Class-XI Hindi Vitan 4. भारतीय कलाएँ

Class-XI Hindi Vitan 4. भारतीय कलाएँ

पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

प्रश्न 1. कला और भाषा के अंतर्सम्बन्ध पर आपकी क्या राय है? लिखकर बताएँ।

उत्तर :  मेरा मत है कि भाषा और कला एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं। मनुष्य अपने विचार और भावों को भाषा द्वारा प्रकट करता है। कलाकार भी अपनी कला द्वारा अपने भावों और विचारों को व्यक्त करता है। यदि कोई चित्रकार है तो वह रंगों और रेखाओं द्वारा अपने प्रकृति - प्रेम को चित्रों द्वारा व्यक्त करता है। एक नृत्यकार अपने अंग-संचालन और मुद्राओं द्वारा अपनी भावनाएँ व्यक्त करता है। इसी प्रकार एक संगीतकार अपने गायन द्वारा अपनी भावनाएँ श्रोताओं तक पहुँचाता है। इस प्रकार कला और भाषा के बीच एक सहज संबंध है। यदि कला की अपनी भाषा न होगी तो लोग उसमें क्यों रुचि लेंगे।

प्रश्न 2. भारतीय कलाओं और भारतीय संस्कृति में आप किस तरह का संबंध पाते हैं?

उत्तर : भारतीय संस्कृति और भारतीय कलाओं के बीच घनिष्ठ संबंध रहा है। भारतीय संस्कृति के विकास में कलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किसी भी देश के जन-जीवन के आचार-विचार, धर्म, उत्सव, वेश-भूषा आदि का सामूहिक नाम ही संस्कृति है। इसमें कलाओं का भी विशिष्ट स्थान होता है। हमारी संस्कृति अनेक प्रादेशिक संस्कृतियों से मिलकर बनी है। इन प्रदेशों या राज्यों की संस्कृतियों में वहाँ प्रचलित कलाओं के भी दर्शन होते हैं।

मध्य प्रदेश में स्थित भीमबेटका की गुफाओं में बने शैल चित्र तत्कालीन सामाजिक जीवन या संस्कृति का परिचय कराते हैं। अजंता की गुफाओं के चित्र गुप्तकालीन वेशभूषा, उत्सव, धार्मिक आस्था आदि के जीवंत उदाहरण हैं। जन्मोत्सव, विवाह, त्योहार आदि जो संस्कृति के ही अंग हैं, उनमें भी सतिया, चौक पूरना, रंगोली आदि के रूप में लोक चित्रकला का स्थान है। इसी प्रकार नृत्य के विविध रूप प्रादेशिक संस्कृतियों की झलक दिखाते हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति और भारतीय कलाएँ आपस में मनमोहक ढंग से गुंथी रतीय कलाएँ आपस में मनमोहक ढंग से गॅथी हई हैं। कलाओं में संस्कति झाँकती। है तो संस्कृति की लोकप्रियता बढ़ाने में कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

प्रश्न 3. शास्त्रीय कलाओं का आधार जनजातीय और लोक कलाएँ हैं, अपनी सहमति और असहमति के पक्ष में तर्क दें।

उत्तर : यदि हम कलाओं के विकास के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि जनजातीय कलाओं और लोक कलाओं ने धीरे-धीरे व्यवस्थित होते हुए शास्त्रीय रूप धारण कर लिया। कलाओं ने जनजातीय समाज और लोक जीवन के बीच ही जन्म लिया था। धीरे-धीरे उनमें निखार आता गया और उन्होंने व्यवसाय का रूप ले लिया। चित्रकार, संगीतकार और नृत्यकार आदि पेशे बन गए। आगे चलकर इन सभी कलाओं को राजाओं और सम्पन्न लोगों का संरक्षण मिलता गया। तब इनके नियम-उपनियम बने और इन्होंने शास्त्रों का रूप ले लिया।

प्राचीन शैल चित्रों से प्रारम्भ हुई चित्रकारी से गुप्तकाल तक आते-आते चित्रकला की निपुणता चरम स्थिति पर पहुँच गयी। गुरु-शिष्य परंपरा ने कलाओं के शास्त्रीय स्वरूप को और भी पुष्ट और अनुशासित बना दिया। अतः मेरा मत यही है कि जनजातीय कलाएँ और लोक कलाएँ ही शास्त्रीय कलाओं की आधार हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. भारतीय सामाजिक जीवन में कलाओं का क्या स्थान है? 'भारतीय कलाएँ' पाठ के आधार पर लिखिए।

उत्तर : हमारे सामाजिक जीवन में कलाओं का स्थान सदा से ही महत्वपूर्ण रहा है। हमारी कलाएँ हमारे जन्मोत्सवों, त्योहारों, विवाहों, धार्मिक अनुष्ठानों आदि से जुड़ी हुई हैं। इन अवसरों पर अल्पना, रंगोली, सतिया, चौक पूरना आदि चित्रकला से संबंधित रचनाएँ आती हैं। विवाह और जन्मोत्सव के अवसरों पर संगीत और नृत्यकला सम्मिलित रहती हैं। धार्मिक आयोजनों में भी महिलाएँ नृत्य-संगीत से अपने आनंद को प्रकट करती हैं।

हमारे मनोरंजन के क्षेत्र में भी अनेक कलाओं का योगदान रहता है। कलाएँ आज हमारे अनेक व्यवसायों और आजीविकाओं का भी आधार बनी हुई हैं। चित्रकारों, संगीतकारों, नृत्यकारों और वास्तुकारों की आजीविका उनकी कलाओं पर ही आश्रित है। यदि हमारे सामाजिक जीवन से कलाएँ निकल जाएँ तो जो रीतापन और नीरसता आएगी, उसमें जीवन बिताना भी कठिन हो जाएगा।

प्रश्न 2. चित्रकला मानव जीवन से प्राचीन समय में किस रूप में जुड़ी हुई थी? लिखिए।

उत्तर : चित्रकारी की प्रकृति मनुष्य जाति के इतिहास में आरम्भ से ही दिखाई देती है। आदिमानव जिन गुफाओं में रहते थे उनकी दीवारों पर शैलचित्र बनाया करते थे। इन रेखाचित्रों और आकृतियों द्वारा वे अपनी भावनाएँ और विचार व्यक्त करने के साथ ही वातावरण को भी चित्रित किया करते थे। इन शैलचित्रों में दैनिक जीवन की गतिविधियों, पशुओं, युद्धों, नृत्यों आदि का अंकन किया गया है।

प्रश्न 3. कलाओं का स्वर्णयुग किसे कहा गया है, उस युग का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर : भारत में चौथी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी तक का समय गुप्त साम्राज्य का समय था। इस समय को भारतीय कलाओं का स्वर्णयुग कहा गया है। विश्व प्रसिद्ध अजंता की गुफाओं का निर्माण इसी युग की देन है। बाघ और बादामी की गुफाएँ भी इसी समय की हैं। अजंता की चित्रकला शैली तो इतनी आकर्षक है कि आज तक चित्रकार इसे अपनी रचनाओं में स्थान देते आ रहे हैं। इन चित्रों में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक वातावरण का सजीव चित्रांकन हुआ है। उस समय के उत्सव, वेशभूषा, रीति-रिवाज, आस्था आदि इन चित्रों में उपस्थित हैं। मान्यता है कि इन गुफाओं को बौद्ध भिक्षुओं ने बनाया था।

प्रश्न 4. 'ऐलोरा' और 'एलीफेन्टा' की गुफाओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर : सातवीं-आठवीं शताब्दी में ऐलोरा और एलीफेन्टा की गुफाओं का निर्माण हुआ था। ऐलोरा अपने भव्य 'कैलाश मंदिर' के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर इतना विशाल और कलात्मक है कि इसे देखकर यह विश्वास कर पाना कठिन होता है कि इसे मनुष्यों ने ही बनाया था। इस मंदिर के प्रारूप की कल्पना और फिर उस कल्पना को चित्रों और पत्थरों में उतारने में कितना परिश्रम और समय लगा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। ऐलीफेन्टा की गुफाएँ अपनी 'त्रिमूर्ति' नामक विशाल प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध हैं। इस मूर्ति की रचना और भव्यता देखकर दर्शक चकित रह जाते हैं।

प्रश्न 5. 'भारतीय कलाएँ' पाठ के लेखक ने 'हिन्दुस्तानी कला की आधी कहानी' किसे और क्यों कहा है? लिखिए।

उत्तर : भारत के अंदर की कला को ही जानना, लेखक ने हिन्दुस्तानी कला की आधी कहानी माना है। भारतीय कला . के पूरे स्वरूप और विस्तार को जानने के लिए बौद्ध धर्म के विषय में जानना तो आवश्यक है ही, इसी के साथ मध्य एशिया, चीन, जापान, तिब्बत, म्यांमार (वर्मा), स्याम आदि देशों में उसके विस्तार के बारे में भी जानना चाहिए। कंबोडिया और जाबा में भारतीय कला का भव्य और अनुपम रूप सामने आता है।

प्रश्न 6. भारत के लोक नृत्यों में क्या-क्या बातें समान देखी जाती हैं? लिखिए।

उत्तर : भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित नृत्यों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। परन्तु इनमें कुछ समानताएँ भी देखी जाती हैं। ये सभी प्रायः सामहिक नत्य होते हैं। सभी नत्यों का संबंध प्रकति और ज मी और पुरुष साथ मिलकर नाचते हैं। सभी नृत्यों का संबंध प्रायः धार्मिक अनुष्ठानों से होता है।

प्रश्न 7. भारत में प्रचलित प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर :  भारत के प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। केरल के शास्त्रीय नृत्य 'कथकलि' और 'मोहिनी अट्टम' हैं। उत्तर प्रदेश का शास्त्रीय नृत्य 'कत्थक' है। आंध्र प्रदेश का 'कुचिपुडि', उड़ीसा का 'ओडिसी', मणिपुर का मणिपुरी और तमिलनाडु तथा कनार्टक का 'भरतनाट्यम्' हैं। इन सभी नृत्यों का संबंध भारत के किसी-न-किसी राज्य और उसकी परंपराओं से है। असम में प्रचलित 'सत्रिय नृत्य' को भी शास्त्रीय नृत्य माना गया है। शास्त्रीय नृत्य गुरु-शिष्य परंपरा से सीखे जाते हैं। इन नृत्यों में निपुणता प्राप्त करने के लिए लम्बी और कठिन साधना की आवश्यकता होती है। शास्त्रीय नृत्यों के स्वरूप में बहुत परिवर्तन आए हैं। कुछ शास्त्रीय नृत्य तो दो-तीन सौ वर्षों से भी पुराने नहीं माने जाते

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारतीय कला का मूल शास्त्र कौन सा ग्रन्थ है? भारतीय लोकनृत्यों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर : भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नृत्यकला का आदि या मूल शास्त्र है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नृत्य को भी अभिनय का ही एक रूप माना गया है। नाट्यशास्त्र के अनुसार 'नर्त्य' का अर्थ अभिनय और 'नृत्य' का अर्थ 'नाँच' है। भारत में लोकनृत्यों की समृद्ध और बहुविध परंपरा रही है। ऋतुओं, अवसरों और उत्सवों के अनुसार लोकनृत्यों के विविध रूप प्रचलित रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारत के राज्यों में भी लोकनृत्यों को विशिष्ट रूप और नाम दिए गए हैं।

भारत के हिमालयी क्षेत्रों में युद्ध नृत्यों के साथ ही उत्सव नृत्य भी प्रचलित हैं। फसलों के बोने और कटने के अवसरों पर भी लोक नृत्यों की परंपरा रही है। ये सभी सामूहिक नृत्य होते हैं। पंजाब में स्त्रियाँ 'गिद्दा नृत्य' करती हैं। राजस्थान का 'घूमर' और गुजरात के 'डांडिया' और 'गरबा' नृत्य प्रसिद्ध हैं। महाराष्ट्र का 'मछुआरा नृत्य' और 'लावणी नृत्य', मैसूर का 'बालाकल' या 'कुरुवाजी', अंडमानी, अरुणाचल प्रदेश का 'निशि नृत्य, असम का 'बिहू' नृत्य, हिमाचल का 'नागमेन' और 'किन्नौरी नृत्य' तथा बंगाल का 'छाओनृत्य' प्रसिद्ध रहे हैं।

प्रश्न 2. लघुचित्रकला का संक्षिप्त परिचय 'भारतीय कलाएँ' नामक पाठ के आधार पर दीजिए।

उत्तर : लघुचित्रकला के दो प्रमुख रूप हैं- एक स्थायी और दूसरा अस्थाई। वस्त्रों, पुस्तकों, लकड़ी और कागज परं की गई चित्रकारी को स्थायी कहा जाता है। इनमें आंध्र प्रदेश की कलमकारी, पंजाब की फुलवारी, महाराष्ट्र की वरली आदि बहुत प्रसिद्ध रही हैं। इनमें प्राकृतिक रंगों और सामग्री का प्रयोग होता है। लघु चित्रों की विभिन्न शैलियाँ रही हैं। इन्हें राजस्थान के चित्तौड़गढ़ की किवाड़ पेंटिंग भी कहा जाता है।

इसमें किसी सांस्कृतिक या ऐतिहासिक घटना को सा के चित्रों में कवि जयदेव रचित 'गीत गोविद' को उकेरा गया है। मिथिला की मधुबनी चित्रकला भी प्रसिद्ध रही है। इन लघुचित्रों की आज भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कला बाजारों में बहुत माँग है। अस्थायी रूप-अस्थायी लघु चित्रकला में कोहबर, ऐषरण, अल्पना, रंगोली तथा कोलम आदि आते हैं। ये चित्र मांगलिक अवसरों पर बनाए जाते हैं।

प्रश्न 3. भारतीय संगीत कला का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर : भारतीय संगीत कला का इतिहास ईसापूर्व 5000 वर्ष पुराना माना जाता है। सामवेद में भारतीय संगीत का प्रथम परिचय मिलता है। वैदिक युग में संगीत के दो भेद या शाखाएँ थीं- मार्गी और देसी। मार्गी संगीत धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था। इसके नियम और अनुशासन भी थे। देसी संगीत सामान्य लोगों से जुड़ा था। इसे लोक संगीत भी कह सकते हैं।

वैदिक काल के पश्चात् भारतीय संगीत का उल्लेख भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में प्राप्त होता है। यहाँ तक आते-आते भारतीय संगीत ने शास्त्रीय रूप ले लिया था। भारतीय संगीत की विशेषता उसका सुर, ताल, राग और काल (समय) से जुड़ा होना है। प्रात:काल, मध्याह्न, सायं और रात्रि के राग-रागनियाँ अलग-अलग हैं। ऋतुओं के अनुसार भी रागों के गायन की परंपरा है। भारतीय संगीत का मुख्य वाद्य (बाजा) वीणा रही है। इसमें प्रयुक्त होने वाले प्रायः सभी वाद्ययंत्र साधारण वस्तुओं से बने हुए हैं। भारतीय संगीत का उद्गम या विकास लोक संगीत से ही हुआ है।

भारतीय कलाएँ  पाठ का सारांश :

इस लेख में भारत की कुछ ललित कलाओं का विस्तार से परिचय कराया गया है। ये कलाएँ क्रमशः चित्रकला, संगीत कला और नृत्यकला हैं।

कला की भाषा - आसपास के वातावरण, प्रकृति, भाव और विचारों आदि को भाषा के द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसी प्रकार चित्रकला, संगीत तथा नृत्य आदि कलाओं के द्वारा भी इनको व्यक्त किया जाता रहा है। कलाओं की अपनी ही भाषा होती है। एक चित्रकार अपने रंगों और रेखाओं के द्वारा, एक संगीतकार स्वरों के द्वारा और एक नृत्यकार अपने हाव-भाव और विभिन्न मुद्राओं द्वारा अपने मन के विचार और भावनाओं को व्यक्त किया करता है।

उत्सव, त्योहार और कलाएँ - भारत अपने उत्सवों और त्योहारों के लिए संसार में प्रसिद्ध है। विविधता में एकता भारतीय जीवन की अनूठी विशेषता. है। हमारी कलाएँ भी उत्सवों, त्योहारों और विभिन्न प्रांतों की उप संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। भारत में कलाएँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं। वे हमारे उत्सवों, त्योहारों के साथ-साथ हमारी संस्कृति और नित्य जीवन से जुड़ी हैं। हमारी कलाओं में हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराएँ प्रतिबिंबित होती हैं।

हमारे पारिवारिक रीति-रिवाजों जैसे - जन्मोत्सव, विवाह, पूजा तथा खेतीबाड़ी आदि से भी जुड़ी हुई हैं। कलाओं के द्वारा हमें अपनी परंपराओं से जुड़े रहने की प्रेरणा प्राप्त होती है। हमारी लगभग सभी कलाएँ लोक कलाओं के स्तर से विकसित होते हुए शास्त्रीय रूप को प्राप्त हुई हैं। मंदिरों और राजदरबारों ने इन्हें पुष्ट और परिष्कृत होने में महत्वपूर्ण योगदान किया है।

चित्रकला - चित्रकला मानव जीवन से अति प्राचीन काल से जुड़ी रही है। प्राचीन गुफाओं, शिलाओं आदि पर प्रागैतिहासिक काल के चित्र मिलते हैं। इनसे तत्कालीन मानव समाज के स्वरूप का परिचय प्राप्त होता है। इन चित्रों में शिकार, नृत्य, संगीत, पशु, युद्ध आदि का अंकन हुआ है। मध्य प्रदेश की भीमबेटका की गुफाएँ, ऐलोरा तथा अजंता की विश्व प्रसिद्ध गुफाएँ- शैल चित्रकारी के अद्वितीय नमूने हैं।

चित्रकला का स्वर्ण युग - गुप्तकाल और उससे आगे या सातवीं-आठवीं शताब्दी का समय भारत में कलाओं की उन्नति का स्वर्ण युग माना जाता है। इसी युग में अजंता की विश्व प्रसिद्ध गुफाओं का निर्माण हुआ, जिनमें अंकित भित्ति चित्रों को चित्रकला का अनुपम उदाहरण माना जाता है। बाघ और बादामी नामक स्थानों की गुफाएँ भी इसी काल की हैं।

सातवीं और आठवीं सदी में ऐलोरा जैसी गुफाओं का निर्माण हुआ। यहाँ वास्तुकला और चित्रकला का सुन्दर संगम है। 'कैलाश' का विशाल मंदिर इसका अद्भुत उदाहरण है। इसके अतिरिक्त ऐलीफैंटा गुफाओं में 'त्रिमूर्ति' नामक विशाल प्रतिमा है। दक्षिण में महाबलिपुरम्, तंजौर आदि भारतीय कलाओं के दर्शनीय उदाहरण हैं।

लघु-चित्रकला - यह चित्रकला की एक विशेष शाखा कही जा सकती है। ये दो प्रकार की हैं -

1. स्थायी कला - जो कपड़ों, पुस्तकों तथा लकड़ी आदि पर की गई है। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, महाराष्ट्र तथा राजस्थान इस चित्रकला के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।

इन चित्रों की अपनी - अपनी शैलियाँ और विषय हैं। उड़ीसा के चित्रों में 'गीत गोविंद' को विषय बनाया गया है। मिथिला की 'मधुबनी' चित्रकला प्रसिद्ध है।

2. अस्थाई कला - इस प्रारूप में कोहबर, ऐपण, अल्पना तथा रंगोली आदि आती हैं। भारतीय कलाओं का विस्तार भारत से बाहर भी अनेक देशों तक हुआ है। मध्य एशिया, चीन, जापान, तिब्बत, वर्मा (म्यांमार), कंबोडिया, जावा आदि देशों में इसे विकसित और सुरक्षित रूप में देखा जा सकता है।

संगीत कला - भारत में प्राचीनतम संगीतकला का स्वरूप सामवेद में देखने को मिलता है। वैदिक काल का समय लगभग पाँच हजार ई. पूर्व माना गया है। इस समय संगीत के दो रूप प्रचलित थे-मार्गी तथा देसी। मार्गी संगीत धार्मिक क्रियाकलापों से संबंधित था।

इसके कुछ निश्चित नियम और अनुशासन थे। देसी संगीत को लोक संगीत कहा जा सकता है। भारतीय संगीतकला के विकास की कहानी भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से आरंभ होती है। भारतीय संगीत को स्वर, ताल, राग और काल में बाँधा गया है। हमारे यहाँ वाद्य यंत्रों में बहुत विविधता पाई जाती है। इनके निर्माण में सुपरिचित साधारण वस्तुओं का प्रयोग किया गया है। वीणा, तंबूरा, जल तरंग और वंशी आदि ऐसे ही वाद्य यंत्र हैं। भारत का मुख्य वाद्य यंत्र वीणा रही है।

शास्त्रीय और लोक संगीत के अतिरिक्त भारतीय संगीत के कई उपभेद भी प्रचलित हो गए हैं।

नृत्यकला - नृत्यकला का उद्गम भी भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से ही माना जाता है। नाट्यशास्त्र में नृत्य को भी अभिनय का ही अंग माना गया है। नृत्य के भी शास्त्रीय और लोकनृत्य दो भेद सदा से चले आ रहे हैं। भारत में नृत्यों के विविध रूप या शैलियाँ प्रचलित रही हैं। कत्थक, मणिपुरी, भरतनाट्य, ताण्डव आदि अनेक भेद नृत्य को रोचक बनाते हैं।

लोकनृत्यों का आयोजन उत्सवों, पर्वो, ऋतुओं तथा कथाओं के आधार पर होता आया है। हिमालयी प्रदेशों में युद्ध नृत्य, पंजाब में गिद्दा, राजस्थान में घूमर, गुजरात में डांडिया और गरबा, महाराष्ट्र का लावणी, मैसूर में बालाकल, केल में कुरूवाजी और कथकलि तथा मिजोरम का बाँस नृत्य आदि लोकनृत्यों के ही विविध रूप हैं। लोक नृत्यों में एक समानता है कि ये अधिकतर समूहों में होते हैं।

इनमें स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। भारतीय नृत्यों की एक प्रमुख विशेषता है- शरीर के अनेक अंगों का संचालन और मनोभावों का शारीरिक मुद्राओं द्वारा प्रदर्शन करना। भारतीय कलाओं का वर्तमान स्वरूप शनैः-शनैः विकसित हुआ है। आज के फिल्मी नृत्य और संगीत में लोक और। शास्त्र का आकर्षक मिश्रण देखने को मिलता है।

कठिन शब्दार्थ :

1.    परिवेश - आसपास का वातावरण।

2.    व्यक्त - प्रकट।

3.    अभिव्यक्त - विशेष रूप से प्रकट किया गया।

4.    मुद्रा - शरीर के अंगों की स्थिति।

5.    उत्सवकर्मी - उत्सव या त्योहारों को मनाने वाला।

6.    विशिष्ट - विशेष, नयी।

7.    विरासत - पूर्वजों से प्राप्त वस्तु।

8.    व्यवसाय - व्यापार।

9.    निरंतरता - अटूटता।

10.  अलंकरण - सजावट।

11.  जनजातीय - आदिवासियों से संबंधित।

12.  संरक्षण - सुरक्षा करना।

13.  अभिरुचियाँ - पसंद।

14. परिष्कृत - सुधारा हुआ, शुद्ध किया हुआ।

15.  प्रोत्साहित - प्रेरित।

16. पराकाष्ठा - सबसे ऊँची स्थिति।

17.  प्रागैतिहासिक - इतिहास से पहले की।

18. रोजमर्रा - दैनिक, नित्य।

19.  भिक्खु - भिक्षु, बौद्धधर्म का अनुयायी भिक्षुक।

20. मानुषीकला - मनुष्य द्वारा विकसित कला।

21. गीत गोविंद - कवि जयदेव की एक काव्य रचना।

22. मांगलिक - शुभ।

23. बेमिसाल - अनुपम, जिसके जैसी दूसरी न हो।

24. मंत्रोच्चार - मंत्र का बोलना।

25. ब्रह्ममुहूर्त - प्रातः लगभग चार बजे का समय।

26. उल्लास - प्रसन्नता।

27. नर्तक - नाचने वाला।

28. शालीनता - शिष्टता।

29. एंद्रिक आकर्षण - इंद्रियों को सुहाने वाला।

30. उल्लेखनीय - सूचित किए जाने या लिखे जाने योग्य।

31. (पृष्ठ 68) वीभत्स - घृणित।

32. भंगिमा - भाव प्रकट करने की मुद्रा।

33. सार्वजनिक - सभी लोगों से संबंधित।

34. अंतर्सम्बन्ध - भीतरी संबंध।

35. साहचर्य - साथ।

36. अनायास - सहज रूप से।

37. निहित - स्थित, दिया हुआ।

38. वसुधैव कुटुम्बकम् - सारी धरती (हमारा) परिवार है।

39. मुरीद - मुग्ध, प्रशंसक। 

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