प्रश्न- प्रकट अधिमान
सिद्धांत की सहायता से उपभोक्ता के संतुलन की व्याख्या कीजिए ?
→ प्रकट अधिमान सिद्धांत या माँग का उद्घाटित
अधिमान सिद्धांत की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए ?
→ प्रो. सैम्युलसन ने प्रकट अधिमान सिद्धांत
से किस प्रकार माँग के नियम का व्युत्पादन किया है? व्याख्या करें
→ कोई वस्तु (सरल या संयुक्त) जिसकी माँग में
केवल मौद्रिक आय मे वृद्धि से सर्वदा वृद्धि होती है, तो केवल मूल्य में वृद्धि
होने से उस वस्तु की माँग निश्चित रूप से संकुचित होगी। व्याख्या करे?
उत्तर- उपभोक्ता के व्यवहार के उद्घाटित या प्रकट अधिमान सिद्धांत
का प्रतिपादन 1948 मे सुप्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री सैम्युलसन ने अपनी पुस्तक
'Foundation of Economic Analysis' में किया है। मार्शल के उपयोगिता विश्लेषण तथा
हिक्स एवं एलेन के तटस्थता वक्र विश्लेषण में अनेक त्रुटियाँ है जिनके चलते उन्हें
उपभोक्ता के व्यवहार के विश्लेषण का सही सिद्धांत नहीं माना जा सकता। मार्शल का
उपयोगित विश्लेषण उपयोगिता की संख्यात्मक माप की धारणा पर आधारित है लेकिन
अर्थशास्त्रियों का विचार है कि उपयोगिता की संख्यात्मक माप नहीं की जा सकती।
दूसरी और तटस्थता वक्र विश्लेषण उपयोगिता की क्रमागत माप की धारणा पर आधारित है।
इस प्रकार इन दोनो सिद्धांतों में उपभोक्ता के व्यवहार की व्याख्या के लिए
मनोवैज्ञानिक अथवा अन्तर्निरीक्षात्मक तरीका अपनाया गया है। दूसरे शब्दों में, इन
दोनों सिद्धांतों में इस बात की व्याख्या की गई है कि कुछ दी हुई परिस्थितियों में
मूल्य एवं आय में परिवर्तन होने पर उपभोक्ता पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया
होगी। इसीलिए तटस्थता वक्र विश्लेषण को उपभोक्ता के व्यवहार का अन्तर्निरीक्षात्मक
क्रमवाचक सिद्धांत कहते है। यह ठीक है कि तटस्थता वक्र विश्लेषण कई बातों को लेकर
मार्शल के उपयोगिता विश्लेषण से श्रेष्ठ है, लेकिन फिर भी इसमे कई त्रुटियाँ है।
इस सिद्धांत की सबसे बड़ी त्रुटि इसकी यह मान्यता है कि उपभोक्ता को अपने तटस्थता
मानचित्र की पूरी जानकारी होती है जिसके चलते वह किन्हीं दो वस्तुओं के अनेक
संयोगों के सम्बंध मे अपना अधिमान व्यक्त कर सकता है। लेकिन वास्तविकता तो यह है
कि उपभोक्ता को इस प्रकार की पूरी जानकारी नहीं रहती। अतः यह मान्यता अवास्तविक
है।
उपयोगिता विश्लेषण एवं तटस्थता वक्र विश्लेषण की उपरोक्त त्रुटियों को दूर
करने के लिए ही प्रो. सैम्युलसन ने उद्घाटित या प्रकट अधिमान सिद्धांत का
प्रतिपादन किया है। इसके अन्तर्गत किन्ही दो वस्तुओं के विभिन्न संयोगों के सम्बंध
में उपभोक्ता को अपना अधिमान व्यक्त करने के लिए अन्तर्निरीक्षण की आवश्यकता नहीं
पड़ती। इस परिकल्पना के अनुसार एक उपभोक्ता जब विभिन्न संयोगों में से संयोग A को चयन करने का
निश्चय करता है तो वह अन्य उन समस्त संयोगों, जिनका वह क्रय कर सकता था की तुलना
में संयोग A के पक्ष में अपने अधिमान को उद्घाटित करता है। इसके अतिरिक्त यह
सिद्वात क्रमागत उपयोगिता की धारणा पर आधारित है यानी इस सिद्धांत के अनुसार
उपयोगिता केवल तुलनीय है, मापनीय नहीं। प्रो. तमस मजुमदार ने अपनी पुस्तक 'Measurement of Utility' में
प्रो० सैम्युलसन के सिद्धांत को 'व्यवहारवादी क्रमवाचक' सिद्धांत कहा है क्योंकि यह सिद्धांत
अवलोकित व्यवहार पर आधारित है।
सिद्धांत की मान्यताएँ
प्रकट अधिमान सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है
(1) उपभोक्ता की रुचियाँ दी हुई है :- यह मान लिया जाता है कि उपभोक्ता की
रुचियों में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है। दूसरे शब्दों में उपभोक्ता की
मानसिक स्थिति पूर्ववत् बनी रहती है।
(2) उपभोक्ता का चयन उसके अधिमान को बतलाता है:- उपभोक्ता का दो वस्तुओं के
विभिन्न संयोगों में से किसी एक संयोग के लिया किया जाने वाला चुनाव उसकी पसन्दगी
को प्रकट करता है।
(3) अधिमान, दृष्टिकोण के सुदृढ़ क्रम पर आधारित है:- प्रकट अधिमान सिद्धांत
विभिन्न परिस्थितियों के बीच तटस्थता के दृष्टिकोण का परित्याग कर अधिमान
दृष्टिकोण के सुदृढ़ क्रम पर आधारित है। अर्थात् एक दी हुई कीमत आय स्थिति के
अन्तर्गत उपभोक्ता केवल एक ही संयोग को चुनता है।
(4) उपभोक्ता विवेकशील है:- यह मान लिया गया है कि उपभोक्ता का
व्यवहार विवेकपूर्ण है।
(5) अटलता की धारणा पर आधारित :- इसका अर्थ यह है कि चुनाव
सम्बंधी व्यवहार के कोई भी ऐसे दो अवलोकन नहीं होते जो परस्पर विरोधी हो। अर्थात्
एक ही व्यक्ति के संबंध में दो विरोधी लक्षणों को व्यक्त नहीं किया जाता है। मान
लिया कि एक उपभोक्ता किसी दी हुई अवस्था में A तथा
B वस्तु में यदि A का चुनाव करता है तो प्रत्येक स्थिति में B की तुलना में A को ही पसन्द
करेगा।
(6) संक्रामकता की धारणा पर आधारित :- यदि कोई उपभोक्ता A वस्तु को B से
अधिक पसन्द करता है और C की तुलना में B को पसन्द करता है तो इसका यह अर्थ
हुआ कि वह C की तुलना में भी A को पसन्द करेगा
सिद्धांत की व्याख्या
प्रकट अधिमान का सिद्धांत मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि चयन अधिमान को प्रकट करता है। अगर कोई उपभोक्ता मूल्य तथा आय की परिस्थितियों में किसी एक संयोग का चुनाव करता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह अन्य संयोगों से चुने गये संयोग को श्रेष्ठ मानता है। इन बातों की व्याख्या एक रेखा चित्र से की जा सकती है।
OX रेखा पर X वस्तु को तथा OY रेखा पर Y वस्तु को दिखलाया गया है। PP1 मूल्य रेखा है जिसे मूल्य तथा आय के आधार पर प्राप्त किया
जाता है। OPP1 एक त्रिभुज बनता है जिसके भीतर के किसी
भी संयोग को उपभोक्ता खरीद सकता है।
A, B, C,D,E,F,G,H विभिन्न
संयोग है। ये सभी संयोग OPP1
त्रिभुज के अन्दर के है।
JK संयोग त्रिभुज के बाहर के है जिन्हें दी गई आय के
अन्तर्गत उसके पहुँचा के बाहर है अतः उसे खरीद ही नहीं सकता है।
PP' मूल्य रेखा पर A, B, C, D संयोग है जो उपभोक्ता के लिए समान रूप से महंगे है जबकि E,
F, G, H संयोग कम मात्रा को दिखलाते हैं। अब मान लिया कि उपभोक्ता A, B,C,D मे से B का चयन करता है तो इसका यह अर्थ होगा कि वह अन्य संयोगों मे इस संयोग को श्रेष्ठ मानता
है और अन्य संयोगो को अस्वीकार कर देता है। इस तरह उपभोक्ता चयन के द्वारा अपने अधिमान को प्रकट करता है। B संयोग का अर्थ है उपभोक्ता OM of X तथा ON of Y खरीदता है। इस प्रकार प्रकट अधिमान सिद्धांत अधिमान के सुदृढ़
क्रम पर आधारित है। इस प्रकार सुदृढ़ क्रम विभिन्न वैकल्पिक स्थितियो के बीच तटस्थता के सम्बंध का परित्याग कर देता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि सैम्युलसन की व्याख्या मार्शल तथा हिक्स की व्याख्या
से भिन्न है तथा यह कई दृष्टिकोण से श्रेष्ठ भी है।
प्रकट अधिमान सिद्धांत को निर्देशांक के रूप में भी
व्यक्त किया जा सकता है। मान लिया कि किसी दी हुई परिस्थिति में Q तथा Q1
वस्तुओं के
दो संयोग है तथा मूल्य तल P है। ऐसी परिस्थिति में उपभोक्ता द्वारा
Q पर खर्च किया जानेवाला कुल मौद्रिक व्यय ΣPQ तथा Q1 पर
खर्च किया जानेवाला कुल मौद्रिक व्यय ΣPQ1 होगा। अब यदि उपभोक्ता Q1 की अपेक्षा Q को चुनता है तो इसका मतलब यह है कि P मूल्य तल पर Q1 संयोग की कुल लागत Q संयोग की कुल लागत से अधिक नही होगी। सूत्र से-
`\Sigma PQ_1\leq\Sigma PQ`
`\Sigma PQ\geq\Sigma PQ_1`
इस सूत्र से यह पता चलता है कि Q पर किया गया खर्च Q1 को भी खरीदने के लिए पर्याप्त होता। लेकिन प्रकट अधिमान सिद्धांत की निर्देशांक
के रूप में अभिव्यक्ति केवल रुपान्तर मात्र है और इससे कोई अतिरिक्त आर्थिक अभिप्राय
नहीं निकलता। हाँ, इस प्रकार की अभिव्यक्ति कुछ उच्चतर विश्लेषण के लिए उपयोगी एवं
सुविधाजनक हो सकती है।
माँग का नियम एवं प्रकट अधिमान सिद्धांत
मार्शल का माँग का नियम यह बतलाता है कि यदि आय एवं मूल्य स्थिर रहे तो किसी वस्तु के मूल्य में वृद्धि होने से उनकी माँग में कमी तथा मूल्य में कमी होने से माँग में वृद्धि होती है। प्रो. सैम्युलसन ने माँग के नियम को सिद्ध करने के लिए धनात्मक माँग की आय-लोच की मान्यता को स्वीकार किया है। इसका मतलब यह है कि उपभोक्ता की आय में वृद्धि या कमी होने से उसके द्वारा की गयी वस्तु की मांग में वृद्धि या कमी होती है। इस प्रकार धनात्मक माँग को आय-लोच के आधार पर प्रो सैम्युलसन ने मार्शल के नियम को निकाला है जिसे वे माँग प्रमेय या उपभोग सिद्धांत का आधारभूत प्रमेय कहते है। यह इस प्रकार है- "कोई वस्तु (सरल या संयुक्त) जिसकी माँग में केवल मौद्रिक आय में वृद्धि से सर्वदा वृद्धि होती है तो केवल मूल्य में वृद्धि होने से उस वस्तु की माँग निश्चित रूप से संकुचित होगी"
PP1 प्रारम्भिक मूल्य रेखा है। जिस पर उपभोक्ता ने A
संयोग का चुनाव किया है। इसका अर्थ हुआ कि उपभोक्ता OPP1 त्रिभुज के अन्दर के सभी संयोगों को अस्वीकार कर दिया है।
मान लिया कि X वस्तु की कीमत बढ़ जाती है तो PP2 नयी मूल्य रेखा होगी। अब उपभोक्ता के चुनाव का त्रिभुज OPP2 होगा। अब उपभोक्ता A संयोग का क्रय नहीं कर पायेगा।
यदि उपभोक्ता को X वस्तु की कीमत में हुई वृद्धि की क्षतिपूर्ति करने के लिए
यदि अतिरिक्त आय दी जाय ताकि वह A संयोग को फिर से क्रय कर सके तो नयी कीमत रेखा MN होगी जो
PP2 के समानान्तर होगी तथा A बिन्दु को
स्पर्श करेगी। ऐसी स्थिति में उपभोक्ता A संयोग को प्राप्त कर सकता है
परन्तु उपभोक्ता MN रेखा के A बिन्दु के नीचे AN पर के किसी भी संयोग का चुनाव नहीं
करेगा क्योंकि ये सभी संयोग पहले के चुनाव त्रिभुज OPP1 के भीतर है
जिन्हें वह पहले ही अस्वीकार कर चुका है। उपभोक्ता के सामने दो ही विकल्प है या तो
वह A संयोग का ही चुनाव करे या फिर वह AM
रेखा पर किसी संयोग का चुनाव करता है। यदि उपभोक्ता A बिन्दु का ही
चुनाव करता है तो यह स्पष्ट होता है कि कीमत की वृद्धि के फलस्वरूप यदि आय की
क्षतिपूर्ति कर दी जाती है तो भी उपभोक्ता X वस्तु
की अधिक मात्रा नही खरीद पाता है। यदि AM रेखा पर किसी संयोग का
चुनाव करता है तो भी उपभोक्ता कीमत के बढ़ने पर X वस्तु की कम
मात्रा ही क्रय कर पाता है।
अतः कीमत के बढ़ने पर माँग में कमी होती है।
अब मान लिया कि X वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो निश्चित ही। यह स्थिति होगी-
PP1 कीमत रेखा पर संयोग का चुनाव किया जाता है। कीमत के कम होने
पर PP2 नयी कीमत रेखा
होगी। यदि उपभोक्ता से इतनी राशि ले ली जाती है कि वह पहले की तरह A संयोग को ही
खरीद सके। अतः MN नयी मूल्य रेखा होगी। अब उपभोक्ता AM रेखा पर किसी संयोग को नहीं चुनेगा क्योकि वह क्षेत्र पुराने OPP1 चुनाव त्रिभुज के अन्दर
है। जिसे पहले ही उपभोक्ता अस्वीकार कर चुका है। अब उपभोक्ता
AN भाग पर ही किसी संयोग का चुनाव कर सकता है। यदि A संयोग को चुनता है तो वह पहले के बराबर ही X मात्रा का क्रय करेगा। और
यदि AN रेखा पर A बिन्दु के
बाद AN रेखा पर किसी अन्य संयोग का चुनाव करता है तो वह X की अधिक मात्रा प्राप्त करेगा।
यदि उपभोक्ता की अतिरिक्त राशि जो ले ली गयी थी लौटा दी जाती है तो उपभोक्ता की आय मूल्य स्थिति अर्थात् मूल्य
रेखा PP2 होगी जिस पर वह X की अधिक मात्रा का क्रय करेगा। इस तरह स्पष्ट
हो जाता है कि X की कीमत के कम होने पर उसकी माँग बढ़ जाती
है।
इस तरह प्रकट अधिमान सिद्धांत के द्वारा मार्शल के मांग के सिद्धांत
की सत्यता को प्रमाणित किया जाता है।
उद्घाटित अधिमान दृष्टिकोण की सहायता से अनधिमान वक्रों का व्युत्पादन
उद्घाटित अधिमान सिद्धांत में हम उपभोक्ताओं के अनधिमान वक्रों का व्युत्पादन
एवं उपयोग किये बिना मांग के नियम की पुष्टि करते हैं। तथापि उद्घाटित अधिमान
दृष्टिकोण हमें एक उपभोक्ता के अनधिमान वक्रो को व्युत्पादित करने की हिक्स की
आत्मपरिक्षण विधि की वैकल्पिक विधि प्रदान करता है। हिक्स के विश्लेषण में अनधिमान
वक्रो को व्युत्पादित करने के लिए उपभोक्ता के विषय मे कुछ कठोर मान्यताएँ की जाती
है।
दूसरी ओर, उद्घाटित अधिमान सिद्वान्त के अन्तर्गत यह मान्यता करने की
आवश्यकता नहीं होती है कि उपभोक्ता अपने अधिमानों को कोटिक्रम में अथवा क्रमबद्ध
कर सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि सैम्युलसन की उद्घाटित अधिमान विधि के
अन्तर्गत उपभोक्ता के अधिमानो अथवा रुचियों के विषय में कोई पूर्व मान्यता नहीं की
जाती है। उद्घाटित अधिमान विधि की सहायता से अनधिमान वक्रों को व्युत्पादित करने
के लिए हम निम्न मान्यताएँ स्वीकार करते हैं:-
(1) एक उपभोक्ता के चुनाव संगत है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि एक उपभोक्ता को
संयोग B की अपेक्षा संयोग A को
अधिमान प्रदान करते देखा जाता है तो वह कभी भी B को A की अपेक्षा
अधिमान प्रदान नहीं करेगा।
(2) उपभोक्ता की रुचियाँ तथा अधिमान उस समयावधि के अन्तर्गत स्थिर बने रहते
हैं।
(3) उपभोक्ता के अधिमान सकर्मक होते हैं।
(4) एक उपभोक्ता परेटो के अर्थ में विवेकपूर्ण व्यवहार करता है अर्थात् वह कम
वस्तु की अपेक्षा उसकी अधिक मात्रा को अधिमान प्रदान करता है।
यह माना जाता है कि उपभोक्ता द्वारा चुना गया वस्तुओं का संयोग उन सभी अन्य वैकल्पिक संयोगों की अपेक्षा अधिमानित होता है जिसे वह खरीद सकता है। इस प्रकार न चुने गये वस्तुओं के संयोग या तो वे होंगे जो घटिया होगे या वे जो बजट क्षेत्र के बाहर स्थिर है।
चित्र में AB प्रारंभिक बजट रेखा है। माना कि उपभोक्ता R संयोग का चुनाव
करता है। इस चुनाव से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह बजट क्षेत्र के अन्दर
अथवा AB बजट रेखा पर स्थित अन्य वस्तुओं के समूहों की अपेक्षा R को अधिमान प्रदान
करता है। इस प्रकार वस्तुओ के वे सभी अन्य संयोग चुने गये R संयोग की
अपेक्षा घटिया माने गये है जिन्हें वह खरीद सकता था। चित्र में छायांकित क्षेत्र
MRN में सभी संयोग चुने हुए R संयोग की अपेक्षा श्रेष्ठ है और इसलिए चुने गये संयोग R से होकर गुजरने
वाला अनधिमान वक्र (जो समान सन्तुष्टि प्रदान करने वाली वस्तुओं के संयोगों को
प्रदर्शित करता है) पर स्थित नहीं हो सकते हैं।
बजट रेखा AB तथा छायांकित क्षेत्र MRN के मध्यस्थ क्षेत्र अज्ञान का क्षेत्र के रूप में जाना जाता है जिसके अन्तर्गत संभवतः अनधिमान वक्र स्थित हो सकता है। अज्ञान के क्षेत्र में अनधिमान वक्र की ठीक स्थिती ज्ञात करने के लिए हम वस्तु की कीमतों में परिवर्तन तथा उसके कारण उपभोक्ता के चुनाव का अवलोकन करके अज्ञान के क्षेत्र को कम कर सकते है।
चित्र में प्रारम्भ में बजट रेखा AB है तथा उपभोक्ता R बिन्दु का चुनाव
करता है। अज्ञान का क्षेत्र कम करने के लिए X वस्तु की कीमत
कम कर दी जाती है तथा नई बजट रेखा CD हो जाती है। उपभोक्ता बजट रेखा CD पर T बिन्दु
के बायी ओर कोई संयोग नहीं चुनेगा क्योंकि इस प्रकार का चुनाव असंगत होगा क्योंकि
CD पर T बिन्दु के बाई ओर के संयोग प्रारम्भिक बजट रेखा AB के
नीचे होने के कारण T की अपेक्षा घटिया है। अतः उपभोक्ता TD भाग
पर T अथवा T के दाहिनी ओर किसी बिन्दु पर चुनाव करेगा। परन्तु TBD में
स्थित संयोगों को R बिन्दु की अपेक्षा घटिया माना गया है और इसलिए R बिन्दु से
होकर जाने वाला अधिमान वक्र इस क्षेत्र में नहीं जा सकता। इस प्रकार अज्ञान के
निचले क्षेत्र से TBD छायांकित क्षेत्र को हटा दिया है जहाँ R बिन्दु से होकर
जाने वाला अनधिमान वक्र निर्धारित नहीं किया जा सकता।
अब नई बजट रेखा EF खीचते है जो प्रारम्भिक बजट रेखा AB पर
मौलिक रूप से चुने हुए बिन्दु R से होकर जाती है। पेरेटों की विवेकशील मान्यता, कि एक
व्यक्ति कम वस्तु की अपेक्षा अधिक को अधिमान प्रदान करता है, का उपयोग करने से
छायांकित क्षेत्र USK में स्थित वस्तुओं के सभी संयोग S की अपेक्षा
अधिमानित होगे। अतः S संयोग R संयोग की अपेक्षा अधिमानित है।
अतः उद्घाटित अधिमान परिकल्पना की सहायता से हम विभिन्न बाजार परिस्थितियों
के अन्तर्गत उपभोक्ता के व्यवहार तथा वास्तविक चुनाव के आधार पर अनधिमान वक्र
व्युत्पादित कर सकते हैं।
प्रकट अधिमान सिद्धांत की श्रेष्ठता
प्रो० सैम्युलसन का प्रकट अधिमान का सिद्धांत उपभोक्ता के व्यवहार के विश्लेषण
के मार्शल तथा हिक्स के सिद्धांत से श्रेष्ठ माना जाता है। इस संदर्भ में
निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है।
(1) मार्शल
तथा हिक्स-एलेन के सिद्धांतो की अन्तर्निरीक्षात्मक अथवा मनोवैज्ञानिक व्याख्या की
जगह प्रो. सैम्युलसन का सिद्धांत उपभोक्ता की माँग की व्यवहारवादी व्याख्या पर
आधारित है। यह बाजार में विभिन्न मूल्यो एवं आय की परिस्थितियों में उपभोक्ता के
वास्तविक अवलोकित व्यवहार के आधार पर उपभोक्ता की माँग की व्याख्या करता है। ऐसा
कहा जाता है कि अन्तर्निरीक्षात्मक तरीके की तुलना में व्यवहारवादी तरीका अधिक
वैज्ञानिक होता है।
(2) तटस्थता वक्र-विश्लेषण इस अवास्तविक मान्यता पर आधारित है कि उपभोक्ता को
अपने तटस्थता मानचित्र की पूरी जानकारी होती है जिसके आधार पर वह किन्ही दो
वस्तुओं के अनेको संयोगों के सम्बंध में अपना अधिमान व्यक्त कर सकता है। लेकिन
प्रकट अधिमान सिद्धांत इस आवस्तविक मान्यता से मुक्त है।
(3) प्रकट अधिमान सिद्धांत में बाजार में उपभोक्ता के वास्तविक व्यवहार का
अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत उन संयोगों से सम्बन्धित उपभोक्ता के अधिमान
की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है जिन्हें कभी नहीं खरीदता या छोड़ देता है।
(4) तटस्थता वक्र विश्लेषण इस मान्यता पर भी आधारित है कि
उपभोक्ता को अपनी कुल आय खर्च करनी चाहिए। लेकिन प्रकट अधिमान सिद्धांत इस मान्यता
से भी मुक्त है।
(5) मार्शल तथा हिक्स- एलेन के सिद्धांतो में उपभोक्ता को विवेकशील माना गया
है जो अपनी उपयोगिता को अधिकतम बनाने की चेष्टा करता है। दूसरी ओर प्रकट अधिमान
सिद्धांत में उपयोगिता को अधिकतम बनाने की मान्यता का परित्याग कर उपभोक्ता की
माँग की व्याख्या के लिए अटलता की मान्यता को अपनाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि
अटलता की यह मान्यता उपयोगिता को अधिकतम बनाने की मान्यता की तुलना से कम
प्रतिबन्धात्मक तथा अधिक व्यावहारिक है।
आलोचनाएं
उपयुक्त अच्छाइयों के बावजूद प्रकट अधिमान सिद्धांत की आलोचनाएँ की गई है
जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:-
(1) यह सिद्धांत अटलता की मान्यता पर आधारित है और ऐसे आदर्श उपभोक्ताओं की
कल्पना करता है जो बाजार की दशाओं के अलावा अन्य किसी बात से प्रभावित नहीं होते।
लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसे उपभोक्ता दिखाई नहीं देते। वास्तविक उपभोक्ता तो आय
एवं मूल्य के अतिरिक्त अन्य कई बातों से प्रभावित होते है। ऐसी परिस्थिति में उनका
वास्तविक या अवलोकित व्यवहार अटलता की मान्यता के विपरीत भी हो सकता है।
(2) चूंकि प्रकट अधिमान सिद्धांत मे तटस्थता का परित्याग कर दिया जाता है अतः
यह सिद्धांत प्रतिस्थापन प्रभाव को नही मानता। इस प्रकार इस सिद्धांत के आधार पर
आय प्रभाव तथा प्रतिस्थापन प्रभाव में अन्तर नहीं किया जा सकता।
(3) यह सिद्धांत मांग की धनात्मक अथवा सकारात्मक आय लोच की मान्यता पर आधारित
है जिसके द्वारा प्रो. सैम्युलसन ने अपने माँग प्रमेय को सिद्ध किया है। अतः जहाँ
माँग की आय लोच शून्य अथवा नकारात्मक होगी वहाँ इस सिद्धांत के आधार पर माँग
प्रमेय अथवा माँग के नियम को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
(4) प्रकट अधिमान सिद्धांत गिफेन विरोधाभास की व्याख्या करने में भी असमर्थ
है।
(5) प्रकट अधिमान सिद्धांत मांग के कल्याणकारी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर
सकता। यह केवल माँग सिद्धांत के आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति करता है। लेकिन माँग के
एक पूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्धांत में इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति होनी चाहिए।
निष्कर्ष
इन त्रुटियों के बावजूद प्रकट अधिमान सिद्धांत की श्रेष्ठता इस बात को लेकर है
कि इसके अन्तर्गत उपभोक्ता के व्यवहार के विश्लेषण के लिए वैज्ञानिक अथवा
व्यवहारवादी तरीका अपनाया गया है और अधिमान परिकल्पना का प्रतिपादन किया गया है।
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