Section
A खण्ड क
(
अति लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।
1. संसदीय प्रणाली का अर्थ बताइए।
उत्तर:
संसदीय प्रणाली लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका अपनी
लोकतांत्रिक वैधता विधायिका के माध्यम से प्राप्त करती है और विधायिका के प्रति उत्तरदायी
होती है। इस प्रकार संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे से परस्पर
संबंधित होते हैं।
2. लोकसभा की पहली महिला स्पीकर कौन है ?
उत्तर:
श्रीमति मीरा कुमार
3. धन विधेयक की परिभाषा दें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 110 में धन विधेयक की परिभाषा की परिभाषा दी गयी है।
इसके
अनुसार कोई विधेयक तब धन विधेयक माना जाएगा, जब उसमे निम्न उपबन्ध होंगे।
◆
किसी कर को लगाना, हटाना, या उसमें परिवर्तन करना।
◆
केंद्रीय सरकार द्वारा उधार लिए गए धन का विनियमन।
◆
भारत की संचित निधि या आकस्मिकता निधि में धन जमा करना या धन निकलना।
◆
किसी नए व्यय को भारत की संचित निधि पर प्रभारित व्यय घोषित करना।
4. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति उम्र क्या है ?
उत्तर:
65 वर्ष
5. पंचायतों का चुनाव कौन करवाता है ?
उत्तर:
ग्राम पंचायत का चुनाव राज्य निर्वाचन आयोग करवाता है।
6. राष्ट्रवाद क्या है ?
उत्तर:
राष्ट्र के प्रति निष्ठा, उसकी प्रगति और उसके प्रति सभी नियम आदर्शों को बनाए रखने
का सिद्धांत।
7. विकास की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर:
सोरेन्सन के अनुसार," विकास का अर्थ परिपक्वता और कार्यपरक सुधार की व्यवस्था
से है जिसका संबंध गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों से हैं।"
Section
- B खण्ड - ख
(
लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।
8. भारतीय चुनाव आयोग के तीन कार्य क्या हैं ?
उत्तर:
संसद, राज्य विधानमंडल, राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन हेतु आयोग की शक्तियों
एवं कार्यों को तीन वर्गों यथा प्रशासनिक, सलाहकारी तथा अर्ध-न्यायिक में विभाजित किया
गया है। आइये आयोग के कुछ महत्वपूर्ण कार्यों को देखते हैं।
1.
संसद के परिसीमन आयोग अधिनियम के आधार पर देश के निर्वाचन क्षेत्रों के भू-भाग का निर्धारण
करना।
2.
समय-समय पर निर्वाचक नामावली तैयार करना, जिससे योग्य मतदाताओं का पंजीकरण किया जा
सके।
3.
निर्वाचन की तिथि एवं समय सारणी का निर्धारण करना तथा नामांकन पत्रों का परीक्षण करना।
4.
राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करना तथा उन्हें चुनाव चिन्ह आवंटित करना। इसके अतिरिक्त
राजनीतिक दलों को मान्यता अथवा चुनाव चिन्ह आवंटित करने में किसी विवाद के होने पर
न्यायालय की भूमिका में कार्य करना।
5.
निर्वाचन कराने के लिए राष्ट्रपति तथा राज्यपाल से आवश्यक कर्मचारियों की माँग करना
तथा निर्वाचन व्यवस्था से संबंधित कोई विवाद होने पर उसकी जाँच के लिए अधिकारियों की
नियुक्ति करना ।
6.
चुनाव प्रक्रिया के दौरान राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों के लिए आचार संहिता का निर्माण
करना तथा उसे क्रियान्वित करवाना।
7.
मतदाता केंद्र के लूटे जाने, हिंसा होने आदि के आधार पर निर्वाचन को रद्द करना।
8.
निर्वाचन में प्रदर्शन के आधार पर किसी राजनैतिक दल को राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल का
दर्जा देना।
9. राष्ट्रपति शासन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
राष्ट्रपति शासन को लागू करने के लिए सबसे पहले राष्ट्रपति को यह सुनिश्चित करना पड़ता
है कि, किसी विशेष राज्य का कार्यशक्ति फेल हो गया है और तब वहां पर राष्ट्रपति शासन
की आवश्यकता है। फिर जब संसद के दोनों सदन से उस घोषणा को स्वीकृति प्रदान हो जाती
है, तो उस राज्य में अगले छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है।
10. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन और कैसे करता है
?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के रूप
में नियुक्त करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 124 में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों
की नियुक्ति से संबंधित शर्ते और प्रक्रियाएँ उपलब्ध कराई गई हैं।
सर्वोच्च
न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति :सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति
राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति, राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों
एवं राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सलाह पर करता है। अन्य न्यायाधीशों
की नियुक्ति हेतु मुख्य न्यायाधीश की सलाह आवश्यक है।
न्यायाधीशों
की अर्हताएं :- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने हेतु व्यक्ति में निम्न अर्हताएं
आवश्यक हैं -
1.
भारत का नागरिक हो ।
2.
भारत के किसी भी उच्चतम न्यायालय में 5 साल के लिए न्यायाधीश या उच्च न्यायालय एवं
विभिन्न न्यायालय में मिलाकर 10 वर्ष का वकालत का तजुर्बा या राष्ट्रपति की दृष्टि
में एक सम्मानित न्यायवादी।
3.
न्यूनतम आयु का कोई उल्लेख नही किया गया है।
11. विकास से समाज कैसे प्रभावित होता है ?
उत्तर:
विकास की वह कीमत जो समाज को चुकानी पड़ी विकास के इस मॉडल के कारण बहुत बड़ी सामाजिक
कीमत भी चुकानी पड़ी। अन्य चीज़ों के अलावा बड़े बाँधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों
और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन
हुआ। विस्थापन का परिणाम आजीविका खोने और दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने आया
है। अगर ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परंपरागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होते हैं,
तो वे समाज के हाशिए पर चले जाते हैं। बाद में वे शहरी और ग्रामीण गरीबों की विशाल
आबादी में शामिल हो जाते हैं। लंबी अवधि में अर्जित परंपरागत कौशल नष्ट हो जाते हैं।
संस्कृति का भी विनाश होता है, क्योंकि जब लोग नई जगह पर जाते हैं, तो वे अपनी पूरी
सामुदायिक जीवन पद्धति खो बैठते हैं। ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षो को
जन्म दिया है।
विस्थापित
लोगों ने अपनी इस नियति को हमेशा निष्क्रियता से स्वीकार नहीं किया। आपने 'नर्मदा बचाओ
आंदोलन के बारे में सुना होगा यह नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना के तहत बनने वाले
बाँधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चला रहा है। बड़े बाँधों के इन समर्थकों का दावा
है कि इससे बिजली पैदा होगी, काफी बड़े इलाके में जमीन की सिंचाई में मदद मिलेगी और
सौराष्ट्र व कच्छ के रेगिस्तानी इलाके को पेयजल भी उपलब्ध होगा। बड़े बाँधों के विरोधी
इन दावों का खंडन करते हैं। इसके अलावा अपनी जमीन के डूबने और उसके कारण अपनी आजीविका
के छिनने से दस लाख से अधिक लोगों के विस्थापन की समस्या पैदा हो गई है। इनमें से अधिकांश
लोग जनजाति या दलित समुदायों के हैं, और देश के अति-वंचित समूहों में आते हैं। इसके
अतिरिक्त यह तर्क भी दिया जाता है कि विशाल जंगली भूभाग भी बाँध में डूब जाएगा जिससे
पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ेगा।
12. लोकसभा के स्पीकर की किन्हीं तीन शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
- लोकसभा के अध्यक्ष (स्पीकर) को निम्नलिखित
कार्य एवं अधिकार प्राप्त है :-
→
सदन के सदस्यों के प्रश्नों को स्वीकार करना उन्हें नियमित
व नियम के विरुद्ध घोषित करना।
→
किसी विषय को लेकर प्रस्तुत किए जाने वाला कार्य स्थगन प्रस्ताव
अध्यक्ष की अनुमति से पेश किया जा सकता है।
→
लोकसभा अध्यक्ष को विचारधिन विधेयक पर बहस रुकवाने का अधिकार
प्राप्त है।
→
संसद सदस्यों को भाषण देने की अनुमति देना और भाषणों का कर्म
व समय निर्धारित करना।
→
विभिन्न विधेयक वह प्रस्ताव पर मतदान करवाना एवं परिणाम घोषित
करना तथा मतों की समानता की स्थिति में निर्णायक मत देने का भी अधिकार है।
→
संसद और राष्ट्रपति के बाद होने वाला पत्र व्यवहार करना तथा
कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं इसका निर्णय करना भी लोकसभा अध्यक्ष का कार्य है।
13. स्थानीय स्वशासन का महत्त्व लिखिये।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन का महत्व निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-
1.
स्थानीय समस्याओं का समाधान : नगरीय समाज की समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है
केंद्रीय अथवा राज्य सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह छोटे बड़े नगरों की असंख्या
समस्याओं का समाधान कर सके। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न नगरों की समस्याओं से परिचित
भी नहीं होती है। अस्तु उसके लिए उन समस्याओं का समाधान ढूंढना भी दुरूह कार्य है।
स्वशासन मे स्थानीय प्रतिनिधि होते हैं, वे अपने क्षेत्र की समस्याओं में से भली-भांति
परिचित होते हैं। अस्तु वे इनके निराकरण का रास्ता भी निकाल लेते हैं। इससे स्थानीय
समस्याओं का समाधान सरल हो जाता है।
2.
सरकार के उत्तरदायित्व मे कमी : स्थानीय स्वशासन के कारण केंद्रीय और राज्य सरकार की
ऊर्जा स्थानीय समस्याओं के निराकरण में नष्ट नहीं होती है। क्योंकि स्थानीय स्वशासन
स्वतः अपनी अनेक समस्याओं का निराकरण कर लेता है। इससे सरकार के स्थानीय उत्तरदायित्व
का बोझ कम हो जाता है।
3.
स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति : स्थानीय स्वशासन अपने नगर की विभिन्न आवश्यकताओं को
पूर्ण करने का प्रयास करता है। यह उसका पुनीत दायित्व भी है क्योंकि यदि यह स्थानीय
समस्याओं का हल नहीं ढूंढ पाता है तो नगर विशेष की प्रगति नहीं हो पाती है।
4.
राष्ट्रीय स्वशासन की नींव : स्थानीय स्वशासन की स्थापना करने का अर्थ है राष्ट्रीय
स्वशासन की नींव डालना। पराधीन देश की स्वतंत्रता का आरंभ स्थानीय स्वशासन से होता
है। जब जनता में स्वशासन की भावना उत्पन्न हो जाती है, तो वह राष्ट्रीय स्वशासन को
प्राप्त करने के लिए यथासंभव प्रयास करती है।
5.
न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण : स्थानीय समस्याओं का शीघ्र और उचित रूप से निराकरण
हो सके और स्थानीय जनता के साथ न्याय किया जाए। इस दृष्टि से स्थानीय स्वशासन अत्यंत
महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार है कि उसे अपनी समस्याओं के शीघ्र निराकरण
के लिए अवसर प्राप्त हो स्थानीय स्वशासन के अभाव में व्यक्ति को अपनी समस्याओं के समाधान
के लिए केंद्रीय सरकार और राज्य सरकार के सम्मुख गिड़गिड़ाना पड़ेगा और उसका कार्य
अति शीघ्र ना हो सकेगा। अस्तु स्थानीय समस्याओं के निराकरण के लिए स्थानीय स्वशासन
आवश्यक है। वह विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिए तत्पर रहता वह बिना किसी पक्षपात
के स्थानीय समस्याओं का समाधान करता है।
6.
लोकतंत्रात्मक सरकार का आधार: निःसंदेह स्थानीय प्रशासन लोकतंत्र का आधार है। स्थानीय
संस्था वह पाठशाला है जहां व्यक्ति को आरंभिक रूप में प्रशासन का प्रशिक्षण प्राप्त
होता है। वह अपने अधिकार और कर्तव्य से भी परिचित होता है। यह प्रजातंत्र के शासन की
आधार और नींव है।
7.
मितव्ययिता : स्थानीय स्वशासन में जनता के अनेक प्रतिनिधि बिना किसी आर्थिक लाभ के
कार्य करते हैं। इनका उद्देश्य अपने नगर की विभिन्न समस्याओं का निराकरण करना है। स्थानीय
संस्थाएं स्थानीय जनता के विभिन्न कार्यों को पूर्ण करने हेतु कुछ कर भी लगाती हैं।
इसलिए स्थानीय व्यक्ति अत्यधिक जागरूक होता है वह चाहता है कि उसके धन का दुरुपयोग
ना किया जाए। यही कारण है कि स्थानीय प्रशासन व्यर्थ में जनता का धन नष्ट नहीं करता।
14. हमें पंथनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर:
पंथनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं और धर्म
, पंथ एवं उपासना रीति के आधार पर राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगा।
राष्ट्रीय स्वतंत्रा संग्राम के दौरान ही भारत मे सांप्रदायिक कटुता का विस्तार हो
चुका था। तथा देश का विभाजन इसकी चरम परिणीति थी।।स्वतंत्रा प्राप्ति के बाद नवजात
लोकतंत्र को सम्प्रदायवाद के घातक प्रभावों से मुक्त रखने के लिए यह आवश्यक समझा गया
कि धर्म या पंथ को राजनीतिक से अलग रखा जाए। राज्य द्वारा सभी को अपने-अपने ढंग से
संस्कृति का विकास और धार्मिक अध्ययन प्राप्त करने की छूट दी गई है।भारतीय राज्य एक
धर्मनिरपेक्ष राज्य है। भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है।
Section
- C खण्ड ग
(
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
तीन प्रश्नों के उत्तर दें।
15. राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति को संकटकाल का मुकाबला करने हेतु भारत का संविधान बहुत अधिक शक्तियाँ
प्रदान करता हैं। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक तीन प्रकार की आपातकालीन स्थितियों
की चर्चा की गई हैं।
1.
युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति से संबंधित आपातकालीन स्थिति
संविधान
के अनुच्छेद 352 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को यह अनुभव हो कि युद्ध, बाहरी आक्रमण या
सशस्त्र विद्रोह या इसकी सम्भावना के कारण भारत या इसके किसी भाग की सुरक्षा खतरे मे
है तो वह इस आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है। उपर्युक्त शब्दावली " सशस्त्र विद्रोह
शब्द 44 वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा " आंतरिक अशांति " शब्द के स्थान
पर जोड़ा गया है। यह घोषणा पूरे भारत या भारत के किसी भाग के संदर्भ मे की जा सकती
है। यह जरूरी नही कि ऐसी स्थिति वास्तव मे उत्पन्न हुई हो। राष्ट्रपति को इसकी सम्भावना
का समाधान होने पर वह घोषणा कर सकता है।
इस
प्रकार की घोषणा के लिए मंत्रिपरिषद् का लिखित परामर्श होना अनिवार्य है। इस प्रकार
की घोषणा का एक माह के भीतर संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत के संकल्प द्वारा अनुमोदन
आवश्यक है।
संकटकाल
की घोषणा की समाप्ति राष्ट्रपति द्वारा ही एक अन्य घोषणा द्वारा की जा सकती है। संकटकाल
की घोषणा को संसद के सामने रखा जायेगा। अगर संसद उसे अपनी स्वीकृति प्रदान नही करती,
तो दो मास के बाद यह स्लयंमेव ही खत्म हो जायेगी। अगर इस बीच लोकसभा का विघटन हो चुका
है, तो नई लोकसभा का अधिवेशन शुरू होने के तीस दिन के अंदर वह घोषणा उनके सामने रखी
जायेगी। अगर लोकसभा इस अवधि मे संकटकाल की घोषणा को स्वीकृति प्रदान नही करती तो वह
स्वयंमेव समाप्त मानी जाएगी। संकट की घोषणा की संसद द्वारा स्वीकृत के लिए जरूरी है
कि संसद के दोनों सदनों मे उपस्थित सदस्यों का दो तिहाई बहुमत एवं कुल सदस्यों का स्पष्ट
बहुमत उसका समर्थन करे।
संकटकालीन
घोषणा के परिणाम
(क)
राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 द्वारा सभी नागरिकों को दिये गये अधिकारों
को खत्म कर सकता है।
(ख)
राष्ट्रपति संसद को आदेश दे सकता है कि वह राज्यों की सूची के विषयों पर कानून बनाये।
(ग)
अगर इस काल मे राज्यों के विधान-मण्डलों ने ऐसा कोई कानून बनाया है, जो संघीय कानून
के विरूद्ध प्रतीत हो तो उसे रद्द किया जा सकता है।
(घ)
अगर संसद का अधिवेशन नही हो रहा हो तो राष्ट्रपति संघीय सूची मे दिये गये किसी विषय
पर अध्यादेश जारी कर सकता है।
(ङ)
संसद संकटकाल मे शासन एवं शासनाधिकारियों को विशेष कार्य सौंप सकती है। साथ ही संसद
कानून द्वारा एक बार मे एक वर्ष के लिए अपनी अवधि बढ़ा भी सकती है।
(च)
संघ की कार्यपालिका, राज्यों की कार्यपालिका को आदेश तथा निर्देश दे सकती है एवं उसने
कार्य ले सकती है।
(छ)
राष्ट्रपति एक वित्त वर्ष के लिए संघ एवं राज्यों मे आय के वितरण मे भी परिवर्तन कर
सकता है। इसके लिए भी संसद की स्वीकृति जरूरी है।
(ज)
उपचारों के अधिकारों को राष्ट्रपति स्थगित कर सकता है।
2.
राज्य मे संवैधानिक तंत्र की विफलता से उत्पन्न आपातकालीन स्थिति
भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को स्वयं या किसी राज्य के राज्यपाल
की रिपोर्ट के आधार पर यह महसूस हो कि उस राज्य मे संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है
तो राष्ट्रपति उस राज्य मे संकटकालीन स्थिति (राष्ट्रपति शासन) की घोषणा कर सकता है।
संकटकालीन
घोषणा के परिणाम
जब
किसी राज्य मे संकटकालीन स्थिति की घोषणा की जाती है तो इसके निन्म परिणाम सो सकते
हैं---
(क)
राष्ट्रपति राज्य के मंत्रिमंडल को भंग कर सकता है तथा राज्य के शासन का उत्तरदायित्व
राज्यपाल या अन्य किसी अधिकारी को सौंप सकता है।
(ख)
राज्य की सूचि के विषयों पर शक्ति संसद को सौंप सकता है। संसद परामर्श के लिए समिति
नियुक्त कर सकती है।
(ग)
जब संसद का अधिवेशन न हो रहा हो, तब राष्ट्रपति संचित निधि मे से राज्य के लिए व्यय
कर सकता है।
(घ)
संविधान के अनुच्छेद 19 तथा 32 के अंतर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थागित किया
जा सकता है। इस तरह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों से नागरिकों को वंचित किया जा
सकता है।
(ङ)
राज्य की विधानसभा को भंग किया जा सकता है या उसे स्थगित किया जा सकता है
3.
वित्तीय आपातकालीन स्थिति
संविधान
के अनुच्छेद 360 (1) के अनुसार यदि राष्ट्रपति को यह आभास हो जाए कि ऐसी स्थिति उत्पन्न
हो गई है जिससे भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या वित्तीय साख खतरे मे
है तो वह वित्तीय आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर सकता है। अभी तक भारत मे वित्तीय आपात
स्थिति की घोषणा कभी नही की गई है।
इस
घोषणा का परिणाम यह होगा कि संघ की कार्यपालिका राज्य को वित्तीय औचित्य सम्बन्धी निर्देश
दे सकती है। इसके अन्तर्गत,
(क)
राज्य के कर्मचारियों के सभी या किसी वर्ग विशेष के वेतन और भत्तों मे कमी का निर्देश,
जो उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों पर भी लागू होगा।
(ख)
राज्य के सभी धन विधेयक तथा अन्य संचित निधि पर भारित विधायकों को राज्य विधान मण्डल
मे पारित होने के बाद राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने का निर्देश दिया जा सकता
है।
16. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के गठन व उसके अधिकार क्षेत्र का वर्णन
कीजिए।
उत्तर:
संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय
का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद
को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें
एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान
में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि
कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च
न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय
में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों
के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य
न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।
न्यायाधीशों
की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने
के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –
1.
वह भारत का नागरिक हो।
2.
वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो
अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
3.
राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ता हो।
4.
उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।
कार्यकाल
– उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता
है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि
न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र
देकर मुक्त हो सकता है।
महाभियोग
– संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने
पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति
के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।
शपथ
– उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति
के समक्ष शपथ लेता है।
उन्मुक्तियाँ
– संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –
1.
न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
2.
किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह
निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
3.
महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में
कोई चर्चा नहीं की जा सकती।
वकालत
पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाता
है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी
के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल
में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि
में रखकर की गयी है।
सर्वोच्च
न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये
गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –
(1)
प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
श्री
दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं
है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों
का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य
विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता
है।’
इस
क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –
(अ)
प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार
आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च
न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते
हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं–
1.
भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
2.
वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक
राज्य दूसरी ओर हों।
3.
दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
इस
सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा
संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों
तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।
(ब)
प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू
करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया
गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी
है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।
(2)
अपीलीय क्षेत्राधिकार
भारत
में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय
के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियन्त्रण स्थापित
किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा,
केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये
निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार
को अग्रलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –
(क)
संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च
न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद
में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है।’ लेकिन
यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इन्कार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय
संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकता है, यदि उसे यह विश्वास
हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री
वेंकटराव (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय
में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय
में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।
(ख)
दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील
सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास
आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के
सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न
विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र
न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता
है।
(ग)
फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के
निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –
1.
जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त
को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
2.
जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत
किये जाने योग्य है।
3.
जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड
दिया हो।
4.
यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव
में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध
अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।
(घ)
विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया
गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक
न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालय
या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता
है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इन्कार ही क्यों न किया हो।
अपीलीय
क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली
है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च
न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड ने कहा था कि
“यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार
और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका
के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”
(3)
संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी
संविधान
की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान
की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में
स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या
को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि
इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका
और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरावलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय
को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका को कोई आदेश
संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर
सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।
संविधान
की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा
करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध,
अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।
(4)
परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
सर्वोच्च
न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी
राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न
उठाया। गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो
वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद
143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक
महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता
है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय ‘न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक
निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।
अब
तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक,
1947′ में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी
सम्मतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।
सर्वोच्च
न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में
सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा
सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था
कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।
(6)
अभिलेख न्यायालय अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान
करता है। इसके दो अर्थ हैं –
(i)
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो
अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता
के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
(ii)
इस न्यायालय द्वारा ‘न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह
बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की
अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।
सर्वोच्च
न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख
कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है,
‘न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही
संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्त्तव्य होता है कि वह यह
देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता
है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”
मौलिक
अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च
न्यायालय से अधिक हैं।” इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय
से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया
के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।
17. लास्की के अधिकार सम्बन्धी सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
हेरोल्ड लास्की- सबसे लोकप्रिय व्यक्ति और राजनीति विज्ञान के विपुल लेखक, जिन्होंने
लगभग 20 पुस्तकें लिखी हैं- ने अधिकारों के सिद्धांत को विस्तृत किया है और यह कई मायनों
में एक क्लासिक प्रतिनिधित्व है। वह अधिकारों को "सामाजिक जीवन की उन स्थितियों
के रूप में परिभाषित करता है जिनके बिना कोई भी व्यक्ति सामान्य रूप से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ
होने की तलाश नहीं कर सकता"।
इस
संक्षिप्त और बार-बार उद्धृत परिभाषा से कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लास्की अधिकारों
को सामाजिक जीवन की शर्तें कहते हैं। बाहरी दुनिया का अजनबी या एकांत द्वीप का नागरिक
अधिकार का दावा नहीं कर सकता। अधिकार वास्तव में सामाजिक अवधारणा हैं और सामाजिक जीवन
से गहराई से जुड़े हुए हैं। अधिकारों की अनिवार्यता इस तथ्य से स्थापित होती है कि
व्यक्ति अपने सर्वोत्तम स्वयं के विकास के लिए उन पर दावा करते हैं।
वह
अधिकारों, व्यक्तियों और राज्य को एक ही तख़्त पर इस अर्थ में रखता है कि उन्हें एक
दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है और उनके बीच कोई विरोध नहीं है। लास्की लंबे समय
से पोषित इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि राज्य की प्राप्ति में बहुत महत्वपूर्ण
भूमिका है और इससे पहले, मानव अधिकारों की मान्यता।
उन्होंने
यहां जिस बात पर जोर दिया है, वह यह है कि राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है कि वह व्यक्ति
को उसके सर्वश्रेष्ठ स्व को प्राप्त करने के प्रयासों में मदद करे और यदि ऐसा है, तो
अधिकारों की प्राप्ति के क्षेत्र में राज्य की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।
18. धन विधेयक और साधारण विधेयक के अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: धन विधेयक और साधारण विधेयक के अन्तर निम्नलिखित हैं -
19. राष्ट्रवाद के कौन-से प्रमुख गुण हैं ?
उत्तर:
राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद के प्रमुख गुण निम्नलिखित है-
1.
देशप्रेम की प्रेरणा- राष्ट्रीयता की भावना लोगों में देशप्रेम का भाव उत्पन्न करता
है और उन्हें देश के हित के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए प्रेरित करती है।
देशप्रेम के कारण ही व्यक्ति बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तत्पर हो जाता है।
2.
राजनीतिक एकता की स्थापना में योगदान- राष्ट्रीयता की भावना राजनीतिक एकता की स्थापना
में महत्वपूर्ण योगदान देती है। राष्ट्रीयता से प्रेरित होकर ही विभिन्न जातियों व
धर्मों के लोग एकता के सूत्र में संगठित हो जाते हैं और एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण
करते हैं।
3.
राज्य का स्थायित्व- राष्ट्रीयता राज्यों को स्थायित्व भी प्रदान करती है। इतिहास इस
बात का साक्षी है कि बीसवी शताब्दी में अनेक ऐसे राज्य जिनका निर्माण राष्ट्रीयता के
आधार पर न होकर जाति व भाषा के आधार पर हुआ था, वे अल्पकालीन ही रहे। इसके विपरीत राष्ट्रीय
चेतना के आधार पर निर्मित राज्य अधिक स्थायी सिद्ध हुए हैं।
4.
उदारवाद को प्रोत्साहन- राष्ट्रीयता आत्म-निर्माण के सिद्धन्त को मान्यता देती है।
इसलिए राष्ट्रीय मानवीय स्वतन्त्रता को स्वीकार कर उदारवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देती
है।
5.
सांस्कृतिक विकास- राष्ट्रीयता देश के सांस्कृतिक विकास को प्रोत्साहित करती है। प्राचीन
यूनान के महाकवि होमर, फ्रांस के दान्ते तथा वोल्तेयर, इंग्लैण्ड के टेनीसन, शैले,
टामसपेन, जर्मनी के हेगल आदि ने राष्ट्रीयता से प्रेरित होकर ही साहित्यक से प्रेरित
होकर ही साहित्यिक रचनाएँ की है।
6.
आत्म-सम्मान की भावना- राष्ट्रीयता व्यक्ति में आत्म-सम्मान की भावना उत्पन्न करती
है और उसे आत्म-गौरव की रक्षा करने की प्रेरणा देती है।
7.
विश्वबन्धुत्व की पोषक- राष्ट्रीयता व्यक्ति के दृष्टिकोण को व्यापक बनाकर अन्तर्राष्ट्रीय
मैत्री और सहयोग को प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार राष्ट्रीयता विश्वबन्धुत्व की पोषक
भी है।
8. आर्थिक विकास में योगदान- राष्ट्रीयता राष्ट्र के आर्थिक विकास को भी प्रोत्साहित करती है। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर ही व्यक्ति अपने राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने के लिए एकजुट होकर कार्य करते हैं।