8.
किसान, जमींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
प्रश्न 1. कृषि इतिहास लिखने के लिए 'आइन' को स्रोत के रूप में इस्तेमाल
करने में कौन-सी समस्याएँ हैं ? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर-समस्याएँ
कृषि-इतिहास लिखने के लिए 'आइन' को स्रोत के रूप में प्रयोग करने में निम्नलिखित समस्याएँ
हैं
1.
आइन से प्राप्त जानकारी शासक वर्ग का दृष्टिकोण है। यह किसानों के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व
नहीं करती।
2.
आइन के आँकड़ों के जोड़ में कई गलतियाँ पाई गई हैं।
3.
आइन के संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ हैं क्योंकि सभी प्रान्तों से आँकड़े समान
रूप से एकत्रित नहीं किए गए।
4.
जहाँ प्रान्तों के लिए राजकोषीय आँकड़े बड़े विस्तार से दिए गए हैं, वहीं आइन में उन्हीं
प्रान्तों के कीमतों और मजदूरी जैसे महत्वपूर्ण आँकड़े सही ढंग से दर्ज नहीं किए गए
हैं।
5.
मूल्यों और मजदूरी की दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी गयी है वह मुगल साम्राज्य
की राजधानी आगरा या उसके आसपास के क्षेत्रों से ली गयी है। इससे स्पष्ट है कि देश के
अन्य भागों के लिए ये आँकड़े अप्रासंगिक हैं।
समस्या
से निपटना:
इतिहासकार
इन समस्याओं से निम्नलिखित प्रकार से निपट सकते हैं
1.
इतिहासकार आइन के साथ-साथ उन स्रोतों का भी प्रयोग कर सकते हैं जो मुगलों की राजधानी
से दूर के प्रदेशों में लिखे गए थे।
2.
इतिहासकार ईस्ट इंडिया कम्पनी के उन दस्तावेजों का प्रयोग कर सकते हैं; जिनमें पूर्वी
भारत में कृषि सम्बन्धों पर पकाश डाला गया हो।
इस
स्रोतों से यह भी जानकारी मिलती है कि किसान राज्य को किस दृष्टिकोण से देखते थे तथा
राज्य से उन्हें किस प्रकार के सय की उम्मीद थी।
प्रश्न 2. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में
कृषि उत्पादन को किस हद तक महज गुजारे के लिए खेती कह सकते हैं ? अपने र के कारण स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर:
यद्यपि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के मध्य मुगल साम्राज्य में गेहूँ, चावल, बाजरा
आदि अनाजों की खेती की जाती थी। वास्तव में इस समय कृषि; मात्र पेट भरने के लिये नहीं
थी अपितु राजस्व का भी एक अति महत्वपूर्ण स्रोत थी। इस समय कृषि से सम्बन्धित विभिन्न
तथ्यों को निम्नलिखित विवरण से समझा जा सकता है
(1).
मुगलकाल में कृषि दो फसल चक्रों; खरीफ तथा रबी के रूप में की जाती थी। सूखे क्षेत्रों
तथा बंजर जमीन को छोड़कर अधिकतर स्थानों पर यह दो फसली चक्र गतिमान रहता था। जहाँ वर्षा
तथा सिंचाई के उन्नत साधन विद्यमान थे, वहाँ
वर्ष में तीन बार फसल भी प्राप्त की जाती थी।
(2).
हमें विभिन्न मुगलकालीन विवरणों में जिन्स-ए-कामिल शब्द प्राप्त होता है, इसका अर्थ
सर्वोत्तम फसल से लगाया जाता है। राज्य भी इस प्रकार की फसलों की कृषि को अत्यधिक प्रोत्साहन
देता था क्योंकि इससे राज्य को अधिक राजस्व की प्राप्ति होती थी। इस प्रकार की फसलों
में कपास तथा गन्ने की फसल को मुख्य रूप से रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त तिलहन तथा
दलहन फसलों को भी प्रमुखता से उगाया जाता था जिससे राज्य तथा किसानों को पर्याप्त आय
प्राप्त होती थी। ये नकदी फसलें कही जाती थीं। अवत विवरण स्पष्ट करता है कि मुगलकाल
में कृषि मात्र पेट भरने के लिए नहीं होती थी अपितु व्यापार भी बहुत हद तक कृषि पर
निर्भर था तथा राज्य की आय भी कृषि पर निर्भर थी।
प्रश्न 3. कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
अथवा : सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में कृषि-समाज में महिलाओं द्वारा
निभाई गई भूमिका का उल्लेख कीजिए।
अथवा : मुगलकाल के दौरान कृषि-समाज में महिलाओं की भूमिका और स्थिति
की परख कीजिए।
उत्तर:
कृषि में महिलाओं की भूमिका अत्यन्त प्राचीनकाल से महत्वपूर्ण रही है तथा यही स्थिति
मुगलकाल में भी थी। मालकाल में महिलाएँ भी पुरुषों के समान कृषि-कार्यों में सहभागिता
करती थीं। एक ओर पुरुष खेत जोतते थे तथा हल चलाते थे; कही महिलाएँ बुआई, कटाई तथा निराई
जैसे महत्वपूर्ण कार्य करती थीं। इसके अतिरिक्त महिलाएँ पकी हुई फसलों से दाना निकालने
का कार्य भी करती थीं, किन्तु इस समय महिलाओं की जैव-वैज्ञानिक क्रियाओं को लेकर लोगों
के मन में अनेक पूर्वाग्रह थाभ जैसे-पश्चिमी भारत, विशेषकर राजस्थान में रजस्वला महिला
को हल तथा कुम्हार का चाक छूने की इजाजत नहीं थी, इसी पकार बपल में अपने मासिक धर्म
के समय महिलाएँ पान के बागान में नहीं जा सकती थीं। इस समय महिलाएँ कृषि के अतिरिक्त
अध्यापक गतिविधियों में भी संलग्न रहती थीं, जैसे सूत कातना, बर्तन बनाने के लिये मिट्टी
को साफ करना और गूंथना, कपड़ों चाकलाई.आदि। वस्तुतः ये सभी कार्य महिलाओं के श्रम पर
ही आश्रित थे। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पति के लिये महिलाओं
के श्रम की उतनी ही अधिक माँग होती थी। संक्षेप में; मुगलकाल में कृषि तथा कृषि से
सम्बन्धित जगभग सभी कार्यों में निओं की भागीदारी परम आवश्यक थी।
प्रश्न 4. विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना
उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
हमारे विचाराधीन काल अर्थात् 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में भारत का व्यापार अत्यधिक
फला-फूला। मुगल साम्राज्य एशिया के उन बड़े साम्राज्यों में से एक था जो सत्ता तथा
अपने संसाधनों का भरपूर उपयोग कर सका। मुगल साम्राज्य की प्रसिद्धि विश्व के अनेक क्षेत्रों
में फैल गई, जिसके रिणामस्वरूप अनेक विदेशी व्यापारिक कम्पनियों ने यहाँ की यात्रा
की। इसके कारण व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुई। इस विदेशी-व्यापार में मुद्रा के रूप
में बड़ी मात्रा में चाँदी भारत आई जिसका परिणाम यह हुआ कि सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी
के मध्य, भारत में धातु मुद्रा विशेषकर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में स्थिरता बनी
रही।
इसके
साथ ही एक ओर तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा-प्रसार तथा सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व
विस्तार हुआ तो वहीं दूसरी ओर मुगल साम्राज्य को नकद कर उगाहने में भी सुगमता हुई।
इन सबके अतिरिक्त मुगल शासकों ने बड़ी मात्रा में सोने तथा चाँदी के सिक्के भी जारी
किए। इटली के एक यात्री जोवान्नी कारेरी ने 1640 ई. के आसपास भारत की यात्रा की थी।
उसने अपने यात्रा विवरण में इस बात का बड़ा सजीव चित्र प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार
चाँदी समस्त विश्व से होकर भारत पहुँचती थी। उसके वृत्तान्त से हमें यह भी ज्ञात होता
है कि 17वीं सदी में भारत में बड़ी मात्रा में नकदी और वस्तुओं का आदान-प्रदान होता
था। इसके अतिरिक्त गाँवों में भी आपसी लेन-देन नकदी में होने लगा। गाँवों के शहरी बाजारों
से जुड़ जाने से मौद्रिक कारोबार में भी और वृद्धि हुई जिसके कारोबार के कारण श्रमिकों
को भी उनकी मजदूरी नकद में ही दी जाने लगी।
प्रश्न 5. उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये बताते हैं कि मुगल राजकोषीय
व्यवस्था के लिये भू-राजस्व बहुत महत्वपूर्ण था।
उत्तर-:
निःसन्देह मुगल साम्राज्य की आय का सर्वप्रमुख साधन भू-राजस्व ही था। भू-राजस्व प्राप्त
करने के लिए मुगल साम्राज्य ने एक वृहद् प्रशासनिक-तन्त्र विकसित किया जो दीवान के
अन्तर्गत कार्यरत था। यहाँ 'अमील-गुजार' प्रमुख रूप से कर वसूलने वाला अधिकारी था।
वस्तुतः
राज्य अपना राजस्व निर्धारित करते समय यह प्रयास करता था कि उसके राजस्व की मात्रा
अधिकतम हो, किन्तु सही प्रकार से कहा जाए तो स्थानीय परिस्थितियों के कारण कभी-कभी
वास्तविक रूप से अधिक वसूली कर पाना सम्भव नहीं होता था। अबुल फजल द्वारा रचित आइन
अकबरी से ज्ञात होता है कि अकबर ने अपनी दूरदर्शिता के साथ जमीनों का विस्तृत सर्वेक्षण
कराकर उसका वर्गीकरण किया तथा पृथक्-पृथक् भूमि के लिये पृथक्-पृथक् कर निर्धारित किया।
सम्राट ने अमील-गुजार को यह आदेश दिया था कि वे भू-राजस्व नकदी तथा फसल, दोनों ही रूपों
में वसूल करें। इसके अतिरिक्त अकबर ने यह भी आदेश दिया था कि जो कृषक भू-राजस्व देने
में किसी कारण से असमर्थ हो, उससे जबरदस्ती न की जाये। प्रत्येक प्रान्त में जुती हुई
जमीन एवं जोतने योग्य जमीन दोनों की माप करवाई गई। अकबरं के शासनकाल में अबुल फजल ने
अपने ग्रन्थ 'आइन' में ऐसी जमीनों के समस्त आँकड़े एकत्र किए। अकबर के बाद के शासकों
ने भी अपने शासनकाल में जमीन की माप के प्रयास जारी रखे।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 230-300 शब्दों में)
प्रश्न 6. आपके मुताबिक कृषि-समाज में सामाजिक एवं आर्थिक सम्बन्धों
को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर:
कृषि समाज में सामाजिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को प्रभावित करने में जाति की भूमिका
(i)
कृषकों का भिन्न-भिन्न समूहों में विभाजित होना- भारत में जाति-व्यवस्था का आरम्भ वैदिककाल
से ही हो गया था। मुगलकाल में भी जाति-व्यवस्था अपने मूलभूत रूप में विद्यमान थी। इस
समय जातीय भेदभाव के कारण कृषक अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न समूहों में विभाजित थे।
सर्वप्रथम खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे व्यक्तियों की थी जो अत्यधिक
निम्न समझे जाने वाले कार्यों में संलग्न थे अथवा खेतों में मजदूरी का कार्य किया करते
थे। निर्धन व्यक्तियों को निर्धन रहने को मजबूर करने के लिये कुछ जाति के नागरिकों
को सिर्फ निम्न कोटि के कार्य ही दिये जाते थे। ग्रामों की जनसंख्या का अधिकांश भाग
इसी प्रकार की आबादी का होता था। इस वर्ग के पास संसाधन बहुत कम थे तथा ये जाति-व्यवस्था
की पाबन्दियों से पूर्ण रूप से बँधे थे। इनकी स्थिति लगभग वैसी ही थी; जैसा कि आधुनिक
भारत में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों की है।
(ii)
अन्य सम्प्रदायों में भी भेदभाव का फैलना-दूसरे सम्प्रदाय भी इस प्रकार के भेदभावों
से अछूते नहीं रहे। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान (मैला ढोने का कार्य) जैसे निम्न
कोटि के कार्यों से जुड़े समूह गाँव की सीमा से बाहर ही रह सकते थे। इसी प्रकार बिहार
प्रान्त में मल्लाहजादों (नाविकों के पुत्र) का जीवन भी दासों जैसा था।
(iii)
मध्यवर्ती समूहों में जाति, निर्धनता एवं सामाजिक स्थिति के मध्य सम्बन्ध न होना-यद्यपि
समाज के निम्न वर्गों में जाति, निर्धनता एवं सामाजिक स्थिति के बीच भी सम्बन्ध था,
परन्तु इस प्रकार का सम्बन्ध मध्यवर्ती समूहों में नहीं था। 17वीं शताब्दी में मारवाड़
में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में की गयी है। इस पुस्तक
के अनुसार जाट भी किसान थे, परन्तु जाति-व्यवस्था में उनका स्थान राजपूतों के समान
नहीं था।
(iv)
अन्य जातियों की स्थिति वीं शताब्दी में उत्तर
प्रदेश के वृंदावन क्षेत्र में निवास करने वाले जमीन की जुताई के काम में लगे गौरव
समुदाय के लोगों ने भी राजपूत होने का दावा किया। पशुपालन एवं बागवानी में बढ़ती लाभप्रद
स्थिति के कारण अहीर, गुज्जर एवं माली जैसी जातियों के सामाजिक स्तर में वृद्धि हुई।
पूर्वी प्रदेशों में पशुपालन एवं मछुआरी जातियाँ भी किसानों जैसी सामाजिक स्थिति प्राप्त
करने लगीं।
प्रश्न 7. सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में जंगलवासियों की जिन्दगी
किस तरह बदल गई?
अथवा : भारत में मुगलकाल के दौरान जंगल में रहने वाले लोगों के जीवन
का वर्णन कीजिए।
अथवा : सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान भारत में जंगलवासियों
के जीवन जीने के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जंगलवासी-विभिन्न समकालीन साहित्यिक स्रोतों में जंगल में रहने वालों के लिए जंगली
शब्द का प्रयोग किया गया हैलेकिन 'जंगली' होने का अर्थ सभ्यता का न होना बिल्कुल नहीं
था, वैसे वर्तमान समय में इस शब्द का प्रचलित अर्थ यही है। उन दिनों इस शब्द का प्रयोग
ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था; जिनका गुजारा जंगल के उत्पादों, शिकार तथा स्थानान्तरीय
खेती से होता था। ये कार्य मौसम के अनुसार होते थे; जैसे—भीलों की बस्तियों में, बसन्त
के मौसम में जंगल से उत्पाद इकट्ठे किए जाते, गर्मियों में मछली पकड़ी जाती, मानसून
के महीनों में खेती की जाती तथा जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था। यह सिलसिला
लगातार गतिशीलता की बुनियाद पर खड़ा था तथा इस बुनियाद को मजबूत भी करता था। निरन्तर
एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना; इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक विशेषता थी
जंगलवासियों के जीवन में बदलाव-6वीं व 17वीं शताब्दी में जंगलवासियों के जीवन में बाहरी
शक्तियों के हस्तक्षेप से निम्नलिखित परिवर्तन आए
(i)
बाहरी शक्तियों का जंगलों में प्रवेश बाहरी शक्तियाँ जंगलों में कई तरह से प्रवेश करती
थीं; उदाहरण के लिए राज्य को सेना के लिए हाथियों की आवश्यकता होती थी, इसलिए जंगलवासियों
से ली जाने वाली भेंट में प्रायः हाथी भी सम्मिलित होते थे। मुगल राजनीतिक विचारधारा
में शिकार अभियान राज्य के लिए निर्धनों एवं अमीरों सहित समस्त जनता को न्याय प्रदान
करने का एक माध्यम था। मुगल साम्राज्य के दरबारी इतिहासकारों का मत था कि शिकार अभियान
के नाम पर मुगल सम्राट अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करते थे तथा लोगों
की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान करते थे। दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार के
बहुत से दृश्य दिखाए गए हैं जिनमें चित्रकार प्रायः छोटा-सा एक ऐसा दृश्य चित्रांकित
कर देते थे, जो शासक के सद्भावपूर्ण होने का संकेत देता था।
(ii)
व्यापारिक खेती का प्रभाव व्यापारिक खेती का प्रभाव एक ऐसा बाहरी कारक था जो जंगलवासियों
के जीवन को भी प्रभावित करता था। शहद, मधु, मोम एवं लाख जैसे जंगल के उत्पादों की बहुत
माँग थी। लाख जैसी कुछ वस्तुएँ तो 17वीं शताब्दी में भारत से समुद्र पार होने वाले
निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे तथा व्यापार के अन्तर्गत
वस्तुओं का आदान-प्रदान भी होता था। पंजाब के लोहानी कबीले जैसे कुछ कबीले भारत और
अफगानिस्तान के मध्य होने वाले जमीनी व्यापार में लगे हुए थे तथा पंजाब के गाँवों एवं
शहरों के मध्य होने वाले व्यापार में भाग लेते थे।
(iii)
सामाजिक कारकों का प्रभाव-सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में परिवर्तन हुए।
ग्रामीण समुदाय के बड़े आदमियों की तरह जंगली कबीलों के भी सरदार होते थे। कई कबीलों
के सरदार धीरे-धीरे जींदार बन गए तथा कुछ कबीलों के सरदार तो राजा भी बन गए। इस स्थिति
में उन्हें सेना तैयार करने की आवश्यकता हुई, इसलिए उन्होंने अपने ही परिवार के लोगों
को सेना में भर्ती किया अथवा अपने ही बंधु-बांधवों से सैन्य-सेवा की माँग की। उदाहरणस्वरूप-सिन्ध
प्रान्त की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार एवं 7000 पैदल सिपाही होते थे। असम में
अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे। ये वे लोग थे, जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा
देनी पड़ती थी। अहोम राजाओं ने जंगली हाथियों को पकड़ने पर अपने एकाधिकार की घोषणा
की हुई थी।
(iv)
सांस्कृतिक प्रभाव जंगली प्रदेशों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत
हुई। कुछ इतिहासकारों ने यह भी सुझाया है कि नए बसे क्षेत्रों के खेतिहर समुदायों ने
जिस प्रकार धीरे-धीरे इस्लाम धर्म ग्रहण किया, उसमें सूफी सन्तों ने भी महत्वपूर्ण
भूमिका का निर्वाह किया था। जहाँ तक राज्य का सवाल है, उसके लिए जंगल उलट-फेर वाला
क्षेत्र था।
प्रश्न 8. मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
अथवा : सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान मुगल साम्राज्य में
जमींदारों की भूमिका का वर्णन कीजिए।
अथवा : सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों के दौरान भारत में जमींदारों द्वारा
निभाई गई भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
निश्चय ही मुगलकाल में कृषि सम्बन्धों में जमींदार केन्द्र-बिन्दु थे। निम्नलिखित बिन्दुओं
के आधार पर हम इसे समझ सकते हैं।
1.
मुगलकाल में जमींदारों की आय का मुख्य स्रोत तो कृषि ही थी, किन्तु ये कृषि उत्पादन
में प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं करते थे। वे अपनी जमीन के मालिक होते थे।
2.
जमींदार अपनी भूमि को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे अथवा उसे गिरवी भी रख
सकते थे।
3.
जमींदारों को ग्रामीण समाज में ऊँची स्थिति के कारण कुछ विशेष आर्थिक तथा सामाजिक सुविधाएँ
प्राप्त थीं ।
4.
समाज में जमींदारों की उच्च स्थिति के दो कारण थे; पहला, उनकी जाति तथा दूसरा, उनके
द्वारा राज्य को,दी जाने
5.
जमींदारों की शक्ति का एक अन्य स्रोत यह था कि वे राज्य की ओर से कर वसूल सकते थे,
जिसके परिणामस्वरूप उन्हें वित्तीय मुआवजा प्राप्त होता था।
6.
वस्तुतः जमींदारों की समृद्धि का मुख्य आधार उनकी विस्तृत व्यक्तिगत भूमि थी। उस समय
यह
7.
मिल्कियत अर्थात् - सम्पत्ति कहलाती थी। मिल्कियत जमीन पर जमींदारों के निजी प्रयोग
के लिये खेती होती थी। प्रायः इन जमीनों पर दिहाड़ी मजदूर काम करते थे।
8.
यदि मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक सम्बन्धों को पिरामिड के रूप में देखें तो जमींदार
इसके सँकरे तथा शीर्ष भाग ... थे, अर्थात् जमींदारों का समाज में सबसे ऊँचा स्थान था।
9.
कर वसूली के अधिकार ने जींदारों को अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया था।
10.
जींदारों के पास किले, सेना, घुड़सवार तथा धन अत्यधिक मात्रा में थे।
11.
मुगलकाल में जमींदारों ने कृषियोग्य जमीनों को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जमींदारों ने कृषकों को कृषि उपकरणों के लिए धन उधार दिया।
12.
जमींदारी की खरीद-बेच से गाँवों में मौद्रिक गतिशीलता की प्रक्रिया में तीव्रता आई।
इसके अतिरिक्त जमींदार अपनी कृषि-पैदावारों को बेच भी सकते थे। हमें ऐसे प्रमाण प्राप्त
होते हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि जमींदार प्रायः बाजार (हाट) लगवाते थे; जहाँ किसान
अपनी उपज बेचने आते थे। उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन
समाज में जमींदार एक शोषक वर्ग था, किन्तु कृषकों के साथ उनके रिश्ते पैतृकवाद, पारस्परिकता
तथा संरक्षण पर आधारित थे। अतः राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने में उन्हें कृषकों का
भी समर्थन प्राप्त होता था।
प्रश्न 9. पंचायत तथा गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन
करते थे ? विवेचना कीजिए।
अथवा : मुगल ग्रामीण समाज में एक मुख्य घटक के तौर पर पंचायतों की भूमिका
की परख कीजिए।
अथवा : 'मुगल साम्राज्य की गाँव की पंचायत ग्रामीण समाज का नियमन करती
थी।' इस कथन को स्पष्ट कीजिए। .
अथवा : मुगलकाल के दौरान गाँवों में पंचायतों की भूमिका की परख कीजिए।
उत्तर:
चोल राज्य के समान मुगलकाल में पंचायतों को एक प्रमुख तथा स्वायत्तशासी स्थान प्राप्त
था। इस समय गाँव की पंचायत में बुजुर्गों का महत्वपूर्ण स्थान होता था। साधारणतः वे
गाँव के महत्वपूर्ण व्यक्ति हुआ करते थे। जिन गाँवों में विभिन्न जातियाँ रहती थीं,
वहाँ प्रायः पंचायत में भिन्नता अथवा विविधता पाई जाती थी। यह एक ऐसा अल्पतन्त्र था,
जिसमें गाँव के पृथक्-पृथक् सम्प्रदायों और जातियों का प्रतिनिधित्व होता था। पंचायत
का सरदार एक मुखिया होता था, जिसे मुकद्दम अथवा मण्डल कहते थे। कुछ स्रोतों से ज्ञात
होता है कि मुखिया का चयन गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था तथा इस चुनाव के
उपरान्त उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी।
गाँव
के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य कार्य था,
जिसमें गाँव का पटवारी उसकी सहायता करता था। पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से
चलता था; जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देता था। इस खजाने से उन कर-अधिकारियों
की खातिरदारी का खर्चा भी किया जाता था जो समय-समय पर गाँव का दौरा किया करते थे, वहीं
दूसरी ओर इस कोष का प्रयोग प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत कार्यों में भी होता था। इसके
अतिरिक्त इस धन से कुछ आवश्यक सामुदायिक कार्य भी किए जाते थे।
उपर्युक्त
के अतिरिक्त पंचायत का एक मुख्य कार्य यह सुनिश्चित करना था कि गाँव में रहने वाले
पृथक्-पृथक् समुदायों के लोग अपनी जाति तथा अपनी सीमाओं में रहें। पूर्वी भारत में
सभी विवाह मण्डल की उपस्थिति में होते थे। यूँ कहा जा सकता है कि . 'जाति की अवहेलना
रोकने के लिये' लोगों के आचरण पर नजर रखना गाँव के मुखिया का उत्तरदायित्व था। पंचायतों
को जुर्माना लगाने तथा समुदाय से निष्कासित करने जैसे अधिक गम्भीर दण्ड देने के अधिकार
थे। समुदाय से बाहर निकालना एक बड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जा सकता
था, जिसमें दण्डित व्यक्ति को गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाति तथा व्यवसाय
से हाथ धो बैठता था। ग्राम पंचायतों के अतिरिक्त ग्राम में प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत
भी होती थी।
समाज
में ये पंचायतें अत्यधिक शक्तिशाली होती थीं। राजस्थान में जाति पंचायतें पृथक्-पृथक्
जातियों के व्यक्तियों के मध्य दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं। पश्चिम भारत
विशेषतः राजस्थान तथा महाराष्ट्र जैसे प्रान्तों के संकलित दस्तावेजों में ऐसी अनेक
अर्जियाँ हैं, जिनमें पंचायत से राज्य के अधिकारियों के खिलाफ जबरन कर उगाही अथवा बेगार
वसूली की शिकायत की गयी। सामान्यतः ये अर्जियाँ ग्रामीण समुदाय के सबसे निचले वर्ग
के व्यक्ति लगाते थे तथा प्रायः सामूहिक रूप से भी अर्जियाँ दी जाती थीं। . संक्षेप
में, मुगलकाल में पंचायतों का स्वरूप तथा उत्तरदायित्व अत्यधिक व्यापक था; जो गाँव
में एक छोटी सरकार का प्रतिनिधित्व करती थी।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 10. विश्व के बहिर्रेखा वाले नक्शे पर उन इलाकों को दिखाएँ जिनका
मुगल साम्राज्य के साथ आर्थिक सम्पर्क था। इन इलाकों के साथ यातायात-मार्गों को भी
दिखाएँ।
उत्तर:
परियोजना कार्य (कोई एक)
प्रश्न 11. पड़ोस के एक गाँव का दौरा कीजिए। पता कीजिए कि वहाँ कितने
लोग रहते हैं, कौन-सी फसलें उगाई जाती हैं, कौन-से जानवर पाले जाते हैं, कौन-से दस्तकार
समूह में रहते हैं, महिलाएँ जमीन की मालिक हैं या नहीं और वहाँ की पंचायत किस तरह काम
करती है? जो आपने सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के बारे में सीखा है उससे इस सूचना की तुलना
करते हुए, समानताएँ नोट कीजिये। परिवर्तन और निरन्तरता दोनों की व्याख्या कीजिए। .
उत्तर:
इस प्रश्न को अपने अभिभावकों तथा शिक्षकों की सहायता से विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 12. आइन का एक छोटा-सा अंश चुन लीजिए (10 से 12 पृष्ठ, दी गई
वेबसाइट पर उपलब्ध)। इसे ध्यान से पढ़िए तथा इस बात का ब्यौरा दीजिए कि इसका इस्तेमाल
एक इतिहासकार किस तरह से कर सकता है
उत्तर: इस प्रश्न को अपने अभिभावकों तथा शिक्षकों की सहायता से विद्यार्थी स्वयं करें।