बूके
के सामाजिक द्वैतवाद के विकल्प के रूप में प्रोफेसर हिग्गिन्ज़ ने प्रौद्योगिकीय
द्वैतवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद का अभिप्राय है
एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के विकसित तथा परंपरागत क्षेत्रों में विभिन्न उत्पादन
फलनों का प्रयोग। इस प्रकार के द्वैतवाद ने औद्योगिक क्षेत्र में संरचनात्मक या
प्रौद्योगिकीय बेरोजगारी तथा देहाती क्षेत्र में अल्प-रोजगार की समस्या को बढ़ाया
है। हिग्गिन्ज़ का प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद का सिद्धान्त ऐकॉस
(R.S. Eckaus) द्वारा विवेचित साधन अनुपातों की समस्या को शामिल करता है और उन सीमित उत्पादकीय रोजगार सुविधाओं से संबंध रखता है, जो मार्किट
अपूर्णताओं, विभिन्न साधन-सम्पन्नताओं तथा उत्पादन फलनों के कारण अल्पविकसित
अर्थव्यवस्थाओं के दो क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
वास्तव
में, अल्पविकसित देशों की एक विशिष्टता साधन स्तर पर संरचनात्मक असंतुलन है। साधन
स्तर पर असंतुलन या तो इस कारण उत्पन्न होता है कि एक एकल साधन विभिन्न प्रयोगों
में विभिन्न प्रतिफल प्राप्त करता है या इसलिए कि साधनों के बीच कीमत संबंध साधन प्राप्यताओं
से मेल नहीं खाते। डॉ० ऐकॉस' के अनुसार, ऐसे असंतुलन से अल्पविकसित देशों में दो प्रकार
से बेरोजगारी या अल्पबेरोजगारी होती है। एक, कीमत प्रणाली में अपूर्णताओं या कु-कार्यकरण
से। दो, वर्तमान प्रौद्योगिकी या माँग की संरचना में रुकावटें, जो अति जनसंख्या वाले
पिछड़े हुए देशों में अतिरेक श्रम का कारण बनती हैं। अतः एक अल्पविकसित देश में संरचनात्मक
बेरोजगारी का संबंध अतिरेक श्रम से होता है, जो साधनों के कुवितरण, माँग की संरचना
और प्रौद्योगिकीय रुकावटों से उत्पन्न होता है।
हिग्गिन्ज़
ने दो वस्तुओं, उत्पादन के दो साधनों और वो क्षेत्रों के गिर्द उनके साधन संपन्नता
तथा उत्पादन-फलनों से अपने सिद्धान्त का निर्माण किया है। दो क्षेत्रों में से,
औद्योगिक क्षेत्र बागानों, खानों, तेल-क्षेत्रों, रिफाइनरियों या बड़े पैमाने के
उद्योगों में प्रवृत्त रहता है। यह पूँजी-गहन होता है और तकनीकी गुणांक इसे
विशिष्टता प्रदान करते हैं। दूसरे शब्दों में, साधनों की तकनीकी स्थानापन्नता नहीं
होती और उन्हें स्थिर अनुपातों में मिलाया जाता है। देहाती क्षेत्र । खाद्य
वस्तुओं के उत्पादन, दस्तकारी या बहुत छोटे उद्योगों में प्रवृत्त रहता है। इसके
उत्पादन के तकनीकी गुणक परिवर्ती होते हैं ताकि यह तकनीकों के विस्तृत क्षेत्र और
श्रम तथा पूँजी (जिसमें सुधारी हुई भूमि भी शामिल है) के वैकल्पिक संयोगों से एक
ही वस्तु का उत्पादन कर सके
चित्र में औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन-फलन व्यक्त किया गया है।
श्रम
की इकाइयां क्षैतिज अक्ष पर मापी गई हैं और पूँजी इकाइयां अनुलम्ब अक्ष पर। वक्र Q1
सममात्रा वक्र है, जो पूँजी की OK तथा श्रम की OL मात्राओं के संयोगों को प्रकट
करता है, जोकि उत्पादन के एक निश्चित स्तर का उत्पादन करते हैं वक्र
Q2Q3Q4 उत्पादन के अधिक ऊंचे स्तरों को प्रकट करते
हैं, जो तभी संभव होंगे जब उन्हीं अनुपातों में पूँजी तथा श्रम की इकाइयां बढ़ाई जाएंगी।
इस
प्रकार, बिन्दु A, B,C, D पूँजी और श्रम के उन स्थिर संयोगों को प्रकट करते हैं जिनका
उत्पादन के विभिन्न स्तरों Q1Q2Q3Q4 का
उत्पादन करने के लिए प्रयोग होता है। इन बिन्दुओं को मिलाने वाली OE रेखा औद्योगिक
क्षेत्र का विस्तार मार्ग है। इसकी ढलान दो साधनों के स्थिर अनुपातों को व्यक्त करती
है। K1L1 रेखा यह स्पष्ट करती है कि उत्पादन क्रिया पूँजी-गहन
है, दिए हुए उत्पादन को उत्पादित करने के लिए श्रम की सापेक्षता में अधिक पूँजी की
जरूरत है। उत्पादन Q1 के लिए पूँजी की OK इकाइयां और श्रम की OL इकाइयां
प्रयोग होती हैं। पर, यदि वास्तविक साधन सपन्नता A की अपेक्षा S पर हो, इसका मतलब होगा
कि उसी Q1 उत्पादन के लिए अधिक श्रम इकाइयां (OL1) उपलब्ध हैं,
जबकि उपलब्ध पूँजी की इकाइयां उतनी (OK) ही रहती हैं। क्योंकि तकनीकी गुणक स्थिर हैं,
इसलिए अतिरिक्त श्रम-पूर्ति का उत्पादन- तकनीकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और श्रम
की LL1 इकाइयां बेरोजगार रहेंगी। इस अतिरिक्त श्रम-पूर्ति को इस क्षेत्र
में खपाना केवल तभी संभव होगा, जब पूँजी-स्टॉक बढ़कर SF हो जायेगा। अन्यथा इसे देहाती
क्षेत्र में रोजगार खोजना पड़ेगा। पर वास्तविकता में, तकनीकी गुणक इतनी कठोरता से स्थिर
नहीं होते बल्कि कुछ-कुछ लचीले होते हैं। सममात्रा वक्रों की बिन्दुकित वक्रता साधन-अनुपातों
में थोड़े लचीलेपन की सम्भावनाओं को प्रकट करती हैं। यह साधन सम्पन्नताओं में बहुत
थोड़े परिवर्तनों को प्रकट करती है जिनके लिए उद्यमी उत्पादन की तकनीकों में प्रचण्ड
परिवर्तन नहीं करना चाहेंगे। इस प्रकार वे स्थिर तकनीकी गुणांक रखने को ही अधिमान देंगे।
कृषि क्षेत्र के लिए उत्पादन फलन चित्र में दर्शाया गया है।
सममात्रा
वक्र Q1,Q2,Q3,Q4 उत्पादन के परिवर्ती
गुणांकों को व्यक्त करते हैं। अधिक उत्पादन करने के लिए पूँजी (सुधारी हुई भूमि) की
सापेक्षता में अधिक श्रम लगाया गया है। अन्ततः अच्छी भूमि दुर्लभ हो जाती है। तथा समस्त
उपलब्ध भूमि अत्यधिक श्रम-गहन तकनीकों द्वारा बिन्दु पर काश्त की जाती है जहाँ उत्पादन
का अधिकतम स्तर On प्राप्त हो जाता है।
दो
क्षेत्रों में विभिन्न उत्पादन फलनों के दिए हुए होने पर प्रोफसर हिग्गिन्ज उस प्रक्रिया
का विश्लेषण करता है जिसके परिणामस्वरूप प्रौद्योगिकीय वैतवाद ने द्वतीय अर्थव्यवस्थाओं
में बेरोजगारी और अदृश्य बेरोजगारी बढ़ाई है। दो क्षेत्रों में से, औद्योगिक क्षेत्र
विदेशी पूँजी की सहायता से विकास तथा विस्तार करता है। इस प्रकार, औद्योगिक क्षेत्र
में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पूंजी-संचय की दर से बहुत अधिक जनसंख्या की वृद्धि
हो जाती है। क्योंकि यह क्षेत्र पूँजी-गहन तकनीकों और स्थिर तकनीकी गुणकों का प्रयोग
करता है, इसलिए यह उसी दर से रोजगार के अवसर उत्पन्न नहीं कर सकता जिससे जनसंख्या बढ़ती
है। बल्कि यह भी हो सकता है कि औद्योगीकरण "उस क्षेत्र में कुल रोजगार के अनुपात
में सापेक्ष कमी ला दे।" इस प्रकार, अतिरेक श्रम के पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं
कि वह देहाती क्षेत्र में रोजगार ढूंढें।
विकास
प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से पहले, देहाती क्षेत्र में उत्पादन के साधनों की न तो
प्रचुरता होती है और न ही दुर्लभता। शुरू में तो यह सम्भव है कि अधिक भूमि को काश्त
में लाकर अतिरिक्त श्रम-शक्ति को खपा लिया जाए। इसके परिणामस्वरूप श्रम तथा पूँजी
(सुधारी हुई भूमि) के अनुकूलतम संयोग बनते है क्योंकि उत्पादन बढ़ता है। उस क्षेत्र
में श्रम का उपलब्ध पूँजी से अनुपात धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और क्योंकि तकनीक गुणाक
उपलब्ध है, इसलिए इस क्षेत्र में तकनीकें उत्तरोत्तर परिवर्ती बनती जाती हैं। उदाहरणार्थ,
कई एशियाई देशों में परिवर्ती शुष्क धान खेती के स्थान पर जलयुक्त धान खेती स्थानापन्न
कर दी गई है। अन्ततः बहुत ही अधिक श्रम-गहन तकनीकों द्वारा समस्त उपलब्ध भूमि काश्त
हो जाती है और श्रम की सीमान्त उत्पादकता गिरकर शून्य या शून्य से भी कम हो जाती है।
इस प्रकार जनसंख्या की निरंतर वृद्धि होने पर, अदृश्य बेरोजगारी प्रकट होने लगती है।
इन परिस्थितियों के अन्तर्गत, कृषकों के लिए कोई प्रेरणा नहीं होती कि वे अधिक पूँजी
लगाएं अथवा श्रम-बचत तकनीकें अपनाएं। इसके अतिरिक्त न तो प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ाने
की कोई तकनीक उपलब्ध है और न ही श्रम की ओर से अपने आप उत्पादन बढ़ाने का कोई प्रोत्साहन
होता है। परिणाम यह होता है कि देहाती क्षेत्र में उत्पादन की तकनीकें, श्रम-घण्टा
उत्पादकता तथा सामाजार्थिक कल्याण एक निम्न स्तर पर रहते हैं।
दीर्धकाल
में प्रौद्योगिकीय प्रगति अदृश्य बेरोजगारी को दूर करने में सहायक नहीं होती बल्कि
उसे बढ़ाती है। प्रोफेसर हिग्गिन्ज़ का कथन है कि पिछली दो शताब्दियों में देहाती क्षेत्र
में बहुत थोड़ी या नहीं के बराबर प्रौद्योगिकीय प्रगति हुई है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र
में बहुत तीव्र प्रौद्योगिकीय प्रगति हुई है। इससे अदृश्य बेरोजगारों की संख्या बढ़ी
है। ट्रेड यूनियन क्रियाओं अथवा सरकार की नीति के परिणामस्वरूप मजदूरी की कृत्रिम ऊंची
दरों ने इस स्थिति को और भी गम्भीर बना दिया है। क्योंकि उत्पादकता की सापेक्षता में
ऊंची औद्योगिक मजदूरी दरें उद्यमियों को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि वे श्रम-बचत
तकनीकें अपनाएं, जिसका परिणाम यह होता है कि
अतिरेक श्रम को खपा सकने की औद्योगिक क्षेत्र की क्षमता और भी कम हो जाती है। इसलिए
ये साधन अल्पविकसित देशों में औद्यागिकीय द्वैतवाद की प्रवृत्ति बनाए रखते हैं।
समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)
प्रोफेसर
हिग्गिन्ज ने आधुनिक तथा परम्परागत क्षेत्रों का ऐतिहासिक क्रम-विकास प्रस्तुत करने
का प्रयत्न किया है जिसके कारण पहले क्षेत्र में धीरे-धीरे बेराजगारी बढ़ती जाती है।
प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद बूके के सामाजिक द्वैतवाद से श्रेष्ठ प्रतीत होता है । यह यथार्थिक
है क्योंकि यह इस बात पर विचार करता है कि द्वैतीय समाजों के देहाती क्षेत्र में अदृश्य
बेरोजगारी धीरे-धीरे कैसे बढ़ती जाती हैं।
इसकी त्रुटियां (Its Defects)-फिर भी, इसमें कुछ त्रुटियां
पाई जाती हैं।
1. औद्योगिक क्षेत्र में गुणांक स्थिर नहीं(Coefficients not fixed
in industrial sector)-जहां देहाती क्षेत्र में परिवर्ती तकनीकी गुणांकों
से उत्पादन हुआ है, वहां यह सन्देहास्पद है कि औद्योगिकीय क्षेत्र में उत्पादन वास्तव
में स्थिर गुंणाकों से होता रहा है। बिना किसी प्रमाण के यह मानना सही नहीं कि औद्योगिक
क्षेत्र में स्थिर तकनीकी गुणांक पाए जाते हैं।
2. श्रम खपाने वाली तकनीकों की अवहेलना (Neglects the use of
labour absorbing techniques)-हिग्गिन्ज़ का यह कथन, कि औद्योगिक क्षेत्र
में प्रयोग के लिए अत्यन्त पूँजी-गहन प्रक्रियाएं आयात की जाती हैं, श्रम खपाने वाली
अन्य तकनीकों के प्रयोग की पूर्णरूप से अवहेलना करता है। सब आयातित तकनीकें श्रम की
बचत करने वाली नहीं होती। उदाहरणार्थ, जापान का कृषि विकास पूंजी-गहन तकनीकों के कारण
नहीं हुआ है। बल्कि यह अच्छे बीजों, सुधारी हुई खेती के ढंगों, उर्वरकों के अधिक प्रयोग
आदि के कारण हुआ है।
3. अदृश्य बेरोजगारी की प्रकृति एवं आकार को स्पष्ट नहीं किया
(Nature and size of disguised unemployment not clarified)-हिग्गिन्ज
देहाती क्षेत्र में अदृश्य बेरोजगारी की तथा औद्योगिक क्षेत्र में अतिरिक्त श्रम-पूर्ति
की प्रकृति स्पष्ट नहीं करता और न ही वह प्रौद्योगिक द्वैतवाद से उत्पन्न होने वाली
अदृश्य बेरोजगारी की वास्तविक सीमा की बात करता है।
4. साधन कीमतें साधन संपन्नताओं पर निर्भर नहीं करती (Factor
prices do not depend upon factor endowments)-यह सिद्धान्त इस ओर
संकेत करता है कि किस कारण साधन संपन्नताओं एवं विभिन्न उत्पादन फलनों ने देहाती क्षेत्र
में अदृश्य बेरोजगारी को जन्म दिया है। यह साधन कीमतों के ढंग से महत्त्वपूर्ण तौर
से संबद्ध है। परन्तु साधन कीमतें बिल्कुल साधन संपन्नताओं पर ही निर्भर नहीं करतीं।
5. संस्थानिक साधनों की उपेक्षा (Neglect of institutional factors)-फिर, हिग्गिन्ज़ बहुत से संस्थानिक और मनोवैज्ञानिक तत्त्वों की उपेक्षा करता है, जो साधन अनुपातों को भी प्रभावित करते हैं।