भारत में जनसंख्या शिक्षा (POPULATION EDUCATION IN INDIA)

भारत में जनसंख्या शिक्षा (POPULATION EDUCATION IN INDIA)

 भारत में जनसंख्या शिक्षा (POPULATION EDUCATION IN INDIA)

वर्तमान युग में विश्व के विभिन्न देशों में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या एक गम्भीर चनौती बन गई है। विगत कुछ शताब्दियों से विश्व में जनसंख्या नियन्त्रण के प्रयत्नों और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के कारण भ्रूण, शिशु एवं बाल मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आयी है। इसके फलस्वरूप विकसित एवं विकासशील देशों की आयु तथा जनसंख्या की संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। प्रायः विकासशील देशों की जनसंख्या का 40 से 45 प्रतिशत हिस्सा 0-15 वर्ष के आयु वर्ग में होता है जो लगभग 5 से 15 वर्ष के अन्दर ही पुनरूत्पादन आयु वर्ग में प्रवेश कर लेते हैं और जनसंख्या वृद्धि में अपना योगदान करते हैं। आज जनसंख्या नियन्त्रण के उद्देश्य से विश्व के अधिकांश देशों का ध्यान केवल पुनरूत्पादन आयु वर्ग की ओर दिया गया है। किन्तु यह आवश्यक है कि प्रत्येक भावी माता-पिता को जनसंख्या एवं बड़े परिवार की समस्याओं से परिचित करा दिया जाए जिससे उनमें स्वयं परिवार के आकार एवं देश की जनसंख्या की समस्या के प्रति जागरूकता की भावना पैदा हो। इस प्रकार की जागरूकता जनसंख्या शिक्षा के माध्यम से उत्पन्न की जा सकती है।

जनसंख्या शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Population Education)

सामान्यतः जनसंख्या शिक्षा से अभिप्रायः ऐसी शिक्षा से है जो जनसंख्या या मानव संसाधन से सम्बन्धित हो। इस शिक्षा के अन्तर्गत जनसंख्या के आकार, जनसंख्या वृद्धि अथवा कमी, जनसंख्या संरचना, लिंगानुपात, विवाह की आयु आदि विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता है। जनसंख्या शिक्षा से व्यक्ति स्वयं अपने परिवार के साथ-साथ समाज व देश की प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझकर अपने परिवार के आकार को व्यवस्थित और नियन्त्रित करने के प्रति जागरूक हो सकता है।

जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत जनसंख्या परिवर्तनों के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन करते हैं। जनसंख्या शिक्षा के संबंध में कई बार यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि क्या स्वास्थ्य शिक्षा को भी इसके अन्तर्गत सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसी प्रकार कभीकभी परिवार कल्याण कार्यक्रम को भी जनसंख्या शिक्षा का रूप मान लिया जाता है। संक्षेप में व्यक्ति विशेष के जीवन से संबंधित विभिन्न पक्षों का ज्ञान कराने वाली शिक्षा को जनसंख्या कहते हैं। जनसंख्या शिक्षा की एक प्रामाणिक परिभाषा देना एक कठिन कार्य है क्योंकि इसका स्वरूप एवं विषय क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जनसंख्या शिक्षा की कुछ प्रमुख परिभाषा है निम्न प्रकार है:

विडरमैन (Viederman) के अनुसार, "जनसंख्या शिक्षा को उस प्रक्रिया. के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा विद्यार्थी जनसंख्या प्रक्रियाओं, जनसंख्या की विशेषताओं, जनसंख्या परिवर्तन के कारण एवं प्रक्रियाओं, विशेषताओं और परिवर्तनों के स्वयं के लिए, अपने परिवार के लिए, समाज के लिए तथा विश्व के लिए परिणामों का अन्वेषण करता है।''

मासियाला (Massialas) के मतानुसार, "जनसंख्या शिक्षा के मानव जनसंख्या की प्रकृति की खोज और जनसंख्या परिवर्तन के प्राकृतिक एवं मानवीय परिणामों के संबंध में विश्वसनीय ज्ञान के शिक्षण तथा अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।''

यूनेस्को (UNESCO) द्वारा प्रतिपादित परिभाषा के अनुसार, "जनसंख्या शिक्षा एवं शैक्षणिक कार्यक्रम है जो परिवार, समूह, राष्ट्र तथा विश्व की जनसंख्या स्थिति के सन्दर्भ में विद्यार्थियों में आदर्श और उत्तरदायित्वपूर्ण अभिवृत्ति तथा व्यवहार विकसित करती है।''

डॉ० वी०के०आर०वी० राव (V.K.R.V. Rao) का मत है कि, "जनसंख्या शिक्षा परिवार के आकार के सम्बन्ध में सही अभिवृत्ति विकसित करके के लिए प्रेरणा शक्ति प्रदान करती है।''

जनसंख्या सन्दर्भ संस्थान (Population Reference Bureau) के अनुसार, "जनसंख्या शिक्षा, जनसंख्या की विस्फोट वृद्धि, व्यक्तियों के वितरण और केन्द्रीकरण का तीव्र परिवर्तन, आयु व अन्य जनांकिकी परिवर्तनों के प्रभाव तथा मानवीय समस्याओं के साथ तादात्म्य उपस्थित करने के परिणामों तथा व्यक्ति, परिवार, समाज और परिवेश पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने का प्रयास है। यह विशिष्ट आयु वर्ग तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसको उन विद्यार्थियों तक सीमित किया जा सकता है जो कि आने वाली एक अथवा दो शताब्दियों के अन्तर्गत ही मुख्य प्रजनक हो जायेंगे।''

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि जनसंख्या शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसमें निरन्तरता है। इसमें जनसंख्या परिवर्तन के विविध पहलुओं के व्यक्ति, समाज एवं परिवेश तथा सम्पूर्ण राष्ट्र पर पड़ने वाले प्रभावों का ज्ञान आगामी दशकों के प्रजनकों को कराने का प्रयास करते हैं। जनसंख्या शिक्षा का उद्देश्य भविष्य में उत्पन्न होने वाली जनसंख्या की समस्याओं से भावी पीढ़ी को परिचित कराना है। संक्षेप में, जनसंख्या शिक्षा ऐसी शिक्षा है जिसमें मानवीय जीवन के विविध पहलुओं का अध्ययन किया जाता है तथा जनसंख्या संबंधी समस्याओं से भावी पीढ़ी को सचेत किया जाता है।

जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य

(Objectives of Population Education)

वर्तमान युग में भारत एवं अन्य विकासशील देश जनसंख्या वृद्धि की विकराल समस्या से जूझ रहे हैं। इन परिस्थितियों में जनसंख्या शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। जनसंख्या शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या से उत्पन्न समस्याओं से अवगत कराना और जनसंख्या वृद्धि को रोकने के उपायों की जानकारी प्रदान करना है जिससे वे तथा आगे आने वाली पीढ़ी अपने परिवार के आकार को विवेकपूर्ण ढंग से नियोजित कर सके।

संक्षेप में जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार है:

(1) जनसंख्या शिक्षा का उद्देश्य तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारणों को स्पष्ट करना एवं उसे रोकने हेतु किये जाने वाले उपायों की व्याख्या करना है।

(2) जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत जनांकिकी के सिद्धान्त, परिवर्तनों का ज्ञान, जैसे - जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, जनसंख्या वृद्धि दर इत्यादि की विस्तृत जानकारी, इन दरों की गणना विधि और आवश्यकता का ज्ञान कराया जाता है।

(3) जनसंख्या शिक्षा का एक उद्देश्य तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना भी है।

(4) युवा-वर्ग में जनसंख्या की वर्तमान वृद्धि उसकी स्थिति और कारकों के संबंध में ज्ञान कराना।

(5) बढ़ती हुई जनसंख्या की विषम परिस्थिति का पर्यावरण एवं जीवन स्तर पर प्रभाव को प्यार करना।

(6) माता व बच्चों के स्वास्थ्य की सुरक्षा, शिशु कल्याण, परिवार की आर्थिक स्थिति एवं गया पीढ़ी में उसकी जिम्मेदारी के प्रति चेतना का बोध कराना।

(7) विवेकशील दम्पत्ति के कर्तव्यों की जानकारी देना और परिवार में विवेकशील मातला पितृत्व की भावना को विकसित करना।

(8) मनुष्य के परस्पर सम्बन्धों, पति-पत्नी के नाजुक रिश्ते एवं समाज में इन सम्बन्धों की मान्यता को ऊँचे स्तर पर बनाए रखने की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करना।

(9) विवाह के पवित्र बन्धन को स्वीकार करते हुए महिलाओं के स्वास्थ्य एवं सामाजिक स्तर को बनाये रखने की आवश्यकता का अध्ययन करना।

(10) छोटे परिवार के महत्व को स्पष्ट करना तथा व्यक्तियों को उसके गुणात्मक पहलू का ज्ञान कराना।

(11) जनसंख्या तथा अन्य संसाधनों के मध्य उत्पन्न असन्तुलन की स्थिति से उत्पन्न समस्याओं और उनके निदान के उपायों का अध्ययन करना।

(12) विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य और जनसंख्या नीति ज्ञान प्रदान करना।

जनसंख्या शिक्षा के अवयव (अंग)

(Components of Population Education)

जनसंख्या शिक्षा एक व्यापक प्रणाली है और इसके उद्देश्य बहुत व्यापक हैं। यह मानव जीवन के सर्वांगीण विकास को दृष्टिगत करते हुए प्रदान की जाती है। जनसंख्या विदों का मत है कि जनसंख्या शिक्षा की व्यवस्था शिक्षा के सभी स्तरों पर राजकीय अथवा निजी संगठनों द्वारा की जानी चाहिए। इस विचारधारा के अनुसार जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख अवयव के अंग निम्न प्रकार है।

(1) जनसंख्या सम्बन्धी आँकड़े (Population Statistics):- जनसंख्या सम्बन्धी आँकड़ों से सम्पूर्ण देश की कुल जनसंख्या की जानकारी के साथ-साथ जनसंख्या वृद्धि की दर, वृद्धि के कारणों आदि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त हो जाती है। जनसंख्या के आँकड़े सामान्यतः जनगणना रिपोर्टों, जन्म एवं मृत्यु के पंजीकरण एवं शोध अध्ययनों द्वारा प्राप्त होते हैं। इन आँकड़ों की सहायता से देश, प्रदेश, जिला, नगरीय व ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बन्धित कुल जनसंख्या की जानकारी प्राप्त हो जाती है।

(2) प्रजनन और पारिवारिक जीवन (Reproduction and Family Life):- जनसंख्या शिक्षा द्वारा स्त्री और पुरूषों के शरीर में प्रजनन अंगों की जानकारी दी जा सकती है। विवाह की आयु क्या होनी चाहिए तथा इसका परिवार में बच्चों की संख्या से क्या सम्बन्ध है आदि विषयों का समावेश भी जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। शिशु के गर्भकाल तथा प्रसवोत्तर काल में माताओं को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। अनचाहे गर्भ से कैसे बचा जा सकता है, आदि का ज्ञान भी जनसंख्या शिक्षा से प्राप्त किया जा सकता है।

(3) परिवार के आकार को सीमित रखना (Limiting the size of the family):- इसके अन्तर्गत परिवार का आकार कैसा होना चाहिए? छोटे परिवार का क्या महत्व है? परिवार को सीमित रखने के कौन । कौन से उपाय होते हैं? परिवार नियोजन की सुविधाएँ कहाँ उपलब्ध है आदि की जानकारी प्रदान की जाती है। यदि परिवार में बच्चों की संख्या बढ़ जाती है तथा संसाधनों का अभाव महसूस किया जाता है तब उसमें सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाये तथा यदि परिवार के दम्पत्ति सन्तानविहीन है तब दम्पत्ति की चिकित्सकीय सहायता करना भी इस शिक्षा का अभिन्न अंग है।

(4) स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य विज्ञान (Health and Hygiene):- जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत जनसंख्या के स्वास्थ्य का स्तर एवं स्वास्थ्य विज्ञान के ज्ञान का स्तर भी सम्मिलित किया जाता है। स्वास्थ्य का स्तर ज्ञात करने के लिए सम्पूर्ण देश में चिकित्सालयों की संख्या, चिकित्सकों की संख्या आदि का ज्ञान लाभप्रद होता है। इसके अन्तर्गत लोगों को व्यक्तिगत स्वच्छता जैसे शरीर की सफाई, दाँतों की सफाई, शरीर की विभिन्न आवश्यकताओं से सम्बन्धित ज्ञान आदि को भी सम्मिलित किया जाता है।

(5) सन्तुलित आहार (Balanced Diet):- भोजन मनुष्य की एक प्रमुख आवश्यकता है जो कि जनसंख्या शिक्षा का एक अंग है। भोजन में सन्तुलित आहार या पौष्टिकता विशेष महत्व रखती है। किस वर्ग के लिए किस प्रकार से और कितनी मात्रा में भोजन की आवश्यकता है, प्रतिदिन कितनी मात्रा में और कौन सा आहार लेना चाहिए, सन्तुलित आहार किन तत्वों से प्राप्त होता है आदि का अध्ययन जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है।

(6) स्वच्छता और पर्यावरण (Sanitation and Environment):- जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत जनसंख्या वृद्धि के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के साथ-साथ उससे बचने के उपायों का अध्ययन भी शामिल किया जाता है। दूषित वातावरण के फलस्वरूप मानव जीवन पर प्रभाव का अध्ययन, पेड़पौधों से ऑक्सीजन किस प्रकार प्राप्त होती है जो कि मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक है का अध्ययन जनसंख्या शिक्षा की विषय वस्तु है। वन सम्पदा, पेड़-पौधे तथा विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और जीव-जन्तु पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में किस प्रकार सहायता करते हैं? सफाई और स्वच्छता का जीवन में क्या महत्व है? यह सब जनसंख्या शिक्षा के अध्ययन में सम्मिलित किया जाता है।

(7) स्वास्थ्य एवं जनसंख्या नीति (Health and Population Policy):- जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत देश की स्वास्थ्य नीति एवं जनसंख्या नीति की जानकारी प्रदान की जाती है। एक निश्चित समयावधि में स्वास्थ्य सेवा तथा सुविधाओं में कितनी प्रगति होनी आदि का अध्ययन जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता हैं। स्वास्थ्य नीति के अन्तर्गत लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं और उन लक्ष्यों को कितनी अवधि में प्राप्त किया जा सकता है यह भी निर्धारित किया जाता है। जनसंख्या शिक्षा में केवल परिवार नियोजन को ही शामिल नहीं किया जाता बल्कि इसके अन्तर्गत परिवार के सदस्यों की संख्या तथा संसाधनों में इसका पारस्परिक सामंजस्य, विवाह की आयु का निर्धारण, लड़कियों की शिक्षा, परिवार नियोजन एवं जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम की सफलता और प्रभाव आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। संक्षेप में जनसंख्या नीति के अन्तर्गत देश की जनसंख्या की स्थिति, स्थिति में सुधार के लिए किये जाने वाले उपाय, उससे प्राप्त होने वाली उपलब्धियों तथा लक्ष्यों का विस्तृत उल्लेख किया जाता है।

 (8) मातृ एवं शिशु कल्याण कार्यक्रम (Maternity and Child Welfare Programme):- मातृ एवं शिशु कल्याण कार्यक्रम के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करना जनसंख्या शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है। समाज में गर्भवती माताओं एवं शिशुओं का विशिष्ट स्थान होता है। यदि माता ही स्वास्थ्य नहीं होगी तथा उसे पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं होगा, रोग प्रतिरोधी दवाइयाँ उपलब्ध नहीं होगी, तब वह भी परिवार का स्तर ऊँचा उठाने में सफल नहीं होगी। इसी प्रकार नवजात शिशुओं के लिए प्रथम एक वर्ष तक विशेष देख-भाल एवं तत्पश्चात् लगभग 4 वर्ष की आयु तक विशेष ध्यान देना आवश्यक होता है जिससे शिशुओं को विभिन्न बीमारियों से बचाया जा सके। इसी प्रकार माताओं की प्रसव से पूर्व, प्रसव के दौरान एवं प्रसवोत्तर काल में उचित देखभाल होनी चाहिए। उपरोक्त सभी जानकारी मातृ एवं शिशु कल्याण कार्यक्रमों से प्राप्त की जा सकती है, जो कि जनसंख्या शिक्षा में सम्मिलित रहती है।

भारत में जनांकिकी की शिक्षा

(Teaching of Demography in India)

भारत में जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं की ओर बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। इसके कई कारण है: प्रथम देश में जनसंख्या वृद्धि की दर अत्यन्त धीमी थी, द्वितीय अंग्रेजी शासन का भारत एवं भारत की समस्याओं के प्रति उदासीनतापूर्ण व्यवहार था, एवं तृतीय ग्रेट ब्रिटेन राजनैतिक और युद्ध सम्बन्धी नीतियों में उलझा हुआ था। किन्तु ब्रिटिश सरकार के उदासीनपूर्ण व्यवहार के बावजूद भारत के बुद्धजीवी वर्ग का ध्यान देश में बढ़ती हुई जनसंख्या की प्रवृत्ति की ओर आकर्षित हुआ।

भारतीय जनांकिकी विकास की दृष्टि से वर्ष 1936 का विशेष स्थान है। सन् 1936 में लखनऊ विश्वविद्यालय में जनसंख्या सम्मेलन (Population Conference) का आयोजन किया गया जिसमें भारत की भावी जनसंख्या वृद्धि विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत किया गया। सन् 1938 में राष्ट्रीय नियोजन समिति ने जनसंख्या पर एक उप समिति नियुक्त की तथा भारत के आर्थिक विकास के सन्दर्भ में जनसंख्या के अध्ययन के महत्व को स्वीकार किया गया। तत्पश्चात् भारतीय सांख्यिकी संस्थान (Indian Statistical Institute) ने प्रो० पी० सी० महालनोबिस की अध्यक्षता में न्यादर्श सर्वेक्षण के आधार पर सन् 1937 में प्रजननता सम्बन्धी समंकों का संकलन किया। सन् 1943 में भारत सरकार ने स्वास्थ्य सर्वेक्षण तथा विकास समिति नियुक्त की। इस समिति ने भारत की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं का विस्तृत सर्वेक्षण किया और इसमें जनसंख्या से सम्बन्धित आवश्यक समंक भी प्रस्तुत किये। सन् 1944 में भारत सरकार के शिक्षा, स्वास्थ्य एवं भूमि विभाग ने डब्ल्यू० एम० येट्स की अध्यक्षता में जनसंख्या समंक समिति (Population Data Committee) नियुक्त की जिसका कार्य जनसंख्या वृद्धि से संबंधित उपलब्ध आँकड़ों के सम्बन्ध में सरकार को परामर्श देना था। संक्षेप में स्वतंत्रता से पूर्व भारत में यद्यपि जनांकिकी विश्लेषण अपने शैशव काल में था, किन्तु जनसंख्या समस्या की ओर ध्यान आकर्षित हुआ।

स्वतंत्रता के बाद सन् 1947 से 1956 की समयावधि में भारत सरकार का ध्यान जनसंख्या की समस्या की ओर आकर्षित हुआ। सन् 1949 में मुम्बई में भारत का परिवार नियोजन संघ (Family Planning Association of India) की स्थापना की गई जिसने देश में जनसंख्या नियन्त्रण के सम्बन्ध में प्रचार कार्य किया। तत्पश्चात् अप्रैल 1951 में योजना आयोग ने एक समिति गठित की जिसका उद्देश्य जनसंख्या - वृद्धि तथा परिवार नियोजन की समस्याओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना था। सन् 1952 में महानिदेशक स्वास्थ्य सेवाएँ, भारत सरकार के नियोजन तथा विकास विभाग के अन्तर्गत परिवार नियोजन सैल का गठन किया गया। सन् 1956 में केन्द्रीय परिवार नियोजन मण्डल का गठन किया गया जिसने डॉ० वी०के०आर०वी० राव की अध्यक्षता देश के विभिन्न भागों में चार जनांकिकी शोध केन्द्रों की सिफारिश की जो कि प्रजननता एवं मत्य दर तथा उससे सम्बन्धित तत्वों के सम्बन्ध में अध्ययन करें। इसके फलस्वरूप 1956 में मुम्बई में जनांकिकी प्रशिक्षण तथा शोध केन्द्र की स्थापना हुई जो कि वर्तमान में जनसंख्या अध्ययन की अर्न्तराष्ट्रीय संस्था के नाम से प्रसिद्ध है। तत्पश्चात् 1957 में तीन अन्य जनांकिकी शोध केन्द्र की स्थापना कोलकाता, दिल्ली और त्रिवेन्द्रम में तथा 1960 में धारवाड़ में पाँचवे जनांकिकी शोध केन्द्र की स्थापना हुई। वर्तमान में देश में इस प्रकार के लगभग 15 शोध केन्द्र है। इसके अतिरिक्त जनगणना आयुक्त एवं भारत का रजिस्ट्रार जनरल का कार्यालय, केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (C.S.O.) और राष्ट्रीय न्यादर्श सर्वेक्षण संगठन (N.S.S.O.) आदि अन्य विशिष्ट सरकारी एजेन्सियाँ भी है जो कि जनांकिकी एवं जनसंख्या समस्या सम्बन्धी समंकों को संकलित एवं प्रकाशित करती है।

भारत में जनांकिकी की शिक्षा अध्ययन के एक विषय के रूप में उपेक्षित रही है क्योंकि देश के अधिकांश विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर यह एक विषय के रूप में नहीं पढ़ाया जाता है। यद्यपि स्नातकोत्तर स्तर पर जनांकिकी का अध्ययन लगभग सभी विश्वविद्यालयों में किया जाता है। देश में स्नातकोत्तर स्तर पर सर्वप्रथम केरल विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग ने जनांकिकी में पाठ्यक्रम शुरू किया और यह जनांकिकी में एम०एस०सी० की उपाधि प्रदान करता था। वर्तमान में देश के अनेक विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र. समाजशास्त्र, भूगोल, सांख्यिकी, वाणिज्य, मानवविज्ञान आदि विषयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में ऐच्छिक प्रश्न-पत्र के रूप में सम्मिलित किया गया है। विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त भारत में जनांकिकी के अध्ययन एवं प्रशिक्षण के लिए अनेक शासकीय एवं अर्द्धशासकीय संस्थाएँ हैं। दिल्ली में आर्थिक विकास संस्थान के अन्तर्गत एक जनांकिकी शोध केन्द्र (Demographic Research Centre) स्थापित किया गया जिसमें जनांकिकी विषय में एक वर्षीय सटिर्फिकेट पाठ्यक्रम की व्यवस्था है।

उल्लेखनीय है कि भारत में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़कर वर्ष 2011 में 121 करोड़ तक पहुँच गयी है और विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से भारत, चीन के बाद दूसरे स्थान पर हैं। चूँकि देश जनसंख्या विस्फोट एवं तीव्र जनसंख्या दवाब से गुजर रहा है। अतः जनसंख्या शिक्षा देश के लिए अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। भारत में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जनसंख्या शिक्षा सभी वर्गों के लिए आवश्यक है। किन्तु देश में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए इसके अध्ययन, अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संबंधी सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि जनांकिकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण की सुविधाओं का देश में विस्तार किया जाये। इसके साथ ही जनांकिकी. (Demography) को एक पृथक विषय के रूप में स्नातकोत्तर के साथ ही स्नातक स्तर पर भी पढ़ाया जाये तथा स्नातकोत्तर स्तर पर जनांकिकी अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

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