भारत में निर्यात प्रोत्साहन व आयात प्रतिस्थापन (EXPORT PROMOTION AND IMPORT SUBSTITUTION IN INDIA)

भारत में निर्यात प्रोत्साहन व आयात प्रतिस्थापन (EXPORT PROMOTION AND IMPORT SUBSTITUTION IN INDIA)

हम भारत में निर्यात प्रोत्साहन व आयात प्रतिस्थापन के प्रयासों का अध्ययन निानलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत् पृथक्-पृथक् करेगें-

1. भारत में नियांत प्रोत्साहन या संवर्धन के सरकारी प्रवास,

2. भारत में आयात प्रतिस्थापन ।

भारत में निर्यात सम्वर्द्धन के सरकारी प्रयत्न (GOVERNMENT MEASURES FOR EXPORT PROMOTION IN INDIA)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही सरकार नियात में वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रही है। इस सम्बन्ध में समय-समय पर जो प्रयत्न किये गये हैं, उनका अध्ययन हम निम्न दो शीर्षकों में कर सकते हैं-

I. 1991 से पूर्व निर्यात प्रोत्साहन नीतियाँ ।

II. 1991 के बाद निर्यात प्रोत्साहन नीतियाँ।

I. 1991 से पूर्व निर्यात प्रोत्साहन नीतियाँ

1991 से पूर्व सरकार द्वारा अपनाई गई निर्यात प्रोत्साहन नीतियाँ निम्नलिखित हैं-

1. विभिन्न जाँच समितियाँ-जैसे गोरवाला समिति (1949), डिसूजा समिति (1957), मुदालियर समिति (1961), आदि का गठन किया गया।

2. विशिष्ट संगठनों जैसे-नियांत सम्बर्द्धन निदेशालय (1957) केन्द्रीय व्यापार सलाहकार परिषद् (1978) आदि का गठन किया गया।

3. किस्म निमन्त्रण के लिए कई संगठन जैसे-निर्यात निरीक्षण परिषद्, कोलकाता, भारतीय मानक संस्थान, दिल्ली आदि संगठनों की स्थापना की गयी।

4. सार्वजनिक व्यापारिक संस्थाओं-जैसे-राज्य व्यापार निगम, खनिज तथा धातु व्यापार निगम, मुम्बई, अभ्रक व्यापार निगम आदि की स्थापना की गयी।

5. निर्यात वित्त सुविधाओं के विस्तार के लिए विभिन्न संस्थाओं जैसे-निर्यात साख एवं गारण्टी निगम, औद्योगिक विकास बैंक या अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम, निर्यात-आयात बैंक आदि की स्थापना की गयी।

6. नकद मुआवजा सहायता निर्यातों के लिए नकद मुआवजा सहायता (CCS) 1966 में शुरू की गयी। इसका उद्देश्य यह था कि निर्यातक आगतों पर जो कर देते हैं और जिनकी वापसी शुल्क वापसी की व्यवस्था के अन्तर्गत नहीं हो पाती है।

7. शुल्क वापसी की व्यवस्था-शुल्क बापसी की व्यवस्था के अन्तर्गत निर्यात उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले आयातित आगतों व मध्यवर्ती वस्तुओं पर निर्यातकों द्वारा दिये गये शुल्क को उन्हें वापस कर दिया जाता है।

8. अग्रिम लाइसेन्स तथा शुल्क से छूट की घोषणा-अंग्रेम लाइसेन्स निर्यातों को यह सुविधा प्रदान करते हैं कि वे सीमा शुल्क दिये बिना ही कुछ विशिष्ट कच्चे माल का आयात कर सकते हैं।

9.आयात पुन: पूर्ति योजना-निर्यातकों को निर्यात उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल का आयात करने की सुविधा देने के लिए सरकार ने 1937 में आयात हकदारी योजना (Import Entitlement Scheme) की शुरुआत की।

इस उद्देश्य के लिए निर्यातकों को उनके द्वारा किये गये निर्यात के अनुपात से आयात लाइसेन्स दिये गये।

10. निर्यात वस्तुओं का प्रचार-विदेशों में भारतीय वस्तुओं के प्रचार के लिए सरकार ने भारतीय व्यापार मेला अथॉरिटी (Trade Fair Authority of India) की स्थापना की है।

II. 1991 के बाद निर्यात प्रोत्साहन नीतियाँ

1991 से भारत की व्यापार नीति को उदार बनाया और निर्यात प्रोत्साहन हेतु (अर्थात् भुगतान सन्तुलन के समाधान हेतु) सरकार द्वारा निम्न उपाय किये गये हैं-

1. नियन्त्रणों में कमी (Relaxation in Control)—सरकार ने निर्यातों पर नियन्त्रण बहुत कम कर दिया है। निर्यात उद्योगों सम्बन्धी नीति को उदार बना दिया गया है। कई वस्तुओं के निर्यात पर से नियन्त्रण बिल्कुल हटा लिया गया है। निर्यात प्रक्रियाओं (Ex]Nort. Procedure) को सरल बना दिया गया है।

2. विनिमय दर परिवर्तनशील (Exchange Rate Convertibility)—वर्ष 1993-94 के प्रारम्भ में चालू खाते की परिवर्तनशीलता के उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु विनिमय दर एकरूप (Unification of Exchange Rate) बना दी गयी तथा व्यापार खाते पर लेन देन को मुद्रा नियन्त्रण से मुक्त कर दिया गया। चालू खाते की परिवर्तनशीलता से अभिप्राय है विदेशी मुद्रा खरीदने तथा बेचने की स्वतन्त्रता। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अगस्त, 1994 को निर्यातकों के विदेशी खातों से सम्बन्धित भुगतान पर एक सीमा तक छूट दी गयी है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्यातक एक सीमा तक निर्यातों से प्राप्त विदेशी मुद्रा को बाजार दर पर बेचने में स्वतन्त्र हैं।

3. निर्यात जोन की स्थापना (Setting up Export Zone) निर्यात प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने एक तो देश के कई स्थानों, जैसे-मुम्बई, नोएडा, फालटा, कोचीन आदि में निर्यात प्रोसेसिंग मण्डल (Export Processing Zone) स्थापित किये हैं। इन मण्डलों में स्थापित कारखाने संसार के किसी भी देश से विदेशी व्यापार कर सकते हैं।

4. केवल सरकारी एजेंसियों के माध्यम से व्यापार करने की शर्त को हटाया जाना (Decenalisation)-भारत में कई वस्तुओं का आयात व निर्यात केवल सरकारी एजेंसियों के माध्यम से किया जा सकता था। 13 अगस्त, 1991 को घोषित अनुपूरक व्यापार नीति में इस सूची का विवेचन किया गया था।

5. निर्यात गृहों व व्यापार गृहों को और सुविधाएँ (More Facilities to Export Houses and Trading House)-1991 की नीति में निर्यात गृहों, व्यापार गृहों तथा स्टॉक व्यापार गृहों को कई मदों में व्यापार करने की अनुमति दी गयी। सरकार के नियांतों को प्रोत्साहित करने के दृष्टिकोण से 51 प्रतिशत विदेशी इक्विटी के साथ व्यापार गृहों की स्थापना की अनुमति दी। इन व्यापार गृहों को घरेलू निर्यात गृहों को उपलब्ध सभी लाभों व रियायतों का आश्वासन दिया गया।

6. पूँजीगत वस्तु निर्यात प्रोत्साहन योजना (Export. Promotion Capital Goods Scheme)–1995-96 की नीति में सेवा क्षेत्र को पूँजीगत वस्तु निर्यात प्रोत्साहन (Export. Promotion Capital Scheme) योजना के अन्तर्गत वस्तुओं की आपूर्ति के समकश कर दिया गया। इससे वित्तीय सेवाओं में लगी कापनियों, बैंकों, होटल व हवाई योजनाओं विज्ञापन सेवाओं, कानूनी सेवाओं इत्यादि को बहुत लाभ होगा।

7. निर्यात सम्वर्द्धन औद्योगिक पार्क (EDIP) निर्यात प्रोत्साहन में राज्यों की बेहतर सहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने राज्यों में निर्यात सम्वर्द्धन औद्योगिक पार्क स्थापित करने की योजना बनाई।

8. निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र (Export Processing Zones)—भारत एशिया का पहला देश है जिसने निर्यात सम्बर्द्धन में निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र (EPZ) की महत्ता को स्वीकार किया और कांडला में एशिया का पहला नियांत संस्करण क्षेत्र स्थापित किया। इन क्षेत्रों की स्थापना का उद्देश्य देश से निर्यातित वस्तुओं के लिए उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करना है, ताकि वे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में अपना स्थान बना सकें।

9. विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zones) भारत में पहली बार विशेष आर्थिक क्षेत्र सन् (E.PZ) 1965 में स्थापित किया, तब से कुल ।। ऐसे क्षेत्र वजूद में आए हैं, लेकिन ये क्षेत्र नियन्त्रण और अनुमत्ति के बारे में बहुलता, विश्वस्तरीय ढाँचे की गैर मौजूदगी और अस्थायी वित्तीय व्यवस्था के कारण निर्यात सम्वर्द्धन के प्रभावी माध्यम नहीं बना।

10. निर्यातोन्मुख इकाइयाँ (Export Oriented Units) सरकार ने निर्यात प्रोसेसिंग क्षेत्रों (EPZs) के पूरक के रूप में 1981 से शत प्रतिशत निर्यात करने वाली इकाइयों की एक योजना प्रारम्भ की थी। इस योजना के अन्तर्गत आने वाली इकाइयों द्वारा निर्यातों के लिए उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के प्रोत्साहा दिए जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगी बनाने हेतु इन इकाइयों को मशीन, कच्चा माल, उपकरण तथा शुल्क मुक्त उपभोग वस्तुओं के आयात की भी स्वीकृति प्रदान की गई है।

आयात प्रतिस्थापन (IMPORT SUBSTITUTION)

अर्थ (Meaning)—जैसा कि हम अध्ययन कर चुके हैं कि आयात प्रतिस्थापन का अर्थ आयात की जाने वाली वस्तुओं का देशी उत्पादन द्वारा प्रतिस्थापन करना है अर्थात् जो वस्तुएँ हम विदेशों से मंगवाते हैं, उन्हें देश में ही उत्पादित करना है। आयात प्रतिस्थापन निर्यात प्रोत्साहन की भाँति भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मनिर्भर विकास के लिए बहुत आवश्यक है। निर्यात प्रोत्साहन द्वारा विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं, जबकि आयात प्रतिस्थापन द्वारा विदेशी मुद्रा की बचत करते हैं।

आयात प्रतिस्थापन के प्रकार (Kinds of Import Substitution)

1. साधारण प्रतिस्थापन (Simple Substitution)—इस प्रकार के प्रतिस्थापन में आयात को जाने वाली वस्तु की लगभग नकल देश में उत्पन्न की जाती है। आयात की जाने वाली वस्तु की संरचना तथा कार्य-विधि में बहुत कम परिवर्तन किया जाता है। सोडा, अनाज, साइकिलों, बिजलो की मोटर आदि का अपादन साधारण प्रतिस्थापन के उदाहरण हैं।

2.वैकल्पिक प्रतिस्थापन (Alternative Substitution)—इस प्रकार के प्रतिस्थापन में आयात को जाने वाली वस्तु से बनावट तथा कार्यविधि में भिन्न परन्तु उसकी तरह काम करने वाली वस्तु का देश में उत्पादन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतिस्थापन के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, जैसे-चीनी बनाने की मशीनों में ताँबे की ट्यूब का प्रयोग, कूलर उद्योग में इस्पात की शीट के स्थान पर प्लास्टिक की शीट का प्रयोग आदि। इस प्रकार के प्रतिस्थापन के लिए अनुसन्धान की आवश्यकता है।

आयात प्रतिस्थापन की आवश्यकता (Need of Import Substitution)

आयात प्रतिस्थापन को आवश्यकता देश में कई कारणों से है-

(i) विदेशी विनियम की कमी (Scarcity of Foreign Exchange) |

(ii) प्रतिकूल व्यापार शेष (Unfavourable Balance of Trade)।

(iii) रुपये का अवमूल्यन (Devaluation of Rupee) |

(iv) विदेशी सहायता में कमी (Scureity of Foreign Aid)|

(v) भारत अधिक अनाज, पेट्रोल, खाद आदि कई महत्वपूर्ण वस्तुओं की कमी महसूस कर रहा है तथा इनके लिए उसे विदेशों में बहुत अधिक कीमत देनी पड़ रही है। इन वस्तुओं का उत्पादन करना तथा प्रतिस्थापन करना बहुत आवश्यक है।

(vi) भारत अधिकतर अनाज, पेट्रोलियम, खाद, मशीनरी का आयात करता है। आयात कम करने के लिए इसका प्रतिस्थापन आवश्यक है।

(vii) औद्योगिक के विकास व रोजगार व सुजन।

(viii) आत्मनिर्भरता में वृद्धि।

आयात प्रतिस्थापन की प्रगति (Progress of Import Substitution)

भारत में आयात प्रतिस्थापन के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। पहले जो वस्तुएँ विदेशों से आयात की जाती थीं, उनका आयात नगण्य हो गया है, जैसा कि निान सारणी के अंकों से स्पष्ट है-

सारणी1-आयात प्रतिस्थापन की प्रगति

आयात प्रतिस्थापन की नीति का मूल्यांकन (Evaluation of Import Substitution Policy)

आयात प्रतिस्थापन नीति द्वारा आर्थिक विकास कहाँ तक सम्भव और उपयोगी है, इस सम्बन्ध में प्रायः अर्थशास्त्री पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हैं। चेनरी, शिशियी और घाटानखे ने 1914 से 1954 की अवधि में जापान में औद्योगिक प्रगति का अर्थमितीय परिमाणात्मक (Econometric) अध्ययन किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वहाँ चारों दशकों में समस्त औद्योगिक विकास का 40 प्रतिशत आयात प्रतिस्थापन की उपलब्धि है।

भारत में आयात प्रतिस्थापन के सम्बन्ध में प्रो. जलील अहमद ने भी अध्ययन किया। उनके अध्ययन के अनुसार, 1950-51 से 1965-66 के बीच भारत में समस्त औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की लगभग एक-चौथाई और पूँजीगत माल के उत्पादन में वृद्धि की लगभग आधी मात्रा आयात प्रतिस्थापन का परिणाम थी। निश्चय ही इन परिणामात्मक अध्ययनों से आर्थिक विकास में आयात प्रतिस्थापन का परिणाम थी। निश्चय ही इन परिणामात्मक अध्ययनों से आर्थिक विकास में आयात प्रतिस्थापन की लाभप्रदता की पुष्टि होती है परन्तु क्या इस आधार पर सरकार के लिए उत्पादन के सभी क्षेत्रों में अन्धाधुन्ध आयात प्रतिस्थापन को प्रोत्साहन देना ठीक होगा, यह नहीं कहा जा सकता।

सुझाव (Suggestions)—आयात प्रतिस्थापन की नीति को अधिक उपयोगी बनाने के लिए सुझाव देने के लिए सरकार ने जून 1979 को अग्रवाल समिति का गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट अक्टूबर, 1980 में प्रस्तुत की थी।

आयात प्रतिस्थापन हेतु निम्नलिखित कुछ सुझाव दिये जा सकते हैं-

(i) आयात प्रतिस्थापन उन वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित होना चाहिए जो औद्योगीकरण के लिए आवश्यक हैं, जैसे- मशीनी औजार, इस्पात, रासायनिक खाद, पेट्रोलियम, अखबारी कागज आदि।

(ii) आयात प्रतिस्थापन के उद्योग स्थापित करने के लिए विदेशी पूँजी सहायता लेनी चाहिए।

(iii) आयात प्रतिस्थापन की सफलता के लिए सार्वजनिक तथा क्षेत्र को परस्पर सहयोग से कार्य करना चाहिए।

(iv) आयात प्रतिस्थापन के लिए निवेश का बँटवारा प्राथमिक उद्योगों के लिए किया जाना चाहिए।

(v) स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की भावना को उसी प्रका गरूक किया जाना चाहिए जैसे 1930 में महात्मा गाँधी ने किया था

(vi) तकनीक आयात व अनुसन्धान को प्रोत्साहन

(vii) स्थायी सलाहकार समिति का गठन

(viii) टेलीफोन, सम्वादवाहन, इलेक्ट्रॉनिक, डेटा प्रोसेसिंग आदि क्षेत्रों में समयबद्ध कार्यक्रम करके आयात प्रतिस्थापन करना।

(ix) सलाहकारी व तकनीकी डिजायन संगठनों द्वारा देश में तकनीक का हस्तान्तरण करना।

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