(क) एक कम
प्रश्न 1. कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने के
लिए किन तरीकों की ओर संकेत किया है? अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'एक कम' कविता में कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने
के लिए किन तरीकों की ओर संकेत किया है? कवि ने स्वयं को हर होड़ से अलग क्यों कर लिया
है?
उत्तर
: कवि ने आजादी के बाद भारत के अनेक लोगों को आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होते
देखा है। छलकपट, धोखाधड़ी, विश्वासघात, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता एवं अन्याय के बल
पर लोगों ने अपनी स्थिति को सुधारा है। अनैतिक तरीकों से लोग धनवान बने हैं और
दूसरों को धक्का देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति को ही उन्होंने अपनी उन्नति का साधन
बनाया है।
प्रश्न 2. हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा
है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: हाथ फैलाने वाले .अर्थात् भीख माँगने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार इसलिए कहा
है क्योंकि अन्य लोगों की तरह वह धोखाधड़ी, बेईमानी या रिश्वतखोरी नहीं कर सका
इसीलिए वह धनवान नहीं बन सका और आज इतना गरीब है कि पेट भरने के लिए उसे दूसरों के
आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है। यदि वह भी औरों की तरह बेईमानी और धोखाधड़ी करता तो
उनकी तरह ही मालामाल हो जाता।
प्रश्न 3. 1947 से लोग अनेक तरीके से मालामाल
हुए किन्तु विमुद्रीकरण होने से उन स्थितियों में बदलाव आया या नहीं?
उत्तर
: 1947
में देश की आजादी के पश्चात् देश में कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी
बेतहाशा बढ़ जुड़े या उच्च पदों पर आसीन लोग और अधिक अमीर होते गए। देश के धन का कुछ
ही हाथों में विकेन्द्रीकरण हो गया। लोगों के घरों, बैंक खातों तथा विदेशों के कारण
देश धन के अभाव में प्राकृतिक संसाधनों का समुचित प्रयोग न कर सका। अतः देश आजादी के
दशकों बाद भी विकसित न हो सका।
विमुद्रीकरण
का अर्थ है-कालेधन को बाहर निकालने तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए पुरानी
करेंसी पर प्रतिबंध लगाना और नयी करेंसी चलन में डालनां सन् 2014 में प्रधानमंत्री
बनने के पश्चात् मोदी जी ने 8 नवम्बर 2016 की आधी रात को देश में विमुद्रीकरण किया
और ₹500 तथा ₹ 1000 के कागजी नोटों पर प्रतिबंध लगा दिया और नई मुद्रा के रूप में
₹ 2000 तथा ₹ 500 का संचालन प्रारम्भ कर दिया। इस विमुद्रीकरण के तत्काल लाभ
दृष्टिगोचर हुए। कालेधन के रूप में जमा ये नोट बाहर आए और किसी हद तक कालेधन पर
रोक भी लगी। भ्रष्टाचार और रिश्वसतखोरी पर भी रोग लगी तथा वस्तुओं की कीमतें भी
नियन्त्रण में आ गयीं। किन्तु गत वर्षों में स्थिति फिर पहले जैसी होती जा रही है।
प्रश्न 4. 'मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वन्द्वी
या हिस्सेदार नहीं' से कवि का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर
: भीख माँगने वाला व्यक्ति दूसरों की दया पर गुजारा कर रहा है और उस होड़
(प्रतिद्वंद्विता) में बाहर हो। है जो समाज में सर्वत्र दिखाई दे रही है। हर कोई
दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। किन्तु यह भिखारी हाशिए पर। गया व्यक्ति है
जो विकास की दौड़ से बाहर हो गया है। वह पूरी तरह असमर्थ, निर्धन और आकांक्षारहित
है। अपनी स्थिति को स्वीकार करते हुए वह उन सभी लोगों को अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं
मानता जो धनवान बनने की प्रक्रिया में लगे हैं। उस निर्धन की भला धनवानों से क्या
होड़ !
प्रश्न 5. भाव-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
(क) 1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है।
उत्तर
: सन् 1947 में देश आजाद हुआ। आजादी से लोगों को बड़ी आशाएँ थीं पर स्वार्थी लोगों
ने विश्वासघात. धोखेबाजी एवं स्वार्थपरता का परिचय देते हुए देशहित में कुछ न करके
अपना विकास किया। वे धनवान और मालामाल हो गए। कवि यह कहना चाहता है कि स्वतंत्रता
के बाद देश की आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का स्वतंत्रता से मोह भंग हो
गया है क्योंकि चारों ओर बेईमानी, धोखाधड़ी एवं स्वार्थपरता का बोलबाला है। कवि ने
व्यंजना पूर्ण पाधा ! प्रयोग करते हुए देश की वर्तमान दशा का चित्रण किया है।
(ख) मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज।
उत्तर
: भीख माँगने वाला वह व्यक्ति भीख माँगकर जैसे यह घोषित करता है कि वह लाचार,
कंगाल या कोढा। यदि भला-चंगा है तो निश्चित ही वह आलसी है और धोखा देने में भी
उतना कुशल नहीं है। अन्यथा.वह भी गई। एवं धोखेबाजों की तरह मालामाल हो जाता। कवि
यह बताना चाहता है कि आज भिखारी वही है जो धोखेबाजी या बेईमाना की कला में कुशल
नहीं है। कवि ने आज के ईमानदार गरीब मनुष्य के यथार्थ का सफलतापूर्वक वर्णन किया
है।
(ग) तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से।
उत्तर
: भिखारी भीख माँगकर जैसे यह घोषित करता है कि वह विकास की हर प्रतिद्वंद्विता और
स्पर्धा से अलग हट गः॥ है और उसकी होड़ किसी से नहीं है। साथ ही वह आकांक्षाविहीन
तथा निर्लज्ज है और उसका कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। प्रती रूप में यह देश के
सामान्य जन की दशा का वर्णन है जो बेईमानी के मार्ग पर चलकर वी.आई.पी. नहीं बन सका
है।
प्रश्न 6. शिल्प-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
(क) कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
उत्तर
: भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है।
हाथ
फैलाना' मुहावरे के प्रयोग ने कवि-कथन को प्रभावपूर्ण बनाया है।
भिखारी
की निर्धनता को उसकी ईमानदारी का फल बताकर समाज-व्यवस्था पर प्रबल व्यंग्य किया
गया है।
मुक्त
छन्द का प्रयोग है।
(ख) मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वन्द्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चित रह सकते हो।
उत्तर
: भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है।
भाषा
में व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करते हुए यह बताया गया है कि आज सर्वत्र दूसरों से
आगे निकलने की होड़ लगी है। पर भिखारी सामने वाले को आश्वस्त करता है कि वह उसका
प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिस्पर्धी या विरोधी नहीं है क्योंकि वह इस होड़ से बाहर है।
ये
पंक्तियाँ मुक्त छन्द में लिखी गई हैं।
स्वतंत्र
भारत की अर्थव्यवस्था पर व्यंग्य करते हुये बताया गया है कि चन्द चतुर, चालाक और
बेईमान लोगों ने मिलकर देश के धन को हड़प लिया है और जनता को बदहाल, फटेहाल छोड़
दिया है।
(ख) सत्य
प्रश्न 1. सत्य क्या पुकारने से मिल सकता है? युधिष्ठिर विदुर को
क्यों पुकार रहे हैं महाभारत के प्रसंग से सत्य के अर्थ खोलें।
उत्तर
: सत्य पुकारने से नहीं मिलता। युधिष्ठिर विदुर को इसलिए पुकार रहे हैं जिससे वे
उनके प्रति हुए अन्याय को सनें और सत्य का पक्ष लें। धतराष्ट ने पाण्डवों को
खाण्डवप्रस्थ जैसा स्थान बँटवारे में दिया था जहाँ जंगल था, जो विद्रोहियों से भरा
था। उसने समृद्ध और उपजाऊ भू-प्रदेश अपने अधिकार में रखे थे। यह अन्याय ही तो था।
विदुर
ने इस अन्याय को चुपचाप देखा था। युधिष्ठिर विदुर को इसीलिए पुकार रहे थे और जानना
चाहते थे कि उन्होंने सत्य का साथ क्यों नहीं दिया। किन्तु विदुर ने कोई उत्तर
नहीं दिया। सत्य पुकारने से नहीं मिलता, वह हमसे दूर होता जाता है। सत्य हमारे
अन्तर्मन की शक्ति है जिसे पुकारने की जरूरत नहीं है। उसे प्रत्येक व्यक्ति को
स्वयं ही पाना होता है।
प्रश्न 2. 'सत्य का दिखना और ओझल होना' से
कवि का क्या तात्पर्य है? .
उत्तर
: वर्तमान समय में तीव्रगति से होने वाले परिवर्तनों के कारण सत्य का कोई स्थिर
स्वरूप नहीं रहा है। वह हमें कभी दिखता है तो कभी छिप जाता है। वस्तुतः आज के समाज
में सत्य को पहचानना बड़ा कठिन काम है-यही कवि कहना चाहता है। सत्य का कोई एक
स्थिर रूप नहीं है, कोई एक पहचान नहीं है इसीलिए हर व्यक्ति सत्य के बारे में
संशयग्रस्त है।
प्रश्न 3. सत्य और संकल्प के अन्तर्सम्बन्ध पर अपने विचार व्यक्त
कीजिए।
उत्तर
: सत्य को वही पा सकता है जो संकल्पवान् एवं दृढ़ निश्चयी हो। युधिष्ठिर ने तब तक
विदुर का पीछा किया जब तक वे शमी वृक्ष के नीचे रुक न गए। जो व्यक्ति सत्य पर अडिग
रहने का दृढ़ संकल्प करता है, वही सत्य का पालन कर सकता है। सत्य का स्वरूप बदलता
भी रहता है, अतः सत्य की सही पहचान संकल्प शक्ति से ही संभव हो पाती है। सत्य की
प्राप्ति दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को ही हो पाती है, यही कवि मिथकीय पात्रों के
माध्यम से कहना चाहता है।
प्रश्न 4. 'युधिष्ठिर जैसा,संकल्प' से क्या
अभिप्राय है ?
उत्तर
: युधिष्ठिर जैसा संकल्प का अभिप्राय है दृढ़ निश्चय। सत्य की प्राप्ति के लिए
युधिष्ठिर जैसा संकल्प चाहिए। उन्होंने जीवन-पर्यन्त सत्य का पालन किया चाहे उससे
उन्हें व्यक्तिगत रूप में हानि हई हो या लाभ कोई व्यक्ति युधिष्ठिर जैसा संकल्प
लेकर सत्य की खोज करता है तभी वह सत्य को प्राप्त कर पाता है।
प्रश्न 5. कविता में बार-बार प्रयुक्त 'हम' कौन है और उसकी चिन्ता
क्या है?
उत्तर
: कविता में बार-बार 'हम' शब्द का प्रयोग कवि ने वर्तमान पीढ़ी के उन लोगों के लिए
किया है जो इस संसार में हैं। बदलते हालात में सत्य का स्वरूप स्थिर नहीं है, यही
कवि की सबसे बड़ी चिंता है। सत्य की पहचान कैसे की जाए और उसे अपनी अन्तरात्मा में
कैसे धारण किया जाय, कवि यह समझ नहीं पा रहा।
प्रश्न 6. सत्य की राह पर चल। अगर अपना भला चाहता है तो सच्चाई को
पकड़। इन पंक्तियों के प्रकाश में कविता का मर्म खोलिए।
उत्तर
: कवि ने इस कविता में सत्य के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। सत्य पुकारने से
नहीं मिलता, उसका पीछा करना पड़ता है. दृढ़ संकल्प और निश्चयात्मक बुद्धि से। वह
हमारी अन्तरात्मा की आवाज है। कविता में मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से कवि ने
बताया है कि यदि व्यक्ति अपना भला चाहता है तो उसे सत्य की राह पर निरन्तर चलते
रहना चाहिए। सत्य का निष्ठा से अनुगमन करते चलो, वह अवश्य प्राप्त होगा। भले ही
बदलते समय में सत्य का रूप बदल रहा हो पर हमारी अन्तरात्मा के भीतर उसकी चमक जाग
उठती है। सत्य एक प्रकाशपुंज है जो हमारे भीतर तब समा जाता है जब हम निरन्तर सत्य
की राह पर चलते हैं।
योग्यता विस्तार
प्रश्न 1. आप सत्य को अपने अनुभव के आधार पर परिभाषित कीजिए।
उत्तर
: संत्य की राह कठिन होती है किन्तु जो इस रास्ते पर चलते हैं वे अन्ततः सफल होते
हैं। महात्मा गाँधी, सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, राम, युधिष्ठिर आदि पात्रों ने
सत्य की राह पर अग्रसर होकर ख्याति अर्जित की । यह रास्ता कठिन है पर नामुमकिन
नहीं।
प्रश्न 2. आजादी के बाद बदलते परिवेश का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत
करने वाली कविताओं का संकलन कीजिए तथा
एक विद्यालय पत्रिका तैयार कीजिए।
उत्तर
: छात्र स्वयं करें।
प्रश्न 3. 'ईमानदारी और सत्य की राह आत्म-सुख
प्रदान करती है' इस विषय पर कक्षा में परिचर्चा कीजिए।
उत्तर
: नैतिक मूल्यों का आचरण करना हर किसी के वश की बात नहीं है किन्तु जो सत्य,
ईमानदारी, नैतिकता और सदाचरण का व्यवहार करते हैं उनकी आत्मा तेजोद्दीप्त रहती है
और वे अपने भीतर एक शक्ति का संचार अनुभव करते हैं। इन मूल्यों का पालन करने पर
व्यक्ति को जो आत्मसुख मिलता है वह अभूतपूर्व है। इस आधार पर छात्र अपनी कक्षा में
परिचर्चा करें।
प्रश्न 4. गाँधी जी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' की कक्षा में
चर्चा कीजिए।
उत्तर
: महात्मा गांधी की आत्मकथा 'My Experiments with Truth' हिन्दी में 'सत्य के साथ
मेरे प्रयोग' नाम से प्रकाशित हुई है। इस आत्मकथा में गाँधी जी ने अपने जीवन की
अनेक घटनाओं का वर्णन किया है और अपनी कम का भी सत्यता के साथ उद्घाटन किया है। अपने
दोषों का वर्णन करना हर किसी के वश की बात नहीं है। गाँधी जी जैसा महान व्यक्ति ही
इसे ईमानदारी से व्यक्त कर. पाता है। गाँधी जी की यह आत्मकथा अत्यन्त प्रेरणादायक
है। प्रत्येक विद्यार्थी को इसे पढ़ना चाहिए।
प्रश्न 5. 'लगे रहो मुन्नाभाई' फिल्म पर
चर्चा कीजिए।
उत्तर
: अभी कुछ वर्ष पहले हिन्दी की एक अत्यन्त बेहतर फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई'
प्रदर्शित हुई थी। संजयदत्त की यह फिल्म 'गाँधीगीरी' पर आधारित सीधे और अच्छे ढंग
से गाँधी जी के सिद्धान्तों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने पर बल देती है। हालाँकि
मनोरंजन की दृष्टि से बनी यह फिल्म गाँधीगीरी का स्तर कायम नहीं रख पाई, फिर भी
ऐसी फिल्में जो हमारे भीतर सद्गुणों का विकास करें, हमें अवश्य देखनी चाहिए।
प्रश्न 6. कविता में आए महाभारत के कथा-प्रसंगों को जानिए।
उत्तर
: युधिष्ठिर ज्येष्ठ पाण्डव थे, विदुर उनके काकाश्री (चाचा) थे। कौरव धूर्त थे।
युधिष्ठिर को खाण्डवप्रस्थ का , जंगल बँटवारे में दिया जो विद्रोहियों से भरा था।
पाण्डवों ने परिश्रम करके इसे 'इन्द्रप्रस्थ' बना दिया। पाण्डवों का पक्ष सत्य का,
न्याय का पक्ष था, जबकि कौरव पक्ष अन्याय, अधर्म और असत्य पर आधारित था। अपने
प्रति हुए अन्याय के बारे में युधिष्ठिर अपने काका विदुर से कुछ पूछना चाहते थे।
विदुर उत्तर न देकर जंगल की ओर पलायन कर गए। युधिष्ठिर ने दृढ़ संकल्प के साथ उनका
अनुगमन किया और कवि के अनुसार अन्ततः विदुर को रुककर युधिष्ठिर को अपना तेज
समर्पित करना ही पड़ा।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'एक कम' कविता के आधार पर आजादी
मिलने के बाद ईमानदार लोग कैसे हो गए?
उत्तर
: एक कम' कविता के आधार पर आजादी मिलने के
बाद ईमानदार लोग गरीब तथा लाचार हो गए।
प्रश्न 2. शहाथ फैलाकर रोटी माँगने वाले भिखारी को कवि ने क्या
माना है?
उत्तर
: हाथ फैलाकर रोटी माँगने वाले भिखारी को कवि ने ईमानदार एवं लाचार माना है।
प्रश्न 3. युधिष्ठिर के पुकारने पर भी विदुर कहाँ चले गए थे?
उत्तर
: युधिष्ठिर के पुकारने पर भी विदुर घने जंगल में चले गए थे।
प्रश्न 4. सत्य कभी दिखता है, कभी ओझल हो जाता है। क्यों?
उत्तर
: सत्य कभी दिखता है, कभी ओझल हो जाता है। क्योंकि वह परीक्षा लेता है।
प्रश्न 5. व्यक्ति के दृढ़ निश्चय की परीक्षा कौन लेता है?
उत्तर
: व्यक्ति के दृढ़ निश्चय की परीक्षा सत्य लेता है।
प्रश्न 6. कवि ने कब से लोगों को आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील
होते देखा है?
उत्तर
: कवि ने सन् 1947 के बाद लोगों को आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होते देखा है।
प्रश्न 7. कविता 'एक कम' से कवि का क्या अभिप्राय है?
उत्तर
: कविता 'एक कम' के माध्यम से कवि ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में प्रचलित हो
रही जीवनशैली को रेखांकित किया है।
प्रश्न 8. कवि के अनुसार अमीर लोगों ने अमीर बनने के लिए क्या
किया?
उत्तर
: कवि के अनुसार अमीर बनने की होड़ में लोगों ने अपने स्वाभिमान तक को बेच दिया।
प्रश्न 9. कविता 'एक कम' का वर्ण्य विषय क्या है?
उत्तर
: इस कविता में कवि ने भ्रष्टाचारी लोगों की निंदा की है और जिन लोगों ने धोखाधड़ी
और गलत तरीकों से . धन अर्जित किया है, उनकी भी निंदा की है।
प्रश्न 10. हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा
है?
उत्तर
: कवि ने हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को ईमानदार कहा है क्योंकि अगर वह अमीर होता तो
इस तरह हाथ फैलाकर भीख नहीं माँगता।
प्रश्न 11. कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर और धोखेबाज क्यों कहा
है?
उत्तर
: कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर और धोखेबाज कहा है क्योंकि उसको पता है कौन
बेईमान है और कौन ईमानदार है। फिर भी यह सब जानकर भी वह कुछ नहीं कर पाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
एक कम
प्रश्न 1. 1947 के बाद कवि ने क्या देखा
है ?
उत्तर
: सन् 1947 में भारत को आजादी मिली। आजादी के बाद उसने तमाम लोगों को अनैतिक
तरीकों से धनवान, आत्मनिर्भर एवं मालामाल होते देखा है। इन चालाक, बेईमान लोगों ने
राष्ट्र की सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया है और सामान्य जनता को भूख-प्यास के साथ
विवश छोड़ दिया है।
प्रश्न 2. भिखारी जब कवि के सामने हाथ फैलाता है.तो कवि क्या सोचता
है ?
उत्तर
: भिखारी जब कवि के समक्ष हाथ फैलाता है तो कवि यह सोचने लगता है कि उसके सामने एक
ईमानदार और निश्छल व्यक्ति हाथ फैलाए खड़ा है। यदि यह बेईमान और धोखेबाज होता तो
निश्चय ही अन्य लोगों की तरह मालामाल होता और तब इसे हाथ फैलाने की जरूरत न पड़ती।
समाज में जो गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है, यह भिखारी उससे दूर है।
प्रश्न 3. भिखारी कवि को किस रूप में आश्वस्त करता है ?
उत्तर
: हाथ फैलाए खड़ा वह भिखारी कवि को आश्वस्त करता है कि वह होड़ से बाहर है। उससे
डरने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वह इस प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं है। आज सारी
दुनिया में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी हुई है किन्तु भिखारी इस होड़ से
बाहर है।
सत्य
प्रश्न 4. सत्य की पहचान हम कैसे करें ? कविता के सन्दर्भ में
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कवि इस कविता में यह बताना चाहता है कि वर्तमान समय में सत्य की पहचान बहुत कठिन
है। आज सत्य का स्वरूप समाज के साथ बदल रहा है। वर्तमान समय में हो रहे परिवर्तनों
में सत्य की पहचान कठिन कार्य है। सत्य को हम तभी पहचान पाते हैं जब हमारे मन में
दृढ़ निश्चय और संकल्प हो। उसे अन्तरात्मा से ही पहचान पाना संभव है।
प्रश्न 5. सत्य शायद
जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं
पंक्तियों में कवि ने सत्य के सम्बन्ध में क्या कहा है?
उत्तर
: कवि कहना चाहता है कि सत्य की उपलब्धि के लिए हमें दृढ़ निश्चयी और सतत
प्रयत्नशील होना चाहिए। जो व्यक्ति दृढ़ता के साथ सत्य के मार्ग पर चलता है, वही
सत्य को पा सकता है। सत्य हमारी परीक्षा लेता है कि सत्याचरण के लिए हम कितना कष्ट
उठा सकते हैं।
प्रश्न 6. खांडवप्रस्थ से लौटते हुये युधिष्ठिर ने क्या सोचा होगा?
उत्तर
: खांडवप्रस्थ से इन्द्रप्रस्थ लौटते हुये युधिष्ठिर ने सोचा होगा कि विदुर ने
उनके प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दिया ? सम्भवतः वह चुप रहकर संकेत देना चाहते
थे कि सत्य की समीक्षा व्यक्ति को स्वयं ही करनी होती है और स्वयं ही उसको प्राप्त
करना होता है। कोई बाहरी व्यक्ति उसके सत्य के मार्ग का निर्देशन नहीं कर सकता।
प्रश्न 7. वर्तमान समय में सत्य का स्वरूप कैसा है ?
उत्तर
: कवि के अनुसार वर्तमान समय में सत्य का स्वरूप स्थिर नहीं है। वह अपना रूप और
आकार बदलता है। साथ ही सत्य पुकारने से मिलता नहीं वह हमसे दूर हटता जाता है। वह
कभी दिखता है तो कभी आँखों से ओझल हो जाता है। केवल दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही सत्य
को पा सकता है।
प्रश्न 8. 'सत्य' कविता में प्रयुक्त मिथकीय
पात्रों का प्रतीकार्थ स्पष्ट कीजिए। मिथक काव्य का अभिप्राय भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: जब किन्हीं पौराणिक पात्रों को लेकर कोई युगसत्यं वर्तमान सन्दर्भो में व्यक्त
किया जाता है तो उसे 'मिथक काव्य' कहा जाता है। इस कविता में प्रयुक्त मिथकीय
पात्र महाभारत से लिए गए हैं। युधिष्ठिर आम आदमी के प्रतीक हैं और विदुर सत्य के
प्रतीक। विदुर के पीछे पुकारते भागते हुये युधिष्ठिर का तात्पर्य है कि आम आदमी
सत्य को पुकारता रह जाता है पर उसे प्राप्त नहीं कर पाता।
प्रश्न 9. भाव-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
कभी दिखता है सत्य और कभी ओझल हो जाता है।
उत्तर
: कवि ने सत्य के स्वरूप का वर्णन किया है। उसका कोई एक स्थिर रूप नहीं है। कभी
हमें सत्य दिखाई देता है तो कभी वह हमें दिखाई देना बन्द हो जाता है। हम सत्य की
खोज में भटकते रहते हैं।
प्रश्न 10. विमुद्रीकरण से समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है?
उत्तर
: 1947
के बाद से भ्रष्टाचार के कारण बहुत से लोग अमीर हो गए और भारी मात्रा में धन कमाया,
जो नकदी के रूप में था। विमुद्रीकरण के समय बचत के लिए नकदी रखने वाले गरीब लोग प्रभावित
हुए थे। लेकिन भ्रष्ट लोग इससे बहुत प्रभावित हुए। इस फैसले से भ्रष्ट लोग परेशान हो
गए। लेकिन इससे आम आदमी भी परेशान हुआ, क्योंकि विमुद्रीकरण के बाद की प्रक्रिया ठीक
प्रकार से व्यवस्थित नहीं हो सकी थी।
प्रश्न 11. 'मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी
या हिस्सेदार नहीं' पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
उत्तर
: कवि भ्रष्ट और अनैतिक लोगों को संबोधित करता हुआ कहता है कि उसको उन भ्रष्ट और
अनैतिक लोगों की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि कवि की उनके साथ प्रतिस्पर्धा नहीं
है। वह उनके विरोध में नहीं है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह उनके भ्रष्टाचार
में शामिल होगा। वह भ्रष्ट और अनैतिक लोगों को अपना प्रतिद्वंदी या समर्थक नहीं मानता
है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'एक कम' कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर
: एक कम-भारत को सन् 1947 में आजादी मिली। अनेक लोगों ने इसका उपयोग स्वार्थ के
लिए किया और वे मालामाल हो गए किन्तु जो लोग ईमानदार थे वे और भी गरीब तथा लाचार
हो गए। आस्थावान, ईमानदार और संवेदनशील जनता का आजादी से मोहभंग हो गया। आपसी
विश्वास, भाईचारा और सामूहिकता का स्थान धोखाधड़ी, स्वार्थपरता और आपसी खींचतान ने
ले लिया। कवि इस माहौल में स्वयं को असमर्थ पाता है। उसकी सहानुभूति ईमानदार लोगों
के प्रति है।
वह
उनके जीवन-संघर्ष में बाधक नहीं बनना चाहता।, जब कोई भिखारी कवि के सामने हाथ
फैलाता है तो वह जान लेता है कि यह ईमानदार व्यक्ति रहा है तभी तो मालामाल नहीं हो
सका। हाथ फैलाकर वह अपनी लाचारी और कंगाली को तो व्यक्त करता ही है साथ ही वह यह
भी जाहिर है कि वह अब किसी प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं है। अब सामने वाला आदमी उस
भिखारी से तो निश्चिन्त रह सकता है कि यह होड़ में शामिल नहीं है। उससे
प्रतिस्पर्धा करने वालों में एक तो कम हुआ। अन्यथा यहाँ तो परस्पर होड़ लगी है,
दूसरे को पीछे धकेलकर स्वयं आगे निकलने की होड़।
प्रश्न 2. 'सत्य' कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर
: सत्य 'सत्य' कविता में कवि ने महाभारत के पौराणिक सन्दर्भो और पात्रों के माध्यम
से जीवन में स महत्ता को स्पष्ट किया है। कवि जिस पमाज में जी रहा है उसमें सत्य
की पहचान और उसकी पकड़ मुश्किल होती जा है। सत्य कभी नंगी आँखों से दिखता है तो
कभी ओझल हो जाता है। उसका कोई स्थिर रूप या आकार नहीं है जो उसे स्थाचा बना सके।
सत्य
के प्रति संशय बढ़ा है, फिर भी वह हमारी आत्मा की आन्तरिक शक्ति है - यही कवि इस
कविता के मा, यम से कहना चाहता है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है, वही शायद दूसरे
के लिए सत्य नहीं है। बदलती हुई परिस्थितियों में हो रहे परिवर्तनों से सत्य की
पहचान और पकड़ अत्यन्त कठिन हो गई है, यही इस कविता का कथ्य है।
प्रश्न 3. कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है पच्चीस पैसे एक चाय या
दो रोटी के लिए तो जान लेता हूँ मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा
है। इन पंक्तियों के प्रकाश में 'एक कम' कविता का मर्म खोलिए।
उत्तर
: कवि ने आजादी के बाद भारत के अनेक लोगों को आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होते
देखा छल-कपट, धोखाधड़ी, विश्वासघात, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता एवं अन्याय के बल
पर.लोगों ने अपनी स्थिति को सुधारा है। अनैतिक तरीकों से लोग धनवान बने हैं और
दूसरों को धक्का देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति को ही उन्होंने अपनी उन्नति साधन
बनाया है। इस पंक्ति में एक व्यक्ति कम है। वह है भिखारी। हाथ फैलाने वाले अर्थात्
भीख माँगने वाले व्यक्ति। कवि ने ईमानदार इसलिए कहा है. क्योंकि अन्य लोगों की तरह
वह धोखाधड़ी, बेईमानी या रिश्वतखोरी नहीं कर इसीलिए वह धनवान नहीं बन सका और आज
इतना गरीब है कि पेट भरने के लिए उसे दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़। है।
प्रश्न 4. शिल्प-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य।
उत्तर
: भाषा सरल, भावानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण है। तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
कवि
ने सत्य के स्वरूप और उसकी उपलब्धि का वर्णन महाभारत के मिथकीय पात्रों के सहारे
किया है।
युधिष्ठिर
सत्यान्वेषी मानव के प्रतीक हैं।
दृढ़
संकल्प से ही सत्य की उपलब्धि होती है।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : विष्णु खरे का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर
: साहित्यिक परिचय - भाव-पक्ष-विष्णु खरे कवि, लेखक और अनुवादक हैं। कवि के
रूप में वह 1 की समस्याओं से जुड़े हैं। अपनी कविताओं में अपनी भाषा के माध्यम से
अभ्यस्त जड़ताओं और अमानवीय स्थितियों विरुद्ध एक शक्तिशाली नैतिक विरोध को
अभिव्यक्ति प्रदान की है।
कला
-पक्ष-विष्णु खरे की भाषा सशक्त और वर्ण्य-विषय
के अनुकूल है। आपने तत्सम शब्दों के साथ ही बोलचालन के प्रचलित शब्दों को अपनाया
है। आपकी भाषा में प्रवाह है तथा भाव-व्यंजना के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आपने
मुक्त छ। को अपनाया है तथा जो अलंकार स्वाभाविक रूप से आ गये हैं, उनको अपनी कविताओं
में स्थान दिया है। कवि ने लक्षणा, बिम्ब विधान तथा पौराणिक सन्दर्भो और पात्रों
का भी सहारा लिया है।
प्रमुख
कृतियाँ :
मरु
प्रदेश और अन्य कविताएँ (1960) - टी. एस. इलियट की कविताओं का अनुवाद
4
गैर रूमानी समय में (1970) कविता संग्रह
खुद
अपनी आँख से (1978) कविता संग्रह
सबकी
आवाज के में (1994) कविता संग्रह
पिछला
बाकी कविता संग्रह।
प्राप्त
सम्मान -
नाइट
आफ द आर्डर आफ द व्हाइट रोज (फिनलैण्ड का राष्ट्रीय सम्मान)
रघुवीर
सहाय सम्मान
शिखर
सम्मान।
साहित्यकार
सम्मान-हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा प्रदत्त।
(क) एक कम (ख) सत्य (सारांश)
कवि
परिचय : जन्म - सन् 1940, छिन्दवाड़ा (मध्य
प्रदेश)। शिक्षा - एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य) क्रिश्चियन कालेज, इंदौर से सन् 1963
में। मध्य प्रदेश तथा दिल्ली के कॉलेजों में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। दैनिक
'इंदौर समाचार' में उपसम्पादक (1962 63), लघु पत्रिका 'व्यास' के सम्पादक
(1966-67)। साहित्य अकादमी में उपसचिव (कार्यक्रम) (1976-84)। नवभारत टाइम्स तथा
टाइम्स ऑफ इण्डिया के सम्पादक रहे (1985-93)। जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा
पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता रहे। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन और अनुवाद
कार्य में संलग्न रहे। 19 सितम्बर, 2018 को आपका निधन हो गया।
साहित्यिक
परिचय - भाव-पक्ष - विष्णु खरे कवि, लेखक और
अनुवादक हैं। कवि के रूप में वह जनता की समस्याओं से जुड़े हैं। अपनी कविताओं में
अपनी भाषा के माध्यम से अभ्यस्त जड़ताओं और अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध एक
शक्तिशाली नैतिक विरोध:को अभिव्यक्ति प्रदान की है। स्वतंत्रता के विरुद्ध एक
शक्तिशाली नैतिक विरोध को अभिव्यक्ति प्रदान की है।
स्वतंत्रता-प्राप्ति
के पश्चात् भारतीय समाज में प्रचलित हो रही जीवन शैली को व्यक्त किया है और स्वतंत्रता
के बाद भारत में स्वतंत्रता सेनानियों की कल्पना के विपरीत निर्मित हो रहे समाज को
भारतीय जन-जीवन के हित . में नहीं माना है। अपने कथ्य पर कवि की अच्छी पकड़ है और
उसकी व्यंजना में आपको पूर्ण सफलता मिली है।
कला-पक्ष
- विष्णु खरे की भाषा सशक्त और वर्ण्य-विषय के अनुकूल है। आपने तत्सम शब्दों के
साथ ही बोलचाल के प्रचलित शब्दों को अपनाया है। आपकी भाषा में प्रवाह है तथा
भाव-व्यंजना के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आपने मुक्त छन्द को अपनाया है तथा जो
अलंकार स्वाभाविक रूप से आ गये हैं, उनको अपनी कविताओं में स्थान दिया है। अपनी
बात कवि ने सीधे-सपाट ढंग से कही है। कहीं-कहीं अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाने के
लिए कवि ने लक्षणा, बिम्ब विधान तथा पौराणिक सन्दर्भो और पात्रों का भी सहारा लिया
है।
कृतियाँ
-
मरु
प्रदेश और अन्य कविताएँ (1960) - टी. एस. इलियट की कविताओं का अनुवाद
एक
गैर रूमानी समय में (1970) - कविता संग्रह
खुद
अपनी आँख से (1978) कविता संग्रह
सबकी
आवाज के परदे में (1994) कविता संग्रह
पिछला
बाकी-कविता संग्रह
काल
और अवधि के दरमियान कविता संग्रह
आलोचना
की पहली किताब (1983)-आलोचना।
प्राप्त
सम्मान - 1. नाइट आफ द आर्डर आफ द व्हाइट रोज
(फिनलैण्ड का राष्ट्रीय सम्मान) 2. रघुवीर सहाय सम्मान। 3. शिखर सम्मान। 4.
साहित्यकार सम्मान-हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा प्रदत्त। 5. मैथिलीशरण गुप्त
सम्मान।
सप्रसंग व्याख्याएँ
एक कम
1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज
शब्दार्थ
:
आत्मनिर्भर
= स्वावलम्बी।
मालामाल
= धनवान।
गतिशील
= सक्रिय, उन्नति करते हुए।
हाथ
फैलाता है = भीख माँगता है।
लाचार
= बेबस।
कंगाल
= निर्धन।
कोढ़ी
= रोगी (कोढ़ से ग्रस्त)।
भला-चंगा
= स्वस्थ (ठीक-ठाक)।
कामचोर
= आलसी।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता 'एक कम' से ली गई हैं। यह
कविता हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: आजादी मिलने के बाद देश में किस प्रकार प्रतिस्पर्धा का दौर चला है और लोग
एक-दूसरे को धक्का देकर आगे निकलने की होड़ में लगे हैं इसका अनुभव कवि ने किया
है। स्वार्थपरता, बेईमानी, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के बल पर धनवान होते हुये लोगों
को उसने देखा है किन्तु ऐसे में जब कोई भिखारी उसके सामने हाथ फैलाता है तो वह समझ
जाता है कि यह ईमानदार, लाचार या कामचोर इंसान रहा है जो मेरा प्रतिस्पर्धी नहीं
है।
व्याख्या
: भारत को सन् 1947 में आजादी मिली। लोगों को लग रहा था कि अब देश स्वतंत्र है। हम
अपने देश में अपने ढंग से ईमानदारी का जीवन व्यतीत करेंगे किन्तु शीघ्र ही आजादी
से हमारा मोहभंग हो गया। कवि ने इतने सारे लोगों को भ्रष्ट तरीकों से धनवान होते
देखा है कि वह समझ गया कि मालामाल होने और तरक्की करने के लिए व्यक्ति को अव्वल
दर्जे का स्वार्थी, चालाक, धोखेबाज और भ्रष्टाचारी होना चाहिए। अनेक लोग
स्वतन्त्रता के बाद इन्हीं हथकण्डों से धनवान बने हैं।
ऐसी
स्थिति में जब कोई आदमी, औरत या बच्चा कवि के आगे हाथ फैलाकर भीख माँगता है -
पच्चीस पैसे, एक चाय या रोटी की भीख, तब उस फैले हुए हाथ को देखकर कवि समझ जाता है
कि यह व्यक्ति अपने जीवन में ईमानदार रहा है और उन मुणों (दोषों) से स्वयं को नहीं
जोड़ सका जो आज उन्नति के लिए या धनी होने के लिए आवश्यक माने गए हैं।
भीख
माँगता हुआ वह व्यक्ति एक प्रकार से यह साबित कर देता है कि वह लाचार, कंगाल या
कोढ़ी इसलिए है क्योंकि वह उन हथकण्डों से दूर रहा जिनसे आज धनवान बना जाता है। हो
सकता है कि भीख माँगने वाला वह व्यक्ति भला-चंगा होने पर भी कामचोर (आलसी) या
मामूली धोखेबाज रहा हो इसलिए आज भीख माँग रहा है अन्यथा वह भी उन आदमियों की तरह
धनवान हो गया होता जो स्वतंत्रता के बाद फले-फूले हैं।
विशेष
:
आजादी
के बाद देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी में बढ़ोत्तरी हुई है। इस सत्य को
व्यंग्यात्मक लहजे में कवि ने अभिव्यक्त किया है।
भाषा
सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण है।
यह
रचना मुक्त छन्द में लिखी गई है।
हाथ
फैलाना मुहावरे का प्रयोग सफल है।
व्यंग्यात्मक
शैली का प्रयोग है।
लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी।
या गुस्से पर आश्रित
तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा दिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वन्द्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चित रह सकते हो
शब्दार्थ
:
आश्रित
= निर्भर।
निराकांक्षी
= बिना किसी आकांक्षा के।
निर्लज्ज
= लज्जारहित।
होड़
= प्रतिस्पर्धा।
प्रतिद्वन्दी
= विपक्षी।
निश्चित
= चिंता रहित।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता 'एक कम' से ली गई हैं। यह
कविता हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा-भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: स्वतंत्रता के बाद कई लोगों को कवि ने बेईमानी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार एवं अनैतिक
तरीकों के बल पर धनवान होते देखा है। आज भीख माँगता हुआ व्यक्ति वही है जो इन
गुणों (दोषों) से युक्त नहीं है। इस गलाकाट स्पर्धा में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से
आशंकित है। ऐसी स्थिति में भीख माँगने वाला व्यक्ति आश्वस्त करता है कि वह लाचार
है, किसी का प्रतिद्वन्द्वी या प्रतिस्पर्धी नहीं।
व्याख्या
: हाथ फैलाकर भीख माँगने वाला व्यक्ति घोषणा कर रहा है कि वह पूरी तरह लाचार है।
किसी के सामने हाथ फैलाने में उसे कोई लज्जा, संकोच नहीं है। वह पूरी तरह दूसरों
पर आश्रित है। उसकी कोई आकांक्षा भी नहीं है। वह किसी का विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी
या प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। संसार में सब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं।
किन्तु
उस भिखारी ने कम से कम स्वयं को इस प्रतिस्पर्धा से अलग कर लिया है। अपने फैलाए
हुए हाथ से वह हमें आश्वस्त कर रहा है कि वह पूरी तरह हमारी कृपा पर आश्रित है,
हमारे बराबर का नहीं है, हमसे होड़ नहीं कर रहा है और हम उसकी तरफ से निश्चित रह
सकते हैं। कम से कम एक व्यक्ति तो ऐसा है जो इस प्रतिद्वंद्विता। में हमारा
प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। भले ही हम उसे कुछ दें या न दें फिर भी वह हमारा
प्रतिद्वन्द्वी नहीं है।
विशेष
:
स्वतंत्रता
के बाद के भारतीय समाज में हर व्यक्ति दूसरे को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानकर उससे
आगे निकलने और धनवान बनने की होड़ में है। अनुचित तरीके अपनाकर धन कमाने में
असमर्थ व्यक्ति ही आज भिखारी है।
भारतीय
समाज में प्रचलित गलाकाट प्रतिस्पर्धा और बेईमानी पर कवि ने गहरा व्यंग्य किया है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है।
मुक्त
छंद का प्रयोग है।
'नंगा,
निर्लज्ज और निराकांक्षी' में अनुप्रास अलंकार है।
सत्य
जब हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह हमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है।
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं
कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते हैं
कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते
शब्दार्थ
:
पुकारते
= बुलाते, आवाज देते।
परे
= दूर।
गुहारते
= करुणा से भरी पुकार लगाते।
युधिष्ठिर
= ज्येष्ठ पाण्डव (पाँच पाण्डव भाइयों में सबसे बड़े)।
विदुर
= युधिष्ठिर के चाचा (धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई, नीति विशारद एवं धर्मपरायण
व्यक्ति, महाभारत के एक पात्र)।
ओझल
हो जाना = आँखों के सामने न आना।
धर्मराज
= युधिष्ठिर का एक नाम।
दुहाई
देने पर = पुकारने पर (करुण पुकार करने पर)।
कुंतीनन्दन
= कुंती का पुत्र।
ठिठकते
= ठहरते।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि विष्णु खरे द्वारा रचित 'सत्य'
नामक कविता से ली गई हैं। यह कविता हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित
है।
प्रसंग : महाभारत के मिथकीय पात्रों (युधिष्ठिर, विदुर आदि) और मिथकीय घटनाओं के माध्यम से कवि ने 'सत्य' की व्याख्या वर्तमान सन्दर्भो में की है।
व्याख्या
: कवि का मत है कि जब हम सत्य को बुलाते हैं तो वह हमसे उसी तरह दूर भागता है,
जैसे महाभारत काल में अपने प्रति हुए अन्याय के कारण युधिष्ठिर ने अपने काका नीति
विशारद विदुर के पास जाकर गुहार लगाई थी किन्तु विदुर के पास उनके प्रश्नों का कोई
सटीक उत्तर न था इसलिए युधिष्ठिर की करुण पुकार को अनसुना करके विदुर घने जंगलों
में चले गए थे। युधिष्ठिर ने फिर भी उनका पीछा नहीं छोड़ा और वे विदुर के
पीछे-पीछे घने जंगलों में प्रवेश कर गए थे।
ठीक
इसी तरह सत्य आसानी से प्राप्त नहीं होता और एक बार पुकारने पर ही सामने नहीं आ
जाता। वह हमसे दूर भागता है क्योंकि वह यह जानना चाहता है कि हम उसके पीछे (सत्य
के पीछे) कितनी दूर तक आ सकते हैं अर्थात् सत्य के प्रति हमारी निष्ठा कितनी है
इसकी वह परीक्षा करना चाहता है। संभवतः विदुर भी युधिष्ठिर की निष्ठा की परीक्षा
लेने हेतु ही घने जंगल की ओर पलायन कर गए थे।
आगे
जाता सत्य कभी हमें दिखता है तो कभी आँखों से ओझल हो जाता है और हम सत्य को रोकने
का प्रयास करते हुए पुकारते रहते हैं - अरे भाई सत्य जरा ठहरो, देखो यह मैं हूँ,
मेरे लिए रुक जाओ। पर सत्य है कि युधिष्ठिर की गुहार को अनसुना करने वाले विदुर के
समान आगे ही बढ़ता जाता है। युधिष्ठिर द्वारा बार-बार रुकने की प्रार्थना (गुहार,
दुहाई) करने पर भी विदुर ठहरते नहीं और आगे बढ़ते जाते हैं।
शायद
यह परखने के लिए कि देखें यह मेरे पीछे कितनी दूर तक आता है। सत्य के पीछे दूर तक
चलने का साहस बहुत कम लोग दिखा पाते हैं। ज्यादातर लोग तो बस सत्य का थोड़ी देर तक
अनुगमन करने के बाद हताश होकर लौट जाते हैं अर्थात् सत्य को छोड़ देते हैं। सत्य
का दूर तक पीछा करना, उसका अनुगमन करना साहस की बात है। विरले लोग ही जीवन-पर्यन्त
सत्य का साथ दे पाते हैं, उसे छोड़ते नहीं।
विशेष
:
मिथकीय
पात्रों के माध्यम से कवि ने सत्य के स्वरूप का उद्घाटन किया है। सत्य का अनुगमन
करना साहस एवं संकल्प-शक्ति की बात है। हर व्यक्ति सत्य का अनुगमन नहीं कर पाता।
युधिष्ठिर
को खाण्डवप्रस्थ देकर, कौरव पक्ष और धृतराष्ट्र ने जो अन्याय किया था उसकी ओर यहाँ
संकेत किया गया है।
विदुर
यहाँ सत्य और युधिष्ठिर आम नागरिक के प्रतीक हैं।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। इन पंक्तियों में मुक्त छन्द का प्रयोग है।
नई
कविता की अभिव्यक्ति शैली में मिथकों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है।
यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिर्फ खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अन्तिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हलका सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें
शब्दार्थ
:
संकल्प
= दृढ़ निश्चय।
पलटकर
= पीछे मुड़कर।
दृढ़निश्चयी
= दृढ़ संकल्प वाला।
दृष्टि
= निगाह।
हल्का-सा
= धीमा।
आकार
= बनावट।
समा
जाना = प्रवेश करना।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता 'सत्य' से ली गई हैं। यह कविता
हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित हैं।
प्रसंग
: महाभारत के मिथकीय चरित्रों युधिष्ठिर, विदुर आदि को लेकर लिखी हुई इस कविता में
कवि ने सत्य की विशेषताओं को उद्घाटित किया है। सत्य उसी को प्राप्त होता है जो
दृढ़ निश्चयी एवं संकल्पवान होता है।
व्याख्या
: सत्य हमारी परीक्षा लेने के लिए हमसे दूर होता जाता है और यह परखने का प्रयास
करता है कि हम कब तक उसका अनुगमन कर सकते हैं। विदुर को युधिष्ठिर पुकारते हुए
रुकने के लिए कह रहे थे पर विदुर थे कि उनकी पुकार को अनसुना करके घने जंगल में
आगे बढ़े जा रहे थे। युधिष्ठिर संकल्पवान एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे। वे लगातार
विदुर का पीछा करते रहे और अन्ततः विदुर को रुकना ही पड़ा। ठीक इसी तरह सत्य भी
हमारे दृढ़ निश्चय की परीक्षा करता है। यदि हम संकल्प-शक्ति से युक्त हैं तो
अन्ततः सत्य को पा ही लेते हैं।
विशेष
:
प्रस्तुत
पद्यांश का सम्बन्ध नई कविता से है। इसमें नई कविता की विचारशीलता है।
भाषा
सरल, भावानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है। तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
मुक्त
छन्द का प्रयोग है।
महाभारतकालीन
: पात्र युधिष्ठिर और विदुर को प्रतीक बनाकर सत्य का उद्घाटन किया गया है।
सत्य
की प्राप्ति दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को ही होती है।
जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अन्तिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम
कि सत्य अन्त तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था।
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया
शब्दार्थ
:
शमी
= एक वृक्ष।
निर्निमेष
= एकटक (बिना पलक झपकाए देखना)।
आलोक
= प्रकाश।
प्रकाश
पुंज = प्रकाश का समूह।
विलीन
= समा जाना।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता 'सत्य' का अंश हैं। यह कविता
हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: कवि ने महाभारत के पात्र युधिष्ठिर, विदुर आदि के माध्यम से प्रस्तुत काव्यांश
में सत्य के स्वरूप का उद्घाटन किया है। उसने बताया है कि सत्य दृढ़ निश्चय और अथक
प्रयास से प्राप्त होता है।
व्याख्या
: विदुर अन्ततः रुक गए और पलटकर युधिष्ठिर की ओर देखने लगे। ठीक इसी तरह दृढ़
संकल्प वाले उस व्यक्ति को सत्य की प्राप्ति हो जाती है जो लगातार सत्य का अनुगमन
करता है। शमी वृक्ष के तने से टिककर खड़े विदुर ने जैसे धर्मराज को पहचानने का
प्रयास करते हुए अन्तिम बार बिना पलक झपकाए एकटक दृष्टि से युधिष्ठिर को देखा और
उनमें से उनका तेज (प्रकाशपुंज) निकलकर युधिष्ठिर में समा गया।
अन्ततः
युधिष्ठिर उस तेज पुंज से सम्पन्न होकर सिर झुकाकर लौट आए क्योंकि विदुर ने उनसे
कुछ कहा नहीं, बस अपना प्रकाशपुंज उन्हें सौंप दिया। ठीक इसी प्रकार अपने दृढ़ चय
के बल पर हम सत्य को भले ही प्राप्त कर लें पर सत्य पर पहुँचकर भी हम सत्य से
वार्तालाप नहीं कर पाते। सत्य विदुर की भाँति अन्त तक हमसे कुछ नहीं बोलता, बस उसमें
से निकला प्रकाशपुंज हम देखते हैं जो हम में विलीन हो जाता है अथवा हमारा भी
अतिक्रमण कर आगे बढ़ जाता है।
विशेष
:
यहाँ
युधिष्ठिर आम आदमी के तथा विदुर सत्य के प्रतीक हैं।
सत्य
हमारे संकल्प एवं दृढ़ निश्चय की परीक्षा लेता है।
सत्य
का साक्षात्कार कठिनाई से होता है। वह एक ऐसा प्रकाशपुंज है जिसका है। वह व्यक्ति
की सीमा का अतिक्रमण कर आगे बढ़ जाता है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। मुक्त छन्द का प्रयोग हुआ है।
विष्णु
जी हिन्दी की 'नई कविता' के कवि हैं। नई कविता में वैचारिकता है, भावना नहीं।
हम कह नहीं सकते न तो
हममें कोई स्फुरण हुआ और न ही कोई ज्वर
किन्तु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं
कैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।
शब्दार्थ
:
स्फुरण
= कंपकपी।
ज्वर
= ताप (बुखार)।
प्रतिबिम्ब
= परछाँई।
दमक
= चमक।
खांडवप्रस्थ
= जंगल (वन)।
इंद्रप्रस्थ
= पाण्डवों की राजधानी (वर्तमान दिल्ली ही पुराना इंद्रप्रस्थ है)।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता 'सत्य' से ली गई हैं। यह कविता
हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: महाभारत के मिथकीय पात्रों के माध्यम से कवि ने सत्य के स्वरूप को बताने का
प्रयास इन पंक्तियों में किया है। सत्य की प्राप्ति होने पर भी हम में कोई स्फुरण
नहीं होता, कोई खास परिवर्तन अनुभव नहीं होता।।
व्याख्या
: जैसे दृढ़ निश्चयी युधिष्ठिर के शरीर में विदुर का तेज समा गया उसी प्रकार
संकल्पवान व्यक्ति को सत्य की उपलब्धि तो हो जाती है किन्तु सत्य को पाकर भी हम यह
नहीं कह सकते हैं कि हमें किसी विशेष परिवर्तन की अनुभूति हुई है। न तो शरीर में
कोई स्फुरण होता है न किसी ताप की अनुभूति होती है। हम जीवन भर बस यही सोचते रहते
हैं कि पता नहीं सत्य हममें समाया भी है या नहीं। बस कभी-कभी हमारी अग में जो चमक
उठती है, लगता है वह सत्य का ही या है, सत्य का ही संकेत है।
पर
इसे तो स्वयं सत्य ही बता सकता है कि वह हमारे भीतर समाया है या नहीं, ठीक उसी तरह
जैसे विदुर ही युधिष्ठिर को बता सकते थे कि उनके प्रश्नों का उत्तर क्या है?
युधिष्ठिर ने खाण्डवप्रस्थ से इन्द्रप्रस्थ लौटते समय सिर झुकाए हुए यही सोचा होगा
कि काका विदुर चाहते तो उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकते थे पर उन्होंने ऐसा न करके
अपना तेज मुझे दे दिया। सत्य का संधान करने वाले व्यक्ति को भी अपने प्रश्नों के
उत्तर स्वयं ही खोजने पड़ते हैं, सत्य उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं देता। हाँ, वह
उन उत्तरों को खोज पाने की शक्ति हमें अवश्य देता है।
विशेष
:
महाभारत
के पात्रों को प्रतीक मानकर कवि ने सत्य के स्वरूप की व्याख्या की है।
विदुर
चाहते तो युधिष्ठिर के प्रश्नों (शंकाओं) का समाधान कर सकते थे पर उन्होंने जानकर
ऐसा नहीं किया। व्यक्ति को अपने सत्य का संधान स्वयं ही करना पड़ता है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
मुक्त
छन्द का प्रयोग है।
नई कविता में बौद्धिकता की प्रधानता है, भावात्मकता की नहीं। प्रस्तुत अंश नई कविता से सम्बद्ध है।