Class XI Sociology T-2 Answers Key 2022

Class XI Sociology T-2 Answers Key 2022

Section A खण्ड क
( अति लघु उत्तरीय प्रश्न )

किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।

1. ग्रामीण समुदाय क्या है ?

उत्तर: साधारण शब्दों मे यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण समुदाय लोगों का एक स्थायी समूह होता है। इस समूह के सदस्य एक निश्चित भू-भाग मे निवास करते है। ये कृषि के साथ-साथ पशु-पालन का कार्य भी करते है। साथ-साथ रहने के कारण इन लोगों मे 'हम की भावना' उत्पन्न हो जाती है।

2. संस्था क्या है ?

उत्तर: मानव के कुछ सामान्य हित तथा कुछ विशेष हित होते हैं। सामान्य हितों कि पूर्ति के लिए बनाये गये संगठनों को समुदाय कहते हैं। विशेष हितों की पूर्ति के लिए बनाये गये संगठनों को समिति कहते हैं। इन विशेष उद्देश्यों या हितों को कार्य रूप मे परिणित करने के लिए जो साधन, तौर-तरीकों, विधियां, प्रणालियाँ आदि उपयोग मे लायी जाती हैं, उन्हें संस्थायें कहा जाता हैं।

बेबलिन, "संस्थाएं सामान्य जनता मे पाई जाने वाली विचार करने की स्थिर आदतें हैं।

3. आदर्श नियम क्या है ?

उत्तर: आदर्श नियम उपयोगितावाद कांटियन और उपयोगितावादी औचारिक सिद्धान्त के नियम है जो नैतिक प्रणाली की नींव विकसित करने का ब्रिटिश अमेरिका का प्रयास हो रहा है। जैसे आन्दोलन सामान्यकरण स्वीकार करता है। जो ऐतिहासिक रूप से कान्ट के विचारो पर निर्भर है। ब्रिटिश अमेरिका भी ऐसा ही आदर्श नियम बनाने का प्रयास कर रहा है।

4. समूह क्या है ?

उत्तर: जब दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य हितों के लिए परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो एक समूह का निर्माण होता है, जिसे समूह कहा जाता है।

5. संस्कृतिकरण क्या है ?

उत्तर: संस्कृतिकरण वह अवधारणा है जिसमें कोई व्यक्ति या समूह विचार, मूल्य, रीति-रिवाज, , धर्म, दर्शन, प्रथा एवं व्यवहार को अपनाता है। एक अन्य अर्थ में यह भारत में देखा जाने वाला एक विशेष सामाजिक परिवर्तन है जिसमें जाति व्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित जातियां एवं जनजातियां ऊंचा उठने का प्रयास करती है।

6. पितृसत्ता क्या है ?

उत्तर: पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें महिला की तुलना में पुरुष की अधिक केंद्रीय भूमिका होती है. भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक संरचनाओं के कारण पुरुषों को अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं और निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों को अधिक मिला होता है. इस व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति मुख्य ना हो कर गौण होती है।

7. विवाह क्या है ?

उत्तर: विवाह का शाब्दिक अर्थ है, ‘उद्वह’ अर्थात् ‘वधू को वर के घर ले जाना।’ विवाह को परिभाषित करते हुए लूसी मेयर लिखते हैं, विवाह की परिभाषा यह है कि वह स्त्री-पुरुष का ऐसा योग है, जिससे स्त्री से जन्मा बच्चा माता-पिता की वैध सन्तान माना जाये।

Section - B खण्ड ख
( लघु उत्तरीय प्रश्न )

किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।

8. समाज की विशेषताओं की व्याख्या करें ।

उत्तर: समाज की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--

1. समाज अमूर्त हैं : समाज व्यक्तियों का समूह नही हैं, अपितु यह मानवीय अन्तः सम्बन्धों की एक जटिल व्यवस्था हैं। मानवीय अन्तः सम्बन्धों को न तो देखा जा सकता है और न ही उन्हे स्पर्श किया जा सकता हैं। अमूर्त का अर्थ हैं जिसे देखा ना जा सके, स्पर्श ना किया जा सके। समाज को कोई वस्तु नही जिसका हम हमारी ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से देखकर, सूँघकर, सुनकर, चखकर, अथवा स्पर्श कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सके। इस प्रकार समाज मूर्त नही अमूर्त हैं।

2. पारस्परिक निर्भरता : समाज का एक प्रमुख विशेषता पारस्परिक निर्भरता हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले नही कर सकता हैं। उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता हैं। इस पारस्परिक निर्भरता के कारण ही समाज के सदस्य सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण करते हैं।

3. समाज संबंधों की व्यवस्था हैं : समाज सामाजिक संबंधों का जाल हैं हैं जो सामाजिक संबंधों के तानेवाने से बना होता हैं। समाज कोई अखण्ड वस्तु नही हैं। यह विभिन्न खण्डों व उपखण्डों से बना हैं जिनमें एक व्यवस्था होती है। यह संबंधों का मात्र एक संकलन नही है, वरन् एक जटिल व्यवस्था है। संबंधों का क्रम-विन्यास समाज की संरचना को व्यक्त करता है। समाज के विभिन्न भागों मे परस्पर संबंध व निर्भरता होती है।

4. समाज का एक मनोवैज्ञानिक आधार : समाजिक संबंधों का मतलब ही है दो या अधिक प्राणियों मे पारस्परिक अनुभूति का पाया जाना। यह पारस्परिक अनुभूति या मानसिक जागरूकता प्रत्येक प्रकार के संबंधों मे पाई जाती है चाहे संबंध अस्थायी हो या स्थायी, मैत्री के हो या द्देष के, सहयोग के हो या संघर्ष के। यह मानसिक जागरूकता चेतना से उत्पन्न होती है। यह समूह-चारिता की स्वाभाविक वृत्ति है जो समाज की मनोवैज्ञानिक आधार है और जो समाज की कीसी भी विवेचना मे अत्यधिक महत्वपूर्ण है। साधारणतः समाज मे दो बहुत कुछ विरोधी वृत्तियाँ सदैव क्रियाशील रहती है, जिनमे एक सहयोग को विकसित करती है और दूसरी संघर्ष को जन्म देती है।

9. समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र की व्याख्या करें ।

उत्तर: समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र को लेकर विद्वानों में मतभेद है | अनेक समाजशास्त्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किए गए हैं, जिसे प्रमुख रुप से दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -

(1) स्वरुपात्मक संप्रदाय: स्वरुपात्मक संप्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है एवं इसमें कुछ विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों का ही अध्ययन होना चाहिए ।

(2) समन्वयात्मक संप्रदाय: समन्वयात्मक संप्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है एवं सामाजिक संबंधों या समाज का समग्रता में अध्ययन होना चाहिए ।

10. समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र में पारस्परिक संबंध क्या है ?

उत्तर: समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज और सामाजिक व्यवस्था का शास्त्र है। यह व्यक्तियों के समूह के रूप में समाज तथा व्यक्ति के सभी प्रकार के संबंधों का अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय राज्य भी एवं समाज का ही एक अंग है और राज्य एक राजनीतिक संस्था होने के साथ-साथ सामाजिक संस्था भी है। विद्वान रेटजन हॉफर ने ठीक ही कहा है कि राज्य आपने विकास के प्रारम्भिक चरणों में तो एक सामाजिक संस्था ही थी। अतः राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। कैटलिन ने तो यहां तक कहा है कि राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र अखण्ड है और वास्तव में एक ही तस्वीर के पहलू है। इन दोनों के संबंधों का अध्ययन निम्न रूपों में किया जा सकता है।

1. समाजशास्त्र राजनीति के आधार के रूप में: समाजशास्त्र सम्पूर्ण सामाजिक परिस्थियों और संबंधों का अध्ययन करता है और यह बताता है कि सामाजिक परिवर्तन तथा विकास के क्या नियम है। राजनीतिक सिद्धांतों और संगठनों का उदय सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही हुआ है। अतः राजनीति विज्ञान के उचित अध्ययन के लिए समाजशास्त्र का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। गिडिंग्स का मत है कि “समाजशास्त्र के प्राथमिक सिद्धांतों से अनभिज्ञ व्यक्ति को राजविज्ञान पढाना वैसा ही जैसा न्यूटन के गति सम्बन्धी नियमों से अपरिचत व्यक्ति को खगोल विद्या, उष्णता और यन्त्र विद्या से सम्बन्धित विज्ञान की शिक्षा देना। यही नहीं, वरन् समाजशास्त्र के अध्ययन ने राजनीति सिद्वान्त से सम्बन्धित ज्ञान को आधुनिक युग में पर्याप्त प्रभावित किया है। यही कारण है वानेंस ने कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त तथा समाजशास्त्र के बारे में सर्वाधिक विशेष बात यह है कि राजनीतिक सिद्धांतों में गत चालीस वर्षों में जो भी परिवर्तन हुए है जो भी विकास दिशाए दिखलायी गयी है उन सबकी ओर समाजशास्त्र ने ही संकित किया है। दोनों विज्ञानों का इतना निकट सम्पर्क है कि गार्नर के शब्दों में, “राजनीति सामाजिकता में गढी हुई है। ”

2. राजनीति विज्ञान की समाजशास्त्र को देन : राजनीति विज्ञान भी समाजशास्त्र को सहायता प्रदान करता है। समाजशास्त्र में राज्य की उत्पत्ति, संगठन, ध्येय और कार्या आदि का भी अध्ययन किया जाता है। और समाजशास्त्र राज्य सम्बन्धी यह विशिष्ट ज्ञान राजनीति विज्ञान से ही प्राप्त करता है। गेटल ने ठीक ही लिखा है कि राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र को समाज की सामान्य रूपरेखा के तौर पर वे घटनाएं प्रदान करता है। जिनका संबंध राज्य के संगठन और कार्या से होता है। राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के पारस्परिक संबंध का एक प्रमाण यह है कि मौरिस गिन्सवर्ग, ऑगस्त काम्टे, लेस्टरवार्ड, विलियम ग्राहम, समनर आदि समाजशास्त्रियों ने राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों में इतनी रूचि दिखायी है, मानो ये समाजशास्त्र की मुख्य समस्यायें हो।

3. उद्भव के आधार पर संबंध : प्रारम्भिक सामाजिक चिंतन का रूप मिश्रित था जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, तत्वों का एक साथ अध्ययन किया जाता है लेकिन सामाजिक चितंन जैसे-जैसे विकसित एंव व्यस्थित होता गया वैसे वैसे विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का उद्भव होता गया उद्भव की दृष्टि से राजनीति शास्त्र एक पुरातन सामाजिक विज्ञान है। वही समाज शास्त्र एक नवीन सामाजिक विज्ञान है। राजनीति शास्त्र के उद्भव का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तू को जाता है। जिनका चिंतन सामाजिक एवं राजनीति तत्वों पर आधारित था। अरस्तू के एक कथन का उल्लेख यहां अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिसमें उन्होंने कहा था मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह मनुष्य जो सामाजिक नही या तो पशु है या ईश्वर इस तरह अरस्तू का चिंतन समाज, राज्य, परिवार, शिक्षा पर आधारित रहा। वही जब भारत के प्राचीन सामाजिक चिंतन का अध्ययन करते है तो चाणक्य के चिंतन में सामाजिक एवं राजनीतिक तत्वों का सम्मिलित रूप दिखायी पडता है। चाणक्य जिन्हे कौटिल्य भी कहा जाता है ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में राज्य का सप्तांग सिद्धान्त दिया। वही उन्होने परिवार, विवाह, वर्ण, आश्रम, पुरूशार्थ, उत्तराधिकार, नारी, स्थिति, आदि जैसे सामाजिक तत्वों का भी अध्ययन किया।

इस तरह हम देखते हैं कि समाजशास्त्रीय चिंतन उतना ही पुराना है जितना की राजनीति चिंतन, प्रारम्भिक अस्था में मिश्रित ये भले ही राजनीति शास्त्र के औपचारिक उद्भव एवं समाज शास्त्र को औरपचारिक उद्भव में भारी अंतर हो। लेकिन इन दोनो सामाजिक विज्ञानों में विशिष्ट संबंध रहा है। समाजशास्त्र का औपचारिक उद्भव 1838 में हुआ। इससे पहले की अनौपचारिक समाजशास्त्रीय चिंतन कहीं न कही अन्य सामाजिक विज्ञानों पर निर्भर था। जिसमें राजनीति शास्त्र का प्रमुख स्थान है। इस तरह समाज शास्त्र का राजनीति शास्त्र से उद्भव एवं विकास के आधार पर घनिष्ठ संबंध है। 18 वीं शताब्दी तक राज्य एवं समाज में कोई भेद नही किया जाता था। इस कारण समाजशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र एक ही विषय के अन्तर्गत आते थे। समाजशास्त्र के उद्भव के बाद राज्य एवं समाज में अंतर किया जाने लगा। राज्य का अध्ययन राजनीति शास्त्र करने लगा एवं समाज का अध्ययन समाजशास्त्र।

4. अध्ययन वस्तु के आधार पर संबंध : समाज शास्त्र समाज का अध्ययन करने वाला विज्ञान है समाज विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक इकाईयो से मिलकर बना है। इस तरह समाजशास्त्र समाज का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए समाजिक संबंधों एवं अन्तः क्रिया का अध्ययन करने के साथ साथ एक सीमा तक आर्थिक एवं राजनीतिक संबंधों का भी अध्ययन करता है। जो समाज के एक आवश्यक अंग है। वर्तमान समय में राजनीतिक समाज शास्त्र की एक इकाई के रूप में राजनीतिक संबंधों एवं अर्न्तक्रियाओं का अध्ययन करती है। वर्ग, संघर्ष, जनमत, प्रजातंत्र, शक्ति, सत्ता, नौकरशाही, वैश्वीकरण आदि जैसे तत्वों का अध्ययन वर्तमान समय में राजनीति शास्त्र एवं समाज शाख दोनों में हो रहा है। गार्नर ने लिखा है राजनीति शास्त्र के बल एक प्रकार के मानव संबंधों जो राज्य से सम्बन्धित है का अध्ययन करता है जबकि समाज शास्त्र इस प्रकार के सामाजिक संबंधों का इस रूप में समाजशास्त्र के अध्ययन वस्तु राजनीति शास्त्र से व्यापक है।

5. चिन्तको एवं सिद्वान्तो के आधार पर संबंध : गिडिग्स ने लिखा है कि प्रत्येक राजनीति शास्त्रीं, समाजशास्त्री और प्रत्येक समाजशास्त्री, राजनीति शास्त्री होता है। आपके अनुसार समाजशास्त्र के प्राथमिक सिद्धान्तो से अपरिचित लोगो को राज्य के सिद्धांतों को पढना उसी प्रकार बेकार है जिस प्रकार ऐसे व्यक्तियों को ज्योतिस पढाना जिन्होने न्यूटन के सिद्धांतों को नही सीखा हो कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति शास्त्र के प्रारम्भिक सिद्धांतों को समझने के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। ये दोनो शाख एक दूसरे पर काफी निर्भर है।

11. संस्कृति के प्रकार को उजागर करें ।

उत्तर: संस्कृति दो प्रकार की हो सकती है : (1) भौतिक संस्कृति, तथा (2) अभौतिकसंस्कृति।

1. भौतिक संस्कृति - मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिक तथामूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति में शामिल किया जाता है। मनुष्य ने विभिन्नप्रकृतिदत्त वस्तुओं व शक्तियों को परिवर्तित करके अपनी आवश्यकताओं केअनुरूप बनाया है। ये सभी भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत आती है। भौतिकसंस्कृति में साइकिल, स्कूटर, कार, पेन-पेन्सिल, कागज, पंखे, कूलर, फ्रिज,बल्ब, रेल, जहाज, वायुयान, टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि सभी आते हैं। भौतिकसंस्कृति के सभी अंगों व तत्वों को सूचीबद्ध करन सरल कार्य नहीं है।मानव समाज के विकास के साथ-साथ भौतिक संस्कृति का भी विकासहुआ तथा पुरानी पीढ़ी की तुलना में नयी पीढ़ी के पास भौतिक संस्कृतिअधिक है।

2. अभौतिक संस्कृति - इस संस्कृति में सामान्यत:सामाजिक विरासत में प्राप्त विश्वास, विचार, व्यवहार, प्रथा, रीति-रिवाज, मनोवृत्ति,ज्ञान, साहित्य, भाषा, संगीत, धर्म, नैतिकता इत्यादि को शामि किया जाताहै। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलती है तथा प्रत्येक पीढ़ी में इसका अर्जनव परिवर्तन भी सम्भव होता है। यदि कोर्इ व्यक्ति अपने समाज के रीति-रिवाजोंप्रथाओं, धर्म व नैतिकता के विरूद्ध कार्य करता है तो उसे आलोचना यानिन्दा का शिकार होना पड़ता है। महत्वपूर्ण है कि अभौतिक संस्कृति भौतिकसंस्कृति की तुलना में कम परिवर्तनशील है तथा इसमें अधिक स्थायित्व पायाजाता है।

12. समाजीकरण के स्तर क्या हैं ?

उत्तर: समाजीकरण एक प्रक्रिया है और प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली क्रिया है। समाजीकरण की प्रक्रिया भी बाल्यावस्था से आरंभ होकर मृत्यु तक निरन्तर चलने वाली एक घटना हैं। नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करने के अनेक स्तर होते हैं। ये स्तर विभिन्न आयु खण्डों में विभक्त रहते हैं।

प्रो. जानसन ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार चरणों (स्तरों) में विभाजित किया हैं। ये चरण निम्नलिखित हैं-

1. मौखिक अवस्था : यह प्रारंभिक अवस्था हैं। यह स्तर सामान्यतया आयु के एक-डेढ़ वर्ष तक ही रहता है। इस समय बच्चे की आवश्यकता जैविकीय एवं मौखिक होती हैं। इस समय बच्चा परिवार मे अपनी माँ के अतिरिक्त और किसी को नही पहचानता। वास्तव में इस समय बच्चे और माँ के कार्यों मे कोई अन्‍तर नही होता। बच्चा माँ के साथ एकरूपता स्थापित करता है और माँ मे ही विलीन हो जाता है। इस अवस्था मे बालक सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संकेत देना सीख जाता हैं।

2. शैशव अवस्था : इस स्तर का आरंभ सामान्यतया डेढ़ वर्ष की आयु से होता है। इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाने लगती है कि शौच संबंधी क्रियाओं को सीखकर स्वयं करे। मिट्टी लगने पर हाथ साफ करना, आग से दूर रहना, कपड़े गंदे न करना आदि की भी शिक्षा दी जाने लगती है। इस अवस्था में बच्चा माँ से प्यार की इच्छा को ही नही रखता है बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है। बच्चे को सही व गलत काम के बारे में निर्देश दिया जाता हैं। सही काम के लिए बच्चे को प्यार किया जाता है और गलत काम के लिए डाँट-फटकार की जाती हैं। यहीं से बच्चा अपने परिवार और संस्कृति के समान मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना आरंभ कर देता हैं।

3. अन्तर्निहित अवस्था या तादात्मीकरण : इस अवस्था का आरंभ तीन-चार वर्ष की अवस्था से होता है और बारह-तेहर वर्ष की अवस्था तक रहता हैं। इस अवस्था में वह पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है। इस स्तर पर बच्चे के सामाजिक वातावरण का क्षेत्र अति व्यापक हो जाता है। वह स्वयं चल फिर कर परिवार एवं समाज के अन्य सदस्यों से अपनी मित्रता करने लगता हैं। उसकी शौच आदि की आदतें नियमित एवं नियंत्रित होने लगती हैं। इस अवस्था में बालक यौन व्यवहार से भी थोड़ा-थोड़ा परिचित होने लगता है और उसमें स्वयं मे भी अव्यक्त रूप से यौन भावना का विकास होने लगता है और सम्भवतया इसीलिए इसको अन्तर्निहित अवस्था भी कहा जाता हैं। बच्चा इस स्तर पर अपने लिंग के अनुसार व्यवहार करना  शुरू कर देता हैं और धीरे-धीरे अपने लिंग के बारे में पूर्ण जागरूक हो जाता है और उसी के अनुरूप विभिन्न सामाजिक गुणों को सीखता हैं। इस स्तर पर बालक स्कूल जाना आरंभ कर देता हैं।

4. किशोरावस्था : इस स्तर का आरंभ सामान्यतः 12-13 वर्ष की आयु से होता है और 21 वर्ष की उम्र तक रहता हैं। समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने इस स्तर को बहुत महत्वपूर्ण माना हैं। इस स्तर मे व्यक्ति मे स्वयं सीखने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है। उसके विचारों में कुछ क्रम और तर्क आने लगते हैं तथा वह संवेदनशील हो जाता हैं। मित्रता की भावना इस काल में कुछ दृढ़ हो जाती हैं। इस स्तर में किशोर एक ओर अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता चाहता है तो दूसरी ओर परिवार व विभिन्न समूहों द्वारा उसके सभी व्यवहारों पर उचित नियंत्रण रखा जाता हैं। यह स्तर सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होता हैं। इस अवस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं और उन परिवर्तनों से अपना अनुकूलन करने के लिए व्यवहारों के नये तरीके भी सीखने पड़ते हैं। यह स्तर विस्तृत जगत के सदस्यों के व्यवहारों से भी प्रभावित होता हैं। परिवार के साथ-साथ शिक्षण संस्था, खेल-कूद के साथी, पड़ौस तथा समाज के नये तथा अपरिचित सदस्यों के संपर्क में आता है तथा समायोजन करता है।

जानसन के अनुसार किशोरावस्था समाजीकरण का अन्तिम चरण है, परन्तु वास्तविकता यह है कि वयस्क होने के बाद भी मृत्युपर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह अवश्य है कि किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया उतनी कठिन नहीं रह जाती हैं।

13. वर्ग की धारणा पर प्रकाश डालें ।

उत्तर: वर्ग का तात्पर्य उन व्यक्तियों के समूह से होता है, जिनकी किसी समाज में समान स्थिति होती है। जब समाज में कुछ लोगों में एक सामान्य समानता होने के कारण उनकी स्थिति मेंं समानता होती है तो इन समान स्थिति प्राप्त व्यक्तियों के समूह को वर्ग कहते हैं उदाहरण के लिए हमारे देश में उच्च कोटि के राजनीतिज्ञों, अधिकारियों पूंजीपतियों कलाकारों इत्यादि के उच्च कोटि के कार्यों के परिणामस्वरूप समाज में उनको ऊँची स्थिति समझी जाती है इन सब समान स्थिति वाले लोगों से जो एक सामाजिक समूह बनता है उसे वर्ग कहते हैं चूंकि इस वर्ग के सदस्यों को समाज में ऊँची स्थिति होती है, अत: इस वर्ग को उच्च वर्ग कहते हैं इस प्रकार सामाजिक स्थिति के लोगों के एक समूह को सामाजिक वर्ग कहते हैं।

मैकाइवर तथा पेज-"एक सामाजिक वर्ग एक समुदाय का कोई भी हिस्सा (या भाग) है जो सामाजिक स्थिति के आधार परअन्य लोगों से विभक्त किया जा सके।"

14. श्रम विभाजन के कारणों का विश्लेषण करें।

उत्तर: दुर्खिम और मार्क्स, दोनों ने सरल पारम्परिक समाज और जटिल औद्योगिक समाज में विद्यमान श्रम विभाजन में स्पष्ट भेद किया है। श्रम विभाजन किसी भी समाज के सामाजिक-आर्थिक जीवन का अनिवार्य अंग है। किन्तु उन्होंने औद्योगिक समाजों में होने वाले श्रम विभाजन पर ही अधिक ध्यान दिया है। दुर्खिम के अनुसार, औद्योगिक समाजों में श्रम विभाजन भौतिक तथा नैतिक सघनताओं में वृद्धि का परिणाम है। जैसा कि हमने पहले पढ़ा वह विशेषज्ञता अथवा श्रम विभाजन को एक साधन मानता है जिसके जरिए स्पर्धा या अस्तित्व के संघर्ष को कम किया जा सकता है। विशेषज्ञता ऐसा गुण है जिससे बड़ी संख्या में लोगों के लिए बिना लड़ाई-झगड़े के मिल-जुलकर रहना संभव होता है क्योंकि समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशिष्ट भूमिका रहती है। इससे सामूहिकता और सह-अस्तित्व का विकास होता है।

मार्क्स भी उत्पादन में श्रम विभाजन को औद्योगिक समाज की एक विशेषता मानता है, परन्तु उसकी मान्यता दूर्खिम की मान्यता से भिन्न है। वह इसे सहयोग एवं सह-अस्तित्व का साधन नहीं मानता है। इसके विपरीत, उसकी धारणा यह है कि श्रम विभाजन श्रमिकों पर थोपी गई एक प्रक्रिया है ताकि लाभ पूँजीपति के हिस्से में जाए वह इस प्रक्रिया को निजी सम्पत्ति के अस्तित्व के साथ जोड़ता है। इससे उत्पादन के साधनों पर पूँजीपति का नियंत्रण रहता है। इसीलिए पूँजीपति ऐसी प्रक्रिया तैयार करते हैं जिसमें उनको अधिक से अधिक लाभ मिले। इस प्रकार श्रम विभाजन को श्रमिकों पर थोपा जाता है। मजदूर वेतन के बदले अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं। उनमें एक जैसे उकता देने वाले तथा एक ही तरह के काम कराए जाते हैं। ताकि उत्पादकता बढ़ने के साथ-साथ पूँजीपति के लाभ में भी वृद्धि हो । संक्षेप में, दुर्खिम की मान्यता है कि श्रम विभाजन के कारण इस तथ्य में निहित हैं कि औद्योगिक समाज को बनाए रखने के लिए व्यक्ति को सहयोग करने तथा विभिन्न प्रकार के काम करने की

आवश्यकता है। मार्क्स के अनुसार श्रम विभाजन श्रमिकों पर थोपी गई प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य पूँजीपति का लाभ बढ़ाना है। दुर्खिम सहयोग पर बल देता है, जबकि मार्क्स ने शोषण एवं संघर्ष पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।

Section - C खण्ड ग
( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )

किन्हों तीन प्रश्नों के उत्तर दें।

15. जाति की विशेषताओं का उल्लेख करें ।

उत्तर: जाति व्यवस्था की निम्न विशेषताएं हैं-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है: जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह है की जाति जन्म से आधारित होती है। जो व्यक्ति जिस जाति मे जन्म लेता है वह उसी जाति का सदस्य बन जाता है।

2. जाति का अपना परम्परागत व्यवसाय: प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवस्था होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण जजमानी व्यवस्था रही है। जजमानी व्यवस्था मे जातिगत पेशे के आधार पर परस्पर निर्भरता की स्थिति सामाजिक संगठन का आधार थी। लेकिन आज आधुनिकता के चलते नागरीकरण, औधोगीकरण आदि के चलते अब जाति का अपना परम्परागत व्यवसाय बहुत कम रह गया है।

3. जाति स्थायी होती है: जाति व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति की जाति हमेशा के लिए स्थायी होती है उसे कोई छुड़ा नही सकघता या बदल नही सकता। कोई भी व्यक्ति अगर आर्थिक रूप से, राजनैतिक रूप से या किसी अन्य साधन से कितनी भी उन्नति कर ले लेकिन उसकी जाति में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नही हो सकता।

4. ऊंच- नीच की भावना: हांलाकि अब वर्तमान भारतीय ग्रामीण समाज में जाति के परम्परागत संस्तरण के आधारों मे परिवर्तन आया है। लेकिन फिर भी जाति ने समाज को विभिन्न उच्च एवं निम्न स्तरों में विभाजित किया गया है प्रत्येक जाति का व्यक्ति अपनी जाति की सामाजिक स्थिति के प्रति जागरूक रहता है।

5. मानसिक सुरक्षा प्रदान करना: जाति व्यवस्था में हांलाकि दोष बहुत है लेकिन जाति व्यवस्था की अच्छी बात यह है कि यह अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है। जिसमें सभी सदस्यों को पता होता है कि उनकी स्थिति क्या है? उन्हें क्या करना चाहिए।

6. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध: जाति व्यवस्था के अर्न्तगत जाति के सदस्य अपनी ही जाति मे विवाह करते है। अपनी जाति से बाहर विवाह करना अच्छा नही माना जाता है। उदाहरण के लिए ब्राह्माण के लड़के का विवाह ब्राह्राण की लड़की से ही होगा। किसी अन्य जाति से नही।

7. समाज का खण्डात्मक विभाजन: जाति व्यवस्था ने संपूर्ण समाज का खण्ड-खण्ड मे विभाजन कर रखा है। समाज का विभाजन होना देश की एकता के लिए सही नही है।

जी . एस. घुरिए ने जाति व्यवस्था की छ: विशेषताओं का उल्लेख किया है। जो इस प्रकार है--

1. समाज का खण्डात्मक विभाजन

2. सामाजिक संस्तरण

3. भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबंध

4. विभिन्न जातियों की सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएं तथा विशेषाधिकार

5. पेशे के अप्रतिबंधित चुनाव का अभाव

6. विवाह संबंधी प्रतिबंध

16. परम्परा की अवधारणा को उजागर करें।

उत्तर: सामान्यतया ‘सामाजिक विरासत’ को ही परम्परा कहते हैं परन्तु वास्तव में परम्परा के काम करने का ढंग जैविक वंशानुसंक्रमण या प्राणिशास्त्रीय विरासत के तरीके से मिलता-जुलता है, और वह भी जैविक वंशानुसंक्रमण की तरह कार्य को ढालती व व्यवहार को निर्धारित करती है। उसी तरह परम्परा का भी स्वभाव बगैर टूटे खुद जारी रहने का और भूतकाल की उपलब्धियों को आगे आने वाले युगों में ले जाने या उन्हें हस्तान्तरित करने का है। यह सब सच होने पर भी सामाजिक विरासत और परम्परा सामान्य नहीं है।सामाजिक विरासत की अवधारणा परम्परा से अधिक व्यापक है। सामाजिक विरासत के अन्तर्गत भौतिक तथा अभौतिक दोनों ही प्रकार की चीजें आती हैं, जबकि ‘परम्परा’ के अन्तर्गत भौतिक पदार्थो का नहीं, बल्कि विचार, आदत, प्रथा, रीति-रिवाज, धर्म आदि अभौतिक पदार्थों का समावेश होता है। अत: स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत नहीं, ‘सामाजिक विरासत’ का एक अंग मात्र है। परम्परा’ सामाजिक विरासत का अभौतिक अंग हैं ‘परम्परा’ हमारे व्यवहार के तरीकों की द्योतक है, न कि भौतिक उपलब्धियों की।

परम्परा की परिभाषा – श्री जिन्सबर्ग के शब्दों में,”परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।

17. प्राथमिक समूह एवं द्वितीयक समूह में अन्तर स्पष्ट करें।

उत्तर: प्राथमिक समूह एवं द्वितीयक समूह में अन्तर निम्न है-

1. प्रथामिक समूह नैतिकता और मानव आत्मा पर आधारित हैं, द्वितीयक समूह का आधार नियम और कानून होते हैं।

2. प्राथमिक समूह प्राय: गाँवो मे पाये जाते हैं। द्वितीयक समूह प्राय नगरों मे पाई जाते हैं

3. प्राथमिक समूह मे सदस्य व्यक्ति के रूप मे मिलते हैं। द्वितीयक समूह मे सदस्य प्रतिनिधि, कर्मचारी आदि रूप मे मिलते हैं।

4. प्राथमिक समूहों मे दिखावा और बनावटीपन का अभाव होता हैं। जबकि द्वितीयक समूहों मे दिखावा और बनावटीपन की प्रधानता होती हैं।

5. प्राथमिक समूह मे सदस्यों के सम्बन्ध व्यक्तिगत होते हैं, अन्य साधनों की आवश्यकता नही होती हैं। जबकि द्वितीयक समूहों मे सम्बन्ध अवैयक्तिक साधन तार, टेलीफोन, पत्र आदि हो सकते है।

6. प्राथमिक समूहों के सदस्यों के उद्देश्यों मे समानता होती हैं। जबकि द्वितीयक समूहों के सदस्यों के उद्देश्यों मे असमानता होती हैं।

7. प्राथमिक समूह मे सदस्य समूह पर निर्भर रहते हैं। द्वितीयक समूह मे सदस्यों मे आत्मनिर्भरता पायी जाती हैं।

8. प्राथमिक समूहों के नियन्त्रण आन्तरिक और नैतिक होते हैं, द्वितीयक समूह मे बाहरी और कानूनी नियंत्रण प्रभावशाली होते हैं।

9. प्राथमिक समूहों की प्रधानता वहाँ होती है जहां रक्त-सम्बन्ध या सामान्य संस्कृति की प्रधानता होती हैं। द्वितीयक समूह के लिए न तो रक्त सम्बन्ध और न ही सामान्य संस्कृति की आवश्यकता होती हैं।

10. प्राथमिक समूह मे घुले-मिले व्यक्तित्व पाये जाते हैं। द्वितीयक समूह मे व्यक्तित्व मे घनिष्ठता का अभाव होता हैं।

11. प्राथमिक समूह संख्या मे कम होते हैं, जैसे परिवार, पड़ोस, क्रिड़ास्थल और मित्र आदि। द्वैतीयक समूह असंख्य होते हैं, इनकी कोई निश्चित संख्या नही कही जा सकती।

12. प्राथमिक समूह मे सदस्यता अनिवार्य होती हैं। द्वितीयक समूह मे सदस्यता अनिवार्य नही होती।

13. प्राथमिक समूह परम्परागत नियमों मे चलते हैं। द्वितीयक समूह नित नये बने नियमों पर चलते हैं।

14. एक प्राथमिक समूह के अन्दर अनेक द्वितीयक समूह नही होते हैं। जबिक द्वितीयक समूह के अन्दर अनेक प्रथामिक समूह पाये जाते हैं।

15. प्राथमिक समूह का असीमित दायित्व होता हैं जो कभी समाप्त नही होता। द्वितीयक समूह का का सीमित दायित्व होता हैं।

16. प्राथमिक समूह सार्वभौमिक होते हैं। द्वितीयक समूह सार्वभौमिक नही होते।

17. प्राथमिक समूह का समाजीकरण मे महत्वपूर्ण स्थान होता हैं। द्वितीयक समूह मे प्रथामिक समूह की उपेक्षा इनका स्थान गौण होता हैं।

18. प्राथमिक समूहों मे सहयोग और सामूहिक निर्णय की प्रधानता होती हैं। द्वितीयक समूहों मे प्रतिस्पर्धा और मत-संग्रह होता है।

19. प्राथमिक समूह मे प्रथामिक सम्बन्ध सम्पूर्ण होते है। द्वितीयक समूह मे सम्बन्ध आंशिक होते हैं।

20. प्राथमिक समूह प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित हैं। द्वितीयक समूह मे प्रत्यक्ष सम्बन्धों का अभाव होता हैं।

21. प्राथमिक समूह मे सदस्यों की संख्या कम होती है। द्वितीयक समूहों मे सदस्यों की संख्या अधिक होती है।

22. प्राथमिक समूहों के सदस्यों के सम्बन्धों मे निरन्तरता होती है। द्वितीयक समूहों के सम्बन्धों मे निरन्तरता नही रहती हैं।

23. प्राथमिक समूह स्वतः उत्पन्न होते हैं। द्वितीयक समूह किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यक्तियों द्वारा बनाये जाते हैं।

24. प्राथमिक समूहों मे स्थिति का निर्धारण परिवार के आधार पर होता है। द्वितीयक समूहों मे व्यक्ति की स्थिति का निर्धारण परिवार के आधार पर न होकर व्यक्ति के कार्यों के आधार पर होता हैं।

18. प्रस्थिति क्या है ? इसकी महत्वपूर्ण विशेषताओं का वर्णन करें ।

उत्तर: इलियट एवं मैरिल के अनुसार- “इलियट जी का कहना है कि प्रस्थिति व्यक्ति का वह पद है, जो किसी समूह में अपने लिंग, आयु, परिवार, वर्ग, व्यवसाय, विवाह अथवा प्रयाशों आदि के कारण प्राप्त करता है।”

प्रस्थिति की विशेषताएं

1. प्रत्येक समाज में एक प्रस्थिति और उससे संबंधित भूमिका का निर्धारण उस समाज के सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं मूल्यों द्वारा होता है। संस्कृति यह तय करती है कि किसने किसे कौन सी प्रस्थिति प्रदान की जाएगी और वह क्या भूमिका निभाएगा?

2. प्रस्थिति की अवधारणा को दूसरे व्यक्तियों के संदर्भ में समझा जा सकता है। एक व्यक्ति की प्रस्थिति का संबंध अन्य व्यक्तियों की प्रस्थितियों से होता है जो उनसे प्रभावित भी होते हैं। उदाहरण के लिए प्राचार्य की प्रस्थिति को प्राध्यापकों एवं छात्रों की प्रस्थिति के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

3. एक ही प्रस्थिति का निर्वाह अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा अपने-अपने ढंग से किया जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री एवं मेरारजी देसाई द्वारा समान ढंग से भूमिकाओं का निर्वाह नहीं किया गया।

4. प्रत्येक स्थिति व्यक्तियों के संपूर्ण सामाजिक पद का केवल एक भाग ही होता है। व्यक्ति समाज में एक साथ अनेक प्रस्थिति प्राप्त करता है और विभिन्न अवसरों पर उनके अनुरूप में अपनी भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिए एक ही व्यक्ति डॉक्टर, पिता, पति एवं पुत्र के रूप में विभिन्न प्रस्थिति धारण करता है। और उनका निर्वाह अवसर आने पर उन्हीं के अनुरूप करता है।

5. प्रस्थिति के आधार पर संपूर्ण समाज विभिन्न परिस्थितियों समूहों में बटा होता है इन प्रस्थिति के आधार पर आप किसी समाज की विशेषताओं को ज्ञात कर सकते हैं।

6. प्रत्येक परिस्थिति के साथ एक विशेष मूल्य एवं प्रतिष्ठा जुड़ी होती है जो संस्कृति द्वारा निर्धारित होती है जैसे- पश्चिमी देशों में भारत की अपेक्षा स्त्री की प्रतिष्ठा ऊंची है।

7. एक व्यक्ति एक ही समय में कई प्रस्थिति को धारण करता है, किंतु वह सभी का निर्वाह समान योग्यता एवं कुशलता के साथ नहीं कर पाता। एक व्यक्ति अच्छा खिलाड़ी हो सकता है किंतु वह एक असफल व्यापारी और लापरवाह पति भी हो सकता है।

8. समाज में पूछ एवं निम्न स्थितियों के कारण ही सामाजिक संस्करण तथा विभेदीकरण पैदा होता है जो उदग्र या क्षैतिज के रूप में हो सकता है।

9. समाज में कुछ प्रस्थिति होती हैं जो एक व्यक्ति को समाज स्वयं प्रदान करता है और दूसरी ओर कुछ प्रस्थिति व्यक्ति अपनी योग्यता एवं प्रयत्नों के द्वारा अर्जित करता है।

19. सामाजिक नियंत्रण के प्रमुख अभिकरणों और साधनों की व्याख्या करें ।

उत्तर: सामाजिक नियंत्रण से तात्पर्य हैं। कि समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए कुछ नियमों का बनाये जाते है, उन नियमों की रक्षा करना ही सामाजिक नियंत्रण है। सामाजिक नियंत्रण के अनेक साधन है।

1. परिवार: सामाजिक नियंत्रण में सबसे अधिक परिवार का स्थान सर्वोपरि होता है। परिवार द्वारा व्यक्ति को सामाजिक विश्वास मूल्य सामाजिक आदर्श एवं नियमों से परिचित कराया जाता है।

2. शिक्षा:  सामाजिक नियंत्रण हेतु शिक्षा की मुख्य भूमिका होती है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता के बारे में बताया जाता है, तथा सामाजिक नियंत्रण विरुद्ध जाने के प्रभाव तथा दंड के बारे में भी बताया जाता है।

3. नैतिकता: नैतिकता भी सामाजिक नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण साधन है नैतिकता के द्वारा व्यक्ति को उचित या अनुचित का बोध कराया जाता है। तथा नैतिकता द्वारा अच्छे कार्य हेतु प्रेरित किया जाता है।

4. धर्म: धर्म भी एक सामाजिक नियंत्रण का महत्व पूर्ण योगदान देता है, भगवान पाप एवं नरक के भय से व्यक्ति अच्छे कार्य करता हैं।

5. राज्य:  यह सबसे अच्छा महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली तरीका है इसमें अगर व्यक्ति सामाजिक नियमों की अवहेलना करें, तो उस पर शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, इसके लिए राज्य ने जेल आदि का निर्माण कराया है। नेता, दंड एवं सम्मान देना, जनमत, प्रथाएं, प्रचार, लोकाचार, जनरीतिया आदि सामाजिक नियंत्रण के महत्वपूर्ण साधन है।

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