स्थिर एवं परिवर्तनशील विनिमय दरे (Fixed and Flexible Exchange Rates)

स्थिर एवं परिवर्तनशील विनिमय दरे (Fixed and Flexible Exchange Rates)

स्थिर एवं परिवर्तनशील विनिमय दरे (Fixed and Flexible Exchange Rates)

स्थिर एवं परिवर्तनशील विनिमय दरे (Fixed and Flexible Exchange Rates)

प्रश्नः- निश्चित (स्थिर, स्थाई) एवं लोचदार (परिवर्तनशील अस्थाई) विनिमय दरों के गुण-दोषों की चर्चा करे?

☞ स्थाई एवं अस्थाई विनिमय दर के बीच में अन्तर स्पष्ट करें?

उत्तर -

(A) निश्चित विनिमय दरें

जब एक देश अपनी मुद्रा का मूल्य दूसरे देश की मुद्रा में निश्चित कर देता है और इस निर्धारित मूल्य को स्थिर रखा जाता है तब विनिमय दरों को निश्चित विनिमय दरें कहा जाता है। जैसे, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रणाली, जिसकी स्थापना 1945 में की गई थी, इसके अन्तर्गत प्रत्येक सदस्य देश ने कोष के सदस्य बनने पर स्वंय की मुद्रा की विनिमय डालर से समता के अनुसार घोषित की। यह भी स्थिर (निश्चित) विनिमय दर थी, इसके प्रारंभ में उच्चावचन की सीमा ± 1% (एक प्रतिशत ऊँची व एक प्रतिशत नीची) निर्धारित थी, 1972 में यह सीमा ± `2\frac{1}4` % ( `2\frac{1}4` % अधिक व  `2\frac{1}4` % कम) कर दी गयी।

निश्चित (स्थाई, स्थिर) विनिमय दरो के गुण

(1) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि :- जब विश्व के प्रत्येक देश अपनी मुद्रा की एक निश्चित विनिमय दर अपना लेते है और उसे बनाए रखने का प्रयत्न करते है तो आर्थिक एकता में वृद्धि होती है, आपसी लेन-देन और भुगतान सरल हो जाता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।

(2) विदेशी पूंजी को प्रोत्साहन:- विनिमय दर में स्थिरता रहने से विदेशी पूंजी का आयात निः संकोच होता रहता है जिससे देश के आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।

(3) पूँजी निर्माण में वृद्धि :- जब विनिमय दर में स्थिरता बनी रहती है उससे आंतरिक कीमत स्तर में भी स्थायित्व बना रहता है। फलतः जनता अपनी आय का कुछ भाग बचाने में संकोच नहीं करती तथा जो राशि बचाई जाती है उसका विनियोजन भी कर दिया जाता है क्योंकि संभावित लाभ की र प्रायः स्थिर रहती है। इस प्रकार देश में पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है।

(4) आर्थिक नियोजन :- विनिमय दर स्थिर रहने पर सरकारी परियोजनाओं के व्यय निर्धारित मात्रा से आर्थिक नहीं होते। सरकार के आयात मूल्यों में भी भारी उत्तार चढाव नहीं आता। अतः आर्थिक नियोजन के कार्यान्वयन में कठिनाइयां नहीं आती।

(5) द्रुत आर्थिक विकास :- स्थिर विनिमय दरों के कारण विनिमय नियंत्रण थवा प्रथम संबंधी अनेक व्यवस्थाओं में प्रशासन तथा सरकार की उलझे रहने से छुटकारा मिल जाता है। तः सरकार विकसित अर्थतंत्र पर अधिक ध्यान देकर आर्थिक विकास की दर को बढ़ा सकती है।

(6) भुगतान संतुलन बनाये रखने में सहायक :- स्थिर विनिमय दरों के कारण विदेशी पूँजी आकर्षित होती है, औद्योगिक विकास संभव होता है, रोजगार का विस्तार होता है, मूल्यों में स्थिरता बनी रहती है। इन सबके फलस्वरूप देश का भुगतान संतुलन देश के अनुकूल हो जाता है।

(7) आर्थिक स्थिरता लाने में सहायक :- द्वितीय महायुद्ध के उपरांत अधिकांश देशों की आर्थिक स्थिति अस्थिर एवं डावांडोल हो रही थी। इस अस्थिरता की स्थिति को समाप्त करने में विनिमय दरों में स्थिरता सहायक होती है।

(8) सट्टे की प्रवृ‌त्ति पर अंकुश या नियंत्रण :- विनिमय दरो की निश्चितता के कारण सटोरियों को तेजी मंदी के सौदे करने का अवसर समाप्त हो जाता है। इस प्रकार देश इस क्षेत्र से सट्टे की खराबियों से मुक्त रहता है।

(9) मुद्रा की विश्वसनीयता :- विनिमय दरो की निश्चितता के कारण देश की मुद्रा की विश्वसनीयता में वृद्धि होना स्वाभाविक है। देश का व्यापारी वर्ग ही नहीं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र का व्यापारी वर्ग भी इस मुद्रा का अधिक विश्वास करके निः संकोच स्वीकार कर लेता है। ये मुद्रा के मूल्यों में उतार-चढ़ाव के भय से मुक्त रहते हैं।

(10) अनुशासित नीतियाँ :- मौद्रिक नीतियां भी निश्चित विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत विशेष अनुशासन में रहती है। इस मत की पुष्टि के लिए स्वर्णमान उदाहरण दिया जा सकता है जिसमें अर्थव्यवस्थाएं और मौद्रिक पद्धतियां स्वाभाविक अनुशासन मे रहती है।

निश्चित विनिमय दरों के दोष

(1) राष्ट्रीय हितो की अवहेलना :- स्थिर विनिमय दर प्रणाली में एक दोष यह भी है कि अन्तर्राष्ट्रीय हित में राष्ट्रीय हितो की बलि करनी पड़ती है क्योंकि अपनी मुद्रा की दर का अन्य देशों की मु‌द्रा से एक निश्चित अनुपात बनाये रखने के लिए आंतरिक रोजगार, राष्ट्रीय आय, मूल्य स्तर व अन्य राष्ट्रीय हितों को गौण माना जाता है। आधुनिक युग में इस प्रकार की नीति अपनाना न तो संभव है और न उचित ही है।

(2) अन्य क्षेत्रों में नियंतण :- स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत केवल विदेशी विनिमय और भुगतानों पर ही प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है बल्कि अनेक प्रकार के अनुशासन उद्योग, बैंकिंग व्यवसाय और विदेशी व्यापार आदि पर भी लागू करने पड़ते है। इन प्रतिबंधों व नियंत्रणो के कारण भ्रष्टाचार व अनैतिक क्रियाओं को प्रोत्साहन मिलता है जिसे समाप्त करना बहुत कठिन होता है।

(3) विनिमय दर में अत्यधिक उच्चावचन :- स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत जब कोई मुद्रा बहुत दुर्बल हो जाती है और उसकी दर निर्धारित स्तर पर बनाए गाए रखनी कठिन हो जाती है तो उसका अवमूल्यन किया जाता है। जब अवमूल्यन किया जाता है तब वह न केवल आकस्मिक होता है। बल्कि मुद्रा की विनिमय दर में आवश्यकता से अधिक कमी की जाती है। इस प्रकार विनिमय दर में आकस्मिक व अत्यधिक उच्चावचन होने पर व्यापार और विदेशी भुगतानो को बहुत क्षति पहुंचती है।

(4) पूर्ण रोजगार में बाधक :- विकास की गति मंद पड़ने के कारण पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करना कठिन होता है। स्थिर विनिमय दरे विदेशी पूँजी को आकर्षित करने में भी असफल सिद्ध हुई है। इस प्रकार विकासशील राष्ट्रों के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं मिला है।

(5) तस्करी तथा अन्य अनियमित व्यापार को प्रोत्साहन :- विदेशी विनिमय दरे अगर स्थिर रहती है तो देश विदेश के मूल्य स्तरो में अन्तर बना रहना स्वाभाविक होता है। अतः तस्करी तथा अन्य अनियमित व्यापारिक लेन देनों का होना स्वाभाविक होता है।

(6) मौद्रिक नीति की सफलता की संदिग्धता :- देश का केन्द्रीय बैंक मुद्रा के मूल्यों के उतार चढ़ाव को रोकने के लिए जो मौद्रिक नीतियां अपनाता रहता है, स्थिर विनिमय दरों के कारण वे नीतियां असफल हो जाती है। विदेशी मुद्रा के क्रय के लिए खुले बाजार की क्रियाओं संबंधी नीति स्थिर विनिमय दरो के कारण असफल हो जाती है।

(7) अवमूल्यन की बारंबारता :- विनिमय दरों की स्थिरता बनाए रखने के लिए अनेक बार अपनी मुद्रा का मूल्य कम करने को बाध्य होना पड़ता है। भारत जैसे विकासशील देश को ही नहीं वरन् स्वंय अमेरिका तथा ग्रेट ब्रिटेन जैसे देशों को भी अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करना पड़ा है।

(8) विकास में गतिरोध :- जार्ज में मैकेन्जी ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली की प्रभावपूर्ण क्रियाशीलता के लिए निम्नलिखित तीन मापदंडों का उल्लेख किया है।

(a) इसके द्वारा इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न किया जाना चाहिए जिससे भागीदार देश आंतरिक लक्ष्य जैसे-आर्थिक विकास, पूर्ण रोजगार, मूल्य स्थिरता व सामाजिक न्याय प्राप्त कर सके।

(b) इसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व पूँजी विनियोगों में स्थायित्व एवं प्रगति को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।

(c) इसका संचालन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार पर प्रत्यक्ष, नियंत्रणों के अभाव में संभव होना चाहिए क्योंकि नियंत्रणो में अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण के लाभ कम हो जाते है।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के तत्त्वावधान में संचालित मुद्रा व्यवस्था मैकेन्जी द्वारा वर्णित मापदंडों की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी है। गत वर्षों में अनेक मुद्राओं का अवमूल्यन हुआ है, विभिन्न देशों के व्यापार संतुलन में बहुत अधिक अंतर है। इसी प्रकार रोजगार, राष्ट्रीय आय तथा मुद्रा की स्थिति में भी व्यापक अंतर है। अतः यह कहना उचित है कि स्थिर विनिमय दर प्रणाली सभी देशों के लिए सभी परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं है। सन् 1971 से जो अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है उससे तो मुद्रा कोष का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। बड़े देशों ने अपने विनिमय दरो के निर्धारण में इस प्रकार व्यवहार किया है जैसे IMF जैसी कोई संस्था विश्व में है ही नहीं।

इस प्रकार अनु‌भव यह बताता है कि निश्चित विनिमय दरो को एक तो बनाये रखना कठिन है और दूसरे इसको बनाये रखने से देश की अर्थव्यवस्था पर घातक प्रभाव पड़ते है। अतः निश्चित विनिमय दर प्रणाली के स्थान पर किसी अन्य प्रणाली को अपनाना अधिक श्रेयस्कर होगा।

(B) लोचदार विनिमय दर

लोचदार विनिमय दर व्यवस्था के अधीन विनिमय दर का निर्धारण दिन प्रतिदिन के स्वतंत्र बाजार की मांग व पूर्ति द्वारा होता है। लोचदार विनिमय दर प्रणाली को संचालित करने के लिए बाजार में आवश्यक हस्तक्षेप केन्द्रीय बैंक या राजकोष अथवा इसी लक्ष्य के लिए नियुक्त विशेष अभिकरण द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार लोचदार विनिमय प्रणाली निश्चित और स्वतंत्रता पूर्वक घटने बढने वाली दर व्यवस्था के बीच की स्थिति है।

लोचदार (परिवर्तनशील, अस्थाई) विनिमय दरो के गुण

लोचदार विनिमय दरों के निम्नलिखित गुण है जिसके कारण यह स्थिर दरो की तुलना में श्रेष्ठ समझी जाती है:

(1) मौद्रिक नीति का सफल क्रियान्वयन :- लोचदार विनिमय दर का एक लाभ यह है कि इसके अन्तर्गत अल्पकाल में मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जा सकता है। इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए भारत के संदर्भ में लिये गये उदाहरण को लेते है - माना भारत में मुद्रा प्रसार फैला हुआ है, जिसे कम करने के लिए भारत का रिजर्व बैंक खुले बाजार में सरकारी प्रतिभूतियां बेचता है। इससे बैंको के नकद कोष में कमी आ जाती है और ब्याज की दर में वृद्धि हो जाती है। ब्याज की दरे बढ़ने से भारत में विदेशी पूँजी विनियोग के लिए आने लगती है, जिससे भारतीय रुपये की मांग बढ़ जाती है। रूपये की मांग बढ़ने पर उसकी विनिमय दर में वृद्धि होने लगती है। रुपये की विनिमय दर बढ़ने के कारण भारत के निर्यातो में कमी और आयातो में वृद्धि हो जाती है। इससे वस्तु के मूल्यों में कमी आती है फलतः मुद्रा प्रसार का प्रभाव कम हो जाता है।

(2) वास्तविक आर्थिक प्रगति का सूचक :- लोचदार विनिमय दर देश की वास्तविक आर्थिक प्रगति की सूचक होती है। यदि देश की आर्थिक स्थिति में स्थायित्व रहता है तो विनिमय दर में भी स्थायित्व बना रहता है। आर्थिक स्थिति में अस्थिरता आने पर विनिमय दर में भी उसी के अनुरूप परिवर्तन हो जाता है।

(3) आंतरिक अर्थनीति की स्वतंत्रता :- लोचदार विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत सरकार अपनी स्वतंत्र आर्थिक नीति का पालन कर सकती है तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व विदेशी विनिमय नियंत्रण में सरकार को जो प्रबंध व्यवस्थाएं करनी पड़ती है सरकार को उनसे भी मुक्ति मिल जाती है। इसके अतिरिक्त लोचदार विनिमय दर प्रणाली में व्यापार को यथोचित स्वतंत्रता मिल जाती है, जिससे प्रत्येक देश में उद्योग अधिकतम कुशलता प्राप्त करने की चेष्टा करते है।

(4) अस्थिरता का भय सर्वथा निर्मूल :- कुछ व्यक्तियो का यह भय है कि लोचदार विनिमय दर नीति के कारण संपूर्ण अर्थव्यवस्था में अस्थिरता और अनिश्चितता उत्पन्न हो जायेगी जिसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और पूँजी विनियोग में विपरीत प्रभाव पड़ेगा परन्तु यह भय सर्वथा निर्मूल है। कारण यह है कि लोचदार विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत अधिकांश देश अपनी विनिमय दरो को कुछ शक्तिशाली मुद्राओं से गठबंधित कर देगे और इस प्रकार कई मुद्रा शिविर स्थापित हो जायेगा। इन शिविरों में पारस्परिक व्यवहार अत्यंत स्वतंत्रतापूर्वक होगा और विनिमय शिविर भी आपस में सरलता से लेन-देन कर सकेंगे। अतः विनिमय दरों के उतार-चढ़ाव पर कोई बंधन न होने पर भी वह सामान्य बिन्दु पर स्थिर रहेगी।

(5) सरल प्रणाली :- लोचदार विनिमय दर प्रणाली का प्रमुख लाभ उसकी सरलता माना जाता है। स्वतंत्र बाजार में मूल्य या विनिमय दर की गतिविधि ऐसी होती है कि मांग और पूर्ति में संतुलन स्थापित हो जाता है। अतः इसमे किसी मुद्रा की कमी या बढोतरी करने की समस्या समाप्त हो जाती है।

(6) सतत समायोजन :- चूँकि स्वतंत्र विनिमय दर संवेदनशील होती है इसलिए लोचदार विनिमय दरों में सतत् समायोजन की गुंजाइश रहती है और इस प्रकार दीर्घकालीन असंतुलन के विपरीत प्रभावो से बचा जा सकता है।

(7) आरक्षित कोषों की अनिवार्यता में कमी :- लोचदार विनिमय दरो का एक अन्य लाभ यह है कि वे सरकार द्वारा विदेशी मुद्रा के कोष रखने की आवश्यकता में कमी कर देती है किंतु उसके साथ शर्त यह है कि विभिन्न सरकारी दरों को प्रभावित करने के लिए निजी तौर पर कोई स्थिरीकरण कोष न रखे।

(8) भुगतान संतुलन का नियंत्रण :- लोचदार दरो के कारण प्रत्येक देश का भुगतान संतुलन स्वयं नियंत्रित होता रहता है। विनिमय दरो में कमी आने पर आयात महंगे पडते है। अतः उनमें कभी आना स्वाभाविक है। दूसरी ओर निर्यात सस्ते पड़ने से उनकी मात्रा में वृद्धि होती है। इस प्रकार भुगतान संतुलन पक्ष में आ जाता है, लेकिन इस स्थिति का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब आंतरिक उपभोग की मांग कम की जाए तथा निर्यात सामान के उत्पादन में वृद्धि की जाए।

(9) सट्टे की क्रिया में कमी :- विदेशी मुद्रा में सट्टा करने वाले सोच समझकर ही अवांछनीय सट्टे की क्रिया करेंगे क्योंकि परिवर्तनशील विनिमय दरों के कारण जो उतार चढाव सम्भव है उनके कारण उन्हे भारी हानि हो सकती है।

(10) मौद्रिक नीति का स्वतंत्र होना :- विनिमय दरों के लोचदार होने के कारण देश की मौद्रिक नीति पर किसी प्रकार के दबाव की सम्भावना समाप्त हो जाती है अतः मौद्रिक नीति स्वतंत्र रहती है व मौद्रिक नीति से संबंधित संस्थाएं स्वतंत्रतापूर्वक काम करती है।

लोचदार विनिमय दरो के दोष

(1) निम्न लोच :- यदि विनिमय दरो की लोच काफी कम है तो विदेशी विनिमय बाजार अस्थिर होगा जिसके फलस्वरूप केवल दुर्लभ मुद्रा के मूल्य ह्मस से ही भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ जाएगी।

(2) अविश्वसनीय :- लोचदार विनिमय दरो के माध्यम से भुगतान संतुलन में हमेशा संतुलन बने रहने की संभावना कम ही रहती है। विनिमय दरो की परिवर्तनशीलता के कारण पूंजी के आवागमन में जो वृद्धि हो जाती है उससे भी अनेक संकट उत्पन्न हो जाते है। इस प्रकार ये दरे अविश्वसनीय होती है।

(3) सट्टेबाजी का उदय :- लोचदार विनिमय दर प्रणाली के अन्तर्गत अनेक घटक विनिमय दर की गतिशीलता को प्रभावित करते है, सट्टा भी उनमे से एक है। प्रायः यह कहा जाता है कि सट्टेबाजी की दृष्टि से विनिमय दर में एक बार की गिरावट इस बात की संकेतक होती है कि भविष्य में विनिमय दर में और गिरावट होगी। ऐसी स्थिति में सटोरियों की कार्यवाहियो में विनिमय दर के उतार-चढाव में व्यापकता आयेगी, जो सट्टे की अनुपस्थिति में न आयी होती। यहाँ पर सट्टे का प्रभाव अस्थायित्वकारी है।

(4) संभावित स्फीतिकारी प्रभाव :- लोचदार विनिमय दरों के विपक्ष में यह भी कहा जाता है कि अर्थव्यवस्था पर इनका स्फीतिकारी प्रभाव पड़ता है। क्योंकि विनिमय दर में ह्मस से देश के भीतरी मूल्य स्तर में वृद्धि हो जाती है। किसी मुद्रा के ह्मस से आयात की वस्तुओं की कीमते बढ़ जाती है, जिसके फलस्वरूप सामान्य कीमत स्तर में भी वृद्धि हो जाती है।

(5) विदेशी व्यापार और विदेशी विनियोग में कमी :- लचीली विनिमय दरो के विरुद्ध यह तर्क भी दिया जाता है कि लोचदार विनिमय दरे अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली होती है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और पूँजी की गतिशीलता के लिए घातक है।

(6) लोचदार विनिमय दरो की असफलता :- लोचदार विनिमय दर प्रणाली के विपक्ष में यह भी कहा जाता है कि ऐसे बहुत कम उदाहरण देखने में आए है जब यह प्रणाली लंबे समय तक संतोषजनक ढंग से कार्य करती रही हो, किंतु लोचदार विनिमय दरो के समर्थको का कहना है कि इसके लिए स्वयं प्रणाली को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसकी सफलता का कारण अविवेकपूर्ण वित्तीय नीतिया अथवा कुछ अन्य प्रतिकूल स्थितियां रही है जैसा कि कनाडा का अनुभव इसका प्रमाण है।

(7) मुंडेल की आलोचना :- श्री मुंडेल का मत है कि यदि किसी देश में उत्पादन घटकों में पूर्ण गतिशीलता नहीं होती तो लोचदार दरों का अधिकांश लाभ नष्ट हो जाता है।

(8) विकासशील देशों के विकास में बाधा :- विकासशील तथा अर्द्धविकसित देश स्वतंत्र बाजार की स्थिति में टिक सकने में असमर्थ रहते है। इन देशों के अपने विकास के लिए पूँजीगत सामान, तकनीकी ज्ञान व आवश्यक कच्चा माल आदि लोचदार विनिमय दरों के कारण विदेशों से मिलना कठिन हो जाता है। दूसरी ओर इन देशों में विलासिता के सामान और निर्मित माल का आयात होने लगता है तथा ये देश अपने निर्यात बढ़ा पाने में असमर्थ रहते है। इस प्रकार लोचदार विनिमय दरे विकासशील देशों पर दोहरा घातक प्रभाव डालती है।

निश्चित या लोचदार विनिमय दरे तथा भारतीय मुद्रा

भारत जैसे विकासशील देश के लिए कौन सी विदेशी विनिमय दर प्रणाली उपयुक्त होगी, इस संबंध में निम्नलिखित दो दृष्टिकोण है -

(a) सैद्धांतिक दृष्टिकोण (b) व्यावहारिक दृष्टिकोण

सैद्धांतिक दृष्टिकोण के अनुसार भारत एक विकासशील देश है। अतः इसके लिए स्थिर विनिमय दर प्रणाली अधिक उपयुक्त होगी।

व्यावहारिक दृष्टिकोण के अनुसार आज जब विदेशी विनिमय दरों के संबंध में विश्व के सभी प्रमुख देश अपनी मुद्रा के लिए लोचदार प्रणाली को अपनाए हुए है, अन्तर्राष्ट्रीय मु‌द्रा कोष ने भी इस प्रणाली को स्वीकृति देकर अपने नियमों में परिवर्तन कर लिया है, भारत को भी लोचदार दरो को ही स्वीकार करना चाहिए। अब भारतीय रुपया विदेशी मुद्रा बाजार में स्वतंत्र है और लोचदार दर प्रणाली लागू है।

यद्यपि भारतवर्ष ने लोचदार दर प्रणाली को अपना लिया है परन्तु यह कहा जाता है कि लोचदार दरे भारत जैसे विकासशील देशों के लिए उपयुक्त नहीं है। इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जाते है -

(1) अनिवार्य आयात :- भारत के कुछ आयातो का लगभग 30-40% भाग खाधान्न जैसी अनिवार्य वस्तुओ का होता है। इस प्रकार भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता निरंतर बढ़ती चली जाएगी। जैसा गत वर्षों में अनुभव किया गया है।

(2) निर्यात की वस्तुएं :- भारत के अधिकांश निर्यात में परंपरावादी वस्तुएं जैसे चाय, जूट का सामान, लोहा खनिज, चमड़ा, खाल आदि है। इनके निर्यातों में भी बहुत वृद्धि संभव नहीं है। इनकी मांग की लोच भी कम लोचदार है। नवीन निर्यात वस्तुओं में इजीनियरिंग, वस्त्र का समान आदि प्रमुख है, जिनमे विदेशी प्रतिस्पर्धा भी बहुत है। निर्यात प्रोत्साहन उपायों के कारण निर्यातों में वृद्धि हुई है, परन्तु निर्यातो को उच्च स्तर पर बनाए रखकर उनमें भारी वृद्धि निकट भविष्य में संभव नहीं है। अतः लोचदार दरो से कोई अधिक लाभ नहीं मिल सकता है।

(3) विदेशी पूँजी विनिमय एवं ऋण भार :- लोचदार दरो में अधिक उच्चावचनों से विदेशी पूँजी विनियोजको एवं ऋण दाताओं के लिए पूँजी वापसी एवं उस पर प्राप्त आय, ब्याज, लाभांश आदि की मात्रा भी अनिश्चित हो जाती है। फलतः विकास वित्त प्राप्त करने में भारत को अधिक कठिनाई हो जाएगी । हाँ आयात प्रतिस्थापन सहायक सिद्ध हो सकता है।

निष्कर्ष

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि लोचदार विनिमय दरे भारत के हितों के अनुकूल नहीं है। परन्तु यह स्थाई विनिमय दर से श्रेष्ठ है।

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