Class XII (Political Science) 7. जन आंदोलनों का उदय (Rise of Popular Movements)

7. जन आंदोलनों का उदय

7. जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 1. चिपको आन्दोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन - कौन से कथन गलत हैं।

(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आन्दोलन था।

(ख) इस आन्दोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।

(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब - विरोधी आन्दोलन था।

(घ) इस आन्दोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए।

प्रश्न 2. नीचे लिखें कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें

(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतंत्र को हानि पहँचा रहे हैं।

(ख) सामाजिक आन्दोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।

(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आन्दोलनों का उदय हुआ।

उत्तर:

(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं।

(ख) उपर्युक्त कथन सही है।

(ग) उपर्युक्त कथन सही है।

प्रश्न 3. उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में (अब उत्तराखण्ड) सन् 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आन्दोलन का जन्म हुआ? इस आन्दोलन का क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर: चिपको आन्दोलन के कारण-चिपको आन्दोलन के कारण निम्नांकित थे।

(i) इस आन्दोलन का प्रारम्भ उत्तराखण्ड के दो - तीन गाँवों से हुआ था। इन गाँवों के निवासियों ने वन विभाग से अपील की कि खेती-बाड़ी से संबंधित औजारों के निर्माण हेतु अंगू के पेड़ काटने की अनुमति प्रदान की जाये। वन विभाग ने अनुमति देने से मना कर दिया। परंतु वन विभाग ने खेल सामग्री निर्माता एक कंपनी को जमीन का यही भाग व्यावसायिक उपयोग हेतु दे दिया। इससे गाँव वालों में विरोध उत्पन्न हुआ।

(ii) इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी तथा आर्थिक शोषण के कहीं बड़े सवाल उठने लगे। गाँव वालों ने माँग रखी कि वन की कटाई का ठेका किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल-जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उपयुक्त नियंत्रण होना चाहिए।

(iii) गाँववासी चाहते थे कि सरकार लघु - उद्योगों के लिए कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए व इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को हानि पहुँचाए बिना यहाँ का विकास निश्चित करे। आन्दोलन ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा भी उठाया।

(iv) इस क्षेत्र में वनों की कटाई के दौरान ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब आपूर्ति का भी व्यवसाय करते थे। अतः स्त्रियों ने शराबखोरी की लत के विरोध में भी आवाज बुलंद की। धीरे - धीरे इसमें कुछ और सामाजिक मुद्दे आकर जुड़ गए। चिपको आन्दोलन का प्रभाव - आखिरकार गाँव वालों के प्रयासों से चिपको आन्दोलन को सफलता मिली तथा सरकार ने पन्द्रह सालों के लिए हिमालयी क्षेत्र में वृक्षों की कटाई पर रोक लगा दी, जिससे इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से पहले की अवस्था में आ जाए। यह आन्दोलन सफल रहा तथा हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यह आन्दोलन सन् 1970 के दशक व उसके बाद के वर्षों में देश के विभिन्न भागों में उठे विभिन्न जन-आन्दोलनों का प्रतीक बन गया।

प्रश्न 4. भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

उत्तर: भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दे- भारतीय किसान यूनियन ने किसानों की तरफ ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से निम्नलिखित मुद्दे उठाए:

1. बिजली की दरों में वृद्धि का विरोध करना।

2. सन् 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण के प्रभाव को देखते हुए नगदी फसलों के सरकारी खरीद मूल्यों में वृद्धि की माँग करना।

3. कृषि उत्पादों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगे प्रतिबन्धों को हटाने पर बल दिया।

4. किसानों को उचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करना।

5. किसानों के बकाया कर्ज माफ करना।

6. किसानों के लिए पेंशन के प्रावधान की माँग करना।

सफलताएँ- भारतीय किसान यूनियन को निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त हुई:

(i) भारतीय किसान यूनियन के कार्यकर्ता तथा नेता जिला समाहर्ता के कार्यालय के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके पश्चात् इनकी माँगें मान ली गयीं। यह धरना बहुत अनुशासित धरना था तथा जिन दिनों किसान धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गाँवों से उन्हें लगातार राशन व पानी प्राप्त होता रहा। मेरठ के इस धरने को ग्रामीण शक्ति का अथवा काश्तकारों की शक्ति का एक बड़ा प्रदर्शन माना गया।

(ii) सन् 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक भारतीय किसान यूनियन ने स्वयं को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की भाँति सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में उपस्थित अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ अन्य माँगें मनवाने में भी सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 5. आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान कुछ गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

उत्तर: आन्ध्र प्रदेश में चलाए गए शराब - विरोधी आन्दोलन ने जिन गम्भीर मुद्दों की तरफ ध्यान आकर्षित किया, वे निम्नांकित थे।

1. आन्ध्र प्रदेश में शराब विरोधी या ताड़ी - विरोधी आन्दोलन का नारा अत्यन्त साधारण था-'ताड़ी की बिक्री बंद करो।' लेकिन इस साधारण नारे ने क्षेत्र के व्यापक सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक मसलों और महिलाओं के जीवन को गहराई तक प्रभावित किया।

2. स्थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दों को अपने आन्दोलन में उठाना प्रारम्भ किया। वे घरेलू हिंसा के मुद्दे पर भी खुले तौर पर चर्चा करने लगी। आन्दोलन ने पहली बार महिलाओं को घरेलू हिंसा जैसे व्यक्तिगत मुद्दों पर बोलने का अवसर दिया।

3. ताड़ी व्यवसाय को लेकर अपराध व राजनीति के मध्य एक घनिष्ठ संबंध बन गया था। राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से बहुत अधिक राजस्व की प्राप्ति होती थी। अतः वह इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगा रही थी।

4. आठवें दशक के मध्य महिला आन्दोलन परिवार के अन्दर व उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केन्द्रित रहा। इन समूहों ने दहेज प्रथा के विरोध में मुहिम चलाई तथा लैंगिक समानता के सिद्धान्त पर आधारित व्यक्तिगत व सम्पत्ति कानूनों की माँग की।

5. ताड़ी - विरोधी आन्दोलन महिला आन्दोलन का एक हिस्सा बन गया। इससे पूर्व घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कार्य करने वाले महिला समूह आमतौर पर शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं के बीच ही सक्रिय थे और यह बात पूरे देश पर लागू होती थी। महिला समूहों में इस सतत् कार्य से यह समझदारी विकसित होनी प्रारम्भ हुई कि औरतों पर होने वाले अत्याचार व लैंगिक भेदभाव का मुद्दा अत्यन्त जटिल है।

6. इस प्रकार के अभियानों ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की। धीरे-धीरे महिला आन्दोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मुद्दों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा।

प्रश्न 6. क्या आप शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।

अथवा : ताड़ी - विरोधी आन्दोलन महिला आन्दोलन का हिस्सा था। कारण बताइए।

उत्तर: जब भारतीय किसान यूनियन उत्तर प्रदेश में किसानों को लामबंद कर रही थी उसी समय एक अलग प्रकार का आन्दोलन दक्षिणी राज्य आन्ध्र प्रदेश में आकार ले रहा था। यह ताड़ी (शराब) विरोधी आन्दोलन था। ये महिलाएँ अपने आस - पड़ोस में शराब की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थीं। सन् 1992 के सितम्बर और अक्टूबर माह में इस तरह की खबरें तेलुगु प्रेस में लगभग रोजाना छपती थीं।

हम शराब विरोधी आन्दोलन को महिला आन्दोलन का दर्जा दे सकते हैं क्योंकि।

(i) ताड़ी विरोधी आन्दोलन महिलाओं का एक स्व - स्फूर्त आन्दोलन था। ये महिलाएं अपने आस-पड़ोस में शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाने की माँग कर रही थीं। सन् 1992 के सितम्बर व अक्टूबर माह में ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। यह लड़ाई शराब माफिया तथा सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आन्दोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्य में ताड़ी विरोधी आन्दोलन के रूप में जाना जाने लगा।

(ii) आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के एक दूर-दराज के गाँव दुबरगंटा में सन् 1990 के प्रारम्भिक दौर में महिलाओं के मध्य प्रौढ़ - साक्षरता कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया, जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरुषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी इत्यादि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामवासियों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी। इसके चलते वे शारीरिक व मानसिक रूप से भी कमजोर हो गए थे। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। शराब की खपत लगातार बढ़ने से लोगों पर कर्ज का बोझ बढ़ा। पुरुष अपने काम से लगातार अनुपस्थित रहने लगे। शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार पर एकाधिकार बनाए रखने हेतु अपराधों में व्यस्त थे।

नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी के विरोध में आगे आईं तथा उन्होंने शराब की दुकानों को बंद करने हेतु दबाव बनाना प्रारम्भ कर दिया। यह खबर तेजी से प्रसारित हुई तथा लगभग 5000 गाँवों की महिलाओं ने आन्दोलन में सहभागिता करना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिबन्ध संबंधी एक प्रस्ताव को पारित कर इसे जिला कलेक्टर को भेजा गया। नेल्लोर जिले में ताड़ी की नीलामी इस बार रद्द हुई। नेल्लोर जिले का यह आन्दोलन धीरे-धीरे सम्पूर्ण राज्य में फैल गया।

(iii) महिलाओं ने पंचायतों, विधानसभाओं, संसद में अपने लिए एक - तिहाई स्थानों के आरक्षण तथा सरकार के समस्त विभागों जैसे - वायुयान, पुलिस सेवाएँ आदि में समान अवसरों एवं पदोन्नति की बात की। उन्होंने न केवल धरने दिए, जुलूस निकाले बल्कि विभिन्न मुद्दों पर महिला आयोग, राष्ट्रीय आयोग और लोकतांत्रिक मंचों से भी आवाज उठाई।

(iv) संविधान में 73वाँ एवं 74वाँ संशोधन हुआ। स्थानीय निकायों में महिलाओं के स्थान आरक्षित हो गए। विधानसभाओं व संसद में आरक्षण हेतु विधेयक अभी पारित नहीं हुए हैं, परन्तु यह प्रक्रिया चल रही है। अनेक राज्यों में शराबबंदी लागू कर दी है तथा महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों पर कठोर दण्ड दिए जाने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार ताड़ी विरोधी आन्दोलन महिला आन्दोलन का एक हिस्सा बन गया।

प्रश्न 7. नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजनाओं का विरोध क्यों किया?

उत्तर: गुजरात के सरदार सरोवर और मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे बड़ी और बहु-उद्देश्यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन चला। इस आन्दोलन ने बाँधों के निर्माण का विरोध किया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन इन बाँधों के निर्माण के साथ - साथ देश में चल रही विकास परियोजनाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाता रहा है। नर्मदा आन्दोलन अपने गठन की शुरुआत से ही सरदार सरोवर परियोजना को विकास परियोजनाओं के मुद्दों से जोड़कर देखता रहा है। आन्दोलनकारियों द्वारा बाँध परियोजनाओं के निर्माण के विरोध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए।

1. बाँध से प्रकृति, नदियों, पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जिस क्षेत्र में बाँध बनाए जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर - बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर उद्योगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ; सरदार सरोवर परियोजना पूर्ण होने पर संबंधित राज्यों (गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र) के 245 गाँव डूब (जल - मग्न) के क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

2. परियोजना पर किए जाने वाले खर्च में हेरा-फेरी के दोष उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयंसेवकों का प्रमुख उद्देश्य था।

3. वे प्रभावित लोगों की आजीविका तथा उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को भी बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल तथा जमीन पर प्रभावित लोगों का नियंत्रण अथवा उन्हें उचित मुआवजा तथा उनका पुनर्वास चाहते थे।

4. आन्दोलन ने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी उठाया कि लोकतंत्र में कुछ लोगों के लाभ के लिए अन्य लोगों को नुकसान क्यों उठाना चाहिए?

5. ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागीदारी होनी चाहिए।

प्रश्न 8. क्या आन्दोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है ? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

उत्तर: जन आन्दोलनों का इतिहास हमें लोकतांत्रिक राजनीति को बेहतर तरीके से समझने में सहायता प्रदान करता है। इन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की कमियों को दूर करना था। समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को एक सार्थक. दिशा देकर इन आन्दोलनों ने एक प्रकार से लोकतंत्र की रक्षा की है। सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतंत्र के जनाधार को बढ़ाया है। अहिंसक व शान्तिपूर्ण आन्दोलनों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है। अपने उत्तर की पुष्टि में अग्रलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

(i) चिपको आन्दोलन अहिंसक, शान्तिपूर्ण ढंग से चलाया गया एक व्यापक जन - आन्दोलन था। इससे वृक्षों की कटाई, वनों का उजड़ना बंद हुआ। पशु-पक्षियों, आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन तथा स्वास्थ्यवर्द्धक पर्यावरण मिला, सरकार लोकतांत्रिक माँगों के सामने झुकी।

(ii) दलित पैंथर्स के नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलनों, सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं व रचनाओं ने, आदिवासी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों में चेतना जगाई। दलित पैंथर्स जैसे राजनैतिक दल व संगठन बने। जातिगत भेदभाव व अस्पृश्यता को धक्का लगा। समाज में समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनैतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।

(iii) वामपंथियों द्वारा शान्तिपूर्वक चलाए गए किसान व मजदूर आन्दोलन द्वारा जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी व सर्वहारा वर्ग की उचित माँगों हेतु सरकार को जगाने में सफलता प्राप्त हुई।

(iv) ताड़ी विरोधी आन्दोलन ने नशाबंदी व मद्य निषेध के मुद्दे पर वातावरण तैयार किया। महिलाओं से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ (यौन उत्पीड़न, घरेलू समस्या, दहेज प्रथा तथा महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण दिए जाने) उठीं। संविधान में कुछ संशोधन हुए तथा कानून बनाए गए। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि इन आन्दोलनों से लोकतंत्र को मजबूत आधार प्राप्त हुआ है। ये जन आन्दोलन तथा कार्रवाइयाँ जनता की जायज माँगों का नुमाइंदा बनकर उभरे हैं तथा उन्होंने नागरिकों के एक बड़े समूह को अपने साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त की है।

प्रश्न 9. दलित पँथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए?

उत्तर: बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के प्रारम्भिक वर्षों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें अधिकतर शहर की झुग्गी - बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में दलित युवाओं का एक संगठन 'दलित पैंथर्स' सन् 1972 ई. में गठित हुआ।

मुद्दे - दलित पैंथर्स के द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दे निम्नांकित थे।

1. स्वतंत्रता के पश्चात् के वर्षों में दलित समूह मुख्यतया जाति आधारित असमानता तथा भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर जागरूक थे कि संविधान में जाति आधारित किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध गारंटी दी गयी है।

2. भारतीय संविधान में अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त कर दिया गया है। सरकार द्वारा इसके अन्तर्गत साठ व सत्तर के दशक में कानून बनाए गए। इसके बावजूद प्राचीन काल में जिन जातियों को अछूत माना गया था, उनके साथ इस नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव व हिंसा का व्यवहार कई रूपों में लगातार जारी रहा।

3. दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ यौन - अत्याचार होते थे। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी - छोटी बातों को लेकर दलितों पर सामूहिक अत्याचार किए जाते थे। दलितों के सामाजिक व आर्थिक उत्पीड़न को रोक पाने में कानून की व्यवस्था अपर्याप्त सिद्ध हो रही थी।

प्रश्न 10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें: ........ लगभग सभी नए सामाजिक आन्दोलन नयी समस्याओं जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन ....... के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाज व्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आन्दोलन अतीत की क्रान्तिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आन्दोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है ........ सामाजिक आन्दोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन-आन्दोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो पाता है। ये आन्दोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। 'इस' या 'उस' के विरोध (पश्चिम - विरोधी, पूँजीवादी. विरोधी, 'विकास'-विरोधी आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों-ऐसी बात नहीं।

(क) नए सामाजिक आन्दोलन और क्रान्तिकारी विचारधाराओं में क्या अंतर है?

(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आन्दोलनों की सीमाएँ क्या - क्या हैं?

(ग) यदि सामाजिक आन्दोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें 'बिखरा' हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केन्द्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।

उत्तर: (क) सामाजिक आन्दोलन समाज से जुड़े हुए मामलों या समस्याओं से संबंधित होते हैं उदाहरणार्थ - जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव आदि के विरोध में चलाए जाने वाले सामाजिक आन्दोलन। इसी प्रकार के अन्य आन्दोलन हैं - ताड़ी विरोधी आन्दोलन तथा अन्य नशीले पदार्थ पर रोक लगाए जाने के पक्ष में आन्दोलन। जबकि क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग यथाशीघ्र राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव लाना चाहते हैं। ये येन - केन - प्रकारेण लक्ष्यों की पूर्ति चाहते हैं, जैसे - नक्सलवादी आन्दोलन तथा मार्क्सवादी - लेनिनवादी समूह।

(ख) सामाजिक आन्दोलन बिखरे हुए हैं तथा उनमें एकजुटता का अभाव है। सामाजिक आन्दोलन के पास सामाजिक बदलाव के लिए कोई ढाँचागत योजना नहीं है।

(ग) सामाजिक आन्दोलन द्वारा उठाए गए विशिष्ट मुद्दों के कारणं यह कहा जा सकता है कि ये आन्दोलन अपने मुद्दे पर अधिक केन्द्रित हैं।

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