पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्नोत्तर
पाठ के साथ
प्रश्न 1. कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें जिसमें किताबों की विद्या
और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है ?
उत्तर
: धनराम पढ़ने में फिसडी था। मास्टर त्रिलोक सिंह को जब वह तेरह का पहाड़ा दिनभर घोटा
लगाने के बाद भी नहीं सुना पाया तो मास्टर साहब ने कड़वी जबान का प्रयोग किया,
"तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें ?" इतना
कहकर उन्होंने पाँच-छ: दराँतियाँ उसे धार लगाने को दे दी। किताबों की विद्या का ताप
लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की न थी, किन्तु जैसे ही धनराम थोड़ा बड़ा हुआ कि
उसके पिता गंगाराम ने उसे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या में पारंगत कर दिया और
वह एक पक्का लोहार बन गया।
प्रश्न 2. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?
उत्तर
: धनराम लोहार होने से नीची जाति का था, जबकि मोहन ब्राह्मण होने से ऊँची जाति का था।
साथ ही धनराम पढ़ने में कमजोर, जबकि मोहन पढ़ने में होशियार था। मास्टर साहब ने इसीलिए
मोहन को 'मॉनीटर' बना दिया था। उन्हें विश्वास था कि बड़ा होकर वह उनका तथा स्कूल का
नाम रोशन करेगा। इस कारण से धनराम मोहन से स्पर्धा नहीं करता था। उसने मन ही मन स्वीकार
कर लिया था कि मोहन उच्च वर्ग का है तथा उसे कोई ऊँचा काम करना है। वह छोटे वर्ग का
है तो उसे अपना पैतृक व्यवसाय ही करना है, इन्हीं सब कारणों से वह मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी
नहीं मानता था।
प्रश्न 3. धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?
उत्तर
: उच्च जाति के होने से ब्राह्मण टोले का कोई व्यक्ति शिल्पकार टोले में आकर नहीं बैठता
था। बस वे लोग अपने काम : से आते तथा खड़े-खड़े काम करवाकर चले जाते। ब्राह्मणों से
अपने दरवाजे पर बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा का हनन था।
मोहन ने इसके विरुद्ध आचरण किया। वह धनराम की भट्टी पर आया और वहीं कनस्तर पर बैठकर धनराम से स्कूली दिनों । की बातें करने लगा। इस बात पर धनराम को आश्चर्य हो रहा था। आश्चर्य का दूसरा कारण यह था कि मोहन ने सधे हुए हाथों से लोहे की छड़ पर प्रहार करके उसे गोल आकार दे दिया था। मोहन की कुशलता पर उसे इतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना उसे निरभिमान व्यवहार पर हुआ। पुरोहित का पुत्र होने पर भी मोहन ने धनराम लोहार के काम में दक्षता प्राप्त कर ली थी, यह बात धनराम को आश्चर्य में डालने के लिए पर्याप्त थी।
प्रश्न 4. मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का
एक नया अध्याय क्यों कहा है ?
उत्तर
: मोहन अपने गाँव के रमेश बाबू के साथ जब.लखनऊ आया तब उसके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ
हुआ। गाँव का बुद्धिमान् छात्र नगर के स्कूल में अपनी पहचान तक न बना पाया। यही नहीं
अपितु रमेश बाबू उससे घरेलू नौकर की तरह काम करवाते, जिससे उसे पढ़ने का समय ही नहीं
मिलता।
आठवीं
की पढ़ाई के बाद उन्होंने उसे आगे पढ़ाने के स्थान पर तकनीकी स्कूल में प्रवेश दिलवाकर
कुशल कारीगर बना दिया और वह कारखाने में अपने लायक काम खोजने लगा। कहाँ तो वह ऊँचा
अफसर बनने के सपने देख रहा था और उसके पिताजी की आँखों में भी यही सपने पल रहे थे और
कहाँ वह एक बेरोजगार कारीगर मात्र बन पाया इसीलिए लखनऊ आने के बाद के जीवन को लेखक
ने मोहन के जीवन का नया अध्याय माना है।
प्रश्न 5. मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने जबान का चाबुक
कहा है और क्यों?
उत्तर
: मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम से तेरह का पहाड़ा सुनाने को कहा और जब वह नहीं सुना
सका तो जो व्यंग्य वचन मास्टर साहब ने उससे कहे उन्हीं को लेखक ने 'जबान का चाबुक'
कहा है। उन्होंने उसकी बुद्धि पर व्यंग्य करते हुए कहा-“तेरे दिमाग में तो लोहा भरा
है तो विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें।"
जबान
के चाबुक का अर्थ है-व्यंग्य बाण छोड़ना। मास्टर त्रिलोक सिंह ने जबान के चाबुक का
प्रयोग करते हुए जो कुछ धनराम से कहा.उसका निष्कर्ष यह था कि तू तो लोहार है, पढ़ना-लिखना
तेरे वश की बात नहीं, तुझे तो लोहार का ही काम करना है। ऐसा कहकर मास्टर साहब ने उसे
पाँच-छ: दराँतियाँ धार लगाने को दे दी और इस कथन ने धनराम के मन में भी हीन-भावना के
साथ-साथ पढ़ने-लिखने के प्रति अरुचि भर दी। उसके मन में यह बैठ गया कि पढ़-लिखकर क्या
करूँगा? अन्तत: मुझे करनी तो लोहारगीरी ही है।
प्रश्न 6.
(i) बिरादरी का यही सहारा होता है।
(क) किसने किससे कहा?
(ख)किस प्रसंग में कहा?
(ग)किस आशय से कहा?
(घ) क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है ?
उत्तर
:
(क)
यह बात मोहन के पिता पंडित वंशीधर तिवारी ने अपनी बिरादरी के युवक रमेश से कही है।
(ख)
मोहन की पढ़ाई के प्रसंग में यह कथन कहा गया है।
(ग)
यह इस आशय से कहा है जिससे रमेश बाबू मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाएँ और उसकी शिक्षा
का प्रबंध कर दें।
(घ)
वंशीधर तिवारी ने जिस आशय से अपने पुत्र मोहन को रमेश बाबू के साथ भेजा था वह पूरा
न हो सका। रमेश के घर मोहन नौकर की तरह रहता था। आठवीं कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा
दी गई और उसे एक. तकनीकी स्कूल में दाखिल करवाकर 'लोहार' के पेशे का काम सिखा दिया
गया
(ii)उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी-कहानी का यह वाक्य
(क) किसके लिए कहा गया है?
(ख) किस प्रसंग में कहा गया है ?
(ग) यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है ?
उत्तर
:
(क)
यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
(ख)
मोहन ने धनराम लोहार के यहाँ एक लोहे की छड़ को गोले के आकार में कुशलता से बदल दिया
था। इसी प्रसंग में यह वाक्य कहा गया है।
(ग)
इससे मोहन की पेशेगत कुशलता का परिचय मिलता है। उसमें जातीय अभिमान रंचमात्र भी नहीं
था, उसने लोहार के हुनर को भली-भाँति सीखा था, जातीय अभिमान को तोड़कर अपेक्षाकृत निम्न
समझे जाने वाले कार्य को महत्व दिया, धनीराम लोहार के प्रति अपनी आत्मीयता दिखाकर अपनी
उदारता का परिचय दिया।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1. गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष
में क्या फर्क है ? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर
: गाँव के स्कूल में मोहन एक मेधावी छात्र माना जाता था और मास्टर त्रिलोक सिंह एवं
उसके पुरोहित पिता वंशीधर को उससे बड़ी आशाएँ थीं। मास्टर साहब सोचते कि यह स्कूल का
नाम रोशन करेगा तो उसके पिता सोचते कि यह हमारी दरिद्रता दूर करेगा। गाँव में उच्चकुलीन
परिवार का होने से उसे सब आदर देते थे और कोई उसे अपना प्रतिस्पर्धी नहीं मानता किन्तु
नगर में न तो कुलीनता के कारण मिलने वाला सम्मान था और न उसे कोई मेधावी छात्र मानता।
नगर में जो गला-काट प्रतियोगिता थी उसमें कुशल कारीगरों को भी कारखानों के चक्कर लगाने
पड़ते थे और फिर भी नौकरी नहीं मिलती थी। बिरादरी के जिस व्यक्ति रमेश बाबू ने उसे
पढ़ाने की जिम्मेदारी ली थी वे उससे घरेलू नौकर का काम लेते। उन्हें उसकी पढ़ाई की
नहीं अपनी सुख-सुविधा की चिन्ता अधिक थी।
प्रश्न 2. एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्त्व आपको
कैसा लगता है ? अपनी समझ में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार करें।
उत्तर
: एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह के व्यक्तित्त्व में जहाँ कुछ गुण हैं, वहीं
कुछ अवगुण भी हैं, जो इस प्रकार
1.
वे कर्त्तव्यपरायण अध्यापक हैं, छात्रों के साथ मेहनत करना, उन्हें प्रोत्साहित करना
अपना कर्तव्य मानते हैं।
2.
वे बच्चों की शैक्षिक-प्रगति में रुचि लेते हैं और इस बात की चिन्ता करते हैं कि उनका
शिष्य अच्छा पद पाकर स्कूल का और उनका नाम रोशन करे।
3.
मास्टर त्रिलोक सिंह के मन में ऊँच-नीच की भावना व्याप्त है। मोहन और धनराम के साथ
उनका व्यवहार एक समान नहीं है। यह उनका अवगुण ही है।
4.
कमजोर बच्चों का तिरस्कार करना, संटी से उनकी पिटाई करना या उन पर व्यंग्य-बाणों का
प्रहार करना किसी अध्यापक को शोभा नहीं देता। यह अवगुण भी त्रिलोक सिंह में है।
प्रश्न 3. 'गलता लोहा' कहानी का अन्त एक खास तरीके से होता है। क्या
इस कहानी का कोई अन्य अन्त हो सकता
उत्तर
: मोहन ने धनराम के आफर पर लोहे की छड़ का गोल छल्ला बनाकर अपनी कारीगरी का परिचय देकर
सृजन सुख तो प्राप्त कर लिया पर वहाँ लेखक ने यह स्पष्ट नहीं किया कि क्या उसने भी
अपने परम्परागत पुरोहित व्यवसाय को त्यागकर 'लोहारगीरी' का व्यवसाय अपना लिया जिसका
तकनीकी प्रशिक्षण उसने प्राप्त किया था। भले ही यह घटना गाँव के लिए अजूबा होती, किन्तु
यदि उसके पिता उसकी कारीगरी को देखकर उसे शाबासी देते और उसका उत्साहवर्द्धन करके उसे
यह व्यवसाय अपनाने का हौसला बढ़ाते तो कहानी का अन्त और भी सार्थक हो सकता था।
भाषा की बात
प्रश्न 1. पाठ में निम्नलिखित शब्द लोहकर्म से सम्बन्धित हैं। किसका
क्या प्रयोजन है ? शब्द के सामने लिखिए 1, धौंकनी, 2. दराँती, 3. संडासी, 4. आफर,
5. हथौड़ा।
उत्तर
: धौंकनी-चमड़े की बनी वह बड़ी-सी थैली जो आग को हवा देकर उसे सुलगाती और धधकाती है।
दराँती-घास या फसल काटने का औजार (हँसिया)।
संडाती-लोहे
की दो छड़ों से बना कैंचीनुमा औजार जो गर्म छड़ों या वस्तुओं को पकड़ने के काम आता
है। आफर-भट्ठी। हथौड़ा-लोहा पीटने के काम आने वाला औजार।
प्रश्न 2. पाठ में 'काट-छाँटकर' जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग
हुआ है। पाठ में से पाँच संयुक्त क्रिया-शब्द चुनकर अपने वाक्यों में उनका प्रयोग कीजिए।
उत्तर
:
1.
पढ़-लिखकर-हर पिता यह चाहता है कि उसका पुत्र पढ़-लिखकर बड़ा अफसर बने।
2.
थका-माँदा-जब वह थका-माँदा घर लौटता तो फिर मुँह ढककर सो जाने का मन करता।
3.
उठा-पटक करना-बच्चे उठा-पटक में लगे हुए थे। .
4.
धमा-चौकड़ी मचाना-मास्टर साहब के आने से पहले बच्चे धमा-चौकड़ी मचा रहे थे।
5.
उलट-पलट-जब मैं घर गया तो देखा सारा सामान किसी ने उलट-पलट कर दिया है।
प्रश्न 3. 'बूते' का प्रयोग पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है। उन्हें
छाँटकर लिखिए और जिन सन्दर्भो में उनका प्रयोग है, उन सन्दर्भो में उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: पाठ में आए 'बूते' शब्द का प्रयोग इन वाक्यों में हुआ है -
1.
बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यहाँ बूते का अर्थ 'सामर्थ्य'
(शक्ति) है।
2.
दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। यहाँ 'बूते' का
अर्थ सहारा है।
3.
यही क्या जन्मभर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार चलाया था, वह भी अब वैसे
कहाँ कर पाते थे ? यहाँ बूते का अर्थ 'बल' है।
प्रश्न 4. मोहन ! थोड़ा दही तो ला दे बाजार से।
मोहन ! ये कपड़े धोबी को तो दे आ। - मोहन ! एक किलो आलू तोलादे। ऊपर
के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में 'आप' सर्वनाम का इस्तेमाल
करते हुए उन्हें दुबारा लिखिए।
उत्तर
:
1.
आप थोड़ा दही तो ला दीजिए बाजार से।
2.
आप ये कपड़े धोबी को दे आएँ।
3.
आप एक किलो आलू तो ला दीजिए।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. गलता लोहा कहानी के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर
: गलता लोहा कहानी के लेखक हैं-शेखर जोशी।
प्रश्न 2. गलता लोहा नामक कहानी का नायक कौन है ?
उत्तर
: इस कहानी का नायक मोहन है।
प्रश्न 3. मोहन के सहपाठी मित्र का क्या नाम है ?
उत्तर
: मोहन के सहपाठी मित्र का नाम धनराम है।
प्रश्न 4. मोहन और धनराम के पिताओं का क्या व्यवसाय था?
उत्तर
: मोहन के पिता पण्डित वंशीधर पुरोहिताई करते थे जबकि धनराम के पिता गंगाराम लोहार
थे।
प्रश्न 5.मोहन के विषय में मास्टर त्रिलोक सिंह को क्या आशा थी?
उत्तर
: कुशाग्र-बुद्धि मोहन के बारे में मास्टर त्रिलोक सिंह को यह आशा थी कि बड़ा होकर
यह किसी ऊँचे पद पर पहुँचेगा और स्कूल का नाम रोशन कर
प्रश्न 6. धनराम के पूछने पर मोहन के पिता ने मोहन के विषय में क्या
बताया ?
उत्तर
: धनराम के पूछने पर मोहन के पिता ने बताया कि मोहन सेक्रेटेरिएट (सचिवालय) में काम
करने लगा है।
प्रश्न 7. मोहन के बारे में वास्तविकता क्या थी?
उत्तर
: मोहन बेरोजगार नवयुवक था, किन्तु वह लोहारगीरी की तकनीक में कुशल था।
प्रश्न 8. कहानी का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर
: इस कहानी का उद्देश्य यह है कि बदली परिस्थितियों में अब हमें अपनी सोच में परिवर्तन
कर लेना चाहिए। जातीय . अभिमान का लोहा अब गल रहा है और लोग अपने पैतृक व्यवसाय को
छोड़कर वह कार्य कर रहे हैं, जिसमें वे कुशल हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'गलता लोहा' कहानी के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: 'गलता लोहा' प्रतीकात्मक शीर्षक है जिसका अर्थ है कि अब वह जमाना नहीं रहा जब लोग
जातीय उच्चता और कुलीनता के अभिमान में उन व्यवसायों को नहीं अपनाते थे जो नीच जाति
के व्यवसाय माने जाते थे। पुरोहित-पुत्र मोहन ने परम्परागत पैतृक व्यवसाय पुरं ई को
न अपनाकर उस लोहारगीरी को अपनाने का मन बना लिया, जिसमें उसने दक्षता प्राप्त की है।
इस प्रकार अब जातीय पान का लोहा गल रहा है। यही लेखक इस कहानी के शीर्षक से व्यक्त
करना चाहता है। यह शीर्षक पूरी तरह उपयुक्त कहा जा सा है।
प्रश्न 2. रमेश बाबू ने मोहन को आठवीं के बाद हाथ का काम क्यों सिखाया
? ।
उत्तर
: रमेश बाबू की मान्यता थी कि बी. ए., एम. ए..करने का कोई लाभ नहीं है। इससे व्यक्ति
को रोजगार नहीं मिलता, जबकि हाथ के कारीगर को रोजगार प्राप्त करने में आसानी होती है।
इसका दूसरा कारण यह भी था कि वे नहीं चाहते थे कि यह उच्च शिक्षित होकर उनसे बराबरी
करे। ऐसा होने पर वे उससे नौकरों की तरह काम कैसे ले सकते थे? अत: अपने स्वार्थ की
पूर्ति के लिए रमेश बाबू ने मोहन को आठवीं के बाद हाथ का काम सिखाया।
प्रश्न 3. मोहन को नदी पार के स्कूल से उसके पिता ने क्यों निकाल लिया
?
उत्तर
: गाँव के स्कूल से निकलने के बाद मोहन को उसके पिता ने नदी पार के एक स्कूल में भर्ती
करा दिया और वहीं एक यजमान के यहाँ उसके रहने की व्यवस्था कर दी। छुट्टियों में वह
नदी पार करके घर आ जाया करता था। एक बार नदी में अचानक पानी आ जाने से वह अन्य घसियारों
के साथ-साथ बहते-बहते बचा तब भयभीत होकर उसके पिता ने उसे स्कूल से निकाल लिया।
प्रश्न 4. मास्टर त्रिलोक सिंह मोहन की प्रशंसा और धनराम का तिरस्कार
क्यों करते थे?
उत्तर
: मोहन उच्चकुलीन ब्राह्मण जाति का कुशाग्र बुद्धि बालक था, जबकि धनराम लोहार जाति
का मंदबुद्धि बालक था। इसलिए मास्टर त्रिलोक सिंह मोहन की प्रशंसा और धनराम का तिरस्कार
करते थे।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. गलता लोहा कहानी के प्रमुख पात्र मोहन के चरित्र पर प्रकाश
डालिए।
उत्तर
: मोहन गलता लोहा (शेखर जोशी) नामक कहानी का प्रमुख पात्र (नायक) है। गाँव में मेधावी
समझे जाने वाले मोहन से अध्यापक त्रिलोक सिंह और उसके पिता पण्डित वंशीधर तिवारी ने
बड़ी आशाएँ लगा रखी थीं, पर वे सफल न हो सकी। उच्च जाति में उत्पन्न साधनहीन मोहन प्रतिभाशाली
एवं प्रखर-बुद्धि का छात्र है, परन्तु उसकी परिस्थितियाँ अत्यन्त कठिन हैं। वह स्वभाव
से धीर, गम्भीर, शान्त एवं सहनशील है।
धनाभाव
के कारण वह अपनी बिरादरी के रमेश बाबू के घर लखनऊ में रहकर नौकरों जैसा काम करके भी
वह जैसे-तैसे पढ़कर कुशल कारीगर बन जाता है, परन्तु बेरोजगारी का दंश अन्ततः उसे लोहारगीरी
करने पर विवश कर देता है। उसमें उस जातीय अभिमान का लेश भी नहीं बचा है जो उसके गाँव
के कुलीन लोगों में दिखाई देता है। वह अपने घर की दयनीय स्थिति से परिचित है। अत: रमेश
बाबू के दुर्व्यवहार के बारे में अपने पिता को नहीं बताता।
गलता लोहा (सारांश)
लेखक परिचय :
हिन्दी
के नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर शेखर जोशी का जन्म 1932 ई. में अल्मोड़ा (उत्तरांचल)
में हुआ। उनकी कहानियाँ नई कहानी के प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्त्व करती हैं, जिनमें
समाज के मेहनतकश लोगों की जिन्दगी को प्रस्तुत किया गया है।
कृतियाँ
- (अ) कहानी संग्रह - कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है।
(ब) शब्दचित्र संग्रह--एक पेड़ की याद।
शेखर
जोशी को 'पहल' सम्मान प्राप्त हो चुका है। उनकी कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं के
साथ-साथ अंग्रेजी, पोलिश और रूसी भाषा में भी अनूदित हो चुकी हैं। उनकी प्रसिद्ध कहानी
'दाज्यू' पर चिल्ड्रस फिल्म सोसाइटी द्वारा फिल्म का निर्माण भी किया जा चुका है।
भाषा-शैली
- शेखर जोशी की भाषा सहज सरल हिन्दी है, जिसमें पहाड़ी बोलियों के शब्द भी प्रयुक्त
हैं। निहायत सहज एवं आडम्बगहीन भाषा शैली में वे सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत कर देते
हैं। उनकी कहानियों में विषय की अच्छी पकड़ है और उसे प्रस्तुत करने की शैली भी आकर्षक
है।
'गलता
लोहा' शेखर जी की प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें यह दिखाया गया है कि किस प्रकार मोहन नामक
ब्राह्मण युवक के लिए परिस्थितियों के कारण जातीय अभिमान व्यर्थ एवं बेमानी हो जाता
है और सामाजिक विधि-निषेधों (रोक-टोक) को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार की भट्टी पर बैठकर
अपनी कार्यकुशलता का प्रदर्शन करता है। इस प्रकार लेखक ने इस कहानी के माध्यम से यह
दिखाने का प्रयास किया है कि बदली हुई परिस्थितियों में जातिगत आधार पर निर्मित झूठे
भाईचारे के स्थान पर मेहनतकश इंसानों के बीच एक सच्चे भाईचारे का जन्म हो रहा है और
सदियों का लोहा अब गलकर एक नया आकार ले रहा है।
इस
प्रकार 'गलता लोहा' जातिगत विभाजन पर बेबाक टिप्पणी है, जिसमें लेखक 'श्रमिक वर्ग'
को एक जाति मानकर उनके बीच पारस्परिक भाईचारे का मजबूत सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास
करता दिखता है। शेखर जोशी की कहानियों के विषय स्पष्ट हैं, भाषा प्रवाहपूर्ण है और
कहानियाँ किसी उद्देश्य को आधार बनाकर रची गई हैं।
पाठ-सारांश :
'गलता
लोहा' शेखर जोशी की चर्चित कहानी है, जो यह बताती है कि वर्तमान परिस्थितियों में जातीय
अभिमान बेमानी है। मेहनतकश लोग चाहे वे जिस जाति के हों आपस में भाई हैं। जातीय अभिमान
का लोहा अब गलकर एक नया आकार ले रहा है, जिसे 'मेहनतकश वर्ग' कहा जाता है। इस कहानी
का सार निम्न शीर्षकों में प्रस्तुत किया जा सकता है
पात्र
परिचय - कहानी में दो पात्र हैं-वंशीधर पुरोहित का पुत्र मोहन
और दूसरा है गंगाराम का पुत्र 'धनराम लोहार। दोनों ही प्राइमरी पाठशाला में सहपाठी
रह चुके हैं। मोहन अध्यापक त्रिलोक सिंह का प्रिय शिष्य था। पढ़ने में तेज था। इसीलिए
वह कक्षा का 'मॉनीटर' था। त्रिलोक सिंह को मोहन से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह एक दिन
बड़ा आदमी बनेगा और स्कूल का नाम रोशन करेगा। जबकि धनराम मंदबुद्धि बालक था, जिसे मास्टर
जी के कहने पर मोहन को कई बार पीटना पड़ा था। जातिगत हीनता के कारण धनराम इसे मोहन
का अधिकार मानता था तथा मोहन से पिटने के बावजूद वह उससे द्वेष नहीं मानता था।
किसी
तरह धनराम तीसरे दर्जे तक ही पढ़ सका। एक दिन मास्टर साहब ने धनराम से तेरह का पहाड़ा
सुनाने को कहा और जब न सुना पाया तो कहा-तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है। यह कहते हुए
उसे पाँच-छ: दराँतियाँ धार लगाने को पकड़ा दीं। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे और धनराम
ने सहज भाव से पिता का लोहारगीरी का काम सँभाल लिया। गंगाराम का 'आफर' (भट्ठी) कब धनराम
का 'आफर' कहा जाने लगा, यह लोगों को याद भी नहीं।
मोहन
की शिक्षा-दीक्षा - मोहन ने छात्रवृत्ति पाकर मास्टर त्रिलोक
सिंह की भविष्यवाणी सच साबित कर दी। पुरोहित वंशीधर भी अब पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा
आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे, क्योंकि पुरोहिताई के धंधे से उनकी दरिद्रता नहीं
मिट पाई थी। उन्होंने नदी पार के एक स्कूल में मोहन की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था कर
दी थी। आठवीं के बाद वह बिरादरी के एक अन्य युवक रमेश के साथ लखनऊ चला गया, जहाँ वे
उससे घर का काम करवाते और स्कूल की बजाय तकनीकी स्कूल में भरती करा दिया। डेढ़-दो वर्ष
में उसकी पढ़ाई समाप्त हो गई और नौकरी के लिए वह कारखाने के चक्कर लगाने लगा।
वंशीधर
की आशाएँ - वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता वे बड़े उत्साह
से बताते कि मोहन बड़ा अफसर होकर लौटेगा। जब उन्हें वास्तविकता का बोध हुआ तो वे भी
अपने स्वप्न भंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए। मोहन और धनराम की भेंट-मोहन
अपनी दराँती पर धार रखवाने धनराम के आफर (भट्ठी) पर गया और दोनों देर तक स्कूली जीवन
और मास्टर साहब की चर्चा में लीन रहे। वंशीधर पुरोहित ने धनराम को बता रखा था कि मोहन
की नियुक्ति सेक्रेटेरियट में हो गई है और वह विभागीय परीक्षाएँ देकर बड़े पद पर पहुँच
जाएगा। आज मोहन को अपने यहाँ देखकर धनराम को खुशी हो रही थी।
मोहन
के हँसुवे के फाल को बेंट से निकालकर धनराम ने भट्ठी में तपाया और मन लगाकर उसकी धार
बना दी। कहा-पंडित जी को तो फुरसत नहीं मिलती, लेकिन किसी के हाथ भिजवा देते तो मैं
तत्काल बना देता। मोहन हँसुवे को लेकर वहीं बैठा रहा जैसे वापस जाने की कोई जल्दी न
हो। सामान्य तौर पर ब्राह्मण टोले का कोई व्यक्ति शिल्पकार टोले में काम-काज के सिलसिले
में ही जाता था, उठने-बैठने नहीं। खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली और तुरन्त वापस। ब्राह्मण
टोले के लोगों को बैठने के लिए भी कहना उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। गाँव
की इन मान्यताओं से परिचित होने के बावजूद मोहन वहाँ बैठा था, जिससे धनराम भी . 'असमंजस
में था पर प्रकट में कुछ न कहकर अपना काम करता रहा।
मोहन
का धनराम के कार्य में सहयोग-धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर गोलाई में
मोड़ने की कोशिश कर रहा था। एक हाथ में संडासी और दूसरे हाथ में हथौड़ा लेकर जब वह
उस पर चोट मारता तो उचित ढंग से प्रहार न होने से लोहा इच्छित ढंग से मुड़ नहीं पा
रहा था। मोहन कुछ देर उसे देखता रहा फिर अपना संकोच त्यागकर उसने दूसरी पकड़ (संडासी)
से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारकर अभ्यस्त
हाथों से धौंकनी फूंककर लोहे को दुबारा गरम किया और निहाई पर रखकर ठोक-पीटकर लोहे को
सुघड़ गोले का रूप दे दिया।
मोहन
की यह निपुणता देखकर धनराम अवाक रह गया। उसे मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं
हुआ, जितना पुरोहित खानदान के एक युवक के इस तरह का काम उसकी भट्ठी पर बैठकर करने पर
हुआ था। धनराम की संकोच, असमंजस भरी दृष्टि से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से लोहे के
गोले की त्रुटिहीनता की जाँच कर रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति
पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी, जिसमें न स्पर्धा थी
और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव था। दोनों को एक साथ काम करते देखकर लग रहा
था जैसे वर्षों से जमा जाति का लोहा गलकर अब एक नया आकार ले रहा है।
कठिन शब्दार्थ :
अनायास
= बिना प्रयास के (अचानक)
शिल्पकार
टोला = गाँव का वह मोहल्ला जहाँ कारीगर किस्म के लोग रहते थे
लोहार
= लोहे के औजार ठीक करने वाली एक जाति
अनुगूंज
= प्रतिध्वनि (आवाज)
निहाई
= ठोस लोहे का बड़ा टुकड़ा जो लोहार की भट्ठी पर रखा होता है और जिस पर लोहे के औजार
रखकर हथौड़े से पीटते हैं।
हँसुवे
= हँसिया (दरांती)
पुरोहिताई
= पांडित्य कर्म (धार्मिक अनुष्ठान कथा-वार्ता, विवाह-शादी आदि कराने का काम)
यजमान
= जिसके घर पण्डित कोई धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने जाता है
निष्ठा
= एकाग्रता
जर्जर
= टूटा-फूटा
नीयत
= इरादा
निःश्वास
= भीतर से निकली लम्बी साँस
रुद्रीपाठ
= शंकर जी के नाम का जप या मंत्र पाठ, रुद्राष्टाध्यायी ग्रंथ का पाठ।
आशय
= मतलब
अनुष्ठान
= धार्मिक कर्मकाण्ड (पूजा आदि)
अनुत्तरित
= जिसका उत्तर न दिया गया हो
कुंद
= भोथरा (धार का समाप्त हो जाना, पैनापन न रहना)
धौंकनी
= भट्ठी में हवा देने के लिए बनाई गई चमड़े की बड़ी थैली
पारखी
निगाह = परखने वाली दृष्टि
धमा-चौकड़ी
= ऊधम (शोरगुल, शरारत)
साँप
सूंघ गया हो = एकदम शांत हो जाना
समवेत
स्वर = एक साथ होने वाली सामूहिक आवाज
चहेता
= प्रिय
कुशाग्र
बुद्धि = तीव्र बुद्धिवाला
बेजोड़
= अद्वितीय
मॉनीटर
= कक्षा की निगरानी करने वाला छात्र।
उम्मीदें
= आशाएँ
फिसड्डी
= सबसे कमजोर
हमजोली
= साथी
बेंत
खाना = छड़ी से पिटना
स्नेह
= प्रेमभाव
जातिगत
हीनता = छोटी जाति में उत्पन्न होने से मन में आने वाला हीनता का भाव
प्रतिद्वंद्वी
= होड़ करने वाला
पहाड़
हो जाना = अत्यन्त कठिन होना (मुहावरा)
संटी
= पतली छड़ी।
बलि
का बकरा = सजा पाने वाला छात्र (लक्षणों से)
मंदबुद्धि
= अल्पबुद्धि
घोटा
लगाना = रटना
लड़खड़ा
गया = भूल गया (ठीक ढंग से पहाड़ा न सुना सका)
जबान
की चाबुक लगाना = कड़ी बात कहना
दराँतियाँ
= हँसिया
ताप
= गरमी
सामर्थ्य
= योग्यता
विरासत
= उत्तराधिकार
आफर
= लोहार की भट्ठी
छात्रवृत्ति
= वजीफा
हौसला
= उत्साह
पैतृक
धंधा = पिता से प्राप्त व्यवसाया दारिद्रयदरिद्रता (गरीबी)
विद्या-व्यसनी
= पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाला
उत्साहित
करना = हिम्मत बँधाना
घसियारे
= घास छीलने और उसे बेचने का काम करने वाले लोग
सम्पन्न
= धनी-मानी
झाड़-झंखाड़
= व्यर्थ के पौधे
डेरा
तय कर देना = रहने की व्यवस्था करना
बिरादरी
= जाति (अपनी जाति)।
आँखों
में पानी छलछलाना = कृतज्ञता से आँसू आना
सहमा-सहमा
= घबराया हुआ
हैसियत
= इज्जत
हीलाहवाली
= मना करना
मेधावी
= बुद्धिमान्
अगला
दर्जा = अगली कक्षा
चारा
न होना = उपाय न होना।
व्यस्त
= कार्य में लगा हुआ
स्वप्न-भंग
= इच्छा पूरी न होना (लक्षणा-से)
सेक्रेटेरिएट
= सचिवालय
नियुक्ति
= नौकरी मिलना।
यकीन
= विश्वास
कचोटते
रहे = चुभते रहे।
तत्काल
= तुरन्त
सँड़ासी
= लोहे को पकड़ने वाला औजार
स्थिर
= दृढ़ता से पकड़ना
अभ्यस्त
= जिसने पहले कोई काम किया हो
सुघड़
= अच्छी तरह गढ़ा हुआ
चूक
= गलती।
शंकित
= आशंका भरी
असमंजस
= दुविधा
धर्म-संकट
= अनिश्चय की स्थिति (दुविधा)
त्रुटिहीन
= जिसमें कोई चूक न हो
मुद्रा
= भाव मुद्रा
सर्जक
= रचनाकार
स्पधा
= प्रतिस्पर्द्धा (होड़)।
सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
1. मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए।
उसके म के किसी कोने में शायद धनराम लोहार के आफर की यह अनुगूंज शेष थी जिसे वह पिछले
तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था। निहाई पर रखे लाल गर्म
लोहे पर पड़ते हथौड़े की धप-धप आवाज, ठंडे लोहे पर लगती चोट से उठता ठनकता स्वर और
निशाना साधने से पहले खाली निहाई पर पड़ती हथौड़ी की खनक जिन्हें वह दूर से ही पहचान
सकता था।
लम्बे
बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने खेतों के किनारे
उग आई काँटेदार . झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ कर आएगा। बूढ़े वंशीधर जी के बूते का
अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्मभर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार
चलाया था, वह भी अब वैसे कहाँ कर पाते हैं ! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण
ही उन पर श्रद्धा रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास
नहीं झेल पाता।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता. लोहा' से लिया गया है। इस अंश में कहानी का प्रमुख पात्र
मोहन अपने हँसिए पर धार रखवाने लोहार की भट्ठी पर जा रहा है।
व्याख्या
- मोहन कई दिनों से धनराम लोहार की भट्ठी की ध्वनि सुन रहा था। जब वह हँसिये पर धार
रखवाने के लिए घर से निकला तो वह गाँव के कारीगरों के टोले की ओर अपने आप चल दिया।
लोहे की भट्ठी पर होने वाली तरह-तरह की ध्वनियों से वह पहले से परिचित था, क्योकि उसने
लोहे से संबंधित कार्यों की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वह जानता था कि जब निहाई पर रखे
लाल गर्म लोहे पर हथौड़ा पड़ता था तो धप्-धप की आवाज होती थी।
ठंडे
लोहे पर चोट किए जाने पर ठन-ठन की ध्वनि होती थी और खाली निहाई पर हथौड़ी मारने से
खनकती हुई आवाज सुनाई देती थी। इन सारी भिन्न-भिन्न ध्वनियों को वह दूर से ही पहचान
सकता था। वह अपने लम्बे हत्थे वाले हँसिये को लेकर इसलिए निकला था कि वह अपने खेतों
के किनारों पर उग आये व्यर्थ के पौधों को काट-छाँटकर आएगा। उसके पिता अब बूढ़े हो गए
थे।
अब
खेतों का काम कर पाना उनके वश की बात नहीं थी। अब तो जीवनभर जिस पुरोहिताई के काम को
किया था, वह भी ठीक से नहीं हो पाता था। लोग अब भी उनकी काम में सच्ची लगन और उनके
आचार-विचारों की शुद्धता के कारण उन पर श्रद्धा रखते थे। उन्हीं को अपने कार्यों के
लिए घर बुलाते थे। परंतु अब पंडित जी पहले जैसा परिश्रम और व्रत-उपवास नहीं कर पाते
थे।
विशेष
- पंडिताई के काम से घर चलाना कठिन देखकर पिता ने पुत्र को अच्छी शिक्षा दिलाने के
लिए बाहर भेज दिया था। बेटा लोहे आदि की तकनीकी शिक्षा लेकर लौट आया था और नौकरी की
तलाश में था। पिता को पुत्र से बड़ी आशा थी।
प्रश्न :
1. मोहन हँसिया लेकर कहाँ गया? और क्यों?
2. मोहन किन आवाजों को दूर से ही पहचान सकता था?
3. मोहन और धनराम कौन थे?
4. वंशीधर तिवारी को अपना काम करने में क्या परेशानियाँ हो रही थीं?
उत्तर
:
1.
मोहन हँसिया लेकर खेतों की ओर गया था, क्योंकि खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों
को काटना चाहता था। वृद्ध वंशीधर अब यह काम करने में असमर्थ थे। किन्तु हँसिए की धार
कुंद थी इसलिए वह धनराम लोहार के पास धार लगवाने चला गया।
2.
लोहार के हथौड़े की आवाज को मोहन दूर से ही पहचान लेता था। गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े
की आवाज अलग होती थी, ठण्डे लोहे पर पड़ती आवाज अलग और खाली निहाई पर पड़ती हथौड़े
की आवाज अलग होती थी।
3.
मोहन और धनराम एक ही गाँव के रहने वाले तथा एक ही स्कूल में पढ़े सहपाठी थे। मोहन पुरोहित
वंशीधर का बेटा था, जबकि धनराम गंगाराम लोहार का पुत्र था।
4:
वंशीधर तिवारी मोहन के पिता थे। वे पुरोहिताई का काम करते थे। अब वृद्ध हो जाने से.
वे उतना कठिन श्रम एवं व्रत-उपवास आदि न कर सकते थे, इसलिए पुरोहिताई का काम करने में
उन्हें कठिनाई होती थी।
2. धनराम अपने बाएँ हाथ से धौकनी फूंकता हुआ दाएँ हाथ
से भट्ठी में गरम होते लोहे को उलट-पलट रहा था और मोहन भट्ठी से दूर हटकर एक खाली कनस्तर
के ऊपर बैठा उसकी कारीगरी को पारखी निगाहों से देख रहा था। 'मास्टर त्रिलोक सिंह तो
अब गुजर गए होंगे' मोहन ने पूछा। वे दोनों अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे। धनराम
की आँखों में एक चमक-सी आ गई। वह बोला 'मास्साब भी क्या आदमी थे लला! अभी पिछले साल
ही गुजरे।
सच
कहूँ, आखिरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा रहता था।' दोनों हो-हो करके हँस दिए। कुछ क्षणों
के लिए वे दोनों ही जैसे किसी बीती हुई दुनिया में लौट गए। ....... गोपाल सिंह की दुकान
से हुक्के का आखिरी क्रश खींचकर त्रिलोक सिंह स्कूल की चहारदीवारी में उतरते हैं। थोड़ी
देर पहले तक धमाचौकड़ी मचाते, उठा-पटक करते और बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूलते
बच्चों को जैसे साँप सूंघ गया है। कड़े स्वर में वह पूछते हैं, 'प्रार्थना कर ली तुम
लोगों ने ?'
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा से लिया गया है। इस अंश में धनराम और मोहन अपने विद्यार्थी
जीवन की यादों पर चर्चा कर रहे हैं।
व्याख्या
- मोहन धनराम को भट्ठी पर काम करते देख रहा था। धनराम बायें हाथ से धौकनी फेंक रहा
था और दायें हाथ से भट्ठी में गरम होते हुए लोहे को उलट-पलट रहा था। मोहन भट्ठी से
कुछ दूरी पर बैठा था और धनराम की कारीगरी को एक कुशल कारीगर की तरह परख रहा था।
मोहन
ने धनराम से अपने शिक्षक त्रिलोकसिंह के बारे में पूछा कि वे जीवित हैं या उनका देहांत
हो गया ? मोहन के यह पूछते ही दोनों सहपाठी अचानक अपने बचपन की यादों में खो गए। धनराम
की आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। उसने मास्साब (मास्टर त्रिलोक सिंह) के व्यक्तित्व
की सराहना की और बताया कि वह पिछले वर्ष संसार से चले गये। धनराम ने सहज भाव से कहा
कि उसे मास्साब की छड़ी का डर उनके जीवित रहते सदा बना रहा और दोनों सहपाठी खिलखिलाकर
हँसने लगे।
ऐसा
लगा जैसे दोनों अपने बचपन के दिनों में लौट गए हों। मास्टर त्रिलोक सिंह विद्यालय में
प्रवेश करने से पहले गोपाल सिंह की दुकान पर हुक्का पिया करते थे। जब वह स्कूल के अहाते
में कदम रखते थे तो वहाँ भाग-दौड़ और उठा-पटक कर रहे बच्चों और बांज के पेड़ों की टहनियाँ
पकड़कर झूला झूलते लड़कों में सन्नाटा छा जाता था। तब वह कड़कती आवाज में पूछा करते
थे कि उन लोगों ने विद्यालय की प्रार्थना ... कर ली थी या नहीं?
विशेष
-
बड़े होने पर अपने सहपाठियों से मिलकर अपने बचपन में खो जाना प्रत्येक व्यक्ति को आह्लादित
कर देता है। इस अवतरण में इसी का वर्णन किया गया है।
प्रश्न :
1. धनराम अपनी भट्ठी पर क्या कर रहा था ? और मोहन वहाँ बैठा क्या कर
रहा था ?
2. धनराम ने मास्टर त्रिलोकसिंह के बारे में क्या बताया ?
3. मास्टर त्रिलोक सिंह का विद्यालय में पदार्पण किस प्रकार होता था?
4. मास्टर साहब के आने से पहले बच्चे क्या किया करते थे ? और मास्साब
के आने के बाद क्या होता था ?
उत्तर
:
1.
धनराम बायें हाथ से धौंकनी चला रहा था और दायें हाथ से भट्ठी में गरम होते लोहे को
उलट-पलट रहा था। मोहन वहीं एक कनस्तर पर बैठा पारखी निगाहों से उसकी कारीगरी देख रहा
था।
2.
त्रिलोक सिंह के बारे में पूछे जाने पर धनराम की आँखों में चमक सी आ गई। उसने बताया
मास्टर साहब पिछले वर्ष गुजर गये। उसने कहा कि मास्टर त्रिलोक सिंह की छड़ी का डर उसे
अन्त तक लगा रहता था।
3.
मास्टर त्रिलोक सिंह विद्यालय के समीप स्थित गोपाल सिंह की दुकान पर हुक्का पीते थे
और हुक्के का आखिरी कश खींचकर वह स्कूल की चाहरदीवारी में प्रवेश करते थे। उनके आते
ही स्कूल में सन्नाटा छा जाता था। वह कड़े स्वर में पूछते थे कि क्या बच्चों ने प्रार्थना
कर ली थी?
4.
मास्टर साहब के स्कूल आने से पहले बच्चे धमा-चौकड़ी मचाते हुए उठा-पटक किया करते थे
तो कुछ बच्चे बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूला करते थे। किन्तु मास्टर साहब को देखते
ही वे सब एकदम इस तरह शांत हो जाते थे, जैसे उन्हें साँप सँघ गया हो।
3. मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें
थीं। कक्षा में किसी को कोई सवाल न आने पर वही सवाल वे मोहन से पूछते और उनका अनुमान
सही निकलता। मोहन ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्हें सन्तुष्ट कर देता और तब वे उस फिसड्डी
बालक को दंड देने का भार मोहन पर डाल देते। पकड़ इसका कान और लगवा इससे दस उठक-बैठक',
वे आदेश दे देते। धनराम भी उन छात्रों में से एक था जिसने त्रिलोक सिंह मास्टर के आदेश
पर अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार बेंत खाए थे या कान खिंचवाए थे।
मोहन
के प्रति थोड़ी-बहुत ईर्ष्या होने पर भी धनराम प्रारंभ से ही उसके प्रति स्नेह और आदर
का भाव रखता था। इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता
के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का अधिकार
ही समझता रहा था। बीच-बीच में मास्टर त्रिलोक सिंह का यह कहना कि मोहन एक दिन बहुत
बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा, धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने
की गुंजाइश ही नहीं रखता था।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। इस अंश में मोहन को एक होनहार छात्र
बताया गया है। अध्यापक त्रिलोक सिंह द्वारा उसे कक्षा का मानीटर बनाया गया था।
व्याख्या
- मोहन एक मेधावी विद्यार्थी था। अध्यापक त्रिलोक सिंह को मोहन द्वारा नाम कमाने पर
पूरा विश्वास था। जब कक्षा में उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर कोई छात्र नहीं
दे पाता था तो वह मोहन से वही प्रश्न पूछते थे। मोहन द्वारा सही उत्तर दिये जाने पर
वह मोहन को आदेश देते थे कि वह उस फिसड्डी लड़के को दंड दे। वह कहते थे कि इसका कान
पकड़कर उठक-बैठक लगवाए। धनराम एक मंदबुद्धि छात्र था। उसके द्वारा सवालों का जवाब न
दे पाने पर त्रिलोक सिंह के आदेश पर कई बार मोहन के द्वारा बेंत खाने पड़े थे और कान
भी खिंचवाये थे। धनराम मोहन से मन में थोड़ी ईर्ष्या रखता हो परंतु आरम्भ से ही वह
मोहन से प्रेम करता था और उसे सम्मान के भाव से देखता था।
लेखक
का मानना है कि ऐसा वह इसलिए करता था कि मोहन ऊँची जाति का था। वह स्वयं नीची जाति
का था। जाति के आधार पर ऊँच का भाव उसके मन गहराई से बैठा हुआ था। इसी कारण वह मोहन
को अपना विरोधी नहीं मानता था। उसका मानना था कि मोहन को उसे दंड देने का अधिकार था।
मास्टर त्रिलोक सिंह का भी कहना था कि मोहन एक दिन स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा।
इसलिए मोहन से बराबरी की बात वह सोच भी नहीं सकता था।
विशेष
-
मोहन के प्रति धनराम के आदर और प्रेमभाव का कारण जातिगत भिन्नता को बताया गया है। लेखक
ने इस प्रसंग द्वारा भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था पर व्यंग्य किया है।
प्रश्न :
1. मोहन को लेकर मास्टर साहब को क्या उम्मीदें थीं और क्यों ?
2. मोहन को मास्टर साहब ने क्या-क्या काम सौंप रखे थे ?
3. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वन्द्वी क्यों नहीं समझता था ?
4. धनराम का मोहन के प्रति क्या भाव था ?
उत्तर
:
1.
मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें थीं। उनका मानना था कि मोहन एक
दिन बड़ा आदमी बनकर स्कूल का नाम ऊँचा करेगा। इसका कारण यह था कि मोहन पढ़ने में बहुत
तेज था। वह पूछे गए हर सवाल का सही उत्तर देता था।
2.
मोहन को उन्होंने स्कूल का मॉनीटर बना दिया था। वही प्रात: प्रार्थना का प्रारम्भ करता
था। कक्षा में जब किसी छात्र को प्रश्न का उत्तर नहीं आता था तो मोहन से उसका उत्तर
पूछा जाता था और सही जवाब देने पर फिसड्डी लड़के को दण्ड देने का काम भी उससे ही कराया
जाता था।
3.
धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वन्द्वी इसलिए नहीं मानता था क्योंकि मोहन ऊँची जाति का
और वह छोटी जाति का था। बचपन से ही धनराम के मन में जातिगत हीनता की बात बिठा दी गई
थी, इसीलिए वह ऊँची जाति के मोहन को अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं मानता था।
4.
धनराम और मोहन मित्र थे लेकिन मास्टर साहब के आदेश पर. मोहन ने धनराम को बेंत लगाए
थे और उसके कान खींचे थे। धनराम के मन में मोहन के प्रति थोड़ी ईर्ष्या भले रही हो,
लेकिन वह आरम्भ से ही मोहन के प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था।
अवतरण
- 4
सटाक्
! एक संटी उसकी पिंडलियों पर मास्साब ने लगाई थी कि वह टूट गई। गुस्से में उन्होंने
आदेश दिया, जा! नाले से एक अच्छी मजबूत संटी तोड़ कर ला, फिर तुझे तेरह का पहाड़ा याद
कराता हूँ।'
त्रिलोक
सिंह मास्टर का यह सामान्य नियंम था। सजा पाने वाले को ही अपने लिए हथियार भी जुटाना
होता था; और जाहिर है, बलि का बकरा अपने से अधिक मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर
टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे वह अपने लिए नहीं किसी दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार
का चुनाव कर रहा हो।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी. पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा से लिया गया है। इस अंश में कहानीकार गाँव के प्राइमरी
स्कूल के अध्यापक द्वारा बच्चों को दंडित करने के विचित्र ढंग का परिचय करा रहा है।
व्याख्या
- धनराम जब घंटों घोटा लगाने के बाद भी तेरह का पहाड़ा मास्साब को नहीं सुना पाया तो
उन्होंने उसकी पिंडलियों पर सड़ाक से एक संटी जड़ दी पर संटी टूट गई। मास्टर त्रिलोक
सिंह का गुस्सा दुगना हो गया। उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि धनराम नाले के पास से एक
अच्छी और मजबूत संटी तोड़कर लाए। इसके बाद वह उसे (धनराम को) तेरह का पहाड़ा अच्छी
तरह याद कराएँगे। धनराम इस धमकी का अर्थ भलीभाँति समझता था। जो संटी वह लेने जा रहा
था, उससे उसी की पिटाई होनी थी।
मास्टर
त्रिलोक सिंह ने यह नियम बना रखा था कि संजा पाने वाले छात्र को पिटते समय संटी टूट
जाने पर अपनी पिटाई के लिए मजबूत संटी, स्वयं ही लानी पड़ती थी। मास्टर त्रिलोक सिंह
से बच्चे इतने भयभीत रहते थे कि संटी लाने की जिस भी बच्चे की बारी होती थी, वह मजबूत
से मजबूत संटी ही तोड़कर लाया करता था। संटी छाँटते समय वह अपनी पिटाई का ध्यान भूलकर
मास्साब को संतुष्ट , करने वाली संटी ही तोड़कर लाता था। वह संटी का चुनाव इस भाव से
करता था मानो वह किसी अन्य छात्र की पिटाई के लिए संटी तोड़ रहा हो।
विशेष
- लेखक ने गाँवों के प्राइमरी स्कूलों में प्रचलित शिक्षा-प्रणाली का सच्चा स्वरूप
साकार कर दिया है। यह शब्दचित्र शिक्षा व्यवस्था पर एक.प्रश्न चिह्न खड़ा करता है।
प्रश्न :
1. मास्साब ने उसकी मार क्यों लगाई ?
2. त्रिलोक सिंह मास्टर का सामान्य नियम क्या था ?
3. 'बलि का बकरा' से यहाँ क्या आशय है ?
4. सजा पाने वाला क्या सोचकर टहनी का चुनाव करता था?
उत्तर
:
1.
मास्साब ने तेरह का पहाड़ा न सुना पाने के कारण उसकी मार लगाई।
2.
त्रिलोक सिंह मास्टर का सामान्य नियम यह था कि सजा पाने वाले को ही अपने लिए हथियार
भी जुटाना होता था।
3.
'बलि का बकरा' से यहाँ आशय सजा पाने वाले छात्र से है जो अपने लिए हथियार भी जुटाता
था।
4.
सजा पाने वाला मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे वह अपने
नहीं दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार का चुनाव कर रहा हो।
5. धनराम की मंदबुद्धि रही हो या मन में बैठा हुआ डर
कि पूरे दिन घोटा लगाने पर भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था। छुट्टी के समय
जब मास्साब ने उससे दोबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते
वह फिर लड़खड़ा गया था। लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का
उपयोग करने की बजाय जबान की चाबुक लगा दी थी, 'तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे !
विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?' अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर उन्होंने
धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थी।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया। गया है। इस अंश में मास्टर त्रिलोक सिंह द्वारा
धनराम की मंदबुद्धि पर व्यंग्य किया गया है।
व्याख्या
-
विद्यालय की छुट्टी होने के समय मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम,से तेरह का पहाड़ा सुनाने
को दोबारा कहा। इस बार भी वह तीन से आगे नहीं बढ़ पाया। इसका कारण या तो यह था कि धनराम
की बुद्धि बहुत मंद थी या फिर उसके मन में बैठ गया यह डर था कि उसने पूरे दिन पहाड़ा
रटा पर उसे पहाड़ा याद नहीं हो पाया था। परन्तु इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने संटी
से काम नहीं लिया।
उन्होंने
उसकी जाति पर आक्षेप करते हुए कह दिया कि वह लोहार था इसलिए उसका दिमाग भी लोहे की
तरह जड़ हो गया था। विद्या प्राप्त करना उसके वश की बात नहीं थी। इतना कहकर उन्होंने
अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकाली और धनराम को दे दी। उससे कहा कि वह उन पर धार
लगाकर ले आये। शायद मास्टर साहब उसे संकेत कर रहे थे कि जाओ अपना पैतृक धंधा करो। पढ़ना-लिखना
तुम्हारे वश का नहीं है।
विशेष
- लेखक ने इस प्रसंग द्वारा भारत की जाति व्यवस्था पर व्यंग्य किया है कि लोहारी का
धंधा करने वाले को सुशिक्षित होने के सपने नहीं देखने चाहिए।
प्रश्न :
1. धनराम दोबारा पूछे जाने पर भी तेरह का पहाड़ा क्यों नहीं सुना पाया
?
2. 'तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते लड़खड़ा गया।' इस कथन का आशय क्या
है ?
3. 'जबान की चाबुक' क्या होती है ?
4. मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम को फटकारते हुए क्या कहा ? और क्यों
?
उत्तर
:
1.
धनराम घबराहट के कारण पूरा पहाड़ा नहीं सुना पाया। उसे भीतर-ही-भीतर डर लगा हुआ था
कि पूरे दिन रटने पर भी वह पहाड़ा याद नहीं कर सका था।
2.
तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते लड़खड़ा जाने का आशय है कि मन में डर बैठा होने से
वह तीन तक पहाड़ा सुनाने के बाद घबरा गया और पहाड़ा पूरा नहीं कर सका।
3.
मास्टर त्रिलोक सिंह गलती करने वाले छात्र को संटियाँ लगाकर दण्ड दिया करते थे। दूसरी
बार भी धनराम द्वारा पहाड़ा न सुना पाने पर उन्होंने संटी से काम नहीं लिया बल्कि अपनी
तीखी जबान से धनराम की जाति पर चोट की। यह चोट संटी मारने से भी अधिक अपमानजनक थी।
4.
मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम की मंदबुद्धि पर प्रहार करते हुए कहा लोहार होने के कारण
उसका दिमाग भी लोहे जैसा हो गया था। पढ़ाई उसके वश की बात न थी।
6. किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य
धनराम के पिता की नहीं थी। धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ ही था कि बाप ने उसे धौंकनी
फॅकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर
घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फर्क इतना ही था कि जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी
पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहाँ गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और जरा-सी
गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते। एक दिन
गंगाराम अचानक चल.बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस के
गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के आफर को धनराम का आफर कहने लगे थे।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। इस अंश में धनराम द्वारा अपना पैतृक
धंधा-लोहारी अपना लेने के बारे में बताया गया है।
व्याख्या
-
धनराम के पिता गंगाराम लोहार थे। वह स्वयं पढ़े-लिखे न थे और शिक्षा को अधिक महत्व
नहीं देते थे। अतः वे धनराम को किताबी विद्या तो नहीं सिखा पाए लेकिन उन्होंने धनराम
को बचपन से ही अपने धंधे में डाल दिया था। जैसे ही धनराम कुछ बड़ा हुआ, गंगाराम ने
धनराम को धौंकनी फॅकने या सान लगाने के काम में लगा लिया और उसे धीरे-धीरे हथौड़ा चलाने,
धन चलाना आदि सिखाने लगे। मास्टर त्रिलोक सिंह और गंगाराम दोनों ही धनराम के शिक्षक
थे। गंगाराम उसे लोहारगीरी सिखा रहे थे तो त्रिलोकसिंह उसे किताबी विद्या सिखा रहे
थे।
परन्तु
दोनों की दण्डित करने की नीतियाँ अलग-अलग प्रकार की थीं। मास्टर त्रिलोक सिंह तो गलती
होने पर धनराम को अपनी पसंद की संटी चुनने की छूट दे देते थे लेकिन गंगाराम हथियार
का चुनाव स्वयं करते थे। जरा-सी भी गलती हो जाने पर वह लोहे की छड़, बेंत या किसी औजार
का हत्था जो भी हाथ पड़ता उसी से धनराम की पिटाई कर डालते थे। जब गंगाराम का देहान्त
हो गया तो धनराम ने उनका काम सँभाल लिया। यह परिवर्तन इतने सहज भाव से हुआ था कि गाँव
वालों को यह भी याद नहीं रहा था कि गंगाराम की भट्ठी कब से धनराम की भट्ठी कही जाने
लगी थी?
विशेष
- लेखक ने दिखाया है कि कारीगरों और पिछड़ी जातियों में उस समय शिक्षा को महत्व नहीं
दिया जाता था। उनके बच्चे प्राय: घर में चलते हुए धंधों को अपना लेते थे।
प्रश्न :
1. धनराम के पिता में क्या सामर्थ्य नहीं थी?
2. धनराम के पिता ने धनराम को बचपन से क्या सिखाना आरम्भ कर दिया था
?
3. त्रिलोक सिंह और गंगाराम की दण्डनीति में क्या अंतर था?
4. गाँव वालों को क्या याद नहीं रहा?
उत्तर
:
1.
धनराम के पिता अशिक्षित थे, अत: वह धनराम को किताबी विद्या (शिक्षा) नहीं दे सकते थे।
2.
धनराम के पिता ने धनराम को बचपन से ही अपना पैतृक धंधा लोहारगीरी सिखाना आरम्भ कर दिया
था।
3.
मास्टर त्रिलोक सिंह धनराम से गलती होने पर उसे अपनी पसंद की संटी चुनने की छूट दे
देते थे लेकिन गंगाराम के हाथ जो कुछ भी पड़ता था वह उसी से धनराम की पिटाई कर देते
थे।
4.
गंगाराम के देहान्त के बाद उसके पुत्र धनराम ने बड़ी सहजता से पिता का काम संभाल लिया
था। पहले गाँव के लोग जिसे गंगाराम की भट्ठी कहकर पुकारा करते थे धीरे-धीरे उसे वे
धनराम की भट्ठी कहने लगे। उन्हें भी याद नहीं रहा कि यह परिवर्तन कब और कैसे हो गया?
7. प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते हीमोहन ने
छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर
दिया तो साधारण हैसियत वाले यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला
बढ़ गया और वे भी अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे।
पीढ़ियों से चले आते पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। दान-दक्षिणा के बूते पर
वे किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। मोहन पढ़-लिखकर वंश का दारिद्रय मिटा दे
यह उनकी हार्दिक इच्छा थी।
लेकिन
इच्छा होने भर से ही सब-कुछ नहीं हो जाता। आगे की पढ़ाई के है. लिए जो स्कूल था वह
गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने
वाली नदी की समस्या अलग थी। तो भी वंशीधर ने हिम्मत नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल
में लिखा दिया। बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर स्कूल जाता और छुट्टी के बाद थका-माँदा
घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित
करने की कोशिश करते रहते।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। इस अंश में मोहन के पिता वंशीधर तिवारी
द्वारा पुत्र को सुशिक्षित बनाने के लिए किये गये प्रयत्नों का वर्णन है।
व्याख्या
-
मोहन ने अपनी प्राइमरी शिक्षा पूरी कर ली और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के कारण
छात्रवृत्ति भी प्राप्त कर ली। इस प्रकार मास्टर त्रिलोक सिंह द्वारा मोहन के बारे
में की गई भविष्यवाणी कुछ हद तक सत्य सिद्ध हो गई। मास्टर साहब ने कहा था कि मोहन एक
दिन अपने विद्यालय और उनका नाम रोशन करेगा। मोहन के पिता साधारण स्तर के पंडित थे।
उनका काम यजमानों की पुरोहिताई करना था।
उनकी
आमदनी बहुत सीमित थी। जब मोहन की सफलता देखकर उनका भी साहस बढ़ गया। अब तो वह भी उसे
ऊँची शिक्षा दिलाकर बड़ा आदमी बनाने के सपने देखने लगे। उनके वंश में अनेक पीढ़ियों
से पुरोहिताई का धंधा ही चला आ रहा था। सीमित आय होने के कारण वह पुत्र के भविष्य के
बारे में बड़े निराश रहा करते थे। पंडिताई से प्राप्त दान-दक्षिणा से घर का खर्च कठिनाई
से चलता था। वह चाहते कि बेटा पढ़-लिखकर घर की दरिद्रता समाप्त कर दे। परंतु केवल चाहने
भर से इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकतीं।
आगे
की पढ़ाई के लिए जो विद्यालय था, वह गाँव से चार मील दूर था। वहाँ पहुँचने के लिए दो
मील तक चढ़ाई करनी होती थी। इसके अतिरक्त वर्षा ऋतु में रास्ते में पड़ने वाली नदी
को पार करना बड़ा संकटमय होता था। इतनी सारी समस्याएँ होते हुए भी वंशीधर ने हार नहीं
मानी और पुत्र का नाम नये स्कूल में लिखा दिया। जब सायंकाल मोहन स्कूल से थका हुआ घर
लौटता था तो वंशीधर उसे उन विद्यार्थियों की कथाएँ सुनाकर उसका उत्साह बढ़ाया करते
थे, जिन्होंने विद्या प्राप्त करने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ पार की थीं।
विशेष-लेखक
ने इस अंश द्वारा संकेत किया है कि शिक्षा का जीवन में भारी महत्व होता है। समझदार
और दूरदर्शी अभिभावक संतान को हर कष्ट सहन करते हुए शिक्षा दिलाया करते हैं।
प्रश्न :
1. मास्टर त्रिलोक सिंह की भविष्यवाणी मोहन ने कैसे सत्य कर दिखाई
?
2. वंशीधर क्या सपने देखने लगे थे?
3. विद्यालय जाने और आने में मोहन को क्या कठिनाइयाँ होती थीं ?
4. वंशीधर अपने पुत्र का उत्साह किस प्रकार बढ़ाया करते थे?
उत्तर
:
1.
मास्टर त्रिलोक सिंह द्वारा मोहन के बारे में भविष्यवाणी की गई थी कि वह एक दिन अपने
विद्यालय और उनका नाम रोशन करेगा। मोहन ने परीक्षा में बहुत अच्छे अंक पाकर और छात्रवृत्ति
का पात्र बनकर इस भविष्यवाणी को सच कर दिखाया।
2.
वंशीधर अपने पुत्र की सफलता देखकर एक दिन उसके उच्च पद पर नियुक्त होने और बड़ा आदमी
बन जाने के सपने देखने लगे।
3.
विद्यालय मोहन के गाँव से चार मील की दूरी पर था और रास्ते में एक नदी भी पार करनी
पड़ती थी जो बरसात के मौसम में बाढ़ आने से दुर्घटना होने की आशंका पैदा कर देती थी।
4.
वंशीधर पुराणों की कथाओं के ज्ञाता थे। जब मोहन विद्यालय से थका-हारा घर लौटता था तो
वह उसे पुराणों में वर्णित उन विद्यार्थियों की कथाएँ सुनाया करते थे, जिन्होंने विद्या
प्राप्त करने में बहुत कठिनाइयाँ सहन की थीं। इससे , वह पुत्र का उत्साह बढ़ाया करते
थे।
8. औसत दफ्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए
मोहन को अपना भाई-बिरादर बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू
नौकर से अधिक हैसियत वह नहीं देता था, इस बात को मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत
हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा
दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र
शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया।
उसका
जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा। साल में एक बार गर्मियों की छट्टी में गाँव जाने
का मौका भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन
छुट्टियों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम पर उसे शहर में ही गुजार देना पड़ता था।
अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा-असुविधा
का था। मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था क्योंकि और कोई चारा भी नहीं था।
घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था। वंशीधर उसके सुनहरे
भविष्य के सपने देख रहे थे।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। इस अंश में लेखक ने मोहन की आगे पढ़ाई
की जिम्मेदारी लेने वाले गाँव के रमेश नामक युवक की चालाकी और मोहन के भविष्य को बिगाड़ने
की करतूतें उजागर की हैं
व्याख्या
-
रमेश एक साधारण दफ्तरी या बड़ा बाबू था लेकिन वह मोहन का परिचय अपने सम्बन्धी के रूप
में नहीं दिया करता था इसमें उसे अपनी बेइज्जती अनुभव होती थी। उसकी दृष्टि में मोहन
केवल उसका घरेलू नौकर था। धीरे-धीरे यह बात मोहन भी समझ गया था। वह वंशीधर से यह कहकर
मोहन को साथ ले गया था कि वह उसका अच्छे स्कूल में प्रवेश करा देगा। मोहन उसके घर के
एक सदस्य के रूप में रहेगा।
लेकिन
जब मोहन के स्कूल में प्रवेश की बात आई तो उसने बहुत बेमन से उसका दाखिला एक साधारण
से स्कूल में करा दिया। परिणाम यह हुआ कि मोहन जैसा मेधावी छात्र वहाँ के एकदम नए वातावरण
के कारण और घर के कामों के बोझ के कारण, अपनी प्रतिभापूर्ण पहचान नहीं बना पाया। उसका
उज्ज्वल भविष्य अंधकारमय होता गया। घर का सारा काम करना और विद्यालय हो आना ही उसकी
दिनचर्या बन गई।
उसे
घर के नौकर जैसा जीवन बिताना पड़ रहा था। साल में केवल एक बार गर्मी की छुट्टियों में
घर जाने दिया जाता था। वह भी तब जबकि रमेश के घर का कोई सदस्य किसी काम से गाँव जाता
था। वरना सारी छुट्टियाँ उसे शहर में रहते हुए ही गुजारनी पड़ती थीं। बहाना यह बनाया
जाता था कि वह अगले वर्ष की पढ़ाई की तैयारी करे। असली कारण तो यह होता था कि मोहन
के बाहर जाने से रमेश के परिवार को असुविधा होती थी। मोहन भी क्या करता, उसने अपने
आप को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लिया था। वह अपने घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति
भी नहीं बताना चाहता था। इससे उसके पिता के सपने चूर-चूर हो जाते।
विशेष
:
1.
लेखक ने एक निर्धन परिवार के होनहार पुत्र की दयनीय दशा से परिचित कराया है।
2.
लेखक संदेश देना चाहता है कि धन के अभाव में, समाज के मेधावी बालक किस प्रकार अपना
भविष्य उज्ज्वल बनाने से वंचित हो जाते हैं। उनको सही मार्गदर्शन और सहयोग मिलना चाहिए।
प्रश्न :
1. रमेश बाबू मोहन को किस रूप में अपने घर में रखे हुए थे?
2. मोहन शहर के स्कूल में अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाया ?
3. छुट्टियों में भी मोहन को शहर में क्यों रहना पड़ता था?
4. मोहन ने अपनी परिस्थितियों से समझौता क्यों कर लिया था ?
उत्तर
:
1.
रमेश बाबू लखनऊ में मोहन को पढ़ाने के लिए ले गये थे, मोहन को अपनी बिरादरी का बताने
में उनको संकोच होता था। उनके घर में मोहन की हैसियत एक नौकर जैसी थी। वह घर के सभी
कामकाज निपटाता तथा पड़ोसियों के भी काम कर देता था।
2.
गाँव के स्कूल में मोहन एक कुशाग्र-बुद्धि छात्र समझा जाता था, किन्तु शहर के स्कूली
जीवन में वह अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। क्योंकि यहाँ का वातावरण एकदम अलग था और
दिन-रात घरेलू कामकाज के बोझ में दबा मोहन पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाता था।
3.
छुट्टियों में भी मोहन को शहर में ही रहना पड़ता था। बहाना यह था, कि वह अगले दर्जे
की तैयारी कर रहा है। किन्तु वास्तविकता यह थी कि रमेश बाबू अपनी सुख-सुविधा को ध्यान
में रखकर उसे छुट्टियों में गाँव नहीं जाने देते थे।
4.
मोहन जानता था कि उसके पिता गरीब है; उनसे यदि अपनी परेशानियों के बारे में कुछ कहेगा
तो भी वे कोई दूसरी व्यवस्था नहीं कर पाएंगे अतः मजबूरी में ही उसे रमेश बाबू के घर
रहना पड़ रहा था। उसने अपनी परिस्थितियों से इसलिए समझौता कर लिया था क्योंकि उसके
पास और कोई चारा न था
9. वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता तो वे उत्साह
के साथ उसकी पढ़ाई की बात बताने लगते और मन ही मन उसको विश्वास था कि वह एक दिन बड़ा
अफसर बनकर लौटेगा। लेकिन जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो न सिर्फ गहरा दुःख हुआ
बल्कि वे लोगों को अपने स्वप्न-भंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए।
धनराम
ने भी एक दिन उनसे मोहन के बारे में पूछा था। घास का एक तिनका तोड़कर दाँत खोदते हुए
उन्होंने बताया था कि उसकी सेक्रेटेरिएट में नियुक्ति हो गई है और शीघ्र ही विभागीय
परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा। धनराम को त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी
पर पूरा यकीन था-ऐसा होना ही था उसने सोचा। दाँतों के बीच तिनका दबाकर असत्य भाषण का
दोष न लगने का सन्तोष लेकर वंशीधर आगे बढ़ गए थे। धनराम के शब्द-"मोहन लला बचपन
से ही बड़े बुद्धिमान थे", उन्हें बहुत देर तक कचोटते रहे।
संदर्भ
एवं प्रसंग-प्रस्तुत. गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। पुत्र की शिक्षा के बारे में वास्तविकता
का ज्ञान होने पर वंशीधर को जो आघात लगा उसका वर्णन इस अंश में हुआ है।
व्याख्या
-
वंशीधर ने बेटे को उच्च शिक्षा पाने के लिए बाहर भेजा था। अत: जब भी गाँव का कोई व्यक्ति
उनसे मोहन के बारे में पूछता था तो वह बड़े उत्साह के साथ उसकी पढ़ाई के बारे में बताने
लग जाते थे। उनको पूरा विश्वास था कि एक दिन उनका बेटा एक बड़ा अधिकारी बनकर घर लौटेगा।
परंतु जब उन्हें मोहन के साथ पढ़ाई के नाम हुए धोखे का पता चला तो उनके मन को गहरा
आघात लगा। अब उनको साहस नहीं होता था कि वह अपने टूट गये सपने की सचाई लोगों को बतायें।
धनराम
ने भी उनसे एक दिन मोहन के बारे में पूछा था। वंशीधर उसे सच बताने की हिम्मत नहीं कर
पाये। उन्होंने धर्मशास्त्र के अनुसार झूठ बोलने के पाप से बचने के लिए एक तिनका दाँतों
में दबा लिया और धनराम को बताया कि मोहन सेक्रेटेरियेट (सरकारी सचिवालय) में अधिकारी
नियुक्त हो गया था। वह अपने विभाग की कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के बाद एक और ऊँचे
पद पर पहुँच .. जाएगा। धनराम ने वंशीधर की बात पर बिना किसी शंका के विश्वास कर लिया
था। उसने कहा कि मोहन बचपन से ही बड़ा बुद्धिमान था। धनराम के ये शब्द वंशीधर के हृदय
में बाण के समान चुभते रहे। वे चुपचाप वहाँ से आगे बढ़ गये थे।
विशेष
: एक वृद्ध पिता के सपनों को चकनाचूर होने पर उसके मन की दशा का बड़ा हृदयस्पर्शी वर्णन
हुआ है।
प्रश्न :
1. वंशीधर का सपना क्या था वह क्यों टूट गया ?
2. वंशीधर ने मोहन के विषय में धनराम को क्या बताया ?
3. वंशीधर ने दाँत में तिनका दबाकर धनराम को मोहन के बारे में क्यों
बताया ?
4. 'मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे' ये शब्द वंशीधर को बड़ी
देर तक कचोटते रहे क्यों ?
उत्तर
:
1.
वंशीधर अपने पुत्र की पढ़ाई के बारे में बड़े उत्साह से बताया करते थे। उनको विश्वास
था कि एक दिन उनका बेटा बड़ा अफसर बनकर आएगा किन्तु जब उन्हें मोहन की वास्तविक दशा
का पता चला तो उनका यह सपना टूट गया।
2.
वंशीधर ने अपने पुत्र मोहन के विषय में धनराम को बताया कि उसकी नियुक्ति सेनेटेरिएट
(सचिवालय) में हो गई है और शीघ्र ही विभागीय परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा।
3.
वंशीधर ने दाँत में तिनका दबाकर धनराम को मोहन के बारे में इसलिए बताया क्योंकि वे
असत्य भाषण कर रहे थे और चाहते थे कि असत्य भाषण का दोष उन्हें न लगे।
4.
मोहन के बारे में उसके पिता से यह जानकर कि वह सेक्रेटेरिएट में लग गया है, धनराम ने
टिप्पणी की कि 'मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान् थे किन्तु ये शब्द वंशीधर को बड़ी
देर तक कचोटते रहे क्योंकि उन्होंने मोहन की वास्तविकता के बारे में धनराम को नहीं
बताया था। वास्तव में मोहन बेरोजगार था और वंशीधर के सारे सपने टूट चुके थे।
10. मोहन का यह हस्तक्षेप इतनी फुर्ती और आकस्मिक ढंग
से हुआ था कि धनराम को चूक का मौका ही नहीं । मिला। वह अवाक् मोहन की ओर देखता रहा।
उसे मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का
इस तरह के काम में उसकी भट्टी पर बैठकर हाथ डालने पर हुआ था। वह शंकित दृष्टि से इधर-उधर
देखने लगा।
धनराम
की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे
के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति
पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी-जिसमें न स्पर्धा थी और
न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में. संकलित
शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' से लिया गया है। इस अंश में मोहन द्वारा लोहारी के
काम में अपनी-दक्षता का परिचय दिया गया है।
व्याख्या
-
धनराम की भट्ठी के समीप बैठा मोहन उसके काम का बारीकी से निरीक्षण कर रहा था। उस समय
धनराम एक मोटी छड़ को भट्ठी में तपाकर गोलाई में मोड़ने का प्रयत्न कर रहा था किन्तु
वह सफल नहीं हो पा रह्म था। अचानक मोहन ने धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर थोड़ी-सी देर
में ही छड़ को इच्छित आकार दे दिया। मोहन ने यह काम इतनी फुर्ती और अचानक कर डाला था
कि धनराम को अपने काम में गलती करने का मौका ही नहीं मिला। वह तो मोहन की ओर चकित होकर
देखे जा रहा था।
उसे
मोहन की कारीगरी पर आश्चर्य हुआ ही लेकिन उससे भी अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि गाँव
के प्रतिष्ठित परिवार का युवक, उसकी भट्ठी पर आकर बैठा है और उसके काम में हाथ डालकर
बिना किसी संकोच के लोहारी का काम कर रहा था। लेकिन मोहन का ध्यान धनराम के संकोच,
असमंजस और धर्म-संकट की ओर नहीं था। वह तो बड़े आराम से अपने द्वारा बनाए गए लोहे के
उस छल्ले की जाँच करने में लगा था।
वह
देख रहा कि गोलाई में कोई कमी तो नहीं रह गई। मोहन ने अब धनराम की ओर देखा जैसे वह
नित्य प्रति लोहारी का काम करने वाले धनराम से अपनी निपुण कारीगरी को स्वीकार कराना
चाहता था। उस समय मोहन की आँखें। एक कुशल कारीगर होने की प्रसन्नता से चमक रही थीं।
वह न तो धनराम से होड़ करना चाहता था और न उसके मन में हारने-जीतने का कोई भाव था।
विशेष
- इस अंश में कहानी की चरम स्थिति सामने आती है। एक ब्राह्मण द्वारा लोहारी स्वीकार
करना उस समय एक साहसपूर्ण काम था।
प्रश्न
1. धनराम को किस बात पर आश्चर्य हो रहा था?
2. धनराम शंकित दृष्टि से इधर-उधर क्यों देख रहा था ?
3. धनराम के धर्म-संकट से उदासीन मोहन उस समय क्या जाँच रहा था ?
4. मोहन की आँखों में क्या भाव था?
उत्तर
:
1.
धनराम को मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना कि इस बात पर आश्चर्य हुआ
था कि ब्राह्मण परिवार का (एक ऊँची जाति का) व्यक्ति उसकी भट्ठी पर बैठकर 'लोहारगीरी'
के काम में उसका हाथ बँटा रहा था।
2.
धनराम के लिए यह बात इसलिए अजूबा थी कि गाँव का कोई उच्चकुलीन व्यक्ति लोहार के यहाँ
बैठता नहीं था। खड़े-खड़े ही वे अपना काम करा ले जाते थे। यही नहीं उनसे बैठने के लिए
कहना उनका अपमान समझा जाता था। किन्तु आज ब्राह्मण कुल का मोहन उसके यहाँ बैठकर उसके
काम में हाथ बँटा रहा था। धनराम ने चोर नजर से इधर-उधर यह जानने के लिए देखा कि कहीं
गाँव का कोई व्यक्ति मोहन को वहाँ बैठा देख तो नहीं रहा, इससे गाँव में अशान्ति फैलने
का डर था, क्योंकि यह असाधारण घटना थी।
3.
धनराम की दृष्टि में संकोच, असमंजस एवं धर्म-संकट था, किन्तु मोहन उस ओर से उदासीन
था। वह सन्तुष्ट होकर लोहे के उस गोल छल्ले की गोलाई को जाँच-परख रहा था, जिसे उसने
अपनी कुशलता से आकार दिया था।
4. अपने द्वारा बनाए गए छड़ के गोले की निर्दोष बनावट देखकर मोहन की आँखें प्रसन्नता और सन्तुष्टि से चमक रही थीं। इस चमक में न तो धनराम से होड़ करने की भावना थी और न हारने-जीतने का भाव। वह तो एक कारीगर के आत्मसन्तोष की चमक थी।