Q. 1. मानव मस्तिष्क में संधि की संख्या कितनी होती है ?
Ans.
10 करोड़ ।
Q. 2. अधिवृक्क ग्रंथि कहाँ अवस्थित है ?
Ans.
गुर्दे के उपर
Q.3. विस्मरण के स्वरूप को समझने का सर्वप्रथम क्रमिक प्रयास किसने
किया ?
Ans
एबिंगहास ने।
Q. 4. बच्चों का पूर्व पाठशालीय अवस्था को कब से कब तक मानी जाती है
?
Ans
तीन से छ: वर्ष
Q. 5. भारत के किस विश्वविद्यालय में प्रायोगिक मनोविज्ञान का प्रथम
पाठ्यक्रम आरम्भ किया गया ?
Ans.
कलकत्ता विश्वविद्यालय ।
Q. 6. जिस वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण में प्रेक्षक उस व्यवहार को स्वयं करता
है, जिसका अध्ययन किया जा रहा उसे कहा जाता है ?
Ans.
सहभागी प्रेक्षण
Q. 7. संरचनावादी सिद्धांत की स्थापना कब हुई ?
Ans.
1896 ई० में ।
Q. 8. प्रत्यक्षीकरण की परिभाषा दें ?
Ans.
प्रत्यक्षीकरण एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी उद्वीपन का ज्ञान प्राप्त
होता है, अर्थात प्रत्यक्षीकरण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा
किसी उपस्थिति उद्वीपन का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।
जिब्सन
के अनुसार प्रत्यक्षीकरण की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है- "उत्तेजना से सूचनाओं
को निकालने की प्रक्रिया को प्रत्यक्षीकरण कहते हैं।"
उपरोक्त
परिभाषा के वर्गीकरण से प्राप्त तथ्य इस प्रकार है
(i)
प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
(ii)
प्रत्यक्षीकरण प्रक्रिया द्वारा किसी उद्वीपन का ज्ञान प्राप्त होता है।
(iii)
प्रत्यक्षीकरण से तात्कालिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
(iv)
प्रत्यक्षीकरण के लिए उद्वीपन की उपस्थिति अनिवार्य है।
Q. 9. अधिगम (सीखने) की परिभाषा दें ।
Ans.
'सीखना' बहुत व्यापक शब्द है इस मानसिक प्रक्रिया की अभिव्यक्ति व्यवहार के सहारे होती
है। सीखने से प्राणी के व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन होता है। सीखने में व्यवहार
में जो परिवर्तन होता है, वह अनुभव या अभ्यास पर आधारित होता है और उससे समायोजन में
सहायता मिलती है।
मॉर्गन
और गिलीलैण्ड ने सीखने की परिभाषा इस प्रकार है- " सीखना अनुभव के परिणामस्वरूप
जीव के व्यवहार में कुछ परिमार्जन है जो कम-से-कम कुछ समय के लिए भी जीव द्वारा धारण
किया जाता है। "
उपरोक्त
परिभाषा में निहित तथ्य इस प्रकार है
(i)
सीखने से व्यवहार में परिवर्तन होता है।
(ii)
सीखा हुआ व्यवहार कुछ समय तक व्यक्ति के व्यवहार में स्थायी रूप से बना रहता है।
(iii)
सीखा हुआ व्यवहार अचानक नहीं होता है यह अनुभव अथवा अभ्यास पर आधारित होता है।
(iv)
सीखने के पिछे अभिप्रेरण कार्य करता है।
(v)
सीखा हुआ व्यवहार का मापन संभव है।
Q. 10. शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषा में ।
Ans.
शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शांखा है जो हमें यह बतलाती है कि सीखने के मनोवैज्ञानिक
नियमों और सिद्धांतों का व्यवहार कर किस तरह शिक्षा को अधिक रोचक तथा शिक्षार्थी के
व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित बनाया जा सकता है। यह मनोविज्ञान की शाखा शिक्षार्थी
सीखने की प्रक्रिया और सीखने की परिस्थिति को संयुक्त कर विषयगत अध्ययन को पूर्ण करता
है।
शिक्षा
मनोविज्ञान सीखनेवाले की योग्यता वृद्धि अभिरूच व्यक्तित्व प्रेरणा आदि के सम्बन्ध
में विस्तृत रूप से अध्ययन करता है। जिनकी सहायता से किसी विषय को असानी पूर्वक सीखा
जा सके। यह विभाग शिक्षार्थियों के साथ-साथ अध्यापक के गुणों उसके व्यवहार और अध्ययन
विधि की भी जानकारी देता है।
शिक्षा
मनोविज्ञान यह भी स्पष्ट करता है कि शिक्षा यही लाभप्रद होती है जो व्यक्ति को योग्यता
तथा अभिक्षमता को ध्यान में रखकर दी जाय ।
Q. 11. मनोविज्ञान की विषय वस्तु बतलाएँ।
Ans.
मनोविज्ञान प्राणी के व्यवहार तथा अनुभूति के अध्ययन का विज्ञान है। प्राणी वातावरण
के उद्दीपन ( stimulus) से प्रभावित होकर उनके प्रति अनुक्रिया करता है। इस अनुक्रिया
को व्यवहार कहा जाता है। अनुक्रिया करने के पहले उसमें एक विशेष प्रकार की अनुभूति
होती है। अतः मनोविज्ञान के विषय-वस्तु में प्राणी का व्यवहार तथा अनुभूति दोनों का
अध्ययन सम्मिलित है। व्यवहार बाह्य तथा आन्तरिक दो प्रकार के होते हैं तथा अनुभूति
( experiences ) चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन तीन प्रकार के होते हैं। व्यवहार तथा अनुभूति
केइन सभी प्रकारों का अध्ययन मनोविज्ञान में होता है।
Q. 12. गेस्टाल्ट मनोविज्ञान क्या है ?
Ans.
मनोवैज्ञानिक वुण्ट के संरचनावाद के विरुद्ध अपनायी जानेवाली नयी धारा गेस्टाल्ट मनोविज्ञान
के रूप में प्रचलित हुआ। इसके अनुसार जब हम दुनिया को देखते हैं तो हमारा प्रात्यक्षित अनुभव प्रत्यक्ष
के अवयवों के समस्त भाग से अधिक होता है। अनुभव समग्रतावादी होता है। गेस्टाल्ट मनोविज्ञान
का प्रमुख आधार मन के अवयवों की अवहेलना करते हुए प्रात्यक्षिक अनुभवों के संगठन पर
अधिक ध्यान देना है। उदाहरणार्थ, बल्बों की रोशनी को देखकर प्रकाश की गति का अनुभव
होना अथवा चलचित्र देखने के क्रम में स्थिर चित्र को गतिमान मान लेते हैं।
Q. 13. अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान से क्या तात्पर्य है ?
Ans.
सभी मनोविज्ञान अनुप्रयोग का विभव रखते हैं तथा स्वभाव से अनुप्रयुक्त होते हैं। अनुप्रयुक्त
मनोविज्ञान हमें वह संदर्भ देता है जिनमें अनुसंधान से प्राप्त सिद्धान्तों एवं नियमों
को सार्थक ढंग से प्रयोग में लाया जा सकता है। बहुत-से क्षेत्र जो पिछले दशकों में
अनुसंधान केन्द्रित माने जाते थे, वे भी धीरे-धीरे अनुप्रयुक्त केन्द्रित होने लगे
हैं। अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान को मूल मनोविज्ञान भी माना जा सकता है।
Q. 14. मनोविज्ञान किस तरह से एक विज्ञान है ?
Ans.
प्राकृतिक विज्ञान जैसे रसायनशास्त्र, भौतिकी आदि के समान मनोविज्ञान भी एक विज्ञान
है। किसी भी शास्त्र को विज्ञान कहलाने के लिए अन्य बातों के अलावा उसकी अध्ययन विधि
का वैज्ञानिक होना अनिवार्य है। मनोविज्ञान इस कसौटी पर बिल्कुल खरा उतरता है। मनोविज्ञान
में प्रयोगात्मक विधि के अलावा जितनी भी विधि का उपयोग होता है, सभी वैज्ञानिक एवं
वस्तुनिष्ठ हैं। इतना ही नहीं, मनोविज्ञान को विज्ञान कहलाने के अन्य दावे भी हैं जो
काफी मजबूत हैं। जैसे, मनोविज्ञान में आनुभविक प्रेक्षण (empirical observation), परिमापन,
प्रयुक्तता (applicability), जाँच ( verification), पुनरावृत्ति (repetition), क्रमबद्धता
(systematization) आदि का गुण भी पाया जाता है। इन गुणों से मनोविज्ञान को विज्ञान
कहलाने का दावा स्वतः मजबूत होता है।
Q. 15. मनुष्य में भाषा का अर्जन किस प्रकार होता है ? लिखें।
Ans.
मनुष्य में भाषा अर्जन में प्रकृति और परिपोषण का योगदान महत्वपूर्ण होता है। व्यवहारवादी
बी० एम० स्किनर के साथ-साथ अनेक विद्वानों का मानना है कि साहचर्य, अनुकरण तथा पुनर्वलन
को अपनाकर ही भाषा अर्जन का आरम्भ किया जा सकता है। सामान्य तौर पर भाषा के अर्जन के
लिए भाषा में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानना कथन को समझने की क्षमता बढ़ाना शब्दावली
का निर्माण, वाक्यों की संरचना एवं आशय को पहचानना तथा शुद्ध उच्चारण की कला सीखना
आदि शामिल हैं।
दूसरे
दृष्टिकोण से यह भी माना जा सकता है कि भाषा अर्जन के लिए उत्तम स्वास्थ्य, उचित बुद्धि
का विकास, सामाजिक प्रथाओं अथवा नियमों का ज्ञान, आर्थिक दशायें सम्पन्नता, परिवेश,
जन्म-क्रम, आयु, यौन आदि कारकों पर भी ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
भाषा
अर्जन का आरम्भ जन्म क्रन्दन से होता है। इसके बाद विस्फोटक ध्वनियाँ, बलबलाना, हाव-भाव
के साथ अस्पष्ट ध्वनि के द्वारा विचार प्रकट करना आदि पाये जाते हैं। शिशुओं की मौन
अवस्था के पश्चात एक वर्ष की उम्र में वह पहला शब्द बोलता है। दो वर्ष की उम्र तक भाषा
एवं विचार का विकास अलग-अलग स्तर पर होता है। भाषा अर्जन में अगल-बगल में उत्पन्न ध्वनियों
का अनुकरण क्रमिक रूप से वांछित अनुक्रिया के समीप ले आता है। फलतः प्रभाव में आनेवाला
बच्चा सार्थक वाक्य के रूप में भावना को व्यक्त करना सीख लेता है।
बड़े
होकर मनुष्य कहानी, साहित्य, नाटक, वार्तालाप, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भाषा सम्बन्धी
ज्ञान का अर्जन करता है।
किसी
विशिष्ट भाषा से सम्बन्धित व्याकरण का ज्ञान, शब्द-युग्मों का प्रयोग पर्यायवाची शब्द,
अलंकार आदि को जानकर कोई व्यक्ति भाषा ज्ञान को समृद्ध बनाया है।
Q.16. अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
Ans.
अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर प्रकाश डालता है कि किसी व्यक्ति के व्यवहार में
गति कैसे आती है ? किसी विशेष लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट सतत व्यवहार की प्रक्रिया जो
किन्हीं अन्तर्नाद शक्तियों का नतीजा होती है, उसे अभिप्रेरणा कहते हैं। अभिप्रेरणा
के लिए प्रयुक्त अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ होती हैं जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार
के व्यवहारों के लिए पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इसी कारण अभिप्रेरणा की व्यवहारों का
निर्धारक माना जाता है। मूल प्रवृतियाँ अंतनाद, आवश्यकताएँ लक्ष्य एवं उत्प्रेरक अभिप्रेरणा
के विस्तृत दायरे में आते हैं।
किसी
आवश्यक वस्तु का अभाव (भूख प्यास, तृष्णा) या न्यूनता ही आवश्यकता कहलाते हैं। आवश्यक
अन्तर्धारा(आन्तरिक बल) को जन्म देती है। किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किए गए प्रयास
अथवा उत्पन्न तनाव या उद्वेलन को अन्तर्नाद रूपी बल की तरह प्रयोग करके लक्ष्य की प्राप्ति
की जाती हैं। लक्ष्य मिलने के बाद आवश्यकता को तीव्रता शून्य हो जाती है प्रयास घट
जाता है अर्थात व्यक्ति सामान्य स्थिति में पहुँच जाता है।
जैसे
एक छात्र बरसात में कीचड़ भरे रास्ते से होकर पैदल विद्यालय चला जाता है। विद्यालय
जाने की इच्छा बताने का कारण किसी प्रकार के लक्ष्य की पूर्ति करना है। ज्ञान प्राप्ति
मित्र से मिलना घर के कामों से मुक्त होना, माता-पिता को खुश करना आदि में से किसी
लक्ष्य की प्राप्ति की इच्छा से एक आन्तरिक
बल का आभास होता है जिसके प्रभाव में छात्र विद्यालय जाने को तत्पर हो जाता
है। यहां क्रियाशील आन्तरिक बल को ही अभिप्रेरणा मान सकते हैं।
अर्थात्
अभिप्रेरणा एक आन्तरिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के व्यवहार को अभीष्ट दिशा वा गति के
साथ बदलने के लिए शक्ति प्रदान करना है तथा किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की ओर
व्यक्ति के व्यवहार को मोड़ने का कार्य करता है।
भूखे
के द्वारा भोजन खोजने के लिए प्यासे को पानी पीने के एि जो आन्तरिक बल उकसाता है, प्रोत्साहित
करता है उसे अभिप्रेरणा मान सकते हैं। जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या अभिप्रेरणा
या अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में
भी सहायता करते हैं।
Q. 17. संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है ?
Ans.
संवेगों को अभिव्यक्त करने में संस्कृति का विशेष योगदान है। संवेगों का अध्ययन किया
जाए तो ज्ञात होता है कि हमारे सामने वाला व्यक्ति या मित्र प्रसन है या दुःखी है
? क्या वह हमारी भावनाओं को समझ पाता है या नहीं ? संवेग एक आन्तरिक अनुभूति है जिसका
दूसरे सीधे प्रेक्षण नहीं कर पाते या नहीं कर सकते। संवेगों का अनुमान केवल उनके वाचिक
अथवा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होता है। ये वाचिक या अवाचिक अभिव्यक्तियों
संचार माध्यम का कार्य करती हैं, इनके द्वारा व्यक्ति अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करने
तथा दूसरों की अनुभूतियों को समझने में समर्थ होता है।
संस्कृति
एवं संवेगात्मक अभिव्यक्ति :
अध्ययनों
से यह पता लगा है कि अधिकांश मूल संवेग सहज अथवा जन्मजात होते हैं और उन्हें सीखना
नहीं पड़ता। अधिकांशतः मनोवैज्ञानिक यह विश्वास करते हैं संवेगों, विशेषकर चेहरे की
अभिव्यक्तियों के प्रबल जैविक संबंध (बंधन) होते हैं। उदाहरण के लिए, वे बालक जो जन्म
से दृष्टिहीन हैं तथा जिन्होंने दूसरों को मुस्कराते हुए या दूसरों का चेहरा भी नहीं
देखा है, वे भी उसी प्रकार मुस्कराते हैं अथवा माथे पर बल डालते हैं जिस प्रकार सामान्य
दृष्टी वाले बालक।
किंतु
विभिन्न संस्कृतियों की तुलना करने पर यह ज्ञात होता है कि संवेगों में अधिगम की प्रमुख
भूमिका होती है। यह दो प्रकार से होता है। प्रथम, सांस्कृतिक अधिगम संवेगों के अनुभव
की अपेक्षा संवेगों की अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावित करता है, उदाहरण के लिए, कुछ संस्कृतियों
में मुक्त सांवेगिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि कु हु सरी संस्कृतियाँ
मॉडलिंग तथा प्रबलन के माध्यम से व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपने संवेगों को रूप
से प्रकट करना सिखाती हैं ।
द्वितीय,
अधिगम उन उद्दीपकों पर बहुत निर्भर करता है जो सांवेगिक प्रतिक्रियाएँ जनित करते हैं।
यह प्रदर्शित किया जा चुका है कि वे व्यक्ति जो लिफ्ट, मोटरगाडी इत्यादि के प्रति अत्यधिक
भय (दुर्भति) प्रदर्शित करते हैं, उन्होंने यह भय मॉडल, प्राचीन अनुबंधन या परिहार
अनुबंधन के द्वारा सीखे होते हैं।
यह
उल्लेखनीय है कि संवेगों में अंतर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा प्रभावित होती
हैं। सम्प्रति शोध विशेष रूप से इस प्रश्न पर केंद्रीकृत है कि संवेगों में कितनी सर्वव्यापकता
अथवा सांस्कृतिक विशिष्टता पाई जाती है। इनमें से अधिकांश शोध मुख की अभिव्यक्तियों
पर किए गए हैं क्योंकि मुख का प्रेक्षण सरलता से किया जा सकता है, वह जटिलताओं से अपेक्षाकृत
मुक्त होता है तथा वह संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के मध्य एक कड़ी
का कार्य करता है। किंतु फिर भी इस बात पर बल देना आवश्यक है कि संवेग केवल मुख द्वारा
ही अभिव्यक्त नहीं होते। एक अनुभव किया हुआ संवेग अन्य अवाचिक माध्यमों, जैसेटटकटकी
लगाकर देखने, चेष्टा, परिभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि से भी अभिव्यक्त होता है।
चेष्टा (शरीर भाषा) के द्वारा व्यक्त संवेगात्मक अर्थ एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति
में भिन्न होता है।
उदाहरण
के लिए, चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है, तथा क्रोध को हँसी के द्वारा
व्यक्त किया जाता है। मौन भी विभिन संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न अर्थ व्यक्त करता है।
उदाहरण के लिए, भारत में गहरे संवेग कभी-कभी मौन द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं, जबकि
पाश्चात्य देशों में यह व्याकुलता अथवा लज्जा को व्यक्त कर सकता है। टकटकी लगा कर देखने
में भी सांस्कृतिक मिनताएँ पाई जाती हैं। यह भी देखा गया है कि लैटिन अमेरिकी तथा दक्षिण
यूरोपीय लोग अंतःक्रिया कर रहे व्यक्ति की आँखों में टकटकी लगाकर देखते हैं, जबकि एशियाई
लोग, विशेषकर भारतीय तथा पाकिस्तानी मूल के लोग, किसी अंतःक्रिया के दौरान दृष्टि को
परिधि (अंतःक्रिया करने वाले से दूर से दृष्टिपात) पर केंद्रित करते हैं। संवेगात्मक
आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सानिध्य) विभिन प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को
प्रकट करती है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी लोग अंतःक्रिया करते समय बहुत निकट नहीं आना
चाहते; जबकि भारतीय लोग निकटता का प्रत्यक्षण आरामदेह स्थिति के रूप में करते हैं।
वास्तव में, कम दूरी में छूना या स्पर्श करना संवेगात्मक उष्णता या सहदयता का परिचायक
समझा जाता है। उदाहरण के लिए, यह पाया गया कि अरबी मूल के लोग उन उत्तर अमेरिकी लोगों
के प्रति विमुखता अनुभव करते हैं जो अंतःक्रिया के दौरान सूंघने की दूरी (अत्यधिक निकट)
के बाहर रह कर ही अंतःक्रिया करना पसंद करते हैं।
Q. 18. व्यक्ति अध्ययन प्रविधि की व्याख्या करें तथा इसके गुणदोषों
की विवेचना करें।
Ans.
वैयक्तिक अध्ययन पद्धति एक गहरी अध्ययन पद्धति है। इसके अन्तर्गत एक इकाई के विषय मे
सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास होता है। वैयक्तिक अध्ययन विधि सामाजिक अनुसंधान
की प्राचीन पद्धति है।
दुसरे
शब्दों मे वैयक्तिक अध्ययन का अर्थ, वैयक्तिक अध्ययन पद्धति किसी व्यक्ति, संस्था या
समुदाय के गहन अध्ययन से संबंधित है। इस पद्धति मे किसी एक इकाई को लेकर उसका गहराई
से अध्ययन किया जाता है।
वैयक्तिक
अध्ययन पद्धति के गुण इस प्रकार हैं--
1.
उपकल्पनाओं के निर्माण मे सहायक : इसमे इकाइयों का सूक्ष्य एवं गहन अध्ययन किया जाता
है। यह जानकारी उपकल्पना के निर्माण मे सहायक होती है।
2.
महत्वपूर्ण प्रपत्रों का साधन : वैयक्तिक अध्ययन, प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार,
निर्देशिका आदि बनाने मे सहायता प्रदान करती है।
3.
गहन अध्ययन : इसमें इकाइयों का समस्त पहलुओं से अध्ययन किया जाता है। इसीलिये बर्गेस
ने इसे 'सामाजिक सूक्ष्मदर्शक यंत्र' कहा है।
4.
वक्तिगत अनुभवों का स्त्रोत : इस विधि मे जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू का अध्ययन
किया जाता है। इससे वैयक्तिक अनुभवों मे वृद्धि होती है।
5.
व्यक्तिगत भावनाओं का अध्ययन : इसके अंतर्गत व्यक्तिगत भावनाओं एवं मनोवृत्तियों का
गहन अध्ययन किया जाता है। इससे मनोवृत्तियों मे परिवर्तन का पूर्वानुमान लगाया जा सकता
है।
6.
अनुसंधान के प्रारंभिक स्तर पर उपयोगी: किसी अनुसंधान के प्रारंभिक स्तर पर कुछ वैयक्तिक
इकाइयों की जानकारी अत्यंत उपयोगी होती है। इससे अनेक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती
है, जो इकाईयों की प्रकृति एवं समग्र के निर्धिरण मे हमारी सहायता करती है।
7.
अध्ययन यंत्रों के निर्माण मे सहायक : वैयक्तिक अध्ययन पद्धति के द्वारा उपलब्ध जानकारी
अनुसंधान के महत्वपूर्ण यंत्रों के निर्माण मे सहायता प्रदान करती है।
8.
वर्गीकृत निदर्शन मे सहायक : कुछ अनुसंधान ऐसे होते है जिनमें केवल दैव-निदर्शन के
द्वारा ही समस्त सूचनायें प्राप्त नही होती। अतः दो अथवा तीन स्तरों पर अलग-अलग निदर्शन
लेना जरूरी होता है। ऐसी स्थिति मे अध्ययन का समग्र, विभिन्न विशेषताओं वाली इकाइयां
तथा एक ही श्रेणी की इकाइयों मे किस प्रकार प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्शन प्राप्त हो सकता
है यह वैयक्तिक अध्ययन के द्वारा सरलतापूर्वक जाना जा सकता है।
9.
व्यक्तिगत मनोवृत्तियों की जानकारी : व्यक्ति की सामान्य प्रकृति तथा उसकी क्रियाओं
को समझने के लिए उसके विचार, मनोवृत्तियों, मूल्य, धारणायें आदि जानना अत्यावश्यक है।
इनको समझे बिना कोई भी अध्ययन वैज्ञानिक नही होता। वैयक्तिक अध्ययन-पद्धति गुणात्मक
विशेषताओं के अध्ययन मे महत्वपूर्ण योगदान देती है।
10.
ज्ञान का विस्तार : वैयक्तिक अध्ययन पद्धति के द्वारा अनुसंधानकर्ता को अन्य विधियों
की तुलना मे कहीं अधिक अनुभव प्राप्त होते है एवं अध्ययन के प्रति उसकी रूचि और ज्ञान
मे वृद्धि होती है।
वैयक्तिक
अध्ययन प्रणाली यद्यपि किसी सामाजिक इकाई के बारे मे समग्र व गहन अन्तर्दृष्टि विकसित
करने तथा उसकी व्यावहारिक समस्याओं के निदान आदि की दृष्टि से अत्याधिक उपयोगी सिद्ध
हुई है तथापि इसकी कई कमियाँ व सीमायें भी है। वैयक्तिक अध्ययन पद्धति की मुख्य सीमाएं
इस प्रकार हैं--
1.
यह एक खर्चीली व सरल साध्य विधि है।
2.
इसमें प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है जिसके आधार पर सामान्य रूझान का पता नही लगाया
जा सकता।
3.
व्यक्ति अध्ययन मे चुनी गई इकाइयों के समग्र का प्रतिनिधित्वपूर्ण अथवा प्रतिरूप होना
संदेहास्पद होता है। इनके चयन का कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार नही होता है। यह बहुत
कुछ अनुसंधानकर्ता की इच्छा पर निर्भर करता है। इकाइयों के प्रतिनिधित्वपूर्ण नही होने
से उन पर आधारित अध्ययन के निष्कर्षों को सामान्यीकृत नही किया जा सकता।
4.
वैयक्तिक अध्ययन के माध्यम से एकत्रित तथ्यों की वैषयिकता संदेहास्पद होती है। वैयक्तिक
प्रलेख मे व्यक्ति द्वारा प्रदान की गई जानकारीयाँ अपने को सही बताने की दृष्टि से
या अपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की दृष्टि से हो सकती है। उसकी विश्वसनीयता को परखने
या उसके सत्यापन का कोई व्यवस्थित आधार नही होने से उनका तथ्यात्मक होना संदेहास्पद
होता है।
5.
वैयक्तिक अध्ययन पद्धति संबंधी जानकारियाँ तुलनात्मक नही होती है।
6.
इस पद्धति से प्राप्त जानकारी वैयक्तिक, विशिष्ट व मूल्याधारित होने से वैज्ञानिक विश्लेषण
के अनुपयुक्त होती है।
7.
अध्ययन इकाईयों द्वारा अपने बारे मे गलत सूचना देने पर समस्त अध्ययन दोषपूर्ण हो जाता
है।
8.
आत्मकथाएँ या जीवन इतिहास या डायरियाँ जो इस अध्ययन पद्धति मे तथ्यों के स्त्रोत होते
है स्वयं व्यक्तियों द्वारा लिखे जाते है जिसमें उनकी अभिमति का समावेश हो सकता है।
व्यक्ति अपने बारे मे बढ़ा-चढ़ाकर लिख सकता है तथा ऐसी बातों का उल्लेख करना छोड़ सकता
है जिससे उसका अपयश हो सकता है। ऐसी स्थिति मे दोषपूर्ण जीवन-इतिहास के कारण निष्कर्ष
भी दोषपूर्ण होंगे।
9.
चूंकि वैयक्तिक अध्ययन पद्धति मे किसी एक व्यक्ति, संस्था, समूह, जाति, नगर, ग्राम
या राष्ट्र का एक सामाजिक इकाई के रूप में अध्ययन किया जाता है अतः निदर्श का अभाव
रहता है।
Q. 19. स्मरण किसे कहते हैं ? स्मरण में सन्निहित प्रक्रियाओं का उल्लेख
करें।
Ans.
स्मरण एक मानसिक प्रक्रिया है। जिसमें व्यक्ति धारण की गयी विषय वस्तु का पुन: स्मरण
करने चेतना में लाकर उसका उपयोग करता है। किसी विषय वस्तु के धारण के लिए सर्वप्रथम
विषय वस्तु का सीखना आवश्यक है। अधिगम के बिना धारण करना असम्भव है। अधिगम के फलस्वरूप
प्राणी में कुछ संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं जिन्हें स्मृति चिन्ह कहते हैं, ये स्मृति
चिन्ह तब तक निष्क्रिय रूप में पड़े रहते हैं जब तक को बाहरी उद्दीपक उन्हें जागृत
नही करता। ये स्मृति चिन्ह अर्थात संरचनात्मक परिवर्तन किस रूप में होते है यह कहना
दुष्कर है। फिर भी इनहें जैविक रासायनिक परिवर्तन स्वीकार किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिकों
ने स्मरण को भिन्न भिन्न ढंग से परिभाषित किया है।
हिलगार्ड
तथा एटकिन्स के अनुसार – “पूर्ववत सीखी गयी प्रतिक्रियाओं को वर्तमान समय में व्यक्त
करना ही स्मरण है।”
स्मृति एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। इस प्रकार का विश्लेषण किया जाए तो इसमें चार प्रमुख खण्ड सन्निहित है
सीखना:
स्मृति प्रक्रिया में सर्वप्रथम सीखने की क्रिया होता है। हम नित्यप्रति नवीन क्रियाओं
को सीखते हैं। सीखने का क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है। सीखने के पश्चात हम सीखे हुए
अनुभव का स्मरण करते हैं। अर्थात अधिगम या सीखना प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूपेण स्मृति
को प्रभावित करता है। सीखना जितना प्रभावकारी होगा, स्मृति उतनी तेज होगी।
धारण:
वुडवर्थ तथा श्लास वर्ग के अनुसार धारण स्मृति की चार प्रक्रियाओं में से एक है। प्राप्त
किये गये अनुभव मस्तिष्क पर कुछ चिन्ह छोड़ जाते हैं। ये चिन्ह नष्ट नही होते। कुछ
समय तक तो ये चिन्ह चेतन मस्तिष्क में रहते हैं, फिर अचेतन मस्तिष्क में चले जाते हैं।
धारण
को प्रभावित करने वाले कारक
1.
मस्तिष्क की बनावट सीखने की मात्रा धारणकर्ता की विशेषता
2.
सीखे गये विषय का स्वरूप सीखने की विधियाँ
3.
– विषय की सार्थकता – अविराम तथा विराम विधि
4.
– विषय की लम्बा
5.
– सीखे गये विषय का क्रम में स्थान – पूर्ण तथा आंशिक विधि
6.
– सीखे गये विषय का वातावरण
7.
– सीखे गये विषय की भावानुभूति – आवृत्ति द्वारा स्मरण
8.
आयु स्वास्थ्य मौन बुद्धि अभिरूचि
9.
सीखने की इच्छा
पुनस्मृति:
पुनस्मृति स्मृति प्रक्रिया का तीसरा महत्वपूर्ण खण्ड है। यह वह मानसिक प्रक्रिया है
जिसमें पूर्व प्राप्त अनुभवों को बिना मौलिक उद्दीपक के उपस्थित हुए वर्तमान चेतना
में पुन: लाने का प्रयास किया जाता है। पुनस्र्मृति कहलाती है। जिन तथ्यों का धारणा
उचित ढंग से नही हो पाता उनका पुनस्मृतिर् करने में कठिना होती है।
पहचान:
पहचानना स्मृति का चौथा अंग है। पहचान से तात्पर्य उस वस्तु को जानने से है जिसे पूर्व
समय में धारण किया गया है। अत: पहचान से तात्पर्य पुन: स्मरण में किसी प्रकार की त्रुटि
न करना है। सामान्यत: पुन: स्मरण तथा पहचान की क्रियाएं साथ-साथ चलती हैं।