3.
बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज
पाठ्यपुस्तक
के प्रश्न एवं उनके उत्तर
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
प्रश्न 1. स्पष्ट कीजिये कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों
महत्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
विशिष्ट परिवारों के अन्तर्गत शासक परिवार एवं धनी लोगों के परिवार सम्मिलित थे जिनमें
पितृवंशिकता निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण रही होगी-
(1)
वंश परम्परा को चलाने के लिए - धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों के अनुसार पितवंश को
आगे बढ़ाने के लिए पत्र ही महत्वपूर्ण होते हैं, पुत्रियाँ नहीं। इसलिए विशिष्ट परिवारों
में उत्तम पुत्रों की प्राप्ति की कामना की जाती थी।
(2)
उत्तराधिकार सम्बन्धी विवादों से बचने के लिए विशिष्ट परिवारों में माता - पिता नहीं
चाहते थे कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके परिवार में सम्पत्ति के बँटवारे को लेकर कोई
झगड़ा हो। शासक परिवारों के सन्दर्भ में उत्तराधिकार में राजसिंहासन भी सम्मिलित था।
राजा की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बन जाता था।
इसी प्रकार माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् उनकी सम्पत्ति का उनके पुत्रों में बँटवारा
कर दिया जाता था।
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प्रश्न 2. क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही
होते थे ? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय वर्ण के लोग ही राजा हो सकते
थे, परन्तु सभी शासक क्षत्रिय नहीं होते थे। कई महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य
वर्गों से भी हुई थी; उदाहरण के लिए - मौर्य वंश ने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया
था जिसकी उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में गहन मतभेद था। बाद के बौद्ध ग्रन्थों
में यह व्यक्त किया गया कि मौर्य शासक क्षत्रिय थे, परन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें
निम्नकुल का मानते हैं। इसी प्रकार शुंग और कण्व जो मौर्यों के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण
थे। भारत पर शासन करने वाले शक मध्य एशिया से यहाँ आये थे।
ब्राह्मण
उन्हें मलेच्छ, बर्बर तथा विदेशी मानते थे, परन्तु संस्कृत के एक आरंभिक अभिलेख द्वारा
प्रसिद्ध शक. शासक रुद्रदामन द्वारा सुदर्शन झील के जीर्णोद्धार की जानकारी प्राप्त
होती है। इससे यह जानकारी प्राप्त होती है कि शक्तिशाली मलेच्छ भारतीय सांस्कृतिक परम्परा
से परिचित थे। प्रसिद्ध सातवाहन शासक गौतमी पुत्र शातकर्णी ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण
तथा क्षत्रियों के अहंकार को नष्ट करने वाला बताया था।
उसने
यह भी दावा किया था कि उसने चार वर्णों के मध्य आपसी विवाह सम्बन्धों पर रोक लगायी,
परन्तु फिर भी उसने स्वयं मलेच्छ माने जाने वाले रुद्रदामन के परिवार से विवाह सम्बन्ध
स्थापित किया। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत के इतिहास में क्षत्रिय
ही नहीं अपितु सभी वर्गों के लोग शासक हो सकते थे। वस्तुतः राज्य का होना शक्ति अथवा
बल पर निर्भर था।
प्रश्न 3. द्रोण, हिडिम्बा तथा मातंग की कथाओं में धर्म के मानदण्डों
की तुलना कीजिए एवं उनके अन्तर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
द्रोण ब्राह्मण थे तथा उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे जिससे उन्हें पद
तथा धन दोनों ही प्राप्त होते थे। इस कारण से द्रोण ने निषाद अर्थात् एकलव्य को अपना
शिष्य बनाने से मना कर दिया था। इस पर एकलव्य द्रोण की प्रतिमा के आगे ही धनुर्विद्या
की साधना करके अर्जुन से भी अधिक शक्तिशाली तीरंदाज बन गया। इस पर अर्जुन ने द्रोण
से आपत्ति की, तब द्रोण ने गुरु-दक्षिणा में एकलव्य से दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया
जो उसने सहर्ष प्रदान कर दिया। यह कथा गुरु-शिष्य सम्बन्धों को स्पष्ट करती है तथा
द्रोण के स्वार्थ को भी उजागर करती है। उन्होंने अर्जुन को दिए गए वचन को निभाने हेतु
एकलव्य का अंगूठा माँगने जैसा तुच्छ कार्य किया क्योंकि द्रोण नहीं चाहते थे कि इस
संसार में अर्जुन से बड़ा कोई धनुर्धारी हो।
महाभारत
की एक कथा में वर्णित है कि हिडिम्बा नामक राक्षसी ने भीम पर मोहित होकर उनकी माता
कुन्ती से अपना विवाह निभाया, जैसे क्षत्रिय शरणागत की रक्षा करता है अथवा याचक को
यथाशक्ति इच्छित वस्तु प्रदान करता है, परन्तु हिडिम्बा ने इस तरह भीम से विवाह करके
राक्षस कुल की मर्यादा को ठेस पहुँचायी। एक वैश्य पुत्री ने एक चाण्डाल को मात्र देखने
से ही अपनी आँखें धोईं तथा उसके क्रोधित सेवकों ने मातंग नामक चाण्डाल की पिटाई कर
दी। यह कथा चाण्डाल के प्रति धार्मिक कट्टरता की प्रतीक है। वहीं एक चाण्डाल का अहिंसक
विरोध देख सातवें दिन घर के सदस्यों ने दिथ्य मांगलिक नामक उस युवती को ही मातंग को
सौंप दिया। यह तथ्य धर्म में समाहित उदारता को दिखाता है। उपर्युक्त तीनों कथाओं से स्पष्ट होता है कि वर्ण
व्यवस्था के निम्नतम स्तर अथवा उससे बाहर के व्यक्ति उच्च वर्गों की अपेक्षा अधिक दयालु,
कृतज्ञ, अहिंसक तथा आज्ञाकारी होते थे।
प्रश्न 4. किन मायनों में सामाजिक अनुबन्ध की बौद्ध अवधारणा समाज के
उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो 'पुरुषसूक्त' पर आधारित था ? .
उत्तर:
सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुषसूक्त में हमें वर्ण व्यवस्था का विवरण प्राप्त
होता है। इसमें यह विवरण प्राप्त होता है कि विराट नामक देवता के मस्तिष्क से ब्राह्मण
का जन्म हुआ है जिसका कार्य अध्ययन-अध्यापन तथा यज्ञ करना है। विराट के बाजुओं से क्षत्रियों
का जन्म हुआ तथा उनका कार्य प्रजा की रक्षा करना तथा राज्य प्रशासन करना है। वैश्य
का जन्म विराट की जंघाओं से हुआ तथा उसका कार्य कृषि एवं व्यापार करना है, वहीं शूद्रों
का जन्म विराट के चरणों से हुआ है तथा उसका कार्य शेष तीनों वर्गों की सेवा करना है।
यह पूर्णतया ब्राह्मणवादी वैदिक वर्ण व्यवस्था थी। उत्तर-वैदिक काल में यह वर्ण व्यवस्था
अधिक जटिल हो गयी जिससे समाज में असन्तोष व्याप्त हो गया। इस काल में वर्ण व्यवस्था
का आधार जन्म था।
इसके
विपरीत बौद्ध धर्म में वर्ण व्यवस्था अथवा व्यापार करने का आधार जन्म नहीं था, कोई
भी व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता था। इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म में समाज के सभी वर्गों
का समान आदर था। एक स्थान पर महात्मा बुद्ध अपने शिष्य आनन्द से कहते हैं-"जाति
नहीं काम पूछ" अर्थात् बुद्ध जाति को नहीं अपितु कार्य को अधिक महत्व देते थे।
बौद्ध अवधारणा के अनुसार वे इस सामाजिक अनुबन्ध को नहीं मानते थे। उनका कथन था कि यह
कोई दैवीय व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि समाज में विषमता तो
अनिवार्य है लेकिन यह विषमता न तो प्राकृतिक है और न ही स्थायी। बौद्धों ने जन्म पर
आधारित सामाजिक प्रतिष्ठा को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया। बौद्धों के सुत्तपिट्टक नामक
ग्रन्थ में सामाजिक प्रतिष्ठा के कारणों की व्याख्या की गयी है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर
दूत संजय को सम्बोधित कर रहे हैं - संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य
पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हैं.....मैं
कृपाचार्य के चरणस्पर्श करता हूँ....(और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा
(धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य
के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ.....मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं
का अभिनन्दन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र तथा पौत्र हैं. सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर
को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता तथा माता के सदृश हैं...मैं
उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती
हैं। जो हमारी पलियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, "मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित
हैं".....मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों
की माताएँ हैं, अभिनन्दन कीजियेगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा. सुन्दर,
सुगन्धित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी सन्तानों तथा वृद्ध,
विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा. इस सूची को बनाने के आधारों
की पहचान कीजिए-उम्र, लिंग, भेद एवं बन्धुत्व के सन्दर्भ में । क्या कोई अन्य आधार
भी हैं ? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर
क्यों रखा गया है ?
उत्तर:
उपर्युक्त विवरण महाभारत युद्ध के आरम्भ होने से पूर्व का है। यहाँ युधिष्ठिर युद्ध
क्षेत्र से कुरुओं के प्रति अपने सम्मानसूचक सम्बोधन प्रेषित कर रहे हैं। यह विवरण
तत्कालीन समाज में पदसोपान स्थिति का द्योतक है। उम्र, लिंग, भेद व बन्धुत्व के अतिरिक्त
इस सूची को बनाने के अन्य आधार भी हैं; जैसे-गुरुजनों के प्रति सम्मान, वीर योद्धाओं,
माताओं, गणिकाओं, दासी तथा दासी-पुत्रों और वृद्ध, विकलांग असहाय जनों के प्रति सम्मान
आदि। इसका विवरण अग्रलिखित पंक्तियों से समझा जा सकता है
1.
ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहितों - यहाँ ब्राह्मणों तथा मुख्य पुरोहितों को सर्वप्रथम
नमस्कार किया गया है जो स्पष्ट करता है कि समाज में उनका स्थान सर्वोच्च था।
2.
गुरु द्रोण तथा कृपाचार्य - गुरुजनों का स्थान द्वितीय था। वस्तुत: यह कार्य भी ब्राह्मणों
का ही था।
3.
कुरु वंश, भीष्म, धृतराष्ट्र - ब्राह्मणों के उपरान्त राजन्य वर्ग को सम्बोधित किया
गया है जो यह बताता है कि ब्राह्मणों के उपरान्त क्षत्रियों का स्थान था।
4.
मैं उनके पुत्र दुर्योधन - राजाओं के उपरान्त युवराज का स्थान आता है जो यह दर्शाता
है. कि युवराज का उत्तराधिकारी के रूप में प्रमुख स्थान था।
5.
मैं उन सब युवा - यहाँ पर स्त्रियों से पूर्व पुरुषों तथा युवाओं को सम्बोधित किया
गया है जो पितृप्रधान समाज का द्योतक है।
6.
सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर - यहाँ दासी-पुत्र विदुर को सम्बोधन स्पष्ट करता है कि
उस समय विद्वानों का आदर अवश्य था चाहे वह दासी-पुत्र हो।
7.
मैं उन स्त्रियों, माताओं - यहाँ स्त्रियों को सम्बोधन स्पष्ट करता है कि समाज में
वे सम्माननीय तो थी परन्तु उनकी पदसोपान स्थिति पुरुषों से निम्न थी।
8.
गणिकाओं को शुभकामनाएँ युधिष्ठिर का गणिकाओं को सम्बोधन स्पष्ट करता है कि समाज में
गणिकाओं का भी सम्माननीय स्थान था।
9.
दासियों और उनकी सन्तान - यहाँ युधिष्ठिर ने दास, दासियों, विकलांग तथा वृद्धों को
भी सम्बोधित किया है जो स्पष्ट करता है कि समाज में इनका भी स्थान था, फिर वह चाहे
निम्न ही क्यों न हो।
उपर्युक्त
सम्बोधन में समाज के लगभग सभी वर्गों का विवरण प्राप्त होता है, किन्तु यहाँ समाज के
मुख्य उत्पादक वर्ग अर्थात् व्यापारियों, कृषकों तथा शूद्रों का कोई विवरण प्राप्त
नहीं होता है। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि तत्कालीन समाज में वैश्यों तथा शूद्रों का
कोई विशेष स्थान नहीं था।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)
प्रश्न 6. भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज ने
महाभारत के बारे में लिखा था कि, "चूँकि महाभारत सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व
करता है.....बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं......(वह) भारतीयों
की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।" चर्चा कीजिए।
उत्तर:
निश्चय ही महाभारत एक अद्भुत ग्रन्थ है जो प्राचीन भारतीय इतिहांस के विषय में अनेक
महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करता है। वर्ण व्यवस्था, राजव्यवस्था, समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था
इत्यादि सभी पक्षों पर एक लाख श्लोकों वाले महाभारत में पर्याप्त विवरण प्राप्त होता
है। इसी तथ्य को संज्ञान में रखकर मौरिस विंटरविट्ज ने यह टिप्पणी की है कि महाभारत
सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। मौरिस का यह कथन पूर्ण रूप से सही है, जो
निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट हो जायेगा -
(1)
वर्ण व्यवस्था अथवा समाज का वर्गीकरण: महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युधिष्ठिर
ने पदसोपान स्तर के कुरु वंश को सम्बोधित किया। यहाँ युधिष्ठिर ने ब्राह्मणवादी वैदिक
परम्परा का पालन करते हुए समाज के सर्वोच्च वर्ग अर्थात् ब्राह्मणों को सर्वप्रथम नमस्कार
किया। इसके उपरान्त क्षत्रियों अर्थात् अपने ज्येष्ठों तथा युवराजों का अभिनन्दन किया।
यहाँ पर उत्पादक वर्ग तथा सहयोगी शूद्रों का कोई स्थान नहीं था। यह तथ्य इस बात का
द्योतक है कि उस समय की वर्ण व्यवस्था में वैश्यों तथा शूद्रों को सम्मानजनक स्थान
प्राप्त नहीं था।
(2)
राजव्यवस्था अथवा राज्य प्रशासन का विवरण: महाभारत का मुख्य कथानक राज्य तथा उसके उत्तराधिकारियों
के मध्य संघर्ष एवं युद्ध से सम्बन्धित है। महाभारत में बताया गया है कि राज्य संचालन
का कार्य मुख्य रूप से क्षत्रियों का ही था तथा राज्य का स्वरूप वंशानुगत ही होता था।
राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राजगद्दी पर बैठता था, किन्तु आपातकाल में यह व्यवस्था परिवर्तित
भी हो सकती थी। राज्य को हड़पने के लिए शक्ति प्रदर्शन व षड्यन्त्रों का यहाँ बोलबाला
था। मामा शकुनि तथा भांजा दुर्योधन इसके केन्द्रबिन्दु थे। इस प्रकार राजा बनने के
लिये संघर्ष होता था।
(3)
समाज का विवरण: महाभारत महाकाव्य से हमें समाज तथा इसके मुख्य अभिकरणों का विस्तार
से विवरण प्राप्त होता है। महाभारत काल में स्त्रियों की स्थिति अधिक उच्च नहीं थी।
यहाँ बहुपति विवाह तथा बहुपत्नी विवाह प्रचलित थे। समाज में स्त्री को भोग की वस्तु
समझा जाता था। द्रौपदी का चीरहरण इसका उदाहरण है। समाज में शूद्रों को सम्माननीय स्थान
प्राप्त नहीं था। द्रोणाचार्य का निषाद एकलव्य के प्रति दुराग्रह भी शूद्रों की हीन
अवस्था को बताता है। इसके अतिरिक्त समाज में जुआ व चौपड़ जैसी कुप्रथाएँ भी थीं।
(4)
धार्मिक तथा सामाजिक स्थिति का विवरण: इस महाकाव्य में धार्मिक विवरण प्रचुरता के साथ
प्राप्त होते हैं। ब्राह्मणवादी तथा वैदिक व्यवस्था में याज्ञिक कर्मकाण्ड व्यवस्था
मुख्य होती थी जो हमें यहाँ भी देखने को मिलती है। महाभारत का एक अत्यधिक महत्वपूर्ण
भाग अथवा घटना भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को गीता का उपदेश देना है। इस उपदेश के माध्यम
से हमें समाज में प्रचलित व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है।
(5)
आर्थिक स्थिति का विवरण: महाभारत काल में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था। इस
काल में भूमि बहुत उपजाऊ थी। कृषि के अतिरिक्त लोगों द्वारा पशुपालन भी किया जाता था
जिसमें गाय, बैल, घोड़े व हाथी पाले जाते थे। व्यापार की स्थिति भी उन्नत थी। व्यापारियों
ने अपने संघ बनाए हुए थे जिन्हें राज्य की ओर से अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। कुछ लोग
बढ़ई, लुहार, कुम्हार तथा रंगसाजी का कार्य भी करते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि महाभारत
जैसा विशालकाय महाकाव्य निश्चय ही इतिहासकारों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 7. क्या यह सम्भव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था ? चर्चा
कीजिए।
उत्तर:
"महाभारत का रचयिता एक ही था।" यह कहना अत्यधिक कठिन है। इस विषय में निम्नलिखित
तर्क महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं -
1.
महाभारत का रचनाकाल 500 ई. पू. से 1000 ई. तक का है। इतनी दीर्घावधि तक जीवित रहना
एक ही रचयिता के लिये .. किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है।
2.
वर्तमान में महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक हैं जो विभिन्न प्रारूपों, स्थितियों तथा
काल में लिखे गये हैं। यह स्थिति भी एक ही रचयिता के विषय में सन्देह व्यक्त करती है।
3.
महाभारत के दीर्घकालिक रचनाकाल में अनेक क्षेत्रों तथा उनसे सम्बन्धित प्रभावों का
समावेश हो चुका है जिससे स्पष्ट होता है कि महाभारत किसी एक क्षेत्र विशेष में नहीं
अपितु अनेक क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त है।
4.
महाभारत संस्कृत भाषा में लिखी गयी है किन्तु इसमें अनेक क्षेत्रीय भाषाओं; जैसे-पालि
तथा प्राकृत भाषा का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। यह तथ्य भी एक लेखक के मत का खण्डन
करता है।
उपर्युक्त
तथ्य एक ही लेखक के मत का निश्चय ही खण्डन करते हैं। सम्भवतः महाभारत की मूल कथा के
रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें उस काल में सूत माना जाता था। वस्तुतः तत्कालीन समाज में
चारण तथा भाट एक व्यावसायिक कला थी जिसमें राजाओं की कीर्ति का बखान किया जाता था।
यहाँ सारथी योद्धाओं के साथ युद्ध के मैदान में जाते थे तथा उनकी विजयं एवं उपलब्धियों
के विषय में कविताएँ लिखते थे। शनैः-शनैः इन कविताओं का वैदिक ऋचाओं के समान मौखिक
प्रसार हुआ। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. के लगभग इनको लिपिबद्ध करने का कार्य आरम्भ हुआ।
यह वह काल था जब कुरु एवं पांचाल, जिनके इर्द-गिर्द महाभारत की कथा घूमती है, राजतन्त्र
के रूप में उभर रहे थे।
हम
200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य महाभारत के रचनाकाल का एक और चरण देखते हैं। यह वह समय
था जब विष्णु की पूजा प्रभावी हो रही थी तथा श्रीकृष्ण, जो इस महाकाव्य के महत्वपूर्ण
नायक हैं, को विष्णु का एक अवतार माना जाने लगा था। कुछ समय उपरान्त 200-400 ई. के
मध्य मनुस्मृति से मिलते-जुलते वृहद् उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए। इन सबके
परिणामस्वरूप महाभारत अपने प्रारम्भिक रूप में सम्भवतः 10,000 श्लोकों से भी कम रहा
होगा जो कालान्तर में बढ़कर एक लाख श्लोक वाला हो गया। साहित्यिक परम्परा में इस महाकाव्य
के रचनाकार ऋषि वेदव्यास माने जाते हैं। मूलतः महाभारत की रचना 500 ई. पू. से 1000
ई. तक हुई।.... उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि महाभारत का रचयिता किसी एक को मानना
उचित नहीं है।
प्रश्न 8. आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताएँ कितनी
महत्वपूर्ण रही होंगी ? कारण सहित उत्तर . दीजिए।
उत्तर:
प्रमुख समाजशास्त्रियों के अनुसार समाज दो प्रकार का होता था - पितृसत्तात्मक तथा मातृसत्तात्मक।
पूर्व वैदिककाल में समाज यद्यपि पितृसत्तात्मक था, किन्तु स्त्रियों की स्थिति निम्न
नहीं थी। इस समय स्त्रियाँ सभा तथा समिति जैसी उच्च संस्थाओं में प्रतिभागी होती थीं।
स्त्रियों की स्थिति यहाँ इसलिए उच्च थी क्योंकि अभी तक अर्थव्यवस्था पशुपालन पर आधारित
थी जिसमें स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, अतः चाहकर भी उनकी उपेक्षा नहीं
की जा सकती थी। इसके अतिरिक्त पूर्व वैदिक काल में स्त्रियाँ उच्च शिक्षित भी होती
थीं जिसके हमें अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।
उत्तर
वैदिककाल (600 ई. पू. के लगभग) में पशुपालन व्यवस्था गौण होती गयी तथा कृषि एवं व्यापार
महत्वपूर्ण होता गया। अतः इस काल में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त निम्न होती गयी।
इस काल में चूँकि कृषि व्यवस्था अति महत्वपूर्ण हो चुकी थी, जिसके परिणामस्वरूप भूमि
का महत्व बढ़ गया था तथा भूमि, गाय के स्थान पर सम्पत्ति-सूचक मानी जाने लगी थी। यहाँ
पर यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कृषि एवं व्यापार में स्त्रियों का कार्य अपेक्षाकृत
गौण होता है। अतः उनका समाज में भी स्थान गौण हो गया तथा उसे सम्पत्ति का अधिकारी भी
नहीं माना गया। मनुस्मृति तथा अन्य समकालीन साहित्य में स्त्री को सम्पत्ति का अधिकारी
नहीं बताया गया है। परिणामस्वरूप स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय होती गयी।
स्त्रियों
की निम्न स्थिति को हम निम्नलिखित उदाहरणों के द्वारा समझ सकते हैं -
(1)
मैत्रायणी संहिता में स्त्री को सुरा तथा पाँसे के साथ तीसरी बुराई बताया गया है। महाभारत
के एक प्रसंग में (दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के मध्य चौपड़ के खेल में द्रौपदी को दाँव
पर लगाना) हम इन तीनों बुराइयों को एक साथ एक स्थान पर पाते हैं।
(2)
वृहदारण्यक उपनिषद् में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें वर्णित है कि राजा जनक की
सभा में ऋषि याज्ञवल्क्य, गार्गी को सिर तोड़ने की धमकी तक देते हैं। यह इस तथ्य का
परिचायक है कि जब विदुषी महिलाओं का सम्मान नहीं था तो साधारण महिलाओं का क्या सम्मान
रहा होगा।
(3)
महाभारत के एक प्रसंग में तो स्त्री की स्थिति अत्यन्त दयनीय व्यक्त की गई है। यहाँ
युधिष्ठिर जैसे धर्मराज व्यक्ति ने ही अपनी पत्नी को दाँव पर लगा दिया। इसके अतिरिक्त
दुशासन ने द्रौपदी के चीरहरण का प्रयत्न किया था।
(4)
प्राचीनकाल में देवदासी प्रथा तथा सती प्रथा भी प्रचलन में थी जो स्त्रियों की समाज
में निम्न स्थिति की परिचायक हैं। दासियों को इस काल में भोग की वस्तु समझा जाता था।
साथ ही दासी-पुत्र को भी सम्पत्ति में न के बराबर भाग मिलता था।
(5)
इस काल में हमें अनेक गणिकाओं के विवरण प्राप्त होते हैं जो इस बात का द्योतक है कि
तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति अत्यधिक प्रचलन में थी।
उपर्युक्त
उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि वैदिककाल हो अथवा मौर्यकाल या फिर गुप्तकाल समाज में स्त्रियों
की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गयी।
प्रश्न 9. उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बन्धुत्व.व
विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर:
प्राचीन समय में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताओं का निर्माण किया।
लगभग 500 ई. पू. से इन मानदण्डों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रन्थों
में किया गया जिनके रचनाकारों (ब्राह्मणों) का मत था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक
है एवं उनके द्वारा निर्मित नियमों का पालन सभी लोगों द्वारा होना चाहिए, परन्तु ऐसा
नहीं था। वास्तविक सामाजिक सम्बन्ध कहीं अधिक जटिल थे। वास्तव में उपमहाद्वीप में फैली
क्षेत्रीय विभिन्नता एवं संचार की बाधाओं के कारण ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक
नहीं हो सकता था अर्थात् उनके द्वारा निर्मित बंधुत्व एवं ब्राह्मण सम्बन्धी व्यावहारिक
नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित साक्ष्य प्राप्त
हुए हैं -
(1)
पारिवारिक जीवन में भिन्नता - संस्कृत ग्रन्थों में कुल' शब्द का प्रयोग परिवार के
लिए एवं 'जाति' शब्द का प्रयोग बान्धवों के बड़े समूह के लिए होता है। प्रायः हम पारिवारिक
जीवन को सहजता के साथ ही स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु समस्त परिवार एक समान नहीं होते
हैं। पारिवारिकजनों की गिनती, एक-दूसरे से उनका रिश्ता एवं उनके क्रियाकलापों में भी
भिन्नता होती है। कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में मिल-बाँटकर
इस्तेमाल करते हैं, एक साथ रहते हैं, काम करते हैं तथा विभिन्न अनुष्ठानों को एक साथ
ही सम्पादित करते हैं। वास्तव में परिवार एक बड़े समूह का भाग होते हैं जिन्हें हम
सम्बन्धी (बान्धव) कहते हैं; तकनीकी भाषा में हम सम्बन्धियों को जाति-समूह कह सकते
हैं।
भले
ही पारिवारिक सम्बन्ध प्राकृतिक एवं रक्त आधारित माने जाते हैं लेकिन इन पारिवारिक
सम्बन्धों की परिभाषा भिन्न-भिन्न तरीके से की जाती है। एक तरफ कुछ समाजों में भाई-बहन
(चचेरे, मौसेरे आदि) से रक्त का रिश्ता माना जाता है, परन्तु कुछ समाजों में ऐसा नहीं
माना जाता है। कुछ बान्धव सत्ता एवं सम्पत्ति पर अधिकार के प्रश्न पर संघर्ष करने तक
के लिए उतारू हो जाते हैं। कुरु वंश के कौरव एवं पाण्डव इसके उदाहरण हैं जिनमें सत्ता
एवं समाज पर अधिकार के लिए अठारह दिन तक युद्ध हुआ जिसमें पाण्डव विजयी हुए। इसी प्रकार
पितृवंशिकता के सम्बन्ध में विभिन्नता देखने को मिलती है। कभी-कभी पुत्र न होने पर
एक भाई दूसरे भाई का उत्तराधिकारी माना जाता था तो कभी-कभी वे बलात् सिंहासन पर अपना
अधिकार जमा लेते थे। कुछ विशेष परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता एवं शक्ति का उपभोग
करती थीं जैसा कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त ने किया था।
(2)
विवाह के नियम प्राचीन समय में पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण होते
थे। इस व्यवस्था में पुत्रियों को महत्व प्राप्त नहीं था तथा पैतृक सम्पत्ति में उन्हें
कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। पिता अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपना कर्त्तव्य
समझता था जिसे बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं। इसका आशय यह था कि प्रतिष्ठित परिवारों
की युवा कन्याओं का जीवन बड़ी सावधानी के साथ नियमित किया जाता था ताकि उचित समय पर
उचित व्यक्ति से उनका विवाह सम्पन्न किया जा सके। कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या
की भेंट को पिता का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया। ब्राह्मणीय नियमों के
अनुसार चचेरे, मौसेरे व ममेरे भाई-बहनों में रक्त सम्बन्ध होने के कारण विवाह वर्जित
था। उत्तर भारत में इस नियम का व्यापक अनुसरण किया जाता था, किन्तु दक्षिण भारत के
अनेक समुदाय इस नियम का पालन नहीं करते थे।
मनुस्मृति
के अनुसार प्राचीन भारत में विवाह के कुल आठ प्रकार थे जिनमें से प्रथम चार विवाह उत्तम
तथा शेष चार विवाह निंदित माने जाते थे। सम्भव है कि ये निंदित विवाह पद्धतियाँ उन
लोगों में प्रचलित थीं जो ब्राह्मणीय नियमों को स्वीकार नहीं करते थे। सातवाहन शासकों
के अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा निर्मित बहिर्विवाह पद्धति
के नियमों का अनुसरण नहीं किया। उनकी कई रानियाँ उन्हीं के अपने गोत्र की थीं तथा कई
रानियाँ एक ही गोत्र की थीं जो अन्तर्विवाह पद्धति अर्थात् बंधुओं के बीच विवाह सम्बन्ध
का उदाहरण है। इस पद्धति का प्रचलन दक्षिण भारत को कई समुदायों में था तथा यह आज भी
बरकरार है। अतः स्पष्ट है कि बंधुत्व और विवाह सम्बन्धी नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं
किया जाता था।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 10. इस अध्याय के मानचित्र की अध्याय 2 के मानचित्र 1 से तुलना कीजिए। कुरु-पांचाल क्षेत्र के पास स्थित महाजनपदों तथा नगरों की सूची बनाइए।
उत्तर:
(1)
कुरु-पांचाल क्षेत्र के पास स्थित महाजनपद-
1.
शूरसेन
2.
मत्स्य
3.
कौशल
4.
वत्स
5.
मल्ल
6.
अवन्ति
7.
काशी
8.
मगध।
(2)
नगर -
1.
विराटनगर
2.
हस्तिनापुर
3.
इन्द्रप्रस्थ
4.
मथुरा
5.
श्रावस्ती
6.
कौशाम्बी
7.
पावा
8.
उज्जयिनी
9.
कपिलवस्तु
10.
पाटलिपुत्र
11.
वैशाली
12.
बोधगया
13.
वाराणसी
14.
सारनाथ
15.
कुशीनगर
17.
लुम्बिनी
18.
अहिच्छत्र।
परियोजना कार्य (कोई एक)
प्रश्न 11. अन्य भाषाओं में महाभारत की पुनर्व्याख्या के बारे में जानिए।
इस अध्याय में वर्णित महाभारत के किन्हीं दो प्रसंगों का इन भिन्न भाषा वाले ग्रन्थों
में किस तरह निरूपण हुआ है, उनकी चर्चा कीजिए। जो भी समानता और विभिन्नता आप इन वृत्तान्त
में देखते हैं उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अभिभावक तथा शिक्षकों की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 12. कल्पना कीजिए कि आप एक लेखक हैं और एकलव्य की कथा को अपने
दृष्टिकोण से लिखिए।
उत्तर: महाभारत में द्रोणाचार्य तथा एकलव्य की कथा गुरु-शिष्य का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। इसे विद्यार्थी अपने अभिभावक तथा शिक्षकों के साथ स्वयं अपने स्तर से समझें और अपने शब्दों में लिखें।