अदृश्य
बेरोजगारी का वास्तविक अर्थ है कि तकनीकों और उत्पादक साधनों के दिए हुए होने पर कृषि
में श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य है। इसलिए यह सम्भव है कि फार्म का कुल
उत्पादन घटाए बिना कुछ अतिरेक श्रम कृषि से हटा लिया जाए। यह अधिकतर अति जनसंख्या
वाले अल्पविकसित देशों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इस प्रकार की बेरोजगारी वहां
पाई जाती है, जहाँ वैकल्पिक अथवा पूरक रोजगार के अवसरों के अभाव में बहुत अधिक
श्रमिक कृषि में लगे हों। उदाहरण के लिए, यदि किसी फार्म की काश्त में सात व्यक्ति
लगे हैं, जिसे कि पाँच काश्त कर सकते थे, तो इसका मतलब है कि सातों के सातों
श्रमिक पूर्ण रूप से काम पर नहीं लगे हैं। इसका अर्थ है कि दो श्रमिक फार्म के
उत्पादन में कोई योगदान नहीं देते और उनकी सीमात उत्पादकता है।
प्रोफेसर ए० के० सेन अदृश्य बेरोजगारी की इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं। वह पूछते हैं कि "यदि श्रम की सीमांत उत्पादकता, काफी हद तक, शून्य है तो श्रम नियुक्त ही क्यों किया जाता है?" श्रम तथा श्रम-समय में भेद न कर सकने से यह गड़बड़ पैदा होती है। सेन का मत है कि "बात यह नहीं है कि उत्पादन प्रक्रिया में बहुत अधिक श्रम खर्च हो रहा है बल्कि यह है कि उसे बहुत अधिक मजदूर खर्च करते हैं। इस प्रकार, अदृश्य बेरोजगारी सामान्य रूप से प्रति घ्यक्ति कार्यकारी घण्टों की कम संख्या का रूप धारण कर लेती है।" उदाहरण के लिए, यदि एक फार्म पर एक परिवार के सदस्य एक दिन में 35 घण्टे के बराबर काम करते हैं, तो 35वें घण्टे की सीमांत उत्पादकता घटकर शून्य हो जाती है। अब हम यह मान लेते हैं कि उस फार्म पर सात व्यक्ति 5 घण्टे प्रतिदिन काम करते हैं। समान तकनीक तथा उत्पादन प्रक्रिया दिए हुए होने पर, यदि दो मजदूर चले जाएं, तो बाकी पाँच मजदूर अधिक तथा देर तक घण्टे प्रतिदिन काम करके फार्म के उत्पादन को उस स्तर पर रख सकेंगे। इस प्रकार दो मजदूर अदृश्य बेरोजगार हैं। अदृश्य बेकारी की मात्रा प्रति मजदूर प्रतिदिन काम के घण्टों की संख्या पर भी निर्भर रहती है। यदि उसे सात घण्टे नियत कर दिया जाए, और यदि वे फार्म पर ही काम करें, तो भी दो मजदूर अदृश्य बेकार रहेंगे। इस प्रकार होता यह है कि "मजदूर की सीमांत उत्पादकता काफी हद तक शून्य होती है, और सीमांत पर श्रम की उत्पादकता ठीक शून्य के बराबर होती है।" प्रो० सेन, चित्र की सहायता से दोनों दृष्टिकोणों का अन्तर स्पष्ट करता है।
TP
कुल उत्पादन वक्र है जो उस समय क्षैतिज हो जाता है, जब श्रम की OL मात्रा नियुक्त की
जाती है। इसका मतलब है कि OL श्रम घण्टों पर श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य हो जाती
है और इस बिन्दु से परे और श्रम नियुक्त करने का कोई लाभ नहीं। हाँ, कृषिकार्य में
संलग्न मजदूरों की संख्या OL2 है और प्रत्येक मजदूर र्स्पज्या a घण्टे
(tan a hours) काम करता है। परन्तु प्रति व्यक्ति कार्यकारी घण्टे र्स्पज्या b
(tan b) है। इस प्रकार, L2L1 मजदूर अदृश्य बेकार हैं। इससे स्पष्ट
है कि L बिन्दु पर श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य है और L2L1
परिसीमा में मजदूर की सीमांत उत्पादकता कुछ नहीं है।
सिद्धान्त (THE THEORY)
मौरिस
डॉब्ब तथा रेगनर नर्से ने अलग-अलग इस थीसिस का विकास किया कि अल्पविकसित अति जनसंख्या
वाले देशों में अदृश्य बेरोजगारी पूँजी-निर्माण का स्रोत हो सकती है। नर्से के अनुसार
अल्पविकसित देशों में अदृश्य बेरोजगारी की अवस्था "अदृश्य बचत-संभाव्य" को
संस्थापित करती है। कृषि में उत्पादन की वर्तमान तकनीकों के रहते हुए, कृषि उत्पादन
में कमी लाए बिना ही, अतिरेक श्रम-शक्ति का बड़ा भाग भूमि से हटाया जा सकता है। यह
अतिरेक श्रम-शक्ति पूँजी परियोजनाओं में जैसे सिंचाई, जलोत्सारण, सड़कों, रेल-मागों,
मकानों, फैक्टरियों, प्रशिक्षण स्कीमों, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि में काम पर लगाई
जा सकती है। इस प्रकार, ग्रामीण अल्प-रोजगार पूँजी निर्माण का स्रोत हो सकता है।
नर्से ने अदृश्य बेरोजगारी को बचत-संभाव्य के रूप में जुटाने की समस्या दो भागों में विभक्त की है : प्रथम, विविध पूँजी परियोजनाओं में स्थानान्तरित की गई अतिरेक जनसंख्या का पालन-पोषण कैसे हो, और दूसरे, नए श्रमिकों को काम करने के लिए औजार कैसे प्रदान किए जाएं।
1. अतिरेक जनसंख्या की समस्या (The problem of the surplus
population)
यद्यपि
प्रथम समस्या ऐच्छिक बचतों, कराधान, और यहां तक कि विदेशी पूँजी के आयात द्वारा कुछ
हद तक हल की जा सकती है, फिर भी, समस्या के परिणाम के लिए उसको "स्ववित्त-प्रबन्धनकारी"
(self-financing) होना आवश्यक है। अभी तो 'अनुत्पादक अतिरिक्त मजदूरों का पोषण उत्पादक'
मजदूर करते हैं। दूसरे आभासी (virtual) बचत करते हैं क्योंकि वे उपभोग की अपेक्षा उत्पादन
अधिक करते हैं। परन्तु यह बचत व्यर्थ जा रही है, क्योंकि यह उन अनुत्पादक मजदूरों के
पालन-पोषण में लग जाती है जिनका उत्पादन में योगदान शून्य या नगण्य है। यदि भूमि पर
काम करने वाले उत्पादक कृषक पूँजी परियोजनाओं पर काम करने वाले अपने 'अनुत्पादक आश्रितों
का पोषण करते रहें, "तो उनकी आभासी बचतें वास्तविक बचतें बन जाएंगी।" परन्तु
अतिरेक श्रम के प्रयोग के माध्यम से यह पूंजी-निर्माण केवल तभी स्वयं वित्त-प्रबन्धनकारी
होता है,"जब गुप्त बचत-संभाव्य का जुटाया जाना 100% सफल हो।" नर्से और अधिक
बल देते हुए कहता है, "प्रश्न है समस्त या कुछ नहीं का। या तो, अतिरिक्त मजदूरों
के हटाए जाने के परिणामस्वरूप उपलब्ध समस्त खाद्य अतिरेक नए व्यवसायों में नियुक्त
अनुत्पादक मजदूरों को खिलाने में समाप्त हो, या फिर बिल्कुल कुछ नहीं किया जा सकता
है।" परन्तु त्रुटि यह है कि पूँजी-निर्माण के लिए उपलब्ध इस खाद्य-कोष में कुछ
रिसाव उत्पन्न हो सकते हैं। (i) सम्भव है कि नए काम पर लगाए गए श्रमिक उसकी अपेक्षा
अधिक खाच का उपभोग शुरू कर दें जो वे फार्म पर करते थे; सम्भव है कि पीछे फार्मों पर
रह गए कृषक स्वयं ही पहले से अधिक खाद का उपभोग करना शुरू कर दें; और (ii) फार्म से
पूँजी परियोजनाओं तक खाद्य परिवहन का खर्च उठाने की समस्या। यद्यपि इन रिसावों को पूरी
तरह बन्द करना सम्भव नहीं है, फिर भी, नक्से का सुझाव है कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों
में पूरक बचतों, कूषक वर्ग से अतिरेक खाद्य-स्टॉक अधिग्रहण (requisition) की राज्य
क्रिया और यहाँ तक कि आयातित खाद्य-स्टॉकों से कमी पूरी करने से ऐसी किया जा सकता है।
उसने उन वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर लगाने की आवश्यकता पर भी बल दिया है, जो कृषकों के
बजट में शामिल होती हैं; वस्तु रूप में कराधान, भूमिपतियों और उनके लगानों पर कर लगाना,खाद्य
अतिरेक के एकत्रित करने में और भी सहायक हो सकता है। नर्से का दृढ़ विश्वास है,
"चाहे जो भी साधन काम में लाए जाएं, फिर भी, अदृश्य बेकारी में सन्निहित बचत-संभाव्य
जुटाने के लिए राज्य द्वारा किसी न किसी रूप में लागू की गई सामूहिक बचातें अनिवार्य
सिद्ध हो सकती हैं।
2. औजारों के वित्त-प्रबन्धन की समस्या (The problem of financing
of tools) -
दूसरी
समस्या नई निर्माण-परियोजना पर लगे श्रमिकों को प्रदान किए जाने वाले औजारों के वित्त-प्रबन्धन
से सम्बन्ध रखती है। यद्यपि पूँजी-वस्तुएं आयात की जा सकती हैं, फिर भी, प्रायः
"इस स्थिति में घरेलू बचतों का होना जरूरी है।" घनी आबादी वाली कुछ कृषि
अर्थव्यवस्थाओं में केवल श्रम ही नहीं बल्कि पूँजी भी अल्प-नियुक्त होती है। छोटे बिखरे
हुए पलाटों के कारण, बहुत सारे कृषि औजारों, उपकरणों और भार उठाने वाले पशुओं का प्रयोग
होता है। परन्तु यदि इन छोटे और बिखरे हुए टुकड़ों को इकट्ठा कर दिया जाए तो कुछ साधारण
औजार मुक्त हो जाएंगे जिन्हें श्रमिक नई पूँजी परियोजनाओं में प्रयोग कर सकते हैं।
फिर, नए रोजगार पर लगे श्रमिकों को जित साधारण औजारों तथा उपकरणों की आवश्यकता है,
उन्हें श्रमिक स्वयं अपने हाथ से भी बना सकते हैं। ऐसे साधारण औजार, देश के निर्यात
के बदले, विदेशों से भी मंगाए जा सकते हैं, परन्तु यह आवश्यक है कि केवल वही पूँजी
उपकरण आयात किए जाएं, जिन्हें देश में प्राप्त साधन-सम्पन्नताओं (factor
endowments) के सुगमता से अनुकूल बनाया जा सके। जैसाकि नर्से का कथन है कि "बहुत
ही साधारण औजार तथा उपकरण विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में इस प्रकार के देशों की
सापेक्ष साधन-सम्पन्नता के उपयुक्त हो सकते हैं।"
मौरिस
डॉब्ब के शब्दों में सारांश यह है, "गाँव के लिए निर्माण स्थलों पर हाथ पहुँच
जाएंगे, हाथों के साथ मुख भी जाएंगे, और गाँव में खिलाने को कम मुख रह जाने पर सम्भावना
उत्पन्न होगी कि निर्माण-श्रमिकों की बढ़ी हुई सेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
अन्न गांव से बाहर जाए, और गांव में रह गए लोगों के उपभोग में भी कोई कमी न हो।"
इस प्रकार, अदृश्य बेकारी के प्रयोग से आर्थिक विकास की प्रक्रिया जन्म लेती है। इसलिए
डॉब्ब तथा नर्से का यह विश्वास ठीक ही है कि अति-जनसंख्या वाले अल्पविकसित देशों की
ग्रामीण अल्प-बेरोजगारी में गुप्त बचत संभाव्य है जिसका पूँजी-निर्माण के साधन के रूप
में प्रभावशाली उपयोग हो सकता है।
सिद्धान्त की सीमाएं (LIMITATIONS OF THE CONCEPT)
गुप्त
बचत-संभाव्य के रूप में अदृश्य बेकारी की धारणा ने पर्याप्त विवाद खड़ा किया है।
अर्थशास्त्रियों
ने प्रजातान्त्रिक अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में इस सिद्धान्त की व्यवहार्यता पर आपत्ति
की है। इसके कार्यकरण में स्थित विविध कठिनाइयों की नीचे जांच की जा रही है।
1. उपभोग प्रवृत्ति स्थिर नहीं रहती (Propensity to consume not
constant)- नर्से यह मान लेता है कि नए नियुक्त श्रमिकों और फार्म पर
रह गए श्रमिकों, दोनों की, उपभोग प्रवृत्ति स्थिर रहती है। परन्तु यह धारणा अमान्य
है। प्रो० कुरिहारा का मत है कि अदृश्य बेकारों को पूँजी-वस्तु क्षेत्र में स्थानान्तरण
करने से समस्त अर्थव्यवस्था की उपभोग प्रवृत्ति बढ़ सकती है। "ऐसी स्थिति में
इस बात के लिए दबाव बढ़ेगा कि कुछ साधन उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में वितरित किए जाए,
जिनका वैसे पूँजी वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रयोग हो सकता है।"
2. अतिरेक के संग्रह व वितरण की समस्याएं (Problem of collection
and distribution of food surplus) -नर्से उन समस्याओं को समझने
में असमर्थ रहा है, जो फार्मों पर काम करने वालों से नई पूँजी परियोजनाओं में काम करने
वालों में खाद्य अतिरेक को एकत्र करने तथा वितरण से सम्बन्ध रखती हैं। खाध को कैसे
इकट्ठा किया जाए और परियोजना स्थल पर काम करने वालों में कैसे वितरित किया जाए? यदि
कोई खाद्य-कोष बनाया जाए तो उसमें प्रत्येक फार्म कितना योगदान दे? यदि फामों के मालिक
खाद्य की पूर्ति करने से इन्कार करें, तो उनके विरुद्ध क्या कार्रवाई होगी? नर्से का
सिद्धान्त इन समस्याओं का कोई हल नहीं प्रस्तुत करता।
3.विक्रय-अतिरेक में वृद्धि नहीं होती (Marketable surplus does
not increase)- फिर, इस बात में भी सन्देह है कि कृषि से अतिरेक श्रम हटा
लेने पर विक्रेय-अतिरेक में वृद्धि होगी। प्रो० कॉलडर का मत है कि अल्पविकसित देशों
में कृषक लाभों की बजाय आत्म-निर्भरता के लिए उत्पादन करते हैं और औद्योगिक वस्तुओं
के लिए आवश्यकता ही अकृषि क्षेत्रों को दी गई पूर्ति की मात्रा निर्धारित करती है।
क्योंकि फार्म हाथों में कमी होने से उद्योग-वस्तुओं की मांग भी घट जाती है, इसलिए
यह सम्भव है कि अतिरेक श्रम में कमी हो जाने के बाद नगरों के लिए विक्रय-अतिरेक में
वृद्धि होने के बजाय कमी हो जाए।
4. अदृश्य बेकारों को जुटाना कठिन (Difficult to mobilise
disguised unemployed) - अदृश्य बेकारों को जुटाना और उन्हें नई पूँजी
परियोजनाओं में भेजना आसान नहीं है। उन्हें अपने परिवारों तथा भूमि से इतना अधिक लगाव
होता है कि वे अपने सम्बन्धियों को छोड़कर नई परियोजनाओं में नहीं जाना चाहते। हां,
अधिकांश अदृश्य बेकार फौज में भरती हो जाते हैं, जैसाकि भारत में होता है।
5. मजदूरी-भुगतान के बिना कार्य लेना सम्भव नही (Not possible to
get work without payment of wages)-नर्से के विश्लेषण में, निर्माण
श्रमिकों को मजदूरी के भुगतान की समस्या उत्पन्न नहीं होती क्योंकि पूँजी-निर्माण की
समस्त प्रक्रिया स्वयं वित्त-प्रबन्धनकारी" मान ली गई है। यह अयायार्थिक है। क्योंकि
यदि मजदूरी नहीं दी जाती तो श्रमिक नई पूँजी परियोजनाओं में नहीं आएंगे। जैसा कि प्रो०
लुइस कहते हैं, "अनिवार्य श्रम का सहारा लेने वाले देशों में अवैतनिक श्रम बहुत
महत्त्वपूर्ण हो सकता है, परन्तु अन्य देशों में इसका क्षेत्र सीमित रहता है।"
6. एकतन्त्रात्मक राज्यों में ही सफल (Successful only in
totalitarian states)-ऊपर कही गई बात का स्वाभाविक परिणाम है कि इस
प्रकार के 'नादिरशाही' ढंग केवल सशक्त एकतन्त्रात्मक सरकारों के अन्तर्गत सफल हो सकते
हैं और प्रजातान्त्रिक अल्पविकसित देशों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। वास्तव में, पूँजी-निर्माण
का यह ढंग चीन में सफल हुआ है, जहां जनसाधारण को निर्वाह मात्र के लिए आवश्यक न्यूनतम
राशन ही देकर पूँजी परियोजनाओं पर काम करने के लिए बाध्य किया गया। नर्से ने बाद में
इस तथ्य को स्वयं अपने इस कथन में स्वीकार किया है: "कुछ अल्पविकसित देशों में
पूँजी-निमार्ण के लिए उपलब्ध सम्भाव्य घरेलू साधन निश्चय से होते हैं परन्तु क्रूर
विधियों का सहारा लियेबिना उन्हें जुटाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव होता है।
7. स्फीति एवं भुगतान-शेष की समस्याएं (Problems of inflation and
balance of payment)-अतिरेक श्रम को काम प्रदान करने का कार्य अनेक
कठिनाइयों से युक्त है। प्रो० लुइस की धारणा है कि ऐसे श्रम के प्रयोग में बाधा स्थिर
पूँजी का अभाव नहीं बल्कि कार्यकारी पूंजी का अभाव है। यदि यह मान लिया जाए कि कार्यकारी
पूँजी उपलब्ध है, तो अतिरेक श्रम को रोजगार पर लगाने से अर्थव्यवस्था में स्फीति आएगी।
जब नए नियुक्त श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान किया जाएगा तो उनकी उपभोक्ता वस्तुओं की
मांग बढ़ेगी, पर उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में तदनरुप वृद्धि नहीं होगी, अतः कीमतें
बढ़ेगी।" इससे उपभोक्ता वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहन मिलेगा, जिसका भुगतान-शेष
पर दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव पड़ेगा और यदि इन प्रभावों को आयातों और निर्यातों के कठोर
नियंत्रण से रोका जाएगा तो परिणाम केवल यह होगा कि घरेलू परिचालन-मुद्रा बहुत बढ़ जाएगी
और इसलिए घरेलु कीमतों पर दबाव बहुत बढ़ जाएगा।"
8. अकुशल श्रम स्थिर पूँजी के उत्पादन को बढ़ाने में असफल होता है
(Unskilled labour fails to increase the output of fixed capital)-प्रोफेसर
कुरिहारा के अनुसार, अकुशल तथा कुसज्जित (ill-equipped) श्रम का प्रयोग स्थिर पूँजी
के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण वृद्धि नहीं करता जोकि औद्योगीकरण के लिए बहुत ही आवश्यक
है। यदि अदृश्य बेकारों की ऐसी श्रम-गहन निवेश परियोजनाओं में लगा दिया जाए, जिनमें
विशिष्ट कुशलता अथवा उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती, तो उनसे यह आशा नहीं की जा सकती
कि वे स्थिर पूँजी का उत्पादन "उतनी मात्राओं में और श्रेणियों का करेंगे, जो
औद्योगीकरण के लिए तत्काल तथा उपयुक्त प्रयोग में आ सके। इस प्रकार की श्रम-गहन परियोजनाओं
से अधिकाधिक यह आशा की जा सकती है कि वे प्रारम्भिक पंजी-निर्माण की सीमित मात्रा प्रदान
करेंगी (उदाहरणार्थ फैक्टरी स्थलों से दलदल हटाना, आधुनिक राजमार्गों के लिए कच्ची
सड़कें बनाना, मशीन की बनी वस्तुओं के लिए कच्चे माल के रूप में हस्तशिल्प सेवा)। परन्तु
औद्योगीकरण की गति बढ़ाने के लिए काफी बड़े पैमाने पर मशीनें बनाने के लिए अदृश्य बेकार
अप्रभावी स्थानापन्न है"
9. प्रौद्योगिकीय तटस्था की धारणा अवास्तविक (Unrealistic
assumption of technological neutrality)-प्रो० कुरिहारा आगे कहता है
कि 'बचत-संभाव्य' के रूप में अदृश्य बेकारी के नर्स के विचार में प्रौद्योगिकीय तटस्थता
की धारणा अमान्य तथा असहायक है। औद्योगीकरण की प्रक्रिया के दौरान, यदि पूँजी-वस्तु
क्षेत्र श्रम-बचत तकनीकें अपना ले, तो यह अर्थव्यवस्था में अदृश्य बेकारों को पूर्ण
रूप से जुटाने को सीमित कर देगा। ऐसी स्थिति में, श्रम को बढ़ती उत्पादकता से सज्जित
करने के लिए पूँजी-उपकरण को बहुत अधिक तेजी से बढ़ाना पड़ेगा। इस प्रकार, प्रौद्योगिकीय
प्रगति अनिवार्य है।
10. बढती जनसंख्या के पूँजी-निर्माण पर प्रभाव (Effects of
increasing population on capital formation)-नर्से पूँजी-संचय पर बढ़ती
जनसंख्या के प्रभावों का विश्लेषण करने में असमर्थ रहा है। तेजी से बढ़ती हुई जनंख्या
पूँजी-निर्माण की दर बढ़ाने की कठिनाई को दो तरह से गंभीर बना देती है: (i) अनुत्पादक
श्रम-शक्ति निरन्तर बढ़ती रहती है और अश्य बेकारों को नई पूँजी परियोजनाओं में भेजने
से जो भी बचत-संभाव्य होता है, उसे समाप्त कर देती है; और (ii) यह जनसंख्या वृद्धि
पूँजी-निर्माण से आगे बढ़ जती है, जिससे यह प्रकट होता है "कि अदृश्य बेकारी उसकी
अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ती है जिसे पूँजी कावह स्टॉक उत्पादकता से खपा सकता है जिसे
बढ़ाने में अदृश्य बेकारों को सहायक माना गया है।"
11. प्रत्यक्षतः उत्पादक क्रियाओं पर लागू नहीं (Not applicable to
directly productive activities)-प्रोफेसर हर्षमैन ने आर्थिक
विकास में 'अनुज्ञापक' (permissive) तथा 'विवशताकारी' (compulsive) साधनों में भेद
किया है। नक्स के अनुसार, सामाजिक उपरि-पूँजी परियोजनाओं में 'अनुत्पादक' श्रमिकों
को नियुक्त करने से पूँजी-निर्माण होगा। परन्तु हर्षमैन का मत है कि यद्यपि आर्थिक
विकास के लिए सामाजिक उपरि-पूँजी आधारभूत है, फिर भी, वह केवल एक 'अनुज्ञापक' साधन
है क्योंकि यह निजी निवेश को बढ़ने की केवल अनुज्ञा देती है। दूसरी और, 'प्रत्यक्षतः
उत्पादक क्रिया' आर्थिक विकास में 'विवशताकारी' साधन है। अन्य बातों के साथ मशीनों,
औजार तथा लोहा और इस्पात उद्योग इसमें शामिल है। इसलिए वह दृढ़तापूर्वक कहता है कि
ग्रामीण अतिरेक श्रम को पूँजी-निर्माण में रूपान्तरित करने का नर्स सिद्धान्त सामाजिक
उपरि-पूँजी के सम्बन्ध में तो उचित हो सकता है, परन्तु प्रत्यक्षतः उत्पादक क्रियाओं
के प्रसंग में नहीं, जोकि आर्थिक विकास की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है।
12. कृषि उत्पादन में कमी (Fall in production)-नकर्से
से प्रोफेसर शुल्ज इस बात पर सहमत नहीं है कि अतिरेक श्रम-शक्ति को फार्म से हटाकर
नई पूँजी परियोजनाओं में लगाने से कृषि उत्पादकता नहीं घटेगी। उसका कहना है कि
"कहीं भी किसी भी दरिद्र देश में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता जो यह कहता हो कि
अन्य बातें समान रहने पर, उसका उत्पादन घटाए बिना उसकी वर्तमान श्रम-शक्ति का थोड़ा
भाग, जैसे 5% पर भी कृषि से स्थानान्तरित किया जा सकता है।'
13. अशुद्ध आनुभविक प्रमाण (Defective empirical evidence)-कुछ
अर्थशास्त्री स्पष्ट करते हैं कि अतिरेक श्रम के 20-25% अनुमान बिल्कुल अपर्याप्त और
अशुद्ध हैं। काओ, एस्चेल और आयशर के आनुभविक अध्ययनों ने यह बताया है कि विभिन्न लेखकों
ने अनुमान लगाने में अस्थाई श्रम को भी अदृश्य बेरोजगारी में शामिल किया है जिससे उसकी
बहुत अधिक प्रतिशतता आई। उनके अनुसार ऐसे आनुभविक प्रमाण बहुत कम है को अल्पविकसित
देशों में 5% से अधिक अदृश्य बेरोजगारी का पाया जाना बताते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)-ऊपर की समस्त चर्चा से यह परिणाम निकाला जा सकता है कि अति जनसंख्या वाले अल्पविकसित देशों में गुप्त बचत-संभाव्य के रूप में, और इसलिए पूँजी-निर्माण के स्त्रोत के रूप में, अदृश्य बेकारी का पाया जाना अनेक कठिनाइयों से युक्त रहता है और उन देशों में इसकी व्यवहार्यता नहीं के बराबर है, जिन्होंने अपने को जीवन के प्रजातांत्रिक ढंग से संबद्ध कर रखा है। इस प्रकार, प्रो० वाइनर के शब्दों में निष्कर्ष यह है कि "उन समस्त विषयों में बहुत कम या बिल्कुल सार नहीं है जिन्हें 'अदृश्य बेकारी' या 'गुप्त बेकारी' या 'अल्प-रोजगार' के रूप में रिकल्पित किया गया है, जिन पर जहाँ तक वे असली सामाजिक समस्याओं की संस्थापना करते है-रोजगार पर लगे श्रम की निम्न उत्पादकता उसके कारणों, उसके असली सीमा-विस्तार और उसके संभव उपचारों के विषय के सच्चे आकार, तथा व्यापक विश्लेषण पर विचार नहीं किया जाएगा।"