प्रश्न- द्विपक्षीय एकाधिकार
के अन्तर्गत मूल्य के निर्धारण की व्याख्या करे?
उत्तर- द्विपक्षीय एकाधिकार उस समय होता है जब किसी पदार्थ अथवा साधन
के एकाकी विक्रेता को उसके एकाकी क्रेता का सामना करना होता है। कहने का तात्पर्य यह
है कि द्विपक्षीय एकाधिकार के अन्तर्गत एकाधिकारी एक क्रय- एकाधिकारी का सामना करता
है।
चूंकि विक्रेता को उस वस्तु का एकाधिकार
प्राप्त है, अतः उस वस्तु का कोई निकट का स्थानापन्न उपलब्ध नहीं होगा। विक्रेता के
पास अपनी वस्तु को बेचने का कोई अन्य क्रेता नहीं है तथा क्रेता के पास कोई अन्य स्त्रोत
नहीं है जहाँ से वह उस वस्तु को खरीद सके। वैसे उत्पादन या पदार्थ के बाजार में द्विपक्षीय
एकाधिकार की स्थिति बहुत कम पायी जाती है परन्तु यह आगतो (inputs) अथवा उत्पादन के साधनों के
बाजार में प्रायः पायी जाती है।
द्विपक्षीय एकाधिकार की एक महत्वपूर्ण
स्थिति उस समय उपस्थित होती है जब एक ट्रेड यूनियन, जिसे श्रमिको की सेवाओं को बेचने
का एकाधिकार प्राप्त होता है, का सामना एक विशालकाय व्यावसायिक निगम से होता है जिसे
श्रमिको के संगठन से श्रम खरीदना होता है और प्रश्न यह उपस्थित होता है कि श्रम का
विनिमय किस दर पर सम्पन्न होगा ।
द्विपक्षीय एकाधिकार में संतुलन
द्विपक्षीय एकाधिकार में संतुलन के
दो शर्तें है
(a) MR = MC
(b) MC रेखा MR रेखा को नीचे से ऊपर की ओर जाते हुए काटे
हम जानते हैं कि कुल आय एवं कुल लागत का अंतर कुल लाभ होता है।
π = R – C
जहां , π = लाभ , R = आय , C = लागत
We find first derivatives with Respect to X
लाभ अधिकतम करने पर ; 0
⸫ MR = MC
We find Second derivatives With Respect To X
लाभ अधिकतम करने पर ; < 0
अतः , Slope of (MC) > Slope of (MR)
इसका अर्थ है MC रेखा MR रेखा को नीचे से ऊपर जाते हुए
काटती है।
मूल्य निर्धारण
अन्तिम पदार्थ के बाजार में द्विपक्षीय एकाधिकार
के अंतर्गत एकाकी क्रेता अथवा क्रय- एकाधिकारी एक उपभोक्ता होता है।। फर्म, जो उस
वस्तु का उत्पादन करती है एकाधिकारी पूर्तिकर्ता अथवा विक्रेता होती है।
द्विपक्षीय एकाधिकार के अन्तर्गत कीमत एवं उत्पादन मात्रा का विश्लेषण लगभग वहीं
है जो दो व्यक्तियों के बीच दो वस्तुओं के विनिमय की दशा में किया जाता है।
इसे रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
उपर्युक्त रेखा चित्र में क्रेता की पदार्थ के लिए
माँग वक्र DD है जो उसके सीमांत उपयोगिता वक्र पर आधारित है। चूंकि पदार्थ का
एकाकी क्रेता है अतः उसका माँग वक्र DD ही वह मांग वक्र होगा जिसका सामना
एकाधिकारी पूर्तिकर्ता (विक्रेता) को करना है और इसलिए उसके लिए औसत आय (AR) वक्र
होगा। Mc एकाधिकारी पूर्तिकर्ता का सीमांत - लागत वक्र है। MR एकाधिकारी पूर्तिकर्ता के मांग
वक्र DD के अनुरूपी, सीमांत आय वक्र होगा।
यदि क्रय एकाधिकारी यह मानकर चलता है कि
पूर्तिकर्ता की लागत स्थिति के अधीन उसके पास मूल्य निश्चित करने की पूर्ण शक्ति
है तब वह एकाधिकारी के सीमांत लागत वक्र MC को अपना
पूर्ति वक्र मानेगा। अतएव एकाधिकार का सीमांत लागत वक्र MC उसके लिए पूर्ति वक्र या औसत पूर्ति कीमतो (ASP) का वक्र होगा। चूंकि
क्रय एकाधिकारी के लिए औसत पूर्ति मूल्य (ASP) ज्यो-ज्यो पदार्थ की अधिक मात्रा
प्राप्त करता है, बढ़ता जाता है। अतः उसके लिए सीमांत पूर्ति मूल्य (MSP) औसत
पूर्ति मूल्य (ASP) की अपेक्षा अधिक होगा। इसलिए रेखाचित्र में MSP वक्र ASP वक्र
से ऊपर रहता है और सीमांत
पूर्ति मूल्य (MSP) का वक्र, औसत पूर्ति वक्र (ASP) के प्रति सीमांत है।
अब यदि एकाधिकारी पूर्तिकर्ता यह सोचे कि पदार्थ
के एकाधिकारी के रूप में उसे क्रेता के माँग वक्र पर कोई भी मूल्य एवं उत्पादन
मात्रा निर्धारित करने का अधिकार है तब वह अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए अपनी
सीमांत लागत को सीमान्त आय के बराबर करेगा। E संतुलन बिन्दु होगा अतः OQ1 मात्रा का उत्पादन करेगा तथा OP1 मूल्य निश्चित करेगा ।
दूसरी ओर क्रय एकाधिकारी यह मानकर कि उसके पास
मूल्य निश्चित करने का पूर्ण अधिकार है, अपनी संतुष्टि को अधिकतम करने की दृष्टि
से वह अपनी सीमांत पूर्ति कीमत (MSP) को अपनी सीमांत उपयोगिता के बराबर करेगा।
चूंकि माँग वक्र DD उसके सीमांत उपयोगिता को दर्शाता है अतः वह OQ2 मात्रा को खरीद कर तथा OP₂
मूल्य निश्चित करके अपनी संतुष्टि को अधिकतम करेगा। रेखाचित्र में, OP1
मूल्य जिसे एकाधिकारी निश्चित करना चाहता है। OP₂
मूल्य जिसको क्रय एकाधिकारी निश्चित करना चाहता है, से अधिक है।
जब
क्रेता एवं विक्रेता दोनो स्वयं को मूल्य निश्चित करने वाला समझते हो तथा स्वतंत्र
रूप से कार्य करते हो तो वे भिन्न-भिन्न कीमते तथा भिन्न-भिन्न मात्राएँ निर्धारित करते है।
परन्तु परिभाषा के अनुसार न तो क्रेता के लिए और न ही विक्रेता के लिए ही कोई
वैकल्पिक मार्ग होता है जिसमे दोनों एक दूसरे से विनिमय करने के लिए बाध्य होते
है, अतः उन्हें किसी एक मूल्य पर सहमत होना पड़ता है। वास्तविक मूल्य, जिस पर पास्परिक बातचीत तथा
सौदाकारी के परिणामस्वरूप सहमति होगी OP1
तथा OP₂ के मध्य कही भी हो सकता है। चूँकि मूल्य OP1
एवं OP₂ के बीच कही भी निश्चित हो सकता है, अतः यह
इन सीमाओं के बीच अनिश्चित होता है।
संविदा वक्र की सहायता से मूल्य निर्धारण
संविदा वक्र की धारणा द्विपक्षीय एकाधिकार के अन्तर्गत उत्पादन मात्रा एवं मूल्य निर्धारण की व्याख्या करने के लिए बहुत ही उपयोगी है। मान लिया कि जब किसी वस्तु का एक एकाकी उत्पादक या पूर्तिकर्ता होता है।
रेखा चित्र में X
अक्ष पर वस्तु X की मात्रा तथा Y अक्ष
पर मुद्रा की मात्रा प्रदर्शित की गयी है। क्रेता के वस्तु X एवं मुद्रा के बीच B1,
B2, B3 अनधिमान वक्रो को खींचा गया है। प्रत्येक अनधिमान
वक्र वस्तु X एवं मुद्रा की
मात्रा के उन सभी संयोगो का मार्ग है जो उपभोक्ता को समान संतुष्टि प्रदान करते
हैं। क्रेता के पास OM
मुद्रा है जिसे वह वस्तु के ऊपर व्यय कर सकता है। अतः विनिमय के फलस्वरूप उपभोक्ता
C बिन्दु पर अपना विनिमय
बन्द कर देता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि Mm1
मात्रा में मुद्रा दी है तथा पदार्थ की OX1
मात्रा प्राप्त की है। इसी प्रकार यदि वह विनिमय D बिन्दु पर समाप्त करता है ते
इसका तात्पर्य यह होता है कि उसे Mm2
मात्रा में मुद्रा का भुगतान किया है और वस्तु की OX2
मात्रा प्राप्त की है।
क्रय एकाधिकारी तथा एकाधिकारी पूर्तिकर्ता (विक्रेता) के अनधिमान चित्र को संयुक्त रूप से एजवर्थ के बाक्स के रूप में स्पष्ट कर सकते है।
रेखाचित्र
में O'N एकाधिकारी विक्रेता की वस्तु का अधिकतम पूर्ति क्षमता स्तर है। इसलिये ऊर्ध्वाधर
अक्ष की लम्बाई क्रय एकाधिकारी के पास उपलब्ध मुद्रा की मात्रा OM के बराबर तथा क्षैतिज
अक्ष की लम्बाई एकाधिकारी के पदार्थ X
की अधिकतम क्षमता स्तर O'N के बराबर है। बाक्स में B1,
B2, B3 क्रेता के अनधिमान वक्र है जो मूल बिंदु के प्रति
उन्नतोदर है तथा S1,
S2,
S3
तथा S4
पूर्ति कर्त्ता के सम लाभ वक्र है जिन्हे उलटा घुमा दिया गया है तथा इसलिये वे भी
मूल बिन्दु O' के प्रति
उन्नतोदर है।
ध्यान
देने की बात यह है कि एजवर्थ की इस बाक्स में कोई भी बिन्दु विनिमय बिन्दु को
प्रदर्शित करता है क्योंकि यह बताता है कि एकाधिकारी एवं क्रय एकाधिकारी दोनों,
विनिमय की क्रिया के बाद कहाँ अपना विनिमय समाप्त करेंगे। उदाहरण के लिए T
बिन्दु को लीजिये जो क्रेता एवं विक्रेता के बीच एक
विशेष विनिमय स्थिति को प्रस्तुत करता है। बिन्दु T
पर क्रेता ने X वस्तु OJ
मात्रा खरीदी
है तथा उसके पास OE मुद्रा शेष बची है। एकाधिकारी विक्रेता ने X
पदार्थ की NH मात्रा की बिक्री की है तथा उसके बदले में उसे मुद्रा की ME मात्रा
प्राप्त हुई है। एकाधिकारी पूर्तिकर्ता अपने पास शेष पूर्ति क्षमता, जो O'H के
बराबर है, को अप्रयुक्त रखता है।
क्रेता
एवं पूर्तिकर्ता के अनधिमान वक्रो को स्पर्श बिन्दुओं को मिला देने पर हमे CC'
वक्र प्राप्त होता है जिसे संविदा वक्र कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इसी वक्र
के किसी एक बिन्दु पर दोनों के बीच विनिमय सम्पन्न होगा। द्विपक्षीय एकाधिकार के
अन्तर्गत मूल्य- निर्धारण एवं उत्पादन मात्रा का विश्लेषण करने की दृष्टि से हम यह
मान्यता करते है कि क्रेता एवं विक्रेता ने आपसी बातचीत द्वारा एक मूल्य पर सहमत
होना तय कर लिया है और दोनों एक
दूसरे के अनधिमान चित्र को जानते है।
व्यापार
प्रारम्भ करते समय वे यह अनुभव करेंगे कि संविदा वक्र (CC')
पर कुछ बिन्दु होगे जो दोनों के लिए अधिक हितकर सिद्ध होगे। उदाहरण के लिए एजवर्थ
की बाक्स रेखाकृति में बिन्दु W
को लीजिये जो संविदा वक्र CC'
से दूर स्थित है तथा जिस बिन्दु पर क्रेता एवं विक्रेता के दो अनधिमान वक्र B2
तथा S2
एक दूसरे को काटते है। अनधिमान
वक्रो B2 एवं S2
द्वारा घेरे
गये क्षेत्र से होकर क्रेता एवं विक्रेता दोनों के उच्चतर अनधिमान वक्र गुजरेगे ।
अतः Q एवं
R के बीच स्थित संविदा वक्र पर के सभी बिन्दुओं को दोनो पक्षों के उच्चतर अनधिमान
वक्रो पर होगे। अतः संविदा वक्र के किसी भी बिन्दु पर ( Q
तथा R
के बीच) बिन्दु W की अपेक्षा क्रेता एवं
विक्रेता दोनो श्रेष्ठतर स्थिति में होगे क्योंकि वे अपने उच्चतर अनधिमान वक्रो पर
होगे । अतएव यदि वे बिन्दु W की
व्यापार शुरू करे तो अन्ततः वे संविदा वक्र पर Q
तथा R
के बीच किसी बिन्दु पर पहुंचेंगे और उसके अनुसार व्यापार करेंगे।
अतः
वे संविदा वक्र से विलग किसी भी बिन्दु से व्यापार क्यों न शुरू करे, वे उसका
समापन अन्ततः संविदा वक्र पर स्थित किसी बिन्दु पर ही करेंगे। इस प्रकार प्रो.
बॉमोल के अनुसार, "वास्तविक विनिमय संविदा वक्र
CC' पर ही कही समाप्त होना चाहिये क्योंकि इसके अतिरिक्त
किसी अन्य स्थिति में क्रेता और विक्रेता दोनों के लिए पुनः सौदा करना लाभप्रद
होगा तथा केवल संविदा वक्र पर स्थित किसी बिन्दु पर ही इस प्रकार का विनिमय दोनों
के लिये लाभकारी होगा"।
किंतु
यह आवश्यक नहीं है कि संविदा वक्र के साथ-साथ गति करना दोनों के लिए लाभदायक होगा। हम संविदा वक्र के साथ-साथ
ज्यो-ज्यो, ऊपर की ओर बढ़ते है क्रेता अपने उच्चतर
अनधिमान
वक्रो पर
पहुँचता जायेगा तथा विक्रेता क्रमशः निम्नतर अनधिमान वक्रो पर खिसकता जायेगा। इसके
विपरीत संविदा वक्र पर नीचे की ओर किसी भी चलन का अर्थ यह होगा कि क्रेता की
स्थिति पहले से खराब होती जायेगी तथा विक्रेता पहले की अपेक्षा श्रेष्ठतर होता
जाएगा। आर्थिक विश्लेषण यह बताने में सहायक नही होता है कि क्रेता एवं विक्रेता के
बीच विनिमय संविदा वक्र पर स्थित किस निश्चित बिन्दु पर सम्पन्न होगा तथा तदनुसार
कीमत एवं वस्तु की मात्रा का निर्धारण कहाँ होगा। परन्तु हम कह सकते है कि
सम्भावित विनिमय बिन्दु M
से गुजरने वाले अनधिमान वक्रो के बीच छायांकित क्षेत्र के भीतर होगा। चूंकि क्रेता
एवं विक्रेता के बीच व्यापार का समापन संविदा वक्र पर ही किसी बिन्दु पर हो सकता
है, अतः अर्थशास्त्रियों का कहना है कि पदार्थ की कीमत एवं मात्रा द्विपक्षीय
एकाधिकार के अन्तर्गत अनिश्चित होती है।
सन्
1960 में न्यूयार्क के अर्थशास्त्री सिडनी साइजेल तथा लारेन्स ई. फाउरेकर ने
अर्थशास्त्र एवं मनोविज्ञान को एक साथ मिलाकर द्विपक्षीय एकाधिकार का सैद्धान्तिक
समाधान प्रस्तुत किया है। उनका यह मत है कि द्विपक्षीय एकाधिकार के अन्तर्गत
क्रेता एवं विक्रेता की प्रवृत्ति संयुक्त लाभ को अधिकतम करने की होती है। फिर
इसके बाद क्रेता एवं विक्रेता इस लाभ
को किसी सम्मत फार्मूला के आधार पर आपस में बाँट लेते है।
संयुक्त
लाभों को अधिकतम करने की प्रवृत्ति उस दश में अत्यधिक प्रबल हो जाती है जबकि क्रेता
एवं विक्रेता एक दूसरे की आवश्यकताओं तथा अधिमानों के बारे में अच्छी प्रकार,
जानकारी रखते है।
साइजेल
एवं फाउरेकर इस बात को भी स्पष्ट करते है कि द्विपक्षीय एकाधिकार की समस्या का
समाधान क्रेता और विक्रेता के "महत्त्वाकांक्षा के स्तरों" द्वारा भी
अत्यधिक प्रभावित होता है। महत्त्वाकांक्षा का स्तर एक मनोवैज्ञानिक धारणा है तथा
इसका अर्थ होता है 'अधिकतम करने की इच्छा'
की तीव्रता ।
किंतु
प्रो. बॉमोल द्विपक्षीय एकाधिकार की समस्या के संयुक्त लाभ अधिकतम के समाधान को
स्वीकार नहीं करते हैं। बॉमोल द्वारा द्विपक्षीय एकाधिकार की समस्या के समाधान के
लिये अनेक सुझाव दिये गये है - उदाहरण के लिए संयुक्त लाभ अधिकतम बिन्दु समझना
कठिन है क्योंकि कोई यह उम्मीद क्यों करेगा कि सौदाकारी करने वालो से सदैव यह आशा
करें कि वे किसी ऐसे ही एक बिन्दु पर अपना विनिमय बन्द कर दे। इसी कारण अनेक
अर्थशास्त्रियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि द्विपक्षीय एकाधिकार की समस्या
अनिश्चित है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त
विवेचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि द्विपक्षीय एकाधिकार की समस्या अनिश्चित है। परन्तु
अनिश्चितता का यह अर्थ भी नही
है कि अन्तिम संतुलन की अवस्था पर वास्तविक रूप से नहीं पहुँचा जा सकता है।
वस्तुतः क्रेता एवं विक्रेता किसी कीमत मात्रा के विषय में सहमति पर अवश्य आते है।
अतः "अनिश्चितता
का तात्पर्य यह है कि अन्तिम समाधान की भविष्यवाणी आर्थिक सिद्धांत पूर्णतः नहीं
कर सकता, साथ ही यह भी असम्भव है कि अंतिम परिणाम आर्थिक बातो पर आधारित न हो।
हमारा सरल विश्लेषण निश्चित रूप से अन्तिम समाधान या परिणाम की सीमाओं, को
निर्धारित कर देता है।
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