भीष्म साहनी (गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात)
प्रश्न 1. लेखक सेवाग्राम कब और क्यों गया था?
उत्तर
: लेखक (भीष्म साहनी) अपने भाई बलराज साहनी के पास कुछ दिनों तक रहने के लिए सेवाग्राम
गए थे जो उस समय वहाँ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'नयी तालीम' के सह-सम्पादक थे।
यह सन् 1938 के आसपास की बात है जिस साल कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेशन हुआ था।
प्रश्न 2. लेखक का गांधीजी के साथ चलने का पहला अनुभव किस प्रकार का
रहा?
उत्तर
: गांधीजी प्रतिदिन प्रातः 7 बजे अपनी टोली के साथ टहलने जाते थे। बलराज जी ने भीष्म
जी को बताया कि कोई भी गांधीजी के साथ टहलने जा सकता है। भीष्म जी ने बलराज जी से कहा
कि आप भी मेरे साथ चलें। जब वे बाहर निकले तो गांधीजी काफी दूर जा चुके थे पर वे उनसे
जा मिले। बलराज भाई ने उनका परिचय कराया-'मेरा भाई है, कुछ दिन के लिए मेरे पास आया
है।' इस टोली में डॉ. सुशीला नय्यर और गांधीजी के वैयक्तिक सचिव महादेव देसाई भी साथ
ने गांधीजी से कहा- आप बहुत साल पहले हमारे शहर रावलपिंडी आए थे। गांधीजी को याद था
अतः उन्होंने पूछा मिस्टर जॉन कैसे हैं। वह रावलपिण्डी के एक बड़े वकील थे और संभवत:
गांधीजी रावलपिंडी प्रवास ठहरे थे। गाँधी जी के साथ चलने का पहला अनुभव लेखक के लिए
उत्साहवर्द्धक रहा।
प्रश्न 3. लेखक ने सेवाग्राम में किन-किन लोगों के आने का जिक्र किया
है?
उत्तर
: जब भीष्म साहनी सेवाग्राम गए तब वहाँ उन्हें अनेक जाने-माने देशभक्त देखने को मिले
जो वहाँ आए हुए थे। वहाँ पृथ्वीसिंह आजाद, जो प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे, आए हुए थे।
लेखक ने वहाँ मीराबेन, सीमांत गांधी के नाम से विख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान और बाबू
राजेन्द्र प्रसाद को भी देखा था। इन सबका जिक्र लेखक ने इस संस्मरण में किया है।
प्रश्न 4. रोगी बालक के प्रति गांधीजी का व्यवहार किस प्रकार का था?
उत्तर
: एक रोगी बालक खोखे के भीतर लेटा बार-बार हाथ-पैर पटकता हुआ चीख रहा था मैं मर जाऊँगा,
बापू को बुलाओ। बापू उसके पास आकर खड़े हो गए। उसके फूले हुए पेट पर हाथ फेरते रहे
और फिर उसे सहारा देकर बोले-"अरे पागल इतनी ज्यादा ईख पी गया। इधर नीचे उतरो और
मुँह में उँगली डालकर उल्टी कर दो।" इतना कहकर वे हँस पड़े। लड़के ने उनके आदेश
का पालन किया। जब तक उसने उल्टी की, गांधी जी झुके हुए उसकी पीठ सहलाते रहे।
थोड़ी
देर में उसका पेट हल्का हो गया और वह खोखे में जाकर लेट गया। गांधीजी के चेहरे पर लेशमात्र
भी क्षोभ नहीं था, वे हँसते हुए चले गए। इस प्रकार गांधीजी का उस रोगी बालक के प्रति
व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण एवं सेवाभाव से भरा हुआ था। एक अभिभावक ' की भाँति वे उसकी
देखभाल कर रहे थे।
प्रश्न 5. काश्मीर के लोगों ने ने जी का स्वागत किस प्रकार किया?
उत्तर
: नेहरू जी के काश्मीर पहुँचने पर काश्मीर निवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। शेख
अब्दुल्ला के नेतृत्व में ' नगर में झेलम नदी में नावों पर नेहरू जी की शोभा यात्रा
निकाली गयी। नदी के दोनों किनारों पर खड़े लोगों ने नेहरू जी का भव्य अभिनन्दन किया।
यह शोभायात्रा शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँची।
प्रश्न 6. अखबार वाली घटना से नेहरू जी के व्यक्तित्व की कौन-सी विशेषता
स्पष्ट होती है?
उत्तर
: अखबार वाली घटना से यह पता चलता है कि नेहरू जी हर छोटे-बड़े व्यक्ति को सम्मान देते
थे। उनमें अहंकार नहीं था तथा अपने को महत्त्व देकर दूसरे को तुच्छ समझने की वृत्ति
उनमें नहीं थी। भीष्म जी की टाँगें तो डर के कारण काँप रहीं थीं पर नेहरू जी ने बड़ी
शालीनता से कहा "यदि आपने अखबार देख लिया हों तो मैं एक नजर देख लूँ।" इससे
उनके शालीन व्यवहार का परिचय मिलता है।
प्रश्न 7. फिलिस्तीन के प्रति भारत का रवैया बहुत सहानुभूतिपूर्ण एवं
समर्थन भरा क्यों था?
उत्तर
: भारत की विदेश नीति अन्याय का विरोध करने की रही है। साम्राज्यवादी शक्तियों ने फिलिस्तीन
के प्रति जो अन्यायपूर्ण रवैया अपनाया हआ था उसकी भर्त्सना भारत के नेताओं द्वारा की
गयी थी। भारत के नागरिकों ने भी इसी कारण फिलिस्तीन और उसके नेता यास्सेर अराफात के
प्रति अपनी सहानुभूति दिखायी और समर्थन व्यक्त किया। फिलिस्तीन हमारा मित्र देश है
तथा यास्सेर अराफात का भारत में बहुत सम्मान था।
प्रश्न 8. अराफात के आतिथ्य प्रेम से संबंधित किन्हीं दो घटनाओं का
वर्णन कीजिए।
अथवा
भीष्म साहनी के लेख के आधार पर यास्सेर अराफात के आतिथ्य पर प्रकाश
डालिए।
उत्तर
: भीष्म साहनी और उनकी पत्नी को यास्सेर अराफात ने भोजन के लिए आमंत्रित किया, बाहर
आकर उनका स्वागत किया तथा चाय की मेज पर वे स्वयं फल छीलकर उन्हें खिलाते रहे। उन्होंने
शहद की चाय उनके लिए स्वयं बनाकर दी। यही नहीं जब भीष्म जी टॉयलेट गए और बाहर निकले
तो यास्सेर अराफात स्वयं तौलिया लेकर टॉयलेट के दरवाजे पर खड़े रहे जिससे भीष्म जी
हाथ पोंछ सकें। ये घटनाएँ उनके आतिथ्य प्रेम की प्रमाण हैं।
प्रश्न 9. अराफात ने ऐसा क्यों बोला कि 'वे आपके ही नहीं हमारे भी नेता
हैं। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।' इस कथन के आधार पर गांधीजी के व्यक्तित्व पर
प्रकाश डालिए।
उत्तर
: चाय-पान के समय यास्सेर अराफात और भीष्म साहनी के बीच बातचीत होने लगी। बातचीत के
दौरान जब गांधीजी का जिक्र लेखक ने किया तो अराफात ने गांधीजी के प्रति सम्मान व्यक्त
करते हुए कहा कि वे आपके ही नहीं हमारे भी नेता हैं और उतने ही आदरणीय भी हैं। उनके
इस कथन से पता चलता है कि पूरे विश्व में गांधीजी के प्रति सम्मान भाव था। गांधीजी
के सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्धांत तथा उनके नैतिक मूल्यों ने सारे विश्व को प्रभावित
कर रखा था। अपने इन गुणों के कारण वे पूरे विश्व में आदरणीय बन गए थे।
भाषा-शिल्प
प्रश्न 1. पाठ से क्रिया-विशेषण छाँटिए और उनका अपने वाक्यों में प्रयोग
कीजिए।
उत्तर
: क्रिया की विशेषता बताने वाले शब्द क्रिया विशेषण कहे जाते हैं। इस पाठ में प्रयुक्त
कुछ क्रिया-विशेषण इस प्रकार हैं
(i)
देर रात-(कालवाचक क्रिया-विशेषण)
मैं
देर रात तक पढ़ता रहा।
(ii)
प्रातः सात बजे (कालवाचक क्रिया-विशेषण)
गाड़ी
प्रातः सात बजे पहुंची।
(iii)
झिंझोड़कर (रीतिवाचक क्रिया विशेषण)
मैंने
झिंझोड़कर उन्हें जगाया।
(iv)
हँसते हुए (रीतिवाचक क्रिया-विशेषण)
उन्होंने
हँसते हुए कुछ कहा।।
(v)
एक ओर (स्थानवाचक क्रिया-विशेषण)
जाओ,
एक ओर खड़े हो जाओ।
प्रश्न 2. 'मैं सेवाग्राम में ..... माँ जैसी लगती' गद्यांश में क्रिया
पर ध्यान दीजिये।
उत्तर
: "मैं सेवाग्राम में लगभग तीन सप्ताह तक रहा। अक्सर ही प्रात: उस टोली के साथ
हो लेता। शाम को प्रार्थना सभा में जा पहुँचता, जहाँ सभी आश्रमवासी तथा कस्तूरबा एक
ओर को पालथी मारे और दोनों हाथ गोद में रखे बैठी होती और बिलकुल मेरी माँ जैसी लगी।"
उक्त
गद्यांश में क्रियाएँ रेखांकित की गई हैं। कुछ क्रियाएँ दो क्रियाओं से मिलकर बनी हैं
जिन्हें संयुक्त क्रिया कहा जाता है।
प्रश्न 3. नेहरू जी द्वारा सुनाई गई कहानी को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
: नेहरू जी ने धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसे समझाने के लिए अनातोले फ्रांस
की जो कहानी सुनाई उसे हम अपने शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं - पेरिस
नगर में एक गरीब नंट रहता था जो विभिन्न प्रकार की कलाकारियाँ दिखाकर अपना गुजारा करता
था। अब वह वृद्ध हो चुका था। क्रिसमस के पर्व पर पेरिस के बड़े गिरजाघर में पेरिस निवासी
सज-धजकर हाथों में फूल लिए माता मरियम को श्रद्धांजलि अर्पित करने जा रहे थे पर बाजीगर
गिरजे के बाहर हताश खड़ा था क्योंकि उसके पास माता मरियम को देने के लिए न तो कोई उपहार
था और न ही उसके वस्त्र इस प्रकार के थे कि कोई उसे गिरजे में प्रवेश करने देता।
अचानक
उसके मन में यह विचार आया कि मैं अपनी कला दिखाकर माता मरियम को प्रसन्न कर सकता हूँ।
जब श्रद्धालु चले गए तो खाली गिरजे में रात के समय वह अपनी कलाबाजियाँ दिखाने लगा।
उसके हाँफने की आवाज सुनकर पादरी को लगा कि कोई जानवर गिरजे में घुस आया है। वह आग-बबूला
होकर नट को लात मारकर गिरजे से बाहर निकालना चाहता था कि तभी उसने देखा कि माता मरियम
अपने मंच से नीचे उतर आईं और आगे बढ़कर उस नट का पसीना अपने आँचल से पोंछा और उसके
सिर को सहलाने लगी। यह देखकर पादरी अवाक् हो गया। उसे धर्म का रहस्य समझ में आ गया।
ईश्वर भाव का भूखा होता है, धन.का नहीं।
योग्यता विस्तार
प्रश्न 1. भीष्म साहनी की अन्य रचनाएँ 'तमस' तथा 'मेरा भाई बलराज' पढ़िए।
उत्तर
:
'तमस
(आजादी
के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में
नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार
की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी है, जिसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है
कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उद्घाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक
साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग
पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले
विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा
बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
और इस सारी प्रक्रिया में जो तबाही हुई है उसका शिकार बनते रहे हैं वे निर्दोष और गरीब
लोग जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं, और हैं भारतीय नागरिक। भीष्म
साहनी ने आजादी से पहले हुए साम्प्रदायिक दंगों को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म
विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है जो अपनी विकृतियों का
परिणाम जनसाधारण को भोगने के लिए विवश करती हैं।)
आले
में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई
थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों
पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद बत्ती अपने-आप सीधी हो जाती और उसमें से उठनेवाली
धुएँ की लकीर आले को चाटती हुई फिर से ऊपर की ओर सीधे रुख़ जाने लगती। नत्थू का साँस
धौंकनी की तरह चल रहा था और उसे लगा जैसे उसके
साँस के ही कारण दीये की बत्ती झपकने लगी है।
नत्थू
दीवार से लगकर बैठ गया। उसकी नज़र फिर सुअर की ओर उठ गयी। सुअर फिर से किकियाया था
और अब कोठरी के बीचोबीच कचरे के किसी लसलसे छिलके को मुँह मार रहा था। अपनी छोटी छोटी
आँखें फ़र्श पर गाड़े गुलाबी-सी थूथनी छिलके पर जमाये हुए था। पिछले दो घण्टे से नत्थू
इस बदरंग, कँटीले सुअर के साथ जूझ रहा था।
तीन बार सुअर की गुलाबी थूथनी उसकी टाँगों को चाट
चुकी थी और उनमें से तीखा दर्द उठ रहा था। आँखें फ़र्श पर गाड़े सुअर किसी वक्त दीवार
के साथ चलने लगता, मानो किसी चीज़ को ढूँढ़ रहा हो, फिर सहसा किकियाकर भागने लगता।
उसकी छोटी-सी पूँछ जहरीले डंक की तरह, उसकी पीठ पर हिलती रहती, कभी उसका छल्ला-सा बन
जाता, लगता उसमें गाँठ पड़ जायेगी, मगर फिर वह अपने-आप ही खुलकर सीधी हो जाती थी। बायीं
आँख में से मवाद बहकर सुअर के थूथने तक चला आया था। जब चलता तो अपनी बोझिल तोंद के
कारण दायें-बायें झूलने सा लगता था। बार बार भागने से कचरा सारी कोठरी में बिखर गया
था। कोठरी में उमस थी। कचरे की जहरीली बास, सुअर की चलती साँस और कड़वे तेल के धुएँ
से कोठरी अटी पड़ी थी। फ़र्श पर जगह-जगह ख़ून के चित्ते पड़ गये थे लेकिन ज़रक़ के
नाम पर सुअर के शरीर में एक भी ज़ख्म नहीं हो पाया था। पिछले दो घण्टे से नत्थू जैसे
पानी में या बालू के ढेर में छुरा घोंपता रहा था। कितनी ही बार वह सुअर के पेट में
और कन्धों पर छुरा घोंप चुका था। छुरा निकालता तो कुछ बूँदें ख़ून की फ़र्श पर गिरतीं,
पर ज़ख्म की जगह एक छोटी सी लीक या छोटा सा धब्बा भर रह जाता जो सुअर की चमड़ी में
नज़र तक नहीं आता था। और सुअर गुर्राता हुआ या तो नत्थू की टाँगों को अपनी थूथनी का
निशाना बनाता या फिर से कमरे की दीवार के साथ साथ चलने अथवा भागने लगता। छुरे की नोक
चर्बी की तहों को काटकर लौट आती थी, अन्तड़ियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी।
मारने
को मिला भी तो कैसा मनहूस सुअर। भद्दा इतनी बड़ी तोंद पीठ पर के बाल काले, थूथनी के
आस पास के बाल सफेद कँटीले जैसे साही के होते हैं।
उसने
कहीं सुना था कि सुअर को मारने के लिए उस पर खौलता पानी डालते हैं। लेकिन नत्थू के
पास खौलता पानी कहाँ था। एक बार चमड़ा साफ़ करते समय सुअर की चर्बी की बात चली थी।
और उसके साथी भीखू चमार ने कहा था, ‘‘सुअर की पिछली टाँग पकड़कर सुअर को उलटा कर दो।
गिरा हुआ सुअर जल्दी से उठ नहीं सकता। फिर उसके गले की नस काट दो। सुअर मर जायेगा।’’
नत्थू ये सब तरकीबें कर चुका था। एक भी तरकीब काम नहीं आयी थी। इसके एवज़ उसकी अपनी
टाँगों और टख़नों पर ज़ख्म हो चुके थे। चमड़ा साफ़ करना और बात है, सुअर मारना बिल्कुल
दूसरी बात। जाने किस ख़ोटे वक्त उसने यह काम सिर पर ले लिया था। और अगर पेशगी पैसे
नहीं लिये होते तो नत्थू ने कब का सुअर को कोठरी में से धकेलकर बाहर खदेड़ दिया होता।
‘‘हमारे
सलोतरी साहिब को एक मरा हुआ सुअर चाहिए, डाक्टरी काम के लिए।’’ मुराद अली ने नत्थू
से कहा था जब वह खाल साफ़ कर चुकने के बाद नल पर हाथ-मुँह धो रहा था।
‘‘सुअर
? क्या करना होगा मालिक ?’’ नत्थू ने हैरान होकर पूछा था।
‘‘इधर
पिगरी के सुअर बहुत घूमते हैं, एक सुअर को इधर कोठरी के अन्दर कर लो और उसे काट डालो।’’
नत्थू
ने आँख उठाकर मुराद अली के चेहरे की ओर देखा था।
‘‘हमने
कभी सुअर मारा नहीं मालिक, और सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन है। हमारे बस का नहीं
होगा हुजूर। खाल-वाल उतारने का काम होता कर दें। मारने का काम तो पिगरीवाले ही करते
हैं।’’
‘पिगरीवालों
से करवाना होता तो तुमसे क्यों कहते। यह काम तुम्हीं करोगे।’’ और मुराद अली ने पाँच
रुपये का चरमराता नोट जेब में से निकाल कर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकी जेब में
ठूँस दिया था।
‘‘यह
तुम्हारे लिए बहुत बड़ा काम नहीं है। सलोतरी साहिब ने फ़रमाइश की तोहम इन्कार कैसे
कर देते।’’ फिर मुराद अली ने लापरवाही के अन्दाज़ में कहा : ‘‘उधर मसान के पार पिगरी
के सुअर घूमते हैं। एक को पकड़ लो। सलोतरी साहिब खुद बाद में पिगरीवालों से बात कर
लेंगे।’’
और
नत्थू कुछ कहे या न कहे कि मुराद अली चलने को हुआ था। फिर अपनी पतली-सी छड़ी अपनी टाँगों
पर धीरे-धीरे ठकोरते हुए कहने लगा : ‘‘आज ही रात यह काम कर दो। सवेरे-सवेरे जमादार
गाड़ी लेकर आ जायेगा, उसमें डलवा देना। भूलना नहीं। वह अपने-आप सलोतरी साहिब के घर
पहुँचा देगा। मैं उसे कह दूँगा। समझ लिया ?’’
नत्थू
के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात
निकल नहीं पाती थी।
‘‘इधर
इलाका मुसलमानी है। किसी मुसलमान ने देख लिया तो लोग बिगड़ेंगे। तुम भी ध्यान रखना।
हमें भी यह काम बहुत बुरा लगता है, मगर क्या करें साहिब का हुक्म है, कैसे मोड़ दें।’’
और मुराद अली छड़ी को फिर से टाँगों पर ठकोरता हुआ वहाँ से चला गया था।
मुराद
अली से रोज़ काम पड़ता था, नत्थू कैसे इन्कार कर देता। जब कभी शहर में कोई घोड़ा मरता,
गाय या भैंस मरती तो मुराद अली खाल दिलवा दिया करता था, अठन्नी रुपया मुराद अली को
भी देना पड़ता मगर खाल मिल जाती। बड़े रख-रखाववाला आदमी था, मुराद अली, कमेटी का कारिन्दा
होने के कारण बड़े-छोटे सभी लोगों को उससे काम पड़ता था।
शहर
की कोई सड़क न थी जिसके बीचोबीच लोगों ने मुराद अली को चलते न देखा हो। पतली बैंत की
छड़ी झुलाता हुआ, ठिगना, काला मुराद अली, जगह जगह घूमता था। शहर की किसी गली में, किसी
सड़क पर वह किसी वक्त भी नमूदार हो जाता था। साँप की सी छोटी छोटी पैनी आंखें और कँटीली
मूँछें और घुटनों तक लम्बा खाकी कोट और सलवार और सिर पर पगड़ी-उसे सब फबते थे इन सबको
मिलाकर ही मुराद अली की अपनी ख़ास तस्वीर बनती थी। अगर हाथ में पतली छड़ी न होती तो
भी और जो सिर पर पगड़ी न होती तो भी और जो उसका क़द ठिगना नहीं होता तो भी उसकी तस्वीर
अधूरी रह जाती।
मुराद
अली खुद तो हुक्म चलाकर निकल गया, नत्थू की जान साँसत में आ गयी। सुअर कहाँ से पक़ड़े
और उसे काटे कैसे। नत्थू के मन में आया था कि शहर के बाहर सीधा पिगरी में चला जाये,
और उन्हीं से कह दे कि एक सुअर काटकर सलोतरी साहिब के घर भिजवा दें। मगर उसके क़दम
पिगरी की ओर नहीं उठे।
सुअर
की कोठरी के अन्दर लाना कौन-सा आसान काम रहा था। उसने आवारा घूमते सुअरों को कचरे में
मुँह मारते देखा था। उसे और कुछ नहीं सूझा। एक कचरे के ढेर पर से कचरा उठा-उठाकर लाता
रहा और इस टूटी-फूटी कोठरी के बाहर आँगन में, दरवाजे के पास कचरे का ढेर लगाता रहा
था। शाम के शाये उतरने लगे थे जब गन्दे पानी के पोखरों, गोबर के ढेरों और गर्द से अटी
झाड़ियों के पास से घूमते हुए तीन सुअर उधर से आ निकले थे। तभी उनमें से एक सुअर कचरा
सूँघता हुआ आँगन के अन्दर आ गया था और नत्थू ने झट से किवाड़ बन्द कर दिया था। फिर
झट से भागकर उसने आँगन के पार कोठरी का दरवाज़ा खोल दिया था और अपनी लाठी से सुअर को
हाँकता हुआ कोठरी के अन्दर ले गया था। फिर इस डर से कि सुअर-बाड़े का आदमी सुअर को
खोजता हुआ उधर नहीं आ निकले और सुअर को किकियाता न सुन ले, नत्थू फिर से कचरा उठा-उठाकर
कोठरी के अन्दर डालता रहा था। कोठरी के अन्दर कचरा पहुँच जाने पर सुअर उसी में खो गया
था और नत्थू आश्वस्त होकर देर तक कोठरी के बाहर बैठा बीड़ियाँ फूँकता और अँधेरा पड़
जाने का इन्तजार करता रहा था। बहुत देर के बाद जब रात गहराने लगी थी तो नत्थू कोठरी
के अन्दर घुसा था। दीये की मद्धम, नाचती-सी रोशनी में उसने देखा कि कचरा सारी कोठरी
में बिखर गया है और उसमें से कीच की सी सड़ाँध उठ रही है। तभी इस बोझिल बदसूरत सुअर
को देखकर उसका दिल बैठ गया था और मन ही मन खीझने पछताने लगा था कि उसने यह गन्दा जोखिम
भरा काम क्यों सिर पर ले लिया है। तब भी उसका मन आया था कि लपककर कोठरी का दरवाज़ा
खोल दे और सुअर को बाहर धकेल दे।
और
अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी और सुअर ज्यों का त्यों कचरे के बीचोबीच अलमस्त सा
घूम रहा था। फ़र्श पर ख़ून के धब्बे पड़ गये थे, और सुअर की तोंद पर दो एक जगह खरोचों
के से निशान नज़र आ रहे थे और उसकी अपनी टाँगों पर सुअर की थूकनी के जख़्म थे और बस।
सुअर पहले की ही भाँति जीता जागता कोठरी में मौजूद था जबकि नत्थू की साँसफूल रही थी,
और बदन पसीने से तर हो रहा था, और कहीं इस झंझट में से निकल पाने का रास्ता नजर नहीं
आ रहा था।
दूर
शेखों के बाग की घड़ी ने दो बजाये। नत्थू घबराकर उठ खड़ा हुआ। उसकी नज़र फिर सुअर पर
गयी। सुअर ने कचरे के टुकड़ों के बीच खड़े खड़े फिर से पेशाब कर दी थी, और झींकता हुआ
कमरे के बीच में से हटकर दायें हाथ की दीवार के साथ साथ चलने लगा था। दीये की लौ फिर
से झपकने लगी थी, और किसी दुःस्वप्न की तरह साये बार बार दीवारों पर डोलने लगे थे।
स्थिति में तनिक भी अन्तर नहीं आया था। सुअर पहले की तरह सिर नीचा किये, थूथने से कभी
कचरे के टुकड़े को सूँघने के लिए रुक जाता, कभी दीवार के साथ साथ चलने लगता और कभी
किकियाकर दीवार के साथ साथ भागने लगता। पहले की ही तरह उसकी पतली-सी दुम किसी पतले,
लम्हे कीड़े की तरह छल्ले बनाती खुलती जा रही थी।
‘‘ऐसे
नहीं चलेगा।’’ नत्थू ने दाँत पीसकर कहा, ‘‘यह मेरे बस का रोग नहीं है। यह सुअर आज मुझे
ले-दे जायेगा।’’
उसका
मन हुआ एक बार फिर सुअर की टाँगे पीछे से खींचकर उसे उलटा गिराने की कोशिश कर देखे।
बायें हाथ में छुरे को ऊँचा उठाये, वह धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ कोठरी के बीचोबीच चला
आया। सुअर दायें हाथ की दीवार के सिरे तक पहुँचकर बायीं ओर दीवार के साथ साथ चलने लगा
था। नत्थू को अपनी ओर बढ़ते देखकर भागने की बजाय वह मुड़कर नत्थू की ओर आने लगा। एक
बार सुअर गुर्राया भी जैसे वह नत्थू पर झपटने जा रहा हो। नत्थू एक एक कदम पीछे की ओर
उठाने लगा। उसकी आँखें अभी भी सुअर की थूथनी पर लगी थीं। अब सुअर उसके ऐन सामने था,
उसी की ओर बढ़ रहा था। इस स्थिति में उसकी पिछली टाँग को पकड़कर पीछे की ओर खींचना
और उसे पीठ के बल गिरा पाना असम्भव हो गया था। सुअर की छोटी-छोटी लाल आँखों में खुमार
छाया था। न जाने क्या कर बैठे। पर नत्थू बदहवास हो रहा था। दो बज चुके थे, और जो काम
पिछली शाम से अब तक नहीं हो पाया वह अब पौ फटने से पहले कैसे हो पायेगा। किसी वक्त
भी जमादार का छकड़ा आ सकता है और जो काम न हुआ तो मुराद अली का क्या भरोसा, दोस्त से
दुश्मन बन जाये, खालें दिलवाना बन्द कर दे, कोठरी में से उठवा दे, किसी से पिटवा दे,
परेशान करे। नत्थू के हाथ-पैर फूलने लगे। वह मन ही मन जानता था कि सुअर पिछले पाँव
से पकड़ने पर सुअर काट खायेगा। या उछलेगा और हाथ छुड़ा लेगा।
सहसा
नत्थू भन्ना उठा। बिना किसी स्पष्ट कारण के जैसे उसके तन-बदन में आग लग गयी। ‘या मैं
नहीं रहूँगा, या यह नहीं रहेगा’ उसने कहा और झट से लौटकर आले के फ़र्श पर रखी पत्थर
की सिल उठा ली। सिल उठाकर वह सीधा कोठरी के बीचोबीच पहुँच गया। सिल को दोनों हाथों
से सिर के ऊपर उठाये वह क्षण भर के लिए ठिठका रहा। सुअर की थूथनी अभी भी अगले पैरों
पर थी और वह खरबूजे के छिलके को सूँघ रहा था। उसकी लाल-लाल आँखें मिचमिचा रही थीं।
पीठ के पीछे उसकी नन्हीं सी पूँछ बराबर हिल रही थी। अगर यह हिले डुले नहीं और सिल सीधी
उसके शरीर पर जा पड़े तो कहीं पर तो वह वार करेगी, और कोई न कोई अंग तो सुअर का टूटकर
रहेगा ही। अगर एक टाँग ही टूट जाये तो वह भी गनीमत है, उसका चलना पहले से कठिन हो जायेगा।
फिर
दोनों हाथ तौलकर नत्थू ने सिल को सुअर पर दे मारा। आले में रखे दीये की लौ थरथरायी
और दीवारों पर साये डोल गये। सिल सुअर के लगी थी लेकिन नत्थू ठीक तरह से नहीं जानता
था कि कहाँ लगी है। सुअर ज़ोर से किकियाया और सिल खटाक से फर्श पर जा गिरी। नत्थू सिर
फेंकते ही पीछे हट गया, और सुअर की ओर घूर-घूरकर देखने लगा। नत्थू को देखकर आश्चर्य
हुआ, सुअर की अधमुँदी आँखें मिचमिचा रही थीं और उसकी थूथनी अभी भी अगली टाँगों पर टिकी
थी।
सहसा
सुअर गुर्राया और पिछली दीवार से हटकर कोठरी के बीचोबीच आने लगा। वह दायें-बायें झूल
रहा था। नत्थू एक ओर को, आँगन में खुलने वाले दरवाज़े की ओर सरककर खड़ा हो गया। दीये
की अस्थिर रोशनी में सुअर एक काले पुंज की तरह आगे बढ़ता आ रहा था। सिल उसके माथे पर
पड़ी थी जिससे वह शायद चकरा गया था और उसे ठीक तरह से दिखायी नहीं दे रहा था। नत्थू
डर गया। सुअर ज़रूर उसकी ओर बढ़ता आ रहा है और वह उसे ज़रूर काट खायेगा। सिल का उस
पर कोई असर हुआ नहीं जान पड़ता था।
नत्थू
ने झट से दरवाज़ा खोला और कोठरी के बाहर हो गया।
‘किस
मुसीबत में जान फँस गयी हैं।’ वह बुदबुदाया और आँगन में आकर मुँडेर के पास खड़ा हो
गया। बाहर पहुँचकर स्वच्छ बहती और हवा में उसे राहत मिली। कोठरी की घुटन और बदबू में
वह परेशान हो उठा था। पसीने से तर उसके शरीर को हवा के हल्के से स्पर्श से असीम आनन्द
का अनुभव हुआ। क्षणभर के लिए उसे लगा जैसे वह फिर से जी उठा है, उसकी शिथिल मरी हुई
देह में फिर से जान आ गयी है। ‘मुझे क्या लेना इस काम से सलोतरी को सुअर नहीं मिलता
तो न मिले, मेरी बला से, मैं कल मुराद अली के सामने पाँच का नोट पटक दूँगा और हाथ जोड़
दूँगा। यह मेरे बस का नहीं है हुजूर मैं यह काम नहीं कर सकता। मेरा क्या बिगाड़ लेगा।
दो दिन मुँह बनाये रखेगा, मैं घुटनों पर हाथ रखकर उसे मना लूँगा।’’
मुँडेर
के पीछे वह ठिठका खड़ा रहा। चाँद निकल आया था और चारों और छिटकी चाँदनी में उसे आस-पास
का सारा इलाका पराया-पराया और रहस्य पूर्ण सा लग रहा था। सामने से गुजरने वाली बैलगाड़ियों
की कच्ची सड़क इस वक्त सूनी पड़ी थी। मूक और शान्त। दिन भर उस पर उत्तर के गाँव से
आनेवाली बैलगाड़ियों की खटर-पटर और बैलों के गले में बँधी घण्टियों की टुन टुन सुनायी
देती रहती थी। उनके पहियों से सड़क पर गहरी लीकें बन गयी थीं और मिट्टी पिस–पिसकर इतनी
बारीक हो गयी थी कि इस पर पैर रखते ही पैर घुटनों तक मिट्टी में धँस जाता था। सड़क
के पार तीखी ढलान पर जो नीचे मैदान में उतर गयी थी, छोटी छोटी झाड़ियाँ और बेरों के
पेड़ और कँटीली ‘झोर के झुरमुट धूल से अटे थे और चाँदनी रात में धुले-धुले से लग रहे
थे।
मैदान
के पार मसान था जिसके पीछे दो कोठरियों में एक डोम रहता था। इस समय एक के साथ एक सटी
हुई, उजड़ी हुई सी लग रही थीं। किसी भी कोठरी में दीया नहीं टिमटिमा रहा था। डोम रात
को शराब पिये हुए चिल्लाया बड़-बड़ाता रहा था। और उसकी आवाज़ मैदान के पार इस कोठरी
तक आती रही थी। पर इस वक्त जैसे वह मरा पड़ा था। नत्थू को सहसा अपनी पत्नी की याद आयी,
जो इस वक्त आराम से चमारों की बस्ती में सोयी पड़ी होगी। यह संकट मोल न लिया होता तो
इस वक्त वह उसके पास होता, उसकी अलस, गदराई देह उसकी बाँहों में होती। अपनी युवा पत्नी
को बाँहों में भर पाने की ललक उसे बुरी तरह से बेचैन करने लगी। न जाने कितनी देर तक
वह उसकी राह देखती रही होगी। उससे बिना कुछ कहे सुने वह घर से चला आया था। एक ही शाम
उससे दूर रहकर वह परेशान हो उठा था।
कच्ची
सड़क दायें हाथ को दूर तक जाकर नीचे उतर गयी थी। इस वक्त चाँदनी में वह कितनी साफ़
धुली-धुली लग रही थी। उसके किनारे, एक ओर को हटकर कच्चा कुआँ और उस पर पड़ा उसका चक्कर
और माल भी बुरे नहीं लग रहे थे। थोड़ी दूर जाने पर ही यह वीरान इलाका खत्म हो जाता
था और कच्ची सड़क शहर को जानेवाली पक्की सड़क से जा मिलती थी। चारों और चुप्पी छायी
थी। दूर बायीं और पिगरी की नीचे की इमारत थी जो चाँदनी में चपटे काले डिब्बे सी लग
रही थी। दूर दूर तक खाली ज़मीन पड़ी थी जिस पर जगह-जगह कँटीली झाड़ियाँ और छोटे छोटे
पेड़ छितरे पड़े थे। दूर, बहुत दूर, फ़ौजी छावनी की बारकें थीं, अलग-अलग, जहाँ तक पहुँच
पाने में घण्टों लग जाते थे।
नत्थू
की देह शिथिल पड़ गयी थी। उसका मन हुआ वहीं खड़ा-खड़ा मुँडेर पर सिर रखकर झपकी ले ले।
कोठरी में से बाहर निकलकर यह जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गया था। स्वच्छ, शीतल हवा
और चारों ओर छितरी चाँदनी में उसे अपनी स्थिति पर रुलायी-सी आने लगी। बाहर आकर उसे
अपने हाथ में पकड़ा छुरा असंगत-सा लगने लगा। उसका मन हुआ वहाँ से भाग जाये, कोठरी में झाँककर देखे भी नहीं और
भाग जाये। कल सुअर-बाड़े का पूर्बिया ज़रूर इधर से गुजरेगा और कचरा देखकर ही समझ जायेगा
कि सुअर कोठरी में होगा और वह उसे हाँककर वहाँ से ले जायेगा।
उसे
फिर से अपनी पत्नी की याद सताने लगी। अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उसके साथ हौले-हौले
बतियाते हुए ही उसके क्षुब्ध व्याकुल मन को चैन मिल सकता था। कब वह झंझट खत्म होगा
और कब वह उसके पास चमारों की बस्ती में लौट पायेगा ?
सहसा
दूर शेखों के बाग की घड़ी ने तीन बजाये और नत्थू की सारी देह थरथरा गयी। उसकी नज़र
उसके हाथ पर गयी जिसमें अभी भी वह छुरा पकड़े हुए था। एक गहरी टीस उसके मन में उठी
अब क्या होगा ? वह यहाँ पर खड़ा क्या कर रहा है जबकि सुअर अभी तक नहीं मरा ? जमादार
छकड़ा लेकर आया ही चाहता होगा। वह उसे क्या कहेगा, क्या जवाब देगा। आकाश में हल्की-सी
पीलिमा घुल गयी थी। पौ फटने वाली थी, और वह अभी तक अपने काम से निबट नहीं पाया था।
उसे अपनी स्थिति पर रुलायी आने लगी।
घबराया
हुआ सा कोठरी की ओर गया। धीरे से दरवाज़ा खोलकर उसने अन्दर झाँका। कोठरी का दरवाज़ा
खोलते ही बदबू का भभूका-सा जैसे उस पर झपटा। लेकिन दीये की रोशनी में उसने देखा कि
कोठरी के ऐन बीचो-बीच सुअर खड़ा है, निश्चल सा, मानो घूम-घूमकर थक गया हो, निढाल—सा।
किसी अन्त:प्रेरणावश नत्थू को लगा जैसे अब उसे मार गिराना इतना कठिन नहीं होगा। नत्थू
ने दरवाजा़ भेड़ दिया और फिर आले के नीचे चुपचाप जाकर खड़ा हो गया और एकटक सुअर की
ओर देखने लगा।
नत्थू
के अन्दर आ जाने पर सुअर ने अपना नथुना उठाया। नत्थू को लगा जैसे सुअर का नथुना ज्यादा
लाल हो रहा है और सुअर की आँखें सिकुड़ी हुई हैं। उस पर फैंकी हुई पत्थर की सिल सुअर
के पीछे कुछ दूरी पर पड़ी थी। दीये की टिमटिमाती लौ ने फिर झपकी ली, और अस्थिर रोशनी
में नत्थू को लगा जैसे सुअर फिर से हिला है, और चलने लगा है। वह आँखें फाड़-फाड़कर
उसकी ओर देखने लगा। सुअर सचमुच हिला था। वह सचमुच ही बोझिल स्थिर गति से आगे की ओर,
नत्थू की ओर बढ़ने लगा था। दो एक क़दम, दायें-बायें झूलकर चलने के बाद एक अजीब-सी आवाज़
सुअर के मुँह में से निकली। नत्थू फिर से छुरा ऊँचा उठाकर फ़र्श पर पैरों के बल बैठ
गया। सुअर ने दो तीन कदम और आगे की ओर बढ़ाये। उसका नथुना अपने पैरों की ओर और अधिक
झुक गया और नत्थू के पास पहुँचते-न-पहुँचते वह एक ओर को लुढ़ककर गिर गया। उसकी टाँगों
में एक बार ज़ोर का कम्पन हुआ मगर कुछ क्षणों में ही वे हवा में उठी-कभी उठी रह गयीं।
सुअर ढेर हो चुका था।
नत्थू
ने छुर्रा फ़र्श पर रख दिया, मगर उसकी आँखें अभी भी सुअर पर लगी थीं। तभी दूर पड़ोस
के किसी घर में किसी मुर्गे ने पर फड़फड़ाये और बाँग दी। उसी समय दूर कच्ची सड़क पर
हिचकोले खाते छकड़े की आवाज़ आयी। और नत्थू ने चैन की साँस ली।
प्रश्न 2. गांधी तथा नेहरू
जी से संबंधित अन्य संस्मरण भी पढ़िए और उन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
: विद्यार्थी स्वयं ऐसा करें।
प्रश्न 3. यास्सेर अराफात के आतिथ्य से क्या प्रेरणा मिलती है और आप
अपने अतिथि का सत्कार किस प्रकार करना चाहेंगे?
उत्तर
: यास्सेर अराफात एक बहुत बड़े नेता थे तथा फिलिस्तीनी सरकार के प्रमुख थे, फिर भी
वे अपने अतिथियों का सत्कार करने स्वयं बाहर आए, उन्हें अपने साथ भीतर ले गए। स्वयं
फल छीलकर उन्हें खिलाए, उनके लिए शहद की चाय स्वयं तैयार की। यही नहीं अपितु स्नानगृह
के बाहर तौलिया लेकर खड़े रहे जिससे अतिथि हाथ पोंछ लें। इससे अतिथि सत्कार की प्रेरणा
मिलती है। मैं भी अपने अतिथियों का सत्कार इसी प्रकार करूँगा। 'अतिथि देवो भव' हमारी
संस्कृति का अंग है। अतिथि को कोई कष्ट न होने पाये तथा हम उसका पूरा सम्मान करें-यही
अतिथि सत्कार का मूल मंत्र है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भीष्म साहनी की पं. नेहरू जी से भेंट कहाँ हुई थी?
उत्तर
: भीष्म साहनी की पं. नेहरू जी से भेंट कश्मीर में हुई थी।
प्रश्न 2. भीष्म साहनी अपने भाई बलराज साहनी के साथ सेवाग्राम में कब
रहा था?
उत्तर
: भीष्म साहनी अपने भाई बलराज साहनी के साथ सेवाग्राम में सन् 1947 के लगभग रहा था।
प्रश्न 3. यास्सेर अराफात से भीष्म साहनी की भेंट किस लेखक संघ के सम्मेलन
के दौरान हुई
उत्तर
: यास्सेर अराफात से भीष्म साहनी की भेंट इण्डो-चाइना लेखक संघ के सम्मेलन के दौर
प्रश्न 4. अफ्रो एशियाई लेखक संघ का सम्मेलन कहाँ हुआ था?
उत्तर
: अफ्रो एशियाई लेखक संघ का सम्मेलन ट्यूनिस में हुआ था।
प्रश्न 5. अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के कार्यकारी महामंत्री को भोजन पर
किसने आमंत्रित किया?
उत्तर
: अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के कार्यकारी महामंत्री को भोजन पर यास्सेर अराफात ने आमंत्रित
किया।
प्रश्न 6. बलराज जी क्या काम करते थे?
उत्तर
: बलराज जी एक पत्रिका में सह-संपादक के स्थान पर कार्यरत थे।
प्रश्न 7. कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेशन कब हुआ था?
उत्तर
: कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेशन सन् 1938 में हुआ था।
प्रश्न 8. गाँधी जी लगभग कितने बजे टहलने के लिए निकला करते थे?
उत्तर
: गाँधी जी सुबह 7 बजे टहलने के लिए निकला करते थे।
प्रश्न 9. गांधी जी के साथ कौन-कौन टहलने निकला करता था?
उत्तर
: गांधी जी के साथ सुबह अक्सर डाक्टर सुशीला नय्यर और गांधी के निजी सचिव महादेव देसाई
टहला करते थे।
प्रश्न 10. मिस्टर जान कौन थे?
उत्तर
: मिस्टर जान रावलपिंडी शहर के रहने वाले, जाने-माने बैरिस्टर थे।
प्रश्न 11. लड़का क्यों बापू को बार-बार याद कर रहा था?
उत्तर
: वह पंद्रह साल का लड़का, जिसके ज्यादा ईख पी लेने से उसका पेट फूल गया था और बहुत
तेज दर्द हो रहा था। उसको यह विश्वास था कि गांधी जी अगर आ जाएँ तो मेरी बीमारी ठीक
हो जाएगी।
प्रश्न 12. गांधी जी प्रत्येक दिन कच्ची सड़क पर क्या करने जाया करते
थे?
उत्तर
: गांधी जी प्रतिदिन प्रात: कच्ची सड़क पर घूमने निकलते जहाँ पर एक रुग्ण व्यक्ति रहता
था, गांधी जी हर दिन उसके पास स्वास्थ्य का हाल-चाल जानने के लिए जाया करते थे।
प्रश्न 13. शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में क्या हुआ था?.
उत्तर
: जब पंडित नेहरू कश्मीर यात्रा पर आए थे, तो उनका भव्य स्वागत करने हेतु शेख अब्दुल्ला
को नेतृत्व सौंपा गया था। यह बिल्कुल अद्भुत दृश्य था।
प्रश्न 14. नेहरू जी के साथ खाने की मेज पर कौन-कौन बैठा था?
उत्तर
: खाने की मेज पर बड़े लब्धप्रतिष्ठ लोग बैठे थे- शेख अब्दुल्ला, खान अब्दुल गफ्फार
खान, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, उनके पति आदि।
प्रश्न 15. सेवाग्राम में कौन-कौन लोग आये थे?
उत्तर
: सेवाग्राम में गांधी जी, जवाहरलाल नेहरू, यास्सेर अराफात, पृथ्वीसिंह आजाद, मीरा
बेन, खान अब्दुल गफ्फार खान, राजेंद्र बाबू, कस्तूरबा गांधी इत्यादि के आने का जिक्र
लेखक ने इस पाठ में किया है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भीष्म साहनी सेवाग्राम क्यों गए थे?
उत्तर
: बलराज साहनी, भीष्म साहनी के बड़े भाई थे। वह उन दिनों सेवाग्राम से प्रकाशित होने
वाली पत्रिका 'नयी तालीम' के 'सह-संपादक' थे। भीष्म जी उनके पास कुछ दिनों तक रहने
के लिए वहाँ गए थे। ऐसा करके वह कुछ दिन गाँधी के सान्निध्य में भी बिताना चाहते थे।
प्रश्न 2. सेवाग्राम में ठहरा जापानी बौद्ध क्या करता था ?
उत्तर
: गांधीजी से देश-विदेश के लोग कितने प्रभावितं थे इसे बताने के लिए लेखक ने एक बौद्ध
भिक्षुक का प्रसंग दिया है जो उस समय सेवाग्राम में आया हुआ था। वह प्रतिदिन 'गाँग'
बजाता हुआ गांधीजी के आश्रम की प्रदक्षिणा करता था और शाम को प्रार्थना सभा में पहुँचकर
गांधीजी को प्रणाम कर एक ओर चुपचाप बैठ जाता था। गाँधी जी के प्रति सम्मान भाव होने
के कारण ही वह यह सब करता था।
प्रश्न 3. भीष्म साहनी काश्मीर क्यों गए थे ?
उत्तर
: उन दिनों जवाहरलाल नेहरू काश्मीर यात्रा पर गए थे और भीष्म जी के फुफेरे भाई के बँगले
पर ठहराए गए थे। उनकी देखभाल में हाथ बँटाने के लिए उनके फुफेरे भाई ने भीष्म जी को
वहाँ बुला लिया था। भीष्म जी ने सोचा कि नेहरू जी को निकट से देखने जानने का यह अच्छा
मौका था। अतः नेहरू जी को निकट से देखने-जानने के लिए भीष्म जी काश्मीर गए थे।
प्रश्न 4. नेहरू जी की दिनचर्या काश्मीर में क्या रहती थी?
उत्तर
: दिनभर पण्डित जवाहरलाल नेहरू स्थानीय नेताओं के साथ जगह-जगह घूमते, विचार-विमर्श
करते और व्यस्त रहते थे। शाम को खाने की मेज पर सब लोग साथ बैठते और बातचीत चलती रहती।
देर रात तक वह चिट्ठियाँ लिखाते रहते थे। सुबह उठकर वह फर्श पर बैठकर चरखा कातते थे।
सवेरे-सवेरे वह अखबार भी पढ़ते थे।
प्रश्न 5. "अरे, मैं उन दिनों इतना काम कर लेता था। कभी थकता ही
नहीं था।" इस कथन में गाँधीजी की किस विशेषता का वर्णन मिलता है ?
उत्तर
: इस कथन में गाँधीजी को परिश्रमशीलता का वर्णन मिलता है। गाँधीजी सबेरे जल्दी उठते
थे। प्रातः भ्रमण पर जाते समय तेज चलते थे। इसी समय वह अन्य कार्य भी निबटा लेते थे।
वह आश्रम की सफाई आदि कार्य स्वयं करते थे।
प्रश्न 6. नेहरू जी के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ पाठ के आधार
पर बताइए।
उत्तर
: नेहरू जी एक लोकप्रिय व्यक्ति थे। कश्मीर की जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। दिन
भर वे स्थानीय नेताओं के साथ कार्यक्रमों में जाते, विचार-विमर्श करते और रात को चिट्ठियाँ
लिखवाते। सुबह चरखा कातते थे। वे शिष्ट और शालीन होने के साथ-साथ तर्क पूर्ण उत्तर
देने वाले व्यक्ति थे। वह अत्यन्त परिश्रमी थे। वह अन्धविश्वासी नहीं थे। धर्म के बाहरी
और दिखावटी स्वरूप में उनकी श्रद्धा नहीं थी। वह उसके मर्म को समझते थे।
प्रश्न 7. यास्सेर अराफात कौन थे? उनके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ
पाठ के आधार पर बताइए।
अथवा
'यास्सेर अराफात का व्यक्तित्व सहजता, सरलता तथा सेवाभाव से ओतप्रोत
था।' गाँधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: यास्सेर अराफात फिलिस्तीनी नेता थे। वे अपने शिष्ट और शालीन व्यवहार के साथ-साथ अपने
अतिथि सत्कार ... के गुण के कारण भी प्रशंसनीय थे। भीष्म जी को उन्होंने जब भोजन पर
आमंत्रित किया तो अपने हाथ से फल छीलकर दिए, शहद की चाय बनाई तथा जब वे स्नानगृह गए
तो स्वयं तौलिया लेकर दरवाजे पर खड़े रहे। वह भारत तथा भारतीयों के प्रशंसक थे। वह
गाँधी जी, नेहरू जी आदि भारतीय नेताओं को सम्मानपूर्वक अपना नेता मानते थे।
प्रश्न 8. पृथ्वी सिंह आजाद कौन थे? लेखक ने उनके बारे में क्या बताया
है ?
उत्तर
: पृथ्वी सिंह आजाद एक देशभक्त क्रान्तिकारी थे। लेखक ने उनको गाँधी जी के सेवाग्राम
में देखा था। एक बार पुलिस उनको हथकड़ी लगाकर रेलगाड़ी से ले जा रही थी। उन्होंने हथकड़ी
समेत भागती हुई रेलगाड़ी से छलांग लगा दी थी। वह पुलिस की पकड़ से निकल भागे थे। इसके
बाद उन्होंने गुमनाम रहकर एक स्कूल में अध्यापक का काम किया था। इस बीच पुलिस को उनके
बारे में पता नहीं चल पाया था। ये बातें आजाद ने स्वयं बताई थीं।
प्रश्न 9. भीष्म साहनी ने गाँधी जी की वेशभूषा का जो वर्णन किया है
उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
: भीष्म साहनी ने गाँधी जी को सेवाग्राम आश्रम के फाटक से बाहर सवेरे घूमने जाने के
लिए निकलते समय देखा तो वह हू-ब-हू वैसे ही लग रहे थे जैसे चित्रों में दिखाई देते
थे। गाँधी जी नंगे बदन पर हल्की सी खादी की चादर ओढ़ते थे। नीचे भी खादी की चादर पहनते
थे। पैरों में चप्पलें पहनते थे जिन पर धूल जमी होती थी। आँखों पर चश्मा रहता था। एक
घड़ी उनकी कमर में लटकी होती थी।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. गांधी जी के व्यक्तित्व की विशेषताएँ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर
: गांधीजी उन दिनों वर्धा के पास सेवाग्राम में आश्रम बनाकर रहते थे। वे प्रातः 7 बजे
टहलने जाते थे। उनके साथ । आश्रमवासियों की एक टोली होती थी। कोई भी उनके साथ टहलने
जा सकता.था। रास्ते में बातचीत होती रहती थी। गांधी जी धीमे स्वर में बोलते थे जैसे
आत्मालाप कर रहे हों। उनकी याददाश्त बहुत तेज थी। वर्षों पहले वे रावलपिंडी आए थे।
जब
लेखक ने उन्हें इसका स्मरण दिलाया तो उन्होंने रावलपिंडी के प्रसिद्ध वकील मिस्टर जॉन
की कुशल-क्षेम पूछी। शायद रावलपिंडी प्रवास में वे उनके यहाँ ही रुके थे।गांधीजी सेवाभावी
व्यक्ति थे। उन्होंने उस रोगी बालक का उपचार किया जिसने ज्यादा गन्ने का रस पी लिया
था। उल्टी कराकर उसे सामान्य बनाया। वे प्रतिदिन उस रोगी के पास जाते थे जो शायद तपेदिक
से पीड़ित था। गांधीजी का पूरे विश्व में सम्मान था।
प्रश्न 2. "मैं भी धर्म के बारे में कुछ जानता हूँ"..-नेहरू
जी अपने इस कथन को किस प्रकार स्पष्ट किया ? क्या आप धर्म के विषय में नेहरू जी से
सहमत हैं ?
उत्तर
: नेहरू जी ने अपने इस कथन को स्पष्ट करने के लिए फ्रांसीसी लेखक अनातोले फ्रांस द्वारा
लिखित कहानी सुनाई। एक गरीब नट माता मरियम को प्रसन्न करने के लिए खेल दिखा रहा था।
पादरी उसे गिरंजाघर से बाहर निकालना चाहता था, तभी उसने देखा कि मरियम की मूर्ति सजीव
होकर उसके पास आई और अपने आँचल से उसका पसीना पोंछा और उसके सिर को सहलाने लगी। नेहरू
ने इस प्रकार स्पष्ट किया कि ईश्वर की दृष्टि में अमीर-गरीब सभी समान होते हैं। धर्म
वह नहीं है जिसका प्रदर्शन और उपदेश पण्डित, पादरी, मौलवी आदि करते हैं। वह तो धर्म
के नाम पर ढकोसला है। धर्म दीन-दुखियों की सहायता करना और उनसे सहानुभूति रखना है।
मानवता की सेवा ही सच्चा धर्म है। धर्म के बारे में . नेहरू जी की इस मान्यता से मैं
पूरी तरह सहमत हूँ।
प्रश्न 3. लेखक के मन में गाँधी जी के साथ टहलने को लेकर कैसा उत्साह
था?
उत्तर
: जब लेखक के भाई ने लेखक को बताया कि गाँधी जी से मिलने के लिए भोर में 7 बजे उठना
पड़ेगा, वो सुबह यहीं पर टहलते हुए आते हैं। अगले दिन लेखक और उनके भाई सुबह सात बजे
भागते-दौड़ते उस जगह पहुँचे, जहाँ से गाँधी जी गुजरने वाले थे। लेखक उनसे मिलने के
लिए बहुत उत्साहित था, मगर जब वे आये तो उन्हें देख वह थोड़ा आश्चर्यचकित हो गया। वह
सोचने लगा कि गाँधी जी तो चित्र में भी बिलकुल ऐसे ही दिखते हैं।
उसने
गाँधी जी से कहा कि बापू आप तो चित्र में भी ऐसे ही दिखते हैं, यह कथन सुनकर वह मुस्कुराये
और आगे बढ़ने लगे। लेखक भी उनके साथ हो लिया और टहलने लगा, वह उत्साह और प्रसन्नता
के साथ गाँधीजी के साथ कदम से कदम मिला रहा था। ऐसा करते हुए उसका दिल हर्षोल्लास के
साथ भर गया था।
प्रश्न 4. नेहरू जी जब कश्मीर से आये थे, तो उनके स्वागत में क्या-क्या
इंतजाम किये गये थे?
उत्तर
: पंडित नेहरू काश्मीर यात्रा पर आए थे, यह बात भी लगभग उसी समय की है। वहाँ उनका भव्य
स्वागत हुआ। शेख अब्दुल्ला को इनके स्वागत-समारोह का नेतृत्व सौंपा गया था। कश्मीर
की सबसे खूबसूरत झेलम नदी के एक हिस्से से दसरे हिस्से तक, नावों में सवार नेहरू जी
की शोभायात्रा देखने को मिली थीं। नदी के दोनों और हजारों की संख्या में काश्मीर निवासी
अगाध उत्साह और हर्ष के साथ उनका स्वागत कर रहे थे। यह सच में बहुत ही अद्भुत दृश्य
था। शोभायात्रा समाप्त होने पर नेहरू जी को लेखक के फुफेरे भाई के बँगले में ठहराया
गया था। लेखक के भाई के आग्रह पर लेखक ने पंडित जी की देखभाल में उनका हाथ बँटाया था।
प्रश्न 5. नेहरू जी ने कौन-सी कहानी सुनाई थी? पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर
: नेहरू जी ने फ्रांस के विख्यात लेखक, अनातोले फ्रांस की लिखित कहानी सुनाई। पेरिस
शहर में एक गरीब बाजीगर रहता था, जो करतब दिखाकर अपना पेट पालता.था। एक बार क्रिसमस
का पर्व था। पेरिस निवासी, सजे-धजे, तरह-तरह के उपहार लिए, माता मरियम को श्रद्धांजलि
अर्पित करने गिरजाघर में जा रहे थे। लेकिन पर्व में भाग न ले सकने के कारण बाजीगर बहुत
उदास था। क्योंकि उसके पास माता मरियम के चरणों में रखने के लिए कोई तोहफा नहीं था।
उसने
माता मरियम को अपने करतब दिखाकर उनकी अभ्यर्थना करने की सोची। तन्मयता के साथ वह मरियम
को एक के बाद ‘एक करतब दिखाकर थक गया और हाँफने लगा। उसके हाँफने की आवाज सुनकर, बड़ा
पादरी भागता हुआ गिरजे के अंदर आया। उस वक्त बाजीगर सिर के बल खड़ा हो अपना करतब दिखा
रहा था। यह देख बड़ा पादरी तिलमिला उठा और बोल पड़ा- माता मरियम का इससे बड़ा अपमान
और क्या होगा। आगबबूला होकर वह आगे बढ़कर उसे लात मारकर गिरजे के बाहर निकालने ही वाला
था कि माता मरियम की मूर्ति अपनी जगह से हिल गई, माता मरियम अपने मंच पर से उतरकर नट
के पास आई और अपने आँचल से हाँफते हुए नट के माथे का पसीना पोंछती हुई, उसके सिर को
सहलाने लगी।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : भीष्म साहनी का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर
: साहित्यिक परिचय - भाषा-भीष्म जी की भाषा उर्दू मिश्रित सरल हिन्दी है। उनकी
भाषा में पंजाबी शब्दों की सोंधी महक भी है। छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करके वे विषय
को प्रभावी एवं रोचक बना देने की कला में पारंगत हैं। कहानियाँ एवं उपन्यासों में संवादों
के प्रयोग से वे अद्भुत ताजगी ला देते हैं। उनकी भाषा में मुहावरों का भी प्रयोग मिलता
शैली
-
भीष्म साहनी ने अपनी रचनाओं के लिए वर्णनात्मक और संस्मरण शैलियों का प्रयोग मुख्य
रूप से किया है। विषय के अनुरूप चित्रात्मक शैली, संवाद शैली आदि को भी अपनाया है।
बीच-बीच में हास्य-व्यंग्य के छीटों से उनकी रचनाएँ सुसज्जित हैं। पात्रों के चरित्रांकन
में आपने मनोविश्लेषण की शैली का प्रयोग किया है।
कृतियाँ
कहानी
संग्रह - 1. भाग्यरेखा. 2. पहला पाठ. 3. भटकती राख.4. पटरियाँ.
5. वाङच. 6. शोभायात्रा.7. निशाचर. 8. पाली, 9. डायन।
उपन्यास
- 1. झरोखे, 2. कड़ियाँ, 3. तमस, 4. बसंती, 5. मय्यादास की माड़ी, 6. कुंतो, 7. नीलू
नीलिमा नीलोफर।
नाटक
-
1. माधवी, 2. हानूश, 3. कबिरा खड़ा बजार में, 4. मुआवजे।
बाल
साहित्य - गुलेल का खेल (कहानी संग्रह)
गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात (सारांश)
लेखक परिचय
जन्म-सन्
1915 ई., स्थान रावलपिण्डी (वर्तमान में पाकिस्तान में)। बड़े भाई प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता
बलराज साहनी, गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से एम. ए. अंग्रेजी, पी-एच.डी. (पंजाब विश्वविद्यालय
से)। जाकिर हुसैन कॉलेज दिल्ली, खालसा कॉलेज, अमृतसर, अम्बाला के कॉलेज आदि में अध्यापन
कार्य किया। निधन-सन् 2003 ई.।
साहित्यिक
परिचय - लगभग सात वर्षों तक आप 'विदेशी भाषा प्रकाशन गृह' मॉस्को
(रूस) में अनुवादक के पद पर कार्यरत रहे। इससे पूर्व भारत में आप पत्रकारिता के साथ-साथ
'इप्टा' नामक नाट्य मण्डली से भी जुड़े रहे। 'नई कहानियाँ' नामक पत्रिका का भी आपने
कई वर्षों तक कुशल संपादन किया। रूस प्रवास के दौरान आपने रूसी भाषा का अध्ययन किया
और लगभग दो दर्जन रूसी पुस्तकों का अनुवाद किया।
भीष्म
जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार के अतिरिक्त शलाका सम्मान तथा साहित्य अकादमी की महत्तर
फेलोशिप भी .. प्राप्त हो चुकी है। उनके 'तमस' उपन्यास का कथानक भारत विभाजन की घटना
पर आधृत है। इस पर दूरदर्शन का धारावाहिक भी प्रसारित हो चुका है। इसी प्रकार 'बसंती'
उपन्यास को भी 'दूरदर्शन' धारावाहिक के रूप में प्रसारित कर चुका है। 'चीफ की दावत'
उनकी बहुचर्चित कहानी है। भीष्म जी की गणना हिन्दी के चर्चित कथाकारों में की जाती
है।
भाषा
- भीष्म जी की भाषा उर्दू मिश्रित सरल हिन्दी है। उनकी भाषा में पंजाबी शब्दों की सोंधी
महक भी है। छोटे छोटे वाक्यों का प्रयोग करके वे विषय को प्रभावी एवं रोचक बना देने
की कला में पारंगत हैं। कहानियाँ एवं उपन्यासों में संवादों के प्रयोग से वे अद्भुत
ताजगी ला देते हैं। उनकी भाषा में मुहावरों का भी प्रयोग मिलता है।
शैली
-
भीष्म साहनी ने अपनी रचनाओं के लिए वर्णनात्मक और संस्मरण शैलियों का प्रयोग मुख्य
रूप से किया है। विषय के अनुरूप चित्रात्मक शैली, संवाद शैली आदि को भी अपनाया है।
बीच-बीच में हास्य-व्यंग्य के छीटों से उनकी रचनाएँ सुसज्जित हैं। पात्रों के चरित्रांकन
में आपने मनोविश्लेषण की शैली का प्रयोग किया है।
पाठसारांश
'गाँधी,
नेहरू और यास्सेर अराफात' शीर्षक पाठ भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत' का संस्मरण
शैली में लिखित एक अंश है। लेखक ने इन तीनों महापुरुषों के साथ व्यतीत किये गये क्षणों
को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। सन् 1938 के आसपास लेखक अपने बड़े भाई बलराज
साहनी के साथ सेवाग्राम में रहा था। सेवाग्राम में अपने बीस दिन के प्रवास में लेखक
को गाँधी जी से बातचीत करने का अवसर मिला था। गाँधी जी सबेरे सात बजे घूमने जाते थे।
डॉ. सुशीला नय्यर और उनके सचिव महादेव देसाई भी साथ जाते थे। शाम को प्रार्थना सभा
होती थी। उसमें आश्रमवासियों के साथ कस्तूरबा, बाबा पृथ्वीसिंह आजाद, मीराबेन, खान
अब्दुल गफ्फार खाँ और राजेन्द्र बाबू को भी लेखक ने देखा था।
नेहरू
जी से लेखक की भेंट कश्मीर में हुई थी। वह भीष्म के फुफेरे भाई के बंगले में ठहरे थे।
शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी पर नावों में निकली नेहरू जी की स्वागत यात्रा
को उन्होंने देखा था। शाम को खाने के समय भीष्म भी नेहरू जी के पास बैठते थे। वहाँ
शेख अब्दुल्ला, श्रीमती राजेश्वरी नेहरू, उनके पति, खान अब्दुल गफ्फार खाँ आदि भी होते
थे।
रात
में देर तक नेहरू जी पत्र लिखवाते थे। सवेरे फर्श पर बैठकर चरखा कातते थे। दिनभर नेताओं
से मिलते-जुलते या फिर कहीं आते जाते थे। भीष्म साहनी ने तब उन्हें निकट से देखा था।
यास्सेर
अराफात से भीष्म जी की भेंट अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के सम्मेलन के दौरान हुई थी, जो
ट्यूनीशिया की... राजधानी ट्यूनिस में हुआ था। भीष्म संघ के कार्यकारी महामंत्री थे।
अराफात ने उनको भोजन के लिए आमंत्रित किया था। अराफात ने स्वयं फल छीलकर खिलाए, शहद
की चाय बनाकर पिलाई और जब भीष्म गुसलखाने से बाहर निकले तो स्वयं अपने हाथों से उनको
तौलिया दी। अराफात अत्यन्त स्नेही स्वभाव के थे। वह गाँधी जी, नेहरू जी आदि भारतीय
नेताओं के प्रशंसक थे।
कठिन शब्दार्थ
बलराज
= प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी।
सेवाग्राम
= गांधी जी द्वारा वर्धा के पास स्थापित आश्रम।
घुप्प
= घना।
बतियाते
= बातें करते।
क्वार्टर
= रहने का छोटा मकान।
सकुचाया
= संकोच व्यक्त किया।
पार्टी
= दल (समूह)।
तड़के
= सवेरे।
ऐन
= ठीक।
लाँधकर
= पारकर।
पुलक
उठा = रोमांचित हो उठा (प्रसन्न हो गया)।
हू-ब-हू
= ठीक वैसे ही।
बेसुध
= बेहोश।
उतावला
= व्यग्र (उत्सुक)।
झिंझोड़कर
= झकझोरकर।
निजी
सचिव = प्राइवेट सेक्रेटरी।
विचार
विनिमय = विचारों का लेन-देन (बातचीत)।
अकसर
= प्रायः।
कस्तूरबा
= गांधी जी की पत्नी।
चीवर
= बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पहना जाने वाला गेरुआ वस्त्र।
प्रदक्षिणा
= परिक्रमा।
गाँग
= बौद्ध भिक्षुओं का एक बाजा।
वक्त
= समय।
पृथ्वीसिंह
आजाद = एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी।
गुमनाम
= अपना नाम छिपाकर रखने वाला व्यक्ति।
खान
अब्दुल गफ्फार खान = प्रसिद्ध पख्तून नेता, गांधीजी के अनुयायी, (सीमांत गांधी के रूप
में प्रसिद्ध)।
राजेन्द्र
बाबू = भारत के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद।
निरुद्देश्य
= बिना किसी मतलब के।
खोखे
= लकड़ी की बनी दुकान।
पन्द्रहेक
साल = लगभग 15 साल का।
मीटिंग
= बैठक।
गन्ना
(गन्ने के रस से तात्पर्य है)।
कै
= उल्टी। हिदायत = निर्देश।
लेशमात्र
= थोड़ी सी भी।
क्षोभ
= दुःख।
कुटिया
= झोंपड़ी।
रुग्ण
= रोगी।
दिक्
= तपेदिक (टी. बी.)।
भव्य
= शानदार।
शेख
अब्दुल्ला = फारुख अब्दुल्ला के पिता, कश्मीर के निवासी।
अदम्य
= जिसे दबाया न जा सके।
अद्भुत
= अनोखा।
हाथ
बटाऊँ = संहयोग करना।
स्थानीय
= उसी स्थान के निवासी।
व्यस्त
= काम में लगे हये।
वार्तालाप
= बातचीत।
लब्धप्रतिष्ठ
= जाने-माने।
तुनककर
= रुष्ट होकर।
बाजीगर
= नट।
करतब
= कलाएँ।
गिरजा
= चर्च।
हताश
= जिसकी आशा मर गई हो (निराश)।
तोहफा
= उपहार।
फटेहाल
= गरीब।
अभ्यर्थना
= प्रार्थना (स्वागत)।
तन्मयता
= तल्लीनता।
दूषित
= गन्दा।
तिलमिलाना
= क्रोध व्यक्त करना।
दत्तचित
= सावधान (ध्यान से युक्त होकर)।
नजर
डाली = दृष्टि डालना देखना।
सदर
मुकाम = राजधानी (प्रधान कार्यालय)।
मसला
= मामला (समस्या)।
आमंत्रित
= निमंत्रित।
ब्यौरा
= विवरण (तफसील)।
झेंप
होना = शर्मिंदा होना।
जिक्र
= उल्लेख।
आतिथ्य
= अतिथि सत्कार।
गुसलखाने
= स्नानगृह।
महत्वपूर्ण व्याख्याएं
दूसरे दिन मैं तड़के ही उठ बैठा और कच्ची सड़क पर आँखें गाड़े गांधी
जी की राह देखने लगा। ऐन सात बजे, आश्रम का फाटक लाँधकर गांधी जी अपने साथियों के साथ
सड़क पर आ गए थे। उन पर नजर पड़ते ही मैं पुलक उठा। गांधी जी हू-ब-हू वैसे ही लग रहे
थे जैसा उन्हें चित्रों में देखा था, यहाँ तक कि कमर के नीचे से लटकती घड़ी भी परिचित
सी लगी। बलराज अभी भी बेसुध सो रहे थे। हम रात देर तक बातें करते रहे थे। मैं उतावला
हो रहा था। आखिर मुझसे न रहा गया और मैंने झिंझोड़कर उसे जगाया।
संदर्भ
:
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' नामक पाठ से ली गई हैं जिसके
लेखक भीष्म साहनी हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग :
भीष्म साहनी जी अपने भाई बलराज साहनी के पास कुछ दिन के लिए गए थे। बलराज उस समय गांधी
जी के आश्रम सेवाग्राम (वर्धा) में रहकर 'नयी तालीम' पत्रिका के सह-संपादक के रूप में
कार्य कर रहे थे। गांधी जी रोज सवेरे सात बजे टहलने जाते थे। कोई भी व्यक्ति उनके साथे
टहलने जा सकता था। भीष्म जी भी उनके साथ जाने को उत्सुक थे। .. व्याख्या दूसरे दिन
भीष्म जी भोर में ही उठ बैठे और कच्ची सड़क पर आँखें लगाए गांधी जी की प्रतीक्षा करने
लगे। ठीक सात बजे आश्रम का फाटक पारकर गांधी जी अपने साथियों के साथ सड़क पर टहलने
हेतु आ गए।
उन
पर दृष्टि पड़ते ही भीष्म जी पुलकित (प्रसन्न) हो गए। उन्होंने गांधी जी को पहली बार
साक्षात् रूप में देखा था और वे ठीक वैसे ही लग रहे थे जैसे वे चित्रों (तस्वीरों)
में दिखते थे यहाँ तक कि उनकी कमर में लटकती घड़ी भी उन्हें पूर्व परिचित-सी लगी। भीष्म
जी के बड़े भाई बलराज अभी तक बेसुध सो रहे थे क्योंकि दोनों भाई देर रात तक बातें करते
रहे थे। भीष्म जी गांधी जी के साथ टहलने को उतावले हो रहे थे अतः उन्होंने झकझोर कर
बलराज जी को जगा दिया।
विशेष :
गांधी
जी समय के कितने पाबंद थे, इसका पता इस अवतरण से चलता है।
भीष्म
जी के मन में गांध पी जी को देखने, मिलने, उनसे बात करने और उनके साथ टहलने की उत्सुकता
और उतावली थी जो इस बात की प्रतीक है कि वे गांधी जी से प्रभावित थे और उनके प्रति
श्रद्धा रखते थे।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है।
वर्णनात्मक
शैली और संस्मरण शैली का प्रयोग है।
फिर सहसा ही गांधी जी के मुँह से निकला-"अरे, मैं उन दिनों कितना
काम कर लेता था। कभी थकता ही नहीं था।....." हमसे थोड़ा ही पीछे महादेव देसाई,
मोटा-सा लट्ठ उठाए चले आ रहे थे। कोहाट सुनते ही आगे बढ़ आए और उस दौरे से जुड़ी अपनी
यादें सुनाने लगे और एक बार जो सुनाना शुरू किया तो आश्रम के फाटक तक सुनाते चले गए।
किसी-किसी वक्त गांधी जी बीच में हँसते हुए कुछ कहते। वे बहुत धीमी आवाज में बोलते
थे,लगता अपने आप से बातें कर रहे हैं, अपने साथ ही विचार-विनिमय कर रहे हैं। उन दिनों
को स्वयं भी याद करने लगे हैं।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण भीष्म साहनी की आत्मकथा - 'आज के अतीत' का एक अंश है जिसे हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' शीर्षक से संकलित
किया गया है।
प्रसंग
: भीष्म साहनी अपने भाई बलराज साहनी के पास कुछ दिन रहने के लिए गए थे। उन दिनों बलराज
सेवाग्राम में 'नयी तालीम' पत्रिका के सह-संपादक थे। गांधीजी रोज सवेरे टहलने जाते
थे। भीष्म जी भी अपने भाई के साथ उनके दल में शामिल हो गए।
व्याख्या
:
भीष्म साहनी ने गांधीजी को स्मरण दिलाया कि वे उनके शहर रावलपिंडी में आए थे। गांधीजी
ने रावलपिंडी के बैरिस्टर मिस्टर जॉन की कशल क्षेम पछी और फिर अचानक कहा कि मैं उन
दिनों कितना काम कर लेता था. कभी थकता ही न था। कोहाट और रावलपिंडी का नाम सुनते ही
गांधीजी के प्राइवेट सेक्रेटरी महादेव देसाई जो एक मोटा लट्ठ लेकर पीछे चल रहे थे,
सहसा आगे बढ़ आए और उस यात्रा से जुड़ी अपनी स्मृतियाँ सुनाने लगे। जब तक हम लोग लौटकर
आश्रम के फाटक तक न पहुँचे तब तक वे अपने संस्मरण सुनाते रहे। गांधी जी कभी-कभी बीच
में हँसते हुए कुछ कहते। वे बहुत धीमी आवाज में बोलते और ऐसा लगता जैसे स्वयं से ही
वार्तालाप कर रहे हों। महादेव देसाई के साथ-साथ गांधीजी भी रावलपिंडी के उन दिनों को
याद करने लगे थे।
विशेष
:
इस
गद्यांश से गांधीजी के स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है।
गांधीजी
धीमे स्वर में बात करते थे और बीच-बीच में हँसते भी रहते थे।
शैली-संवाद
शैली और संस्मरण का प्रयोग किया गया है।
भाषा-सरल,
सुबोध और प्रवाहपूर्ण हिन्दी का प्रयोग है।
कुछ देर तक गांधी जी उसके पास खड़े रहे, फिर आश्रमवासी को कोई हिदायत
सी देकर मुड़ गए और हँसते हुए "तू . तो पागल है" कहकर मैदान पार करने लगे।
गांधी जी के चेहरे पर लेशमात्र भी क्षोम का भाव नहीं था। वे हँसते हुए चले गए थे। हर
दिन प्रातः जिस कच्ची सड़क पर वे घूमने निकलते उसके एक सिरे पर एक कुटिया थी जिसमें
एक रुग्ण व्यक्ति रहते थे, संभवतः वह तपेदिक के मरीज थे। गांधी जी हर दिन उसके पास
जाते और उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करते। उनका वार्तालाप गुजराती भाषा में
हुआ करता। मैं समझता हूँगांधी जी की देखरेख में उसका इलाज चल रहा था। यह गांधी जी का
रोज का नियम था।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' नामक पाठ से ली गई हैं। भीष्म
साहनी द्वारा लिखी गई आत्मकथा का यह अंश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित
है।
प्रसंग
: भीष्म जी ने देखा कि सेवाग्राम आश्रम में एक खोखे में 15 साल का लड़का दर्द से चीखता
हुआ.कह रहा था-- मैं मर रहा हूँ, बापू को बुलाओ। बापू ने आकर देखा कि ईख (गन्ने का
रस) पीने से उसका पेट फूल गया था। उन्होंने कै करवायी, उसे आराम मिला। गांधी जी हँसते
हुए चले गए। इसी प्रकार के आश्रम में रहने वाले एके तपेदिक के मरीज की भी देखरेख करते
थे। गांधी जी के सेवाभावी व्यक्तित्व की झलक इस अवतरण से मिलती है।
व्याख्या
: गांधी जी कुछ देर तक उस लड़के के पास खड़े रहे फिर आश्रमवासी को कोई निर्देश देकर
हँसते हुए और यह कहते हुए वहाँ से चले गए कि तू तो पागल है। उनके चेहरे पर प्रसन्नता
थी और थोड़ा-सा भी क्षोभ नहीं था। जिस कच्ची सड़क पर वे घूमने जाते थे उसके एक सिरे
पर एक कुटिया थी जिसमें तपेदिक (टी. बी.) का एक मरीज रहता था। संभवतः गाँधी जी की देख-रेख
में उसका इलाज चल रहा था। गांधी जी हर दिन उसके पास स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करने
जाते थे। उनका वार्तालाप गुजराती में होता था। इसलिए भीष्म जी समझ नहीं पाते थे। ऐसा
गाँधी जी प्रतिदिन नियमपूर्वक करते थे।
विशेष
:
आश्रमवासी
गांधी जी के प्रति श्रद्धा रखते थे। लड़का बीमार होने पर इसी कारण गांधी जी को बुलाने
की रट लगाए हुए था।
गांधी
जी सेवाभावी व्यक्ति थे। लड़के को उल्टी करवाते समय झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरना तथा
तपेदिक के मरीज का प्रतिदिन हाल पूछना उनके सेवाभाव को प्रकट करता है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
विवरणात्मक
शैली तथा संस्मरणात्मक शैली का प्रयोग है।
पंडित नेहरू काश्मीर यात्रा पर आए थे, जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ था।
शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी पर, शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, सातवें
पुल से अमीराकदल तक, नावों में उनकी शोभायात्रा देखने को मिली थी जब नदी के दोनों ओर
हजारों-हजार काश्मीर निवासी अदम्य उत्साह के साथ उनका स्वागत कर रहे थे। अद्भुत दृश्य
था। इस अवसर पर नेहरू जी को जिस बँगले में ठहराया गया था, वह मेरे फुफेरे भाई का था
और भाई के आग्रह पर कि मैं पंडित जी की देखभाल में उनका हाथ बटाऊँ, मैं भी उस बँगले
में पहुँच गया था।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'अंतरा भाग-2' में संकलित पाठ 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात'
से ली गई हैं। यह पाठ भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत' का एक अंश है।
प्रसंग
: पंडित जवाहरलाल नेहरू उन दिनों काश्मीर यात्रा पर गए थे और लेखक के फुफेरे भाई की
कोठी में ठहरे थे। उसने लेखक को भी नेहरू जी की देखभाल में हाथ बँटाने वहाँ बुला लिया
था।
व्याख्या
: पंडित जवाहरलाल नेहरू उन दिनों काश्मीर यात्रा पर आए थे जहाँ उनका अति भव्य स्वागत
किया गया था। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी में शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे
तक नावों में उनकी शोभा यात्रा निकाली गई थी।
श्मीर
निवासी अत्यंत उत्साह में भरकर उनका स्वागत कर रहे थे। लेखक भीष्म साहनी ने उस अद्भुत
दृश्य को अपनी आँखों से देखा था। इस अवसर पर नेहरू जी को जिस बँगले में ठहराया गया
था वह लेखक भीष्म जी के फुफेरे भाई का था। वे चाहते थे कि नेहरू जी की देखभाल में भीष्म
जी उनका हाथ बटाएँ अतः भीष्म जी उनकी सहायता के लिए वहाँ पहुँच गए थे।
विशेष
:
नेहरू
जी मूलतः काश्मीर निवासी ही थे। उनके पूर्वज काश्मीर में रहते थे अतः काश्मीर की जनता
द्वारा अपने प्रिय नेता के स्वागत का दृश्य अभूतपूर्व था।
शेख
अब्दुल्ला को शेरे काश्मीर भी कहा जाता था। नेहरू जी से उनके प्रगाढ़ सम्बन्ध थे।
भाषा-तत्सम
के शब्दों से युक्त सहज हिन्दी का प्रयोग है। मुहावरों का भी प्रयोग है।
शैली
वर्णनात्मक शैली और संस्मरण शैली यहाँ प्रयुक्त है।
उस रोज खाने की मेज पर बड़े लब्धप्रतिष्ठ लोग बैठे थे शेख अब्दुल्ला,
खान अब्दुल गफ्फार खान, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, उनके पति आदि। बातों-बातों में कहीं
धर्म की चर्चा चली तो रामेश्वरी नेहरू और जवाहरलाल जी के बीच बहस-सी छिड़ गई। एक बार
तो जवाहरलाल बड़ी गरमजोशी के साथ तनिक तुनक कर बोले, "मैं भी धर्म के बारे में
कुछ जानता हूँ।" रामेश्वरी चुप रहीं। शीघ्र ही जवाहरलाल ठंडे पड़ गए और धीरे से
बोले, आप लोगों को एक किस्सा सुनाता हूँ।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ भीष्म साहनी के आत्मकथा
के एक अंश से ली गई हैं। यह आत्मकथांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में 'गांधी,
नेहरू और यास्सैर अराफात' शीर्षक से संकलित है।
प्रसंग
: नेहरू जी काश्मीर यात्रा पर गए थे और भीष्म जी के फुफेरे भाई के बंगले में ठहरे थे।
भीष्म जी भी उनकी देखभाल के लिए वहाँ जा पहँचे थे। एक दिन नेहरू जी कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों
के साथ भोजन की मेज पर थे। धर्म के विषय में उनकी बहस श्रीमती रामेश्वरी नेहरू से हो
रही थी। नेहरू जी को गुस्सा आ गया किन्तु शीघ्र ही वे ठण्डे पड़ गए।
व्याख्या
: उस दिन खाने की मेज पर नेहरू जी के साथ कई प्रतिष्ठित लोग थे जिनमें शेख अब्दुल्ला,
खान अब्दुल गफ्फार खान, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू और उनके पति शामिल थे। बातों-बातों
में धर्म की चर्चा छिड़ गयी और रामेश्वरी नेहरू एवं जवाहरलाल जी के बीच बहस छिड़ गई।
एक बार तो कुछ क्रोध में भरकर तमतमाए स्वर में नेहरू जी ने कहा कि "मैं भी धर्म
के विषय में कुछ जानता हूँ।" रामेश्वरी जी चुप रहीं तो नेहरू जी का गुस्सा शांत
हो गया और वे धीमे स्वर में बोले आप लोगों को धर्म से सम्बन्धित एक किस्सा सुनाता हूँ।
यह कहकर उन्होंने फ्रांस के विख्यात लेखक अनातोले फ्रांस की एक कहानी सुनानी प्रारंभ
कर दी।
विशेष
:
इस
अवतरण से नेहरू जी के स्वभाव पर प्रकाश पड़ता है।
उन्हें
जल्दी गुस्सा आ जाता था किन्तु जल्दी ही वे ठण्डे पड़ जाते थे।
भाषा
सरल सहज खड़ी बोली का प्रयोग है जिसमें संस्कृत और उर्दू के शब्द प्रयुक्त हैं।
विवरणात्मक
शैली प्रयुक्त हुई है।
गिरजे के बाहर गरीब बाजीगर हताश-सा खड़ा है क्योंकि वह इस पर्व में
भाग नहीं ले सकता। न तो उसके पास माता मरियम के चरणों में रखने के लिए कोई तोहफा है
और न ही उस फटेहाल को कोई गिरजे के अन्दर जाने देगा- सहसा ही उसके मन में यह विचार
कौंध गया- मैं उपहार तो नहीं दे सकता, पर मैं माता मरियम को अपने करतब दिखाकर उनकी
अभ्यर्थना कर सकता हूँ। यही कुछ है जो मैं भेंट कर सकता हूँ।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' नामक पाठ से ली गई हैं। इस
पाठ के लेखक भीष्म साहनी हैं। यह उनकी आत्मकथा 'आज के अतीत' का अंश है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक
'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग
:
श्री जवाहरलाल नेहरू उन दिनों काश्मीर यात्रा पर आए थे और लेखक के फुफेरे भाई के बँगले
में ठहरे थे। उन्होंने नेहरू जी की देखभाल के लिए भीष्म जी को भी काश्मीर बुला लिया
था। उस रोज खाने की मेज पर नेहरू जी और श्रीमती रामेश्वरी नेहरू के बीच धर्म को लेकर
एक बहस छिड़ गई। इसी सिलसिले में नेहरू जी ने अनातोले फ्रांस की एक कथा सुनाई जो धर्म
के रहस्य पर प्रकाश डालती है।
व्याख्या
: क्रिसमस के पर्व पर पेरिस निवासी बड़े गिरजे में संज-धज कर फूल एवं तरह-तरह के उपहार
लेकर माता मरियम के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने जा रहे थे। वहीं एक बाजीगर निराश-सा
खड़ा था। वह गरीब और फटेहाल था और जानता था कि उसे कोई गिरजे (चर्च) में प्रवेश भी
न करने देगा। अचानक उसके मन में एक विचार आया कि वह कलाकार है अतः अपनी कला दिखाकर
ही माता मरियम को प्रसन्न करेगा। उसके पास जो कुछ था उसी को देकर उसने माता मरियम की
प्रार्थना करने का निश्चय किया।
विशेष
:
यह
फ्रांस के विख्यात कथाकार अनातोले फ्रांस की कहानी का एक अंश है।
धर्म
केवल धनिकों की वस्तु नहीं है उस पर गरीबों का भी हक है। ईश्वर धन से नहीं भाव से प्रसन्न
होता है यही धर्म का गूढ़ रहस्य है।
भाषा-भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है।
शैली-विवरणात्मक
शैली प्रयुक्त है।
नेहरू आए। मेरे हाथ में अखबार देखकर चुपचाप एक ओर को खड़े रहे। वह शायद
इस इंतजार में खड़े रहे कि मैं - स्वयं अखबार उनके हाथ में दे दूंगा। मैं अखबार की
नज़रसानी क्या करता, मेरी तो टाँगें लरजने लगी थीं, डर रहा था कि नेहरू जी बिगड़ न
ठे। फिर भी अखबार को थामे रहा। कछ देर बाद नेहरू जी धीरे से बोले "आपने देख लिया
हो तो क्या मैं एक नजर देख सकता हूँ?" सुनते ही मैं पानी-पानी हो गया और अखबार
उनके हाथ में दे दिया।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत' का एक अंश हैं जिन्हें हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' शीर्षक से संकलित
किया गया है।
प्रसंग
: नेहरू जी काश्मीर यात्रा के लिए गए और लेखक के फुफेरे भाई के बंगले में उन्हें ठहराया
गया। उनके फुफेरे भाई ने लेखक को भी नेहरू जी की देखभाल के लिए बुला लिया था। एक दिन
सवेरे अखबार आया। नेहरू जी अखबार पढ़ने के लिए जब नीचे उतरे तो देखा अखबार भीष्म जी
पढ़ रहे हैं। भीष्म जी ने जब थोड़ी देर तक अखबार न दिया तो नेहरू जी ने शालीनता से
अखबार माँग लिया।
व्याख्या
:
नेहरू जी सीढ़ियों से उतरकर नीचे अखबार लेने आए पर मेरे हाथ में अखबार देखकर चुपचाप
एक ओर खड़े रहे। शायद वे इस प्रतीक्षा में थे कि मैं स्वयं अखबार उन्हें दे दूँगा।
पर लेखक ने ऐसा न किया केवल इस आशा में कि इस बहाने से नेहरू जी से बातचीत का अवसर
मिलेगा।
परन्तु
नेहरू जी जैसे महान आदमी का सामना करते हुए लेखक की टाँगें भय से काँपने लगी। उसे डर
लग रहा था कि कहीं नेहरू जी नाराज होकर बिगड़ने न लेगें। अखबार तो वह क्या पढ़ता वह
जैसे-तैसे खड़ा रह पाया। तभी नेहरू जी ने शालीनता से कहा- यदि आपने अखबार देख लिया
हो तो मैं एक नजर देख लूँ। सुनते ही लेखक शर्म से पानी-पानी हो गया और उसने अखबार नेहरू
जी के हाथ में दे दिया।
विशेष
:
नेहरू
जी की शालीनता. पर प्रकाश पड़ता है।
डर
के कारण लेखक की टाँगें काँपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव है।
शैली-विवरणात्मक
शैली एवं संस्मरणात्मक शैली का प्रयोग है।
भाषा-चलती
हुई सहज प्रवाहपूर्ण हिन्दी है, जिसमें उर्दू के शब्द भी देखे जा सकते हैं।
ट्यूनिस में ही उन दिनों फिलिस्तीनी अस्थायी सरकार का सदरमुकाम हुआ
करता था। उस समय तक फिलिस्तीन का मसला हल नहीं हुआ था और ट्यूनिस में ही, यास्सेर अराफात
के नेतृत्व में यह अस्थायी सरकार काम कर रही थी। लेखक संघ की गतिविधि में भी फिलिस्तीनी
लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा अस्थायी सरकार का बड़ा योगदान था। एक दिन प्रातः 'लोटस'
के तत्कालीन संपादक मेरे पास होटल में आए और कहा कि मुझे और मेरी पत्नी को उस दिन सदरमुकाम
में आमंत्रित किया गया है। उन्होंने कार्यक्रम का ब्यौरा नहीं दिया, केवल यह कहकर चले
गए कि मैं बारह बजे तुम्हें लेने आऊँगा।
संदर्भ
:
प्रस्तुत पंक्तियाँ भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत' का अंश हैं जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक
'अन्तरा . भाग-2' में 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' शीर्षक से संकलित किया गया
है।
प्रसंग
: लेखक भीष्म साहनी उन दिनों अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के कार्यकारी महामंत्री थे। इस
लेखक संघ का सम्मेलन ट्यूनीशिया की राजधानी ट्यूनिस में होने जा रहा था जहाँ फिलिस्तीन
की अस्थायी सरकार का प्रधान कार्यालय भी था। इस सम्मेलन में फिलिस्तीनी लेखकों तथा
सरकार का भी योगदान था। एक दिन उन्हें सदरमुकाम में भोजन हेतु आमंत्रित किया गया।
व्याख्या
: जिस समय भीष्म जी अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के कार्यकारी महामंत्री थे और संघ का सम्मेलन
ट्यूनीशिया की राजधानी ट्यूनिस में हो रहा था, उस समय तक फिलिस्तीन की समस्या हल नहीं
हुई थी। यास्सेर अराफात के नेतृत्व में ट्यूनिस में ही अस्थायी फिलिस्तीनी सरकार की
राजधानी (मुख्यालय) थी। वास्तविकता यह थी कि अफ्रो-एशियाई लेखक संघ की गतिविधियों में
फिलिस्तीनी लेखकों, बुद्धिजीवियों और अस्थायी सरकार का पूरा सहयोग मिल रहा था।
इसी
कारण सम्मेलन वहाँ आयोजित किया गया था। एक दिन लेखक संघ की पत्रिका 'लोटस' के तत्कालीन
संपादक भीष्म जी के पास होटल में आए और कहा कि उन्हें सपत्नीक फिलिस्तीन सरकार के सदरमुकाम
में आमंत्रित किया गया है। उन्होंने कार्यक्रम के बारे में अधिक कुछ नहीं बताया केवल
इतना कहा कि वह बारह बजे उनको लेने आयेंगे।
विशेष
:
यास्सेर
अराफात फिलिस्तीनी नेता थे। उनके भारत से बहुत अच्छे सम्बन्ध थे क्योंकि भारत ने फिलिस्तीन
का हर मोर्चे पर समर्थन किया था।
भीष्म
जी अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के ट्यूनिस में आयोजित सम्मेलन में अपनी पत्नी सहित पहले
ही पहुँच गए थे क्योंकि वे उस समय इस लेखक संघ के कार्यकारी महामंत्री थे। यास्सेर
अराफात ने उनको भोजन के लिए आमंत्रित किया था।
भाषा-भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। तत्सम शब्दों के साथ ही उर्दू शब्दों का प्रयोग
लेखक ने किया है।
शैली-विवरणात्मक
शैली का प्रयोग किया गया है।
धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। हमारा वार्तालाप ज्यादा दूर तक
तो जा नहीं सकता था। फिलिस्तीन के प्रति साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्यायपूर्ण रवैये
की हमारे देश के नेताओं द्वारा की गई भर्त्सना, फिलिस्तीन आंदोलन के प्रति विशाल स्तर
पर हमारे देशवासियों की सहानुभूति और समर्थन आदि। दो-एक बार जब मैंने गांधी जी और हमारे
देश के अन्य नेताओं का जिक्र किया तो अराफात बोले-"वे आपके ही नहीं, हमारे भी
नेता हैं। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।"
संदर्भ
:
प्रस्तुत गद्यावतरण 'गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात' शीर्षक पाठ से लिया गया है जो
भीष्म साहनी की आत्मकथा “आज के अतीत' का एक अंश है और हेमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा
भाग - 2' में संकलित है।
प्रसंग
: अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के सम्मेलन में भाग लेने भीष्म जी ट्यूनिस गए थे जहाँ फिलिस्तीन
की अस्थायी यालय स्थित था। यह सरकार यास्सेर अराफात के नेतृत्व में काम कर रही थी जो
फिलिस्तीनी नेता थे। एक दिन संघ की पत्रिका 'लोटस' के संपादक, भीष्म जी के पास होटल
में आए और बताया कि उन्हें और उनकी पत्नी को सदरमुकाम में आमंत्रित किया गया है।
व्याख्या
: वस्तुतः भीष्म जी को यह नहीं बताया गया था कि उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया गया है।
भोजन से पूर्व उन्हें पत्नी के साथ चाय-पान के लिए कमरे के बाईं ओर बिठाया गया और बातचीत
का सिलसिला चालू हो गया। बातचीत का विषय फिलिस्तीनी समस्या और उसमें भारत द्वारा दिए
गए समर्थन पर ही केन्द्रित था।
फिलिस्तीन
के प्रति साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्यायपूर्ण रवैये की भारत द्वारा जो भर्त्सना
की गयी थी तथा फिलिस्तीन को जो नैतिक समर्थन एवं सहानुभूति. हमारे देशवासियों से मिल
रहा था, उसी पर बातचीत केन्द्रित थी। अन्य विषयों पर कोई बात करना वहाँ सम्भव नहीं
था। बातचीत में जब भीष्म जी ने गांधीजी और देश के अन्य नेताओं का उल्लेख किया तो यास्सेर
अराफात ने बड़े आदर से कहा कि वे हमारे ही नहीं उनके भी नेता हैं और उतने ही आदरणीय
हैं जितने हमारे लिए हैं।
विशेष
:
भारतीय
नेताओं के प्रति विशेषकर गांधीजी के प्रति अराफात के मन में जो आदर था उसक यहाँ हुई
है।
यास्सेर
अराफात के अतिथि सत्कार की प्रशंसा की गई है।
भाषा-भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। तत्सम शब्दों के साथ उर्दू शब्दों का भी प्रयोग
है।
शैली-वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।