प्रश्नः - प्रकृतिवाद के मुख्य सिद्धान्तों का आलोचनात्मक वर्णन
कीजिए?
उत्तर :-
प्रकृतिवाद या Physiocrats निश्चय ही अर्थशास्त्र के वैज्ञानिक अग्रदूत कहे जा
सकते हैं। यह शब्द फ्रेंच भाषा के Physiocratie से निकला है जिसका अर्थ है,
प्राकृतिक विधान Physio का अर्थ है प्रकृति और Cracy
का अर्थ है शासन प्रणाली।
प्रकृतिवाद पर प्रभाव
कोई
भी विचारधारा सर्वथा
मौलिक नहीं होती है बल्कि पिछले
विचारों का विकास या प्रतिक्रिया होती है। प्रकृतिवाद भी इसका अपवाद नहीं है। प्रकृतिवाद पर
पड़ने वाले प्रभावो को इस प्रकार
लिखा जाता है-
(1)
वणिकवाद :- हैंने के अनुसार, "प्रकृतिवाद यद्यपि
और भी बहुत कुछ था और उसके अन्य उद्देश्य भी थे परन्तु इसकी परिभाषा में कहा जा सकता
है कि यह वणिकता के विरुद्ध फ्रांसीसियों का विद्रोह था।"
वस्तुतः
यह कोई परिभाषा नहीं है केवल इस बात को बताया गया है कि फ्रांस के लेखकों की
प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकृतिवाद का जन्म हुआ। वणिकवाद के प्रभाव दो प्रकार के थे -
(a)
धनात्मक प्रभाव :- खास तौर से वणिकवादी युग के सिद्धान्तवादी
अर्थशास्त्रियों और दार्शनिको का उन पर स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता है, जॉन
लॉक, डेविड ह्यूम, विलियम पैंटी और रिचार्ड
कैन्टिलोन
के विचारों को यद्यपि उन्होने पूरी तरह ग्रहण नहीं किया परन्तु उनके प्रभाव से वे
बच नहीं सके। 1734
में मेलन ने एक पुस्तक Essaj Politique-sur-Le Commerce लिखी
थी । जिसमें उन्होंने सोने-चांदी से
अधिक अनाज आदि को महत्व दिया था। परन्तु वणिकवादी युग के
जिस लेखक का सबसे अधिक प्रभाव प्रकृतिवाद पर दिखायी देता है वे थे रिचार्ड कैण्टीलोन । 1755 में इनका एक
निबन्ध Essay upen the Nature of Commerce in
General" प्रकाशित हुआ था। इस
निबन्ध में कैण्टीलोन ने केवल उन्हीं वस्तुओं को धन माना जो आवश्यक है या सुख देने
वाली है। मुख्य बात यह कही कि "धरती ही धन उत्पन्न करती है और श्रम
ही वह
शक्ति है जो धन पैदा
करती है।"
(b)
ऋणात्मक प्रभाव :- हैने ने प्रकृतिवाद
को वणिकवाद के विरुद्ध
विद्रोह कहा है। प्रकृतिवादियों ने वणिकवाद के हस्तक्षेप की नीति का विरोध किया और
मुक्त व्यापार तथा मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन किया। फ्रांस में कॉलबर्ट ने वणिकवादी
नीतियों को लागू किया था जिसके परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था खराब हो गयी थी। अतः प्रकृतिवादियों
ने कौलबर्टवाद
का भी विरोध
किया। इसी अर्थ में प्रकृतिवाद पर वणिकवाद
का प्रभाव बताया जाता
है।
(2)
राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियाँ :- प्रकृतिवाद का जन्म फ्रांस
में हुआ उस युग में फ्रांस में निरंकुश राजाओं का शासत था। प्रकृतिवादी विचारों में
स्वतन्त्रता
की आवाज उठाई गयी परन्तु यह केवल
आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए उठाई गयी थी। मुक्त व्यापार
और मुक्त अर्थतंत्र के लिए उन्होंने आग्रह किया। राजा के कर्तव्य भी बताये। उस युग
की अर्थव्यवस्था भी बहुत चिन्ताजनक थी। किसान अत्यधिक निर्धन थे और समाज में उनका कोई
महत्त्व नहीं
था। विलासिता, शोषण, भ्रष्टाचार के इस वातावरण के विरुद्ध प्रकृतिवादियों के विचार एक
नवीन आर्थिक प्रणाली का सन्देश लेकर
आये।
(3)
कर प्रणाली :- उस युग की कर प्रणाली किसी सिद्धान्त
या आदर्श
पर आधारित नहीं थी। विलासी शासकों के
युद्ध आदि के खर्च को पूरा करने के
लिए प्रजा को बहुत से कर्ज देने पडते थे जिनसे न केवल प्रजा के कष्ट बढ़ गये बल्कि देश की उत्पादक
शक्ति भी कम हो गयी थी। करो में सरदारो
और पादरियो को
छूट थी। गरीबों को करीब आय का 50 प्रतिशत करो के रूप में देना पड़ता था।
(4) बुद्धिवाद का उदय :- तत्कालीन फ्रांस में हम इस युग में एक वैचारिक क्रान्ति
भी पाते है। लेखको ने धार्मिक और राजनीतिक दासता के विरुद्ध लिखना प्रारम्भ कर
दिया था।
प्रकृतिवाद के मुख्य सिद्धान्त
प्रकृतिवाद के मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित है -
(A) प्राकृतिक विधान का सिद्धांत :- यह प्रकृतिवाद का आधारभूत सिद्धान्त था। दूपान्त द
नेमर्स ने प्रकृतिवाद की परिभाषा में ही कहा था," प्रकृतिवाद प्राकृतिक विधान
का विज्ञान है।" इसका संकेत रुसो के ग्रन्थ 'Contract
Social' में मिलता है।
प्राकृतिक विज्ञान का सही अर्थ समझना आवश्यक है। वस्तुतः
प्रकृतिवादी लेखको में इस विषय मे न केवल मतभेद है बल्कि काफी अस्पष्टता भी है।
इसके निम्नलिखित अर्थ हो सकते है -
(1) इसकी एक व्याख्या के अनुसार प्राकृतिक विधान एक ऐसी
सामाजिक व्यवस्था है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार जीवन-यापन करता है और
प्रकृति के नियमों द्वारा संचालित होता है। रूसों का ऐसा सिद्धान्त था। जीद तथा
रिस्ट ने अपनी पुस्तक 'History of Economie, Doctrines' में लिखा है "प्रकृतिवादियों
में जगंलीपन या बर्बरता का कोई लक्षण नहीं था। हैने ने लिखा है, "समाज का
प्राकृतिक विधान प्राकृतिक अवस्था से भिन्न वस्तु है, क्योंकि प्राकृतिक विधात
नियम तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति पर आधारित है।"
(2) प्राकृतिक विधान का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि,
"मानव समाज भी उसी प्रकार के प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है, जैसे नियम
जड़ जगत तथा पशु जगत को संचालित करते हैं।"
(3) प्रकृतिवादियों का मन्तव्य प्राकृतिक विधान से कुछ और
ही था. उनके अनुसार, "प्राकृतिक विधान वह विधान है जो भगवान ने मनुष्य जाति
के आनन्द के लिए बनाया है। यह दैवी आदेश है तथा इसे समझना प्रथम कर्तव्य है और अपने जीवन को इसके अनुकूल
बनाना दूसरा ।"
प्राकृतिक विधान एक दैवी विधान है जिसे देखा
तो नही जा सकता परन्तु ध्यान द्वारा उसकी अनुभूति की जा सकती है। यह विधान ही मनुष्य
के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। हमारे सभी कार्य, सभी नियम और सभी व्यवस्थाएं इस प्रकार
की होनी चाहिए कि यह दैवी विधान अपना कार्य कर सके। मनुष्य, जाति का सुख इसी बात पर
निर्भर करता है।
इस विधान के कार्य के लिए प्रकृतिवादियों ने निम्नलिखित सुझाव
दिये-
(1) मनुष्य की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप न हो। क्वेने ने लिखा
है कि "हर व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि कम से कम व्यय में वह अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त
कर सके। जब प्रत्येक व्यक्ति यह करेगा तब प्राकृतिक विधान संकट में नहीं
पड़ेगा बल्कि निश्चित हो जायगा।"
(2) शिक्षा प्रणाली इस तरह की हो कि सब व्यक्ति प्राकृतिक विधान
से परिचित हो सके।
(3) सामाजिक तथा राजनीतिक नियम कम से कम हो।
(4) व्यक्तिगत सम्पत्ति का सिद्धांत विधान में सहायक है।
(5) शासन शक्तिशाली हो परन्तु जो कार्य अच्छा हो रहा है उसमे
वह हस्तक्षेप न करें किन्तु जो काम खराब हो रहा है उसको दण्ड द्वारा ठीक करो।
(6) समाज में व्यवस्था और अमन रहना आवश्यक है। यदि अशान्ति होगी
तो प्राकृतिक विधान समाप्त हो जायगा।
(7) प्रकृतिवाद के सिद्धांत पर प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत
भी आधारित है। प्राकृतिक अधिकार के अनुसार जितना धन मनुष्य ने अपने श्रम से उत्पन्न
किया है वह उसका है।
आलोचना
यह सिद्धान्त अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में अवश्य दिया गया है
परन्तु यथार्थ में वह दर्शन का सिद्धांत है और भारत के वेदान्त के सिद्धान्तों में
बहुत मिलता-जुलता है। इस सिद्धान्त में निम्नलिखित
कठिनाइयों है-
(1) पहली बात तो इसका नाम दोषपूर्ण है। इससे यह भ्रम हो
सकता है कि प्रकृतिवाद किसी बर्बर या जंगली जीवन का आदर्श प्रस्तुत करना है अथवा
भौतिक जगत के नियमों के बारे में बात करता है।
(2) दूसरी कठिनाई यह है कि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं
है।
(3) तीसरी त्रुटि है प्राकृतिक विधान को सुख मानने का।
ईश्वर सदा हमे रोटी ही प्रदान नहीं करता कभी हमे भूखो भी मार सकता है। वह अपने
तरीके से दयालु है।
(4) प्राकृतिक विधान का व्यावहारिक कार्यक्रम बहुत संदिग्ध
है। व्यक्ति का हित सदा समाज के हित से मेल नहीं खाता ।
(5) प्रकृतिवाद के सिद्धान्त में विरोधाभास कई स्थानो पर
है। वे व्यक्ति की स्वतंत्रता को मानते है परन्तु शक्तिशाली शासन को आवश्यक समझते
हैं।
(6) अन्तिम बात यह है कि प्राकृतिक विधान का ज्ञान होना
सर्वसामान्य के लिए सम्भव नहीं है। यदि ऐसी कोई व्यवस्था है तो केवल महापुरुष ही
उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते है।
फिर भी प्राकृतिक विधान के विचार का प्रभाव आर्थिक चिन्तन
पर पड़ा। एडम स्मिथ का दार्शनिक सिद्धांत जो सहजवाद तथा आशावाद के नाम से विख्यात
है, प्रकृतिवाद के प्राकृतिक विधान से बहुत भिन्न नहीं है।
(B) शुद्ध उत्पादन का सिद्धांत :- प्रकृतिवाद का दूसरा महत्त्वपूर्ण विचार शुद्ध उत्पादन
का सिद्धांत है और इसे हम अर्थशास्त्र के क्षेत्र का सिद्धांत कह सकते हैं। धन के
उत्पादन में कुछ धन व्यय होता है जिसे लागत या व्यय कहते है। इसे जब उत्पन्न धन
में से घटाया जाता है तब शुद्ध उपज आती है। यही समाज की असली आय है। दूपांत ने कहा
है, "मनुष्य जाति की समृद्धि अधिकतम शुद्ध उपज पर आश्रित है।" इस
सिद्धान्त का निष्कर्ष निकाला गया है कि कृषि को एक ही एकमात्र उत्पादक उद्योग
समझा गया।
व्यापार, निर्माणी उद्योग आदि को कम महत्त्वपूर्ण समझा गया कृषि
के अतिरिक्त अन्य उद्योगों मे लगे हुए व्यक्तियो को अनुत्पादक वर्ग समझा गया।
कृषि के अतिरिक्त खनिज उद्योग, वन उद्योग आदि को प्रकृतिवादी
उत्पादक मानते थे अथवा नहीं। इस विषय मे स्वयं प्रकृतिवादी लेखको में भी मतभेद पाया
जाता है। परन्तु ऐसा प्रतीत है कि इन उद्योगों को व्यापार तथा निर्माण की अपेक्षा अधिक
उत्पादक मानते हुए भी कृषि की अपेक्षा अनुत्पादक ही मानते थे।
तात्पर्य यह है कि मनुष्य केवल धन या वस्तुओ का रुपान्तर कर
सकता है, धन उत्पन्न नही कर सकता। वह केवल प्रकृति ही कर सकती है और केवल
कृषि मे ही प्रकृति यह कार्य करती है।
आलोचना
इस सिद्धांत के निम्नलिखित दोष है-
(1) प्रकृतिवादी
प्रकृति के सही रूप से परिचित नहीं थे। केवल कृषि में ही प्रकृति का सहयोग दिखायी नही देता बल्कि बिजली की
शक्ति भी प्रकृति की ही देन है। इन सबके द्वारा धन के उत्पादन में सहायता मिलती है,
परन्तु प्रकृतिवादी इसको नहीं मानते। उनके युग मे यह सब था भी नही।
(2) दूसरी बात यह है कि कृषि पर ही उद्योग निर्भर नहीं होते, उद्योग पर कृषि भी निर्भर होती है। उर्वरक, सिचाई के साधन,
मशीने इत्यादि से कृषि में परिवर्तन हुए है। इस दृष्टि से भी उद्योगों को शुद्ध
उपज के उत्पादन में सहायक मानना पड़ेगा।
(3) कृषि से सदैव आधिक्य रहता हो ऐसा नहीं है। कृषि मे भी हानि
होती है अर्थात् लागत से उत्पादन कम होता है।
(4) शुद्ध
उपज को मापने का उनका तरीका भी दोष पूर्ण था। वे मानते
थे कि प्राकृतिक
विधान में कृषि उपज का मूल्य लागत से अधिक होता है। यह तरीका अन्य उद्योगों में भी
पाया जाता है।
परन्तु शुद्ध उपज का सिद्धांत कई दृष्टियों से
महत्वपूर्ण है। इसमे हमे लगान के
सिद्धांत का सर्वप्रथम सूत्रपात मिलता है। इस सिद्धांत ने वणिकवाद को काफी क्षति
पहुंचायी और कृषि के महत्त्व स्थापित किया। इसके द्वारा समाज का ध्यान कृषि की
दुर्दशा और शोषण पर गया।
(C)
सम्पत्ति का परिभ्रमण :-
इसका प्रतिपादन क्वेने ने अपनी 'आर्थिक सारणी' में किया। उन्होने इस विचार को शरीर
मे रक्त के परिभ्रमण के सिद्धांत से प्राप्त किया। उन्होंने घोषित किया कि समाज
में धन का परिभ्रमण भी कुछ निश्चित प्रणाली से होता है। क्वेने ने समाज को तीन
वर्गों में विभाजित किया है :
(i)
उत्पादक वर्ग :- इसमें केवल कृषक
और कुछ परिस्थितियों में मछली पकड़ने और खान खोदने वाले रखे गये।
(ii) सम्पत्तिशाली वर्ग :- इसमें वे व्यक्ति सम्मिलित किये गये जो भूमि आदि के
स्वामी थे, जैसे जमींदार, राजा। क्वैने ने इस वर्ग को अनावश्यक नहीं माना क्योंकि
वह वर्ग पूँजी लगाकर धन उत्पादन में मदद देता था। यह पूँजी का विनियोग उनके अनुसार
तीन प्रकार की थी-
(a) भूमि विनियोग (b) वार्षिक विनियोग (c) स्थायी विनियोग
या अचल पूँजी ।
(iii) अनुत्पादक वर्ग या उद्योगपति :- इस श्रेणी में घरेलू नौकर, कलाकार, उद्योगपति तथा मजदूर
है जो कोई शुद्ध उपज का निर्माण नहीं करते। समाज की शुद्ध उपज केवल किसान पैदा
करते है। यह शुद्ध उपज किस प्रकार परिभ्रमण करती है, यह निग्नलिखित विश्लेषण से
स्पष्ट हो जाता है
(a) मान लीजिए किसान 5 करोड़ रुपये के मूल्य का धन उत्पन्न
करते है। इसमें 2 करोड़ रुपये का धन किसानो के परिवार के लिए आवश्यक है
अर्थात शुद्ध उपज 3 करोड़ रुपये के मूल्य की है । इसी का परिभ्रमण होता है।
(b) इस तीन करोड़ के मूल्य की सम्पत्ति में मान लीजिए 2 करोड़
रुपये के मूल्य का गल्ला है और 1 करोड़ रुपये के मूल्य का कच्चा माल है।
(c) किसान इसमें 2 करोड़ रुपये कर और लगान के रूप में
सम्पत्तिशाली वर्ग को और 1 करोड़ रुपये उद्योगपतियों को दे देते है जिनसे कपड़े,
जूते आदि मिलते है। किसानो के पास देश की मुद्रा भी रहती है जिसे वे माल बेचकर
प्राप्त करते हैं।
(d) उद्योगपतियों ने मान लीजिए 2 करोड़
रुपये का निर्मित माल तैयार किया है। इसमे से वे 1 करोड़ रुपये का माल किसानो को
और 1 करोड़ रूपये का माल भूस्वामियों को बेच देते हैं। अब उद्योगपतियों के पास 2
करोड़ रुपया आ जाता है।
(e) भूस्वामी जिनको 2 करोड़
रुपया मिला था 1 करोड़ रुपये उद्योगपतियों को माल के बदले में दे देते है और 1 करोड़
किसानों को खाद्य के बदले में दे देते है अर्थात् भूस्वामियो को खाद्य और निर्मित
माल मिल जाता है और उनका रुपया समाप्त हो जाता है।
(f) उद्योगपति अपने लिए माल किसानो से प्राप्त करते है जिसके
लिए 1 करोड़ रुपया किसानो को कच्चे माल के लिए और 1 करोड़ रुपये खाद्य के लिए दे
देते है, अर्थात् उनके पास कच्चा माल और खाद्य आ जाता है जिससे अगले वर्ष का माल
तैयार होता है।
(g) किसानों को फिर से पूरा 3 करोड़ रुपया वापस पहुंच जाता है अगले वर्ष फिर से कर, लगान और निर्मित माल खरीदने के काम में आता है।
अलैक्जेण्डर ग्रे ने अपनी पुस्तक,"The Development of Economic Doctrine" में परिभ्रमण के चक्र को नीम्न रूप में समझाया है
आलोचना
(1) यह बात ही गलत है कि केवल किसान ही शुद्ध उपज का
निर्माण करता है और उसी का परिभ्रमण होता है। आधुनिक मत से निर्माता भी शुद्ध उपज
बनाता है और वह भी समाज में परिभ्रमण करती है।
(2) एक वर्ग के अन्दर भी धन का परिभ्रमण होता है किन्तु यह
किस प्रकार होता है इसका कोई वर्णन नहीं है।
(3) उक्त वितरण की योजना यह सिद्ध करती है कि समाज का
सम्पूर्ण धन किसानों के पास ही होना चाहिए जबकि व्यवहार मे हम पाते है कि किसान
सबसे दयनीय है।
(4) कुल मिलाकर धन के वितरण की यह क्रिया काल्पनिक, अपूर्ण
एवं अवैज्ञानिक है। इसका कोई प्रमाण या तर्क प्रकृतिवादियों ने नहीं दिया है।
(D) मूल्य सम्बन्धी विचार :- मूल्य का कोई सिद्धांत व्यवस्थित रूप से प्रकृतिवादी ने
नहीं दिया। फिर भी उनके अनुसार मूल्य दो प्रकार के हो सकते है-
(a) आधारभूत मूल्य, जो कि लागत पर आधारित था। बाद मे इस मूल्य
को सामान्य मूल्य माना गया।
(b) प्रचलित मूल्य, यह क्रेताओं और विक्रेताओ की स्पर्द्धा पर निर्भर
था।
मूल्य से उनका
तात्पर्य विनिमय मूल्य से था। तरंगों ने लिखा है कि स्पर्द्धा में मूल्य वहाँ निर्धारित
होता है जहाँ दोनो दलों को आधिक्य मिल सकता है। यद्यपि
प्रकृतिवादी मानते थे कि आधिक्य केवल कृषि में ही मिलता है।
कृषि में चूंकि आधिक्य मिलता है, अतः प्राकृतिक विधान मे बाधा न
पड़े तो वहाँ मूल्य लागत से अधिक ही होगा। इसे उन्होंने ऊँचा मूल्य कहा। कृषि की उपज
का ऊँचा मूल्य समृद्धि का चिह्न है।
कठिनाई यह है कि प्रचुरता अर्थात् अधिक उत्पादन में ऊँचे मूल्य
रहते कहाँ है - खास तौर से मुक्त अर्थव्यवस्था में मूल्य का गिरना अनिवार्य होता है।
ऊंचा मूल्य तो दुर्लभता मे ही पाया जा सकता है। यहाँ हम मूल्य के श्रम सिद्धांत का
संकेत पाते है, जिसे आगे एडम स्मिथ तथा कार्ल मार्क्स ने विकसित
किया।
(E) अर्थ नीति सम्बन्धी विचार:- प्रकृतिवादियों ने इन सिद्धान्तों पर आधारित जो व्यावहारिक
कार्यक्रम बताया वह निग्नलिखित है
(1) व्यापारः- इनकी दृष्टि में व्यापार से समाज में धन की वृद्धि नहीं होती। परन्तु फिर भी
व्यापार उपयोगी है क्योंकि इससे समाज के सभी सदस्यों को आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त होती
है। वणिकवादी व्यापार को प्रोत्साहन देने के अनेक तरीको का प्रचार करते थे, परन्तु प्रकृतिवादी किसी भी
प्रकार के हस्तक्षेप को हानिप्रद समझते थे। उनके प्रभाव से बहुत से निर्यात और आयात
कर समाप्त किये गये।
(2) व्यक्तिगत सम्पत्ति :- प्रकृतिवादी इसके भारी समर्थक थे। इस विषय में उनका कहना यह था कि भूमि एक कुएं के समान है जिससे
स्वामी (भूस्वामी वर्ग) उसे किसानों को पानी खींचने के लिए दे देते हैं। अनुत्पादक
वर्ग कुछ दूरी पर पानी की प्रतीक्षा में खड़ा रहता है।
(3) कर प्रणाली :- वे मानते थे कि शासन को उत्पन्न
धन में भाग पाने का अधिकार है। उस देश
की सुरक्षा, यातायात की व्यवस्था और कृषि के सुधार के लिए धन की आवश्यकता होती है जिसको
करो के द्वारा पूरा किया जा सकता है। यह कर भूमि के स्वामियो से वसूल किया जाना चाहिए। बोदयू ने कर की सीमा 30% निर्धारित की।
उद्योगों पर कर लगाना सम्भव नही है, क्योंकि उनका उत्पादन लागत के बराबर ही होता है
और उन्हें कुछ भी आधिक्य नहीं मिलता।
(4) शासन के कर्तव्य :- प्रकृतिवादी स्वतन्त्रता और प्राकृतिक
विधान के समर्थक होते हुए भी शक्तिशाली शासन को आवश्यक मानते थे। साथ ही वे चाहते थे
कि अनावश्यक नियम समाप्त किये जाये और जो नियम बने वे केवल प्राकृतिक विधान की पूर्ति
के लिए हो।
प्रकृतिवाद का महत्त्व एवं प्रभाव
(1) प्रकृतिवादियों ने कई ऐसे सिद्धान्तों
का सूत्रपात किया जो बाद में अर्थशास्त्र के स्वीकृत सिद्धांत बने। एडम स्मिथ के सिद्धान्तो को तो प्रकृतिवाद से ही आधार और प्रेरणा
मिली।
(2) प्रकृतिवादियों की आर्थिक नीति
का न केवल उस समय बल्कि आधुनिक युग पर भी प्रभान है। उनकी स्वतन्त व्यापार की नीति
अभी भी लोक प्रिय है। मुक्त अर्थव्यवस्था के जनक प्रकृतिवादी ही थे।
(3) इन्होंने कृषि के महत्त्व को समझाकर समाज का बड़ा उपकार
किया है। अतिशयोक्ति, भले ही हो किन्तु उसका सिद्धांत एक बड़ी सीमा तक सही है।
(4) उन्होने सर्वप्रथम यह संकेत दिया कि आर्थिक क्रियाएं भी
कुछ प्राकृतिक नियमो से संचालित हो सकती है।
(5) व्यक्तिगत सम्पत्ति के सिद्धांत की कई देशों में अभी भी
मान्यता है- यद्यपि समाजवाद इसका विरोधी है।
(6) शुम्पीटर ने कहा है कि केने ने ही सर्वप्रथम समाज में सामान्य
साम्य का प्रतिपादन किया।
प्रकृतिवाद एवं वणिकवाद की तुलना
प्रकृतिवाद एवं वणिकवाद में निम्नलिखित अन्तर है-
(1) वणिकवाद वस्तुतः कोई संगठित विचारधारा नहीं थी। यह दो-तीन शताब्दियों
में फैली हुई अर्थनीति का वर्णन है। इसके विपरीत प्रकृतिवाद को एक विचारधारा कहा जा
सकता है। इन विचारों में आश्चर्यजनक समानता थी।
(2) वणिकवाद में सोना, चांदी एवं व्यापार को अधिक महत्व है,
कृषि को कम महत्त्व दिया गया है। प्रकृतिवाद कृषि को ही सर्वोपरि महत्व देता है और
उसी को समाज की समृद्धि का साधन मानता है।
(3) वणिकवादी नियन्त्रित अर्थव्यवस्था के समर्थक थे, परन्तु
प्रकृतिवादी मुक्त अर्थव्यवस्था के प्रतिपादक थे।
(4) प्रकृतिवादियों का दृष्टिकोण सैद्धान्तिक एवं कुछ सीमा तक वैज्ञानिक
था, वणिकवादियो का दृष्टिकोण
व्यावहारिक था।
(5) प्रकृतिवादी प्रकृति को ही एक मात्र उत्पादक साधन मानते
थे परन्तु वणिकवादियों ने प्रकृति तथा श्रम दोनों को साधन माना।
(6) प्रकृतिवाद एक दार्शनिक सिद्धांत पर आधारित है।
उनका दर्शन यह था कि सारे संसार में ईश्वर का विधान है। वणिकवाद भौतिकवादी दृष्टिकोण
पर आधारित है। उन्होने अपनी नीतियों पर दर्शन, धर्म तथा नीतिशास्त्र आदि का प्रभाव
नहीं पड़ने दिया।
(7) वणिकवादी कई करो को चाहते थे, जबकि
प्रकृतिवादी केवल भूमि के स्वामियों पर कर लगाने के पक्षपाती थे।
निष्कर्ष
प्रकृतिवाद का अन्य विचारधाराओं के
समान एक युग था इसके पश्चात उसका प्रभाव समाप्त होना स्वाभाविक था। उसके सिद्धान्तो
में जो सच्चाई का अंश था वह बाद के अर्थशास्त्र में स्वीकार किया गया और शेष को छोड़
दिया गया।
प्रकृतिवाद से अधिक शक्तिशाली और तर्कपूर्ण
विचार एडम स्मिथ ने प्रस्तुत किये। सूर्य के प्रकाश में जिस प्रकार सितारो की ज्योति
मन्द पड़ जाती है इसी प्रकार एडम स्मिथ और उनके अनुयायियों के उदय के साथ प्रकृतिवाद
भी इतिहास के पन्नों में खो गया।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)