जैसा कि हम अध्ययन कर चुके हैं कि राष्ट्रीय
आय या राष्ट्रीय उत्पादन उन वस्तुओं तथा सेवाओं का मौद्रिक मूल्य है जिनका किसी
अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में उत्पादन किया जाता है। वस्तुओं तथा सेवाओं का यह प्रवाह
ही वर्तमान उपभोग तथा भविष्य के उत्पादन का आधार बनता है। साधारणतया यह विश्वास
किया जाता है कि लोगों का कल्याण उनके उपभोग स्तर पर निर्भर करता है। अत: यह कहा
जाता है कि जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय बढ़ती जाती है, लोगों का उपभोग भी बढ़ता जाता
है और उनके कल्याण में वृद्धि होती जाती है, परन्तु राष्ट्रीय आय तथा आर्थिक
कल्याण में इतना सरल सम्बन्ध नहीं है। इनके सम्बन्ध की वास्तविक प्रकृति का अध्ययन
करने के लिए हम इनकी विस्तृत विवेचना करेंगे।
आर्थिक कल्याण क्या है ?
(What is Economic Welfare ?)
प्रो. पीगू ने मुद्रा को एक आधार के रूप में
स्वीकार करके कुल कल्याण को दो भागों में बाँटा है—(अ) आर्थिक कल्याण, (ब)
अनार्थिक कल्याण। पीगू के अनुसार, “आर्थिक कल्याण कुल कल्याण का वह भाग है जिसकी
प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मुद्रा के रूप में माप की जा सकती है।'' अत: सामाजिक
कल्याण के केवल एक भाग को आर्थिक कल्याण कहा जाता है। यह वह भाग है जिसे किसी न
किसी रूप में मुद्रा से सम्बन्धित किया जा सकता है। सामाजिक कल्याण के बाकी भाग
को, जिसे मुद्रा द्वारा नहीं मापा जा सकता, गैर-आर्थिक कल्याण (Non-economic
Welfare) कहा जाता है। एक पुस्तक के पढ़ने से प्राप्त प्रसन्नता, प्रेम की भावना आदि
गैर-आर्थिक कल्याण के उदाहरण हैं, परन्तु बहुत-सी परिस्थितियों में यह बताना कठिन
हो जाता है कि कौन-सा कल्ल्याण आर्थिक है और कौन-सा अनार्थिक।
राष्ट्रीय आय और आर्थिक
कल्याण के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण (DIFFERENT
APPROACHES REGARDING RELATIONSHIP BETWEEN NATIONAL INCOME AND ECONOMIC WELFARE)
राष्ट्रीय आय और आर्थिक कल्याण के बीच
घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का अध्ययन हम निम्नलिखित अर्थशास्त्रियों के
दृष्टिकोणों का अध्ययन व विश्लेषण करके करेंगे :
(1) पीगू का दृष्टिकोण, (2) कीन्स का दृष्टिकोण, (3) प्रो.
सैम्युअलसन का दृष्टिकोण, (4) नोढास एवं टोबिन का दृष्टिकोण, (5)
ओवरसीज विकास परिषद् संस्था का निर्देशांक।
(1) पीगू का दृष्टिकोण (Pigou's
Approach)—प्रो. पीगू ने अपनी पुस्तक "Economic Welfare' में राष्ट्रीय आय और आर्थिक कल्याण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन निम्न
बिन्दुओं के आधार किया है :
(अ) राष्ट्रीय आय के परिमाण में परिवर्तन तथा आर्थिक कल्याण,
(ब) राष्ट्रीय आय के वितरण में परिवर्तन तथा आर्थिक कल्याण. (स)
राष्ट्रीय आय का स्थायित्व और आर्थिक कल्याण।
(अ) राष्ट्रीय आय के परिमाण में परिवर्तन तथा
आर्थिक कल्याण (Change in the Magnitude of National Income and Economic Welfare) सामान्यतः
'राष्ट्रीय आय के परिमाण में परिवर्तन' तथा आर्थिक कल्याण में
सीधा सम्बन्ध होता है अर्थात् कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में जब वृद्धि होती है
तो इसका आशय होता है कि देश के आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो रही है। राष्ट्रीय आय
में वृद्धि होने का अर्थ है कि देश में उपलब्ध वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा अधिक
हो गई है और जब ऐसा होता है तो आर्थिक कल्याण पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके
विपरीत, राष्ट्रीय आय के आकार में कमी होने से उपभोग की वस्तुओं और सेवाओं की
मात्रा भी कम हो जाती है, फलस्वरूप आर्थिक कल्याण कम हो जाता है, किन्तु प्रो.
पीगू का मत है कि “यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने से आर्थिक
कल्याण में भी सदैव वृद्धि होती हो। वह बढ़ने के स्थान पर घट भी सकता है अर्थात्
इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं।' जिन कारणों से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर
भी आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं होती, वे कारण निम्नलिखित है :
(i) गरीबों का अंश (Proportion of Poor)—आर्थिक
कल्याण में वृद्धि तभी होगी, जबकि राष्ट्रीय आय में होने वाली
वृद्धि के साथ निर्धनों को प्राप्त होने वाली आय में कमी न हो।
(ii) रुचियों में अच्छा परिवर्तन (Good
Change in Tastes)–व्यय की दृष्टि के फलस्वरूप उपभोग में (और इस प्रकार रुचियों में) परिवर्तन अच्छाई की ओर होना चाहिए, तभी
आर्थिक कल्याण बढ़ेगा अन्यथा नहीं। उदाहरणार्थ, यदि लोग अपनी बढ़ी आय को मादक
पदार्थों के उपभोग, जुए आदि पर व्यय करने लगते हैं तो आर्थिक कल्याण घटेगा।
(iii) उत्पादन करने का ढंग (Mode of
Production) यदि किसी समय राष्ट्रीय आय में वृद्धि शासन तथा उत्पादन कला में सुधार एवं आविष्कार के कारण हुई है तो देश के
आर्थिक कल्याण में भी वृद्धि होती है। इसके विपरीत, यदि कार्य के घण्टे बढ़ाकर
स्त्री तथा बच्चों को काम पर नियुक्त करके तथा अस्वास्थ्यकर वातावरण में काम करके
राष्ट्रीय आय में वृद्धि की गई है तो इससे आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं हुई है,
क्योंकि यहाँ आय को उत्पादन करने में जिस सन्तोष का त्याग करना पड़ा है, वह उस
सन्तोष से अधिक है जो राष्ट्रीय आय का उपयोग करने से प्राप्त होता है।
(iv) उत्पादन की रचना (Composition of
Production) आर्थिक कल्याण में वृद्धि उसी दशा में सम्भव है, जबकि देश की प्रति व्यक्ति आय अधिक हो और देश की प्रति
व्यक्ति आय में वृद्धि उसी दशा में सम्भव है, जबकि जनसंख्या स्थिर रहे या उसमें
वृद्धि राष्ट्रीय आय के अनुपात में कम हो।
(v) प्राकृतिक स्रोतों का उचित उपयोग
(Proper Utilisation of Natural Resources)—राष्ट्रीय आय के निर्माण में प्राकृतिक स्रोतों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जब
किसी देश में प्राकृतिक स्रोतों का प्रयोग मितव्ययिता तथा कुशलता से होता है तो
इससे समाज का आर्थिक कल्याण बढ़ता है। इसके विपरीत, यदि इन प्राकृतिक स्रोतों का
उपयोग अकुशलता तथा अमितव्ययिता के साथ होता है तो समाज के आर्थिक कल्याण में कमी होती
है।
(vi) कीमतों में वृद्धि (Increase in
Prices)
यदि राष्ट्रीय आय से हमारा तात्पर्य चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय
अथवा मौद्रिक राष्ट्रीय आय से है, तब निश्चित रूप से यह आर्थिक कल्याण का सही सूचक
नहीं है। इसका कारण यह है कि आर्थिक कल्याण का सम्बन्ध वस्तुओं और सेवाओं की
मात्रा से है, न कि उसके मौद्रिक मूल्य के परिवर्तन से जो कि चालू कीमतों में
परिवर्तन के कारण सम्भव हो सकता है। कीमतों में वृद्धि होने से, वस्तुओं और सेवाओं
की मात्रा में बिना वृद्धि हुए उनके मौद्रिक मूल्य में वृद्धि हो सकती है। इसके
फलस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा में बिना वृद्धि हुए मौद्रिक राष्ट्रीय आय
में वृद्धि या चालू कीमतों के बढ़ने से राष्ट्रीय आय में वृद्धि आर्थिक कल्याण में
कोई वृद्धि नहीं लायेगी।
(ब) राष्ट्रीय आय के वितरण में परिवर्तन तथा
आर्थिक कल्याण (Change in the Distribution of National Income and Economic
Welfare)-राष्ट्रीय आय के वितरण में परिवर्तन का अर्थ है कि समाज के एक वर्ग-विशेष के व्यक्तियों से आय का दूसरे वर्ग के व्यक्तियों के
हाथों में हस्तान्तरण होना। समाज में सामान्यत: दो वर्ग होते हैं धनी वर्ग तथा
निर्धन वर्ग। अत: राष्ट्रीय आय में वितरण के परिवर्तन की दो दिशाएँ हो सकती हैं :
(अ) धनी वर्ग से निर्धन वर्ग की ओर आय का हस्तान्तरण। (ब) निर्धन वर्ग से धनी वर्ग की ओर आय का हस्तान्तरण। आय का हस्तान्तरण निर्धन वर्ग के पक्ष में होने पर जहाँ आय के वितरण में समानता बढ़ेगी, वहीं धनी वर्ग के पक्ष में होने पर आय के वितरण में असमानताएँ बढ़ेगी। आय की असमानता बढ़ने पर या “निर्धन वर्ग के पक्ष में आय का हस्तान्तरण होने पर आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है।"
निर्धनों के पक्ष में
राष्ट्रीय आय का पुनर्वितरण किस प्रकार किया गया है?—निर्धनों
के पक्ष में राष्ट्रीय आय का पुनर्वितरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
(i) प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय आय के वितरण में परिवर्तन
क्रय शक्ति के हस्तान्तरण द्वारा किया जा सकता है; जैसे—धनी वर्ग
से क्रय शक्ति का कुछ भाग लेकर निर्धन वर्ग को हस्तान्तरित कर दिया जाय।
(ii) परोक्ष रूप से क्रय शक्ति के हस्तान्तरण की दो रीतियाँ
हो सकती हैं—(क) उत्पादन प्रणाली में इस प्रकार सुधार कर दिया
जाय कि वे वस्तुएँ, जिनका उपभोग निर्धन वर्ग करता है, सस्ती हो जायें और जिसका उपभोग
धनी वर्ग करता है, महँगी हो जाये। इसका परिणाम यह होगा कि देश के बहुसंख्यक निर्धन
लोग अपनी पहली आय से अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग करके अधिक सन्तोष की
प्राप्ति करेंगे। (ख) दूसरी रीति यह हो सकती है कि राशनिंग अथवा युक्तियों द्वारा
धनी व्यक्तियों को उन वस्तुओं के उपभोग को त्यागने के लिए विवश कर दिया जाय जिनका
उपभोग निर्धन वर्ग के अधिकतर लोग करते हैं। इसका परिणाम यह होगा कि निर्धन व्यक्तियों
को अधिक सेवाएँ एवं वस्तुएँ उपभोग के लिए उपलब्ध हो जायेंगी और परिणामस्वरूप
राष्ट्रीय आय के परिमाण में बिना किसी परिवर्तन के ही आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो
जायेगी।
सामान्यत: यदि राष्ट्रीय आय के वितरण में
निर्धनों के पक्ष में कोई परिवर्तन होता है तो उससे आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती
है, बशर्ते राष्ट्रीय आय के परिमाण में किसी भी प्रकार का परिवर्तन न हो। इस मत की
पुष्टि में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं
(i) आर्थिक कल्याण सम्पूर्ण आय पर निर्भर न होकर आय के उस
भाग पर निर्भर करता है जिसका प्रयोग उपभोग के लिए किया जाता है।
इसलिए धनी वर्ग के लोगों के हाथ से उनकी आय का वह भाग जिसका कि वे उपभोग में
प्रयोग नहीं करते, निर्धन व्यक्तियों को दे दिया जाय जो कि आय की कमी के कारण अति
आवश्यक उपभोग से वंचित रहते हैं, इससे कुल कल्याण में वृद्धि होगी।
(ii) प्रो. पीगू के शब्दों में, उपयोगिता ह्रास नियम"
के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धनिकों से जब कुछ आय ले ली जाती
है तो उनके आर्थिक कल्याण में होने वाली हानि उस लाभ की अपेक्षा बहुत कम होती है
जो कि गरीबों को उस आय के मिलने से उनके आर्थिक कल्याण में होता है।'' इस प्रकार
यदि आय का वह भाग, जिसकी धनिकों के लिए बहुत कम उपयोगिता है, निर्धन वर्ग को दे
दिया जाय तो वह उससे अधिक उपयोगिता प्राप्त करेगा। वह पहले की अपेक्षा अधिक
वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग कर सकेगा और उसके कुल सन्तोष में वृद्धि होगी,
परिणामस्वरूप आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो जायेगी।
आपत्तियाँ (Objections)—प्रो.
पीगू द्वारा निकाले गये उक्त निष्कर्ष के विरोध में कुछ विद्वानों का कहना है कि
राष्ट्रीय आय के वितरण में निर्धनों के पक्ष में वितरण होने का आर्थिक कल्याण पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और इसकी पुष्टि में वे निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं।
(i) बढ़ी हुई आय का दुरुपयोग (Misuse of
Increased Income)—प्राय: देखा गया है कि एक निर्धन
व्यक्ति बढ़ी हुई आय का समुचित उपभोग न करके उसे शराब पीने एवं जुआ खेलने में व्यय
कर देता है जिससे उसके आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं हो पाती।
(ii) आय में वृद्धि का प्रभाव (Effect of
Increase of Income)—यह भी कहा जाता है कि निर्धन व्यक्तियों की आय में वृद्धि हो जाने से कमजोर एवं अपंग बच्चों को
जीवित रहने का अवसर मिलेगा जिससे भावी नस्ल खराब हो जायेगी और इस प्रकार
दीर्घकालीन दृष्टिकोण से आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं होगी।
(iii) प्रशिक्षण व संस्कार का अभाव (Lack
of Training and Sanskar)—यह भी कहा जाता है कि प्रशिक्षण
व संस्कार के अभाव में निर्धन व्यक्ति बढ़ी हुई आय से अधिक सन्तोष प्राप्त नहीं कर
सकेगा।
उपर्युक्त तर्क बहुत महत्वपूर्ण नहीं है
क्योंकि इससे धनी लोग गरीबों का और अधिक शोषण करने लगेंगे। यह बात सत्य है कि गरीब
लोग जिस पर्यावरण में रहते हैं, उसमें उनके व्यवहार और रुचियों व संस्कारों में
कोई असाधारण परिवर्तन नहीं किया जा सकता लेकिन पर्यावरण को बदला जा सकता है। अच्छी
शिक्षा, अच्छे रोजगार के अवसर या इसी प्रकार की अन्य सुविधाएँ जिनसे अधिक उत्पादन
होता है, गरीबों में एक नयी आशा का संचार करेगी। धीरे-धीरे वे अपने व्यवहार में
परिवर्तन करेंगे, नई और अच्छी आदतों को अपनायेंगे तथा उनकी शिक्षा, उनका मार्ग
प्रशस्त करके यह बतायेगी कि किस प्रकार वे अपनी बढ़ी हुई आय से अधिकतम सन्तुष्टि
प्राप्त कर सकते है।
(स) राष्ट्रीय आय का स्थायित्व और आर्थिक कल्याण
(Stability of National Income and Economic Welfare) देश
का आर्थिक कल्याण राष्ट्रीय आय के स्थायित्व पर भी निर्भर करता है। जब राष्ट्रीय आय की मात्रा में अधिक परिवर्तन होते रहते हैं तो आर्थिक कल्याण घटता
है, क्योंकि जिन वर्षों में आय अधिक हो जाती है, तब लोग अपव्यय करते हैं और जिन
वर्षों में आय कम होती है, तब लोग व्यय कम करते है। इस प्रकार स्पष्ट है कि
राष्ट्रीय आय का स्थायित्व आर्थिक कल्याण को बढ़ाता है क्योंकि सभी व्यक्तियों के
पास दीर्घकाल की दृष्टि से व्यय के लिए प्रत्येक वर्ष में समान ही आय रहती है।
प्रो. पौगू के शब्दों में, “जो भी कारण सम्पूर्ण समाज के कुल उपयोग को कम
परिवर्तनीय बनाता है, वह सामान्यतया आर्थिक कल्याण में वृद्धि करता है बशर्ते राष्ट्रीय
आय की मात्रा न घटे तथा आय का वितरण निर्धनों के प्रतिकूल न हो।"
इस सम्बन्ध में एक बात उल्लेखनीय है कि
राष्ट्रीय आय के सभी अंगों में समान उच्चावचन आवश्यक नहीं है। यदि आय के उस भाग
में अपेक्षाकृत उच्चावचन अधिक है जो निर्धनों को प्राप्त होता है तो इससे आर्थिक कल्याण
को अधिक हानि होगी। इसके विपरीत, यदि धनिकों को प्राप्त होने वाली आय उच्चावचन
अधिक है तो हानि कम होती है। इसका कारण यह है कि उपयोगिता ह्रास नियम की
कार्यशीलता के कारण परिवर्तन का प्रभाव धनिकों पर निर्धनों की तुलना में कम पड़ता
है।
अतः स्पष्ट है कि “कोई भी कारण जो राष्ट्रीय
उत्पाद के उस भाग की अस्थिरता को कम करता है जो निर्धन वर्ग को प्राप्त होता है,
भले ही वह समान अंश तक उस भाग की परिवर्तनशीलता को बढ़ा दे जो धनिकों को प्राप्त
होता है, यदि अन्य बातें समान रहें तो वह आर्थिक कल्याण में वृद्धि कर देता
है।"
(2) कीन्स का दृष्टिकोण (Keynesian
Approach)-बीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लार्ड जे. एम. कीन्स ने अपनी पुस्तक 'The General Theory of Employment, Interest
and Money' (1936) में रोजगार के आधुनिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। लार्ड
कीन्स के अनुसार, एक पूँजीवादी विकसित अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति
सामान्य स्थिति नहीं है। वास्तव में, हर अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी पायी जा सकती
है। अतः बेरोजगारी को दूर करके पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने के लिए
सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है।
कीन्स ने अपने रोजगार सिद्धान्त को
राष्ट्रीय आय की मात्रा पर आधारित किया है। "राष्ट्रीय आय में वृद्धि रोजगार
में वृद्धि कर आर्थिक कल्याण को बढ़ाती है और इसके विपरीत, राष्ट्रीय आय के गिरने
पर रोजगार एवं उत्पादन में कमी से कल्याण में कमी आती है।"
(3) प्रो, सैम्युअलसन का दृष्टिकोण
(Samuelson's Approach)-प्रो, पाल ए, सैम्युअलसन ने अपनी कृति में शुद्ध आर्थिक कल्याण (Net Economic Welfare-NEW) की नवीन
धारणा का प्रतिपादन किया है। उनका विचार है कि राष्ट्रीय आय जैसा कि प्राय: इसकी
परिभाषा की जाती है, आर्थिक कल्याण का सन्तोषजनक मापदण्ड नहीं है। उनका मत है कि
आर्थिक कल्याण का सही मापदण्ड मालूम करने के लिए सकल राष्ट्रीय आय के कुछ जोड़ने व
घटाने (Additions and Subtractions) के रूप में निम्न समायोजन करने चाहिए :
सकल राष्ट्रीय आय में जोड़ने वाली मदें–(i)
अवकाश' (Leisure) के क्षणों में प्राप्त सन्तुष्टि का मूल्य क्योंकि अवकाश से
व्यक्ति को उसी प्रकार सन्तुष्टि मिलती है; जैसे वस्तुओं व सेवाओं के उपभोग से।
(ii) बाजार में क्रय-विक्रय न की जा सकने वाली वैयक्तिक सेवाएँ (Non-marketcd
Personal Services) जैसे गृहिणियों द्वारा अपने परिवारों के सदस्यों की जो सेवाएँ
की जाती हैं।
सकल राष्ट्रीय आय में घटाने वाली मदें-(i)
आधुनिक उद्योगों के उत्पादन से पर्यावरण वायु, जल व शान्ति सम्बन्धी प्रदूषण
(Pollution) उत्पन्न होता है जिससे लोगों के कल्याण में हानि होती है। (ii) व्यर्थ
और अनुत्पादक (Wasteful and Non-productive) व्यय हैं, जैसे—कानून और व्यवस्था
बनाये रखने के लिए पुलिस और न्यायालयों पर व्यय तथा वाह्य आक्रमणों से देश की
रक्षा के लिए प्रतिरक्षा पर व्यय इन व्ययों को शोचनीय लागतों (Regrettable Costs)
का नाम दिया गया है क्योंकि अर्थशास्त्री इन्हें शोचनीय आवश्यकताएँ (Regrettable
Necessities) समझते हैं जिन पर व्यय से लोगों के कल्याण में वृद्धि नहीं होती।
संक्षेप में, कुल राष्ट्रीय उत्पाद (Gross
National Product-GNP) और निवल आर्थिक कल्याण (Net Economic
Welfare-NEW) में सम्बन्ध इस प्रकार निरूपित किया जा सकता
वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पादन (Real GNP)
: अवकाश का मूल्य (Value of
Leisure) + क्रय-विक्रय न की जा सकने वाली गतिविधियाँ (Non-marketed Activities) (अर्थात्
गृहिणियों की सेवाएँ और वैयक्तिक सेवाएँ) - मूल्य ह्रास
(Depreciation) - पर्यावरण प्रदूषण (Environmental Pollution)
-शोचनीय लागते (Regrettable Costs) = शुद्ध आर्थिक कल्याण (Net Economic Welfare)
यह धारणा अधिक उपयुक्त मानी जाती है क्योंकि
अभी GNP में अवकाश प्राप्त सुख को सम्मिलित नहीं किया जाता है और न वायु और जल
प्रदूषण (Pollution), अपराधों, युद्धों और शहरीकरण की असुविधाओं को घटाया जाता है।
माप में व्यावहारिक कठिनाई के कारण यह धारणा लोकप्रिय नहीं हो पायी है।
(4) नोढाल एवं टोविन दृष्टिकोण (Nodal
& Tobin's Approach)-विलियम नोढाल तथा जेम्स टोबिन
ने 'आर्थिक कल्याण मापक्क' (Measure of Economic Welfare-MEW) का विचार प्रस्तुत
किया है। इस विचारधारा के अनुसार आर्थिक कल्याण उत्पादन के स्तर पर नहीं अपितु
उपभोग के स्तर पर निर्भर करता है। एक देश में एक वर्ष में उपभोग का स्तर जितना
अधिक होगा, उतना ही आर्थिक कल्याण अधिक होगा।
शुद्ध आर्थिक कल्याण की माप करने के लिए
नोढाल तथा टोबिन ने उपभोग में से कुछ मदों को घटाने और कुछ मदों को जोड़ने की
अनुशंसा की है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं :
(अ) उपभोग में से घटायी जाने वाली मदें नोढाल तथा टोबिन ने
शुद्ध आर्थिक कल्याण का माप करने के लिए उपभोग में से निम्नलिखित
मदों को घटाया है :
(i) सार्वजनिक क्षेत्र में सेना, सुरक्षा, पुलिस, सड़को तथा
पुलों की मरम्मत आदि पर किया गया व्यय।
(ii) टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं; जैसे टेलीविजन, स्कूटर, फर्नीचर
आदि पर किया गया व्यय। (iii) दूषित वातावरण व प्रदूषण आदि की
सामाजिक लागते।
(ब) उपभोग में जोड़ी जाने वाली मदें-नोढाल तथा टोबिन के अनुसार
निम्नलिखित व्ययों को आर्थिक कल्याण का माप करने के लिए जोड़
दिया जाता है :
(1) टिकाऊ वस्तुओं से मिलने वाला वार्षिक सन्तुष्टि का मौद्रिक
मूल्य। (ii) स्वयं के उपभोग के लिए जो उत्पादन किया जाता उसका
अनुमानित मूल्य। (iii) आराम से प्राप्त सन्तुष्टि का अनुमानित मूल्य।
उपर्युक्त विचारधारा यद्यपि आकर्षक प्रतीत
होती है, परन्तु एक ओर तो उपभोग सम्बन्धी सूचना एकत्र करना कठिन है तथा वातावरण से
प्राप्त लाभ या हानि को मुद्रा के रूप में मापना भी कठिन है। अत: माप में व्यावहारिक
कठिनाइयों के कारण यह धारणा भी लोकप्रिय हो सकती है।
आर्थिक कल्याण का सर्वश्रेष्ठ
मापक क्या है ? (WHICH IS THE BEST MEASURE OF ECONOMIC
WELFARE?)
अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत है कि कई
सीमायें होने के बावजूद भी आर्थिक कल्याण का अभी तक सबसे सन्तोषजनक माप वास्तविक
राष्ट्रीय आय की धारणा ही है। प्रो. आर. जी. लिप्सी के अनुसार, "भविष्य में
आर्थिक कल्याण के मापकों में कितना ही परिवर्तन क्यों न हो, वे पूरी तरह सकल
राष्ट्रीय उत्पादन का स्थान नहीं ले सकेंगे।