खोरठा लोक साहित्य का वर्गीकरण
लोक
साहित्य वस्तुतः लोक मानस की ही अभिव्यक्ति है अतः इसे जन-जीवन का दर्पण भी कहा
जाता है, क्योंकि यह जनमानस को प्रतिबिंबित करता है। गाँव-देहात के आम जन अपने
जीवन के उतार-चढ़ाव में जो अनुभूतियाँ प्राप्त करते हैं, अनायास उनके कण्ठ से जो
स्वर लहरी फूट पड़ती है चाहे वह गीत के रूप में हो या कहानी-पहेली के रूप में, उसे
हम लोक साहित्य के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं। समस्त खोरठाँचल में प्राप्त लोक
साहित्य को हम निम्नलिखित वर्गों में रख सकते हैं-
(1)
लोकगीत
(2)
लोक कथा
(3)
प्रकीर्ण साहित्य
(4)
लोकगाथा
(5)
लोक नाट्य ।
खोरठा लोक गीत
आदिम
मानव जब अपने सुख-दुख से आन्दोलित हुआ होगा तभी उनके कंठ से लोकगीतों की धारा
प्रस्फुटित हुई होगी। लोक गीतों के उद्गम से संबंधित डॉ. देवेन्द्र सत्यार्थी के
विचार मननीय है- “कहाँ से आते हैं इतने गीत ? स्मरण-विस्मरण की आँख-मिचौनी से! कुछ
अट्टहास से। कुछ उदास हृदय से कहाँ से आते हैं इतने गीत? वास्तव में मानव स्वयं
आश्चर्यचकित हैं। ये असंख्य गीत असंख्य कंठों से असंख्य धाराओ में प्रवाहित हो रहे
हैं।" इसकी व्यापक परिधि की चर्चा करते हुए डॉ. श्याम परमार लिखते हैं-
"स्त्री-पुरूष ने थक कर इसके माधुर्य में अपनी थकान मिटायी है, इसकी ध्वनि
में बालक सोये हैं, जवानों में प्रेम की मरती आयी है, बुढ़ों ने मन बहलाये हैं,
वैरागियों ने उपदेशों का पान कराया है,
बिरही
युवकों ने मन की कसक मिटायी है, विधवाओं ने अपनी एकांगी जीवन में रस पाया है, पथिकों
ने थकावट दूर की है, किसानों ने अपने बड़े-बड़े खेत जोते हैं, मजदूरो ने विशाल भवनों
पर पत्थर चढ़ाये हैं और मौजियों न चुटकुले छोड़ें हैं।" सृष्टि के आदिकाल में
सामाजिक चेतना के साथ ही लोक गीतों का उदय हुआ। इसलिए लोक साहित्य के मर्मज्ञ श्री
सूर्यकरण पारीक का विचार - "आदिम मनुष्य हृदय के गानों का नाम लोकगीत है, सही
है।
जहाँ
तक खोरठा लोक गीतों का अध्ययन है, यह क्षेत्र विपुल लोक गीतों का अक्षय भंडार है। सच
कहा जाय तो सम्पूर्ण खोरठा क्षेत्र में परिव्याप्त इनके लोक गीत ही खोरठा शिष्ट साहित्य
के जनक हैं। प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में अरण्याच्छादित कर्मभूमि के बीच, पार्वत्य
क्षेत्र की गोद में कलकल निनादित नदियों, झरनों, सरिताओं की असंख्य धाराओं के साथ इनके
लोकगीत, गली-मुहल्लों, चौपालों-आखराओं, ग्रामीण हाटों मेलों, खेत-खलिहानों में आज भी
गुंजारित हो रहे हैं। धनबाद से प्रकाशित दैनिक आवाज के संपादक स्व. ब्रह्मदेव सिंह
शर्मा के शब्दों में- "उपेक्षा की वजह से खोरठा पनप नहीं पायी है। किंतु जन-जीवन
में गीतों की लोकप्रियता ने इसे मरने नहीं दिया।" खोरठा लोकगीतों के संबंध में
मार्खम कॉलेज के संस्थापक एवं शिक्षाविद् प्राचार्य शिव दयाल सिंह “शिवदीप" का
विचार खोरठा के निम्नांकित शब्दों में द्रष्टव्य है- “आपन देसेक लगाइत एकतीस हजार वर्ग
किलोमीटरें पसरल-फइलल परकिरतिक खास आखरात्र खोरठा छेतर आपन लोकगीतें फुरचाहे।” खोरठा
के लोकगीत ही खोरठा क्षेत्र की पहचान हैं। इनके लोकगीत खोरठा क्षेत्र की संस्कृति के
संवाहक हैं। आगे श्री शिवदीप पुनः कहते हैं - खोरठा लोकगीत संसारेक भासा प्रेमी आर
बुजरूग सब के आपन बाट टाने ले आर भाव, रूप अरथ से परिचय पावे ले विजय कराय रहल ह ।
" गिरिडीह जिला के सीमान्त क्षेत्र संकरी नदी के किनारे खरगा पहाड़ की गोद में
बसी आबादी में हमें खोरठा के आश्चर्यचकित करने वाले लोकगीत मिले। उषा काल से रात्रि
के प्रथम पहर तक दैनंदिक जीवन में लोकगीत सुनने को मिला है। इसी क्षेत्र के लोकगीत
के रसिक वयोवृद्ध श्री बहादुर पाण्डेय "झिंगफुलिया” ने अनेक खोरठा लोकगीत मुझे
सुनाया। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि नानाविध लतादूमों से परिपूर्ण हरित वनप्रान्तर
के मध्य पर्वत श्रृंखलाओं, सर-सरिताओं के वातावरण में इनके भू-हृदयस्थली से निस्तृत
सदा सलिला कलकल निनादित सरिताओं और निर्झरों ने खोरठा क्षेत्र के निवासियों के जीवन
में गीत, संगीत और नृत्य को जन्म दिया। खोरठा लोकगीतों की प्रमुख विशेषताओं पर बिन्दुवार
एक नजर डालें -
1.
ये खोरठाँचल की मौखिक, अलिखित एवं पारम्परिक सांस्कृतिक निधियाँ है।
2.
कुछेक छोड़ कर अधिकांश इनके रचनाकार अज्ञात हैं।
3.
क्षेत्रानुसार खोरठा की बोलियों के उच्चारण स्वरूप कुछ शब्दों या पंक्तियों में स्थानगत
विभिन्नता विद्यमान है।
4.
खोरठा लोकगीतों में अश्लीलता का अभाव है।
5.
इनमें जातिवाद को बढ़ावा न देकर मानवता का स्पष्ट रूप परिलक्षित है।
6.
प्रकृति के विभिन्न रूपों की झलकियाँ मिलती हैं।
7.
भाई एवं बहन और स्त्री और पुरूष में असीम प्यार मिलता है।
8.
गीतों में संगीत और गेयता उपलब्ध है।
9.
गीतों में कृत्रिमता न होकर सरलता प्राप्य है।
10.
इनमें क्षेत्र और सीमा का बंधन नहीं है।
11.
छठी और विवाह संस्कार के कुछ लोकगीतों को छोड़कर इनके साथ वाद्य यंत्र बजाये जाते हैं।
12.
ये व्याकरण और भाषा विज्ञान के नियमों से परे हैं। 13. खोरठा के लोकगीत इनके पर्व-त्यौहारों
में समाहित हैं।
14.
खोरठा के लोकगीतों में श्रम की महत्ता वैशिष्ट्य है।
15.
खोरठा के लोकगीतों के करुण रस में भी आनंद समाहित है।
खोरठा लोक गीतों का वर्गीकरण
खोरठा
लोक गीतों को हम निम्नलिखित वर्गों में विभक्त कर सकते हैं- (क) संस्कार संबंधी (ख)
ऋतु (मौसम) संबंधी (ग) प्रकृति विषयक (घ) पर्व-त्यौहार संबंधी (ङ) श्रम संबंधी (च)
सहियारी (मित्रता) संबंधी (छ) विविध।
हमारे
भारत देश में विभिन्न क्षेत्रों और प्रान्तों में मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न संस्कारों
की मान्यताएँ हैं। यही संस्कार इनकी पहचान है। वस्तुतः लोक संस्कार से जनित मानव ही
आगे चल कर सुसंस्कृत होता है। फलस्वरूप संस्कार की विशेष महत्ता है। हमारे खोरठा क्षेत्र
में प्रमुख रूप से तीन संस्कार है। छठी (जन्म) विवाह और श्राद्ध संस्कार। इनमें से
श्राद्ध संस्कार को छोड़कर शेष छठी और विवाह संस्कार संबंधी लोकगीत असंख्य है।
(क)
संस्कार सम्बन्धी
छठी
(जन्म संस्कार) - छठी का अर्थ शिशु के जन्म का छठवाँ दिन जिसे नारता भी कहा जाता है।
इस दिन कुसराइन (दाई) द्वारा जच्चा-बच्चा को अच्छी तरह तेल हल्दी से नहलाया जाता है।
और माँ और पिता को क्रमशः हल्दी से रंगी साड़ी और धोती पहनाया जाता है। क्षौर कर्म
आस-पड़ोस के लोग करते हैं और हल्दी - तेल लेकर स्नान करते हैं। हल्दी का प्रयोग अधिकतर
लोग इसलिए करते हैं चूंकि हल्दी रोग निवारक औषधि है, यह वायरस और विषाणु का नाश करता
है। गाँव की औरतें नवजात शिशु को देखने आती हैं। साफ-सुथरे आँगन में एकत्रित होकर बैठकर
मंगलकामना हेतु मंगलगान करती हैं। उल्लास के वातावरण में लोकगीत के सुमधुर ध्वनियों
से गाँव मग्न हो जाता है। इस अवसर पर मुस्लिम भाट भी आते हैं और संस्कार गीत ( झांझन)
गाते हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है -
अंगना
में अइलइ ललनवाँ से
मंगलगीत
मिली गावा हो
ललना,
तिले-तिले बाढ़ैइ पुता / पुती अंगना में
सोहाइ
जितइ मायेक / दादिक कोरवा हो
उपर्युक्त
गीत की पंक्तियों को नवजात बच्चा या बच्ची के अनुसार औरतें गाली है। साथ ही नवजात के
रिश्तेदारों को लेकर शब्दों को बारी-बारी से पुनरावृति के जाती है।
बोनवाँ
बुललइ धोवइया फूलवा
बोनवाँ
इंजोर भेलइ हो
मइया
के कोखिया से बेटिया/बेटवा जनमलइ
अंगना
इंजोर भेलइ हो।
उपर्युक्त
गीत में प्रयुक्त हो शब्द के स्थान पर किसी-किसी क्षेत्र / गाँव में 'रे' का व्यवहार
होता है। एक और नमूना -)
नवों
जनम सुनी, बड़ी खुस मरद-जनी
कते-कते
फूलल बरिसे।
मंगना
सब अइला, कते-कते कि पइला
राजाक
घर खुसी बिकसे ।।
विवाह-खोरठा
के विभिन्न क्षेत्रों में विवाह लोकगीतों में काफी समानता है। इनमें सबसे बड़ी विशेषता
तो यह है कि विवाह संस्कार से सम्बन्धित जितने नेग (रीतियाँ) हैं, उतने ही लोकगीत हैं
यानि कोई भी रीति बिना लोकगीत से सम्पन्न होता ही नहीं। इनकी रीतियों का संचालन ब्राह्मण
(पुरोहित) की जगह इनके लोकगीत ही करते हैं। अतः कदम-कदम पर लोकगीतों की बहार विवाह
में देखने को मिलता है। गाँव की स्त्रियाँ, कन्यायें एकत्रित होकर सामूहिक रूप से मधुर
कंठ से जब गाती हैं। तो एक उल्लासमय वातावरण तैयार हो जाता है। खोरठांचल के विभिन्न
क्षेत्रों में अनुसंधान के क्रम में मैंने पाया कि खोरठा लोकगीतों में कभी हास्य तो
कभी रूदन छिपा रहता है, जो भावावेश में प्रस्फुटित होता है। विवाह संबंधी विभिन्न नेग
(रीतियाँ) निम्नलिखित है, जो खोरठा लोकगीतों से सम्पन्न किये जाते हैं- 1. सगुन (वर/कन्या)
2. आम/महुवा बीहा 3. हरदी रांगा (दुवाइरखुंदा) 4. जोग छेछा 5. लगन बांधा 6. पइरछन
( वर / कन्या) 7. उबटन पीसा, 8. बांध कोड़ा, 9. उबटन माखा, 10. घी ढारा 11. कुश उखरवा,
12. सिन्दूर खेला, 13. मॉड़वा छारा 14. सिन्दूर दान, 15. कलश राँगा, 16. समधी मिलन,
17. कलश थापा, 18. भोकरइन मोंगा (वर पक्ष), 11. पानी सहा 20. दुवाइर टेका, 21. पानी
काटा, 22. लावा लोक (कन्या पक्ष) 23. संग छोड़ोनी (कन्या पक्ष) 24. घर भोरा, 25. विदाई
26. खीर खियानी, 27. चोठारी, 28. सिकार खेला, 29. चुमान 30. मॉड़वा पूजा, 31. अइमलो
पिया, 32. अठमंगला 33. सिनाइ फेरा, 34. चउखपुरा।
वर
पक्ष के लोक गीतों में हास-परिहास, व्यंग्य, उल्लास और उमंग पाया है तो दूसरी ओर कन्या
पक्ष के लोकगीत बड़े ही करूण एवं हृदयस्पर्शी होते हैं। जाता यद्यपि करूण गीतों में
आन्तरिक उल्लास हिलोरें लेता रहता है। कन्या पक्ष की स्त्रियाँ जब गाती हैं। तो आनन्दाश्रु
आँखों से स्वाभाविक रूप से छलक उठते हैं। बेटी बिदाई के लोक गीतों की कुछ पंक्तियाँ
-
कन्या
पक्ष:-
हामर
नूनी हकइ मइया के दुलरिया
मइया
बिनु जइतइ हदिआइ
मइया
के देखी देखी अंखिया झझाइ गो
हामर
नूनी जइतइ ससुराइर
बापा
कांदइ घरें बहसी, मइया कांदइ पिड़े बइसी गो
अब
बेटी भेलिक पोहना गो
छोटो
बहिन कांदइ दुवारा बइसी, दीदी संगे जइबइ गो
दीदिकेर
नावाँ घरवा गो।
वर
पक्ष:-
बेटा
रे किया लइये जिबे ससूर घरा, किया लइये घुरबे रे
मइया
गो सीथा के सिंदूर लइ जिबइ, धनी लइये घुरबइ गो।
बेटा
रे तोर धनी बड़ी रूप सुंदर, संदूके भोराइल हो रे
मइया
गो एड़क मारी खोलबइ संदुकवा से
हामे
धनी देखबइ गो।
नेउ
के चाला बर बाबुक बाप
लागी
जितउ धोतिया में पाना रसेक दाग
लागे
देहु पाना रसेक दाग
आवो
तो..... जनमल धोइ देतो दाग
विवाह
संस्कार के हास-परिहास के लोकगीत -
फूल
अइसन भात समधी
फूल
अइसन भात हो,
एहो
भात बिग समधी
काटबो
तोर हाथ हो।
घर
गेलें समधिन पुछतो
कि
जे भेलो हाथ हो,
तनी
भात बिगल हलिये
काइट
लेला हाथ हो।
वर
पइरछन (स्वागत) के स्वागत में कन्या पक्ष की ओर से -
चोर
के जनमल बेटवा
अंधरिया
राती काहे अइले रे
हमर
दुवरियें कटहर है।
बोंदर
जइसन थोथना तोर
फार
जइसन दाँत रे
चेर....
अइले रे ।
वर
के सालियों में मुखों से निःसृत एक व्यंग्य-वाण-
तरें
तरें अमवाँ मंजर गेल
एहटा
लागउ दजबोरा हो ......2
दाढ़ी-
मिसी भँवरा गुंजइर गेल
एहटा
लागउ दजबोरा हो.....2
(ख)
ऋतु (मौसम) संबंधी
जन-मन
के अनुरंजन हेतु खोरठा क्षेत्र के विभिन्न भागों में विभिन्न ऋतुओं में लोकगीत गायन
की परम्परा चिरकाल से प्रचलित है। बैसाख जेठ की तपती दुपहरिया हो या सावन-भादो की रिमझिम,
पुष माघ की कुकुआती शीतल बयार के साथ खोरठा भाषा-भाषियों के मुखारविन्द से लोक गीत
अनायास फूट ही पड़ते हैं। इनके विभिन्न किस्म
निम्नलिखित हैं :-
निरइनियाँ,
खेमटा मोटा ताल, झूमटा, मेहीताल, लुझरी, रसधारी, मलहरिया, डहरूवा, रीझा, भदरिया, चांचइर,
भटियाली, घेरागीत, खासपेलिया, उदासी, गोलवारी, ढेलवा गीत, मोदीयाली, बारोमसिया, घसियाली,
डोहा, झिंगफुलिया।
उपरोक्त
गीतों का नामकरण उनके स्वर, ताल और लय पर निर्भर करता निरनियाँ मोटा-ताल, मेहीताल,
रसधारी एवं डहरूवा गर्मी के मौसम में गाये जाते हैं। भदरिया, भटियाली, खासपेलिया, गोलवारी,
मोदीयाली, घसियाली, झिंगफूलिया आदि लोकगीत सावन-भादो के महीनों में गाये जाते हैं।
वस्तुतः ये पावस ऋतु के लोकगीत हैं। चांचइर, घेरागीत, डोह शीतकालीन मौसम के हैं। इन
गीतों में ढोल, मांदर बाँसूरी, झाल (करताल) घमसा आदि लोक वाद्य यंत्रों का व्यवहार
होता है। सबसे ज्यादा गीत वर्षा ऋतु के हैं, जो भदरिया कहलाते हैं। प्रकृति के उन्मुक्त
प्रांगण में प्रकृत पुत्र आखिर प्रकृति के दूत पावस को अभिनन्दन में पीछे कैसे रहेंगे?
एक भदरिया का नमूना -
कहाँ
से उमड़ल कारी बदरिया
बल
सखी मोर।
बुंदे-बुँदे
बरिसय पनियाँ
गरजये
- बरिसये, घने - घने मलकये
बल
सखी मोर
उमगे
उमड़इ नदिया।
उपर्युक्त
पक्तियों में एक सखी दूसरी सखी को कह रही है - देखो सखी । आकाश में कहाँ से काले-काले
बादल उमड़ते हुए घिर आये हैं और फिर गरजते हुए बरसने भी लगे हैं। बीच-बीच में बिजली
कैसे हृदय को रोमांचित कर देती है।
लोकगीतों
का वर्ण्य विषय मौसम से संबंधित घटनाएँ होती है। बसंत ऋतु में गाया जाने वाला एक लोकगीत
का अंश द्रष्टव्य है-
बीतलइ
हेमन्त रितु, अइलइ बसन्त रे
हुलसल
हमर जिया, देखी रितुराज रे।
अम्बा
मंजर गेल, महुवा खोचाइ गेल
धरती
जे थथाइ भाई, नावाँ रंगेक पात रे।।
ऋतु
कुमार हेमन्त की समाप्ति के बाद ही फगुनाहट की बयार लिये मदमस्त ऋतुराज बसन्त आ धमका।
इस मौसम में आम के मंजर और महुवे के फुलों की मादक महक सम्पूर्ण अरण्यांचल के वातावरण
को मदमस्त कर देती है। हरे-भरे वृक्षो से परिपूर्ण यह धरती गौरवान्वित होने लगती है।
ऐसा सरस वर्णन खोरठा लोक गीतों की विशेषता है। एक प्रेयसी के अधरों से निःसृत -
अंबा
मंजरे मधु मातलइ रे
रे
तइसने पिया हमर मातल जाइ।
निरनियाँ
गीत गर्मी के मौसम में गाये जाते हैं। उनमें रसधारी प्रमुख है। रसधारी की टोलियाँ होती
है। जिसमें नर्तक (पुरुष), सूत्रधार (लाबार) और वादक होते हैं। ये टोलियाँ गाँव-गाँव
घूम कर चौपालों में नृत्य-गीत-संगीत का कार्यक्रम करते हैं। एक रसधारी लोक गीत का रसपान
करें-
कुल्हिायांइ
कुकुरा भुकइ, आंगनांइ भेसूरा सुतइ हो
गोड़े
के घूंघूरा बाजइ छम-छम कइसे के बाहर होवइ हो
ओढ़े
दे चदरिया, खोले दे घुंघरवा हो
कुकुरा
के कहक तनी चूप-चूप, कले -कल बाहर होबइ हो।
उद्धृत
गीतांश में - गरमी का दिन है। ऐसे मौसम में गाँव के लोग आंगन में खुले आकाश के नीचे
खटिया पर सोते हैं। नवविवाहिता घर के अन्दर सोयी है, उसे गरमी परेशान कर रही है। वह
बाहर गली में निकलना चाहती है, क्योंकि गली में पति सोया है। चूंकि आंगन में भेसूर
(पति का बड़ा भाई) सोया हुआ है। गली में कुता भी भीक रहा है। नवविवाहिता के पैरों में
घुंघरू है, बजने का भी डर है, इसी असमंजस में यह पड़ गई है।
शीतकालीन
खोरठा लोक गीतों में प्रमुख डोहा है। इसमें वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता है। घने
जंगलों के मध्य पार्वत्य प्रदेश में, मेला आते-जाते रास्ते में, रात्रि के अन्तिम प्रहर
में जब कोई रसिक सप्तम स्वर में डोहा हाँकता (गाता है, तब दूर तक वन प्रान्तर गूंज
उठता है। पशु-पछी तत्क्षण रूक से जाते हैं। राहगीर के कदम थम से जाते हैं, वह हृदय
को स्पंदित करने वाला डोहा के सुर को सुनने के लिये वह विवश हो जाता है। एक नमूना
-
पारसनाथेक
पहारे दइया रे
छल-छल
चेधे पोठी माछ
एक
पोठी धरलो दइया रे
दुवो
पोठी धरलो रे
अरे
तीन पोठी भइये गेल बिहान। ई....
जाड़े
के मौसम में घेरा गीत सुबह-शाम बड़े प्रेम से लोग गाते हैं। गायक अकेला होता है और
गाते समय वह घेरा ( डफली) बजाते चलता है। शाम को यह गीतगाँव के बीच लोग समूह में एकत्रित
होकर सुनते हैं। ये लोकगीत करुण रस के होते हैं, जो मार्मिक एवं हृदय स्पर्शी होते
हैं। मानव की जिन्दगी की क्षणभंगुरता को दर्शात एक घेरा गीत प्रस्तुत है -
चारी
पहरी राती बिनिया डोलावइ जी
भिनसरे
दम छुटी गेलइ रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
चाइर
जुवाना मिली खटिया उठावइ जी
लइये
गेलथिन दामुदरेक तीर रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
टूटल
खटिया भाई फूटल भोरसिया हो
दस-पाँच
लोक बरियात रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
चंदन
काठी केरी सरवा रचलड़ भाई
बेलपतरी
अगनी मुख देलइ रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
केहू
कांदई रे भाई जनम-जनम हो
केहू
कांदइ छवों मास रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
छुटी
गेलइ रे भाई गाँव- गरमवा हो
केहु
नाही संग संगतिया रे भाई
मानुस
जनम दिन चारी हो।
मनुष्य
की जिन्दगी चारी (बचपन, जवानी, प्रौढ़ और बुढ़ापा ) दिन की है। मर जाने के बाद चार
आदमी खाट उठाकर दामोदर नदी के तट पर दाह-संस्कार हेतु ले जायेंगे। आगे-आगे अग्नि की
हाँड़ी नाती लेकर जायगा। लोग शवयात्रा में शामिल होंगे। कुछ सगे-संबंधी चार-छ माह रोयेंगे
कुछेक वर्ष भर तक। फिर संसार की गति-विधि पूर्ववत जारी रहेगी। उपरोक्त निर्गुण लोकगीत
में गंभीर अर्थ छिपा है कि मानव अंहकार न करे।
(ग)
प्रकृति विषयक
पूर्व
अध्याय में हम अध्ययन कर चुके हैं कि खोरठा क्षेत्र झारखण्ड का एक महत्वपूर्ण अंग है।
झारखण्ड संस्कृति के विद्वान डॉ. राम दयाल मुण्डा के शब्दों में-- "खोरठा क्षेत्र
झारखण्ड की उत्तरी सीमा का प्रहरी है।" इसलिए कहना न होगा यह क्षेत्र प्रकृति
का उन्मुक्त प्रांगण है। हरे-भरे वन प्रन्तर जिसमें विचरण करते नानाविध पशु-पंछी, अहर्निश
सदासलिला दामोदर, बराकर, जमुनियाँ, संकरी, अजय मयुराक्षी जैसी नदियों पारसनाथ, चुटूपालू,
लुगू-जिनगा, महुदी, खरगा, सुन्दर पहरी जैसे छोटे-बड़े पर्वत सब मिला कर प्रकृति विषयक
लोक गीत सृजन का उपादान बनते हैं। इसलिए नागपुरी के विद्वान लेखक डॉ. बी. पी. केशरी
कहते हैं - “संगीत और नृत्य छोटानागपुर के प्राण है। यहाँ के कण-कण में स्वर -
माधुर्य
है। मुंडारी कहावत भी है- 'यहाँ चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है। प्रकृति वर्णन
से संबंधित कुछ गीतों के अंग -
झिंगफुलिया-
कउन
कुंजा बोने सखी ...2
तुरूरूरू
बाँसी बाजे, जागे हमर मने।
वसंत
फागुनेक दिने, टेसु फूले बोने... 2
पंचम
सूरे गावे कोकिल, मना नाहीं मानें
लाल
सलुका फूटे पोखरी के कोने
मुचुकी
मुचुकी हांसे चांद गगने।।
सखी
कउन कुंजा बोने।।
भदरिया-
कत्ते
खीने फूलो, हरदी रे झींगाफूल
कते
खीने फूले, लाले सालुकी फूल
कउन
पतइ लांबा लांबा कउन पतइ चीरा रे
कउन
पतइ हरियर, फोरे गोल-गोल रे ।।
आम
पतइ लावा-लांबा, तेतइर पतइ चीरा रे
लेबो
पतइ हरियार, फोरे गोल-गोल रे ।।
धागधिंगवा
(सोहराय) -
चंदा
उगलड़ दहदहिया हो
रिमझिम
रिमझिम बरिसे पनियां
हाय
रे दइया केटा-पुत्ता माछा मारे जाइ।
मेंहीताल-
छोटानापुरेक
धरतिया बड़ी मानोहारी
पाल्हा
पाते गीत गावे
टिल्हा
- टुंगरी ताल देवे
लुगु-
जिनगा-पारसनाथ
बोने
देख मेजुरेक नाच
नदी-नाला-जोरिया
मारे हेलकारी।
छोटा......
मनोहारी ।।
उपर्युक्त
गीतों में प्रकृति के फूलो फलों से परिपूर्ण बसंत, कोयल लतादी द्रुमों वर्षा, चन्द्रमा,
मयूर का नृत्य एवं पर्वत संबंधी वर्णन है- झिंगफुलिया गीत का वर्ण्य विषय है। सघन वन
प्रान्तर में करसहेलिका मधुवार्षिणी बाँसुरी की मनमोहक तान किसी ग्रामवाला के चित्त
को आन्दोलित कर रही है। कह रही है कि इस बसंत के मौसम में लाल-लाल टेसू फूल जंगल में
कितने सुन्दर, सुशोभित हो रहे हैं। आम्र मंजरियों के बीच कोकिला की सुमधुर ध्वनि काकली
सुनाई दे रही है, जलमग्न सरोवरों के किनारे लाल कुमुदिनी खिली हुई है, जिसे देख कर
रात्रि में गगन विहारी चन्द्रमा भी तो मित मुस्कान बिखेरते हैं। भटियाली खोरठा के एक
लोकगीत में अषाढ़ मास के प्रथम वर्ष के दौरान मछलियों के नृत्य का अवलोकन करें-
हाय
रे पानी डवरल जाइ
ई
दहेक मछरिया ऊ दहे चली जाइ
पानी
डबरल जाइ।
दहेक
भीतर लागल नाच
मलक
मारे पोठी मछ
मांगुर
मांदरिक संगे
गिरिजा
मातल मिरदंगे
बांसपोते
बसिया बाजाइ
हाय
रे........।
प्रकृति
विषयक एक और लोक गीत-
बेरिया
हो डुबिये गेल, झींगाफूल फूटि गेल
गाथे
दादा झींगाफूल, खोपवे लागाइबइ गो।
एक
बहन अपने भाई से मगन होकर निवेदन करती है - भैया, प्रतीक्षा करने के बाद सूर्यास्त
हो गया और झींगाफूल प्रस्फुटित हो गया। अब आप मेरे लिए माला गूंथ दे ताकि मैं अपने
माथे के बालो पर सजाऊँगी। खोरठा लोकगीतों में प्रकृति वर्णन सबसे अधिक वसंत एवं वर्षा
ऋतु से सम्बन्धित है।
(घ)
पर्व - त्यौहार संबंधी
प्रकृति
की सहचरी खोरटाँचल की भूमि की मूल सन्तति आडम्बरों और कर्मकाण्डों से दूर बिल्कुल सीधे
सरल और भोले-भाले हैं। प्रकृति से ही संबंधित इनके पर्व और त्यौहार विद्यमान हैं। सूर्य,
चन्द्रमा, धरती, अकाश, नदियाँ, पर्वत, वृक्ष, वन के प्रति अनुराग दर्शाना ही इनकी आराधना
है। सम्पूर्ण अस्तित्व से जुड़ने के लिए अथवा परम शक्ति से एकाकार होने के लिए किसी
विचीलिये पंडित, पुरोहितादि का सहारा ये नहीं लेते हैं। वैदिक संस्कृति से दूर ये लोक
संस्कृति से ज्यादा निकटस्थ है। ये उपने आराध्य को अपने, लोकगीतों के माध्यम से अपना
श्रद्धा अर्पण करते हैं। आइयें इनके प्रमुख त्यौहारों से संबंधित लोकगीतों को सुनें
-
क)
सरहुल - यह पर्व फागुन या चैत मास में मनाया जाता है। जब शाल वृक्षों में नये-नये कोपल
उगने लगते हैं। अपने कानों में शाल (सखुवे) के फूलों को खोंस कर ये जेहरा या सरना
(आराधना स्थल) जाते है, जहाँ उल्लासपूर्ण वातावरण में परस्पर नये वर्ष की शुभकानाएँ
देते हैं। तत्पश्चात् अबालवृद्धवनिता लोकगीत गा कर नृत्य करते हैं। सरहुल से सम्बंधित
एक लोक गीत की बानगी -
बीतलइ
माघ महीना, अइलड़ फागुनेक दिना
फूटी
गेलइ रे दइया सभे बनफूल
मनाइब
परव सरहुल।
आम-
जामें मकुल, फूटलो महुवाक फूल
फूटी
गेलइ र दइया सरड़या के फूल
मनाइव
परव सरहुल।
राग-रोस
नाही राखव
प्रेमेक
रंग गाते राखव
गोंजी
देवो रे दइया डहुरा के फूल
मनाइव
परव सरहुल।
तात्पर्य
है आनन्द और उमंग के पर्व सरहुल में आपसी वाद-विवाद, नफरत को हटा कर आओं, हम प्रेम
के रंग में डुब जायें और प्रतीक स्वरूप के फूल कानों में एक-दूसरे को खोंस दें।
ख)
सोहराय - खोरटा क्षेत्र में पशु आराधना का यह पर्व कहीं कार्तिक
में और कहीं पौष माह में मनाया जाता है। इस दिन किसान अपने हल-बैलों को नहला-धुला कर
अपने गौहाल (गौशाला) में पूजा-आराधना करते हैं। घर-घर में पूर्व-पकवान बनते हैं। अपने-अपने
शक्तिशाली बैलों और भैंसों का प्रदर्शन करते है। सप्ताह पूर्व नाच-गान का दौर चलता
है। सोहराय के लोक गीत तीन प्रकार के
हैं-
(1) गाय जगरना का एक लोक गीत द्रष्टव्य है-
खोजा
- खेजड़तें जारे, पूछा पृठइते जा
कोंद
हइ जे (अमुक) के घरा हो
आन
घरे नाच हलों, गाव-हलों
कारी
गइयें आनलों घुरायें हो।
चला
मीरा चला मीरा हमर गोला घर हो
हमर
गोलें करतो दुलार हो।
ढोल,
मांदर, झाइल के साथ पूरी टोली पशु आराधना के लिए भर रात गाँव के प्रत्येक घर में पहुँचती
है और आँगन में नृत्य गीत चलता है। कुछ ऐसे लोक गीत हैं। (2) जिन्हें चांचइर कहा जाता
है। एक चांचइर द्रष्टव्य है -
डांगर
डहरें घुरा उड़लइ हो
सभे
अहीर गेलां रे भोथाइ ।
गाढ़ा
- ढोड़ा नाभी भंइसी लागलइ
गोवार
छंउड़ा, रहलइ पेछुवाइ |
दुंदु
तो दुहलइ, फेचवा मोहलइ
बाँदरा
तो दउना लइके ठाड़।
हास्य
रस में सराबोर इस लोकगीत में डांगर (पशु) धूल उड़ाते निकले तो उड़ते धुल में सारे गोपालक
ढंक गये । अंधेरा का फायदा उठा कर उल्लू ने गाय को दूह लिया। मौके का फायदा उठाने के
लिए दोना लेकर बन्दर जी हाजिर हो गये।
(
3 ) हाराबदिया (प्रतियोगितात्मक) का एक उदाहरण-
एक
दिना गेल रहों गइया गोरखिया हो
मारी
लेलों फुचिये सिकार
आसी
रे चौरासी कुटुम नेतलों
सभे
कुटूम झोरें टिंडूवाइ।
ग)
करम परब - चूंकि खोरठा भाषा किसी जाति विशेष की भाषा नहीं है, खोरठा
क्षेत्र में वास करने वाले सभी वर्ग, वर्ण एवं जतियों की यह मातृभाषा है। इसलिए करम
परब सभी के लिए है। करम पर धान रोपनी के पश्चात् प्रत्येक वर्ष भादो शुक्ल एकादशी को
मनाया जाता है। प्रकृति से संबंधित यह त्यौहार पाँच से नी दिन तक मनाया जाता है। जौ,
गेहूँ, चना, कुरथी आदि अनाजों को नदी- सरिता के पास ले जाकर नहा-धोकर नदी की वालू टोकरी
में रख बोया जाता है। प्रतिदिन इसमें शुद्ध जल डाला जाता है। कई दिनों के पश्चात् ये
अंकुरित होकर पौधे का रूप ले लेते हैं जिसे जावा डाली कहा जाता है। प्रत्येक ग्राम
बालाओं की पृथक जावा डालियाँ होती है। प्रत्येक शाम को आखरा (नृत्य स्थल) पर एकत्रित
होकर जावा डालियों को बीच में रख कर चारो ओर लोकगीत गा कर नृत्य करती हैं। यह पर्व
भाई-बहनों के अटूट रिश्ते को जोड़ता है तो दूसरी ओर यह पर्व कर्म की महानता को प्रदर्शित
करता है। एकादशी के दिन पूरा गाँव जूही- चमेली, करवरी, चिलूम फूल, बेली, कमल, कुमुदिनी,
बेलन्दरी महक उठता है। नर-नारी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाचते गाते हैं। नृत्य, गीत
और संगीत का समाँ बंध जाता है। इस पर्व से संबंधित गीत के कई किस्में हैं जावा उठवा,
फूल लोरहा, जावा जगवा, डाइर - जगवा, झूमइर, डाइर भेंट करा और अन्ततोगत्वा विदाई | आखरा
के मध्य करम वृक्ष की डाली को (करम देवता का प्रतीक) गाड़ा जाता है। पुवे पकवान, पुष्प
और धान के नव किशलय इस पर चढ़ावे के रूप में चढ़ाते हैं और करमा-धरमा की कहानी सुनते
हैं। कर्म लोकगीतों के कुछ अंश की बानगी नीचे प्रस्तुत है -
जौ,
गहूम, कुरथी रोपी जावा लगउलों रे
हाय
रे सखी खेली... 2 जावा जगउलो रे।
लिकि
पिकी सरू-सरू जावा गाजार भेल भारी
हाय
रे सखी, नाची -नाची जावा जगउलों रे।।
आनली
करम काटी, गांड़ली करम राती
समे
नाचथ- गावथ कमरइती
ओ
हो रे करमाक राती
आखरा
थापली रीझें
जते
करमइती लुझे
बारी
देला प्रेमेक बाती
ओ
हो रे करमाक राती।
संगी
जोरी मिली मिसी
फूला
लोरल्हों सखी
से
हो फूला हो राती फूटी जाइ
जइसन
पिरिती लगाइ।
करमा-धरमा
की कहानी समाप्त होते ही ढोल, मांदर बाँसुरी, ढोल, नगाड़े लेकर रसिक युवक-युवती आखरा
में कूद पड़ते हैं, फिर शुरू होता है. विभिन्न लय, ताल, सूरों और रसों के साथ लोकगीत
जो सूर्योदय के साथ ही अन्त होता है।
एक
भदरिया लोकगीत-
आइज
रे करमेक राती
आवा
खेलव सॉंवरो झुमइर झीकाझोरी।
राइत
के पहरिया झुमइर झींगफुलिया
जावा
नाचब साँवरो, हाथे - हाथ जोरी।
करमाक
डाइर साजे, आखराक मांझे- मांझे
लागे
सोहान साँवरी, राइत के इंजोरी।
आवा
खेलब सॉंवरो झुमर झींकाझोरी ।
संगी-
जोरी मिली- मिसी, करम जगाइब हाँसी-खुसी
कौन
रसिका साँवरों, बजावे बाँसुरी ।
कुंजबोनेक
कोना-कोना, रीझे लागल वीजूबोना ।
चांद
हासे साँवरो, धरती निहोरी ।
आवा
खेलब साँवरो, झुमर झिकाझोरी ।
अन्ततोगत्वा
करम देवता की बिदाई-
जाहो-जाहो
करम गोसाइ
जा
कइये मास हो... 2
आवतो
भादर मास आनबो घुराइ
दिहा
दिहा करम गोंसाद, दिहा असीस हो
हमर
भइया जियतइ लाखें बरिस हो ।
घ)
बँउड़ी परब -
खोरठा क्षेत्र में बँउड़ी परब मकर संक्रान्ति के
पूर्व दिन - मनाया जाता है। इसे कहीं-कहीं बाँउड़ी या बाँड़ी और पुस परव कहते हैं ।
इस शब्द का अर्थ है, धान के बीज को पुआल से बाधना। नवान्न तैयार हो गया है, बीज को
सुरक्षित रख कर शेष अनाज को खाने-पीने की शुरूआत है। इसलिए नये अनाज विशेष कर चावल
को एक दिन धोया जाता है। दूसरे दिन ढेंकी से कूटकर चूर्ण किया जाता है। और तीसरे दिन
नानाविध रीति-रिवाज से उस चावल चूर्ण से पूवे पकवान बनाये जाते हैं। बिना तेल की बनी
रोटियाँ पड़नरइसका, खपैर पोड़ो, पीठा आदि के नाम से पुकारी जाती है। इस लोक पर्व में
नाना विध खोरठा के लोकगीत गाये जाते हैं -
पुस
पर अइलों घरे-घरें।
कि
चला साजइल |
बाँका
पीठा करा घरे-घरें ।।
पुस
परब (त्यौहार) दस्तक दे रहा है। देखी सजनी, अव घर-घर में वाक्य पीठा बनेगा। इस त्यौहार
में इस क्षेत्र की सर्वप्यारी सहेली 'टुसू' की भी याद ग्राम बालायें करती हैं। टुसू
से सम्बन्धित अनेक लोकगीत खोरठा में प्रचलित हैं-
एते
बोड़ो पुस परबें
रहले
तोंइ बापेक घरें।
मन
हमर कइसन करे
जइसन
'सौर माछे उफइल मारे।
ऐसे
सामूहिक लोकगीतों से सम्पूर्ण गाँव शाम को गुंजारित हो जाता है। इस पर्व में 'डोहा'
भी बिना वाद्य यंत्र के गाये जाते हैं। पर्व में मेलों का भरमार हो जाता है। मेलों
में सहिया (मित्रता) पताते हैं। बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण गाँवों में रहता है।
पर्व-त्यौहारों
का वर्णन करना इस ग्रन्थ का उद्देश्य नहीं है बल्कि इनसे संबंधित लोकगीतों की चर्चा
करना हमारा वण्य विषय है।
उपर्युक्त
झारखण्ड के चार प्रमुख त्यौहारों के अलावे अन्य सम्प्रदाय हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख, जैन,
बौद्ध और ईसाइयों के त्यौहार भी इस क्षेत्र में धू-धाम से मनाये जाते हैं। इसमें अधिकांश
औद्योगिक क्षेत्रों में इनकी धूम रहती है । पर इनमें खोरठा के लोकगीत नहीं पाये जाते
हैं। वस्तुतः औद्योगिक क्षेत्र (नगर) के अधिकांश वासिंदे बाहर के हैं। मूलवासियों की
पहचान इनके त्यौहार और त्यौहार से संबंधित लोकगीतों से होती है। कुछ मूलवासी धर्मान्तरित
हैं- यथा- ईसाई और अन्सारी, भाट। इनके त्यौहारों में खोरठा के लोकगीत न्यून हैं।
(च)
श्रम संबंधी
झारखण्ड
की प्रमुख पूंजी श्रम है। स्वाभाविक है यह खोरठा क्षेत्र की भी अनमोल संपति है। टाटा,
बोकारो, धनबाद, हजारीबाग, गिरिडीह, कोडरमा जिलों तथा संथाल परगना प्रमंडलों के खानों
और कारखानाओं का निर्माण यहाँ के निवासियों ने किया है। खोरठांचल के नर-नारी मेहनती
होते हैं। मेहनत की रोटी खाना इनके जीवन का सार्वभौम सत्य है । खेत-खलिहानों, वनों,
खान-कारखानों में स्त्री-पुरूष दोनों कंधे से कंधे मिला कर काम करते दिखाई पड़ते हैं।
इनके ऐसे परिश्रमी जीवन में उतार-चढ़ाव होना स्वाभाविक है। हर्ष-विषाद के क्षणों में
इनके लोकगीतों का सृजन होता है। आइये एक किसानी गीत को सुनें -
टाँड़ी
बुनबइ दाना, खेतें रोपबइ धाना, एहों
दूइब
धाने धरती सोहान, हम बनब किसान
अन
- पानी जीवेकेरी जान।
बुनबइ
तेलहन दाना, रोपबइ कातारी गना, एहो
तेल-
गुरे बनइ पकवान, हम बनब किसान ।
हाम्हूँ
किसानेक बेटी, संगे-संगे देबो खटी, एहो
आँचरे
पोंछबो तोहर घाम, सुना पिया किसान
अन
- पानी जीवेकेरी जान।
इस
गीतांश में किसान हल चला रहा है और गीत भी गा रहा है - मैं हल जोत कर खेतो में धन,
तेलहन आदि का बीज डालूंगा, इससे अन्न पैदा होंगे जिससे जीवन का भरण-पोषण होगा। तब किसान
की सहकर्मी कहती है- मैं तुमसे कम नहीं क्योंकि मैं भी किसान की बेटी हूँ। मैं भी तुम्हारे
साथ खेतों में काम करूँगी। हल जोतने पर तुम्हारे देह पर बहते हुए पसीने को मै अपनी
साड़ी के आँचल से पोछूंगी। खेतों में काम करते हुए ऐसे श्रमशील नर-नारी अन्यत्र दुर्लभ
हैं और दुर्लभ हैं इनके लोकगीत। खेती-किसानी संबंधी एक हास्य रस के लोकगीत को देखें
हार
जोतइ खेरवा, कुकुरे, बुनइ धान रे
वीनेक
बांदर ढेका फोरइ, लेढ़वे किसान रे।
बाधे
खोजइ रोपनी, हवइते बिहान रे
हाथी
दादा कादा करइ, खाये जलपान रे।
बिहिन
मारइ मुरुगें, लकरें धरे आइर रे।
गधा
काकु पानी झींटइ हाइर पाइर रे।
सभीन
मिली काज करलें हतइ हित रे
सभी
लोके एहे तरि जोरिहा पिरित रे।
भाव
है कि खरहा, कुत्ता, बन्दर, लकड़ा, बाघ, हाथी, मुर्गा, गधा खेत में खेती कार्य करने
में मस्त हैं। खेत में मेहनत करते हुए एक दूसरे को सहायता कर रहे हैं। रचनाकार कहता
है कि जब जंगली जीव खेती-बाड़ी कर सकते हैं तो हम क्यों न करें। सामूहिक खेती करने से
परस्पर प्रेम बढ़ता है। कर्मशील खोरठा क्षेत्र में दिन भर नर-नारी श्रम करते हैं। शाम
को लोकगीत का तो आखरा जमता है। प्रायः सभी गाँवों में मांदर-ढोलक की आवाज सुनाई देती
है और उसके साथ सुनाइ देते हैं इनके लोकगीत। जब इस क्षेत्र में कल-कारखानों की शुरूआत
होने लगी तो अधिकतर किसान मजदूर बन गये और फिर हो गया सृजन लोक गीत का -
कामी
जुग अइलउ भारी
चन्दरपुराअ
उरू घुरू, माराफरी काम सुरू
आई
गेलउ डीजल गाड़ी, भाइय देलो घर-बारी
कुली
रेजा गेला कते चढ़ी
कामी
जुग अइलउ भारी।
चला
जिबइ कोयला के वसरिया रे
कोयला
काटी करबइ मजदूरिया रे ।
बराकर
दामुदर के धरिया रे ।
कोयला
काठी करबइ मजदुरिया रे ।
कामी
(कर्म) युग आ गया। कल-कारखाने, खदान कोयला वासरी का निर्माण प्रारंभ हो गया है। आओ
मिल कर हम सब मेहनत करेंगे। सरकार के फैसले को हम मिल स्वागत करेंगे। रीक्षा लय पर
आधारित एक श्रम संबंधी लोकगीत का अवलोकन करें-
माराफारी
काम खुजलउ, बाहरेक लोक करे ठीकेदारी
हमर
धरती कोयला- सोना, तावो हामिन भिखारी ।
माराफारी
(बोकारो इस्पात नगर) में कारखाने की शुरूआत हो गई है, परन्तु बाहर के आदमी यहाँ ठीकेदारी
कर फल-फूल रहे हैं। हमारी बर्ती रत्नगर्भा होते हुए भी आज हम शोषित, पीड़ित और भीखारी
बने हुए हैं।
(छ)
सहियारी गीत
पूर्व
अध्यायों में हम पढ़ चुके है कि झारखण्डी संस्कृति क्षेत्र की बहुतांश भूमि खोरठा क्षेत्र
है। इस संस्कृति में लिंग, जाति, क्षेत्र, वोली वर्णादि में काफी समानता है। यहाँ समतावादी
संस्कृति, अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित है। जो विश्व में अनूठी है। आज जव
कि हमारा देश सांस्कृतिक प्रदूषण से प्रदूषित हो रहा है। पश्चिमी संस्कृति की नकल से
दिनोंदिन अपसंस्कृति बढ़ रही है ऐसी परिस्थिति में अपसंस्कृति के निवारणार्थ इस क्षेत्र
की समतावादी संस्कृति हमारे देश के लिए प्रेरणा का म्नोत वन सकती है। इस क्षेत्र की
सहियारी (मित्रता) इस संस्कृति का प्रमुख तत्व है। इस क्षेत्र में सहिया को मित्र कहा
जाता है। कहीं-कहीं फूल भी कहा जाता है। महिला मित्र को सहियान या फुलिन कहा जाता है।
सहियारी (मित्रता) के प्रमुख तत्व-
1.
सहिया / सहियान दोनों भिन्न-भिन्न जाति के होते हैं।
2.
दोनों का हम उम्र होना चाहिए।
3.
विपरीत लिंगों में सहियारी नहीं होती है अर्थात् पुरूष का सहिया पुरूष के साथ और महिला
की सहियान महिला के साथ।
4.
दोनों के पेशा या सन्तान या नाम या विचार समान होते हैं।
5.
सहिया बनने के बाद जीवन के सुख-दुख में परस्पर भागीदारी निभाते हैं।
6.
सहिया बनने या बनाने का अधिकतर निर्णय मेलों या पर्यटन स्थलों में लिये जाते हैं।
7.
सहिया बनने के दिन दोनों सहिया उपवास करते हैं। अपराहून एक-दूसरे का घर बाजे-गाजे के
साथ जाकर एक-दूसरे को पुवे-पकवान, मिठाई, धोती-साड़ी भेंट करते हैं। नदी से लाया गया
पवित्र जल से आम्र पल्लव द्वारा व परस्पर अभिषेक कर उल्लासपूर्ण वातावरण में फूलखोसी
करते हैं। जीवन में सुख-दुख में भागीदारी निवाहने की कसमें खातें हैं। सहियारी लोकगीत
का नमूना -
जाइत
छोइड़ आन जाइत घरें
सहिया
पाताइ घरे-घरें। ......... रंग
जकर
संगे जोड़ा मेसाइ
से
नाता कभूं ना सिराइ
आपन
उकित सुरें पियारेक डोरे... रंग
घरेक
पुरखाक करे मान
मधे
गागरा गावे गान
जाइ
चलल सहियाक घरें.... रंग
जनी
- मरद सभे जाय
जइसन
चले बरियात
देखी
हुबें-हुइलें मन भोरे-रंग
अर्थ-अपनी
जाति छोड़ कर अन्य जाति से सहिया पताया जाता है। सभी रिश्तों में ऊँचा सहियारी (मित्रता)
होती है। अपने पूर्वजों की इस परम्परा को याद करते हुए सहियारी की जाती है। ताकि आपस
में प्रेम बढ़े और समाज का वातावरण सौहाद्रपूर्ण बना रहे। दूसरा गीतांश -
आम
पतइ पातांइ-पातांइ
गुवा-पानी
सुपारी सजाइ
सहिया
के करबड़ मान हो
सहिया
जोरा सभे झन हो
हामें
तोहर तोंहे हमर
भाभा
ईटा मनेक भीतर
भुलिहा
ना सहिया मोरे
सहियाक
टेप सहिया घरे।
उपर्युक्त,
गीतांश में कहा गया है कि आम्र पल्लव, पान-सुपारी देकर सहिया का हम मान बढ़ाऐ। आइये
मिल कर इस लोकप्रथा की परम्परा को बरकरार रखें। एक दूसरा गीत -
हिन्दू-मुसलमानें
सहिया पतावली
मुदइ
के आँखी सोनू दूध
भांड़े
ले करइ बड़ी बुइध
बाप
दादाक जोरल नाता कइसे भांगबइ
कइसे
मानवइ छुआ-छूत
भाँड़े
ले करइ बड़ी वुइध |
सहिया
के फूल देखी
हरखि
उठलो सखी
रीझे
रंगे हो हाम्हूँ सहिया पताइब
जइसन
सहिया हे बइसन पिरिती लगाइब।
सहियारी
की अपार मित्रताभाव को देखकर एक दूसरे को भी सहियारी के लिए इच्छा प्रबल हो उठी। वह
कहता है कि मैं भी किसी के साथ सहियारी करूँगा और जीवन भर साथ निबाहूँगा।
इस
गीत का अर्थ है एक हिन्दू महिला किसी मुसलमान महिला से सहिया पतायी, पर कुछ स्त्रियाँ
डाह (ईर्ष्या) कर रही हैं। परन्तु दोनों बेपरवाह हैं और कहती हैं कि हमलोग छुआछुत नहीं
मानते हैं जिसको जलना है तो जले। हमलोगों ने सहिया (मित्रता) निवाहने की कसम खा ली
है। सहिया की महता निम्न लोकगीत से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है -
गुड़
सोवाद, मिसरी सोवाद आर सोवाद चीनी रे
चीनी
ले जे आरो सोवाद सहिया हमर धनी रे।
सिमइर
फूल पियार, चिलुम फूलो पियार
से
हो ले उपरें पियारे, सहिया के ले गनी रे।
सिन्दूर
लाल, गेरू लाल, आरो ललका रंग रे
तकरो
ले टहटह लाल, सहिया लागे धनी रे।
लोक
गीत का भाव है गुड़, मिश्री और चीनी से भी मीटा मेरा सहिया है। सेमल, चिलूम फूल से
ज्यादा प्यारा मेरा सहिया है । सिन्दूर, गेरू, लाल से अधिक लाल मेरा सहिया है।
(ज)
विविध लोकगीत
संस्कार,
मौसम, प्रकृति, पर्व, श्रम तथा सहियारी सम्बन्धित लोकगीतों के अलावे असंख्य लोकगीत
ऐसे हैं । जो जीवन की संस्कृति को दर्शाति हैं, जिनके लोक जीवन में बहुत ही महत्व है।
ये गीत अकेले या सामूहिक रूप में गाये जाते हैं। कुछ लोकगीतों के नमूने नीचे दिये गये
हैं -
शिक्षा-
पिया
पोढ़े नाइ छोड़िहा
झलफले
उठे खनी
नीम
दोतइन लोटे पानी
देवोहो
पिया, पोढ़े नाँइ छोड़िहा
करम
कांठे खड़म छोलाइ
झलमल
थइली टिपाइ
देवोहो
पिया हमरो पढ़इया
पिया
पोढ़े नाइ छोड़िहा |
माटी-
मात्र,
माटी बोनेक झूर
नाक
हमर छोटानागपुर
गाथ
हमर पारसनाथ
लागो
हमर बहियाँ
भइर
हमर पनियाँ
दागूदर-बराकर
हाथ
माथ
हमर पारसनाथ ।
जनी
सिकार - (महिला शिकारी)
बारो
बछरे भइया जनी सिकार।
बहिनी
के मुड़ें भइया पगरी बंधाई
नाम
जगवले मइया जनी सिकार।
चंपा,
सिनगी, कइली दइक भइया
इयाद
करावे भइया जनी शिकार |
ढेलुवागीत
- (झूला) -
आमा
तरें सुतलें रे दादा
नीमा
तरें रे चोर
भउजी
केरी बिछिया रे दादा
लइये
गेलइ रे चोर ।
बन्दर
नाच-
धान
बुनो, धान बुनो कोइया कानारी
समधी
के गीदर-बुतरू सभे अनारी ।
धान
बुनो, धान बुनो बीचे खोंधोरी
समधी
के दूगो माग, दूइयों अंधरी ।
मधुपुरेक
दाइल-चार रामगढ़ेक के पानी
अलइग-अलइग
भात रांधे नागपुरक रानी ।
बालगीत-
झिमझिमालों
झिमालों
मायें-बायें
खाइ लो
हमरा
नाञ देलो
गजरधूम
पटासूम
उपर
कुल्ही गीदर कांदे ओहे रे
हेंट
कुल्ही गीदर कांदे कोहे... 2
झक्का
झुमइर खेले दे
लिखिया
पटापट मारे दे... 2
नशाबंदी
दारू
पीके मारलें मोरा, रे मुंहजारा ... 2
गाइ-भंइस
बेच देते
दूध
छाड़ी दारू पीले
तनिको
नाइ लाज हो तोरा ।
हित-
नाता सभे छुटल
छउवा-पुता
भूखे सुतल
घरा
के नाञ फिकिर हो तोरा
दारू
पीके मारलें मोरा ।
महंगाई
-
हाइ
रे बिधि बड़ी दुखा भेल
कलफी
- कलफी जीया गेल
अढ़ाई
टके चाउर बीके, बीके पाँच टके तेल
आर
बाजारा गुंडी बीके, डेढ़ टके सेर
कइसन
दहैजेक दिन भेल।
कलफी
- कलफी जीया गेल।
खोरठा
लोकगीतों में श्रृंगार
काव्य
की तरह लोकगीतों की आत्मा रस है । खोरठा के लोकगीतों में जितनी रसमयता उपलब्ध है, संभवतः
अन्यत्र दुर्लभ है। एक-एक लोकगीत रस से लबालब भरा रस क प्याला है, जिसे जितना ही पिया
जाय, उतनी ही प्यास बढ़ती है, प्यास मिटती नहीं, अपनी ऋजुता तथा नैसर्गिकता के कारण
खोरठा के लोकगीत सहज संवेध एवं आस्वाद्य होते हैं। इनके लोक गीतों के शृंगारिक पक्ष
स्पष्ट दृष्टिगोचर है। हिन्दी या संस्कृत के कवियों ने शृंगार रस का जो भद्दा, अश्लील
तथा कुरूचिपूर्ण प्रदर्शन अपनी कविताओं में किया है, उसका यहाँ नितान्त अभाव है। खोरठा
लोकगीतों के श्रृंगार पक्ष में नितान्त पवित्र, संयत, शुद्ध और दिव्य के तत्व सन्निहित
होते हैं। ये लोक गीत किसी राजे-महाराजे का खुश करने के लिए नहीं गाये गये हैं। बल्कि
इनके लोक गीत स्वान्त सुखाय के लिये हैं। इनके प्रेम में वासना नहीं अपितु नैसर्गिक
प्यार छलकता है। कुछ दृष्टान्तों के द्वारा इन बातों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है-
संयोग
श्रृंगार- ( राग-चांचइर) -
भंइसिनी
गे, मोरा तो सइतिनियाँ
सुतल
सइयाँ देलें ना जागाइ ।
बेंचु-बेंचु
सइया दसछंद भंइसिनी से
लइये
लेहु, दस छंद गाइ
तोहुँ
जे कहले धनी से हो तो मंजूरा हो
तोरो
भगाइ लइये लेबइ, भंइसी रे।
कोनें
तोरा एहो, पीर्हा - पानी करतउ
कोने
देतो भतवा जोगाइ
कोने
तो हो संग जोरी सुततउ
कोने
देतउ टोकाइ रे ।
उपर्युक्त
लोकगीत में पति-पत्नी के हास-परिहास पूर्ण वार्तालाप का चित्रण हुआ है। पति-पत्नी सोये
हैं। रात्रि के समय भैंस की आवाज से पति की नींद फूर्र हो जाती है। पत्नी भैंस को सम्बोधित
कर कहती है। कि तुमने मेरे सोये पति को जगा दिया। आगे पति को कहती है। कि भैंस को बेचा।
इस पर पति कहता है। कि वह उसे ही (पत्नी) को बेच देगा, क्योंकि वह भी उसे ( पति को
) सोने नहीं देती है। इस बात पर पत्नी रूठ जाती है और कहती है- मुझको बेचोगे तो कौन
तुम्हें आसन-पानी देगी। कौन तुझे भात परोस कर खिलायगी, रात को कौन तुम्हारे साथ सोयेगी?
कौन तुम्हारे साथ बात-चीत करेगी?
(राग
- मोदीयाली)
चला
पिया दामुदर नहाइले, चला हो
दही-चीरा
देवउ पिया, खाइलें।
वरवा
घाटेक मेला।
चढ़व
दुइयों अठमचला
हांसी-हांसी
पनवॉ खिआइले ।
चला
पिया
घेरा
के बाजना बाजे
कते
रंगेक दोकान साजे ।
हरिहर
चुरिया पिंघाइले |
चला
पिया...।
दामोदर
नदी में स्नान करने के लिए पत्नी अपने पति से निवेदन कर रही है। वह उसे दही-चीरा खिलाने
के लिए प्रलोभन दे रही है। पत्नी कह रही है। कि वहाँ वरवाघाट का मेला लगा है। मेले
में दोनो अठमचला (लकड़ी से बना आकाश झुला) चढ़ेंगें। दोनों मगन होकर पान खोयेंगे। मेले
में कई प्रकार की दुकाने सजी हैं। वहाँ वह अपने मन पसन्द की हरे रंग की चुड़ियाँ पिधेंगी।
घेरा ( डफली) का सुमधुर स्वर उन्हें सुनने को मिलेगा।
राग-भदरिया-
एक
प्रेमिका अपने प्रेमी का उलाहना देती है -
कहाँ
से आइल भेंउरा, कहाँ चली गेल रे
अरे
भँउरा कहाँ काटलें निसि राइत रे।
भोरे
झरलउ मधु, रोउदें झरे गात रे
अरे
भँउरा मने रहलो मनेक बात रे।
एक
तो फूटलों हामें, छोड़ी के साथ रे
अरे
भँउरा दोसरे निठुर तोर जाइत रे।
सुबह
होते ही वापस आने पर प्रेमिका अपने प्रेमी को निर्दयी भौंरे सम्बोधित कर कहती है। तुम
तो मरद जाति के हो । भीरे का एक फूल के रसपान से मन नहीं भरता है, तूने रात कहाँ और
किसके साथ बितायी? तुम्हें मेरा तनिक भी ख्याल नहीं आया। मैं तो तुम्हारे साथ प्रेम
करके पछता रही हूँ।
वियोग
श्रृंगार (डोहा)
आसा
जे देलें नूनी गे, भरोसा जे देलें गे
ओ
रे नीमा तरे, राखलें डांडाइ । ओ
नीमा
पतइ झरी गेल गे, भँउरा गुंजरी गेल
ओ
रे अबे नूनी नखों बिसवास। ... ओ
सोझ
सिरें कहतलें गे, दू-दू मन छाड़तलें
ओ
रे दुइयों संगे पोसाए पिरीत। .... ओ ।
उपरोक्त
डोहा में प्रेमी अपनी बिछुड़ी प्रेमिका को पुकारते कहता है तुम्हारे वादे के अनुसार
मैं नीम पेड़ के नीचे बैठ कर घंटों शाम को खड़ा रहा पर तुम नहीं आयी । तुमने वादा खिलाफी
क्यों की? तुम्हें तो स्पष्ट कह देना था कि मुझसे तुम प्रेम नहीं करती। अब तुम्हारे
ऊपर मेरा विश्वास खत्म होता जा रहा है। वियोग का दूसरा रूप - जब प्रियतमा परिणय के
बंधन में बंध जाती है। कुछ दिन प्रणय केलि के उपरान्त जब पति काम या व्यवसाय करने के
लिए बाहर जाता है। तब आषाढ़ मास में विरहांगिन में जलती पत्नी को अवलोकन करें -
सुर-भदरिया
- आसार -
आसार
सावन मासे
पिया
गेल परदेसे
काके
कहब गे सखि
दुखा
रे बिपती
कइसे
मनें राखब थिती ।
मनेक
कोने माड़ी गेल ।
आधे
दिने छोड़ी देल
दुखा
देलक रे सखि, बड़का बिपती
कइसे
मने राखब थिती ।
आषाढ़-सावन
मास रिमझिम वर्षा की विरहिनी का वर्णन प्रायः सभी लोक साहित्यों में मिलता है। खोरठा
लोक साहित्य अछूता नहीं है। ऋतुराज बसन्त की विरहिनी की व्यथा को नीचे की पक्तियों
से महसूस करें-
दुवरा
में ठाड़ जोही आपन पियाक आस
जिनगिक
संगीरे! बितले जाहे मधुमास ।
करइते
फिकिर घटल हमर देहिक मास
जिनगिक
संगी रे! बितले जाहे मधुमास ।
उपरोक्त
पक्तियों में अपने जीवन के साथी ( पिया) सम्बोधित करते हुए विरहाकुल नारी कहती हे जीवन
साथी । मधुमास बिता जा रहा है। मैं घर के - दरवाजें पर बैठी तेरा कब से इन्तजार कर
रही हूँ। तुम्हारी याद से व्याकुल मेरे शरीर का माँस घट रहा है। तुम शीघ्र चले आओ।
दुसरा
नमूना -
हामें
तो अबला नारी, पिया पासें डरी-डरी
भिनसरियाइ
पियांइ दगा देल
मोर
दइया रे, रसें-रसें आवइ रसिक नागर
हाय
रे जिया तड़पलो मोर!... रंग
पिया
पासें बइसली, अंग हमर सिहरली
मोर
दइया रे, हथवा बढ़ावे पिया जोवना ऊपर
हायरे
जिया तड़पलो मोर।
जोवन
कमल कलि भेला आलाचारी
मोर
दइया रे, लटपट करे पिया मोरे झिकाझोर
हाइ
रे जिया-हुलसलो मोर।
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