हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (कुटज)
प्रश्न 1. कुटज को 'गाढ़े का साथी' क्यों कहा गया है ?
उत्तर
: 'गाढ़े का साथी' का तात्पर्य है कठिन समय में साथ देने वाला। गरमी में जब कोई और
फूल पुष्पित दिखाई नहीं देता तब कुटज ही खिला रहता है। कालिदास ने अपने काव्य 'मेघदूत'
में लिखा है कि जब रामगिरि पर रहने वाले यक्ष ने अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजने हेतु
'मेघ' को तैयार किया तो उसे कटज पुष्प अर्पण किया। जब कोई दसरा पुष्प उपलब्ध नहीं था,
तब कुटज ही काम आया। इस कारण द्विवेदी जी ने उसे गाढ़े का साथी कहा है।
प्रश्न 2. 'नाम' क्यों बड़ा है? लेखक के विचार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
: नाम बड़ा है या रूप? इस प्रश्न पर विचार करते हुए लेखक कहता है कि जब तक नाम रूप
से पहले हाजिर न हो जाए तब तक रूप की पहचान अधरी रह जाती है। नाम इसलिए बड़ा नहीं है
कि वह नाम है। है कि उसे सामाजिक स्वीकृति (सोशल सेक्शन) प्राप्त है। किसी भी व्यक्ति,
वस्तु या स्थान की पहचान उसके समाज स्वीकृत नाम से ही होती है। नाम इसीलिए रूप से बड़ा
है। तुलसी ने भी कहा है - कहियत रूप नाम आधीना।
प्रश्न 3. 'कुट', 'कुटज' और 'कुटनी' शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी
सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
उत्तर
: 'कुटज' का शाब्दिक अर्थ है-जो 'कुट' से उत्पन्न हुआ हो। 'कुट' के दो अर्थ हैं - घड़ा
और घर। प्रतापी मुनि अगस्त्य को 'कुटज' कहा जाता है। वे घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए
थे, हाँ दासीपुत्र रहे होंगे। संस्कृत में घर में काम करने वाली दासी को कुटिहारिका
और कुटकारिका कहा जाता है। जो कुटिया या कुटीर में काम करे वह कुटकारिका। अगस्त्य ऋषि
घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे हाँ वे घर में काम करने वाली ऐसी ही किसी कुटहारिका
(दासी) के पुत्र रहे होंगे इसलिए उन्हें 'कुटज' कहा जाने लगा। कुटनी जरा गलत ढंग की
दासी को कहते हैं जो अपने मालिक के प्रति किसी स्त्री को आकर्षित करने के काम पर नियुक्त
की जाती है। संस्कृत में उसे 'कुट्टनी' भी कहा गया है।
प्रश्न 4. कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता
है ?
उत्तर
: कुटज विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहकर अपनी अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा करता
है। कठोर पाषाण को भेदकर, झंझा-तूफान को रगड़कर अपना भोज्य (भोजन) प्राप्त कर लेता
है और भयंकर लू के थपेड़ों में भी सरस बना रहता है, खिला रहता है। प्राण ही प्राण को
पुलकित करता है। जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज की यही अपराजेय
जीवनी-शक्ति हमें उल्लासपूर्वक जीने की प्रेरणा देती है। चाहे सुख हो या दुःख, अपराजित
होकर उल्लास विकीर्ण करते हुए जीवित रहें यही कुटज का सन्देश है।
प्रश्न 5. 'कुटज' हम सभी को क्या उपदेश देता है ? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर
: कुटज हम सभी को अपराजेय जीवनी-शक्ति का उपदेश देता है। कठिन परिस्थितियों में भी
जिजीविषा के बल पर कुटज न केवल जी रहा है अपितु हँस भी रहा है। न वह किसी को अपमानित
करता है न ग्रहों की खुशामद करता है। वह अवधूत की भाँति कह रहा है चाहे सुख हो या दुःख,
प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे अपरा ग्रहण करो, हार मत मानो।
प्रश्न 6. कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है ?
अथवा
"कुटज में न विशेष सौंदर्य है, पुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव
के लिए एक संदेशा पाया है।" इस कथन” की पुष्टि करते हुए बताइए कि वह संदेश क्या
है?
अथवा
कुटज के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उसे 'गाढ़े का साथी' क्यों
कहा गया है?
उत्तर
: कुटज भयानक लू में भी सूखता नहीं। उसकी जड़ें पाषाण को भेदती हुई पाताल से अपना भोजन
खींच लाती हैं। झंझा तूफान को रगड़कर नमी खींच लेती हैं। उसकी दुरंत जीवनी-शक्ति हमें
जीने की कला सिखाती है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में । आकाश को चूमकर अवकाश की
लहरों में झूमकर उल्लास खींच लो, यही सीख हमें कुटज के जीवन से मिलती है। इसलिए कुटज
को गाढ़े का साथी भी कहा गया है।
प्रश्न 7. कुटज क्या केवल जी रहा है लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय
कमजोरियों पर टिप्पणी की है ?
उत्तर
: कुटज केवल जी ही नहीं रहा, उल्लास के साथ जी रहा है। कुटज के माध्यम से लेखक ने अनेक
मानवीय कमजोरियों को उजागर करते हुए उन पर विजय पाने की प्रेरणा दी है। मानव लालची
होता है और इस लालच के कारण ही दाँत . निपोरता है, दूसरों की खुशामद करता है, तलवे
चाटता है। जिसने अपने मन पर अधिकार कर लिया, लालच को जीत लिया उसे दूसरों की खुशामद
करने की आवश्यकता नहीं। मनुष्य ही दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद
करता है, आत्मोन्नति के लिए अंगूठियों की लड़ी पहनता है किन्तु कुटज मन पर सवारी करता
है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः वह धन्य है।
प्रश्न 8. लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर, जिजीविषा से
भी प्रचण्ड कोई न कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर
: लेखक का मत है कि स्वार्थ से भी बढ़कर और जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई न कोई शक्ति
अवश्य है। मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं जी रहा अपितु इतिहास-विधाता की इच्छा और योजना
के अनुसार जी रहा है। जब व्यक्ति स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर 'सर्व' के
लिए न्योछावर कर देता है तभी उसे आनन्द की प्राप्ति होती है किन्तु जब तक वह स्वार्थ
दृष्टि से देखता है, तब तक वह तृष्णा से ग्रस्त रहता है, कृपणता से युक्त रहता है और
उसकी दृष्टि मलिन हो जाती है। ऐसी स्थिति में न उसका स्वार्थ सिद्ध होता है, न परमार्थ।
प्रश्न 9. 'कुटज' पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'दुःख और सुख तो मन
के विकल्प हैं।'
उत्तर
: व्यक्ति का सुख-दुःख इस बात पर निर्भर रहता है कि मन पर उसका नियन्त्रण है या नहीं।
सुख और दुःख का चयन मन ही करता है। यदि हम सुखी रहना चाहते हैं तो मन को अपने वश में
कर लें। जिसने मन पर नियन्त्रण कर लिया उसे न तो किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ता है
और न ही किसी की खुशामद या जी-हजूरी करनी पड़ती है। दूसरी ओर जिसका मन वश में नहीं
है, जो लोभ-लालच एवं स्वार्थ से घिरा हुआ है, उसे दुःखी रहना पड़ेगा। लेखक कहता है
कि मैं तो उसी को सुखी मानता हूँ जो मन पर सवारी करता है, मन को नियन्त्रण में रखना
जानता है। कुटज इसलिए सुखी है क्योंकि वह मन पर सवार है, मन को अपने ऊपर सवार नहीं
होने देता।
प्रश्न 10. निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
(क)
कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी
पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।'
उत्तर
: सन्दर्भ प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ आच हजारी प्रसाद द्विवेदी के ललित निबन्ध
'कुटज' से ली गई हैं। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग - 2' में संकलित किया गया
है। कुटज के ये वृक्ष भरी गरमी में सरस, हरे-भरे और फूलों से लदे रहते हैं। इसका कारण
है कि इनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। इसी विषय में यहाँ बताया गया है।
व्याख्या
-
कभी-कभी ऊपर से जो लोग बेहया-बेशर्म दिखते हैं उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। 'ऊपर
से बेहया . दिखने' का तात्पर्य है बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाला। बहिर्मुखी व्यक्तित्वधारी
की जीवनी-शक्ति प्रबल होती है। वह प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को दुरुस्त कर लेता
है। कुटज भी एक ऐसा ही वृक्ष है जिसकी जड़ें बहुत गहरायी तक जाती हैं और पत्थर को फोड़कर
न जाने किस अतल गहराई से अपना भोजन रस खींच लाती हैं। यही कारण है कि भरी गरमी में
भी यह वृक्ष हरा-भरा रहता है।
(ख)
'रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिप पर समाज की मुहर लगी
होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सेक्शन' कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए
व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त गंगा
में स्नात।"
(ग)
रूप की तो बात ही क्या है। बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण
निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक
कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।'
उत्तर
: उक्त अवतरणों की सप्रसंग व्याख्या के लिए इसी पाठ के "महत्त्वपूर्ण व्याख्यायें"
प्रकरण को देखें।
(घ)
'हृदयेनापराजितः। कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से
विचलित न होता होगा। कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया
वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि।'
सन्दर्भ
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ
'कुटज' नामक निबन्ध से ली गई हैं जिसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। इसे
हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित किया गया है। - द्विवेदी जी ने महाभारत
के एक प्रसंग को उद्धृत करते हुए बताया है कि भीष्म पितामह का विचार था कि 'चाहे सुख
हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय' जो मिल जाए उसे शान के साथ अपराजित हृदय से सोल्लास
ग्रहण करो, कुटज भी अवधूत की भाँति यही घोषणा कर रहा है।
व्याख्या
- हृदय कभी पराजित नहीं होना चाहिए- भले ही दुख मिले या सुख, हमारा प्रिय घटित हो या
अप्रिय पर हमें विचलित नहीं होना चाहिए। कुटज का यही उपदेश है, उसकी यही वृत्ति है
जिसे देखकर रोमांच हो आता है। लेखक कहता है कि कुटज को देखकर मैं यह सोचने को विवश
हो जाता हूँ कि उसे यह वृत्ति, यह स्वभाव और यह जीवन दृष्टि कहाँ से मिली है। किसी
भी स्थिति में विचलित न होने का कुटज का यह स्वभाव हमारे लिए अनुकरणीय है।
योग्यता विस्तार
प्रश्न 1. 'कुटज' की तर्ज पर किसी जंगली फूल पर लेख अथवा कविता लिखने
का प्रयास कीजिए।
उत्तर
: परीक्षोपयोगी नहीं है। छात्र योग्यता बढ़ाने के लिए किसी भी जंगली पुष्प पर दस पंक्तियाँ
लिखें। जैसे यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है धतूरा
एक जंगली पौधा है। यह प्रायः खेतों की मेड़ पर या जंगल में पाया जाता है। वस्तुतः यह
एक ऐसा पौधा है जिसका उपयोग औषधि बनाने में किया जाता है। सामान्यतः धतूरे को जहरीला
माना जाता है।
धतूरे
के पत्ते, डंठल, बीज, फल, सभी विषैले होते हैं और कई असाध्य रोगों में काम आते हैं
किन्तु जब तक किसी विद्वान वैद्य की सलाह. न ले लें तब तक स्वविवेक से इनका उपयोग कदापि
न करें। बिना जानकारी के यदि इसका प्रयोग किया गया तो वह हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
ऐसे पौधों को औषधीय पौधा या 'औषधीय वनस्पति' कहा जाता है। आयुर्वेद में इनकी उपयोगिता
पर प्रकाश डाला गया है।
प्रश्न 2. लेखक ने 'कुटज' को ही क्यों चुना? उसको अपनी रचना के लिए
जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी।
उत्तर
: 'कुटज' एक ऐसा वृक्ष है जो भरी गरमी में भी पुष्पित रहता है। इसकी जड़ें पाषाण को
भेदकर अतल गह्वर से अपनी भोज्य सामग्री खींच लाती हैं। तूफान को रगड़कर, वातावरण से
नमी चूसकर यह ग्रीष्म ऋतु में भी फूलों से लदा रहता है। कालिदास ने अपने 'मेघदूत' में
लिखा है कि रामगिरि पर मेघ की अभ्यर्थना हेतु यक्ष को जब और कोई फूल न मिले तो उसने
कुटज के फूलों का अर्घ्य चढ़ाया। कुटज हमें विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहने
की कला सिखाता है। इसी विशेषता के कारण लेखक ने कुटज को अपनी रचना के लिए चुना है।
लेखक ने शिरीष वृक्षं पर भी रचना की है।
प्रश्न 3. कुटज के बारे में उसकी विशेषताओं को बताने वाले दस वाक्य
पाठ से छाँटिए और उनकी मानवीय संदर्भ में विवेचना कीजिए।
अथवा
कुटज क्या है? उसके जीवन की उन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए, जो मनुष्य
के लिए प्रेरणादायी हैं।
अथवा
कुटज वृक्ष की किन्हीं सात विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: कुटज के वृक्ष ठिगने किन्तु शानदार हैं। वे भीषण गरमी में भी हरे-भरे और फूलों से
लदे हैं।
शिवालिक
की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हुए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं।
कुटज
संस्कृत साहित्य का बहुत परिचित किन्तु कवियों द्वारा अवमानित छोटा-सा शानदार वृक्ष
है।
गिरिकूट
(पर्वत की चोटी) पर उत्पन्न होने के कारण इसे 'कूटज' कहना चाहिए किन्तु कुटज कहा जाता
है।
कुटज
गाढ़े का साथी है। जब भीषण गरमी में और कोई फूल न मिला तो यक्ष ने मेघ की अभ्यर्थना
के लिए कुटज के फूलों का अर्घ्य चढ़ा दिया।
कुटज
का लहराता पौधा अपने नाम और रूप दोनों में अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है।
कुटज
की जीवनी-शक्ति दुरंत है।
कुटज
को जीवनी-शक्ति अपराजेय है। इसको अकुतोभय वृत्ति तथा अपराजित स्वभाव प्राप्त है।
सुख
हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय कुटज विचलित नहीं होता।
कुटज
ने अपने मन को वश में कर रखा है इसलिए उसे कोई लालच नहीं है।
कुटज
की तरह व्यक्ति (मानव) को भी विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने की कला आनी चाहिए।
साहस के साथ अपना प्राप्य वसूल कर लेना चाहिए। चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय
हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए और उल्लास के साथ जीना चाहिए। मनुष्य को अपने मन पर
नियंत्रण रखना चाहिए। किसी की खुशामद नहीं करनी चाहिए। सुख-दुःख से अप्रभावित रहना
चाहिए।
प्रश्न 4. 'जीना भी एक कला है'-कुटज के आधार पर सिद्ध कीजिए।
उत्तर
: जीना भी एक कला है जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में। 'जीने के लिए जीना' बड़ी बात
नहीं है। इस तरह जियो कि दूसरे भी आपके जीवन से प्रेरणा लें। कुटज केवल जी ही नहीं
रहा, दूसरों को भी यह बताता है कि विपरीत परिस्थितियों में कैसे जिया जाता है। इसकी
जीवनी-शक्ति दुरंत, अपराजेय है। स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर समष्टि (सब
के) के लिए न्योछावर कर देने की वृत्ति ही व्यक्ति को सुख देती है। स्वार्थ एवं कृपणता
को त्यागकर ही हम स्वच्छ दृष्टि पा सकते हैं जो हमें परमार्थ की ओर ले जाती है। अपने
लिए तो सब जीते हैं, किन्तु जो दूसरों के लिए जीता है उसी का जीवन सार्थक है। यही जीने
की कला है।
प्रश्न 5. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा पं.
हजारी प्रसाद द्विवेदी पर बनाई फिल्म देखिए।
उत्तर
: छात्र अपने अध्यापक की सहायता से देखें।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. लेखक के अनुसार अपराजेय जीवन शक्ति का प्रतीक कौन-सा वृक्ष
है?
उत्तर
: लेखक के अनुसार अपराजेय जीवन शक्ति का प्रतीक
कुटज वृक्ष है।
प्रश्न 2. "आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति" किसका कथन
है?
उत्तर
: "आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति" याज्ञवल्क्य का कथन है।
प्रश्न
3. 'गाढ़े का साथी' लेखक ने किसे बताया है?
उत्तर
: 'गाढ़े का साथी' लेखक ने कुटज को बताया है।
प्रश्न 4. द्विवेदी जी ने संस्कृत भाषा को कैसा बताया है?
उत्तर
: द्विवेदी जी ने संस्कृत भाषा को सर्वग्रासी भाषा बताया है।
प्रश्न 5. कुटज का वृक्ष कहाँ पोया जाता है?
उत्तर
: कुटज का वृक्ष हिमालय पर्वत के नीचे शिवालिक पर्वत शृंखला में पाया जाता है।
प्रश्न 6. लेखक कुटज को किन नामों से संबोधित करता है?
उत्तर
: लेखक कुटज को पहाड़फोड़ धरतीधकेल, अपराजित आदि नामों से संबोधित करता है।
प्रश्न 7. 'सोशल सेक्शन' किसे कहा जाता है?
उत्तर
: नाम के पद पर मुहर के लगने को, आधुनिक शिक्षित लोग सोशल सेक्शन' कहते हैं।
प्रश्न 8. लेखक को कहाँ उपजे पेड़ को 'कुटज' कहने में विशेष आनंद मिलता
है?
उत्तर
: गिरिकुट.में उपजे पेड़ को कुटज कहने में
लेखक को विशेष आनंद मिलता है।
प्रश्न 9. कालिदास की किस रचना का उल्लेख लेखक ने पाठ में किया है?
उत्तर
: कालिदास की रचना 'आषाढस्य प्रथम-दिवसे' का उल्लेख लेखक ने पाठ में किया है।
प्रश्न 10. संस्कृत में 'कुटज' के किस नाम का उल्लेख मिलता है?
उत्तर
: संस्कृत भाषा में कुटज को कुटच, कूटज भी
कहने का उल्लेख मिलता है।
प्रश्न 11. संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है? कैसे?
उत्तर
: लेखक संस्कृत को सर्वग्रासी भाषा मानते हैं
क्योंकि इस भाषा ने शब्दों के संग्रह में कोई निषेध नहीं माना। इस भाषा में बहुत सारी
नस्लों के शब्द आकर इसी के होकर रह गये हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कुटंज का शाब्दिक अर्थ बताइए।
उत्तर
: कुटज का शाब्दिक अर्थ है जो कुट से उत्पन्न हुआ हो। कुट या कूट पर्वत की चोटी को
कहते हैं। ऐसे वृक्ष जो पर्वत की चोटी (ऊँचाई) पर उत्पन्न होते हैं 'कुटज' कहे जाते
हैं। कुट का एक अर्थ घड़ा है और एक अन्य अर्थ है-घर। कुटिया या कुटीर में घर वाला अर्थ
सुरक्षित है। घर में काम करने वाली दासी कुटहारिका या कुटकारिका कही जाती है। अगस्त्य
मुनि को कुटज कहा जाता है। वे घड़े में तो क्या उत्पन्न हुए होंगे हाँ, घर में काम
करने वाली दासी (कुटकारिका) के पुत्र हो सकते हैं।
प्रश्न 2. कुटज के वृक्ष की तीन विशेषताएँ अपने शब्दों में बताइए।
उत्तर
: कुटज के वृक्ष पर्वत की काफी ऊँचाई पर मिलते हैं। वहाँ पानी की कमी है।
भयंकर
गरमी में भी ये वृक्ष सरस (हरे-भरे) और फूलों से लदे रहते हैं। कुटज की जड़ें पर्वत
की चट्टानों को फोड़कर गहराई से पानी ग्रहण कर लेती हैं।
कुटज
की जीवनी-शक्ति दुरंत है। कठोर पथरीली जमीन, जल का अभाव, भीषण गर्मी में भी कुटज हरा-भरा
तथा फूलों से लदा रहता है।
प्रश्न 3. 'कठोर पाषाण को भेदकर पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह
करो' से लेखक क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर
: कठोर पाषाण को भेदकर और पाताल की छाती चीरकर जिस प्रकार कुटज अपना भोजन खींच लेता
है उसी प्रकार मनुष्य को भी विपरीत परिस्थितियों में साहस के साथ कष्ट और कठिनाइयों
को झेलते हुए जीवन के साधन एकत्र करने चाहिए और हर हाल में अपना अधिकार प्राप्त करने
के लिए संघर्ष करना चाहिए। लेखक कहना चाहता है कि मनुष्य को संकट के समय, विकट स्थिति
में भी साहस के साथ जीना चाहिए।
प्रश्न 4. 'हृदयेनापराजितः' से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
: भीष्म पितामह ने महाभारत में कहा है कि सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय हमारा
हृदय कभी पराजय का अनुभव न करें, जीवन का उल्लास कम न हो। यह अवस्था वीतराग होने की
है। जब मनुष्य अपने मन पर वश कर लेता है तो उसे सुख से प्रसन्नता तथा दुःख से अप्रसन्नता
नहीं होती। वह दोनों को समान मानकर शांत चित्त रहकर जीता है। कुटज ऐसा ही वृक्ष है
जो हमें विपरीत परिस्थितियों में जीने की तथा प्रसन्न रहने की कला सिखाता है।
प्रश्न 5. 'आत्मनस्त कामाय सर्वं प्रियं भवति' का भावार्थ-लिखिए।
उत्तर
: ब्रह्मवादी ऋषि याज्ञवल्क्य अपने पत्नी को समझाने की कोशिश करते हैं कि सब कुछ इस
दुनिया में स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी
प्रिय नहीं होती। सब अपने स्वार्थ के लिए प्रिय होते हैं। भाव यह है कि यहाँ सब निजी
स्वार्थ के लिए एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
प्रश्न 6. सुख और दुःख मन के भाव हैं? पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर
: लेखक कहता है कि अगर व्यक्ति के मन और उसमें
उठने वाले भाव उसके वश में हैं, तो वह सुखी कहलाता है और सखी हो भी सकता है। क्योंकि
कोई दसरा उसको कष्ट नहीं दे सकता है। दखी तो वह है, जो दसरों के कहे अनुसार चलता है
या जिसका मन खुद के वश में नहीं होता है। वह दूसरों के हाथ की कठपुतली के समान व्यवहार
करने लगता है, अर्थात् दूसरों को खुश करने हेतु सभी कार्य करता है। इसलिए लेखक दुख
और सुख को मन का भाव मानता है।
प्रश्न 7. लेखक कुटज के पेड़ को बुरे दिनों का साथी मानता है, क्यों?
उत्तर
: लेखक कुटज को एक ऐसा साथी मानता है, जो बुरे
दिनों में साथ रहता है। जब यक्ष को रामगिरी पर्वत पर बादल से अनुरोध करने हेतु भेजा
था, तो वहाँ कुटज का पेड़ विद्यमान था, उस समय में कुटज के फूल ही काम आए थे। एक ऐसे
स्थान पर जहाँ दूब तक नहीं पनपती, वहाँ यक्ष ने कुटज के फूल चढ़ाकर मेघ को प्रसन्न
किया था। इसको कालिदास ने अपनी रचना में लिखा है। इसलिए लेखक ने कुटज को बुरे दिनों
का साथी माना है।
प्रश्न 8. 'कुटज कभी हार नहीं मानता।' पाठ के आधार पर इस बात की पुष्टि
कीजिए।
उत्तर
: कुटज का पेड़ ऐसे प्रतिकूल वातावरण में गर्व से सिर उठाए जीवित खड़ा रहता है, जहाँ
पर दूब भी अपना कब्जा नहीं जमा पाती। ऐसी जगह पर कुटज के पेड़ का खड़े रहना और फलना-फूलना,
उसके हार न मानने के गुणों की घोषणा करता है। वह यहाँ ही नहीं बल्कि पहाड़ों की बड़ी-बड़ी
चट्टानों के मध्य खुद को खड़ा रखता है तथा उसके अंदर के जल-स्रोतों से स्वयं के लिए
जल ढूँढ़ निकालता है। ऐसी जगहों में वह विजयी खड़ा है। यह कितनी विकट परिस्थिति है,
जिसमें साधारण पेड़-पौधों का जीवित रहना लगभग असम्भव है। उसकी इस प्रकार की जीवनी-शक्ति
को देख हम कह सकते हैं कि वह कभी हार नहीं मानता। उसके अपने जीवन जीने के प्रति उसका
प्रेम और ललक, उसे कभी न हारने वाला बना देती है। वह बुरी से बुरी परिस्थिति में सीना
तान गर्व से सिर को उठा, अपना जीवन जीता आ रहा है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. “जीना भी एक कला है और कुटज इस कला को जानता है"-पाठ
के आधार पर इस कथन को समझाइए।
उत्तर
: जीना एक कला है। आचार्य द्विवेदी ने तो जीने को कला से भी बढ़कर एक तपस्या माना है।
तपस्या में तल्लीनता और सहिष्णुता का होना आवश्यक होता है। जीवन जीने का सच्चा सुख
उसी व्यक्ति को मिलता है जो सुख-दुःख को समान मानकर ग्रहण करता है। गीता में कहा गया
है। 'सुख-दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ, जयाजयौ।' यही जीवन जीने की कला है, रहस्य है।
'कुटज' हमें जीने की कला बताता है। हिमालय के ऊँचे पथरीले प्रदेश में, जहाँ घास भी
भीषण गर्मी, लू और जलाभाव में सूख जाती है, वहाँ कुटज हरा-भरा और फूलों से लदा रहता
है। उसकी जड़ें चट्टानों को तोड़कर गहराई से अपना भोग्य प्राप्त करती हैं। वह सिखाता
है कि विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करके ही मनुष्य जी सकता है।
प्रश्न 2. 'अगस्त्य मुनि भी नारद जी की तरह दासी के पुत्र थे क्या
? घड़े में पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है' द्विवदी जी के इस कथन से अपनी सहमति अथवा
असहमति व्यक्त कीजिए।
उत्तर
: द्विवेदी जी का यह कथन हिन्दू धर्म के दो धुरंधर ऋषियों के बारे में है। मैं इसको
धार्मिक भावना को चोट पहुँचाने वाला कहकर प्रतिबंधित करने की बात तो नहीं करूँगा, जैसा
कि आजकल बार-बार हमारे देश में हो रहा है किन्तु मैं इससे सहमत होने का कोई कारण भी
नहीं देखता। द्विवेदी जी ने जब यह लिखा था तब उनके आगे संस्कृत वाङ्मय के ही प्रमाण
थे विज्ञान की नवीनतम खोज और उपलब्धियाँ नहीं थीं।
आज
विज्ञान माता के गर्भ से बाहर प्रयोगशाला में कृत्रिम जीवन की संरचना में लगा है। उसे
भेड़ आदि के 'क्लोन' बनाने में सफलता मिल भी चुकी है। 'किराये की कोख के सफल प्रयोग
हो चुके हैं। डिम्ब को स्पर्म से निषेचित करके माँ के गर्भ में प्रत्यारोपित करना भी
सम्भव हो गया है। इस तकनीक के विकास से मुझे लगता है कि मुनि अगस्त्य और मुनि नारद
का जन्म भी ऐसे ही हुआ होगा। सम्भव है कि वे टेस्ट ट्यूब बेबी रहे हों। इसी कारण उन्हें
'कुटज' कहा गया हो।
प्रश्न 3. 'संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है'-द्विवेदी जी के इस कथन का आशय
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: सिलवाँ लेवी का कहना है कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेती-बागवानी के अधिकांश
शब्द आग्नेय भाषा परिवार के हैं। कभी आस्ट्रेलिया और एशिया महाद्वीप मिले हुए थे। किसी
प्राकृतिक घटना के कारण वे अलग हो गये। आस्ट्रेलिया के जंगलों में रहने वालों की भाषा
एशिया में बसी कुछ जातियों की भाषा से संबद्ध है। भारत की संथाल, मुंडा आदि जातियाँ
वह भाषा बोलती हैं। भारत में इसे कोल परिवार की भाषा कहते हैं।
कमल,
कंबल, तांबूल. आदि संस्कृत भाषा के शब्द जो अब भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं,
इसी श्रेणी की भाषा के हैं। 'कुटज' भी इन शब्दों में से एक हो सकता है। संस्कृत भाषा
ने शब्दों को संग्रह करने में कभी छूत-अछूत नहीं बरती। उसने हर नस्ल के शब्दों को उदारतापूर्वक
अपनाया है। सब भाषाओं से शब्दों को ग्रहण करने के गुण के कारण ही संस्कृत को सर्वग्रासी
भाषा कहा गया है।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय लिखिए
उत्तर
: साहित्यिक परिचय - द्विवेदी जी का अध्ययन बहुत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश,
बांग्ला आदि नों तथा इतिहास, दर्शन, धर्म, संस्कृति आदि विषय पर आपका अच्छा अधिकार
था। द्विवेदी जी ने सरल और परिष्कृत भाषा को अपनाया है। वह विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण
है। आपकी भाषा में तद्भव शब्द, प्रचलित लोकभाषा के शब्द तथा उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं
के शब्द भी उसमें मिलते हैं। मुहावरों तथा उद्धरणों ने आपकी भाषा की शक्ति को बढ़ाया
है। द्विवेदी जी ने वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचासत्मक, समीक्षात्मक आदि शैलियों को
अपनाया है। ललित निबन्धों में आपकी शैली आत्मपरक है। यत्र-तत्र व्यंग्य शैली का भी
आपने प्रयोग किया है।
प्रमुख
कृतियाँ निबन्ध - संग्रह - अशोक़ के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक-पर्व
इत्यादि। उपन्यास चारु चन्द्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा इत्यादि।
समालोचना
- सूर साहित्य, कबीर, हिन्दी साहित्य आदि। आपने हिन्दी साहित्य का आदिकाल, मेरा बचपन,
नाथसिद्धों की बानियाँ आदि ग्रन्थों की भी रचना की है।
पुरस्कार
एवं सम्मान - भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण' से अलंकृत। आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार
(आलोक पर्व पर) तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से डी. लिट् की मानद उपाधि प्राप्त हुई।
कुटज (सारांश)
लेखक परिचय
जन्म-सन्
1907 ई.। स्थान-आरत दुबे का छपरा। जिला - बलिया (उ.प्र.)। शिक्षा संस्कृत महाविद्यालय,
काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। 1930 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य
की उपाधि प्राप्त की। सन् 1940 से 1950 हिन्दी भवन, शान्ति निकेतन के निदेशक। इसके
बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। काशी नागरी प्रचारिणी
सभा के अध्यक्ष (1952-53), राजभाषा आयोग के सदस्य (1955), पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़
में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1960-67), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रेक्टर (1967),
भारत सरकार की हिन्दी विषयक अनेक योजनाओं से संबद्ध तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान
के कार्यकारी अध्यक्ष रहे। निधन-सन् 1979 ई.।
साहित्यिक
परिचय - द्विवेदी जी का अध्ययन बहुत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत,
अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं तथा इतिहास, दर्शन, धर्म, संस्कृति आदि विषय पर आपका अच्छा
अधिकार था।
भाषा
- द्विवेदी जी ने सरल और परिष्कृत भाषा को अपनाया है। वह विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण
है। आपकी भाषा में तद्भव शब्द, प्रचलित लोकभाषा के शब्द तथा उर्दू, अंग्रेजी. आदि भाषाओं
के शब्द भी उसमें मिलते हैं। मुहावरों तथा उद्धरणों ने आपकी भाषा की शक्ति को बढ़ाया
है।
शैली
- द्विवेदी जी ने वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक, समीक्षात्मक आदि शैलियों को
अपनाया है। ललित निबन्धों में आपकी शैली आत्मपरक है। यत्र-तत्र व्यंग्य शैली का भी
आपने प्रयोग किया है।
कृतियाँ
-
द्विवेदी जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं निबन्ध-संग्रह अशोक के फूल, विचार और
वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक-पर्व इत्यादि।
उपन्यास
- चारु चन्द्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा इत्यादि। . समालोचना-सूर साहित्य,
कबीर, हिन्दी साहित्य की भूमिका आदि। आपने हिन्दी साहित्य का आदिकाल, मेरा बचपन, नाथसिद्धों
की बानियाँ आदि ग्रन्थों की भी रचना की है।
पुरस्कार
एवं सम्मान - भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण' से अलंकृत। आपको साहित्य
अकादमी पुरस्कार (आलोक पर्व पर) तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से डी. लिट् की मानद उपाधि
प्राप्त हुई।
पाठ सारांश
'कुटज'
द्विवेदी जी द्वारा लिखित ललित निबन्धों में से एक है। हिमालय पर्वत के नीचे शिवालिक
पर्वत श्रृंखला पर कुटज का ठिगना-सा वृक्ष उगता है, जो सूखे-पथरीले प्रदेश में भी गहराई
से जल ग्रहण कर हरा-भरा रहता तथा फूलों से लदा रहता है। लेखक को ये वृक्ष पहचाने से
लगते हैं परन्तु उसे इनका नाम याद नहीं आता। नाम के बिना परिचय अधूरा रहता है। अतः
लेखक का मन नाम जानने के लिए व्याकुल है। अचानक उसे याद आता है यह कुटज है।
वृक्ष
का नाम 'कुटज' क्यों है, यह विचार करते हुए लेखक 'कट' और 'कुट' शब्दों पर चिन्तन करता
है। भीषण गर्मी, पहाड़ी सूखा प्रदेश और हरा-भरा फूलों से लदा कुटज। लेखक को कुटज की
अपराजेय जीवन शक्ति पर आश्चर्य होता है। उसे कुटज में स्वाभिमान, आत्मसम्मान, उल्लास,
गरिमा, निस्वार्थ भाव, आत्म-नियन्त्रण, लोभ से मुक्ति आदि गुणों के दर्शन होते हैं।
लेखक
को कुटज में मानव के लिए एक संदेश प्राप्त होता है विषम परिस्थिति में भी शान से, स्वाभिमान
से जीने का सन्देश। किसी के आगे नतमस्तक न होने का सन्देश। आत्मविश्वास और स्वावलंबन
से पूर्ण जीवन जीने का सन्देश। अन्धविश्वास से मुक्त रहकर विवेकसम्मत जीवन का सन्देश।
परोपकार में तत्पर रहने का सन्देश आदि।
कठिन शब्दार्य
कुटज
= एक वृक्ष का नाम।
शोभा-निकेतन
= शोभा के भण्डार।
महोदधि
= महासागर।
रत्नाकर
= रत्नों का भण्डार (सागर)।
पाददेश
= नीचे का स्थान।
श्रृंखला
= श्रेणी।
शिवालिक
= शिवालिक पर्वत श्रेणी।
लटियायी
= सूखी।
अलकनन्दा
= नदी का नाम (गंगा की सहायक नदी)।
छितराया
= फैला।
समाधिस्थ
= समाधि में स्थित।
अलक
जाल = अलकों का समूह।
बेहया
= बेशर्म।
शुष्कता
= सूखापन।
अन्तर्निरुद्ध
= भीतरी रुकावट।
इजहार
= प्रकटे।
रक्ताभ
= लाल रंग वाली।
दरख्त
= पेड़।
हँस
भी रहे हैं = फूलों से युक्त हैं (लक्षणा से)।
मस्तमौला
= अपने में मस्त फकीर।
पाषाण
= पत्थर।
अतल
गहर = अत्यंत गहरा गड्ढा।
भोग्य
= भोजन।
द्वन्द्वातीत
= द्वन्द्व (दविधा) से परे।
अलमस्त
= बिना किसी चिन्ता के।
अनादिकाल
से = बहुत पुराने समय से।
ठिगना
= कम ऊँचा (बौना)।
कचारा-निचोड़ा
= जिस पर पर्याप्त वाद-विवाद, छान-बीन, बहस की गई हो।
स्मृतियों
= यादों।
ह्वाट्स
देअर इन ए नेम = नाम में क्या रखा है।
सुस्मिता
= मुसकराने वाली।
गिरिकांता
= पर्वत प्रिया।
वनप्रभा
= वन की शोभा।
शुभ्रकिरीटिनी
= सफेद मुकुट वाली।
मदोंद्धता
= मद (नशें) से उद्धत (उदंड) बना हुआ (नशे में चूर)।
पौरुष
व्यंजक = पुरुषत्व (कठोरता) की व्यंजना करने वाले।
अकुतोभय
= निडर (जिसे किसी का भय न हो)।
गिरिगौरव
= पर्वत का गौरव।
कूटोल्लास
= पर्वत की चोटी पर बिखरी प्रसन्नता।
सामाजिक
स्वीकृति = सोशल सेक्शन।
समष्टि
= समूह।
स्नात
= नहाया हुआ।
गिरिकूट
बिहारी = पर्वत की चोटी पर विहार करने वाला (पर्वतीय वृक्ष)।
अवमानित
= तिरस्कृत।
विरुद
= उपाधि (नाम)।
स्तबक
= गुच्छे।
उल्लास-लोल
= प्रसन्नता से चंचल।
चारुस्मित
= सुन्दर मुसकान (खिले फूलों वाला)।
यक्ष
= एक देवजाति।
अभ्यर्थना
= विनीत भाव से की गयी प्रार्थना।
नियोजित
= नियुक्त।
अंजलि
= अंजुरी।
नीलोत्पल
= नीलकमल।
मल्लिका
= चमेली।
अरविंद
= कमल।
फकत
= मात्र।
अर्घ्य
= जल की धार जो पूजा करते समय दी जाती है।
अनत्युच्च
= जो अधिक ऊँची न हो।
संतृप्त
= भरे हुए।
गाढ़े
के साथी = मुसीबत में काम आने वाले।
नसीब
= भाग्य।
दरियादिल
= विशाल हृदय।
फक्कड़ाना
मस्ती = वह मस्ती जो किसी फक्कड़ (दीन दुनिया से बेखबर) व्यक्ति में होती है।
बेरुखी
= उपेक्षा।
बेकद्रदानी
= कद्र न करना।
चपत
= थप्पड़।
झुंझलाए
= खीझ से भरे।
सेंहुड़
= एक ठिगना वृक्ष।
करीर
= करील।
गोया
= मानों।
अदना
सा = छोटा सा।
कुट
= घड़ा।
अगस्त्य
= एक मुनि का नाम (इनका एक नाम कुटज भी है)।
कुटहारिका
= घर में काम करने वाली दासी।
कुटकारिका
= झाडू-पोंछा करने वाली दासी (सेविका)।
कुटीर
= घर (कुटिया)।
कुट्टनी
= ऐसी दासी जो किसी स्त्री को फुसलाकर उसे किसी के प्रति प्रेम हेतु विवश करती है।
सैलानी
= यात्री।
विचारोत्तेजक
= विचार को उत्तेजना देने वाला (सोचने को बाध्य करने वाला)।
भाषाशास्त्री
= भाषा शास्त्र को जानने वाला (भाषा विज्ञानी)।
सिलवाँ
लेवी = एक पाश्चात्य भाषाशास्त्री।
आग्नेय
भाषा परिवार = दक्षिण पूर्व देशों की भाषाओं का परिवार।
संबद्ध
= मिलनी-जुलती (जुड़ी हुई)।
अविच्छेद्य
= विच्छेद रहित (जुड़े हुए)।
तांबूल
= पान।
कंबु
= शंख।
अपराजेय
= जिसे पराजित न किया जा सके।
स्फीयमान
= फैलती हुई।
बलिहारी
= न्योछावर।
मादक
= मदभरी।
कुपित
= क्रुद्ध।
दारुण
= भयंकर।
निःश्वास
= बाहर निकली सांस।
लू
= गर्म हवा।
दुर्जन
= दुष्ट।
कारा
= जेल।
रुद्ध
= बंद।
जलस्रोत
= पानी का झरना।
सरस
= हरा-भरा (लक्षणा से)।
गिरिकांतार
= पर्वतीय जंगल।
पुलकित
= प्रसन्न।
हिमाच्छादित
= बर्फ से ढकी।
पर्वत
नंदिनी सरिताएँ = पर्वत से उत्पन्न (निकली) नदियाँ।
मूर्धा
= मस्तक।
पुष्पस्तबक
= फूलों के गुच्छे।
भित्त्वा
= भेदकर।
छित्त्वा
= छेदकर।
प्राभंजनी
= तूफानी हवाओं।
पीत्वा
= पीकर।
नभः
= आकाश।
दुरंत
= प्रबल (जिसका पार पाना कठिन हो)।
याज्ञवल्क्य
= एक ऋषि (इनकी दो पलियाँ थी- मैत्रेयी और कात्यायनी)।
आत्मनस्तु
= अपने लिए।
जिजीविषा
= जीवित रहने की इच्छा।
शत्रुमर्दन
= शत्रु को कुचल देना।
अभिनय
= नाटक।
अन्तरतर
= भीतर से।
समष्टि-बुद्धि
= वह बुद्धि जो अपने में सबको और सब में अपने को देखती है।
दलित
द्राक्षा = कुचले हुए अंगूर।
तृष्णा
= असंतोष।
कार्पण्य
= कृपणता, कंजूसी।
हृदयेनापराजितः
= हृदय कभी पराजित न हो।
अकुतोभया
= कभी भी भयभीत न होने की वृत्ति (स्वभाव)।
अपकार
= बुराई।
विकल्प
= किसी एक का चयन करने की वृत्ति।
दाँत
निपोरना = खुशामद करना।
चाटुकारिता
= जी हुजूरी करना।
छंदावर्तन
= दोष निकालना।
आडम्बर
= ढोंग।
मिथ्याचारों
= झूठा आचरण।
मनस्वी
= मननशील।
महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
सम्पूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति
स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व
यह गिरि-श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र, झाड़-झंखाड़ और बेहया-से
पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तक सूख गई है। काली-काली
चट्टानें और बीच-बीच में शुष्कता की अन्तर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ
रेती! रस कहाँ है? ये जो ठिंगने से लेकिन शानदार दरख्त मरमी की भयंकर मार खा-खाकर और
भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ? सिर्फ जी ही नहीं
रहे हैं, हँस भी रहे हैं। बेहयां हैं क्या? या मस्तमौला हैं? कभी-कभी जो लोग ऊपर से
बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर
न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखे गए ललित निबन्ध 'कुटज'
से ली गई हैं। यह निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: कालिदास ने हिमालय को पृथ्वी का मानदण्ड कहा था। इसी के पाद देश की पर्वत श्रृंखला
शिवालिक कहलाती है। शिवालिक का अर्थ शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा हो सकता है। शिव
की लटें तो दूर तक बिखरी रहती होंगी।
व्याख्या
: सम्पूर्ण हिमालय के विस्तार को देखकर किसी के मन में समाधि में लीन शिव की मूर्ति
की कल्पना साकार हुई होगी। इसी हिमालय को यदि समाधिस्थ शिव मान लें तो उसके नीचे फैली
शिवालिक पर्वत श्रृंखला भगवान शिव की सूखी जटाओं (अलकों) जैसी प्रतीत होती है। यहीं
पर अज्ञात नाम गोत्र वाले 'कुंटज' के पेड़ झाड़-झंखाड़ से खड़े दिखाई पड़ते हैं। चारों
ओर शुष्कता और नीरसता है किन्तु उस शुष्कता में भी ये कुटज बेहया से खड़े दिखते हैं।
चारों
और कहीं भी हरियाली नहीं यहाँ तक कि दूब भी सूख गई है। यहाँ सर्वत्र काली-काली चट्टानें
और बीच-बीच में लाल रंग की सूखी नीरस रेत है। इस भयंकर गरमी में भी कुटज के ये शानदार
वृक्ष जो ठिगने से हैं भूख-प्यास की चोट सहकर भी हरे-भरे खड़े, हैं। सिर्फ जी ही नहीं
रहे हैं हँस भी रहे हैं अर्थात् फूलों से युक्त हैं। इन भयंकर परिस्थितियों में भी
जो जीवित है, उसे या तो बेहया कहेंगे या मस्तमौला। जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं उनकी
जड़ें काफी गहरी होती हैं। अर्थात् बहिर्मुखी स्वभाव के लोगों में विपरीत परिस्थिति
में भी जीवित रहने की अपार शक्ति होती है। ये कुटज नामक वृक्ष पत्थर को फोड़कर पाताल
से भी अपनी भोज्य सामग्री अर्थात् पानी खींच लाते हैं।
विशेष
:
लेखक
ने शिवालिक पर्वत श्रंखला की कल्पना शिव की अलक अर्थात जटा-जट के रूप में की
कुटज
वृक्ष की विशेषताएँ बताई गई हैं। इनकी जड़ें गहरी होती हैं और ये अपना जीवन रस (जल)
पत्थर को फोड़कर बहुत भीतर से खींच लाती हैं।
हँस
रहे हैं का लाक्षणिक अर्थ है-फूलों से लदे हैं।
भाषा
संस्कृतनिष्ठ है जिसमें उर्दू के इजहार, दरख्त, बेहया आदि तथा लोक-प्रचलित झाड़-झंखाड़,
मस्तमौला आदि शब्द भी प्रयुक्त हैं। विवरणात्मक तथा प्रश्न शैली का प्रयोग है।
इन्हीं में एक छोटा-सा, बहुत ही ठिंगना पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं,
बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब सी अदा है, मुसकुराता
जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते ? पहचानता तो
हूँ, अवश्य पहचानता हूँ। लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ। पहचानता हूँ उजाड़ के साथी,
तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। नाम भूल रहा हूँ। प्रायः भूल जाता हूँ। रूप देखकर प्रायः
पहचान जाता हूँ, नाम नहीं याद आता। पर नाम ऐसा है कि जब तक रूप के पहले ही हाजिर न
हो जाए तब तक रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। भारतीय पण्डितों का सैकड़ों बार का कचारा-निचोड़ा
प्रश्न सामने आ गया-रूप मुख्य है या नाम? नाम बड़ा है या रूप? पद पहले है या पदार्थ
? पदार्थ सामने है, पद नहीं सूझ रहा है। मन व्याकुल हो गया। स्मृतियों के पंख फैलाकर
सुदूर अतीत के कोनों में झाँकता रहा।
संदर्भ
:
प्रस्तुत गद्यावतरण डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'कुटज' शीर्षक निबन्ध से
उद्धृत है। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग
: हिमालय की सूखी जलहीन पहाड़ियों पर जो वृक्ष खड़े हैं, वे निर्द्वन्द्व और मस्त हैं।
वे फूलों से लदे हैं। लेखक उनका नाम, कुल, शील नहीं जानता। उसे लगता है कि ये वृक्ष
उसे अनादि काल से जानते हैं।
व्याख्या
: इन वृक्षों में एक छोटा-सा कम लम्बा पेड़ है। चौड़े बड़े पत्ते हैं, फूलों से लदा
है। प्रतीत होता है कि वह लेखक से पूछ रहा है क्या मुझे नहीं पहचानते। लेखक उसे सूने
वनस्पतिहीन वन में उगे होने के कारण उजाड़ के साथी सम्बोधित करके कहता है कि वह उसे
पहचानता है पर उसका नाम भूल गया है। रूप देखकर पहचान लेता है परे नाम याद नहीं आता।
परन्तु बिना नाम के पहचान अधूरी होती है। रूप से पहले जब तक नाम याद न आये तब तक रूप
की पहचान पूरी नहीं होती। भारतीय पंडितों ने इस पर पर्याप्त विचार किया है कि रूप बड़ा
है या नाम। रूप पहले है या नाम पहले है।
किसी
व्यक्ति को देखकर या किसी वस्तु को देखकर उसका रूप तो सामने आ जाता है, किन्तु उसकी
पहचान तभी सम्भव हो पाती है, जब उसका नाम पता हो। स्पष्ट है कि नाम के बिना रूप की
पहचान अधूरी है इसलिए लेखक नाम को अधिक महत्त्व देता रहा है। जब तक यह स्मरण नहीं होगा
कि सामने खड़े इस पेड़ का नाम क्या है, तब तक इसे पहचान पाना कठिन है। रूप अर्थात्
वृक्ष सामने है किन्तु नाम याद न आने से इसकी पहचान अधूरी है। मेरा मन इसका नाम जानने
को व्याकुल है। उस नाम को जानने के लिए इच्छुक है जो समाज ने इसे दिया है। लेखक का
मन अतीत में जाकर इस वृक्ष का नाम याद करने का प्रयास करने लगा।
विशेष
:
नाम
बड़ा है या रूप, यह प्रश्न दर्शन से जुड़ा हुआ है।
रामचरितमानस
में नाम को रूप से बड़ा मानकर कहा गया है - (i) राम तें अधिक राम कर नामा। (ii) कहियत
रूप नाम आधीना।
सरल,
सहज और प्रवाहयुक्त भाषा का प्रयोग है जिसमें संस्कृत की तत्सम शब्दावली की प्रमुखता
है।
विश्लेषणात्मक,
भावात्मक तथा वार्तालाप शैली का प्रयोग इस अवतरण में है।
नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे
सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को
कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सेक्शन'
कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा
प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'कुटज' नामक निबन्ध से ली गयी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
का ग्रह निबन्ध हमारी पाठ्य पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: पर्वत शिखरों पर उत्पन्न होने वाले उस हरे-भरे तथा फूलों से लदे वृक्ष का नाम लेखक
को याद नहीं आ रहा - इसीलिए वह उसे पहचान भी नहीं पा रहा है। क्या हम किसी वस्तु का
नया नाम रख सकते हैं? इस प्रश्न पर विचार करते हुए लेखक यह निष्कर्ष निकालता है कि
नया नाम दे पाना इसलिए सम्भव नहीं है कि नाम से ही पहचान जुड़ी होती है तथा नाम समाज
द्वारा स्वीकृत होता है। जब तक हम किसी का समाज-स्वीकृत नाम न जान लें तब तक उसकी पहचान
पूरी नहीं होती।
व्याख्या
: लेखक कहता है कि इस वृक्ष का नाम मुझे याद नहीं आ रहा अतः इसे पहचान पाना भी सम्भव
नहीं हो रहा। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि नाम बड़ा है, रूप नहीं। तब लेखक ने सोचा
कि यदि इसका प्रचलित नाम याद नहीं आ रहा तो क्यों न इसका नया नामकरण कर दिया जाय ?
पर मन इसके लिए तैयार नहीं हुआ। नाम को नाम रखने मात्र से महत्ता प्राप्त नहीं होती।
नाम को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। समाज में उसकी पहचान इस नाम से ही है, इसीलिए
नाम बड़ा है। रूप का सम्बन्ध व्यक्ति से है किन्तु नाम समाज की सम्पत्ति है।
किसी
व्यक्ति विशेष का नाम व्यक्तिगत सत्य नहीं सामाजिक सत्य है। समाज ने ही उसे वह नाम
दिया है और समाज उसे उस नाम से ही पहचानता है। इसी को 'सोशल सेक्शन' या सामाजिक स्वीकृति
कहा जाता है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह उस समाज द्वारा स्वीकृत नाम को बदल
दे। ऐसा करने पर तो उसकी पहचान ही लुप्त हो जायेगी। यही कारण है कि लेखक का मन इस वृक्ष
के उस नाम को जानने के लिए व्याकुल है जो समाज द्वारा स्वीकृत है तथा समाज रूपी मानव
की चित्तरूपी गंगा में स्नान किए हुए है।
विशेष
:
नाम
इसलिए बड़ा है क्योंकि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। जिस वृक्ष को समाज 'आम' के
वृक्ष के रूप में जानता है, उसका नाम बदलने का अधिकार किसी को नहीं है।
लेखक
ने 'सोशल सेक्शन' जैसे अंग्रेजी भाषा के शब्द का प्रयोग भी किया है।
भाषा
सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है जिसमें तत्सम शब्दों की प्रमुखता है।
विवेचनात्मक
शैली का प्रयोग किया गया है।
रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरियादिल आदमी थे, पाया
सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक
देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था। एक बादशाह ने आदर
के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता।
उनकी फक्कड़ाना मस्ती कहीं गई नहीं। अच्छे-भले कद्रदान थे।
संदर्भ
:
प्रस्तत गद्यावतरण 'कटज' नामक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्र ललित
निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग -2' में संकलित है।
प्रसंग
:
कुटज के पुष्प ही मेघ की अभ्यर्थना के लिए कालिदास ने प्रयोग किए थे। कुटज इस कारण
भारी सम्मान का पात्र है परन्तु उसे सम्मान मिला नहीं है। सम्मान मिलना भाग्य की बात
है। संसार बड़ा मतलबी है। वह अपना मतलब , निकलने तक ही किसी का सम्मान या किसी से प्रेम
करता है।
व्याख्या
: द्विवेदी जी कहते हैं कि हिन्दी के कवि रहीम का नाम मैं बड़े आदर से लेता हूँ। वे
बड़े उदार एवं दानी थे। जो धन उन्हें मिला उसे दोनों हाथों से लुटाया पर दुनिया की
रीति निराली है। वह अपने मतलब से मतलब रखती है तथा मतलब पूरा हो जाने पर व्यक्ति को
उसी तरह तिरस्कृत कर देती है जिस प्रकार रस चूस लेने के बाद आम की गुठली और छिलका फेंक
दिया जाता है। यही रहीम के साथ भी हुआ। वे अकबर के सेनापति थे और उनका पूरा नाम था
अब्दुर्रहीम खानखाना। मुगल सल्तनत को बढ़ाने में उनका योगदान रहा, किन्तु जब मतलब निकल
गया तो उनके विरुद्ध षड्यन्त्र किए गए और अकबर के पुत्र जहाँगीर ने उनका सारा धन, वैभव
और पद छीन लिया। वे भी आम की गुठली एवं छिलके की भाँति क दिए गए। किन्तु इससे रहीम
का मूल्य कम नहीं हो जाता। वे फक्कड़ाना तबियत वाले कवि थे और गुणों के कद्रदान थे।
विशेष
:
ललित
निबन्ध से लेखक के 'पाण्डित्य' का बोध होता है। द्विवेदी जी को रहीम के सम्बन्ध में
ऐतिहासिक जानकारी है जिसका उपयोग यहाँ किया गया है।
रस
और गुठली यहाँ क्रमशः सारतत्व एवं सारहीनता के प्रतीक हैं। दुनिया सारतत्व को ग्रहण
कर सारहीन को त्याग देती है।
विवरणात्मक
शैली का प्रयोग है।
भाषा
शुद्ध परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी है।
बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास
के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर
पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख
के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है।
कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी
शक्ति को प्रेरणा देती है।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण 'कुटज' नामक ललित निबन्ध से लिया गया है जिसके लेखक आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी हैं। यह निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: इस अवतरण में लेखक ने कुटज की अपराजेय जीवनी-शक्ति से मानव को शिक्षा लेने की प्रेरणा
दी है। विपरीत परिस्थितियों में भी यह हरा-भरा और प्रफुल्ल है। मनुष्य को इससे सीख
लेनी चाहिए और निरन्तर अपनी जिजीविषा को बनाये रखना चाहिए यही कुटज का सन्देश है।
व्याख्या
: लेखक कहता है कि जब चारों ओर भयंकर गर्मी में धधकती हुई लू यमराज की क्रुद्ध सांसों
जैसी चलती है, तब भी यह हरा-भरा बना रहता है। कोई दूसरा वृक्ष उस प्रचण्ड ताप को सहन
नहीं कर पाता किन्तु कुटज है कि इन विपरीत परिस्थितियों में भी मस्ती के साथ लहराता
हुआ खड़ा रहता है। यही नहीं अपितु इसकी जड़ें उस पत्थर को भी फोड़ डालती हैं जो दुष्टों
के चित्त से भी अधिक कठोर हैं और अत्यन्त गहराई में जाकर उस जल स्रोत तक पहुँच जाती
हैं, जो अतल गहराई में पाषाण की कारा में निरुद्ध है।
ये
जड़ें वहाँ तक जाकर बलपूर्वक भोज्य सामग्री एवं जल खींच लाती हैं। इसीलिए इस भीषण गर्मी
में भी यह हरा-भरा दीख रहा है। मूर्ख के मस्तिष्क की भाँति एकदम शून्य अर्थात् वृक्षों
एवं पेड़-पौधों से रहित पहाड़ी वन प्रदेश में कुटज मस्तमौला बना हुआ है। कुटज की इस
मस्ती को देखकर लेखक को इससे ईर्ष्या होती है। वह उसकी प्रबल जीवनी शक्ति की प्रशंसा
करता है। एक की संघर्ष क्षमता एवं जीवनी-शक्ति दूसरों में भी इन गुणों का संचार करती
है। निश्चय ही कुटज के ये गुण मानव के लिए प्रेरणाप्रद, एवं अनुकरणीय हैं।
विशेष
:
1.
इस अवतरण में लेखक ने आलंकारिक भाषा का उपयोग किया है। ऐसे कुछ आलंकारिक कथन हैं -
(अ)
कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती.लू-उपमा अलंकार।
(ब)
दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा-व्यतिरेक अलंकार।
(स)
मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतार-व्यतिरेक अलंकार।
2.
कुटज की अपराजेय जीवनी-शक्ति की प्रशंसा करते हुए उससे प्रेरणा लेने का उपदेश दिया
गया है।
3.
संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग इस अवतरण में है।
4.
भावात्मक शैली के साथ-साथ सूक्तिपरक वाक्यों का प्रयोग भी यहाँ किया गया है।
जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य
संग्रह करो; वायुमण्डल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश
को चूसकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है।
सन्दर्भ
: 'कुटज' नामक ललित निबन्ध से ली गई ये पंक्तियाँ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की
लेखनी से निःसृत हैं। यह ललित निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग - 2' में संकलित
है।
प्रसंग
: कुटज की अपराजेय जीवनी-शक्ति एवं क्षमता की प्रशंसा करते हुए लेखक ने उससे यही उपदेश
ग्रहण करने का सुझाव हम सबको दिया है।
व्याख्या
:
कुटज की अपराजेय जीवनी-शक्ति निश्चय ही प्रशंसनीय है। जो विपरीत परिस्थितियों में भी
मस्ती के साथ जी लेता है, उसी का जीवन सार्थक एवं प्रेरणाप्रद है। लेखक कहता है कि
यदि तुम इस संसार में एक अच्छा जीवन जीना चाहते हो तो कुटज से कुछ सीखो। उसकी जड़ें
कठोर पाषाण को चीरती हुई पाताल की छाती चीरकर अपने लिए जल ले आती हैं। कुटज के पत्ते
वायुमण्डल में व्याप्त नमी को चूसते हैं और अपने आस-पास से गुजरने वाले आँधी-तूफान
को रगड़कर उसमें से अपना प्राप्य वसूल लेते हैं। कुटज की भाँति उल्लसित रहकर मस्ती
से झूमते रहो। कुटज हमें यही उपदेश देता है कि जीवन की परिस्थितियाँ विकट एवं कठिन
हैं, पर हिम्मत मत हारो, निरन्तर प्रयासरत रहो और अपने अधिकार को हर हाल में प्राप्त
करो।
विशेष
:
कुटज
के द्वारा मानव को यह उपदेश मिलता है कि जीवनी-शक्ति बनाये रखो, अधिकारों के लिए संघर्ष
करो और मस्ती के साथ विपरीत परिस्थितियों में जीने की कला सीखो।
विषम
परिस्थितियों में भी जो जी लेता है, वही मानव प्रशंसा का पात्र है। लेखक कुटज के द्वारा
यही उपदेश देना चाहता है।
भावात्मक
शैली का प्रयोग इस अवतरण में किया गया है।
भाषा
सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है जिसमें लेखक ने संस्कृतनिष्ठ पदावली का प्रयोग किया है।
दुरंत जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला
ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में, मन ढाल दो जीवन रस के उपकरणों
में! ठीक है। लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने
मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी
पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के
लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिय नहीं होती—सब अपने मतलब के लिए
प्रिय होते हैं 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।'
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'कुटज' नामक निबन्ध से ली गई हैं जिसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी हैं। यह ललित निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: कुटज की जीवनी-शक्ति की प्रशंसा करते हुए लेखक ने मानव को भी उससे प्रेरणा लेने का
सुझाव दिया है। अपने लिए जीना वास्तव में जीना नहीं है। जो दूसरों के लिए जीता है,
उसी का जीवन सार्थक है।
व्याख्या
: कुटजं विपरीत और विषम परिस्थितियों में भी हरा-भरा है तथा फूलों से लदा है यह देखकर
लेखक उसकी इस दुरंत जीवनी-शक्ति के सम्मुख नतमस्तक होता है। कुटज की यह जीवनी-शक्ति
मानव को एक उपदेश है जिसके अनुसार आचरण करना सरल नहीं है। वस्तुतः जीना भी एक कला है
और कला से भी बढ़कर इसको एक तपस्या मानना चाहिए। मानव को जीने की यह कला कुटज से सीखनी
चाहिए।
जीते.के
लिए जीना कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे-तैसे जी लेना भी कोई जीवन है ? व्यक्ति को इस
प्रकार जीना चाहिए कि लगे उसने जिन्दगी में नये प्राण ढाल दिए हैं। मस्ती और आनन्द
के साथ मन लगाकर प्रसन्नतापूर्वक जीना ही जीवन है। जैसे-तैसे साँसों को बरकरार रख लेना
जीवन नहीं है। इस संसार में सब अपने स्वार्थ हेतु जीते हैं। ब्रह्मवादी ऋषि याज्ञवल्क्य
ने यह बात अपनी पत्नी को विचित्र तरीके से समझाई थी।
उन्होंने
कहा था आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति। इस संसार में अपना-हित ही सर्वप्रिय होता
है। सब अपने स्वार्थ के लिए प्रिय लगते हैं। पुत्र-पुत्र होने के कारण नहीं अपने हित
के लिए प्रिय होता है। पत्नी-पत्नी होने के कारण नहीं अपने हित के लिए प्रिय होती है।
मनुष्य सबसे अपने मतलब के लिए प्रेम करता है।
विशेष
:
कुटज
की अदम्य जीवनी-शक्ति की भरपूर प्रशंसा की गई है।
कुटज
से हमें विपरीत परिस्थितियों में भी जीने का उपदेश मिलता है।
भाषा
सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली का प्रयोग इस अवतरण में किया
गया है।
भावात्मक
शैली का प्रयोग किया गया है।
याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी वह अंतिम नहीं थी।
वे 'आत्मनः' का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की 'आत्मा' केवल व्यक्ति तक
सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सब में आप-इस प्रकार की एक समष्टि-बुद्धि
जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनन्द भी नहीं मिलता। अपने आपको दलित द्राक्षा की
भाँति निचोड़कर जब तक 'सर्व' के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक 'स्वार्थ' खण्ड-सत्य
है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय-कृपण
बना देता है। कार्पण्यं दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो
जाती है। वह स्पष्ट नहीं देख पाता। वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की
बात हैं।
संदर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'कुटज' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत की गयी हैं। आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी का यह ' . निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग- 2' में संकलित है।
प्रसंग
: लेखक का मत है कि उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक है जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए
जीता है। जब तक हम 'स्वार्थ' को त्यागकर 'परमार्थ' की ओर अग्रसर नहीं होते तब तक अपने
जीवन को सही अर्थ नहीं दे पाते।
व्याख्या
: याज्ञवल्क्य ने कहा है कि 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' अर्थात् सब अपने मतलब
के लिए प्रिय होते हैं। धक्कामार ढंग से व्यक्त किया गया याज्ञवल्क्य का यह कथन अन्तिम
विचार नहीं है। वास्तव में वे यहाँ 'आत्मन्' का व्यापक अर्थ लेना चाहते हैं। व्यक्ति
की 'आत्मा' केवल उसी तक सीमित नहीं है अपितु वह सर्वव्याप्ती है। दूसरों को सुख पहुँचाकर
ही व्यक्ति स्वयं सुखी होता है, सबके सुख में अपना सुख देखने वाली बुद्धि जब तक उत्पन्न
नहीं होती तब तक व्यक्ति वास्तविक आनन्द को प्राप्त, भी नहीं कर सकता। मानव जीवन की
सार्थकता आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान में है।
जब
तक हम स्वयं को कुचले हुए अंगूर की तरह पूरी तरह निचोड़कर दूसरों के लिए न्योछावर नहीं
कर देते तब तक हम स्वार्थी ही कहे जायेंगे। 'स्वार्थ' से व्यक्ति के हृदय में मोह की
भावना बढ़ती है और मोह जितना प्रबल होता है, व्यक्ति उतना ही दीन, दयनीय एवं कृपण
(कंजूस) बन जाता है। कृपणता हमारी मूल प्रवृत्ति को नष्ट कर देती है तथा हमारी मानवीय
वृत्तियों यथा मानवता, त्याग, बलिदान आदि को समाप्त कर देती है परिणामतः हमारी दृष्टि
धुंधली हो जाती है और हम अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते। ऐसा व्यक्ति अपने स्वार्थ
में ही लिप्त रहता है, परमार्थ उसके वश की बात नहीं होती। स्वार्थी व्यक्ति में मोह,
तृष्णा जैसे दुर्गुण घर कर लेते हैं वह त्याग, बलिदान एवं परमार्थ से दूर हो जाता है
परिणामतः उसे जीवन में सुख प्राप्त नहीं हो पाता।
विशेष
:
लेखक
ने परमार्थ पर विशेष बल दिया है और कहा कि सच्चा आनन्द त्याग और बलिदान से ही मिलता
है। जब तक व्यक्ति लोक-कल्याण के लिए स्वयं को न्योछावर नहीं करता तब तक उसे सच्चा
सुख नहीं मिल सकता।
भाषा
सरल और प्रवाहपूर्ण है जिसमें तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है।
भावात्मक
शैली का प्रयोग किया गया है।
याज्ञवल्क्य
के कथन का निहितार्थ स्पष्ट किया गया है।
जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है, वह अबोध है, जो समझता
है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसको उपकार करता है, कौन
किसको अपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल.जी रहा है, अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-बिधाता
की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई
बात नहीं, परन्तु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है तो
दुख पहुँचाने का अभिमान तो नितरां गलत है।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ 'कुटज' नामक ललित निबंध से उधत की गयी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी द्वारा रचित यह निबंध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: इस संसार में जो कुछ हो रहा है, परमात्मा की इच्छा से हो रहा है। यदि कोई मनुष्य
किसी के सुख-दुःख के लिए स्वयं को उत्तरदायी समझता है तो यह उसका अहंकार है। हम तो
निमित्त मात्र हैं, कर्त्ता नहीं हैं। अपने को कर्ता समझना बहुत बड़ी भूल है यही लेखक
इस अवतरण में कहना चाहता है।
व्याख्या
-यह संसार उस इतिहास विधाता की इच्छा से संचालित हो रहा है। उसकी इच्छा के बिना यहाँ
कुछ भी होना सम्भव नहीं है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह दूसरों को सुख
पहुँचा रहा हैं, उनका उपकार कर रहा है तो वह अबोध है। इसी प्रकार यह सोचना भी मूर्खता
है कि कोई उसका अहित कर रहा हैं। मनुष्य न किसी का हित कर सकता है न अहित।
स्वयं
को कुछ करने वाला समझकर अभिमान करना ठीक नहीं है। मैंने उसका भला किया - यह अहंकार
ठीक नहीं है। इससे भी गलत यह है कि मनुष्य किसी को दुःख पहुँचाकर स्वयं को बड़ा समझे
और उस पर घमण्ड करे। संसार में रहते हुए यदि किसी को हमसे सुख मिल जाय बहुत अच्छी बात
है, यदि न मिल सके तो भी कोई बात नहीं, किन्तु मनुष्य को अभिमान बिलकुल नहीं करना चाहिए।
हम में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि किसी को सुख-दुःख पहुँचा सकें।
विशेष
:
मनुष्य
तो परमात्मा के हाथ का खिलौना है। हम परमात्मा की इच्छापूर्ति के निमित्त मात्र हैं,
अतः हमें कर्त्ताभाव का परित्याग कर देना चाहिए।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण साहित्यिक हिन्दी है।
विवेचनात्मक
एवं भावात्मक शैली का प्रयोग यहाँ किया गया है।
द्विवेदी
जी ने सब प्रकार के अहंकार से मुक्त होने की प्रेरणा दी हैं।
दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुःखी
वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता,
हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने
को छिपाने के लिए मिथ्या आडम्बर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज
इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में
रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है
- 'मैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं
मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ।'
सन्दर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण 'कुटज' नामक ललित निबन्ध से लिया गया है। इस निबन्ध के लेखक आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं और इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया
गया है।
प्रसंग
: लेखक की मान्यता है कि व्यक्ति का मन सुख और दुःख के लिए उत्तरदायी होता है। जिसने
अपने मन को वशीभूत कर लिया वह सुखी है और जिसका मन परवश है वह दुःखी है। जो मन को अपने
ऊपर सवार नहीं होने देता वही सुखी कहा जाता है। कुटज मन पर सवारी करता है इसलिए वह
सुखी है।
व्याख्या
: लेखक कहता है कि दुःख और सुख का चयन तो मन करता है। जिसने अपने मन को वशीभूत कर लिया,
उससे बढ़कर सुखी कोई नहीं, जबकि दुःखी वह व्यक्ति है जिसका मन परवश है। मन को नियंत्रि
को कोई दुःख नहीं होता, किन्तु जिसका मन सांसारिक विषय-वासनाओं के वशीभूत होता है वही
दूसरों की खुशामद करता है, दूसरों के समक्ष दीन बनता है, उनकी चाटुकारिता करते हुए
झूठी प्रशंसा करता है तथा अपने लाभ के लिए दूसरों की जी-हुजूरी करता फिरता है। ये सब
कार्य उसे करने पड़ते हैं जो मन पर नियन्त्रण नहीं रख पाता और लोभ-लालच के वशीभूत होकर
दूसरों से कुछ चाहता है, किन्तु जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसे दूसरों की खुशामद
करने या उनके तलवे चाटने की कोई आवश्यकता नहीं।
जिसका
मन परवश है वही दूसरे के मन को टटोलतां फिरता है, मिथ्या आडम्बर रचता है या दूसरों
को फंसाने के लिए षड्यन्त्र करता है पर जिसने मन को वश में कर लिया, सन्तोषवृत्ति को
धारण कर लिया है, उसे न खुशामद करने की आवश्यकता है और न षड्यन्त्र करने की। कुटज इन
झूठे प्रदर्शनपूर्ण आचरण से दूर रहता है। राजा जनक भोग के समस्त साधन सुलभ होने पर
भी वृत्ति से योगी थे। कुटज भी ऐसा ही है। वह मन पर नियन्त्रण रखता है, मन को अपने
पर सवार नहीं होने देता इसीलिए वह साधुवाद का पात्र है।
विशेष
:
इस
अवतरण में लेखक ने सुखी उस व्यक्ति को माना है जो अपने मन को वश में रखता है। दूसरी
ओर दुःखी वह है जो अपने मन पर नियन्त्रण नहीं रख पाता।
लेखक
की धारणा है कि सन्तोष वृत्ति धारण कर लेने पर मन में कोई दुःख नहीं रहता। मन पर सवारी
करने वाला व्यक्ति कुटज की भाँति निर्द्वन्द्व एवं निश्चिन्त हो जाता है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण परिनिष्ठित हिन्दी है जिसमें संस्कृतनिष्ठ पदावली की बहुलता
है।
विवेचनात्मक शैली का प्रयोग इस अवतरण में लेखक ने किया है।