भूमिका (Introduction):- एडम स्मिथ से लेकर आज तक के सभी अर्थशास्त्री मोटे रूप में यह स्वीकार करते हैं कि मानव संसाधन और आर्थिक विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध है। विकसित देशों का इतिहास यह बताता है कि जनसंख्या बढ़ने से श्रम शक्ति की पूर्ति में वृद्धि हुई और परिणामस्वरूप औद्योगिक क्रांति को बल मिला जिससे राष्ट्रीय एवं प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धिमान प्रवृत्ति परिलक्षित हुई। इस सन्दर्भ में प्रो. हार्बिसन (Prof. T.H. Harbinson) ने लिखा है कि पूँजी, प्राकृतिक संसाधन, विदेशी सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सामान्यतः आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, किन्तु मानव संसाधन इन सभी में सर्वोपरि
आर्थिक
विकास की प्रक्रिया में मानव संसाधन के महत्व की व्याख्या करते हुए एडम स्मिथ ने
लिखा है कि - प्रत्येक राष्ट्र का वार्षिक श्रम ही वह कोष है, जो मूल रूप से इसे
समस्त अनिवार्यताएँ और जीवन की सुविधाएँ प्रदान करता है। आर्थिक विकास का कोई भी
चरण मानव उद्यमशीलता के अभाव में आगे नहीं बढ़ सकता हैं। आर्थिक विकास का मुख्य
उद्देश्य मानव जाति को ऊँचा जीवन स्तर प्रदान करना, सुसंस्कृत जीवन के अनुकूल
परिस्थितियों का निर्माण करना है। अतः सभ्य सुसंस्कृत, ईमानदार, चरित्रवान शिक्षित
नागरिक देश के लिए परिसम्पत्ति होते हैं। प्रो. रिचार्ड टी. गिल के अनुसार,
“आर्थिक विकास कोई यांत्रिक प्रक्रिया मात्र नहीं है- यह तो एक मानवीय उपक्रम है
जिसकी प्रगति उन लोगों की कुशलता, गुणों, दृष्टिकोणों एवं अभिरुचियों पर निर्भर
करती है जो इसे साकार रूप देते हैं।'' डॉ. मार्शल के शब्दों में, “धनोत्पादन
मनुष्य की जीविका के लिए उसकी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए, उसकी क्रियाओं तथा
नैतिकता के विकास के लिए केवल साधन-मात्र है। मनुष्य स्वयं ही उस धन की उत्पत्ति
का मुख्य साधन है जिसका वह अन्तिम उद्देश्य है।"
मानव संसाधनों का आर्थिक विकास में
महत्व
(Importance of Human Resources in
Economic Development)
किसी
भी देश के आर्थिक विकास में भौतिक पूँजी के साथ-साथ मानवीय पूँजी का भी विशेष
स्थान है। अब यह माना जाने लगा कि व्यवहार में पूँजी-स्टॉक की वृद्धि पर्याप्त
सीमा तक मानव पूँजी-निर्माण पर निर्भर रहती है, जो कि देश के सभी व्यक्तियों का
ज्ञान, कुशलता एवं क्षमताएँ बढ़ाने की प्रक्रिया है। "मानवीय साधन का विकास
ज्ञान, योग्यता व समाज के व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होने वाली एक
प्रक्रिया है। आर्थिक अर्थों में, यह कहा जा सकता है कि यह मानवीय पूँजी का संचय
है, जिसका अर्थव्यवस्था के विकास में प्रभावशाली विनियोग किया जाता है।' एडम स्मिथ
तथा बैबलन जैसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री भी उत्पादन में मानव पूँजी के महत्व को
स्वीकार करते थे। हार्बिसन, डैनीसन, कैण्ड्रिक, अम्ब्रामोविज, बेकर, बोमैन,
कुजनेट्स एवं अन्य अनेक अर्थशास्त्रिायों का मत है कि अमेरिकन अर्थव्यवस्था के
विकास का मुख्य कारण शिक्षा पर अपेक्षाकृत अधिक धन व्यय करना है।
मानवीय
संसाधनों के विकास पर आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने बहुत अधिक महत्व दिया है। इन
अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य आदि में निवेश पर जोर दिया है
जिससे भौतिक पूँजी के समान मानवीय पूँजी का निर्माण हो सके। इन अर्थशास्त्रियों
प्रो. शुल्ज (Schultz), प्रो. हार्बिसन (Harbinson), प्रो. डेनिसन (Denison),प्रो.
बैकर (Becker), प्रो. कुजनेट्स (Kumets)आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
अर्थव्यवस्था चाहे विकसित हो या विकासशील अथवा अर्ध-विकसित मानवीय संसाधनों का
विकास महत्वपूर्ण है। मानवीय संसाधनों का विकास विकासशील देशों अथवा अर्थ विकसित
देशों में बहुत अधिक है, क्योंकि मानवीय पूँजी के द्वारा ही प्राकृतिक संसाधनों
एवं भौतिक पूँजी का उपयोग तीव्र गति से विकास कार्यों में करना सम्भव होता है।
मानवीय
संसाधनों का आर्थिक विकास में भूमिका एवं महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा
सकता है:-
1) राष्ट्रीय आय में वृद्धि (Increase in National Income)- आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मत है कि
मानवीय संसाधन से श्रम की दक्षता एवं कुशलता में वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप
उत्पादन एवं आय में वृद्धि होती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में किए गए
अध्ययनों से यह सिद्ध होता है कि "शिक्षा पर लगाया गया एक डॉलर राष्ट्रीय आय
में बाँधों, सड़कों, फैक्टरियों या अन्य पूँजीगत वस्तुओं पर लगाये गये एक डॉलर की
तुलना में अधिक वृद्धि करता है।''
2) औद्योगिक विकास (Industrial Development)- मानवीय संसाधन का किसी भी देश के
औद्योगिक विकास में भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसका कारण यह है कि कुशल एवं
दक्ष श्रम औद्योगिक विकास को गति प्रदान करता है। इस सम्बन्ध में प्रो. गैलब्रेथ
(Galbraith) ने लिखा है, "औद्योगिक वृद्धि का अधिक बड़ा भाग पूँजी के
विनियोजन के स्थान पर मनुष्यों में विनियोजन एवं सुधारों से प्राप्त होता
है।''मानवीय संसाधन के विकास से न केवल श्रम की उत्पादकता में वृद्धि होती है,
वरन् प्रबन्धकीय योग्यता एवं जोखिम उठाने की क्षमता में भी सुधार होता है। फलतः
औद्योगिक उत्पादन एवं उत्पादकता में तेजी से वृद्धि होती है।
3) भौतिक पूँजी-निर्माण (Physical Capital Formation)- भौतिक पूँजी-निर्माण के लिए भी मानव
पूँजी आवश्यक है। परम्परावादी अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने देश की स्थिति पूँजी के
स्टॉक में “समस्त निवासियों की अर्जित योग्यताओं को सम्मिलित किया है।'' इसी
प्रकार प्रो. वैबलन (Veblen) का मत है कि तकनीकी ज्ञान तथा कुशलता समुदाय के
अभौतिक उपकरण है और इसके बिना उत्पादन के क्षेत्र में भौतिक “पूँजी'' का कोई उपयोग
नहीं हैं।'' दूसरे शब्दों में, यदि अर्थव्यवस्था में शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान का
प्रसार नहीं होता है तो भौतिक पूँजी की उत्पादकता में वृद्धि करना सम्भव नहीं है।
(4) विभिन्न साधनों से क्षमतानुसार कार्य- देश के आर्थिक विकास में, अन्य
विभिन्न साधनों से क्षमतानुसार कार्य उसी समय लिया जा सकता है, जबकि मानवीय साधन
योग्यतानुसार व उचित ढंग से कार्य कर रहे हों। प्राकृतिक संसाधन, पूँजी, तकनीकी
ज्ञान आदि उत्पत्ति के सभी साधनों का अधिकाधिक एवं अनुकूलतम उपयोग विकसित मानव
शक्ति पर ही निर्भर है। विकसित एवं कुशल मानवीय शक्ति के द्वारा ही उत्पत्ति के
विभिन्न साधनों का उनकी क्षमता के अनुसार उपयोग करके आर्थिक विकास को गति देना
सम्भव है। यही कारण है कि आधुनिक युग में मानवीय संसाधनों के विकास पर विशेष जोर
दिया जाता है।
(5) समस्त संस्थागत साधनों का अध्ययन (Study of all Institutional
Factors)- वर्तमान समय
में देश के आर्थिक विकास के सन्दर्भ में रीति-रिवाजों, संगठनों, संस्थाओं, परिवहन
एवं अधिनियमों आदि समस्त साधनों का अध्ययन किया जाना आवश्यक है, क्योंकि इन सभी का
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव आर्थिक विकास पर पड़ता है। मानवीय संसाधन के
विकास के द्वारा ही इन साधनों का समुचित अध्ययन सम्भव है।
(6) उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के मध्य समन्वय (Coordination
Between Different Factors of Production)- मानवीय
साधनों की सहायता से ही उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के मध्य समन्वय स्थापित किया
जाता है। इसके साथ ही मानवीय पूँजी के द्वारा ही उत्पत्ति के अन्य साधनों का
अनुकूलतम उपयोग सफल होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उच्च-स्तरीय प्रबंधकीय
क्षमता ने ही बड़े पैमाने के उत्पादन को सफल बनाया है तथा वैज्ञानिक अनुसंधानों को
मूर्त रूप देकर मानव कल्याण में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है। संक्षेप में,
आर्थिक विकास के लिए उत्पत्ति के सभी साधनों के मध्य उच्च-स्तरीय समन्वय
अत्यावश्यक है। इस सन्दर्भ में प्रो० मॉयर ने कहा है, ''यदि कोई राष्ट्र मानवीय
साधनों का विकास करने में असमर्थ रहता है तब वह अन्य क्षेत्रों में भी विकास नहीं
कर सकता।''
(7) चहुँमुखी विकास (Multi - dimensional Growth)- चाहे विकास आर्थिक क्षेत्र में हो या
सामाजिक अथवा राजनैतिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में, मानवीय पूँजी का सर्वोच्च स्थान
है। प्रो० हरीसन एवं मायर (Prof. F. Harison and C.A. Myer) ने लिखा है, 'यदि कोई
राष्ट्र मानवीय साधनों का विकास करने में असमर्थ है तो वह दूसरे क्षेत्रों में भी
अधिक विकास नहीं कर सकता, चाहे वह राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र हो या राष्ट्रीय
एकता या आर्थिक कल्याण का उच्च स्तर ही क्यों न हो।
(8) उपभोग-स्तर में वृद्धि (Increase in Consumption level)- मानव श्रम उत्पत्ति का केवल साधन ही
नहीं वरन् साध्य भी है, अर्थात् जो उत्पादन किया जाता है, उसका वह उपभोग भी करता
है। शिक्षा, प्रशिक्षण एवं स्वास्थ्य जैसे कार्यों में विनियोग करने से दक्षता के
साथ-साथ ज्ञान के प्रति जागृति भी पैदा होती है जिससे उपभोग एवं जीवन-स्तर में
सुधार होता है। जनसंख्या में वृद्धि होने से वस्तु की माँग में वृद्धि होती है
जिससे बड़ी मात्रा में माल उत्पादन करने के प्रयास किये जाते हैं और उत्पत्ति
वृद्धि नियम लागू होता है जिससे वस्तुओं का लागत व्यय कम होकर वस्तुओं के मूल्य
गिर जाते हैं, बिक्री अधिक होती है तथा उपभोक्ता व उत्पादक दोनों को ही लाभ
प्राप्त होते हैं। "यह जानकर अनेक व्यक्तियों को आश्चर्य होता है कि बहुत से
उद्योगों - वर्तमान समाज के शायद अधिकांश उद्योग जनसंख्या की वृद्धि से ही
लाभान्वित हुए हैं। इन्हीं उद्योगों से उत्पत्ति ह्रास नियम के स्थान पर उत्पत्ति
वृद्धि नियम लागू होता है।
(9) श्रम शक्ति की पूर्ति (Supply of Labour force)- आर्थिक विकास उपलब्ध प्राकृतिक तथा
तकनीकी साधनों एवं श्रम शक्ति पर निर्भर करता है। श्रमशक्ति की कुशलता एवं योग्यता
ही आर्थिक विकास को प्रभावित करती है। जिस देश के व्यक्ति अधिक कार्यकुशल होंगे वह
आर्थिक दृष्टि से विकसित एवं सम्पन्न होंगे, इसलिए प्रो० साइमन कुजनेट्स ने कहा है
कि, “अन्य बातें समान रहते हुए, जनसंख्या वृद्धि से तात्पर्य है- श्रमशक्ति में
वृद्धि होना। जनसंख्या का श्रमशक्ति के लिए निश्चित योगदान इस बात पर निर्भर करता
है कि जनसंख्या वृद्धि मृत्यु दर में गिरावट आने अथवा जन्म दर में वृद्धि के कारण
हुई हैं।'
निष्कर्ष- संक्षेप
में, यह कहा जाता है कि देश के आर्थिक विकास में मानवीय साधनों का महत्वपूर्ण
स्थान है और प्रत्येक राष्ट्र इस साधन में वृद्धि करने का प्रयास करता है। “यदि
कोई राष्ट्र मानवीय साधनों का विकास करने में असमर्थ है तो वह दूसरे क्षेत्रों में
भी अधिक विकास नहीं कर सकता, चाहे राजनीतिक और सामाजिक ढाँचा हो या राष्ट्रीय एकता
या आर्थिक कल्याण का उच्च स्तर ही क्यों न हो?” इस सम्बन्ध में प्रो० गैलब्रेथ
(Galbraith) का मत है कि, “औद्योगिक वृद्धि का अधिक बड़ा भाग पूँजी के विनियोजन के
स्थान पर मनुष्यों में विनियोजन एवं
सुधारों से प्राप्त होता है।"
मानव संसाधन के विकास के लिए विनियोग
के क्षेत्र
(Scope of Investment for the
Development of Human Resources)
सामान्यतः
मानव संसाधन के विकास से आशय शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य आदि पर निवेश करने से
है। इस सन्दर्भ में प्रो० शुल्ज का मत है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से कौशल निर्माण
हेतु अथवा मानवाय क्षमताओं में सुधार हेतु विनियोग ही सही अर्थों में मानव-निवेश
है। प्रो० शुल्ज ने अनेक देशों का अध्ययन करके निम्न निष्कर्ष निकाले हैं:
(i)
विकास का एक भाग ही भौतिक पूँजी में विनियोग तथा श्रम शक्ति में वृद्धि का परिणाम
है।
(ii)
विकास का दूसरा भाग उत्पादकता में वृद्धि का परिणाम है, जो अनुसन्धान, प्रशिक्षण
तथा शिक्षा के विकास का ही योगदान है।
(iii)
तकनीकी विकास से आर्थिक विकास हुआ है। लेकिन तकनीकी विकास स्वयं उच्च शिक्षा
प्राप्त एवं प्रशिक्षित जनसंख्या की पर्याप्तता पर निर्भर करता है।
प्रो०
राबर्ट सोलो (Solow) ने भी शुल्ज के समान ही अमरीका का अध्ययन करके यह निष्कर्ष
निकाला कि तकनीकी परिवर्तन शिक्षा के विकास के कारण होता है। अमेरिका की
अर्थ-व्यवस्था के विकास में तकनीकी परिवर्तन का योगदान 2/3 है। लेकिन तकनीकी
परिवर्तन स्वयं शिक्षा के विकास के कारण होता है।
पश्चिमी
देशों के समान ही सोवियत रूस ने भी विकास के लिए मानव संसाधन में विकास की
नीति-रीति को अपनाया। रूस ने अपनी योजनाओं में शिक्षा के स्तर में सुधार तथा
तकनीकी प्रशिक्षण पर ध्यान दिया। यही कारण है कि रूस ने सभी स्तरों पर आर्थिक
विकास किया। किन्तु अल्पविकसित तथा अर्ध-विकसित देशों ने मानवीय पूँजी निर्माण पर
पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। यही इन देशों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण है। वास्तविकता
यह है कि अल्पविकसित या अर्द्धविकसित राष्ट्र अपने न्यून साधनों के कारण शिक्षा के
विकास में कम विनियोग कर पाए हैं। यही कारण है कि अल्पविकसित देशों में जनसंख्या
का बड़ा भाग अशिक्षित है, जबकि विकसित देशों में शिक्षा पर विनियोग तुलनात्मक रूप
से अधिक होने के कारण ही शत-प्रतिशत लोग शिक्षित है।
संक्षेप
में, मानव संसाधन के विकास के विनियोग के प्रमुख क्षेत्र निम्नानुसार हैं
(1) प्राथमिक एवं तकनीकी शिक्षा तथा प्रशिक्षण (Elementary &
Technical Education & Training):- मानव
संसाधन की कार्यकुशलता बढ़ाने में शिक्षा एवं प्रशिक्षण का विशेष महत्व है। शिक्षा
के द्वारा ही तकनीकी का उपयोग सम्भव होता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। संयुक्त
राष्ट्र संघ के एक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि सबसे अधिक प्रगति उन देशों में
हुई है जहाँ शिक्षा का व्यापक विस्तार हुआ है।
प्रो०
गैलब्रेथ (J.K. Galbraith) का मत है कि शिक्षा आर्थिक विकास की कुंजी है। अतः यह
आवश्यक है कि शिक्षा के विकास के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों,
प्रयोगशालाओं, उपकरणों, पुस्तकों आदि की सुविधाओं में विस्तार करने के लिए बड़ी
मात्रा में निवेश किया जाए।
अर्द्ध-विकसित
एंव अल्प-विकसित देशों के सन्दर्भ में प्रो० सिंगर (H.W. Singer) ने यह अनुमान
लगाया है कि आर्थिक प्रगति को ठीक प्रकार से चलाने के लिए एक देश को अपनी
राष्ट्रीय आय का कम से कम 7 से 8 प्रतिशत तक शिक्षा पर विनियोग करना चाहिए। इसमें
1.5 से 2 प्रतिशत तक अनुसन्धान और विकास तथा 0.5 प्रतिशत वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण
पर अवश्य होना चाहिए।
इसी
प्रकार प्रो० हार्बिसन ने यह अनुमान लगाया है कि अर्ध-विकसित एवं अल्पविकसित देशों
में प्रथम अवस्था में जनसंख्या का केवल 2.6 प्रतिशत माध्यमिक शिक्षा प्राप्त कर
रहे हैं। इन राष्ट्रों को चाहिए कि दूसरी अवस्था प्राप्त करने के लिए माध्यमिक
शिक्षा की सुविधाओं का तीव्र गति से विस्तार करें तथा कम से कम 5 गुना विस्तार तो
अति आवश्यक है। उच्च शिक्षा का विकास भी आर्थिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
तकनीकी
प्रशिक्षण एवं प्रौढ़ शिक्षा मानवीय साधनों के विकास कार्यक्रम का दूसरा
महत्वपूर्ण भाग है। लोगों को व्यावसायिक कला-कौशल में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
दुर्लभ कौशल के विकास के लिए विशेष महत्व देना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र के
साथ-साथ कृषि विस्तार, औद्योगिक कुशलता बढ़ाने तथा प्रशासकीय एवं प्रबन्धकीय
शिक्षा के विस्तार का आयोजन किया जाना चाहिए।
(2) स्वास्थ्य सुविधाओं तथा पोषण पर विनियोग (Investment on Health
Facilities & Nutrition);- श्रमिकों
की कुशलता एवं उनकी उत्पादकता में अच्छे स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण स्थान है। कारण
यह है कि श्रमिकों के स्वास्थ्य का उत्पादन की मात्रा एवं गुणवत्ता से सीधा
सम्बन्ध है। अल्पविकसित एवं अर्ध-विकसित देशों में व्यापक गरीबी एवं बेरोजगारी के
कारण श्रमिकों को पौष्टिक एवं सन्तुलित भोजन प्राप्त नहीं होता जिसका उनके
स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। फलतः स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के लिए
औषधालयों, दवाइयाँ, डॉक्टर, उपकरण आदि की बड़े पैमाने पर व्यवस्था आवश्यक है।
चूंकि अल्पविकसित देशों में जनसंख्या का एक बड़ा भाग सदर ग्रामीण क्षेत्रों में
निवास करता है। अतः स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार करना एक कठिन एवं जटिल कार्य
है। इस कार्य के लिए बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता है।
पौष्टिक
भोजन का भी स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। गरीबी के कारण इन देशों के लोगों को दो
समय भरपेट भोजन भी प्राप्त नहीं होता है। ऐसी स्थिति में पौष्टिक भोजन उपलब्ध
कराना एक कठिन कार्य है। यह तभी सम्भव है जब गरीब वर्ग के लोगों की क्रयशक्ति में
वृद्धि हो। इसके साथ ही स्वास्थ्य एवं पोषक भोजन के प्रति जन-जागृति भी आवश्यक है।
(3) मकानों की सुविधाओं पर विनियोग (Investment on Housing
Facilities):- मानव
संसाधन के विकास के लिए यह आवश्यक है कि अच्छी आवास सुविधाओं का विकास किया जाए।
आवास सुविधाओं का उत्पादकता से सीधा सम्बन्ध है। यदि लोगों को रहने-सहने की सुविधा
होगी तो वह अच्छी प्रकार कार्य कर सकता है। अर्ध-विकसित एवं अल्पविकसित देशों के
लिए यह अति आवश्यक है कि गन्दी बस्तियों
की सफाई, आदि का पूरा ध्यान रखा जाए तथा श्रमिकों को स्वास्थ्य दशा प्रदान
की जाए। अतः सरकार या विकास में रूचि रखने वाली अन्य संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे
सहायता प्राप्त मकान निर्माण योजनाएँ बनाएँ और कार्यान्वित करें जिससे लोगों को
आवास सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सके। इसके साथ-साथ निजी आवास को भी प्रोत्साहन दिया
जाना चाहिए।
गरीब
वर्ग के लोगों को आवास सुविधाएँ उपलब्ध कराना एक कठिन एवं जटिल कार्य है। इसे
सरकार, व्यापारिक बैंक, वित्तीय संस्थाओं के साथ-साथ निजी क्षेत्र के सहयोग से ही
पूर्ण किया जा सकता है। कम ब्याज पर ऋण, गरीबों को अनुदान, निःशुल्क भूमि, करों
में छूट आदि के द्वारा भी मकानों के निर्माण कार्य को प्रोत्साहित किया जा सकता
है।
मानव संसाधन के विकास के लिए निवेश
की सीमाएँ
(Limitations of Investment for the
Development of Human Resources)
मानव
संसाधन का विकास और उसमें विनियोग तीव्र आर्थिक विकास की एक महत्वपूर्ण शर्त है।
किन्तु, अर्ध-विकसित एवं अल्पविकसित देशों की अपनी कुछ सीमाएँ हैं जिनके कारण
वांछित दर से मानव संसाधन का विकास नहीं होता है। प्रमुख सीमाएँ निम्न प्रकार हैं
(1)
मानव संसाधन के विकास के क्षेत्र में सबसे बड़ी कठिनाई वित्त की है। देश में
शिक्षा सुविधाओं के विस्तार के लिए बड़ी मात्रा में वित्त आवश्यक हैं। इसके साथ ही
तकनीक का आयात करने के लिए विदेशी विनिमय कोषों की भी आवश्यकता होती है जो देश में
उपलब्ध नहीं होते हैं एवं उनकी व्यवस्था करनी पड़ती है। सरकार की आय के सीमित होने
के कारण वित्तीय व्यवस्था करना एक कठिन कार्य है।
(2)
अर्थव्यवस्था का स्वरूप मानव पूँजी निर्माण की द्वितीय सीमा है। अधिकांश
अल्पविकसित देश कृषि प्रधान होते हैं। इनमें नव-प्रवर्तन और कौशल निर्माण की
सम्भावनाएँ कम होती है। बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण भी मानव संसाधन से
सम्बन्धित कार्यक्रमों को पूरा करना कठिन होता है।
(3)
सामाजिक और राजनैतिक ढाँचा देश के विकास में बाधक होता है। अर्थात् रूढ़िवादिता एव
परम्परागत सामाजिक ढाँचे के कारण नई तकनीक को अपनाने के प्रति उदासीनता पाई जाती
है। विकास, ज्ञान, कौशल के प्रति जनसाधारण में पाई जाने वाली उदासीनता के लिए देश
का सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढाँचा ही उत्तरदायी है।
(4)
मानव संसाधन विकास या मानव पूँजी निर्माण की एक अन्य समस्या है दीर्घकाल में
प्रतिफल देना। कौशल निर्माण के प्रमुख तीन तत्वों - शिक्षा, प्रशिक्षण एवं अनुभव
को साकार रूप देने के लिए एक लम्बे समय तक विनियोग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त
इनमें विनियोग लगातार आधार पर करना होता है।
(5)
मानव संसाधन के विकास में प्रेरणा का अभाव भी एक महत्वपूर्ण सीमा है। अर्ध-विकसित
एवं अल्पविकसित देशों में न तो सरकार और न ही व्यक्ति इस दिशा में पर्याप्त रूचि
लेते हैं। परम्परागत सामाजिक व्यवस्था के कारण सभी वर्गों में उदासीनता व्याप्त
रहती है। अतः मानव संसाधन से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों में सरकार, स्थानीय
संस्थाएँ, व्यापारिक निगमों, बैंक, निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ, व्यापारिक
प्रतिष्ठान, प्रत्येक व्यक्ति को रूचि लेना चाहिए।
उपर्युक्त
विवरण से यह स्पष्ट है कि अर्ध-विकसित एवं अल्पविकसित देशों में मानव संसाधन के
विकास हेतु विनियोजन एक कठिन कार्य है। गरीबी एवं वित्तीय साधनों की सीमितता ने इस
कार्य को और अधिक जटिल बना दिया है। यही कारण है कि इन देशों में मानव संसाधन
विकास एक चुनौती बन गई है। अतः आवश्यकता है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों के
साथ-साथ निजी क्षेत्र के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को इस दिशा में विशेष रूचि लेना
चाहिए। विश्व बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं विकसित देशों को भी इस दिशा
में उदारतापूर्वक वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना चाहिए।
मानव संसाधन विकास के माप के आधार
(Criteria for Human Resource Development)
मानव
संसाधन विकास तथा मानव पूँजी निर्माण के मापदण्ड के बारे में भी कुछ मापदण्डों का
विकास हुआ है। ये मापदण्ड मुख्यतः शिक्षा में निवेश का उत्पादकता पर पड़ने वाले
प्रभाव से सम्बन्धित हैं। प्रमुख मापदण्ड निम्न प्रकार हैं
(1) प्रतिफल दर का मापदण्ड (The Rate of Returm Criterian):- प्रतिफल दर का मापदण्ड मुख्यत-
प्रो०टी०डब्ल्यू शुल्ज (T. W. Sehultz) एवं प्रो० बैक्कर (G. S. Becker) ने विकसित
किया है। निवेश के रूप में शिक्षा के दो अंश होते हैं, यथा-भावी उपभोग-अंश (Future
consumption component) तथा भावी अर्जन अंश (Future earnings component)। कुशलता
तथा ज्ञान में निवेश भावी अर्जनों को बढ़ाता है जबकि शिक्षा से प्राप्त संतुष्टि
उपभोग अंश है। “स्थायी उपभोक्ता-अंश के रूप में, शिक्षा भावी प्रतियोगिताओं का
स्त्रोत है, जो किसी भी प्रकार मापी गई राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं है। इसलिए
शिक्षा में निवेश के प्रतिफल का हिसाब लगाते समय भावी अर्जन अंश पर ध्यान दिया
जाता है। इसके लिए विधि यह है कि एक जैसे पेशों में नियुक्त अधिक शिक्षा - प्राप्त
व्यक्तियों की औसत जीवनकालिक कमाई की कम शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की जीवनकालिक औसत
कमाई से तुलना। उदाहरण के लिए बैक्कर ने हिसाब लगाया था कि एक गोरे शहरी पुरूष के
लिए संयुक्त राज्य अमरीका में कॉलेज शिक्षा पर निवेश के प्रतिफल की दर 1940 में
12.5% और 1950 में 10% थी। परन्तु कर काट लेने के बाद 1940 और 1950 में वह 9% थी।
इस आगणन में विद्यार्थी पर पड़ने वाली प्रत्यक्ष लागत, अध्ययन काल में परित्याक्त
(Foregone) आय तथा अध्ययन हेतु महाविद्यालय की लागत का अंश सम्मिलित है।
संक्षेप
में, कुशलता तथा ज्ञान (शिक्षा) में निवेश भावी अर्जन को बढ़ाता है। अतः शिक्षा
में निवेश के प्रतिफल को निकालने के लिए एक जैसे पेशे में नियुक्त अधिक शिक्षा
प्राप्त व्यक्तियों की औसत जीवनकालिक कमाई की कम शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की
जीवनकालिक कमाई से तुलना की जाती है, किन्तु इस मापदण्ड से गणना करने में अनेक
कठिनाइयाँ आती हैं, जैसे
(i)
इस विधि के अन्तर्गत प्रत्यक्ष भौतिक लाभों (मौद्रिक) को ही मापा जाता है, जबकि
शिक्षा से प्राप्त बाहरी मितव्ययिताओं (जैसे शिक्षा के स्तर में सुधार के फलस्वरूप
देश को प्राप्त प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ) की गणना नहीं हो पाती।
(ii)
मनुष्य की अर्जन शक्ति पर केवल उसकी विश्वविद्यालयी शिक्षा का ही प्रभाव नहीं
पड़ता है बल्कि वह प्राकृतिक योग्यता, सामाजिक प्रतिष्ठा, पारिवारिक सम्बन्ध,
अनुभव आदि से भी प्रभावित होती
(iii)
कौशल निर्माण हेतु किये गये विनियोजन के प्रतिफल केवल सम्बद्ध व्यक्तियों की आय ही
नहीं बढ़ाते, बल्कि अर्थव्यवस्था की कुल उत्पादन क्षमता में भी वृद्धि कर देते
हैं।
(iv)
यह मापदण्ड विविध वर्गों के सामूहिक प्रयत्नों का सही आकलन नहीं कर पाता है।
(v)
यह मापदण्ड यह बताने में भी असमर्थ है कि आर्थिक विकास के लिए कितनी और किस प्रकार
की शिक्षा की आवश्यकता होती है।
(2) सकल राष्ट्रीय आय में शिक्षा के योगदान का मापदण्ड (The
Criterion of Contribution of Education to Gross National Income):- इस मापदण्ड के अनसार शिक्षा में
निवेश करने पर निश्चित समय में सकल राष्ट्रीय आय में जितनी वृद्धि होती है उसकी
गणना की जाती है। प्रो० शुल्ज (T.W. Schultz) ने सन् 1900 से 1956 तक की अवधि में
अमेरिका में इस मापदण्ड का प्रयोग किया और निष्कर्ष निकाला कि भौतिक पूँजी में
निवेश की अपेक्षा शिक्षागत पूँजी का भी हिसाब लगाया था। उनके अनुसार शिक्षागत
पूँजीगत पूँजी के स्टॉक का भौतिक पूँजी के स्टॉक से अनुपात सन् 1900 के 22 प्रतिशत
से बढ़कर 1957 में 42 प्रतिशत हो गया था। प्रो० पंचमुखी (P. R. Panchmukhi) ने
शुल्ज की विधि का प्रयोग भारत के लिए किया है।
इस
मापदण्ड के प्रयोग में भी अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, जो कि निम्न प्रकार हैं
(i)
अल्पविकसित देशों में अधिकांश युवकों को स्कूल की शिक्षा नहीं मिलती है, परन्तु वे
पारिवारिक व्यवसायों में अर्जन करते हैं। इस प्रकार शिक्षा की वास्तविक लागत स्कूल
जाने की अवधि की परित्यक्त कमाई का परिणाम हो सकती है।
(ii)
यह मापदण्ड राष्ट्रीय आय पर शिक्षागत पूँजी निवेश के योगदान को ठीक-ठीक नहीं मापता
है।
(iii)
श्रम शक्ति के सम्भाव्य सदस्यों को काम की बजाय स्कूल में भेजना न केवल
विद्यार्थियों या उनके परिवारों की निजी लागत बल्कि सामाजिक लागत भी है। किन्तु,
राष्ट्रीय उत्पादन में सम्भाव्य वृद्धि अ-प्राप्त रहती है।
संक्षेप
में, इस मापदण्ड के बारे में प्रो० बेलोग का मत है कि शिक्षा की लाभदायकता के बारे
में किए गए आगणन तकनीकी आर्थिक रूप में न केवल त्रुटिपूर्ण है वरन् राजनैतिक तौर
से अनैतिक भी है।
(3) अवशेष साधन मापदण्ड (Residual Factor Criterion):- मानव संसाधन विकास के लिए अवशेष साधन
मापदण्ड का प्रयोग अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया, जिनमें प्रो० सालो,
प्रो० केन्ड्रिक डेनिसन, प्रो० जार्गेन्सन, प्रो० कुजनेट्स आदि प्रमुख हैं। इस
मापदण्ड के अनुसार राष्ट्रीय उत्पादन में दो प्रकार के साधनों का योगदान रहता है,
यथा- एक पूँजी एवं श्रम और दूसरा अन्य जिन्हें अवशेष साधन कहा जाता है। अवशेष साधन
के अन्तर्गत शिक्षा, अनुसंधान, प्रशिक्षण एवं पैमाने की मितव्ययिताएँ आदि के
साथ-साथ कुछ अन्य तत्व भी सम्मिलत रहते हैं, जो मानव उत्पादकता को प्रभावित करते
हैं। प्रो. डेनिसन ने अमरीका का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि सन् 1929 से
1957 तक की कुल वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि में शिक्षा का योगदान 23 प्रतिशत
था। जहाँ तक 'अवशेष' साधन के योगदान का प्रश्न है डेनिसन ने इसे राष्ट्रीय आय की
कुल वृद्धि के 31 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी माना है। यह 20 प्रतिशत ज्ञान की
उन्नति के प्रभाव के कारण तथा 11 प्रतिशत राष्ट्रीय मार्केटों की वृद्धि के
परिणामस्वरूप पैमाने की मितव्ययिताओं के कारण था।
अवशेष साधन मापदण्ड में भी अनेक
कमियाँ हैं, जिसके कारण मानव संसाधन विकास की गणना सही ढंग से नहीं हो पाती है। इस
मापदण्ड की प्रमुख कमियाँ निम्न प्रकार हैं
(1) अवशेष साधन एक बहुत विस्तृत शब्द
है जिसमें विभिन्न प्रकार के साधन जैसे पैमाने की
मितव्ययिताएँ, तकनीकी परिवर्तन,
शिक्षा, अन्वेषण और प्रशिक्षण शामिल किए गए हैं।
ये साधन कसौटी को जटिल बना देते हैं।
(2) अवशेष साधन में पूँजी
परिसम्पत्तियों में कुछ सुधार भी शामिल किए जा सकते हैं जो मानव ज्ञान एवं कौशल
में सुधारों के कारण हो सकते हैं।
(3) यह कसौटी व्यवहारिक तथा
अव्यवहारिक शिक्षा, अथवा शिक्षा की गुणवत्ता या विषय - वस्तु में कोई भेद नहीं
करती हैं।
(4) जार्गेन्सन तथा ग्रिलिचिज अपने
अध्ययन में बताते हैं कि 'अवशेष' जिसे डेनिसन ने 'ज्ञान की उन्नति के कारण माना
है, थोड़ा ही है, बहुत अधिक नहीं है यह तथ्य कि अवशेष थोड़ा है, लक्ष्य करता है कि
आर्थिक वृद्धि में निवेश के योगदान की बड़ी मात्रा में क्षतिपूर्ति निवेश के निजी
प्रतिफलों से हो जाती है।
(5) अवशेष साधन मापदण्ड ऐसे उत्पादन
फलन पर आधारित है जिसमें पैमाने के स्थिर प्रतिफल पाए जाते हैं। वास्तविकता में एक
विकसित अर्थव्यवस्था में बढ़ते प्रतिफल पाए जाते हैं।
(6) इस मापदण्ड में पूँजी का आर्थिक
विकास में योगदान को कम आँका गया है।
(4) सम्मिश्र-सूचकांक
मापदण्ड (The Composite Index Criterion):- मानव
संसाधन विकास का यह सर्वाधिक लोकप्रिय मापदण्ड है और इसका उपयोग वर्तमान में विश्व
के प्रायः सभी देशों में किया जा रहा है। इस मापदण्ड का विकास प्रो० हार्बिसन एवं
प्रो० मायरज ने किया है। सम्मिश्र सूचकांक को 75 देशों को श्रेणीबद्ध करके तथा
उनको मानव स्त्रोत विकास के चार स्तरों का समूह बनाकर प्रयुक्त किया जाता है। ये
समुह हैं - (a) अल्पविकसित, (b) आंशिक विकसित, (c) अल्प उन्नत, और (d) उन्नत। इन
सूचकांकों के आधार पर आर्थिक विकास के स्तर का अध्ययन किया जाता है।
मानव विकास मापदण्ड
(Human Development Criteria)
आर्थिक विकास को मापने के लिए
राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय के विकल्प के रूप मानव विकास मापदण्ड का विकास
किया गया है। इस दिशा में एवरैट ई० हैजन (Everett E. Hagen), डोनाल्ड एच०
नीवैरोस्की (Donald H. Niewiaroski), इर्मा एडलमैन (Irma Adelman) और सिन्थिया
टाफ्ट मौरिस (Cynthia Taft Morris) तथा हार्बिन्सन (Harbinson) मैरूहनिक
(Maruhnic), और रैजनिक (Resnick) ने सराहनीय कार्य किया। मौरिस डि० मौरिस (Morris
D. Morris) ने जीवन के भौतिक गुणों के सूचकांक (Physical Quality of Life Index)
की संकल्पना विकसित की है। इसी प्रकार पॉल स्ट्रीटन (Paul Streetan) ने मूल
आवश्यकता दृष्टिकोण (Basic Need Approach) को अपनाने पर जोर दिया है। इन प्रयासों
को मूर्त रूप देते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रम (United Nations
Development Programme) द्वारा मानव विकास सूचकांक (Human Development Index)
तैयार किए गए। मानव विकास सूचकांक सर्वप्रथम 1990 की Human Development Report में
प्रकाशित हुआ था और इसे महबूब उल हक (Mahbub ul Haq) के निर्देशन में तैयार किया
गया था। गत वर्षों में इस मापक के विस्तार के साथ-साथ इसे और परिष्कृत बनाया गया
है। यही नहीं, इसके साथ-साथ मानव विकास के कुछ और भी सम्बद्ध सूचकांक विकसित किए
गए हैं जिन्हें बाद के वर्षों में प्रकाशित होने वाली Human Development Reports
में प्रस्तुत किया गया है।
मानव विकास का अर्थ (Meaning of Human
Development):-
मानव विकास मापदण्ड को आर्थिक विकास
को मापने के विकल्प के रूप में विकसित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार
मानव विकास के अन्तर्गत लम्बा एवं स्वस्थ जीवन यापन, शिक्षा प्राप्ति, अच्छा जीवन
स्तर, मानवाधिकारों की सुरक्षा जैसे विभिन्न तत्वों को सम्मिलित किया गया है। इस
प्रकार मानव विकास सूचकांक एक ऐसा मापदण्ड है जिससे कल्याण के स्तर का युक्तियुक्त
माप सम्भव हो सके। इस सन्दर्भ में प्रो० पॉल स्ट्रीटन ने ठीक ही लिखा है कि मानव
विकास की संकल्पना मानव को कई दशकों के अंतराल के बाद पुनः केन्द्रीय मंच पर
प्रस्थापित करती है। इन बीते दशकों में तकनीकी संकल्पनाओं की भूल-भुलैया में यह
बुनियादी दृष्टि अस्पष्ट बनी रही थी।
प्रो० महबूब उल हक के अनुसार, “आर्थिक
संवृद्धि और मानव विकास की विचारधारा में परिभाषात्मक अंतर यह है कि जहाँ आर्थिक
संवृद्धि में केवल एक विकल्प अर्थात् आय पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है वहाँ
मानव विकास में सभी मानवीय विकल्पों का विस्तार आ जाता है। ये विकल्प चाहे आर्थिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक हों।'' यह कभी-कभी कहा जाता है कि आय में
वृद्धि से अन्य सभी विकल्पों का विस्तार होता है। ऐसा हो तो सकता है, लेकिन
विभिन्न कारणों से ऐसा प्रायः होता नहीं है, जैसे - प्रथम, आय का वितरण असमान हो
सकता है। अतः जिन लोगों की आय तक पहुँच बहुत कम है अथवा बिलकुल नहीं है उनके
विकल्प बहुत सीमित होंगे। इस स्थिति में आर्थिक संवृद्धि का रिसाव नहीं होता।
द्वितीय, जो अधिक महत्वपूर्ण है, यह है कि समाज और शासकों द्वारा ऐसी राष्ट्रीय
प्राथमिकताएँ निर्धारित की जा सकती हैं अथवा समाज का राजनैतिक ढाँचा ऐसा हो सकता
है कि आय के विस्तार से लोगों के सामने विकल्पों का विस्तार न हो।
मानव विकास की आवश्यकता (Need for
Human Development):- मानव विकास के लिए दिए जाने वाले प्रमुख कारण निम्न प्रकार
हैं:
(1) आर्थिक विकास की प्रक्रिया का
अन्तिम लक्ष्य मानव विकास है, जबकि राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि
केवल साधन मात्र है। दूसरे शब्दों में, आर्थिक विकास की संपूर्ण प्रक्रिया का
अन्तिम उद्देश्य स्त्रियों, पुरूषों और बच्चों की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को
लक्ष्य के रूप में देखना, मानव की स्थितियों में सुधार करना और लोगों के विकल्पों
में विस्तार करना है।
(2) मानव विकास (जन - शक्ति) ऊँची
उत्पादकता का साधन हैं। भली प्रकार से पोषित, स्वस्थ, शिक्षित, कुशल और सतर्क श्रम
शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्पादक परिसंपत्ति है। अतः पोषण, स्वास्थ्य सेवा,
शिक्षा में निवेश उत्पादकता के आधार पर उचित एवं अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
(3) मानव विकास से पुनरूत्पादन दर
(जन्म दर) को धीमा करके परिवार के आकार को छोटा करने में सहायता पहुँचाता है। यह
सभी विकसित देशों का अनुभव है कि शिक्षा के स्तर विशेष रूप से लड़कियों के शिक्षा
के स्तर में सुधार, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता और बाल मृत्यु दर में
कमी से जन्म दर में गिरावट आती है। शिक्षा में सुधार से लोगों में छोटे परिवार के
फायदों के प्रति चेतना पैदा होती है और स्वास्थ्य में सुधार व बाल मृत्यु दर में
कमी से लोग ज्यादा बच्चों की जरूरत महसूस नहीं करते।
(4) भौतिक पर्यावरण की दृष्टि से भी
मानव विकास अत्यधिक महत्वपूर्ण है। गरीबी में कमी से वनों के विनाश, रेगिस्तान के
विस्तार और भूक्षरण में कमी आती है। जनसंख्या में वृद्धि और जनसंख्या का घनत्व किस
तरह पर्यावरण को प्रभावित करते हैं यह विवाद का विषय है। परम्परागत दृष्टिकोण यह
है कि इनका पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है, लेकिन पॉल स्ट्रीटन ने हाल के शोध
कार्यों के हवाले से स्पष्ट किया है कि भूमि अधिकार सुरक्षित होने की स्थिति में
जनसंख्या में तेजी के साथ वृद्धि और जनसंख्या के ऊँचे घनत्व से मिट्टी और वनों का
संरक्षण होता है।
(5) गरीबी में कमी एवं जीवन स्तर में
सुधार से एक स्वस्थ समाज के गठन, लोकतंत्र के निर्माण और सामाजिक स्थिरता में
सहायता मिलती है।
(6) मानव विकास से एक सुखद एवं
सम्पन्न समाज की स्थापना होती है जिससे सामाजिक उपद्रवों को कम करने में सहायता
मिलती है और इससे राजनीतिक स्थिरता बढ़ती है।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त विवरण से यह
स्पष्ट हैं कि मानव विकास प्रतिमान में संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था आ जाती है न कि
केवल अर्थव्यवस्था। इसके अंतर्गत राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारकों को उतना
ही महत्व दिया जाता है जितना कि आर्थिक कारकों को। इसके साथ ही महत्वपूर्ण बात यह
है कि उद्देश्यों और साधनों के बीच सावधानी के साथ अंतर किया जाता है। इस संदर्भ
में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में विस्तार मानव के समक्ष विकल्पों में विस्तार
का एक अनिवार्य साधन बन जाता है। लेकिन आर्थिक संवृद्धि के स्वरूप और वितरण का माप
लोगों के जीवन में समृद्धि के रूप में किया जाता है। लोग वस्तुओं के उत्पादन करने
वाले उपकरण मात्र नहीं रहते। वे केन्द्रीय रंगमंच पर उपस्थित होते हैं। उत्पादन प्रक्रियाएँ
अमूर्त शून्य रूप में नहीं देखी जातीं, उनका वस्तुतः मानवीय संदर्भ होता है।
मानव विकास के सूचकांकों की माप
(Measurement of Human Development
Index)
सन् 1990 से संयुक्त राष्ट्र विकास
कार्यक्रम (UNDP) अपनी वार्षिक मानव विकास रिपोर्ट में मानव विकास सूचक (HDI) के
रूप में मानव विकास के माप को प्रस्तुत कर रहा है। मानव विकास निर्देशांक तीन
सामाजिक सूचकों का एक मिश्रित सूचक है, यथा - जीवन संभाव्यता, वयस्क शिक्षा तथा
स्कूलों के वर्ष। इसमें वास्तविक प्रति व्यक्ति आय तथा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का
भी ध्यान रखा जाता है। अतः मानव विकास निर्देशांक तीन आधारभूत पहलुओं में
उपलब्धियों का एक मिश्रित सूचक है: एक लम्बा व स्वस्थ जीवन, ज्ञान तथा उत्कृष्ट
जीवन - स्तर।
किसी देश के मानव विकास निर्देशांक का
मूल्य निकालने के लिए तीन सूचकों को लिया जाता है।
(1) दीर्घायु, जिसे जन्म के समय जीवन
की संभाव्यता द्वारा मापा जाता है : 25 वर्ष तथा 85 वर्ष।
(2) शैक्षिक योग्यताओं की प्राप्ति,
जिसे वयस्क शिक्षा (दो तिहाई भार) तथा प्राथमिक, माध्यमिक व क्षेत्रीय विद्यालयों
में उपस्थित अनुपातों (एक तिहाई भार) के मिश्रण के रूप में मापा जाता है, उदाहरणार्थ,
वयस्क शिक्षा : 0% से 100% तथा दाखिलों का मिश्रित अनुपात 0% से 100%।
(3) जीवन स्तर, जिसे डालर की क्रय
शक्ति समता (Purchasing power parity) पर आधारित वास्तविक प्रति व्यक्ति सकल घरेलू
उत्पाद (GDP) द्वारा मापा जाता है।
मानव विकास निर्देशांक (HDI) जीवन की
संभाव्यता सूचक शैक्षिक प्राप्तियाँ सूचक तथा समायोजित वास्तविक प्रति व्यक्ति GDP
सूचक का सरल औसत सूचक है। इसकी गणना इन तीनों संकेतकों के योग को 3 से विभाजित कर
निकाली जाती है। इसमें प्रत्येक चर का न्यूनतम तथा अधिकतम मूल्य स्थिर है, जिसे
घटाकर शून्य (0) तथा एक (1) के बीच पैमाने पर रखा गया है तथा प्रत्येक देश इस
पैमाने के किसी न किसी बिन्दु पर आता है।
प्रत्येक देश का मानव विकास
निर्देशांक (HDI) मूल्य यह दर्शाता है कि उसे अपने कुछ परिभाषित लक्ष्यों की
प्राप्ति के लिए कितना प्रयास करना है, जैसे - 85 वर्ष के औसत जीवन की अवधि, सभी
के लिए शिक्षा की उपलब्धि तथा उत्कृष्ट जीवन स्तर। HDI एक दूसरे के संबंध में
विभिन्न देशों का क्रम तय करता है। किसी भी देश का HDI क्रम विश्व आवंटन के बीच ही
तय होता है। उदाहरणार्थ, यह क्रम
प्रत्येक विकसित तथा विकासशील देशों
से संबंधित अपने HDI मूल्य पर आधारित है जिसके लिए उस देश द्वारा HDI न्यूनतम
मूल्य शून्य ()) से HDI अधिकतम मूल्य एक (1) तक प्रयास किए गए। ऐसे देश जिनका HDI
मूल्य (0.5 से कम है उन्हें निम्न स्तर के मानव विकास क्रम में रखा जाता है तथा
0.5 से 0.8 मूल्य वाले देशों को मध्यम तथा (0.8 से ऊपर HDI मूल्य वाले देश उच्च
स्तर में गिने जाते हैं। HDI में देशों को उनके प्रति व्यक्ति GDP के आधार पर भी
क्रमबद्ध किया जाता है।
मानव विकास रिपोर्ट 1996 में 174
विकसित एवं विकासशील देशों से संबंधित वर्ष 1993 की वास्तविक प्रति व्यक्ति GDP के
क्रम, HDI मूल्य तथा HDI क्रम प्रस्तुत किए गए हैं। जिन 174 देशों के HDI की गणना
की गई थी उनमें से 57 उच्च विकास वर्ग (0.8 से 0.95) में थे, 69 मध्यम वर्ग (0.5
से 0.79) में तथा 48 निम्न वर्ग (0.48 से 0.2) में थे। कनाडा, संयुक्त राज्य
अमेरिका तथा जापान HDI में उच्च वर्ग के 26 विकसित देशों में सबसे आगे थे। उस वर्ग
में सबसे अन्तिम क्रम 57 पर रूसी संघ था। 26 विकासशील देशों में हांगकांग,
साइप्रस, बारबाडोस प्रथम तीन क्रम में थे। मध्यम वर्ग में विघटित सोवियत संघ के
अधिकांशतः देशों सहित 16 विकसित तथा 53 विकासशील देश थे। निम्न वर्ग में 48
विकासशील देश थे जिनमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि देश थे।
आर्थिक विकास और जनसंख्या वृद्धि
परस्पर आश्रित है। जनसंख्या वृद्धि न केवल आर्थिक विकास को प्रभावित करती है,
अपितु स्वयं भी आर्थिक विकास से प्रभावित होती है।
प्राचीनकाल से ही जनसंख्या वृद्धि
उत्पादन के विकास का साधन रही है और आज भी हमारी उत्पादन व्यवस्था की सूत्राधार
मानव परिसम्पत्ति ही है। प्रो० साइमन कुजनेट्स के अनुसार, इस बात के प्रमाण मिलते
हैं कि आधुनिक समय में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ कुल उत्पादन में भी वृद्धि हुई
है और बहुत देशों में यह वृद्धि इतनी अधिक थी कि उनकी प्रति व्यक्ति उपज में भी
दीर्घकालीन वृद्धि हुई हैं।"
प्रो० हर्षमैन के अनुसार,
"जनसंख्या का दबाव आर्थिक विकास को हतोत्साहित नहीं, बल्कि उत्तेजित करता
है।'' प्रो० पैनरोज ने कहा है कि, “जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है यदि प्रशुल्क नीति सुदृढ़ हो और
अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग उपलब्ध हो रहा हो।"
जनसंख्या के आर्थिक विकास के सम्बन्ध
में दो दृष्टिकोण हैं- यथा (A) आशावादी दृष्टिकोण (B) निराशावादी दृष्टिकोण, जिनकी
विस्तृत व्याख्या निम्न प्रकार है
(A) आशावादी दृष्टिकोण (Optimistic
View)
जनसंख्या आर्थिक विकास में सहायक
प्रो० हेन्सन जनसंख्या वृद्धि की ऊँची
दर को आर्थिक विकास की एक आवश्यक शर्त मानते हैं। उनके अनुसार "जनसंख्या
वृद्धि आर्थिक विकास के लिए पूर्व शर्त है।' इस प्रकार आशावादी दृष्टिकोण के
समर्थक कई अर्थशास्त्री जनसंख्या को आर्थिक विकास में सहायक मानते हैं। इस सन्दर्भ
में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं
(1) जनसंख्या जनशक्ति
पूर्ति करती है - आर्थिक विकास के लिए जन शक्ति
अनिवार्य साधन है। आर्थिक विकास प्राकृतिक साधनों, जनशक्ति, पूँजी और तकनीकी विकास
का फलन होता है। प्रो० साइमन कुजनेट्स के अनुसार, "अन्य बातें समान रहने पर
जनसंख्या में होने वाली वृद्धि श्रम शक्ति को बढ़ाती है, उसका श्रमशक्ति को
निश्चित योगदान इस बात पर निर्भर होगा कि जनसंख्या वृद्धि मृत्यु-दर के गिरने, शुद्ध
आवास अथवा जन्मदर के बढ़ने के कारण हुई है।'' श्रमशक्ति की पूर्ति के रूप में
जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में सहायक होती जा रही है।
(2) मानवीय पूँजी
निर्माण द्वारा उत्पादकता में वृद्धि - तकनीकी
प्रशिक्षण और ज्ञान के विकास द्वारा मानवीय पूँजी का निर्माण संभव होता है। ज्ञान
के विकास के साथ ही साथ कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है जिससे प्रतिव्यक्ति
उत्पादकता बढ़ती है। श्रम की उत्पादकता में होने वाली वृद्धि उर्थिक विकास के लिए
लाभप्रद होती है। औद्योगिक विकास के लिए कुशल एवं तकनीकी मानवीय पूँजी की आवश्यकता
अनिवार्य होती है। अतः मानवीय पूँजी निर्माण के द्वारा विकास की ऊँची दर प्राप्त
करना संभव होता है।
(3) अतिरिक्त जनशक्ति
के प्रयोग द्वारा पुँजी निर्माण - प्रायः
अर्द्ध विकसित राष्ट्रों में पूँजी की न्यूनता होती है। प्रो० लेबिस के अनुसार
ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में विद्यमान विधि बेरोजगारी को पूँजी निर्माण योजनाओं
में लगातार श्रमशक्ति के द्वारा पूँजी निर्माण कर सकते हैं। प्रो० नर्से ने भी
जनशक्ति नियोजन के द्वारा पूँजी निर्माण की सिफारिश की है। अतिरिक्त जनशक्ति का
प्रयोग पूँजी निर्माण की दर को बढ़ाने में सहायक होता है, जनशक्ति के प्रयोग के
द्वारा अर्द्धविकसित राष्ट्रों में पूँजीगत कार्यों को पूरा किया जाता है। इस तरह
से पूँजी के अभाव की पूर्ति करना सम्भव होता है।
(4) जनसंख्या अधिक
उत्पादन को सम्भव बनाती है - यदि जनसंख्या
का आकार देश में उपलब्ध पंजी. भूमि एवं प्राकृतिक साधनों की तुलना में छोटा होता
है तो उत्पादन कम होता है। जनसंख्या की वृद्धि होने से श्रम विभाजन करने में
सुविधा होती है। श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित करते
हैं। प्रो० डी० ब्राइटसिंह के अनुसार, "जनसंख्या वृद्धि श्रम विभाजन के
विस्तार तथा अधिक विशिष्टीकरण को सम्भव करेगी , पैमाने की बचतों को पैदा करेगी, और
तकनीकी प्रगति तथा संगठनात्मक सुधारों को भी प्रोत्साहन देगी।" इस प्रकार
जनसंख्या की वृद्धि उत्पादन में वृद्धि करती है।
(5) जनसंख्या माँग का
सृजन करती है - जनसंख्या की वृद्धि नए उपभोक्ताओं को
बढ़ाती है तथा नए आने वाले उपभोक्ता प्रभावपूर्ण माँग का सृजन करते हैं। इससे
आर्थिक विकास की प्रेरणाएँ बाजार को विस्तृत बनाती है, विस्तृत बाजार उत्पादन के
पैमाने का विस्तार करता है तथा बड़े पैमाने का उत्पादन और विस्तृत बाजार अधिक
मितव्ययिताओं को सम्भव बनाता है। उत्पादन के विस्तार के साथ ही रोजगार के भी नए
अवसरों का सृजन होता है।
(6) जनसंख्या नयी
प्रतिभाओं को जन्म देती है - जनसंख्या की
वृद्धि के साथ ही नई शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। बढ़ती हुई जनशक्ति में
ज्ञान का विकास होता है जिससे उत्पादन की तकनीक में सुधार होता है। प्रो० साइमन
कुजनेट्स के अनुसार, “आर्थिक उत्पादन में वृद्धि परीक्षित ज्ञान के स्टॉक की
वृद्धि का फलन है।" यदि वैज्ञानिकों की संख्या में वृद्धि होती है तो तकनीकी
परिवर्तन होते हैं और उत्पादन की प्रणाली में सुधार होता है। उसी प्रकार अन्य
क्षेत्रों की प्रतिभाओं के विकास से जनसंख्या की वृद्धि आर्थिक विकास को सम्भव
बनाती है।
(B) निराशावादी दृष्टिकोण
(Pessimistic View)
जनसंख्या आर्थिक विकास में बाधक है'
जनसंख्या - वृद्धि सदैव आर्थिक विकास
में सहायक नहीं होती है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या ने प्रति व्यक्ति आय, रहन-सहन
के स्तर और पूँजी निर्माण की दर में गिरावट लाई है वहीं दीर्घकालीन बेरोजगारी,
खाद्य संकट व मुद्रा स्फीति को प्रेरित किया है। प्रो० मायर के अनुसार, ''अवरोध
सिद्धान्त के विपरीत, पिछड़े हुए देशों में होने वाली जनसंख्या वृद्धि, पूँजी का
विस्तार करने वाले विनियोगों तथा नवप्रवर्तकों को प्रोत्साहित करती है। इसके
विपरीत पूँजी संचय की दर को कम करती है तथा प्रारम्भिक उद्योगों में लागतों को
बढ़ाती है।'' प्रो० बिलार्ड के अनुसार, "अर्द्ध विकसित देशों की मूल
परिस्थितियों का अवलोकन एवं मूल्यांकन किए बिना कोई निष्कर्ष निकालना उचित न होगा।
प्रायः यह देखा जाता है कि विभिन्न देशों का राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ने पर भी वहाँ
की जनता निर्धन बनी रहती है। इसका मुख्य कारण जनसंख्या की अप्रत्याशित वृद्धि में
ही निहित है। अर्द्ध विकसित देशों के विकास पर तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या निम्न
कारणों से बाधक होती है."
(1) जनसंख्या आवश्यक
विनियोग आकांक्षा को बढ़ाती है - राष्ट्रीय
आय में एक निश्चित वृद्धि के लिए पर्याप्त मात्रा में विनियोग आवश्यक है तभी
राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना सम्भव होता है। अर्द्ध विकसित देशों में बढ़ती हुई
जनसंख्या बचतों को समाप्त कर देती है, जिससे विनियोग कम होते हैं तथा बढ़ी हुई
जनसंख्या विनियोग प्रभावों को अवशोषित कर लेती है। आवश्यक विनियोगों के अभाव में
जीवनस्तर नीचे गिरने लगता है। प्रो० कोल एवं हूंबर ने कहा है कि, "जनसंख्या
की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर एक निर्धारित प्रति
व्यक्ति उत्पादन को प्राप्त करने के लिए आवश्यक विनियोग की मात्रा को बढ़ा देती है
जबकि विनियोग योग्य साधनों की पूर्ति में वृद्धि करने के लिए वह कुछ नहीं करती।'
(2) जनसंख्या पूँजी
निर्माण की दर को कम करती है - अर्द्ध
विकसित देशों में बढ़ती हुई जनसंख्या पूँजी निर्माण को कम कर देती है। इन
राष्ट्रों में 15 वर्ष से कम उम्र के बालकों की संख्या अधिक होती है जबकि 15 से 65
वर्ष के आयु समूह के लोग 50% से भी कम होते हैं अर्थात् इन देशों में उपभोक्ताओं
की संख्या कम होती है, इसलिए कुल राष्ट्रीय आय का एक बहुत बड़ा भाग उपभोग एवं
अपव्यय में चला जाता है जिससे विनियोग के लिए आय का बहुत कम भाग बचा रहता है जिससे
पूँजी निर्माण कम होता है। प्रो० मायर के अनुसार, “आश्रितों का अधिक मात्रा में
होना समाज के साधनों के काफी बड़े भाग को, जो पूँजी निर्माण में गया होता, उन
आश्रितों के ऊँचे प्रतिशत के पोषण की ओर ले जाता है जो कभी भी उत्पादक नहीं बनेंगे
और बनेंगे भी तो केवल थोड़े समय के लिए।"
(3) जनसंख्या बेरोजगारी
की दर को बढ़ाती है - जनसंख्या वृद्धि के साथ ही श्रम की
पूर्ति में भी वृद्धि होती जाती है किन्तु रोजगार साधनों में उस अनुपात में वृद्धि
नहीं हो पाती है। अर्द्ध विकसित राष्ट्रों में सबसे बड़ी समस्या नीची विकास दर और
जनसंख्या की ऊँची वृद्धि दर है। बढ़ती हुई जनसंख्या आय, बचत और विनियोग में गिरावट
लाती है। फलस्वरूप बेरोजगारी की समस्या और अधिक विकराल होती जाती है।
(4) जनसंख्या खाद्य
समस्या उत्पन्न करती है- तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या
अर्द्ध विकसित राष्ट्रों के लिए खाद्य समस्या उत्पन्न कर देती है। खाद्यान्न के
अभाव में पोषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है, जीवन स्तर गिरने लगता है। तकनीकी
विकास के अभाव में जिस गति से जनसंख्या में वृद्धि होती है उस गति से खाद्यान्न
उत्पादन नहीं बढ़ता है। इससे अर्द्ध विकसित राष्ट्रों को खाद्य - आवश्यकताओं को
पूर्ति हेतु विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा
कोष का प्रयोग आर्थिक विकास हेतु नहीं हो पाता है।
(5) जनसंख्या वृद्धि
एवं देश का असन्तुलित विकास - जनसंख्या की
तीव्र वृद्धि भूमि की ओर जनसंख्या के अन्तरण को प्रोत्साहित करती है। औद्योगिक
क्षेत्र में भी इस बढ़ी हुई जनसंख्या को रोजगार देना असम्भव रहता है। फलस्वरूप
अर्थव्यवस्था कृषि व्यवसाय से औद्योगिक क्षेत्र की ओर अग्रसर नहीं हो पाती है।
अधिकांश जनसंख्या कृषि कामों में ही संलग्न रहती है। देश में कुछ ही उद्योग धन्धे
विकसित हो पाते हैं जिससे आर्थिक विषमता को प्रोत्साहन मिलता है। अतः आर्थिक
असमानता उत्पादन साधनों का असन्तुलित विकास एक बड़ी बाधा है।
(6) जनसंख्या वृद्धि
एवं सामाजिक आर्थिक दुष्प्रभाव:- जनसंख्या
वृद्धि सामाजिक असमानता, सुरक्षा आदि कई समस्याएँ उत्पन्न कर देती है। उत्पादन के
असन्तुलन के कारण आय की असमानता भी उत्पन्न हो जाती है। उत्पादकता कम होने के कारण
प्रति व्यक्ति आय में भी कमी हो जाती है। जिसके फलस्वरूप साम्प्रदायिक और जातिगत
भावनाओं की वृद्धि से सामाजिक असन्तोष पनपता है। प्रो० लिबिस्टीन के अनुसार यद्यपि
जनसंख्या वृद्धि शायद दीर्घकाल में अधिक महत्वपूर्ण होती है। वह अल्पकाल में भी
कुछ महत्व रखती है क्योंकि वह प्रति व्यक्ति आय को प्रचलित दर के निर्धारण का
कार्य करती है।"
(7) जनसंख्या वृद्धि
एवं कृषि विकास - अर्द्ध विकसित देशों की जनसंख्या का
एक बहुत बड़ा भाग गाँवों में निवास करता है जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि होता है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि पर जनसंख्या का आवश्यकता से अधिक भार बढ़ जाता है
तथा प्रति श्रमिक उत्पादन कम होता जाता है। जनसंख्या की कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
के कारण अदृश्य बेरोजगारी उत्पन्न होती है जिससे न्यून बचत एवं विनियोग को
प्रोत्साहन मिलता है।
(8) जनसंख्या और
सामाजिक अधिसंरचना - तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या
सामाजिक अधिसंरचना में विनियोग को आवश्यक बना देती है। जबकि साधनों की कमी के कारण
सम्पूर्ण जनसंख्या के लिए शिक्षा स्वास्थ्य, चिकित्सा, परिवर्तन और आवास सुविधाएँ
उपलब्ध कराना सम्भव नहीं होता है, परिणामस्वरूप इन सेवाओं का स्तर गिरता जाता है।
निष्कर्ष- निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या वृद्धि जहाँ
कुछ देशों के आर्थिक विकास में सहायक है, वहीं अनेक देशों के विकास में बाधक है।
अधिकांश विकासशील पर पिछड़े देश जनाधिक्य को समस्या का सामना कर रहे हैं और
परिणामस्वरूप इन देशों के विकास का मार्ग अवरूद्ध हो रहा है। इस सन्दर्भ में प्रो०
एच० डब्ल्यू सिंगर ने ठीक ही कहा है, "जनसंख्या की वृद्धि आर्थिक विकास की दर
पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है।'' प्रो० होरिरा वेलेसा का मत है कि “अल्पविकसित देशों
में जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप श्रम की पूर्ति में वृद्धि पूँजी की वृद्धि
की अपेक्षा अधिक होती है तथा प्रौद्योगिकी विकास अत्यन्त धीमा रहता है। इन
परिस्थितियों में प्रतिफल नियम क्रियाशील होने की सम्भावना अधिक रहती है जिससे
प्रति व्यक्ति आय घट जाती है।
भारत में मानव संसाधन विकास
(Human Resources Development in
India)
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा वर्ष 1991 से प्रतिवर्ष प्रकाशित की जा रही मानव विकास रिपोर्टों के अनुसार भारत ने मानव विकास के क्षेत्र में निरन्तर सुधार किया है और इसे मध्यम मानव विकास वाले देशों की श्रेणी में शामिल किया गया है, किन्तु स्वास्थ्य और शिक्षा से संबंधित मानव विकास संकेतकों के कुछ घटक, आय में सुधार के घटक से भी पीछे रहे हैं। मानव विकास सूचकांक (HDI) और लिंग विकास सूचकांक (GDI) के सन्दर्भ में भारत का स्थान हमारे क्षेत्र के कुछ देशों जैसे चीन, श्रीलंका, इंडोनेशिया आदि की तुलना में नीचे रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की नवीनतम मानव विकास रिपोर्ट (HDR) 2004 के अनुसार वर्ष 2002 के मानव विकास सूचकांक (HDI) में भारत 177 देशों में से 127वें स्थान पर है तथा 2001 में भी देश का यही स्थान था। इसी प्रकार लिंग विकास सूचकांक GDI के मामले में 144 देशों में भारत का स्थान 103 वाँ रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के मानव विकास निर्देशांक (HDI) 2002 के अनुसार मानव तथा लिंग विकास के सन्दर्भ में भारत की वैश्विक स्थिति को तालिका क्रमांक एक में प्रस्तुत किया गया है-
तालिका - एक में दर्शाए गए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP)
द्वारा प्रकाशित मानव विकास सूचकांक 2002 के विश्लेषण के अनुसार 177 देशों में से
भारत को 127 वाँ स्थान (Rank) दिया गया है तथा वर्ष 2002 के लिए 0.595 एच०डी०आई०
के साथ इसे मध्यम मानव विकास श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। इसी प्रतिवेदन के
अनुसार नार्वे को 0.956 सूचकांक (HDI) के साथ प्रथम एवं आस्ट्रेलिया को 0.946
सूचकांक के साथ तृतीय स्थान दिया गया है। इस क्रम में श्रीलंका 96वें, बांग्लादेश
138वें, नेपाल 140वें तथा पाकिस्तान भारत वर्ष 2002 के लिए 0.572 जी० डी० आई० के साथ 103 वें स्थान पर रहा है। दूसरी ओर नार्वे 0.955 सूचकांक
(GDI) के साथ प्रथम तथा आस्ट्रेलिया को 0.945 सूचकांक के 142वें स्थान पर है। इसी प्रकार लिंग विकास सूचकांक
(GDI) के सन्दर्भ में 144 देशों में साथ तृतीय स्थान दिया गया है। इसी क्रम में
श्रीलंका 73वें, बांग्लादेश 110वें, नेपाल 116वें तथा पाकिस्तान 120वें स्थान पर
है।
मानव विकास प्रतिवेदन, 2008
(Human Development Report - 2008)
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
(UNDP) की नवीनतम मानव विकास रिपोर्ट (HDR) 2008 के अनुसार भारत का मानव विकास
सूचकांक (HDI) वर्ष 2006 में 132 रहा है। यह भारत की प्रति व्यक्ति जी० डी० पी०
रैंक 126 से कम है, जिसका प्रमुख कारण शिक्षा में निम्न रैकिंग होना है। अतः
शिक्षा के क्षेत्र में नीतिगत और संस्थागत सुधारों पर विशेष ध्यान देने की
आवश्यकता है। मानव विकास के संबंध में भारत की विश्व में स्थिति अग्रानुसार है
मानव विकास के संबंध में भारत की विश्व में स्थिति (वर्ष 2006)
मानव विकास सूचकांक |
रैंक (Rank) |
मानव विकास सूचकांक (HDI) - 0.609 |
132 |
प्रति व्यक्ति जी०डी०पी०- 2489 डालर |
126 |
जन्म के समय जीवन प्रत्याशा- 64.1 वर्ष |
127 |
प्रौढ साक्षरता दर 65.2 प्रतिशत |
148 |
शिक्षा में संयुक्त सकल नामांकन अनुपात - 61.0 प्रतिशत |
134 |
भारत में मानव विकास के बुनियादी
संकेतक
(Indicators of Human Development in
India)
मानव विकास को आर्थिक विकास की माप के विकल्प के रूप में विकसित किया गया है। भारत में भी आर्थिक विकास के लक्ष्यों की तीव्र गति से प्राप्ति के उद्देश्यों से पचवर्षीय योजनाओं में मानव संसाधन विकास (Human Resource Development) की आवश्यकता को सिद्धान्त रूप में स्वीकार किया गया है। देश में मानव विकास के बुनियादी संकेतकों में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, साक्षरता दर, जन्म दर, मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर को सम्मिलित किया जाता है। भारत में मानव विकास के बुनियादी संकेतक तालिका दों में दर्शाये गये है:
तालिका - दो में दर्शाये गये मानव
विकास के बुनियादी संकेतकों से स्पष्ट है कि भारत में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
सेवाओं की बढ़ी हुई सुलभता के फलस्वरूप अखिल भारतीय जन्म दर, मृत्यु दर तथा शिशु
मृत्यु दर में गिरावट आई है और साक्षरता के स्तर में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। देश
में जन्म पर जीवन की प्रत्याशा वर्ष 1951 में केवल 32.1 वर्ष थी जो कि वर्ष 2011
में बढ़कर 63.5 वर्ष हो गई ह। इस अवधि में जन्म दर 40.8 प्रति हजार से घटकर 22.1
प्रति हजार मृत्यु दर 25.1 प्रति हजार से घटकर 7.2 प्रति हजार थी तथा शिशु मृत्यु
दर 146 से घटकर 47 प्रति व्यक्ति हजार हो गई है। साक्षरता दर वर्ष 1951 में केवल
18.1 प्रतिशत जो कि बढ़कर 1991 में 52.2 प्रतिशत, 2001 में 64.8 प्रतिशत तथा 2011
म बढ़कर 74.04 प्रतिशत हो गई है। इसके परिणामस्वरूप भारत का मानव विकास सूचकांक
(HDI) ऊपर उठा है। संक्षेप में भारत में मानव विकास के बुनियादी संकेतकों से
स्पष्ट होता है कि देश में हुए आर्थिक विकास के फलस्वरूप लोगों के जीवन स्तर में
सुधार परिलक्षित हुआ है।
प्रमुख राज्यों में मानव विकास के
बुनियादी संकेतक:- भारत के विभिन्न राज्यों में मानव विकास के बनियादी संकेतक
(सूचक) पर्याप्त भिन्नता दर्शाते हैं। इसका ब्यौरा तालिका - तीन में प्रस्तुत किया
गया है।
तालिका - तीन के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि केरल में साक्षरता का स्तर 93.9 प्रतिशत तथा जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पुरूषों में 71.4 वर्ष और महिलाओं में 76.3 वर्ष है। इसी प्रकार केरल में जन्म दर 14.7 प्रति हजार, मृत्यु दर 6.8 प्रति हजार तथा शिशु मृत्यु दर केवल 13 प्रति हजार है किन्तु देश के अन्य राज्य विशेषकर बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में साक्षरता का स्तर व जीवन प्रत्याशा काफी कम है जबकि जन्म दर, मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दरें काफी अधिक है। अतः इन राज्यों में जीवन की समग्र गुणवत्ता को सुधारने हेतु विशेष प्रयासों की आवश्यकता बनी हुई है। उल्लेखनीय है कि भारत में वर्तमान समय (2007) में जन्म दर 23.1 तथा मृत्यु दर 7.4 प्रति हजार है। इस प्रकार भारत में मानव पूँजी निर्माण अभी भी अपनी प्रारिम्भक अवस्था में है। अतः यह कहा जा सकता है कि देश में तीव्र गति से आर्थिक विकास लाने के लिए शिक्षित व स्वस्थ नागरिकों, कुशल श्रमिकों, तकनीशियनों, प्रविधिकों और वैज्ञानिकों की संख्या में वृद्धि करना आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि भारत में नौंवी
पंचवर्षीय योजना (1997- 2002) के अन्तर्गत मानव विकास कार्यक्रमों पर समचित ध्यान
देने का निर्णय किया गया। इस योजना में आत्म - निर्भरता प्राप्त करने के लक्ष्य के
साथ ही देश के नागरिकों को गुणवत्ता युक्त जीवन प्रदान करने का भी लक्ष्य रखा गया
था। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002 - 07) में भी आर्थिक संवृद्धि के लक्ष्य के
अतिरिक्त मानव विकास व कल्याण (Human Development and Welfare) बढ़ाने का लक्ष्य
रखा गया। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विशिष्ट एवं पालनीय लक्ष्य (Specific and
Monitorable Targets) यथा योजनावधि में साक्षरता दर को 75 प्रतिशत तक पहुँचाना,
वर्ष 2007 तक बाल मृत्यु दर 45 प्रति हजार और 2012 में 28 प्रति हजार तक कम करना
निर्धारित किये गये। इसके अलावा योजनावधि में सभी बच्चों के लिए स्कूल का लक्ष्य
तथा सभी गाँवों को पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। संक्षेप में दसवीं
योजना में भी स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, पेयजल आवास, स्वस्थ पर्यावरण तथा कमजोर
वर्गों के कल्याणकारी कार्यक्रम प्राथमिकता के क्षेत्र में रखे गये हैं जो मानव
विकास में सहायक हुए हैं।
लिंग सम्बन्धित विकास सूचकांक (Gender
Related Development Index - GDI)
मानव विकास सूचकांक औसत उपलब्धियों का
माप है, अर्थात् इसमें पुरूष एवं महिलाएँ सम्मिलित रहती हैं, अर्थात् लिंग
सम्बन्धी भेद-भाव नहीं होता। इस कमी को दूर करने के लिए लिंग सम्बन्धी विकास
सचकांक का निर्माण भी संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अन्तर्गत किया
गया है। लिंग सम्बन्धित विकास सूचकांक में निम्न तीन पहलुओं को लिया गया है, यथा-
(i) स्त्रियों में जन्म पर जीवन प्रत्याशा, (ii) स्त्री-साक्षरता एवं कुल नामांकन
अनुपात और (iii) स्त्री प्रति व्यक्ति आय। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि लिंग असमानता
विद्यमान न हो, तो मानवीय विकास सूचकांक बराबर होंगे, किन्तु यदि लिंग असमानता
(Gender inequality) विद्यमान है तो, लिंग सम्बन्धित विकास सूचक मानवीय विकास
सूचकांक से कम होगा। इन दोनों में जितना अधिक अन्तर होगा, उतनी ही अधिक लिंग
असमानता होगी।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
द्वारा प्रकाशित आँकड़ों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जिन देशों में लिंग समानता
विद्यमान है, वे हैं - नार्वे, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, मैक्सिको,
रूस, मलेशिया, वेनेजुएला, फिलीपींस, श्रीलंका, चीन और इण्डोनेशिया। इसके विपरीत, सऊदी
अरब, ईरान, भारत, पाकिस्तान, मिस्त्र, नाइजीरिया, बांग्लादेश आदि में लिंग असमानता
बहुत अधिक है। लिंग सम्बन्धी विकास सूचकांकों के असमानता के काम करने के लिए
स्त्रियों की शिक्षा और परिवार में उनको बेहतर स्थान उपलब्ध कराने के लिए प्रयास
चल रहे है।
मानव विकास सूचकांक का तुलनात्मक
विश्लेषण
(Comparative Analysis of Human
Development Index)
सम्पूर्ण भारत का मानव विकास सूचकांक जहाँ सन 1981 में केवल 0.302 था बढ़कर सन् 2002 4 0.545 हो गया। किन्तु सूचकांक में वृद्धि की दर सभी राज्यों में समान नहीं रही। जहाँ केरल, पंजाब, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात एवं कर्नाटक राज्यों में यह सूचकांक सुधरा है, वहीं बिहार, असम एवं उत्तरप्रदेश में अभी भी स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। तालिका - चार में राज्यों के अनुसार सन् 1981, 1991 एवं 2001 के मानव विकास सूचकांकों का तुलनात्मक विवरण दर्शाया गया है।
मानव विकास निर्देशांक या सूचकांक की
सीमाएँ
(Limitations of Human Development
Index)
यद्यपि मानव विकास के अन्य मापदण्डों
की तुलना में यह एक श्रेष्ठ मापदण्ड है, तथापि यह कमियाँ रहित नहीं है। मानव विकास
निर्देशांक की प्रमुख कमियाँ या सीमाएँ निम्न प्रकार हैं
(i) इस मापदण्ड में सम्मिलित केवल तीन
सूचक ही मानव विकास के अंग नहीं है। शिशु मृत्यु दर, पोषण आदि अन्य सूचक भी हो
सकते हैं।
(ii) मानव विकास सूचकांक निरपेक्ष
(Absolute) की बजाय सापेक्ष (Relative) मानव विकास का माप करता है ताकि यदि सभी
देश समान भारित (Weighted) दर से अपने एच०डी०आई० को सुधार लें तो निम्न मानव विकास
वाले देशों के सुधार का पता नहीं चल पाएगा।
(iii) किसी देश का मानव विकास सूचकांक
वहाँ पाई जाने वाली ऊँची असमानता को दूर करने के लक्ष्य से भटक सकता है।
(iv) आलोचकों का मत है कि दूसरे सामाजिक सूचकों के साथ प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के क्रमों को लेना तथा अनुपूरित करने की वैकल्पिक कूटनीति ही मानव विकास सूचकांक से बेहतर है।