9. भारतीय राजनीति : नए बदलाव
प्रश्न 1. उन्नी - मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है।
आप इन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें:
(अ) मंडल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा।
(ब) जनता दल का गठन।
(स) बाबरी मस्जिद का विध्वंस।
(द) इंदिरा गाँधी की हत्या।
(ङ) राजग सरकार का गठन।
(च) संप्रग सरकार का गठन।
(छ) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम।
उत्तर:
कालक्रम के अनुसार निम्नलिखित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है:
(द)
इंदिरा गाँधी की हत्या सन् 1984
(ब)
जनता दल का गठन सन् 1988
(अ)
मण्डल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा सन् 1990
(स)
बाबरी मस्जिद का विध्वंस सन् 1992
(ङ)
राजग सरकार का गठन सन् 1998
(छ)
गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम सन् 2002
(च)
संप्रग सरकार का गठन सन् 2004
प्रश्न 2. निम्नलिखित में मेल करें:
(क) सर्वानुमति की राजनीति |
(i) शाहबानो मामला |
(ख) जाति आधारित दल |
(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार |
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय |
(iii) गठबंधन सरकार |
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत |
(iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति |
उत्तर:
(क) → (iv), (ख) → (ii), (ग) → (i), (घ) → (iii)
प्रश्न 3. 1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे
क्या रहे हैं? इन मुद्दों से राजनीतिक दलों के आपसी जुड़ाव के क्या रूप सामने आए हैं?
उत्तर:
सन् 1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे:
(i)
लोकसभा के आम चुनावों में कांग्रेस की भारी हार हुई। उसे केवल 197 सीटें ही मिलीं।
अतः सरकारें अस्थिर रहीं तथा सन् 1991 में दुबारा मध्यावधि चुनाव हुआ। कांग्रेस की
प्रमुखता समाप्त होने के कारण देश के राजनीतिक दलों में आपसी जुड़ाव बढ़ा। राष्ट्रीय
मोर्चे की दो बार सरकारें बर्नी परन्तु कांग्रेस द्वारा समर्थन खींचने तथा विरोधी दलों
में एकता की कमी के कारण देश में राजनैतिक अस्थिरता रही।
(ii)
देश की राजनीति में मंडल मुद्दे का उदय हुआ। इसने सन् 1989 के पश्चात् की राजनीति में
महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सभी दल वोटों की राजनीति करने लगे, अत: अन्य
पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण दिए जाने के मामले में अधिकांश दलों में परस्पर जुड़ाव
हुआ।
(iii)
सन् 1990 के पश्चात् विभिन्न दलों की सरकारों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाईं, वे बुनियादी
तौर पर बदल चुकी थीं। आर्थिक सुधार व नवीन आर्थिक नीति के कारण देश के अनेक दक्षिणपंथी
राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों में आपसी जुड़ाव होने लगा। इस संदर्भ में दो प्रवृत्तियाँ
उभरकर आईं। कुछ पार्टियाँ गैर कांग्रेसी गठबंधन और कुछ दल गैर भाजपा गठबंधन के समर्थक
बने ।
(iv)
दिसम्बर 1992 में अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचा विध्वंस कर दिया गया। इस घटना के
पश्चात् भारतीय राष्ट्रवाद एवं धर्मनिरपेक्षता पर बहस तेज हो गयी। इन परिवर्तनों का
सम्बन्ध भाजपा के उदय तथा हिन्दुत्व की राजनीति से है।
प्रश्न 4. “गठबंधन की राजनीति के इस नए दौर में राजनीतिक दल विचारधारा
को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।" इस कथन के पक्ष या विपक्ष में आप कौन-से
तर्क देंगे?
अथवा : "1989 के चुनावों
के बाद गठबंधन की राजनीति का युग आरम्भ हुआ जिसमें राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर
गठजोड़ नहीं करते हैं।" व्याख्या कीजिए।
अथवा : "1989 से, गठबंधन की राजनीति में, राजनीतिक दल सहमति के
दायरे में सक्रिय होते हुए, विचारधारागत मतभेद के स्थान पर, सत्ता में हिस्सेदारी की
बातों पर क्यों जोर दे रहे हैं?" व्याख्या कीजिए।
अथवा : 1989 के चुनावों के बाद गठबंधन की राजनीति का युग विचारधारा
पर नहीं बल्कि निम्नलिखित पहलुओं पर निर्भर
उत्तर:
1. नयी आर्थिक नीति पर सहमति: कई समूह नयी आर्थिक नीति के खिलाफ हैं, लेकिन ज्यादातर
राजनीतिक दल इन नीतियों के पक्ष में हैं। अधिकतर दलों का मानना है कि नई आर्थिक नीतियों
से देश समृद्ध होगा और भारत, विश्व की एक आर्थिक शक्ति बनेगा।
2.
पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की स्वीकृति: राजनीति दलों ने पहचान लिया
है कि पिछड़ी जातियों के सामाजिक और राजनैतिक दावे को स्वीकार करने की जरूरत है। इस
कारण आज सभी राजनीतिक दल शिक्षा और रोजगार में पिछड़ी जातियों के लिए सीटों के आरक्षण
के पक्ष में हैं। राजनीतिक दल यह भी सुनिश्चित करने के लिए तैयार हैं कि 'अन्य पिछड़ा
वर्ग' को सत्ता में समुचित हिस्सेदारी मिले।
3.
देश के शासन में प्रांतीय दलों की भूमिका की स्वीकृति: प्रांतीय दल और राष्ट्रीय दल
का भेद अब लगातार कम होता जा रहा है। प्रांतीय दल केन्द्रीय सरकार में साझीदार बन रहे
हैं और इन दलों ने पिछले बीस सालों में देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
है।
4.
विचारधारा की जगह कार्यसिद्धि पर जोर और विचारधारागत सहमति के बगैर राजनीतिक गठजोड़-गठबंधन
की राजनीति के इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारागत अंतर की जगह सत्ता में हिस्सेदारी
की बातों पर जोर दे रहे हैं, मिसाल के लिए अधिकतर दल भाजपा की 'हिन्दुत्व' की विचारधारा
से सहमत नहीं हैं, लेकिन ये दल भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हुए और सरकार बनाई, जो
पाँच साल तक चली।
प्रश्न 5. आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के
रूप में उभरी। इस दौर में इस पार्टी के विकास-क्रम का उल्लेख करें।
उत्तर:
आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा के विकास-क्रम का वर्णन निम्नांकित है।
(1)
आपातकाल के बाद के दौर में ही भाजपा का गठन हुआ। सन् 1980 में भारतीय जनसंघ को समाप्त
कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष
बने।
(2)
सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या हो जाने के बाद चुनावों में सहानुभूति
की लहर के कारण कांग्रेस की जीत हुई और भाजपा को केवल दो सीटें ही प्राप्त हुईं। इसी
बीच राम जन्मभूमि का ताला खुलने का अदालती आदेश आ चुका था। कांग्रेस सरकार ने वहाँ
का ताला खुलवाया। भाजपा ने इसका राजनीतिक लाभ उठाने का निर्णय लिया।
(3)
सन् 1989 के चुनावों में भाजपा को आशा से अधिक सफलता प्राप्त हुई और इसने कांग्रेस
का विकल्प बनने की इच्छाशक्ति दिखाई, कांग्रेस से बाहर हुए वी.पी.सिंह ने जनता दल का
गठन किया और सन् 1989 के लोकसभा चुनाव लड़े। उन्हें पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ लेकिन
भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा की सरकार गठित की।
(4)
भाजपा ने सन् 1991 और सन् 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। सन्
1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने
का निमंत्रण प्राप्त हुआ, किन्तु अधिकांश संसद सदस्य भाजपा की कुछ नीतियों के विरुद्ध
थे और इसी कारण भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। अन्त में भाजपा
एक गठबंधन के अगुवा के रूप में सत्ता में आयी तथा मई 1998 से जून 1999 तक सत्ता में
रही।
सन्
1999 में इस गठबंधन ने फिर से सत्ता प्राप्त की। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की इन
दिनों की सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। सन् 1999 की राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूर्ण किया। सन् 2004 तथा
2009 के चुनाव में भी पार्टी को अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई। वर्ष 2014 के लोकसभा
चुनावों में एवं 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता प्राप्त हुई और
आज वह सरकार में है।
प्रश्न 6. कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद
देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने
उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
मैं इस कथन से असहमत हूँ कि कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद
देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। 1989 की हार के साथ भारत की दलीय
व्यवस्था में उसका दबदबा समाप्त हो गया। 1991 के पश्चात इस पार्टी की सीटों की संख्या
एक बार फिर बढ़ी। 2004 व 2009 के चुनावों में कांग्रेस ने पुनः अपना रंग दिखाया और
पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत प्राप्त की लेकिन 2014 के चुनाव में यह पार्टी मात्र
44 सीटों पर सिमटकर सत्ता से बाहर हो गयी। 2019 के चुनावों में जहाँ भाजपा को 303 सीटें
मिली वहीं कांग्रेस 52 सीटों पर सिमटकर रह गयी। राज्यों में इसका प्रभाव कम हो रहा
है। इस तरह कहा जा सकता है कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है तथा देश की
राजनीति पर कांग्रेस का असर धीरे-धीरे कम हो रहा है।
प्रश्न 7. अनेक लोग सोचते हैं कि सफल लोकतंत्र के लिए दो-दलीय व्यवस्था
जरूरी है। पिछले बीस सालों के भारतीय अनुभवों को आधार बनाकर एक लेख लिखिए और इसमें
बताइए कि भारत की मौजूदा बहुदलीय व्यवस्था के क्या फायदे हैं?
अथवा : द्वि - दलीय प्रणाली लोकतंत्र के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है,
परन्तु भारत में बहुदलीय प्रणाली है। भारत में बहुदलीय प्रणाली के लाभों का आकलन कीजिए।
उत्तर:
दलीय प्रणाली: सफल लोकतंत्र हेतु दलीय प्रणाली आवश्यक है। इसके समर्थन में निम्नलिखित
तर्क दिए जाते हैं।
1.
द्वि - दलीय व्यवस्था से साधारण बहुमत के दोष समाप्त हो जाते हैं एवं जिस भी प्रत्याशी
की जीत होती है उसे आधे से अधिक अर्थात् 50% से अधिक मत प्राप्त होते हैं।
2.
सरकार अधिक स्थायी रहती है और वह गठबंधन की सरकारों की तरह दूसरी पार्टियों की वैसाखियों
पर नहीं टिकी होती। वह उनके निर्देशों को सरकार गिराने के भय से मानने हेतु बाध्य नहीं
होती।
3.
देश में सभी को यह ज्ञात होता है कि यदि सत्ता एक दल से दूसरे दल के हाथों में चली
जाएगी तो कौन - कौन प्रमुख पदों-प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री
एवं विदेश मंत्री आदि पर आएँगे।
4.
बहुदलीय प्रणाली में भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है। सर्वाधिक कुशल व्यक्तियों की सेवाओं
का अनुभव प्राप्त नहीं होता और जहाँ साम्यवादी देशों की भाँति मात्र एक ही दल की सरकार
होती है तो वहाँ दल विशेष अथवा वर्ग विशेष की तानाशाही नहीं होती।
भारत
में बहुदलीय प्रणाली के लाभ- भारत में बहुदलीय प्रणाली के निम्नांकित लाभ हैं।
1.
भारत विविधताओं का देश है, ऐसी विविधताओं वाले देश के लिए यह आवश्यक है कि कई राजनीतिक
दल हों वैसे भी लोकतंत्र में दलीय प्रथा प्राणतुल्य होती है। राजनीतिक दल जनमत का निर्माण
करते हैं, चुनावों में हिस्सा लेते हैं, सरकार बनाते हैं और विपक्ष की भूमिका का निर्वाह
करते हैं।
2.
दलीय प्रणाली के कारण सरकार में दृढ़ता आती है क्योंकि दलीय आधार पर सरकार को समर्थन
प्राप्त होता रहता है।
3.
दलीय प्रणाली जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करती है। राजनीतिक दल सभाएँ करते हैं,
सम्मेलन करते हैं, अपने दल की नीतियाँ और कार्यक्रम बताकर जनता के सामने प्रचार करते
हैं। तत्कालीन सरकार की आलोचना करते हैं। संसद में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और
इस प्रकार जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती रहती है।
4.
दलीय प्रणाली में शासन व जनता दोनों में अनुशासन बना रहता है। राष्ट्रीय हितों पर अधिक
ध्यान दिया जाता है।
5.
कई राजनीतिक दल राजनीतिक कार्यों के साथ-साथ सामाजिक सुधार के कार्य भी करते हैं।
6. विपक्षी दल सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाते हैं
तथा सत्तारूढ़ दल को स्वेच्छाचारी बनने से रोकते हैं।
7.
मतदाता जिस मत का होगा उसी विचारधारा के राजनीतिक दल को मत दे सकता है लेकिन द्वि-दलीय
व्यवस्था में केवल दो में से एक दल को मत देना पड़ता है।
प्रश्न 8. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों
के उत्तर दें। भारत की दलगत राजनीति ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस-प्रणाली
ने अपना खात्मा ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस के जमावाड़े के बिखर जाने से आत्म-प्रतिनिधित्व
की नई प्रवृत्ति का भी जोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने
की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे। राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत
व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनीतिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरीके से विभिन्न
हितों को मुखर और एकजुट करें .......... जोया हसन (अ) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या
आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं? (ब) विभिन्न हितों का समाहार
और उनमें एकजुटता का होना क्यों जरूरी है? (स) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के
बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनीतिक दलों की समाहार की क्षमता के आगे क्या
चुनौती पेश की?
उत्तर:
(अ) इस अध्याय को पढ़ने के बाद निम्नलिखित दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना
सकते हैं।
1.
भारत में बहु: दलीय प्रणाली के कारण फूट पैदा होती है। एक दल के समर्थक दूसरे दल के
समर्थकों से ईर्ष्या भाव रखने लगते हैं। यह ईर्ष्या राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध
हो सकती है।
2.
दलगत व्यवस्था से भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। चुनावों के समय बहुमत प्राप्त
करने के लिए कई राजनीतिक दल लोगों को कई प्रकार के लोभ - लालच देते हैं।
3.
सत्तारूढ़ दल की तानाशाही करने की संभावना रहती है।
4.
समाज की नैतिकता में गिरावट आती है। प्रत्येक दल अपनी प्रशंसा करता है।
5.
दलगत प्रणाली से राष्ट्रीय हितों को हानि पहुँचती है।
(ब)
लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न वर्गों, समूहों, सम्प्रदायों के हितों में भिन्नता
होना स्वाभाविक है। इस भिन्नता का आधार जाति, वंश, सम्प्रदाय, लिंग, वर्ग आदि हो सकते
हैं। परन्तु यदि विभिन्नताओं को देखते हुए भारतवासी छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहेंगे
तो सम्पूर्ण देश में एकजुटता नहीं रह सकेगी। अतः विभिन्न हितों का समाहार करके सौहार्द्र,
शान्ति, एकजुटता, परस्पर प्रेम, अहिंसा आदि तथ्यों का समावेश कर पाएँगे। ये सभी चीजें
लोकतंत्र की प्रणाली की सफलता के लिए आवश्यक हैं।
(स)
इस अध्याय में हमने अयोध्या के विवादित ढाँचे के विषय में पढ़ा। इस विवाद को भारत के
राजनैतिक दलों के सामने एक - दूसरे के साथ मिल - बैठकर समझना, समझाना, एक - दूसरे की
भावनाओं का सम्मान करना, समाहार की क्षमता के लिए चुनौती इसलिए पेश की क्योंकि सभी
राजनीतिक दल राष्ट्र के बजाय अपने राजनैतिक स्वार्थों को अधिक महत्त्व देते हैं तथा
वोटों की राजनीति करते हैं।
हमें
अपनी संस्कृति के अनुरूप सभी के साथ कुशल और सद्व्यवहारपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। अधिकतर
राजनीतिक दलों ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा की और इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों
के विरुद्ध बताया। इसी अवधि में चुनावी उद्देश्य के लिए धार्मिक भावनाओं के इस्तेमाल
पर भी बहस छिड़ी। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति इस वायदे पर आधारित है कि सभी धार्मिक
समुदाय किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक
दल धार्मिक समुदाय पर आधारित दल नहीं होगा।