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☼ पूर्ति (Supply): वस्तुओं की
पूर्ति वह मात्रा है जो एक बाजार में किसी निश्चित समय पर विभित्र कीमतों पर बिकने
के लिए प्रस्तुत की जाएगी ।
☼ पूर्ति
को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Supply): (1) कीमत (2) अन्य
दूसरी वस्तुओं की कीमत (3) फर्मों की संख्या
(4) फर्मों के उद्देश्य (5) उत्पादन के कारकों
की कीमत (6) तकनीक में परिवर्तन (7) भविष्य में संभावित कीमत (8) संबंधित वस्तुओं की
कीमत।
☼ पूर्ति
का नियम (Law of Supply): अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत बढ्ने पर पूर्ति
बढ़ जाती है तथा कीमत कम होने पर पूर्ति भी कम हो जाती है, पूर्ति के निर्धारक
(संबद्ध वस्तु की कीमत के अतिरिक्त) स्थिर रहते हैं।
☼ व्यक्तिगत
पूर्ति अनुसूची (Individual Supply Schedule); व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची वह
अनुसूची है जो अन्य बातें समान रहने पर एक फर्म द्वारा किसी वस्तु की कीमत तथा
बेची जाने वाली मात्रा के संबंध को प्रकट करती है।
☼ बाजार
पूर्ति अनुसूची (Market Supply Schedule): बाजार पूर्ति अनुसूची वह अनुसूची है जो
किसी बाजार में सभी विक्रेताओं द्वारा एक निश्चित समय में विभिन्न कीमतों पर बेची
जाने वाली कुल मात्रा के योग को प्रकट करती है।
☼ पूर्ति
वक्र (Supply Curve): पूर्ति वक्र पूर्ति अनुसूची को ग्राफिक रूप में प्रकट करता
है।
☼ बाजार
पूर्ति वक्र (Market Supply Curve): यह व्यक्तिगत पूर्ति वक्रों का एक समस्तरीय
जोड़ है।
☼ पूर्ति
वक्र पर संचलन (Movement along Supply Curve): इससे अभिप्राय वस्तु की कीमत में
वृद्धि या कमी के फलस्वरूप वस्तु को मात्रा में वृद्धि या कमी से है।
☼ पूर्ति
का विस्तार (Extension of Supply): इससे अभिप्राय किसी वस्तु की कीमत बढ़ने के
फलस्वरूप उसकी पूर्ति में वृद्धि से है।
☼ पूर्ति का संकुचन
(Contraction of Supply): इससे अभिप्राय किसी वस्तु की कीमत के कम होने के
फलस्वरूप उसकी पूर्ति में होने वाली कमी से है।
☼ पूर्ति
में वृद्धि (Increase in Supply): इससे अभिप्राय पूर्ति वक्र के दाईं ओर खिसकाव से
है। यह वर्तमान कीमत पर बिक्री के लिए अधिक मात्रा को प्रकट करती है।
☼ पूर्ति
में कमी (Decrease in Supply): इससे अभिप्राय पूर्ति वक्र के बाईं ओर खिसकाव से
है। यह समान या वर्तमान कीमत पर बिक्री के लिए मात्रा के कम होने को प्रकट करती
है।
☼ पूर्ति की लोच (Elasticity of Supply): पूर्ति की लोच कीमत में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन तथा उसके फलस्वरूप पूर्ति में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन का अनुपात है।
☼ पूर्णतया
लोचदार पूर्ति (Perfectly Elastic Supply): जब कीमत में थोड़ा परिवर्तन होने पर भी
पूर्ति में अनंत परिवर्तन हो जाता है तब वस्तु की पूर्ति पूर्णतया लोचदार कही जाती
है।
☼ पूर्णतया
बेलोचदार पूर्ति (Perfectly Inelastic Supply): जब कीमत में काफी परिवर्तन आने पर
भी पूर्ति में कोई परिवर्तन न आए तो पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार कहलाती है।
☼ इकाई लोचदार पूर्ति
(Unitary Elastic Supply): जब किसी वस्तु की पूर्ति में परिवर्तन उसी अनुपात में होता
है जिस अनुपात में उसकी कीमत में परिवर्तन हुआ है तो उस वस्तु की पूर्ति को इकाई लोच
कहते हैं।
☼ इकाई से अधिक लोचदार पूर्ति
(More than Unitary Elastic Supply): जब किसी वस्तु की पूर्ति में होने वाला आनुपातिक
परिवर्तन कीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन से अधिक होता है तो इस दशा में पूर्ति
लोच इकाई से अधिक होती है।
☼ इकाई से कम लोचदार पूर्ति
(Less than Unitary Elastic Supply): जब किसी वस्तु की पूर्ति में होने वाला आनुपातिक
परिवर्तन कीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन से कम होता है तो इसे पूर्ति की इकाई
से कम लोच कहते हैं।
☼ पूर्ति की लोच को प्रभावित करने वाले तत्त्व (Factors affecting Elasticity of Supply) हैं: (1) उत्पादन के साधनों की प्रकृति, (2) प्राकृतिक बाधाएँ, (3) जोखिम उठाना, (4) वस्तु की प्रकृति, (5) उत्पादन की लागत, (6) समय तत्त्व तथा (7) उत्पादन की तकनीक।
बाजार
के रूप
☼ पूर्ण प्रतियोगिता
(Perfect Competition) उस बाजार को कहते हैं जिसमें असंख्य क्रेता तथा समरूप वस्तु
के असंख्य विक्रेता होते है और वस्तु की कीमत का निर्धारण उद्योग द्वारा किया जाता
है। बाजार में केवल एक ही कीमत प्रचलित होती है और सभी फर्मों को अपनी वस्तु इसी प्रचलित
कीमत पर बेचनी होती है।
☼ पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएँ
(Features of Perfect Competition): (i) क्रेताओं तथा विक्रेताओं की अधिक संख्या,
(ii) समरूप वस्तुएँ, (iii) पूर्ण ज्ञान, (iv) फर्मों का स्वतंत्र प्रवेश व छोड़ना,
(v) स्वतंत्र निर्णय, (vi) पूर्ण गतिशीलता, (vii) यातायात लागत का अभाव।
☼ एकाधिकार (Monopoly) उस बाजार
को कहते हैं जिसमें वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है और उसका वस्तु की कीमत पर पूर्ण
नियंत्रण होता है।
☼ एकाधिकार की विशेषताएँ
(Features of Monopoly): (i) एक विक्रेता, (ii) विशुद्ध एकाधिकारी फर्म ही उद्योग है,
(ii) नयी फर्मों के प्रवेश तथा बाहर जाने पर रोक, (iv) निकटतम स्थानापन्न का अभाव,
(v) कीमत पर पूर्ण नियंत्रण तथा गिरती हुई माँग वक्र, (vi) कीमत विभेद की संभावना,
(vii) अल्पकाल तथा दीर्घकाल दोनों में सामान्य लाभ की संभावना।
☼ एकाधिकारी प्रतियोगिता
(Monopolistic Competition) बाजार की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें विक्रेताओं की बड़ी
संख्या विभेदीकृत वस्तुओं का क्रेताओं की बड़ी संख्या में विक्रय करती है। प्रत्येक
फर्म का वस्तु की कीमत पर आंशिक नियंत्रण होता है।
☼ एकाधिकारी प्रतियोगिता की विशेषताएँ
(Features of Monopolistic Competition): (i) क्रेताओं तथा विक्रेताओं की अधिक संख्या,
(ii) विभेदीकृत उत्पादन, (iii) फर्मों के प्रवेश तथा छोड़ने की स्वतंत्रता, (iv) कीमतों
पर आंशिक नियंत्रण, (v) फर्म की
☼ माँग वक्र नीचे की ओर झुकी
हुई होती है तथा एकाधिकारी की तुलना में चपटी होती है, (vi) कम गतिशीलता, (vii) पूर्ण
ज्ञान काक्षअभाव, (viii) कीमत तथा गैर कीमत प्रतियोगिता, (ix) विक्रय लागतें।
☼ कीमत नियंत्रण की मात्रा तथा
बाजार का रूप (Degree of Price Control and Form of the Market):
1.
कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं (फर्म कीमत स्वीकारकर्ता है) - इससे तात्पर्य पूर्ण प्रतियोगिता
से है।
2.
कीमत पर पूर्ण नियंत्रण (फर्म कीमत निर्धारक है) - इससे तात्पर्य एकाधिकार से है।
3.
कीमत पर आंशिक नियंत्रण (फर्म न तो कीमत स्वीकारकर्ता और न ही निर्धारक है बल्कि वह
वस्तु विभेद द्वारा कुछ सीमा तक अपनी वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकती है) इससे तात्पर्य
एकाधिकारी प्रतियोगिता की स्थिति से है।
☼ बाजार के विभिन्न रूपों में
लाभ (Profits under different forms of the Market): एकाधिकारी दीर्घकाल में सदैव असामान्य
लाभ प्राप्त करता है (TR > TC) क्योंकि उसे बाजार में किसी प्रतियोगिता का सामना
इसलिए नहीं करना पड़ता, क्योंकि
1.
वह वस्तु का एकमात्र विक्रेता है।
2.
एकाधिकारी की वस्तु का कोई निकट प्रतिस्थापन नहीं होता।
3.
नयी फर्मों के बाजार में प्रवेश पाने पर कानूनी, तकनीकी तथा प्राकृतिक प्रतिबंध लगे
होते हैं।
दीर्घकाल
में पूर्ण प्रतियोगिता अथवा एकाधिकारी प्रतियोगिता में काम कर रही फर्मों को केवल सामान्य
लाभ ही प्राप्त होते हैं (TR = TC अथवा AR = AC)। ऐसा इसलिए क्योंकि बाजार के इन दोनों
रूपों में नयी फर्मों को प्रवेश पाने तथा छोड़कर जाने की स्वतंत्रता होती है। असामान्य
लाभ की स्थिति में (AR>AC अथवा कीमत > AC, क्योंकि कीमत = AR) कई नयी फर्मे उद्योग
में प्रवेश कर जाएँगी जिसके कारण पूर्ति में वृद्धि हो जाएंगी। फलस्वरूप बाजार कीमत
(AR) गिर जाएगी तथा असामान्य लाभ (AR > AC) समाप्त हो जाएँगे।
☼ विभिन्न बाजारों में फर्म के
माँग वक्र का आकार (Shape of Firm's Demand Curve Under Different Markets):
1.
पूर्ण प्रतियोगिता में यह पड़ी सीधी रेखा होती है यह माँग की लोच को व्यक्त करती है।
2.
एकाधिकार में इसका ढलान नीचे की ओर होता है परंतु अधिक लोचदार नहीं क्योंकि वस्तु की
कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में अधिक परिवर्तन नहीं होता। इसके साथ-साथ बाजार
में एकाधिकारी वस्तु का कोई भी निकट स्थानापन्न नहीं होता।
3.
एकाधिकारी प्रतियोगिता में इसका ढलान नीचे की ओर होता है परंतु एकाधिकार की तुलना में
सापेक्षतया यह अधिक लोचदार होता है। यह इसलिए क्योंकि एकाधिकारी प्रतियोगिता में अनेक
निकट स्थानापन्न होते हैं।
☼ बाजारों का वर्गीकरण (Classification of the Markets): बाजारों को मुख्य रूप से (a) पूर्ण प्रतियोगिता, (b) एकाधिकार तथा (c) एकाधिकारी प्रतियोगिता में वर्गीकृत किया जाता है। वर्गीकरण का आधार निम्नलिखित है: (i) वस्तु की प्रकृति - समरूप या नहीं (ii) कीमत पर नियंत्रण - कोई नियंत्रण नहीं, पूर्ण नियंत्रण अथवा आंशिक नियंत्रण (iii) विक्रेताओं की संख्या - एक विक्रेता या विक्रेताओं की बड़ी संख्या (iv) बाजार का ज्ञान - पूर्ण अथवा नहीं (v) कारकों की गतिशीलता - पूर्ण अथवा नहीं
बाजार
संतुलन
☼ बाजार संतुलन (Market
Equilibrium) वह अवस्था है जिसमें बाजार माँग = बाजार पूर्ति।
☼ संतुलन कीमत (Equilibrium
Price); संतुलन कीमत वह कीमत है जिस पर माँग तथा पूर्ति एक दूसरे के बराबर होते हैं
या जहाँ क्रेताओं की खरीद तथा विक्रेताओं की बिक्री एक दूसरे के समान होती है।
☼ संतुलन मात्रा
(Equilibrium Quantity): संतुलन मात्रा वह मात्रा होती है जिस पर माँग की मात्रा तथा
पूर्ति की मात्रा दोनों बराबर होती है।
☼ माँग में परिवर्तन का प्रभाव
(Effect of Change in Demand): यदि पूर्ति स्थिर रहे, तो माँग में वृद्धि से संतुलन
कीमत बढ़ती तथा माँग में कमी से संतुलन कीमत घटती है। माँग में वृद्धि से संतुलन मात्रा
में वृद्धि होती है और माँग में कमी से संतुलन मात्रा घटती है।
☼ पूर्णतया लोचदार पूर्ति की
स्थिति में (In case of Perfectly Elastic Supply): किसी वस्तु की माँग में वृद्धि
या कमी के कारण संतुलन कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता यदि वस्तु की पूर्ति पूर्णतया
लोचदार है। केवल संतुलन मात्रा क्रमश: बढ़ती या घटती है।
☼ पूर्णतया वेलोचदार पूर्ति की
स्थिति में (In case of Perfectly Inelastic Supply): यदि वस्तु की पूर्ति पूर्णतया
बेलोचदार है तो माँग में वृद्धि या कमी के कारण संतुलन मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
केवल संतुलन कीमत ही क्रमश: बढ़ेगी या घटेगी।
☼ पूर्ति में परिवर्तन का प्रभाव
(Effect of Change in Supply): यदि माँग स्थिर रहे तो पूर्ति के बढ़ने पर संतुलन कीमत
घटती तथा पूर्ति के घटने पर संतुलन कीमत बढ़ती है। यदि पूर्ति में वृद्धि होती है तो
संतुलन मात्रा में वृद्धि होती है और यदि पूर्ति में कमी होती है तो संतुलन मात्रा
में भी कमी होती है।
☼ पूर्णतया लोचदार माँग की स्थिति
में (In case of Perfectly Elastic Demand); यदि माँग पूर्णतया लोचदार है तो वस्तु
की पूर्ति में वृद्धि या कमी होने से संतुलन कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होगा। केवल
संतुलन मात्रा ही क्रमश: बढ़ेगी या घटेगी।
☼ पूर्णतया बेलोचदार माँग की
स्थिति में (In Case of Perfectly Inelastic Demand): यदि माँग पूर्णतया बेलोचदार है
तो पूर्तिक्षमें कमी के कारण कीमत में वृद्धि तथा पूर्ति में वृद्धि के कारण संतुलन
कीमत में कमी होगी। संतुलन मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होगा।
☼ माँग तथा पूर्ति में एक साथ
परिवर्तन का प्रभाव (Effect of a Simultaneous Change in Demand and Supply):
(i)
यदि माँग पूर्ति की तुलना में अधिक बढ़ती है तो संतुलन कीमत बढ़ेगी।
(ii)
यदि माँग तथा पूर्ति में बराबर की वृद्धि होती है तो संतुलन कीमत में कोई परिवर्तन
नहीं होगा।
(iii)
यदि पूर्ति माँग की तुलना में अधिक बढ़ती है तो संतुलन कीमत में कमी होगी।
☼ पूर्ण प्रतियोगिता के अंतर्गत
संतुलन कीमत का निर्धारण (Determination of Equilibrium Price Under Perfect
Competition): पूर्ण प्रतियोगिता के अंतर्गत संतुलन कीमत से अभिप्राय बाजार माँग और
बाजार पूर्ति के बीच समानता से है। इस समानता को स्थापित करने के लिए कोई भी व्यक्ति
अलग से कोई योजना नहीं बनाता, बल्कि यह स्वयं ही स्थापित हो जाती है। यदि कभी बाजार
माँग, बाजार पूर्ति से अधिक है, तो यदि अन्य बातें समान रहें तो कीमत अवश्य बढ़ेगी।
माँग के नियम तथा पूर्ति के नियम के अनुरूप, कीमत में वृद्धि के फलस्वरूप, बाजार माँग
घटेगी और बाजार पूर्ति बढ़ेगी। माँग/पूर्ति में वृद्धि/कमी की यह प्रक्रिया तब तक चलती
रहती है जब तक बाजार माँग = बाजार पूर्ति नहीं हो जाती। इसका तात्पर्य है बाजार का
संतुलन तथा वस्तु की संतुलन कीमत।
☼ आर्थिक रूप से "व्यवहार्य"
तथा "अव्यवहार्य" उद्योग (Economically “Viable" and
"Non-viable Industry): आर्थिक तौर पर ''व्यवहार्य" (Viable) उद्योग उसे
कहते हैं जिसके माँग तथा पूर्ति वक्र एक दूसरे को किसी एक बाजार कीमत पर काटते हैं।
आर्थिक तौर पर "अव्यवहार्य' (Non-Viable) उद्योग उसे कहते हैं जिसकी पूर्ति वक्र
माँग वक्र से ऊपर रहती है और दोनों एक-दूसरे को कभी भी नहीं काटती।