान्त बन जाता है। समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र
के बारे में प्रमुख विद्वान एकमत नहीं हैं। इसके बारे में हमारे सामने निम्नांकित दो
प्रमुख परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण (या सम्प्रदाय) प्रस्तुत किए गए हैं—
क. स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी
सम्प्रदाय
ख. समन्वयात्मक सम्प्रदाय
16. सामाजिक
समूह क्या है? इसके प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: शब्द समूह को आमतौर
पर एक ही समय में एक ही समय में एकत्रित किए गए कई लोगों के लिए समझा जाता है। समाजशास्त्रीय
दृष्टि से एक समूह समान मानदंडों, मूल्यों और अपेक्षाओं वाले लोगों की संख्या है जो
नियमित और होशपूर्वक बातचीत करते हैं।
एक सामाजिक समूह उन व्यक्तियों
की बहुलता है जिनकी एक समान पहचान है, कम से कम कुछ एकता की भावना, कुछ सामान्य लक्ष्यों
और साझा मानदंडों, और काफी उच्च स्तर की बातचीत।
सामाजिक समूह के प्रकार
समूहों का एक व्यवस्थित अध्ययन
एक वैज्ञानिक वर्गीकरण की मांग करता है। समूहों का वर्गीकरण आकार, समूहों के संगठन
की डिग्री और सहभागिता और हितों की प्रकृति के आधार पर बनाया जा सकता है। समूहों का
एक बहुत महत्वपूर्ण वर्गीकरण प्राथमिक और माध्यमिक समूहों में है।
1. प्राथमिक समूह: प्राथमिक
समूह शब्द को चार्ल्स होर्टन कोली द्वारा गढ़ा गया था, जिन्हें प्राथमिक समूह के रूप
में नामित किया गया था, जिसमें सदस्य अंतरंग बातचीत और उस तरह के सहयोग में संलग्न
होते हैं जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए बुनियादी है।
प्राथमिक समूह सार्वभौमिक हैं
और व्यक्तियों के लिए जबरदस्त महत्व रखते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे ज्यादातर
लोगों की भलाई के लिए आवश्यक हैं। प्राथमिक समूह व्यक्तियों का सामाजिकरण करते हैं।
प्राथमिक समूह संबंधों द्वारा विकसित और ढाला जाता है। परिवार एक प्राथमिक समूह का
सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है।
2. द्वितीयक समूह: द्वितीयक
समूह वे हैं जो अवैयक्तिक, संविदात्मक, औपचारिक और तर्कसंगत संबंधों की विशेषता रखते
हैं। द्वितीयक समूह प्राथमिक समूहों के लगभग विपरीत हैं। ओबर्न और निमकोफ का कहना है
कि “समूह जो अंतरंगता में कमी का अनुभव प्रदान करते हैं उन्हें माध्यमिक समूह कहा जा
सकता है।”
17. सामाजिक
समूह से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: मैकाइवर और पेज,
"समूह से हमारा तात्पर्य मनुष्य के किसी भी ऐसे संग्रह से है जो सामाजिक सम्बन्धों
द्वारा एक दूसरे से बंधे हों।"
सामाजिक समूह की निम्नलिखित
विशेषताएं हैं--
1. समान्य हित: सामाजिक
समूह के सभी सदस्यों के हित प्राय: समान होते हैं। सामान्य हित होने से समूह का स्थायित्व
बढ़ता हैं।
2. दो या अधिक व्यक्ति : एक
सामाजिक समूह व्यक्तियों का संग्रहण होता है अर्थात् एक व्यक्ति समूह का निर्माण नहीं
कर सकता। इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्ति समूह के निर्माण के लिए आवश्यक होते हैं।
3. सदस्यों की पारस्परिक जागरूकता: सामाजिक
समूह के प्रत्येक सदस्य को अन्य सदस्यों तथा अपने समूह के प्रति जागरूक होना चाहिये।
पारस्परिक जागरूकता से सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं।
4. प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष
संपर्क : समूह के सभी सदस्यों में प्रत्यक्ष संपर्क होना आवश्यक नहीं
हैं। छोटे समूहों में तो प्रत्यक्ष संपर्क संभव हैं। जैसे-- परिवार, खेल समूह आदि।
जबकि बड़े समूहों में अप्रत्यक्ष संपर्क पाया जाता हैं। जैसे-- जाति समूह, वर्ग समूह
आदि।
5. अनिश्चित आकार : सामाजिक
समूह का कोई निश्चित आकार नहीं होता। इसका निर्माण दो-तीन व्यक्तियों को लेकर हजारों-लाखों
व्यक्तियों तक से हो सकता हैं। वर्तमान युग में जैसे-जैसे व्यक्तियों के संबंधों का
दायरा बढ़ता जा रहा हैं, सामाजिक समूहों के आकार में भी वृद्धि होने लगी हैं।
6. मनुष्यों का संग्रह: सामाजिक
समूह की सबसे प्रथम विशेषता यह हैं कि इसमे मनुष्यों का संग्रह होना आवश्यक हैं। सामाजिक
समूह के निर्माण के लिए कम से कम दो मनुष्यों का संग्रह होना आवश्यक हैं। केवल एक व्यक्ति
की उपस्थिति को समूह नही कहा जा सकता।
7. सामाजिक संबंध: इसे
पारस्परिक सम्बन्ध भी कहा जाता हैं। इसका तात्पर्य यह हैं कि समूह के सदस्यों मे पारस्परिक
सम्बन्ध का होना अनिवार्य है। पारस्परिक सम्बन्ध से उनमे चेतना का विकास होता हैं।
यह चेतना सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण और विकास मे सहायक होती है।
8. एकता की भावना: सामाजिक
समूह के सदस्यों मे एकता पायी जाती हैं। इस एकता का आधार चेतना होती हैं। यह चेतना
दो प्रकार की होती हैं-- 1. चेतन एकता, 2. अचेतन एकता।
9. सदस्यों का पारस्परिक आदान-प्रदान: सामाजिक
समूह के अन्तर्गत समूह के सभी सदस्यों के मध्य आदान-प्रदान होना भी आवश्यक हैं। एक
ही समूह के सदस्यों मे विचारों एवं वस्तुओं का आदान-प्रदान हुआ करता हैं।
10. समूह की सदस्यता ऐच्छिक
होती हैं: सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि मनुष्य स्वभाव से
ही सामूहिक प्रवृत्ति का होता है तथा अनिर्वाय रूप से विभिन्न समूहों का सदस्य होता
है। परन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि यह अनिवार्य नही कि कोई व्यक्ति किस-किस समूह
का सदस्य होगा? वास्तव मे, विशिष्ट समूहों की सदस्यता व्यक्ति के लिये ऐच्छिक होती
हैं।
18. संस्कृति
से आप क्या समझते हैं ? संस्कृति तथा सभ्यता में अन्तर बताएँ।
उत्तर: वर्तमान पीढ़ी ने अपने
पूर्वजों तथा स्वयं के प्रयासों से जो अनुभव व व्यवहार सीखा है, वही संस्कृति है। मैकाइवर
तथा पेज के अनुसार-"संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म मनोरंजन
और आनंद में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति
है।
सभ्यता और संस्कृति में पाए
जाने वाले प्रमुख अंतर निम्न प्रकार हैं-
1. गिलिन एवं गिलिन के मत में,
“सभ्यता, संस्कृति को अधिक जटिल तथा विकसित रूप है।”
2. ए० डब्ल्यू० ग्रीन सभ्यता
और संस्कृति के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती
है जब उसके पास लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम-विभाजन, एक
जटिल प्रविधि और राजनीतिक पद्धति हो।”
3. संस्कृति का संबंध आत्मा
से है और सभ्यता का संबंध शरीर से है।
4. सभ्यता को सरलता से समझा
जा सकता है, लेकिन संस्कृति को हृदयंगम करना कठिन है।
5. सभ्यता को कुशलता के आधार
पर मापना चाहें तो मापा जा सकता है, परंतु संस्कृति को नहीं।
6. सभ्यता में फल प्राप्त करने
का उद्देश्य होता है, परंतु संस्कृति में क्रिया ही साध्य है।
7. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार-संस्कृति
केवल समान प्रवृत्ति वालों में ही संचारित रहती है। कलाकार की योग्यता के बिना कोई
भी कला के गुण की परख नहीं कर सकता, न ही संगीतकार के गुण के बिना ही कोई संगीत का
मजा ले सकता। सभ्यता सामान्य तौर पर ऐसी माँग नहीं करती। हम उसको उत्पन्न करने वाली
सामर्थ्य में हिस्सा लिए बिना ही उसके उत्पादकों का आनंद ले सकते हैं।”
8. सभ्यता का संपूर्ण हस्तांतरण
हो सकता है, परंतु संस्कृति का हस्तांतरण पूर्ण रूप से कभी नहीं ” हो सकता।
9. सभ्यता का रूप बाह्य होता
है, जबकि संस्कृति का आंतरिक।
10. सभ्यता बिना प्रयास के
प्रसारित होती है, जबकि संस्कृति ज्यों-की-त्यों प्रसारित नहीं होती।
19. सामाजिक स्तरीकरण क्या
है ? इसकी विशेषताओं की विवेचना करें।
उत्तर: सामाजिक स्तरीकरण का
आधार सामाजिक विभेदीकरण है। जब भिन्न सामाजिक विशिष्टताओं के साथ भिन्न सामाजिक प्रतिष्ठा
जुड़ जाती है जिससे कतिपय सामाजिक विशिष्टताओं को समाज मे ऊँचा स्थान, अच्छी सुविधाएँ
और पुरस्कार प्रदान किया जाता है तो समाज न केवल विभेदीकृत होता है, बल्कि स्तरीकृत
भी हो जाता है।
सोरोकिन के अनुसार," सामाजिक
स्तरीकरण का तात्पर्य है, एक जनसंख्या विशेष को एक दूसरे के ऊपर, ऊँच-नीच स्तरणात्मक
वर्गों मे विभेदीकरण। इसकी अभिव्यक्ति उच्चतर एवं निरंतर स्तरों के विद्यमान होने के
माध्यम से होती है।
सामाजिक स्तरीकरण की निम्न
विशेषताएं है--
1. सार्वभौमिकता: प्रत्येक
समाज मे किसी न किसी रूप मे स्तरीकरण अवश्य ही पाया जाता हैं।
2. सामाजिक मूल्याकंन: सामाजिक
स्तरीकरण मे समाज का वर्गीकरण कार्य व पद के आधार पर किया जाता है, किन्तु समाज का
प्रत्येक वर्ग किसी व्यक्ति को अपने मे मिलाने से पूर्व यह अच्छी तरह देख लेता है कि
वह व्यक्ति उस वर्ग के योग्य है या नही। इस प्रकार की योग्यता परीक्षण को सामाजिक मूल्याकंन
कहा जाता हैं।
3. कार्यों की प्रधानता: सामाजिक
स्तरीकरण की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें कार्यों को महत्व दिया जाता है।
4. निरन्तरता: सामाजिक
स्तरीकरण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
5. स्थायित्व: समाज
का विभाजन स्तरीकरण के आधार पर ही होता है, जिसमे स्थायित्व पाया जाता है।
6. उच्चता एवं निम्नता: सामाजिक स्तरीकरण मे जो भी विभाजन समाज का होता है उसमें उच्चता एवं निम्नता को आधार माना जाता हैं।