Section
- A खण्ड क
(
अति लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर
दें।
1. 10, 8,
8, 7, 8, 8, 20 तथा 8 का बहुलक ज्ञात कीजिए।
उत्तर: यहां दिए गए आंकड़ों
में केवल 8 का दोहराव 5 बार है जो सबसे अधिक है।
⇒ 8 वह संख्या है जो सबसे अधिक
बार (5 बार) दिखाई देती है।
∴ बहुलक = 8
2. एक व्यक्तिगत श्रेणी से समांतर माध्य से माध्य विचलन की गणना कैसे होती
है ?
उत्तर: माध्य से माध्य विचलन (δX̅) =`\frac{\Sigma|dx\|}n`
3. कीमत सूचकांक
क्या है ?
उत्तर: कीमत सूचकांक घरेलू
उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे गये सामानों एवं सेवाओं (goods and services) के औसत मूल्य
को मापने वाला एक सूचकांक है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना वस्तुओं एवं सेवाओं के
एक मानक समूह के औसत मूल्य की गणना करके की जाती है।
4. भारत के ऐसे
दो राज्यों के नाम लिखिए जिसमें गरीबी का स्तर राष्ट्रीय गरीबी स्तर से अधिक है।
उत्तर: बिहार की 51.91 प्रतिशत
जनसंख्या गरीब है। वहीं झारखंड में 42.16 प्रतिशत।
5. स्वास्थ्य
पर व्यय मानव पूंजी निर्माण का एक स्रोत क्यों समझा जाता है ?
उत्तर: किसी भी कार्य को अच्छी
तरह से कौन कर सकता है-एक बीमार व्यक्ति या फिर एक स्वस्थ व्यक्ति? चिकित्सा सुविधाओं
के सुलभ नहीं होने पर एक बीमार श्रमिक कार्य से विमुख रहेगा। इससे उत्पादकता में कमी
आएगी। अत: इस प्रकार से स्वास्थ्य पर व्यय मानव पूंजी के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण
स्रोत है। अस्पताल के भवन, मशीनों एवं उपकरणों, एम्बुलेन्स आदि पर किया गया व्यय स्वास्थ्य
आधारित संरचना का निर्माण करता है। स्वास्थ्य आधारिक संरचना से स्वास्थ्य में बढोत्तरी
होती है और परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि होती है।
6. 'NABARD'
की स्थापना कब हुई ?
उत्तर: नाबार्ड की स्थापना
12 जुलाई 1982 में की गई थी ।
7. 'ग्रेट लीप
फॉरवर्ड' का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर: चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति
और पार्टी के चेयरमैन माओ से-तुंग ने किया था और इसका उद्देश्य तेजी से औद्योगिकीकरण
और सामूहिक कृषि के माध्यम से देश की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को उत्पादन की समाजवादी
विधा में तेज़ी तब्दील करना था।
Section
- B खण्ड-ख
(
लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर
दें।
8. निम्नलिखित
आँकड़ा से माध्यिका की गणना कीजिए:
प्राप्तांक |
45 |
55 |
65 |
75 |
85 |
95 |
विद्यार्थियों की संख्या |
5 |
8 |
10 |
7 |
6 |
4 |
उत्तर:
X |
ƒ |
cƒ |
45 |
5 |
5 |
55 |
8 |
13 |
65 |
10 |
23 |
75 |
7 |
30 |
85 |
6 |
36 |
95 |
4 |
40 |
|
Σ ƒ=40 |
|
9. यदि किसी श्रेणी में विचरण गुणांक 50 तथा समांतर माध्य 10 हो तो प्रमाप विचलन का मान क्या होगा ?
उत्तर: प्रमाप विचलन का गुणांक(Coefficient of SD) = `\frac\sigma{\overline X}`
`50=\frac\sigma{10}`
`\sigma=500`
10. सहसंबंध
से क्या तात्पर्य है ? सहसंबंध के विभिन्न प्रकारों को लिखिए।
उत्तर: गिलफोर्ड के अनुसार
- “सह-सम्बन्ध गुणांक वह अकेली संख्या है जो यह बताती है कि दो वस्तुएँ किस सीमा तक
एक दूसरे से सह-सम्बन्धित है तथा एक के परिवर्तन दूसरे के परिवर्तनों को किस सीमा तक
प्रभावित करते है।”
सहसंबंध तीन प्रकार का होता
है -
1. धनात्मक सहसंबंध
: जब
किसी वस्तु, समूह अथवा घटना के किसी एक चर के मान में वृद्धि होने से दूसरे साहचर्य
चर के मान में वृद्धि होती है अथवा उसके मान में कमी होने से दूसरे साहचर्य चर के मान
में कमी होती है तो मान दोनों चरों के बीच पाए जाने वाले इस अनुरूप सम्बंध को धनात्मक
सहसंबंध करते हैं।
उदाहरणार्थ किसी गैस का समान
दाब पर तापक्रम बढ़ने से उसका आयतन बढ़ना अथवा तापक्रम कम होने से उसका आयतन कम होना
गैस के दो चरौ- तापक्रम और आयतन के बीच धनात्मक सहसंबंध है।
2. ऋणात्मक सहसंबंध
: जब
किसी वस्तु, समूह अथवा घटना के किसी एक चर के मान में वृद्धि होने से दूसरे साहचर्य
चर के मान में कमी आती है अथवा उसके मान में कमी होने से दूसरे साहचर्य चर के मान में
वृद्धि होती है तो इन दोनों चरों के बीच पाए जाने वाले इस प्रतिकूल सम्बंध को ऋणात्मक
सहसंबंध कहते हैं।
उदाहरणार्थ किसी गैस का समान
तापक्रम पर दाब बढ़ने से उसका आयतन कम होना अथवा दाब कम होने से उसका आयतन बढ़ना, गैस
के दो चरों-दाब और आयतन के बीच ऋणात्मक सहसंबंध है।
3. शून्य सहसंबंध
: जब
किसी वस्तु , समूह अथवा घटना के किसी एक चर में परिवर्तन होने से दूसरे साहचर्य चर
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो इन दोनों चरों के बीच के सम्बंध को शून्य सहसंबंध कहते
हैं।
उदाहरणार्थ किसी गैस के आयतन
के बढ़ने अथवा घटने से उसके रासायनिक सूत्र में कोई अन्तर न होना गैस के दो चरों- आयतन
और रासायनिक सूत्र के बीच शून्य सहसंबंध है।
11. सूचकांक
निर्माण की मूल्यानुपातों की माध्य विधि क्या है ?
उत्तर: यह
विधि सरल समूह विधि पर एक सुधार है। इस विधि के अनुसार
प्रचलित वर्ष का निर्देशांक निर्माण करने के लिए सर्वप्रथम
प्रत्येक वस्तु का मूल्यानुपात (Price Relative) ज्ञात किया
जाता है। स्थिर आधार के मूल्य को 100 मानकर
निकाला गया प्रचलित वर्ष का प्रतिशत ही मूल्यानुपात कहलाता हैं। सूत्र से,
`P_{01}=\frac{\Sigma[\frac{P_1}{P_0}\times100]}N=\frac{\Sigma R}N`
P01 = वर्तमान मूल्य निर्देशांक आधार वर्ष के मूल्यों पर
`\Sigma R=\Sigma\frac{P_1}{P_0}\times100`= मूल्यानुपातों का योग
N = मदों की संख्या
12. ऑपरेशन फ़्लड
से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: 13 जनवरी 1970 में शुरू
किया गया ऑपरेशन फ्लड, भारत के राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) की एक परियोजना
थी, जो दुनिया का सबसे बड़ा डेयरी विकास कार्यक्रम था। इसने भारत को दूध की कमी वाले
देश से दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक में बदल दिया, 1998 में संयुक्त राज्य अमेरिका
को पीछे छोड़ते हुए, 2010-11 में वैश्विक उत्पादन का लगभग 17 प्रतिशत। 30 वर्षों में
इसने प्रति व्यक्ति दूध को दोगुना कर दिया, और डेयरी फार्मिंग को भारत का सबसे बड़ा
आत्मनिर्भर ग्रामीण रोजगार जनरेटर बना दिया। यह किसानों को अपने स्वयं के विकास को
निर्देशित करने में मदद करने के लिए शुरू किया गया था, जो उनके द्वारा अपने हाथों में
बनाए गए संसाधनों का नियंत्रण रखते थे। यह सब न केवल बड़े पैमाने पर उत्पादन द्वारा,
बल्कि जनता द्वारा उत्पादन द्वारा प्राप्त किया गया था; इस प्रक्रिया को श्वेत क्रांति
कहा गया है।
13. किसी व्यक्ति
के लिए कार्य के दौरान प्रशिक्षण क्यों आवश्यक होता है ?
उत्तर: आजकल उद्योग अपने कर्मचारियों
के कार्यस्थल पर प्रशिक्षण में व्यय करते हैं। कार्य के दौरान प्रशिक्षण कई प्रकार
से दिया जा सकता है, जैसे
(i) उद्योग के अपने कार्यस्थल
पर ही पहले से कार्य को जानने वाले कुशलकर्मी कर्मचारियों को कार्य सिखा सकते हैं।
(ii) कर्मचारियों को किसी अन्य
संस्थान / स्थान पर प्रशिक्षण पाने के लिए भेजा जा सकता है।
दोनों ही विधियों में उद्योग
अपने कर्मचारियों के प्रशिक्षण का कुछ व्यय वहन करते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं
कि प्रशिक्षण के बाद वे कर्मचारी एक निश्चित अवधि तक उद्योग के पास ही कार्य करें।
इस प्रकार उद्योग उनके प्रशिक्षण पर किए गए व्यय की उगाही अधिक उत्पादकता से हुए लाभ
के रूप में कर पाने में सफल रहते हैं। प्रशिक्षण से श्रम-उत्पादकता एवं गुणवत्ता में
भी वृद्धि होती है। इस कारण कार्य के दौरान प्रशिक्षण आवश्यक होता है।
14. 'काम के
बदले अनाज कार्यक्रम के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: 14 नवंबर 2004 ‘काम
के बदले अनाज’ कार्यक्रम देश के 150 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में इस उद्देश्य के साथ
शुरू किया गया ताकि पूरक वेतन रोजगार के सृजन को बढ़ाया जा सके। इस कार्यक्रम के अंतर्गत
मुख्यतः जल संरक्षण, सूखे से सुरक्षा और भूमि विकास संबंधी कार्य सम्पन्न कराए जाते
हैं और मजदूरी के न्यूनतम 25% का भुगतान नकद राशि में तथा शेष भुगतान अनाज के रूप में
किया जाता है। इस योजना के अंतर्गत देश में प्रत्येक परिवार के एक सक्षम व्यक्ति को
100 दिनों के लिए न्यूनतम मजदूरी पर रोजगार देने का प्रावधान है। यह कार्यक्रम शत-प्रतिशत
केन्द्र प्रायोजित है।
Section
- C खण्ड - ग
(
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर
दें।
15. X तथा Y
के बीच कार्ल पियरसन का सहसंबंध गुणांक को परिकलित कीजिए:
X |
10 |
15 |
12 |
8 |
20 |
16 |
Y |
25 |
15 |
18 |
12 |
14 |
8 |
उत्तर:
X |
Y |
X2 |
Y2 |
XY |
10 |
25 |
100 |
625 |
250 |
15 |
15 |
225 |
225 |
225 |
12 |
18 |
144 |
270 |
216 |
8 |
12 |
64 |
144 |
96 |
20 |
14 |
400 |
196 |
280 |
16 |
8 |
256 |
64 |
128 |
ΣX=81 |
ΣY=92 |
ΣX2=1189 |
ΣY2=1524 |
ΣXY=1195 |
r = `(sumXY - ((sumX)(sumY))/N)/(sqrt(sumX^2 - (sumX)^2/N) sqrt(sumY^2 - (sumY)^2/N))`
= `(1195 - ((81) (92))/6)/(sqrt(1189 - (81)^2/6)sqrt(1524 - (92)^2/6))`
=`(1195 - 7452/6)/(sqrt(1189 - 6561/6)sqrt(1524 - 8464/6))`
=`(1195 - 1242)/(sqrt(1189 - 1093.5)sqrt(1524 - 1410.66))`
=`-47/(sqrt95.5 sqrt(113.34))` =`-47/((9.77) (10.64))`
=`-47/103.9528`
r = -0.45 (सहसंबंध की केवल सम्भावना)
16. निम्नलिखित
आँकड़ा से समांतर माध्य की गणना कीजिए:
वर्ग अंतराल |
0-20 |
20-40 |
40-60 |
60-80 |
बारंबारता |
4 |
6 |
7 |
1 |
उत्तर:
C.I |
ƒ |
MV x |
A = 10 dx |
i = 20 dxI |
ƒdxI |
0-20 |
4 |
10 |
0 |
0 |
0 |
20-40 |
6 |
30 |
20 |
1 |
6 |
40-60 |
7 |
50 |
40 |
2 |
14 |
60-80 |
1 |
70 |
60 |
3 |
3 |
|
Σƒ = 18 |
|
|
|
ΣƒdxI =23 |
17. पर्यावरण
की अवशोषी क्षमता से क्या तात्पर्य है ? पर्यावरण की अवशोषी क्षमता में गिरावट का क्या
प्रभाव होगा ?
उत्तर: जब हम संसाधन का उपयोग
करते हैं, तो यह समाप्त हो जाता है हालाँकि, यह जल्द ही पर्यावरण द्वारा पुनर्जीवित
हो जाता है। साथ ही अपशिष्ट उत्पाद पर्यावरण में अवशोषित हो जाते हैं।
उदाहरण: जब हम पेड़ काटते हैं,
तो वे कुछ समय बाद वापस उगआते हैं। साथ ही मृत पौधे और पेड़ मिट्टी में जाकर उसे उपजाऊ
बनाते हैं।
जितना अधिक हम संसाधनों का
उपयोग करते हैं, उतना अधिक कचरा हम उत्पन्न करते हैं। यह अतिरिक्त अपशिष्ट पर्यावरण
द्वारा अवशोषित नहीं होता है।
पर्यावरण जीवन को बनाए रखने
के कार्य को पूरा करने में सक्षम नहीं है। इंसानों ने जंगल में पेड़ काट कर सड़कें
और शहर बनाए हैं। इससे कई पौधों और जानवरों के आवास नष्ट हो गए हैं।
पर्यावरण की अवशोषी क्षमता
में गिरावट का निम्न प्रभाव होगा -
1. प्रदूषण का
कारण बनता है: कारकों
और शहरों से उत्पन्न अपशिष्ट नदियों में फेंका जाता है जो जल जनित बीमारियों का कारण
बनते हैं। कारखानों और वाहनों से निकलने वाला धुआँ हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुँचाता
है और वायु प्रदूषण का कारण बनता है।
2. ग्लोबल वार्मिंग:
जीवाश्म
ईंधन को जलाने और वनों की कटाई से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि
हुई है। इससे वैश्विक तापमान में वृद्धि हुई है। इससे हमारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं
और जल स्तर बढ़ रहा है। इससे जल स्तर में वृद्धि हुई है जिससे कई शहर पानी में डूब सकते
हैं।
3. ओज़ोन रिक्तीकरण:
यह
पर्यावरण में ओजोन गैस की मात्रा में कमी को संदर्भित करता है। यह ओजोन गैस हानिकारक
गैस को पृथ्वी में प्रवेश करने से रोकने के लिए उपयोगी है। ओजोन परत के खत्म होने से
त्वचा कैंसर जैसी स्थिति पैदा हो गई है। यह फाइटोप्लांकटन के विकास को भी नुकसान पहुंचाता
है और जलीय पौधों को भी प्रभावित करता है। यह ओजोन रिक्तीकरण रेफ्रिजरेटर और एसी में
क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) के उपयोग के कारण होता है।
18. निर्धनता
निवारण की संवृद्धि आधारित रणनीति की व्याख्या कीजिए। इस रणनीति की क्या खामियाँ हैं
?
उत्तर: भारत सरकार ने निर्धनता
निवारण के लिए त्रि-आयामी नीति अपनाई, जिसका विवरण इस प्रकार है
1. संवृद्धि
आधारित रणनीति :- यह इस आशा पर आधारित है कि आर्थिक संवृद्धि
(अर्थात् सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि) के प्रभाव समाज के
सभी वर्गों तक पहुँच जाएँगे। यह माना जा रहा था कि तीव्र दर से औद्योगिक विकास और चुने
हुए क्षेत्रों में हरित क्रांति के माध्यम से कृषि का पूर्ण कार्याकल्प हो जाएगा। परंतु
जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूस प्रति व्यक्ति आय में बहुत कमी आई जिस कारण धनी और
निर्धन के बीच की दूरी और बढ़ गई।
2. वर्धनशील
परिसम्पत्तियों और कार्य का सृजन :- प्रथम आयाम की असफलता के बाद
नीति निर्धारकों को ऐसा लगा कि वर्धनशील परिसम्पत्तियों और कार्य सृजन के साधनों द्वारा
निर्धनों के लिए आय और रोजगार को बढ़ाया जा सकता है। इस दूसरी नीति को द्वितीय पंचवर्षी
योजना से आरम्भ किया गया। स्वरोजगार एवं मजदूरी आधारित रोजगार कार्यक्रमों को निर्धनता
भगाने का मुख्य माध्यम माना जाता है। स्वरोजगार कार्यक्रमों के उदाहरण हैं—ग्रामीण
रोजगार सृजन कार्यक्रम (REGP), प्रधानमंत्री रोजगार योजना (PMRY) तथा स्वर्णजयंती शहरी
रोजगार योजना (SJSRY)। इन रोजगार कार्यक्रमों एवं वित्तीय सहायता के माध्यम से निम्न
आय वर्ग के लोगों को आय अर्जित करने के अवसर प्राप्त हुए हैं।
3. न्यूनतम आधारभूत
सुविधाएँ :- निर्धनता निवारण की दिशा में तीसरा आयाम न्यूनतम आधारभूत
सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। इस नीति के अंतर्गत उपभोग, रोजगार के अवसर, स्वास्थ्य एवं
शिक्षा में आपूर्ति बढ़ाने पर बल दिया गया। निर्धनों के खाद्य उपभोग और पोषण-स्तर को
प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख कार्यक्रम हैं—सार्वजनिक वितरण व्यवस्था, एकीकृत बाल
विकास योजना तथा मध्यावकाश भोजन योजना। बेसहारा बुजुर्गों एवं निर्धन महिलाओं के लिए
भी सामाजिक सहायता अभियान चलाए जा रहे हैं।
इस रणनीति की खामियाँ निम्न
है-
(i) इन कायक्रमों की असफलता
का मुख्य कारण देश में भूमि एवं सम्पत्ति का असमान वितरण है ।
(ii) इन कार्यक्रमों के लिए
आवंटित रकम प्रायः अपर्याप्त होती है।
(iii) विभिन्न कार्यक्रमों
के अन्तर्गत लाभुकों का चुनाव प्राय: गलत एवं पक्षपातपूर्ण तरीके से किया जाता है जिससे
निर्धनता की रेखा से उपर आनेवाले लोग भी इन कार्यक्रमों से लाभान्वित हो जाते हैं और
निर्धनों को इनके लाभ प्राप्त नहीं हो पाते ।
(iv) इन कार्यक्रमों का कुशलातपूर्वक
कार्यान्वयन नहीं किया जाता है क्योंकि प्रशासनिक तंत्र प्राय: अकुशल
(Inefficient) है ।
(v) प्रशासनिक तंत्र में अपर्याप्त
ट्रेनिंग के कारण अकुशलता तो है ही, साथ ही साथ इसमें भ्रष्टाचार व्याप्त है। भ्रष्टाचार
में लिप्त लोगों में सरकारी कर्मचारी, बैंक, पंचायत एवं राजनीतिज्ञ आदि प्रमुख हैं।
(vi) निर्धनता-निवारण कार्यक्रमों
का सर्वांगीण विकास की नीतियों से समन्वय नहीं किया गया है। इनमें केवल रोजगार के
अधिक अवसरों के सृजन पर जोर दिया गया ।
(vii) रोजगार के अधिक अवसर
सृजित करने में भी इन कार्यक्रमों को सीमित सफलता प्राप्त हुई है।
(viii) ये कार्यक्रम मुख्यतः
सरकारी कार्यक्रम के रूप में जाने जाते हैं और इनमें लोगों की प्रभावपूर्ण भागीदारी
की कमी रही है।
(ix) कार्यक्रमों को सहयोग
देनेवाली साख एवं विपणन जैसी संस्थाओं का कार्य-संपादन भी संतोषजनक नहीं है।
निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते
हैं कि निर्धनता-निवारण कार्यक्रमों में कोई बुराई नहीं है। वास्तविक कमी तो इनके कार्यान्वयन
में है जिसमें अकुशलता, पक्षपात, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि का बोलबाला है। यही कारण
है कि इन विभिन्न कार्यक्रमों के बावजूद देश में लोगों के बीच भूखमरी, कुपोषण तथा न्यूनतम
सुविधाओं की कमी है। इन कार्यक्रमों द्वारा निर्धनता का निवारण तभी किया जा सकता है
जब इनमें व्याप्त विभिन्न दुर्गुणों को समाप्त किया जाय तथा इनके कार्यान्वयन में निर्धनों
का सक्रिय योगदान हो ।
19. भारत में
कृषि विपणन प्रक्रिया की बाधाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: प्रो. अबाॅट के अनुसार-
‘‘कृषि विपणन के अंतर्गत उन समस्त क्रियाकलापों को सम्मिलित किया जाता है जिनके द्वारा
खाद्य पदार्थ एवं कच्चा माल, फार्म (उत्पादन क्षेत्र) से उपभोक्ता तक पहुँचता है।’’
कृषि विपणन प्रक्रिया के निम्नलिखित बाधाएं हैं-
(1) मध्यस्थों
की लंबी श्रृंखला - भारतीय कृषि विपणन व्यवस्था में बिचोलियों की
एक लंबी श्रृखला है। जिस कारण प्रायः किसानों को उपभोक्ताओं द्वारा दिये गये मृल्य
का लगभग 50 प्रतिशत भाग ही मिल पाता है। प्रो0 डी0 एस0 सिन्धु के एक शोध से पता चलता
है। कि किसानों की चावल की कीमत का मात्र 53 प्रतिशत प्राप्त हो पाता है जिसमें शेष
31 प्रतिशत बिचैलियों का हिस्सा है तथा 16 प्रतिशत विपणन लागत है। सब्जियों मे तो किसानों
का हिस्सा मात्र 39 प्रतिशत और फलों में 34 प्रतिशत है। कृषि उपज की विपणन व्यवस्था
में गाँव का साहूकार, महाजन, घूमता-फिरता व्यापारी, कच्चा आढतिया, पक्का आढतिया, थोक
व्यापारी मिल वाला, दलाल, निर्यातकर्ता, फुटकर व्यापारी आदि शामिल है। इतने सारे मध्यस्थ
विपणन व्यवस्था के लिए आवश्यक नही है।
(2) दोषपूर्ण
संग्रह व्यवस्था - ग्रामीण कृषकों के पास अपनी उपजों को संग्रह
करने के लिए उचित एवं वैज्ञानिक संग्रहण व्यवस्था का अभाव है। ग्रामीण कृषक अपनी उपज
को खत्तियों, कच्चे कोठों, बोरों या मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तनों में रखते हैं जिससे
उनके सड़ने-गलने और चूहों तथा कीड़े-मकोड़ों द्वारा बर्बाद होने की आशंका रहती है।
खाद्यान्न जाँच समिति के अनुसार उपज की इस तरह होने वाली हानि 1.5 प्रतिशत थी। संग्रहण
की अपर्याप्त और अवैज्ञानिक व्यवस्था के कारण किसानों का विवश होकर शीघ्र ही वस्तुएँ
बेचनी पड़ती है। जिससे उन्हें कम मूल्य मिलता है।
(3) अनियमित
मण्डियों में प्रचलित धोखेबाजियाॅ - हमारे देश की अभी अनियंत्रित
मण्डियों की संख्या बहुत अधिक है। मण्डियों में निम्नालिखित धोखेबाजियाॅ प्रचलित हैं
जिनका किसान को शिकार बनना पड़ता है। मण्डियों में कृषि उपजों को तौलने या मापने के
प्रमाणित बाॅट और माप नहीं होते। कृषि उत्पादन का वह भाग जो नमूने के तौर पर लिया जाता
है। कृषकों को वापस नहीं किया जाता है। दलाल कपडे़ के नीचे गुप्त मूल्य निश्चित करते
हैं। जिसमें वास्तविक विक्रेता कृषक निश्चित किये गये मूल्य से बिलकुल अनभिज्ञ रहता
है। दलाल कृषकों की अपेक्षा आढ़तिया का अधिक पक्ष लेता है। तौल अथवा मूल्य समबन्धी
विवाद होने पर कृषक के हित की कोई भी रक्षा नहीं करता और उसे खरीदार की बात मानने के
लिए विवश होना पड़ता है। प्रायः मण्डियों में कृषकों से बहुत सी कटौतियाॅ जैसे - रामलील
, पाठशाला, गौशाला ,प्याऊ, अनाथालय , विधवाश्रम आदि उसके भुगतान देना पड़ता है।
(4) श्रेणी विभाजन
का अभाव - भारत में ग्रामीण किसानों की अज्ञानता और कृषि उत्पादन कम
होने के कारण उपजों के श्रेणी विभाजन पर ध्यान नहीं दिया जाता है समस्त उपज एक ही ढेरी
के रूप में बेची जाती है। जिसे दडा प्रणाली भी कहते हैं। इस प्रकार कृषकों की उच्चीकृत
उपज का भी उन्हें कम मूल्य ही मिलता है।
(5) विपणन हेतु
वित्त का अभाव - विपणन
व्यवस्था को सुचारू रूप से से चलाने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सहकारी समितियों
से उपलब्ध वित्त का लाभ प्रायः बडे़ किसानों को ही हो सकता है। छोटी किसान अभी भी वित्त
के लिए साहूकार या महाजन तथा व्यापारियों पर निर्भर रहता हैं। साहूकार तथा महाजन किसान
केा मण्डी में अपना बेचने के लिए हतोत्साहित करते है। स्वयं ही उसे खरीद लेते है। जिससे
इन कृषकों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता ।
(6) अल्प विकास
परिवहन व्यवस्था - भारतीय गाॅवों की मण्डियों को शहर से जोड़ने
के लिए परिवहन सुविधाएं पर्याप्त नही है। बहुत थोड़े गाॅव रेल और पक्की सड़कों ,द्वारा
पण्डियों से जुड़ है। कच्ची सड़कों पर मोटर परिवहन प्रायः सम्भव नहीं है। बरसात में
में पुल-पुलियों के अभाव में बन्द हो जाती है। और उन पर केवल बैलगाडि़या ही आ जा सकती
है। अनुमानतः परिवहन साधनों के पिछडे़पन के फलस्वरूप विपणन लागतों में 20 प्रतिशत वृद्धि
हो जाती है । ऐसी परिस्थितियों में किसान गाॅवों में ही फसल बेचने की बाध्य होते है।
(7) मूल्य सम्बन्धी
सूचना का अभाव - ग्रामीण किसानों के लिए दूर -दराज की विभिन्न
मण्डियों में समय -समय पर प्रचलित मूल्यों के विषय में सही सूचना प्राप्त कर पाना सम्भव
नहीं हाो पाता। अधिकांश कृषक तो मण्डी के साथ कोई भी सम्पर्क नहीं रख पाते। इस कारण
व्यापारी उन्हें जो मूल्य देता है। उसे वे ले लेते है।
(8) विपरीत परिस्थितियों
में विपणन - भारत में जमींदारी उन्मूलन से पूर्व सामान्यतः सभी कृषकों
को लगान का भुगतान करने के लिए उपज का एक भाग फसल काटने के तुरन्त बाद ही बेचना पड़ता
था। जमींदारी उन्मूलन के बाद कृषि सम्बन्धों में परिवर्तन हुआ जिसके परिणामस्वरूप एक
सम्पन्न किसान वर्ग पैदा हो गया है। यह वर्ग भूमि का स्वामी हेाता है।
(9) उत्पादकों
में संगठन का अभाव - भारत में विपणन प्रणाली का सबसे बड़ा दोष उत्पादकों
में अच्छे सामूहिक संगठन का अभाव हैं कुछ व्यापरिक फसलों यथा-कपास, तिलहन , पटसन, और
गने के खरीददार बहुत अच्छी तरह संगठित रहते है, जबकि इनके वास्तविक उत्पादक छोटे- छोटे
कृषक है जो कि बहुत बडी़ संख्या में एक बहुत बडे़ क्षेत्र में फैले हुए है। ऐसे स्थान
पर जहाॅ उत्पादक असंगठित हों तथा उनका पथ-प्रदर्शन करने वाला और उनके हितों की रक्षा
करने वाला कोई न हो के्रता संगठित रूप से हों और राज्य तटस्थ हो तो वहाॅ के उत्पादनकर्ताओं
का बुरी तरह शोषण होता है। हमारे देश में ऐसी ही स्थिति बनी हुई है।
(10) अन्य -
देश
कृषि विपणन व्यवस्था में उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोष भी है जो विपणन
व्यवस्था के विकास के मार्ग में अवरोधात्मक है , जैसे - कम उजप और निम्न कोटि की उजप
, किसानों की ऋणग्रस्तता और निर्धनता , किसानों की अज्ञानता और निरक्षरता है। इस प्रकार
स्पष्ट है कि भारत की वर्तमान कृषि उपज की विपणन व्यवस्था को भूमि सम्बन्धो से स्वतन्त्र
रूप में देख सकना सम्भव नहीं है। बाजारों के नियन्त्रण आकाशवाणी ,द्वारा भावों के प्रसारण,
यातायात व्यवस्था में सुधार आदि से पूॅजीवादी ढंग से खेती करने वाले किसानों को तो
लाभ हुआ है। और वे अपने विपणन आधिक्य ’ की उचित मूल्य पाने में सफल हुए हैं किन्तु
इन सब सुविधाओं को लाभ लघु एंव सीमान्त कृषकों को बहुत कम मिल पाया है।