4.
विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
प्रश्न 1. क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों तथा भौतिकवादियों
से भिन्न थे ? अपने जवाब के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, मेरे विचार से उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों
से भिन्नता रखते थे जो अग्रलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट हैं-
(i)
नियतिवादियों एवं भौतिकवादियों के विचार: नियतिवादियों के अनुसार मनुष्य के सुख-दुःख
पूर्व निर्धारित कर्मों के अनुसार होते हैं जिन्हें संसार में परिवर्तित नहीं किया
जा सकता अर्थात् इन्हें घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। यद्यपि बुद्धिमान लोगों का यह
विश्वास है कि वह सद्गुणों एवं तपस्या के माध्यम से अपने कर्मों से मुक्ति प्राप्त
कर लेगा, परन्तु यह सम्भव नहीं है क्योंकि मनुष्य को कर्मानुसार सुख-दुख भोगना ही पड़ता
हैं।
इसी
प्रकार भौतिकवादियों का मत है कि संसार में दान देना, यज्ञ करना अथवा चढ़ावा जैसी कोई
वस्तुएँ नहीं होती हैं। दान देने का सिद्धान्त झूठा व खोखला है। मनुष्य के मरने के
पश्चात् कुछ भी शेष नहीं बचता है। मूर्ख हो या विद्वान दोनों ही मरकर नष्ट हो जाते
हैं। मनुष्य की मृत्यु के साथ ही पाँचों तत्व नष्ट हो जाते हैं जिनसे वह बना होता है।
(ii)
उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार: नियतिवादियों एवं भौतिकवादियों द्वारा दिए गए विचारों
में आत्मा व परमात्मा का कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत उपनिषदों के दार्शनिकों ने
आत्मा, परमात्मा, कर्म, जीवन के अर्थ, जीवन की सम्भावना और पुनर्जन्म, मोक्ष आदि की
विवेचना की है। उनके अनुसार आत्मा अगाध, अपार, अवर्णनीय एवं सर्वव्यापक है। सभी तत्व
इस आत्मा में ही समाहित हैं। यह आत्मा ही ब्रह्म है तथा यही सर्वव्यापक है। अतः मानव
जीवन का लक्ष्य आत्मा को परमात्मा में विलीन कर स्वयं परमब्रह्म को जानना है। .
इस
प्रकार स्पष्ट है कि उपनिषदों के दार्शनिकों के (परम ब्रह्म) विचार नियतिवादियों व
भौतिकवादियों से भिन्नता रखते थे।
प्रश्न 2. जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ-जैन धर्म एक क्रान्तिकारी धर्म है जिसका जन्म छठी शताब्दी
ई. पू. में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में हुआ था। अतः तत्कालीन जनता को इसकी
शिक्षाएँ तथा सिद्धान्त अत्यन्त प्रिय लगे। जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाएँ निम्नलिखित
हैं-
1.
जैन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि सम्पूर्ण विश्व अथवा विश्व का प्रत्येक
तत्व प्राणवान है। जैन धर्म के अनुसार पत्थर, चट्टान तथा जल में भी जीवन होता है।
2.
कर्म-चक्र से मुक्ति पाने के लिए त्याग तथा तपस्या की आवश्यकता होती है जो संसार के
त्याग से ही सम्भव हो सकता है। अतः मुक्ति के लिए विहारों में निवास करना अनिवार्य
है। .
3.
जैन साधु व साध्वियों को पाँच व्रतों का पालन करना चाहिए - हत्या न करना, चोरी न करना,
झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना और ब्रह्मचर्य।
प्रश्न 3. साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका
की चर्चा कीजिए। -
उत्तर:
साँची के स्तूप के प्रति जहाँ यूरोपियों ने अपनी विशेष रुचि दिखाई वहीं भोपाल की बेगमों
के प्रयास भी अत्यन्त सराहनीय हैं। भोपाल की शासक शाहजहाँ बेगम तथा उसकी उत्तराधिकारी
सुल्तानजहाँ बेगम ने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान किया। जॉन मार्शल
ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सुल्तानजहाँ बेगम को समर्पित किया। सुल्तानजहाँ
बेगम के यहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं जिनके विभिन्न खण्डों
के प्रकाशन के लिए भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया।
संक्षेप
में कहा जाए तो भोपाल के शासकों विशेषकर यहाँ की बेगमों द्वारा लिए गए विवेकपूर्ण निर्णयों
ने साँची के स्तूप को उजड़ने से बचा लिया। फ्रांसीसियों तथा अंग्रेजों द्वारा साँची
के पूर्वी तोरणद्वार को अपने-अपने देशों में ले जाने का प्रयास किया गया, परन्तु भोपाल
की बेगमों ने उन्हें इनकी प्लास्टिक की प्रतिकृतियाँ देकर सन्तुष्ट कर दिया। इस प्रकार
साँची के स्तूप को बचाने में भोपाल की बेगमों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण रही।
प्रश्न 4. निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए तथा जवाब दीजिए महाराज
हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन
त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या, त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता की बहन की
बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवन में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित
की।
(क) धनवती ने अपने अभिलेख की तिथि कैसे निश्चित की?
उत्तर:
धनवती नामक भिक्खुनी ने अपना अभिलेख मधुवनक नामक स्थान पर लगाया था। यह गर्म मौसम के
प्रथम माह के आठवें दिन महाराजा हुविष्क के राज्यारोहण के 33वें वर्ष में लगवाया गया।
(ख) आपके अनुसार उसने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की ?
उत्तर:
महायान बौद्ध धर्म का कुषाण काल में अत्यधिक प्रचलन था। कनिष्क के काल में कुण्डल वन
(कश्मीर) में चतुर्थ बौद्ध संगीति आयोजित हो चुकी थी। अतः महायान बौद्ध मत का अत्यधिक
प्रचलन हो चुका था तथा इसमें स्त्री तथा पुरुष दोनों की संख्या बढ़ गयी थी। धनवती की.बौद्धधर्म
में अगाध श्रद्धा थी; इसलिए उसने बौद्ध धर्म तथा बोधिसत्त के प्रति श्रद्धा और सम्मान
प्रकट करने हेतु बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।
(ग) वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं ?
उत्तर:
धनवती ने इस अभिलेख में अपनी मौसी (माँ की बहन) बुद्धमिता तथा अपने माता-पिता के नाम
का उल्लेख किया है।
(घ) वे कौन से बौद्ध ग्रन्थों को जानती थीं?
उत्तर:
धनवती बौद्ध धर्म के ग्रन्थ त्रिपिटक की ज्ञाता थी।
(ड) उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे ?
उत्तर:
उन्होंने यह पाठ अपने गुरु तथा भिक्खुओं से सीखे थे। यह भी सम्भावना है कि उन्होंने
कुछ पाठ त्रिपिटक जानने वाली .. अपनी मौसी बुद्धमिता से सीखे हों।
प्रश्न 5. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के समय में बौद्ध धर्म में संघ एक संगठित व्यवस्था के रूप में स्थापित
हो चुका था। बौद्ध संघ एक . संगठित तथा अनुशासित निकाय था जिसमें नियमों का पालन कर
मोक्ष प्राप्त किया जा सकता था; शायद उस समय जनसामान्य की ऐसी ही धारणा रही होगी। वस्तुतः
गृहस्थ जीवन में उन नियमों का पालन सम्भव नहीं था जिनका पालन करके वे मोक्ष प्राप्त
कर सकें, वहीं संघ में अध्ययन तथा मनन का उच्च वातावरण स्थापित था। बौद्ध विद्वान भी
इन संघों में सुगमता से सुलभ हो जाते थे।
एक
पवित्र जीवन जीने की अभिलाषा स्त्री-पुरुषों को संघ में खींच लाती थी। यहाँ बुद्ध का
व्यक्तित्व भी एक महत्वपूर्ण कारक था। बौद्ध धर्म के उत्थान तथा प्रचार की आकांक्षा
से भी स्त्री-पुरुष संघ में प्रवेश लेते थे। संघ में सभी का दर्जा समान था क्योंकि
भिक्खु अथवा भिक्खुनी बन जाने के बाद सभी को अपनी पुरानी पहचान त्यागनी पड़ती थी। अनेक
स्त्रियाँ बौद्ध धर्म की उपदेशिकाएँ (थेरी) बनने की आकांक्षा रखती थीं। स्त्री-पुरुषों
का बौद्ध संघ में जाने का सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि संघ के पवित्र वातावरण में
उन्हें आत्मिक शान्ति प्राप्त होती थी।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)
प्रश्न 6. साँची की मूर्तिकला को समझने में साहित्य के ज्ञान से कहाँ
तक सहायता मिलती है ?
उत्तर:
बौद्ध धर्म के दो मुख्य मत हैं, प्रथम-हीनयान तथा द्वितीय-महायान । जहाँ हीनयानं में
बुद्ध की आराधना उनके प्रतीकों के माध्यम से होती है, वहीं महायान में बुद्ध की आराधना
मूर्तियों के माध्यम से अथवा मूर्ति-पूजा के रूप में होती है। अतः विस्तृत मात्रा में
बुद्ध के प्रतीकों तथा मूर्तियों का निर्माण आरम्भ हो गया। प्रथम शताब्दी के लगभग मथुरा
तथा गान्धार कला में सर्वप्रथम बुद्ध तथा बोधिसत्त की मूर्तियाँ बनना आरम्भ हो गयीं।
बौद्ध साहित्य में इस प्रकार के विभिन्न वृत्तान्त अथवा विवरण प्राप्त होते हैं। .
साँची के स्तूप के विषय में बौद्ध साहित्य से भी विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
बौद्ध साहित्य के अध्ययन के उपरान्त इस स्तूप . की मूर्तियों में उल्लिखित सामाजिक
तथा मानव जीवन की अनेक बातें दर्शकों की समझ में सुगमता से आ जाती हैं।
इस
मूर्तिकला में साधारण-सी फूस की झोंपड़ी तथा पेड़ों वाले ग्रामीण दृश्य का चित्रण दिखायी
देता है, किन्तु वे विभिन्न इतिहासकार जिन्होंने साँची की इस मूर्तिकला का गहराई से
अध्ययन किया है, इसे वेसान्तर जातक से लिया गया एक महत्वपूर्ण दृश्य बताते हैं। इस
जातक में एक दानी राजकुमार की कहानी कही गयी है जिसने अपना सब कुछ ब्राह्मण को दान
कर दिया तथा स्वयं अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ वन में रहने चला गया। इतिहासकारों
को बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए बुद्ध के चरित्र लेखन के विषय में व्यापक समझ बनानी
पड़ी।
बौद्ध
चरित्र के अनुसार एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई।
अनेक आरंभिक मूर्तिकारों ने उन्हें मानव रूप में न दिखाकर उनकी उपस्थिति प्रतीकों के
माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया है; जैसे - रिक्त स्थान बुद्ध के ध्यान की दशा तथा
स्तूप महापरिनिर्वाण के प्रतीक बन गये। चक्र बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिये गये प्रथम
उपदेश (धम्म चक्र परिवर्तन) का प्रतीक था। इस प्रकार की कलाकृति को सुगमता से नहीं
समझा जा सकता था; जैसे-पेड़ का अर्थ मात्र एक पेड़ नहीं था वरन् वह बुद्ध के जीवन का
एक महत्वपूर्ण प्रतीक था।
इस
प्रकार के प्रतीकों को समझने के लिए इतिहासकारों के लिए आवश्यक है कि वे कलाकृतियों
के निर्माताओं की भावनाओं को समझें। ऐसा प्रतीत होता है कि साँची में उत्कीर्णित अन्य
मूर्तियाँ शायद बौद्ध मत से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित नहीं हैं। यहाँ हमें अनेक उदाहरण
प्राप्त होते हैं। हालांकि साँची में जातकों से ली गयी जानवरों की अनेक कथाएँ प्राप्त
होती हैं तथा ऐसा प्रतीत होता है कि नागरिकों को आकर्षित करने के लिए विभिन्न जानवरों
के प्रतीकों का प्रयोग किया गया।
चूँकि
बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं को प्रतीकों के माध्यम से भी दिखाया जाता है। अतः
सम्भव है कि इन जानवरों का कुछ अप्रत्यक्ष सम्बन्ध अवश्य रहा हो। प्रारम्भ में विद्वान
उपर्युक्त मूर्तियों के विषय में असहज थे, किन्तु समय के साथ-साथ इतिहासकार इसे समझने
लगे तथा मूर्तियों, अभिलेखों एवं साहित्य के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हो
गए।
प्रश्न 7. साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या
नजर आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धन्धों
को पहचानकर यह बताइए कि इनमें . से कौन-से ग्रामीण तथा कौन-से शहरी परिदृश्य हैं ?
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक के वास्तुकला तथा शिल्पकला का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इनसे यह
भी स्पष्ट होता है कि हमारे अध्ययन काल (600 ई. पू. से 600 ई.) तक वास्तुकला, शिल्पकला
तथा धार्मिक एवं सामाजिक विचार उच्चता के साथ स्थापित हो चुके थे।
चित्र 4.32
में
हमें ग्रामीण विविधता दिखायी देती है। इसमें अनेक प्रकार के मवेशियों, जैसे - भैंस,
गाय, हिरन इत्यादि को उकेरा गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि ग्रामीण लोग पशुपालक थे
वे पशुओं को दूध प्राप्ति तथा यातायात के लिए पालते थे। चित्र में वनस्पतियों का चित्रण
किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि उनके जीवन में वनस्पति का महत्व रहा होगा।
चित्र
में नृत्य करते हुए तथा धनुष के साथ ग्रामीणों को दिखाया गया है जिससे हमें ज्ञात होता
है कि ग्रामीणों में नृत्य तथा तीरंदाजी मनोरंजन के मुख्य साधन थे। चित्र में ऊपर दायीं
ओर गोल आकृतियुक्त ग्रामीण खपरैलयुक्त भवन भी दिखाये गये हैं जो तत्कालीन ग्रामीण वास्तुकला
के परिचायक हैं। चित्र में ऊपर बायीं ओर आराधना करते हुए कुछ भिक्षु तथा भिक्षुणी भी
दिखायी देते हैं। इस प्रकार यह चित्र तत्कालीन ग्रामीण परिवेश की रोचक सूचनाएँ प्रदान
करता है जिससे हमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक सूचनाएँ प्राप्त होती
हैं।
चित्र 4.33
एक
नगरीय परिदृश्य से सम्बन्धित है जो चित्र 4.32 से पूर्णतया भिन्न है। यह दो भागों
(ऊपर तथा नीचे) में विभक्त है। ऊपर का चित्र एक जालीदार तथा छज्जायुक्त बालकनी का दृश्य
है। सम्भवतः यह किसी महल के दृश्य के रूप में उकेरा गया होगा। यहाँ चार खम्भे भी हैं
जिन पर उल्टे कलश स्थापित किए गए हैं जिनके ऊपर दो दिशाओं में घोड़े तथा शेर की मूर्तियाँ
बनायी गयी हैं। ऐसा हम अशोक के शिलालेख तथा स्तम्भ लेखों में देखते हैं।
इन
खम्भों के मध्य में तीन भागों में सुन्दर आकृतियाँ उकेरी गयी हैं जिसमें से प्रथम दो
में अलंकृत आसन पर बैठे राजा को दिखाया गया है जिसके ऊपर एक छत्र लगा है तथा उसके पीछे
दो सेवक हैं जो पंखा कर रहे हैं। इसके तीसरे भाग में विभिन्न मुद्राओं में वाद्य यंत्र
बजाते व्यक्तियों को दिखाया गया है। ऊपर की आकृति को ही यथासम्भव नीचे बनाने का प्रयास
किया गया है। ऊपर वाली आकृति अधिक सुन्दर तथा स्पष्ट है। यह चित्र तत्कालीन समय में
दरबारी संस्कृति, नृत्य-संगीत तथा वास्तुकला की झलक प्रस्तुत करता है।
प्रश्न 8. वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला तथा मूर्तिकला
के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
वैष्णववाद तथा शैववाद का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है। यदि हम जॉन मार्शल के कथन को सही
मानें तो मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर जिस योगी की आकृति उभरी हुई है वह. और
कोई नहीं अपितु आदि शिव अर्थात् पशुपति शिव ही हैं। इस प्रकार देखा जाए तो शैववाद आज
से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के अपने पुरातात्त्विक साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त
हड़प्पा सभ्यता से हमें अनेक प्रस्तर लिंग भी प्राप्त होते हैं।
ऋग्वैदिक
काल में शैववाद तथा वैष्णववाद के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। उत्तरवैदिक काल में बहुदेववाद
एकेश्वरवाद में परिवर्तित हुआ जिसके परिणामस्वरूप भागवत धर्म तथा शैवधर्म की स्थापना
हुई। इनके विधिवत् रूप से स्थापित होने का समय लगभग 600 ई. पू. रहा होगा, किन्तु इस
काल तक शैववाद अथवा वैष्णववाद से सम्बन्धित कोई मूर्ति अथवा मन्दिर नहीं मिलते हैं।
भारत में मूर्तिकला का प्रथम विधिवत् आरंभ हम मथुरा कला तथा गांधार कला में पाते हैं।
इन दोनों कला शैलियों के अन्तर्गत सर्वप्रथम बुद्ध की प्रतिमाएँ बनायी गईं।
(1)
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला का विकासवैष्णववाद और शैववाद के उदय
से जुड़ी वास्तुकला के विकास को निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है -
(i)
मंदिरों का निर्माण-जिस समय साँची जैसे स्थानों पर स्तूप अपने विकसित रूप में आ गये
थे, लगभग उसी समय देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए सर्वप्रथम मन्दिर भी बनाये
जाने लगे। इसमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक . मूर्ति की पूजा करने के लिए अन्दर
प्रविष्ट होता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर
कहा जाता था। प्रायः मन्दिर की दीवारों पर भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे। समय
के साथ-साथ मन्दिरों के साथ विशाल सभास्थल, ऊँची दीवारें तथा तोरणद्वार भी जुड़ते गये।
(ii)
कृत्रिम गुफाओं का निर्माण-गुप्तकाल तथा उसके आस-पास के समय में अधिकांश शासक वैष्णववाद
तथा शैववाद के समर्थक थे। इन शासकों की सहायता से अनेक अद्भुत मन्दिर बनवाये गए जिनमें
कुछ मन्दिरों को पहाड़ियों को काटकर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाया गया
था।
(2)
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी मूर्तिकला का विकास-इस काल में विष्णु के कई अवतारों
को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया। अन्य देवताओं की भी मूर्तियाँ बनायी गयीं। ये
समस्त चित्रण देवताओं से सम्बन्धित मिश्रित अवधारणाओं पर आधारित थे। इस युग में प्रतीकों
को देवों के शिरोवस्त्रों, आभूषणों, आयुधों एवं बैठने की शैली से अंकित किया जाता था।
इस काल में ब्रह्मा, विष्णु व महेश (शिव) की त्रिमूर्ति भी बनने लगी थी। इस काल में
निर्मित एहोल (कर्नाटक) की विष्णु के वाराह अवतार की मूर्ति प्रमुख है जिसमें विष्णु
के वाराह अवतार को पृथ्वी देवी को बचाते हुए दर्शाया गया है। संक्षेप में कहा जाये
तो वैष्णववाद तथा शैववाद के उदय ने मूर्तिकला एवं वास्तुकला के विकास को अत्यधिक प्रोत्साहन
दिया।
प्रश्न 9. स्तूप क्यों और कैसे बनाये जाते थे ? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
प्रारम्भ में महात्मा बुद्ध की स्तुति मूर्ति के रूप में नहीं होती थी अपितु उनकी स्तुति
का माध्यम उनसे सम्बन्धित वस्तुएँ हुआ करती थीं। इन वस्तुओं को पवित्र स्थान पर स्थापित
करके बुद्ध की आराधना तथा उनका अनुगमन किया जाता था। इन वस्तुओं के ऊपर ही स्तूप का
निर्माण होता था। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त उनके शरीर ने अवशेषों
को आठ भागों में विभाजित कर दिया गया तथा इनका वितरण तत्कालीन गणराज्यों में कर दिया
गया।
कालान्तर
में इन्हीं अवशेषों पर स्तूपों का निर्माण हुआ। पंक्षेप में कह सकते हैं कि बुद्ध से
जुड़े कुछ अवशेष; जैसे-उनकी अस्थियाँ अथवा उनके द्वारा प्रयोग में लायी गयी वस्तुएँ
भूमि में दबा दी .ती थीं जो अन्ततोगत्वा टीलों अथवा स्तूपों का आकार ले लेते थे। उनमें
चूँकि ऐसे अवशेष थे जिन्हें पवित्र समझा जाता था इसलिए सम्पूर्ण स्तूप को ही बुद्ध
और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा मिली। अशोकावदान' नामक एक बौद्ध ग्रन्थ
के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को सभी महत्वपूर्ण शहरों में भेजकर
उन पर स्तूप बनाने का आदेश दिया।
स्तूपों
की वेदिकाओं तथा स्तम्भों पर लिखे अभिलेखों से इन्हें बनाने तथा सजाने के लिए दान की
सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। इनमें से कुछ दान राजाओं (जैसे-सातवाहन वंश के राजा) द्वारा
किए गए थे तथा शेष धनी । व्यक्तियों एवं श्रेणियों ने किए थे। उदाहरणार्थ-हाथी दाँत
का काम करने वाले शिल्पकारों के दान से साँची के तोरणद्वार का हिस्सा बनाया गया था।
दान के अभिलेखों से सैकड़ों महिलाओं व पुरुषों के नामों का पता चलता है। इसके अतिरिक्त
भिक्खुओं व भिक्खुनियों ने भी इन इमारतों को बनाने में दान दिया।
सामान्यतः
स्तूप, जिसे संस्कृत में टीला कहा जाता है; का जन्म एक अर्द्धगोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी
के एक टीले से हुआ जिसे कालान्तर में अंड भी कहा जाने लगा। समय के साथ-साथ इसकी संरचना
अधिक जटिल होती गयी। जिसमें अनेक चौकोर तथा गोल आकारों का सन्तुलन बनाया गया। इस अंड
के ऊपर एक हर्मिका होती है। जो देवताओं के घर का प्रतीक थी। इस हर्मिका से एक मस्तूल
निकला होता है जिसे यष्टि कहा जाता है। प्रायः छत्री लगी होती थी। इस टीले के चारों
ओर एक वेदिका अथवा बाड़ होती थी जो-पवित्र स्थल को पृथकता प्रदान करती थी।
हमें
साँची तथा भरहुत जैसे प्रारंभिक स्तूप साधारण अलंकरण अथवा न्यून अलंकरण के ही प्राप्त
होते हैं, इसमें हमें मार्श पत्थर की वेदिकाएँ एवं तोरणद्वार प्राप्त होते हैं। पत्थर
की ये वेदिकाएँ किसी बाँस अथवा काठ के घेरे के समान थीं। चारों दिशाओं में खड़े तोरणद्वारों
पर अत्यधिक नक्काशी की गयी थी। यहाँ उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके टीले के
दायीं ओर दृष्टि रखते हुए दक्षिण की ओर परिक्रमा करता था।
इससे
प्रतीत होता है मानो वे आकाश में सूर्य के पथ का अनुसरण कर रहे हों। यही कुछ व्यवस्था
हमें हिन्दुओं के मन्दिरों में उनके प्रदक्षिणा पथ में भी प्राप्त होती है। . कालान्तर
में स्तूपों के टीलों अथवा अंड पर भी अलंकरण तथा नक्काशी की जाने लगी। अमरावती तथा
पेशावर में शाहजी की ढेरी के स्तूपों में ताख तथा मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की कला के
हमें अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि स्तूप अत्यधिक पवित्रा
तथा अपने आराध्य के प्रति समर्पण की भावना का परिचय देते हैं।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 10. विश्व के रेखांकित मानचित्र पर उन इलाकों पर निशान लगाइए
जहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप से इन इलाकों को जोड़ने वाले जल
तथा स्थल मार्गों को दिखाइये।
उत्तर: नीचे दिये मानचित्र को ध्यान से देखिये। यहाँ प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों को दिखाया गया है
प्रसिद्ध
बौद्ध स्थल
1.
भारत
2.
श्रीलंका
3.
अफगानिस्तान
4.
नेपाल
5.
बर्मा (म्यांमार)
6.
चीन
7.
जापान
8.
कोरिया
9.
पाकिस्तान
10.
मंगोलिया।
उपमहाद्वीप
से जोड़ने वाले स्थल-
1.
भारत के पूर्वी समुद्री तट से दक्षिण पूर्व एशिया।
2.
चीन से होकर सिल्क मार्ग।
3.
मध्य भारत से होते हुए अफगानिस्तान तक ग्राण्ड ट्रंक रोड। परियोजना कार्य (कोई एक)
परियोजना कार्य (कोई एक)
प्रश्न 11. इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परम्पराओं में से क्या कोई
परम्परा आपके आस-पड़ोस में मानी जाती है ? आज किन धार्मिक ग्रन्थों का प्रयोग किया
जाता है ? उन्हें कैसे संरक्षित और सम्प्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों
का प्रयोग होता है ? यदि हाँ तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गयी मूर्तियों
से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना
प्रारंभिक स्तूपों और मन्दिरों से कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इस परियोजना कार्य को स्वयं अभिभावक तथा शिक्षक की सहायता से सम्पादित करें।
प्रश्न 12. इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परम्पराओं से जुड़े अलग-अलग
काल और क्षेत्रों की कम से कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तस्वीरें इकट्ठी कीजिए।
उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तस्वीर दो लोगों को दिखाइए तथा उन्हें इसके बारे में बताने
को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
इस अध्याय में बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मत से सम्बन्धित विभिन्न मूर्तियाँ तथा चित्र
दिए गए हैं। विद्यार्थी सर्वप्रथम इन्हें अलग-अलग मतों के अनुसार वर्गीकृत कर लें।
यह वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से हो सकता है
(अ) बौद्ध मूर्तियाँ तथा चित्र-देखें पाठ्यपुस्तक के चित्र संख्या-
(ब) जैन मूर्तियाँ तथा चित्र -
(स) ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ तथा चित्र -