4. सत्ता के वैकल्पिक केंद्र
प्रश्न 1. तिथि के हिसाब से इन सबको क्रम दें
(क) विश्व व्यापार संगठन में चीन का प्रवेश
(ख) यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना
(ग) यूरोपीय संघ की स्थापना
(घ) आसियान क्षेत्रीय मंच की स्थापना।
उत्तर:
(ख)
यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना (1957)
(घ)
आसियान क्षेत्रीय मंच की स्थापना (1967)
(ग)
यूरोपीय संघ की स्थापना (1992)
(क)
विश्व व्यापार संगठन में चीन का प्रवेश (2001)।
प्रश्न 2. 'ASEAN way' या आसियान शैली क्या है ?
(क)
आसियान के सदस्य देशों की जीवन शैली है।
(ख) आसियान सदस्यों की अनौपचारिक और सहयोगपूर्ण कामकाज की शैली को कहा
जाता है।
(ग)
आसियान सदस्यों की रक्षानीति है।
(घ)
सभी आसियान सदस्य देशों को जोड़ने वाली सड़क है।
प्रश्न 3. इनमें से किसने 'खुले द्वार' की नीति अपनाई
(क) चीन
(ख)
यूरोपीय संघ
(ग)
जापान
(घ)
अमेरिका।
प्रश्न 4. खाली स्थान भरिए-
(क)
1992 में भारत और चीन के बीच.....अरुणाचल............और.....लद्दाख............को लेकर सीमावर्ती लड़ाई हई थी।
(ख)
आसियान क्षेत्रीय मंच के कामों में.......आसियान के देशों
की सुरक्षा..........और......विदेश नीतियों में
तालमेल...........करना शामिल है।
(ग)
चीन ने 1972... अमेरिका..............के साथ दोत्तरफा
सम्बन्ध शुरू करके अपना एकान्तवास समाप्त किया।
(घ).......मार्शल..........योजना के प्रभाव से 1948 में यूरोपीय
आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना हुई।
(ङ)
.....सुरक्षा समुदाय............आसियान का एक स्तम्भ
है; जो इसके सदस्य देशों की सुरक्षा के मामले देखता है।
प्रश्न 5. क्षेत्रीय संगठनों को बनाने के उद्देश्य क्या हैं ?
उत्तर:
क्षेत्रीय संगठनों को बनाने के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार से हैं:
1.
अन्तर-क्षेत्रीय समस्याओं का क्षेत्रीय स्तर पर हल ढूँढना-क्षेत्रीय संगठन अन्तर-क्षेत्रीय
समस्याओं का क्षेत्रीय स्तर पर हल ढूँढने में अन्य संगठनों की अपेक्षा अधिक कामयाब
हो सकते हैं। यदि किसी क्षेत्र के किन्हीं दो राष्ट्रों में किसी मामले को लेकर विवाद
है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने से दोनों देशों में कटुता बढ़ेगी। यदि क्षेत्रीय
संगठन अपने इन सदस्य देशों के आपसी विवाद का हल ढूँढने में सफल रहते हैं तो आपस में
अनावश्यक द्वेष अथवा विनाश से बचा जा सकता है।
2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य को सुगम करना-यदि छोटी-छोटी क्षेत्रीय समस्याओं को क्षेत्रीय
संगठनों द्वारा क्षेत्रीय स्तर पर हल हर कर लिया जाये तो संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य
का बोझ कम हो जायेगा और वह बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में अपना समय लगा
सकता है।
3.
बाहरी हस्तक्षेप का डटकर मुकाबला-क्षेत्रीय संगठनों में आमतौर पर यह प्रावधान रखा जाता
है कि क्षेत्र के किसी एक देश में बाहरी हस्तक्षेप होने पर संगठन के अन्य सदस्य उस
देश की सहायता करेंगे और ऐसे संकट के समय समस्त क्षेत्रीय देश बाहरी हस्तक्षेप का डटकर
मुकाबला करेंगे।
4.
क्षेत्रीय सहयोग एवं एकता की स्थापना-क्षेत्रीय संगठनों में आपसी सहयोग की भावना एवं
एकता स्थापित होती है। क्षेत्र के विभिन्न देश क्षेत्रीय संगठन बनाकर आपस में राजनीतिक,
आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में सहयोग कर लाभ उठा सकते हैं। अपने-अपने क्षेत्रों
में अधिक शान्तिपूर्ण एवं सहकारी क्षेत्रीय व्यवस्था विकसित करने की कोशिश कर सकते
हैं।
प्रश्न 6. भौगोलिक निकटता का क्षेत्रीय संगठनों के गठन पर क्या असर
होता है ?
उत्तर:
भौगोलिक निकटता का क्षेत्रीय संगठनों के गठन पर निम्न सकारात्मक प्रभाव पड़ता है:
1.
भौगोलिक निकटता के कारण क्षेत्र विशेष में आने वाले देशों में संगठन की भावना विकसित
होती है।
2.
पारस्परिक निकटता से आपसी मेल-मिलाप तथा आर्थिक सहयोग एवं अन्तर्देशीय व्यापार को बढ़ावा
मिलता है।
3.
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था करके कम धन व्यय होता है और बचे हुए धन का उपयोग अपने-अपने
देश के विकास में कर सकते हैं।
अतः
स्पष्ट है कि भौगोलिक निकटता क्षेत्रीय संगठनों को शक्तिशाली बनाने में तथा उनके प्रभाव
वृद्धि में योगदान देती है।
प्रश्न 7. 'आसियान विजन 2020' की मुख्य-मुख्य बातें क्या हैं ?
अथवा
"विजन 2020 में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में आसियान की एक बहिर्मुखी भूमिका को
प्रमुखता दी गई है।" कथन के पक्ष में चार तर्क दीजिए। (उ. मा. शि. बो. राज.
2016)
उत्तर:
आसियान तेजी से बढ़ता हुआ एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन है। इसके विजन दस्तावेज
2020 में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में आसियान की एक बहिर्मुखी भूमिका को प्रमुखता दी
गयी है।
आसियान
विजन-2020 की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
1.
आसियान विजन 2020 में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में आसियान की एक बहिर्मुखी भूमिका को
प्रमुखता दी गयी है।
2.
आसियान द्वारा टकराव की जगह बातचीत द्वारा समस्याओं के हल निकालने को महत्त्व देना।
इस नीति से आसियान ने कम्बोडिया के टकराव एवं पूर्वी तिमोर के संकट को सम्भाला है।
3.
आसियान की असली ताकत अपने सदस्य देशों, सहभागी सदस्यों और बाकी गैर-क्षेत्रीय संगठनों
के बीच निरन्तर संवाद और परामर्श करने की नीति में है।
4.
आसियान एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्रीय संगठन है; जो एशियाई देशों और विश्व शक्तियों
को राजनीतिक और सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिए मंच उपलब्ध कराता है।
5.
एशियाई देशों के साथ व्यापार और निवेश मामलों की ओर ध्यान देना।
6.
नियमित रूप से वार्षिक बैठक का आयोजन करना।
प्रश्न 8. आसियान समुदाय के मुख्य स्तम्भों और उनके उद्देश्यों के बारे
में बताएँ।
उत्तर:
1. आसियान सुरक्षा समुदाय,
2.
आसियान आर्थिक समुदाय,
3.
आसियान सामाजिक-सांस्कृतिक समुदाय। 2003 में आसियान के तीन स्तम्भों के आधार पर इसे
समुदाय बनाने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके निम्न मुख्य उद्देश्य हैं
अश्य:
1.
आसियान सुरक्षा समुदाय-यह क्षेत्रीय विवादों को सैनिक टकराव तक न ले जाने की सहमति
पर आधारित है। इस स्तम्भ के उद्देश्यों में सम्मिलित है-आसियान सदस्य देशों में शान्ति,
निष्पक्षता, सहयोग तथा अहस्तक्षेप को बढ़ावा देना। साथ ही राष्ट्रों के आपसी अन्तर
तथा सम्प्रभुता के अधिकारों का सम्मान करना।
2.
आसियान आर्थिक समुदाय-आसियान आर्थिक समुदाय का उद्देश्य आसियान देशों का साझा बाजार
और उत्पादन आधार तैयार करना तथा इस क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में सहायता
करना है। यह संगठन इस क्षेत्र के देशों के आर्थिक विवादों को निपटाने के लिए बनी वर्तमान
व्यवस्था को भी सुधारता है।
3.
सामाजिक-सांस्कृतिक समुदाय-आसियान का यह समुदाय विकसित देशों में शैक्षिक विकास, समाज
कल्याण, जनसंख्या नियन्त्रण के साथ-साथ सदस्य देशों के बीच सामाजिक एवं सांस्कृतिक
विचारधारा का प्रचार-प्रसार करके संवाद और परामर्श के लिए रास्ता तैयार करता है।
प्रश्न 9. आज की चीनी अर्थव्यवस्था नियन्त्रित अर्थव्यवस्था से किस
तरह अलग है ?
उत्तर:
आर्थिक सुधारों के प्रारम्भ करने से चीन सबसे अधिक तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है
और माना जाता है कि इस गति से चलते हुए 2040 तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति,
अमेरिका से भी आगे निकल जायेगा। क्षेत्रीय मामलों, में साका प्रभाव बहुत बढ़ गया है।
आज की चीनी अर्थव्यवस्था पहले की नियन्त्रित अर्थव्यवस्था से किस प्रकार अलग है, इसको
निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है:
1.
आर्थिक सुधारों हेतु खुले द्वार की नीति-चीनी नेतृत्व ने 1970 के दशक में कुछ बड़े
नीतिगत निर्णय लिए। चीन ने सन् 1972 में संयुक्त राज्य अमेरिका से सम्बन्ध स्थापित
कर अपने राजनीतिक और आर्थिक एकान्तवाद को समाप्त किया। सन् 1978 में तत्कालीन नेता
देंग श्याओपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और खुले द्वार की नीति की घोषणा की। अब नीति
यह हो गयी है कि विदेश पूँजी और प्रौद्योगिकी के निवेश से उच्च्तर उत्पादकता को प्राप्त
किया जाए। बाजारमूलक अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए चीन ने अपना तरीका आजमाया।
2.
खेती एवं उद्योगों का निजीकरण-चीन ने शॉक थेरेपी को अपनाने के स्थान पर अपनी अर्थव्यवस्था
को चरणबद्ध ढंग से खोला। सन् 1982 में खेती का निजीकरण किया गया और उसके पश्चात् सन्
1998 में उद्योगों के व्यापार सम्बन्धी अवरोधों को केवल विशेष आर्थिक क्षेत्रों के
लिए ही हटाया गया; जहाँ विदेशी निवेशक अपने उद्यम लगा सकते हैं।
3.
कृषि और उद्योग दोनों का विकास-आज की चीनी अर्थव्यवस्था को जड़ता से उभरने का अवसर
मिला है। कृषि के निजीकरण के कारण कृषि उत्पादों तथा ग्रामीण आय में उल्लेखनीय वृद्धि
हुई है। उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तेज
रही। व्यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (स्पेशल इकॉनामिक जोन-SEZ) के
निर्माण से विदेश व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और कृषि और उद्योगों के विकास का
मार्ग-प्रशस्त हुआ।
4.
विश्व व्यापार संगठन में शामिल-राज्य द्वारा नियन्त्रित अर्थव्यवस्था वाला देश चीन
आज पूरे विश्व में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे आकर्षक देश बनकर उभरा है। चीन
के पास विदेशी मुद्रा का अब विशाल भण्डार है और इसके दम पर चीन दूसरे देशों में निवेश
कर रहा है। चीन सन् 2001 में विश्व व्यापार संगठन में भी शामिल हो गया। अब चीन की योजना
विश्व आर्थिकी से अपने जुड़ाव को और गहरा करके भविष्य की विश्व व्यवस्था को एक मनचाहा
रूप देने की है। परन्तु क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर चीन एक ऐसी जबरदस्त आर्थिक शक्ति
बनकर उभरा है कि सभी उसका लोहा मानने लगे हैं। इसी स्थिति के कारण जापान, अमेरिका और
आसियान तथा रूस सभी व्यापार के आगे चीन से बाकी विवादों को भुला चुके हैं। आशा की जाती
है कि चीन और ताइवान के मतभेद भी खत्म हो जायेंगे। सन् 1997 में वित्तीय संकट के बाद
आसियान देशों की अर्थव्यवस्था को टिकाए रखने में चीन के उभार ने काफी मदद की है, इसकी
नीतियाँ बताती हैं कि विकासशील देशों के मामले में चीन एक नई विश्व शक्ति के रूप में
उभरता जा रहा है।
प्रश्न 10. किस तरह यूरोपीय देशों ने युद्ध के बाद की अपनी परेशानियाँ
सुलझाई ? संक्षेप में उन कदमों की चर्चा करें जिनसे होते हुए यूरोपीय संघ की स्थापना
हुई।
उत्तर:
जब दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ तब यूरोप के नेता यूरोप की समस्याओं को लेकर काफी परेशान
रहे। दूसरे विश्वयुद्ध ने उन अनेक मान्यताओं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया जिसके
आधार पर यूरोपीय देशों के आपसी सम्बन्ध बने थे। सन् 1945 तक यूरोपीय देशों ने अपनी
अर्थव्यवस्था की बर्बादी तो झेली ही, उन मान्यताओं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त होते हुए
भी देख लिया, जिन पर यूरोप खड़ा था। यूरोपीय देशों की परेशानियों को सुलझाने के लिए
निम्नलिखित प्रयास किये गये
यूरोपीय
देशों ने युद्ध के पश्चात् की अपनी परेशानियों को निम्नलिखित प्रकार सुलझाया:
1.
शीतयुद्ध से सहायता-सन् 1945 के पश्चात् यूरोप के देशों में मेल-मिलाप को शीतयुद्ध
के प्रारम्भ होने से सहायता प्राप्त हुई।
2.
मार्शल योजना से अर्थव्यवस्था क पुनर्गठन-संयुक्त राज्य अमेरिका ने यूरोप की अर्थव्यवस्था
के पुनर्गठन के लिए बहुत अधिक सहायता प्रदान की। इसे 'मार्शल योजना' के नाम से जाना
जाता है।
3.
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था का जन्म-संयुक्त राज्य अमेरिका ने अप्रैल 1949 में स्थापित
उत्तर अटलांटिक सन्धि संगठन (नाटो) के तहत एक सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को जन्म दिया।
4.
यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना-मार्शल-योजना के तहत ही सन् 1948 में यूरोपीय
आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना की गयी; जिसके माध्यम से पश्चिमी यूरोप के देशों को
आर्थिक मदद की गयी। यह एक ऐसा मंच बन गया; जिसके माध्यम से पश्चिमी यूरोप के देशों
ने व्यापार और आर्थिक मामलों में एक-दूसरे की मदद शुरू की।
5.
यूरोपीय परिषद का गठन-सन् 1949 में गठित यूरोपीय परिषद राजनीतिक सहयोग के मामले में
एक अगला कदम साबित हुई।
6.
अर्थव्यवस्था के पारस्परिक एकीकरण की प्रक्रिया-यूरोप के पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था
के आपसी एकीकरण की प्रक्रिया चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ी और इसके परिणामस्वरूप सन्
1957 में यूरोपियन इकोनॉमिक कम्युनिटी का गठन हुआ। यूरोपीय पार्लियामेण्ट के गठन के
पश्चात् इस प्रक्रिया ने राजनीतिक स्वरूप प्राप्त कर लिया। सोवियत गुट के पतन के बाद
इस प्रक्रिया में तेजी आई और सन् 1992 में इस प्रक्रिया की परिणति यूरोपीय संघ की स्थापना
के रूप में हुई। यूरोपीय संघ के रूप में समान विदेश और सुरक्षा नीति से आन्तरिक मामलों
तथा न्याय से जुड़े मुद्दों पर सहयोग और एक समान मुद्रा के चलन के लिए रास्ता तैयार
हो गया।
एक लम्बे समय में बना यूरोपीय संघ आर्थिक सहयोग वाली
व्यवस्था से बदलकर अधिक से अधिक राजनीतिक रूप लेता गया है। अब यूरोपीय संघ स्वयं काफी
हद तक एक विशाल राष्ट्र राज्य की तरह ही काम करने लगा है। यूरोपीय संघ का कोई संविधान
नहीं बन सका, लेकिन इसका अपना झण्डा, गान, स्थापना दिवस और अपनी मुद्रा है। नये सदस्यों
को शामिल करते हुए यूरोपीय संघ ने सहयोग के दायरे में विस्तार की कोशिश की। घरोपीय
संघ की स्थापना के महत्त्वपूर्ण कदम यूरोपीय संघ की स्थापना के महत्त्वपूर्ण कदम निम्नलिखित
हैं:
1.
यूरोपीय देशों ने अपने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने हेतु सन् 1948 में मार्शल-योजना
के तहत यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना की।
2.
यूरोपीय देशों में आपसी राजनैतिक सहयोग बढ़ाने हेतु सन् 1949 में यूरोपीय परिषद् की
स्थापना की।
3.
सन् 1957 में यूरोपीय देशों ने मिलकर यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना की।
4.
जून 1979 में यूरोपीय संसद के लिए प्रथम प्रत्यक्ष चुनाव हुआ।
5.
सन् 1985 में यूरोपीय देशों के मध्य शांगेन सन्धि हुई; जिसने यूरोपीय समुदाय के देशों
के मध्य सीमा नियन्त्रण समाप्त कर दिया।
6.
अक्टूबर 1990 में यूरोपीय समुदाय के देशों के प्रयासों से जर्मनी का एकीकरण हुआ।
7.
फरवरी 1992 में यूरोपीय देशों ने मास्ट्रिस्ट सन्धि पर हस्ताक्षर करके यूरोपीय संघ
की स्थापना की।
प्रश्न 11. यूरोपीय संघ को क्या चीजें एक प्रभावी क्षेत्रीय संगठन बनाती
हैं ?
अथवा : "यूरोपीय संघ एक अति प्रभावशाली क्षेत्रीय संगठन है।"
किन्हीं चार उपयुक्त तर्कों द्वारा इस कथन को न्यायोचित ठहराइए।
अथवा : यूरोपीय संघ को प्रभावशाली संगठन बनाने वाले किन्हीं चार कारकों
की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
यूरोपीय संघ को निम्न तत्त्व एक प्रभावी क्षेत्रीय संगठन सिद्ध करते हैं
1.
समान राजनीतिक रूप-यूरोपीय संघ आर्थिक सहयोग वाली व्यवस्था से बदलकर अधिक से अधिक राजनीतिक
रूप लेता गया है। यूरोपीय संघ का अपना एक झण्डा, गान, स्थापना दिवस तथा अपनी मुद्रा
यूरो है। इससे साझी विदेश नीति और सुरक्षा नीति में मदद मिली है।
2.
सहयोग की नीति-यूरोपीय संघ ने सहयोग की नीति को अपनाया है। यूरोपीय संगठन के माध्यम
से पश्चिमी यूरोप के देशों ने एक-दूसरे की मदद की, इससे भी इस संघ का प्रभाव बढ़ा।
इस महाद्वीप के इतिहास ने सभी यूरोपीय देशों को सिखा दिया कि क्षेत्रीय शान्ति और सहयोग
ही अन्ततः उन्हें समृद्धि और विकास दे सकता है। संघर्ष और युद्ध, विनाश और पतन का मूल
कारण होते हैं।
3.
आर्थिक प्रभाव या शक्ति-यूरोपीय संघ का आर्थिक प्रभाव बहुत अधिक है। सन् 2016 में वह
विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी तथा इसका कल घरेलू उत्पादन 17,000 अरब डॉलर
था जो अमेरिका के ही लगभग है। इसकी मुद्रा यूरो, अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व के लिए खतरा
बन सकती है। विश्व व्यापार में इसकी हिस्सेदारी अमेरिका से तीन गुनी अधिक है और इसी
के चलते वह अमेरिकी और चीन से व्यापारिक विवादों में पूरी धौंस के साथ बात करता है।
इसकी आर्थिक शक्ति का प्रभाव इसके निकटतम देशों पर ही नहीं बल्कि एशिया और अफ्रीका
के दूर-दराज के देशों पर भी है।
4.
राजनीति और कूटनीति का प्रभाव-इस संघ का राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव भी कम नहीं है।
इसके दो सदस्य देश ब्रिटेन और फ्रांस सुरक्षा-परिषद के स्थायी सदस्य हैं। संघ के कई
अन्य सदस्य देश सुरक्षा-परिषद् के अस्थायी सदस्यों में शामिल हैं।
5.
विश्व के अन्य देशों की नीतियों को प्रभावित करना-यूरोपीय संघ के विकास एवं एकीकरण
के कारण विश्व के अन्य देशों को प्रभावित करने की क्षमता भी है। वह अमेरिका को प्रभावित
कर सकता है और विश्व की आर्थिक, सामाजिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है।
6.
सैनिक एवं तकनीकी प्रभाव-यूरोपीय संघ के पास विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना है। इसका
कुल बजट अमेरिका के बाद सबसे अधिक है। यूरोपीय संघ के दो देशों ब्रिटेन एवं फ्रांस
के पास परमाणु हथियार हैं। विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के मामले में यूरोपीय संघ
का दुनिया में दूसरा स्थान है।
प्रश्न 12. चीन और भारत की उभरती अर्थव्यवस्था में मौजूदा एकध्रुवीय
विश्व व्यवस्था को चुनौती दे सकने की क्षमता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने
तर्कों से अपने विचारों को पुष्ट करें।
उत्तर:
उक्त कथन से हम पूर्णतः सहमत हैं। इस विचार की पुष्टि निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट होती
है
1.
विकासशील देश भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएँ विकसित होती हुई अर्थव्यवस्थाएँ हैं। ये
नयी अर्थव्यवस्था उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं मुक्त व्यापार नीति की समर्थक हैं। ये संयुक्त
राज्य अमेरिका और अन्य बहुराष्ट्रीय निगम समर्थक कम्पनियाँ स्थापित और संचालन करने
वाले राष्ट्रों को आकर्षित करने के लिए, अन्य सुविधाएँ प्रदान करके अपने देश के आर्थिक
विकास की गति को काफी बढ़ाने की क्षमता रखते हैं।
2.
चीन और भारत की मित्रता और सहयोग संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए चिन्ता का कारण बन सकता
है, ये एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के संचालन करने वाले राष्ट्र संयुक्त राज्य अमेरिका
और उसके मित्रों को चुनौती देने में सक्षम हैं।
3.
आज दोनों ही राष्ट्र अपने यहाँ वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
प्रगति कर चुके हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने शक्ति के प्रदर्शन से प्रभावित
कर सकते हैं।
4.
विश्व में चीन और भारत विशाल जनसंख्या वाले देश हैं, ये संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए
एक विशाल बाजार प्रदान कर सकते हैं, साथ ही इन दोनों देशों के कुशल कारीगर और श्रमिक
पश्चिमी देशों एवं अन्य देशों में अपने हुनर से बाजार को सहायता दे सकते हैं।
5.
चीन और भारत; विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण लेते समय अमेरिका और बड़ी
शक्तियों के एकाधिकार की प्रवृत्ति को नियन्त्रित कर सकते हैं।
6.
दोनों देशों के मध्य सड़क निर्माण, रेल लाइन विस्तार, वायुयान और जलमार्ग सम्बन्धी
सुविधाओं के क्षेत्र में पारस्परिक आदान-प्रदान और सहयोग की नीतियाँ अपनाकर स्वयं को
दोनों राष्ट्र शीघ्र ही महाशक्तियों की श्रेणी में ला सकते हैं। इन देशों के इन्जीनियर्स
ने विश्व की सुपर शक्तियों को अत्यधिक प्रभावित किया है।
7.
दोनों देश आतंक को समाप्त करने में सहयोग देकर तस्करी रोकने, नशीली दवाओं के उत्पादन
पर रोक आदि में अपनी भूमिका द्वारा विश्व व्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। निःसन्देह
चीन और भारत ऐसी उभरती अर्थव्यवस्थाएँ हैं-जो मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था को चुनौती
दे सकने की क्षमता रखते हैं।
प्रश्न 13. मुल्कों की शान्ति और समृद्धि क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों
को बनाने और मजबूत करने पर टिकी है। इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
मुल्कों की शान्ति और समृद्धि क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों को बनाने और उन्हें मजबूत करने
पर टिकी हुई है क्योंकि इस प्रकार के संगठन व्यापार, उद्योग-धन्धों, खेती आदि संस्थाओं
को बढ़ावा देते हैं। इन संगठनों के निर्माण के कारण ही रोजगार में वृद्धि होती है और
गरीबी समाप्त होती है। किसी भी देश के विकास में क्षेत्रीय आर्थिक संगठन का विशिष्ट
महत्त्व होता है। क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बाजार शक्तियों और देश की सरकारों की नीतियों
से विशेष सम्बन्ध रखते हैं। प्रत्येक देश अपने यहाँ कृषि, उद्योगों और व्यापार को आगे
बढ़ाने के लिए परस्पर क्षेत्रीय राज्यों से सहयोग माँगते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें
उनके उद्योगों के लिए कच्चा माल मिले। यह तभी सम्भव होगा जब उन क्षेत्रों में शान्ति
होगी। ये संगठन विभिन्न देशों में पूँजी निवेश, श्रम गतिशीलता आदि के विस्तार में सहायक
होते हैं और अपने क्षेत्रों में समृद्धि लाते हैं।
प्रश्न 14. भारत और चीन के बीच विवाद के मामलों की पहचान करें और बताएँ
कि वृहत्तर सहयोग के लिए इन्हें कैसे निपटाया जा सकता है ? अपने सुझाव भी दीजिए।
उत्तर:
भारत और चीन के बीच विवाद के निम्नलिखित मामले प्रमुख हैं:
1.
सीमा विवाद-चीन ने कुछ ऐसे नक्शे छापे जिनमें भारतीय भू-भाम पर चीनी दावा किया गया
था। यहीं से सर्वप्रथम दोनों देशों के मध्य सीमा विवाद उत्पन्न हुआ। चीन ने पाकिस्तान
के साथ सन्धि करके कश्मीर का कुछ भाग अपने अधीन कर लिया जिसे तथाकथित पाकिस्तान द्वारा
हथियाए गए कश्मीर का हिस्सा माना जाता है। चीन, भारत के एक राज्य अरुणाचल प्रदेश पर
भी अपना दावा करता है। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय चीन ने बहुत से भारतीय क्षेत्र
पर अधिकार कर लिया; जिसे आज भी चीन अपने क्षेत्र में बताता है।
2.
मैकमोहन रेखा-मैकमोहन रेखा भारत और चीन के क्षेत्र की सीमा निर्धारित करती है। इस रेखा
को सन् 1914 में भारत, चीन एवं तिब्बत ने मिलकर सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। सन्
1956 के पश्चात् चीन ने इस सीमा रेखा पर अपनी आपत्ति को प्रकट करना प्रारम्भ कर दिया
था। अतः यह सीमा रेखा दोनों देशों के मध्य विवाद का विषय बन गयी है।
3.
तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा का मुद्दा-तिब्बत पर चीनी कब्जा होने के पश्चात् से तिब्बती
धर्मगुरु भारत में रह रहे हैं। चीन नहीं चाहता है कि दलाईलामा को भारत शरण दे। चीन
को सदैव इस बात पर आपत्ति रही है कि भारत दलाईलामा का समर्थन करता है। यह भी दोनों
देशों के मध्य विवाद का कारण है।
4.
चीन का पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति करना-चीन द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही हथियारों
की आपूर्ति भी दोनों देशों के मध्य विवाद का विषय बनी हुई है। चीन द्वारा पाकिस्तान
को भेजे जा रहे हथियारों का इस्तेमाल पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध की जा रही आतंकवादी
गतिविधियों में किया जा रहा है। इसके लिए भारत ने कई बार चीन को अपना विरोध प्रकट किया
है
5.
भारत द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण-चीन; भारत के परमाणु परीक्षणों का विरोध करता
है। सन् 1998 में भारत द्व रा किये गये परमाणु परीक्षण का चीन ने काफी विरोध किया,
जबकि वह स्वयं परमाणु अस्त्र-शस्त्र रखता है।
6.
चीन द्वारा सीमा पर बस्तियाँ बनाने का फैसला-चीन द्वारा सन् 1950 में भारत-चीन सीमा
पर बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध एकदम से खराब हो गये।
भारत-चीन
मतभेद दूर करने के सुझाव
1.
सांस्कृतिक सम्बन्धों का निर्माण-चीन और भारत दोनों के बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध सुदृढ़
हों। भाषा और साहित्य का आदान-प्रदान हो। एक-दूसरे के देश में लोग भाषा और साहित्य
का अध्ययन करें।
2.
नेताओं का आवागमन-दोनों ही देशों के प्रमुख नेताओं का एक-दूसरे देश में आना जाना रहना
चाहिए ताकि वे अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें जिससे कि सद्भाव और सहयोग की भावना
पैदा हो।
3.
व्यापारिक सम्बन्ध-दोनों ही देशों में तकनीक सम्बन्धी सामान व व्यक्तियों का अदान-प्रदान
हो, कम्प्यूटर आदि के आदान-प्रदान से भारत और चीन दोनों देशों में आन्तरिक व्यापार
को बढ़ावा दिया जा सकता है।
4.
आतंकवाद पर संयुक्त दबाव-भारत और चीन आतंकवाद को समाप्त करने में एक-दूसरे का सहयोग
कर सकते हैं और ऐसे देशों पर दबाव डाल सकते हैं; जो आतंकवादियों को शरण देते हैं। यह
तभी हो सकता है कि जब दोनों ही देश संयुक्त रूप से दबाव डालें।
5.
पर्यावरण सुरक्षा समस्या का समाधान-दोनों ही देश पर्यावरण सुरक्षा की समस्या का संयुक्त
रूप से समाधान कर सकते हैं और एक-दूसरे देश में प्रदूषण फैलाने वाली समस्या को दूर
करने में सहयोग कर सकते हैं।
6.
विभिन्न क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण वातावरणा तैयार करना-चीन और भारत तिब्बत शरणार्थियों
और तिब्बत से जुड़ी समस्याओं, ताईवान की समस्या के समाधान और भारतीय सहयोग एवं नैतिक
समर्थन बढ़ाकर, निवेश को बढ़ाकर, मुक्त व्यापार नीति, वैश्वीकरण और उदारीकरण, संचार-साधनों
में सहयोग करके एक मैत्रीपूर्ण वातावरण बना सकते हैं। निष्कर्ष में हम कह सकते हैं
कि परस्पर सहयोग एवं बातचीत द्वारा दोनों देशों के बीच दूरी कम हो सकती है और जो मनमुटाव
की स्थिति रही है; वह समाप्त की जा सकती है। संघर्ष से व्यवस्था को कभी गति नहीं मिलती।
सहयोग से विकास होता है और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर सम्मान बढ़ता है।