कार्य बल संगठन
भारत
की कुल जनसंख्या में श्रम शक्ति का प्रतिशत 39.1 है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन
2004-05 में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार, देश में संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों
में श्रमिकों की कुल संख्या 45.9 करोड़ थी। इनमें से 2.6 करोड़ श्रमिक संगठित क्षेत्र
में थे और बाकी 43.3 करोड़, यानी कुल रोजगार का 94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में थे।
असंगठित क्षेत्र में 43.3 करोड़ मजदूरों में से 26.8 करोड़ कृषि क्षेत्र में थे जबकि
2.6 करोड़ मजदूर निर्माण क्षेत्र में तथा शेष विनिर्माण गतिविधियों तथा सेवा क्षेत्र
में संलग्न थे। 2011 की जनसंख्या के अनुसार भारत में कुल श्रमिकों की संख्या 48.17
करोड़ थी, जिसमें सीमान्त श्रमिक 11.92 करोड़, काश्तकार 11.86 करोड़, खेतिहर मजदूर,
14.43 करोड़, घरेलू उद्योग के श्रमिक 1.83 करोड़ इसके अलावा अन्य श्रमिक 20.03 करोड़
है।
भारत में जनसंख्या का आकार
किसी भी देश में जन्म एवं मृत्य पंजीकरण, सामाजिक आर्थिक विकास और जनसंख्या नियंत्रण हेतु एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय स्रोत हैं। जनसंख्या वृद्धि दर, जन्म दर, मृत्यु दर के आधार पर भविष्य में जनसंख्या का अनुमान लगाया जाता है। परिवार नियोजन, मातृत्व एवं प्रजननता स्वास्थ्य, आदि से संबंधित कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु इन जनसांख्यिकीय आंकड़ों का स्वास्थ्य क्षेत्रों द्वारा उपयोग किया जाता है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पंचवर्षीय योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिये जनसंख्या संबंधी आंकड़ों की आवश्यकता महसूस की गई, चूंकि जनसंख्या संबंधी आंकड़ों को प्रति दस वर्ष के अन्तराल से एकत्रित किया जाता है। आज भारत के पास विश्व के कुल भू-क्षेत्र का 2.42 प्रतिशत भाग है किन्तु उसे विश्व की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत का पालन पोषण करना पड़ता है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ पर भारत की जनसंख्या 1901 में 23.6 करोड़ अनुमानित की गई और 1981 की जनगणना के अनुसार यह 68 करोड़ आंकी गई। 1991 तक भारत की जनसंख्या 84.4 करोड़, 2001 में 102.87 करोड़ और 2011 में 121.01 करोड़ हो गयी। भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। विश्व का हर छठा व्यक्ति भारतीय है।
भारत की जनसंख्या की गणना 1901 के पश्चात हर दस साल बाद होती है। इसमें 1911-21 की अवधि को छोड़कर प्रत्येक दशक में आबादी में वृद्धि दर्ज की गई। 1971 के दशक में सर्वाधिक दशकीय वृद्धि 24.80 रही। जबकि 1981 में सर्वाधिक औसत वार्षिक घातांक वृद्धिदर 2.22 रहीं।
जनसंख्या
(जनगणना 2011 के अनुसार) की प्रमुख विशेषताएं
देश
की 15वीं जनगणना के प्रारंभिक आँकड़े सामने आ गए। इसके मुताबिक देश की कुल आबादी
बढ़कर 121.01 करोड़ हो गई है। पिछले 10 सालों में भारत की आबादी
18 करोड़ बढ़ी! यानी दस साल में देश की आबादी में उतनी वृद्धि
हुई, जितनी ब्राजील की कुल आबादी है। आशय यह कि हम हर 10 साल में एक ब्राजील को
जन्म दे रहे हैं।
इस
बार के प्रारंभिक आँकड़े उम्मीद की हल्की सी किरण जगाते हैं। महिला शिक्षा दर
बढ़ती नजर आ रही है और महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर पिछली जनसंख्या के
मुकाबले थोड़ा सा बेहतर हुआ है। लेकिन, बच्चों के मामले में लिंगानुपात की दर 3
फीसदी घटना एक खतरनाक संकेत है, जो बालिका भ्रूण हत्या बढ़ने की तरफ इशारा करता
है।
•
भारत की आबादी अब अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राजील, पाकिस्तान,
बांग्लादेश और जापान की कुल आबादी के बराबर है।
•
दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन और भारत के बीच का
फासला भी घटा है। 2001 में यह 23.8 करोड़ था, जो 2011 में 13 करोड़ हो गया।
•
देश में महिलाओं की कुल आबादी 58 करोड़ 64 लाख है।
•
पुरुषों की कुल आबादी 62 करोड़ 37 लाख है।
•
बीते दस वर्षों में भारत की जनसंख्या में 17.6 प्रतिशत बढ़ोतरी
हुई।
•
इस दौरान कुल जनसंख्या में 18 करोड़ का इजाफा हुआ है।
•
पुरुषों की आबादी में 17 फीसदी और महिलाओं की आबादी में
18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
•
6 साल तक के बच्चों की संख्या घटी है।
•
पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ने का भी संकेत
है।
•
14वीं जनगणना के प्रारंभिक आँकड़ों के मुताबिक पिछले दस वर्षों में
भारत का कुल लिंगानुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया, जो वर्ष 1961 के बाद सर्वाधिक
है। लेकिन, बच्चों का लिंगानुपात 927 से घटकर 914 हो गया। ये अनुपात आजाद भारत
का सबसे निचला स्तर है।
•
आँकड़ों के मुताबिक साल 2001 में कुल जनसंख्या का करीब 16
फीसदी बच्चे थे, लेकिन साल 2011 में ये कम होकर करीब 13 फीसदी हैं। जनगणना आयुक्त सी.
चंद्रमौली के मुताबिक यह भारत में घटती उर्वरता का सूचक है।
•
जनसंख्या के आधार पर देश की राजधानी दिल्ली में प्रति वर्ग किलोमीटर
सबसे ज्यादा आबादी, 11,320 लोग रहते हैं।
•
इसमें भी राजधानी के उत्तर-पूर्व जिले में सबसे ज्यादा 37346 लोग
प्रति वर्ग किलोमीटर में रहते हैं।
•
दूसरी ओर सबसे कम घनत्व वाला जिला अरुणाचल प्रदेश का दिबांग है।
यहाँ प्रति वर्ग किलोमीटर के हिसाब से सिर्फ 1 व्यक्ति रहता है।
•
देश में अब 82.1 फीसदी पुरुष और 65.4 फीसदी महिलाएँ साक्षर हैं।
पिछले दस वर्षों में ज्यादा महिलाएँ (4 फीसदी) साक्षर हुई हैं।
•
अरुणाचल प्रदेश और बिहार में सबसे कम साक्षरता है। हालांकि, मध्य
प्रदेश का अलीराजपुर और छत्तीसगढ़ का बीजापुर, देश के सबसे कम साक्षर जिले हैं।
•
केरल और लक्षद्वीप में सबसे ज्यादा 93 और 92 प्रतिशत साक्षरता है।
•
जनसंख्या के हिसाब से महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है। प्रथम स्थान पर
उत्तर प्रदेश है।
•
नागालैंड देश का एकमात्र राज्य है, जिसकी जनसंख्या में कमी आई
है।
•
मुंबई के नजदीक का ठाणे सबसे अधिक आबादी वाला जिला उभरकर सामने
आया है।
उत्तर
प्रदेश देश का सर्वाधिक आबादी वाला राज्य है। अगर उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के
आँकड़ों को मिला दिया जाए तो दोनों राज्यों की कुल आबादी अमेरिका की जनसंख्या से
अधिक होगी।
अंतिम
आँकड़ों के अनुसार, लिंगानुपात में सुधार हुआ है। पिछली जनगणना के मुताबिक देश में
प्रति एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 933 थी, जो एक दशक में बढ़कर अब 940
हो गई है।
आँकड़ों
के अनुसार, लिंगानुपात में सबसे अधिक फर्क संघ शासित प्रदेश दमन और दीव में है
जहाँ प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 615 है। दादरा और नगर हवेली
में लिंगानुपात 774 है। वहीं, केरल में प्रति एक हजार पुरुषों पर
महिलाओं की संख्या 1084 दर्ज की गई है। पुडुचेरी में लिंगानुपात 1,037 है।
चिंताजनक
तथ्य यह है कि छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में लिंगानुपात में आजादी के बाद से
सर्वाधिक गिरावट देखी गई है। पिछली जनगणना में यह लिंगानुपात 927 था जो अब घटकर
914 हो गया है।
साक्षरता
की बात करें तो अब देश में 74 फीसदी आबादी पढ़ना-लिखना जानती है। साक्षर लोगों की
संख्या में बीते एक दशक में 38.8 फीसदी और साक्षरता की दर में 9.2 फीसदी का इजाफा
हुआ है। साक्षर पुरुषों की संख्या 44.42
करोड़ और साक्षर महिलाओं की संख्या 33.42 करोड़ है।
दिलचस्प
रूप से, बीते एक दशक में साक्षर पुरुषों की संख्या में 31 फीसदी, जबकि साक्षर
महिलाओं की संख्या में 49 फीसदी का इजाफा हुआ है।
उत्तर
प्रदेश की आबादी सबसे ज्यादा 19.95 करोड़ है, जबकि लक्षद्वीप में आबादी सबसे कम
यानी 64,429 है। सर्वाधिक आबादी वाले पाँच राज्यों में उत्तर प्रदेश के साथ ही
महाराष्ट्र (11.23 करोड़), बिहार (10.38 करोड़), पश्चिम बंगाल (9.13 करोड़)
और आंध्र प्रदेश (8.46 करोड़) शामिल हैं।
सबसे
कम आबादी वाले पांच राज्यों में संघ शासित लक्षद्वीप के साथ ही दमन और दीव (2.42
लाख), दादरा और नगर हवेली (3.42 लाख), अंडमान और निकोबार द्वीप (3.79 लाख) और
सिक्किम (6.97 लाख) शामिल है।
बीते
एक दशक में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर 25.85 फीसदी से कम होकर 20 फीसदी,
महाराष्ट्र की 22.73 फीसदी से कम होकर 16 फीसदी, बिहार की 28.62 फीसदी से कम होकर
25.07 फीसदी, पश्चिम बंगाल की 18 फीसदी से 14 फीसदी, आंध्र प्रदेश की 14.5 फीसदी
से
11 फीसदी और मध्य प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर 24 फीसदी से कम होकर
20.30 फीसदी हो गई है।
पहली
बार ऐसा हुआ है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में आबादी वृद्धि दर में गिरावट आई है। विश्व आबादी
में भारत की हिस्सेदारी अब 17.5 फीसदी है। भारत से आगे चीन है, जिसकी जनसंख्या
विश्व आबादी की 19.4 फीसदी है।
दिलचस्प
पहलू यह है कि बीते एक दशक में भारत की आबादी 18.1 करोड़ बढ़ी है जो ब्राजील
की कुल आबादी से थोड़ी ही कम है। ब्राजील विश्व का पांचवां
सर्वाधिक आबादी वाला देश है। अब भारत की जनसंख्या बढ़कर 1 अरब 21 करोड़ तक पहुंच
चुकी है। 2001 में जहां भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 21.5 प्रतिशत थी, वहीं
2011 में यह 17.7 फीसदी तक ही सीमित रहीं। साथ ही अच्छी बात यह
भी है कि इन दस वर्षों में पुरुषों (17.1 फीसदी) की तुलना में महिलाओं (18.3
फीसदी) की संख्या में ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। 1 मार्च, 2011 तक की जनगणना के
अंतिम आंकड़ों के मुताबिक भारत की कुल जनसंख्या 1 2107,26,932
है। 2001 से 2011 तक भारत की जनसंख्या में करीब 18 करोड़ लोगों की बढ़ोत्तरी हुई,
जिसमें 9.09 करोड़ पुरुष और 9.10 करोड़ महिलाएं हैं। राज्यों की बात करें तो
जनंसख्या के मामले में बिहार (25.4 प्रतिशत) सबसे आगे है जबकि
अन्य 14 राज्यों में तथा
केंद्र
शासित प्रदेशों में 20 फीसदी से ज्यादा जनसंख्या वृद्धि दर रिकॉर्ड की गई। कहते
हैं असली भारत तो गांव में ही बसता है। सरकारी आंकड़े भी इस बात के सुबूत हैं।
2011 जनगणना के मुताबिक भारत के 83.35 करोड़ लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं, जो
कि देश की दो-तिहाई आबादी है। जबकि 37.71 करोड़ लोग शहरी क्षेत्र के अंतर्गत आते
हैं। 1951 में शहरी अनुपात जहां 17.3 फीसदी था, वही अब बढ़कर 31.2 प्रतिशत हो चुका
है। साक्षरता दर में हुई बढ़ोतरी पिछले दस साल में भारत में साक्षरता दर में भी
काफी सुधार आया है। 2001 में जहां देश की साक्षरता पर 64.8 फीसदी थी, वहीं अब वह
बढ़कर 73 प्रतिशत हो गई है। पुरुष साक्षरता दर 5.6 प्रतिशत बढ़कर 80.9 फीसदी जबकि
महिलाओं की साक्षरता दर 10.9 फीसदी की वृद्धि के साथ 64.6 हो गई है।
मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में
महिलाओं की साक्षरता दर में सुधार हुआ है। 2001-11 के बीच दादरा व नगर हवेली
(18.6), बिहार (14.8) और त्रिपुरा (14.0) ने बेहतर साक्षरता दर हासिल की। लगभग
हर राज्य में साक्षरता दर में लिंग अनुपात में भी गिरावट हुई है।
सबसे ज्यादा घनी आबादी वाला शहर दिल्ली (11,320) अभी भी सबसे ज्यादा घनी आबादी
वाला शहर है। जबकि अरुणाचल प्रदेश (17) एक बार फिर से सबसे कम आबादी वाला क्षेत्र
साबित हुआ है। देश का प्रति वर्ग किमी जनसंख्या घनत्व भी 2001 (325) की तुलना में
बढ़कर 382 पहुंच गया है। इस क्षेत्र में बिहार (1106) ने पश्चिम बंगाल को पछाड़ते
हुए पहला स्थान हासिल कर लिया है। सबसे खराब लिंग अनुपात हरियाणा में है। हरियाणा
लिंग अनुपात के मामले में देश के सबसे खराब राज्यों में सबसे ऊपर है। 2011 की
जनगणना के अनुसार हरियाणा में 1000 लड़कों पर महज 879 लड़कियां ही हैं। इसके बाद
जम्मू व कश्मीर (889) और पंजाब (895) का नंबर आता है। उत्तर प्रदेश (912) और बिहार
(918) में भी स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है। साक्षरता दर की तरह केरल (1084 लड़कियां)
लिंग अनुपात के मामले में भी सबसे बेहतर साबित हुआ है। इसके बाद
तमिलनाडु (996), आंध्र प्रदेश (993), छत्तीसगढ़ (991) और ओडिशा (979) है। देश
में लिंग अनुपात की बात करें, तो प्रति एक हजार लड़कों पर 943
लड़कियां हैं। 94 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ केरल पहले नंबर पर बरकरार है, जबकि
61.8 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ बिहार सबसे निचले पायदान पर है।
भारत में विभिन्न वर्षों में जनसंख्या की वृद्धि दर
भारत
की जनसंख्या की वृद्धि दर को चार अवधियों में विभक्त किया जाता है-
1891-1921:
अवरुद्ध जनसंख्या
1921-1951:
मर्यादिक वृद्धि
1951-1981:
तीव्र ऊँची वृद्धि दर
1981-2011: उच्च वृद्धि परन्तु मन्द होने के स्पष्ट चिन्ह
1891-1921 : अवरुद्ध जनसंख्या
30
वर्षों की पहली अवधि के दौरान भारत की जनसंख्या जो 1891 में 23.6 करोड़ थी बढ़कर
1921 में 25.1 करोड़ हो गई अर्थात् इसमें केवल 1.5 करोड़ की वृद्धि हुई। इस अवधि के
दौरान जनसंख्या की वार्षिक चक्रवृद्धि दर नाममात्र थी अर्थात्
(0.019 प्रतिशत। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए अधिक जन्मदर के विरुद्ध अधिक
मृत्यु दर विद्यमान थी। इस काल के दौरान जन्म दर एवं मृत्यु दर लगभग बराबर थी। इस
काल में भारत जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था में था।
1921-1951 : मर्यादिक वृद्धि
30
वर्षों की दूसरी अवधि (1921-1951) के दौरान, भारत की जनसंख्या जो
1921 में 25.1 करोड़ थी बढ़कर 1951 में 36.1 करोड़ हो गई। दूसरे शब्दों में इन 30
वर्षों में जनसंख्या में मात्र 11 करोड़ की वृद्धि हुई। इस अवधि में जनसंख्या
चक्रवृद्धि दर 1.09 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो पिछली अवस्था से कई गुनी अधिक थी।
परिणामतः इस अवधि में जनसंख्या में मर्यादित वृद्धि प्रारम्भ हुई।
1951-1981 : तीव्र ऊँची वृद्धि दर
30
वर्षों की तीसरी अवधि (1951 से 1981) के दौरान, भारत की जनसंख्या
जो 1951 में 36.1 करोड़ थी बढ़कर 1981 में 68.3 करोड़ हो गई। दूसरे शब्दों में इन
30 वर्षों में जनसंख्या 32.2 करोड़ की वृद्धि का रिकार्ड कायम हो गया। इस अवधि में
जनसंख्या चक्रवृद्धि दर 2.14 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो पिछली अवस्था से लगभग दुगुनी
थी। आयोजन के प्रारंभ के साथ अस्पतालों और चिकित्सा सुविधाओं का बड़े पैमाने पर
विस्तार किया और मृत्यु दर नियंत्रण के उपायों ने मृत्यु दर को और तेजी से कम किया
और यह 15 हजार हो गई, परन्तु जन्मदर बड़ी सुस्ती से 40 से 36 प्रतिशत हजार ही कम
हुई। परिणामतः इस अवधि में जनसंख्या विस्फोट हुआ।
1981-2011 : उच्च वृद्धि परन्तु मन्द होने के स्पष्ट चिन्ह
1981
से 2011 के दौरान भारत जनसंख्या वृद्धि के चौथे चरण में प्रवेश कर
गया। भारत की कुल जनसंख्या जो 1981 में 68.3 करोड़ थी बढ़कर 2011 में
121.01 करोड़ हो गई जो 30 वर्षों की अवधि में लगभग 50 प्रतिशत की
वृद्धि दर्शाती है। 1981 से 2011 के दौरान जनसंख्या की औसत वार्षिक वृद्धि दर 2.05
प्रतिशत थी। 1991 से 2001 के दौरान जनसंख्या की वृद्धि दर कम होकर 1.93 प्रतिशत हो
गई। 2001 से 2011 के बीच यह दर घटकर 1.64 प्रतिशत प्रतिवर्ष ही रह गई।
भारत में विभिन्न वर्षों में औसत जन्म व मृत्यु दर
भारत
में जनसंख्या वृद्धि की तीव्र गति की व्याख्या जन्म और मृत्यु दर के परिवर्तन के
आधार पर की जा सकती है।
1921
से पूर्व भारत में विद्यमान जन्म और मृत्यु की ऊँची दर के कारण जनसंख्या
वृद्धि नियंत्रित थी। 1901-1921 के बीच जन्म दर 46 और 49 के बीच तथा मृत्यु
दर 42 से 49 के बीच घटती बढ़ती थी। तदनुरूप जनसंख्या वृद्धि बहुत
कम या नगण्य रही। किन्तु 1921 के पश्चात् मृत्यु दर में स्पष्ट गिरावट आई।
1911-1921 में मृत्यु दर के विपरीत जन्म दर में बहुत थोड़ी कमी हुई है। परिणामतः
समय के साथ-साथ उच्च जन्म दर और गिरती हुई मृत्यु दर के बीच अन्तर बढ़ गया। तो
उच्च जीवित शेष दर के रूप में प्रकट हुआ। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर की
व्याख्या जन्म की निरन्तर उच्च दर किन्तु मृत्यु की अपेक्षाकृत तेजी से गिरती हुई
दर के आधार पर की जा सकती है। परि नियोजन अभियोजन के फलस्वरूप जन्म दर सन्
2008-2009 तक गिर कर 22.8 प्रति हजार हो गई। इस काल के दौरान मृत्यु दर गिरकर 22.8
प्रति हजार के स्तर पर पहुंच गई। परिणामतः समय के साथ-साथ उच्च जन्म दर और गिरती हुई
मृत्यु दर के बीच अन्तर बढ़ गया और इसके फलस्वरूप जीवित शेष दर में उच्च वृद्धि
हुई। अतः जनसंख्या की तीव्र वृद्धि दर की व्याख्या उच्च जन्म दर एवं गिरती हुई
मृत्यु दर के रूप में की जा सकती है।
1921
से पूर्व भारत जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था में था किन्तु
1921 के पश्चात भारत की जनांकिकीय संक्रमण की दूसरी अवस्था में प्रवेश कर चुका है।
इस अवस्था में जनसंख्या की उच्च वृद्धि की संभावना वास्तविक वृद्धि के रूप में
प्रकट हो रही है। यह आशा की जा रही है कि थोड़े समय के पश्चात भारत जनांकिकीय
संक्रमण की तीसरी अवस्था में प्रवेश कर जाएगा।
राज्यों
से सम्बन्धित जन्म दर तथा मृत्यु दर सम्बन्धी आंकड़ों से पता चलता है कि केरल
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में जन्म दर
25 प्रति हजार से कम हो चुकी है। इस प्रकार से ये राज्य जनांकिकीय संक्रमण की
तृतीय अवस्था में प्रवेश कर गए हैं। इसके विरुद्ध उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य
प्रदेश और बिहार में जन्म दर 31-34 प्रति हजार के उच्च स्तर पर कायम है। ये राज्य
जनांकिकीय संक्रमण की द्वितीय अवस्था में है। परन्तु इसमें भारत की कुल जनसंख्या का
44 प्रतिशत निवास करता है। जब तक इन राज्यों में परिवार नियोजन कार्यक्रमों का
प्रभाव व्यक्त नहीं होता तब तक समग्र भारत जनांकिकीय संक्रमण की तृतीय अवस्था में
प्रवेश नहीं कर सकता। यह बड़ी अजीब बात है कि हरियाणा जो प्रति व्यक्ति आय की
दृष्टि से दो नम्बर पर है वह भी जन्म दर को कम करने में काफी पीछे है।
जन्म-दर
जनन
क्षमता तीन कारणों पर निर्भर करती है। स्त्रियों की विवाह की आयु
2 जनन क्षमता की अवधि और परिवार में वृद्धि की गति।
भारत
में पुरुषों और स्त्रियों दोनों की विवाह आयु कम है चाहे यह कहा जा सकता है कि
1971 और 1991 की बीच इसमें धीरे-धीरे वृद्धि हो रही है। 1921 में बाल विवाह
प्रतिबन्ध अधिनियम जो साधारणतः शारदा कानून के नाम से प्रसिद्ध है के पास हो जाने
के कारण बाल विवाह की संख्या में कमी हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि जहां 1891-1901
के दौरान 14 वर्ष से कम आयु वाली 27 प्रतिशत लड़कियों का विवाह हो चुका था वहां
1951-61 के दशक में यह अनुपात 20 प्रतिशत रह गया। भारत में स्त्रियों की विवाह की
औसत आयु 1921 में 13.7 वर्ष थी जो 2001 में बढ़कर 18.3 वर्ष
हो गई। पुरुषों के सम्बन्ध में यह 1921 में 20.7 वर्ष थी जो 2001 में बढ़कर 22.6 वर्ष
हो गई। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि विवाह आयु में वृद्धि
जनसंख्या को कम करती है। जिसके परिणामस्वरूप जन्म दर में कमी होती है। ईसाईयों में
विवाह की औसत आयु सबसे अधिक है और उसके क्रमशः बाद हैं सिक्ख, मुसलमान और हिन्दू।
हिन्दुओं में अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों की स्त्रियों में औसत विवाह आयु
सबसे कम है। इसके बाद क्रमशः ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य आते हैं। जनगणना विश्लेषण
से पता चला है कि शहरी क्षेत्रों में ग्राम क्षेत्रों की तुलना औसत विवाह आयु 2 से
3 वर्ष अधिक है। औसत विवाह आयु में वृद्धि के परिणामस्वरूप 1988 और 1993 के दौरान
सामान्य जननदर 171 प्रति हजार से कम होकर 154 हो गई है। परन्तु अभी भी 15-19 20-24
और 25-29 के आयु वर्ग में भी जनन दर घटी। आंकड़ों से पता चलता है कि जनन दर में
कमी अधिकतर शिक्षित महिलाओं में अधिक तेजी से हुई है। इस तथ्य में हम यह निष्कर्ष निकाल
सकते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए महिलाओं को शिक्षित करना नितान्त आवश्यक है।
जनन
क्षमता का माता के शिक्षा स्तर के साथ गहरा सम्बन्ध है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण
से पता चलता है कि अशिक्षित या प्राथमिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं के औसत 4.4 जीवित
बच्चे होते हैं जबकि मिडिल मैट्रिक और विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्राप्त
स्त्रियां क्रमशः औसत रूप से 3.8, 3.0 और 2.3 बच्चों को जन्म देती हैं।
केरल
राज्य जनांकिकीय संक्रमण की तृतीय अवस्था में प्रवेश कर गया है। 1993 में केरल में
जन्म दर के 17.3 प्रति हजार के निम्न स्तर पर पहुंच गयी है। इस सम्बन्ध में टी.एन.
कृष्णन लिखते हैं केरल में जन्मदर में गिरावट की व्याख्या विवाह दरों में परिवर्तन
लगातार और तेजी से बढ़ती हुई स्त्री शिक्षा की ऊँची दरों के परिणामस्वरूप विवाह की
प्रभावी दरों में वृद्धि के रूप में की जाती है।
मृत्यु दर
19वीं
शताब्दी के प्रारम्भ में विश्व के उन्नत देशों में मृत्यु दर 35-40 प्रति हजार के बीच थी। यह अब कम होकर वर्ष 2005 में 7.6 प्रति हजार हो
गई है। मृत्यु दर में तीव्र कमी अच्छे भोजन पीने के स्वच्छ पानी उन्नत चिकित्सा
सुविधाओं अच्छी सफाई और भयानक महामारियों और अन्य बीमारियों के नियंत्रण का परिणाम
है।
1891-1901
और 1911-1921 के दशकों के दौरान जनसंख्या की वृद्धि बहुत ही कम
रही। इसके मुख्य कारण व्यापक अकाल एवं 1985 के इनफ्लुएंजा के प्रभावाधीन 10 लाख
व्यक्तियों की मृत्यु थी। इस वर्ष के दौरान मृत्यु दर 63 प्रति हजार के आश्चर्यजनक
स्तर तक पहुंच गई
जबकि
यह इससे पहले और बाद के वर्ष में 33 और 36 प्रति हजार थी। मृत्यु दर को कम करने
वाला एक और महत्वपूर्ण कारण शिशु मृत्यु दर में कमी है। जबकि 1916-18 में शिशु
मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी, यह 1970 में शहरी क्षेत्रों के लिए 90 प्रति
हजार और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 130 प्रति हजार हो गयी। समग्र देश के लिए यह
1978 तक कम होकर 125 और फिर 2003 में पुरुषों के लिए 57 प्रति हजार और स्त्रियों के
लिए 64 प्रति हजार हो गयी तथा समग्न देश के लिए 60 प्रति हजार हो
गयी। शिशु मृत्यु दर के मुख्य कारण है अपर्याप्त भोजन निमोनिया दस्त संक्रामक और
परजीवी रोग। बार-बार और शीघ्रताशीघ्र गर्भ ठहरने के फलस्वरूप शिशु मृत्यु दर में
वृद्धि हो जाती है। इन सभी कारणों को दूर करने के उपाय किए जा रहे हैं।
इसके
अतिरिक्त प्रजनन काल के दौरान स्त्रियों में अधिक मृत्यु दर पाई जाती है। 15-45
वर्ष की स्त्रियों के लिए यह 300-400 प्रति हजार है। निर्धनता के कारण जन्म पूर्व
और जन्मोपरान्त काल में अपर्याप्त सावधानी और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव इसके लिए
उत्तरदायी है। भोजन चिकित्सालय और प्रसूति सुविधाओं में उन्नति के साथ यह आशा की
जा सकती है कि शिशु मृत्यु दर सामान्य मृत्यु दर में और भी कमी व्यक्त होगी। इसके
अतिरिक्त मलेरिया अन्य कई प्रकार के ज्वर है चेचक प्लेग दस्त पेचिश और श्वास
सम्बन्धी बीमारियां भी मृत्यु दर को बढ़ाती हैं। इनमें से मलेरिया चेचक, प्लेग और
हैजा को लगभग समाप्त ही कर दिया गया है। आशा की जाती है कि मृत्यु दर जीवन स्तर
में उन्नति और चिकित्सा सुविधाओं के विकास के कारण और भी कम हो जाएगी।
अत:
पिछले 50 वर्षों में जन्म दर और मृत्यु दर दोनों की कम हुई हैं परन्तु मृत्यु दर
अधिक तेजी से गिरी है। मृत्यु दर अब बहुत ही नीचे स्तर पर पहुंच गई है और चाहे
स्वास्थ्य सुविधाएं कितनी भी उन्नत क्यों न कर ली जाएं यह 7-8 प्रति हजार के नीचे
नहीं गिर सकती। अतः भारत की जनसंख्या की भारी वृद्धि जन्म दर के भावी स्तर पर
निर्भर करेगा।
भारत में विभिन्न वर्षों में जनसंख्या घनत्व
जनसंख्या
के घनत्व का अर्थ किसी देश में रहने वाले व्यक्तियों की प्रति वर्ग किलोमीटर औसत
संख्या से है। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत का औसत जनघनत्व 142 व्यक्ति प्रति
वर्ग किलोमीटर था किन्तु 1971 में यह बढ़कर 177 और 1981 में यह 216 हो
गया। 1991 में भारत में जनघनत्व और बढ़कर 267, 2001 में और बढ़कर
325 तथा 2011 में 382 हो गया है।
निम्नांकित
तालिका में भारत के विभिन्न राज्यों में जनघनत्व में पाए जाने वाले अन्तर दिए गए
हैं। केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश अधिक जनघनत्व वाले
राज्य हैं परन्तु मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और नागालैण्ड
ऐसे राज्य हैं जिनमें घनत्व कम है।
भारत की जनसंख्या के घनत्व की तुलना कुछ अन्य देशों से करने से पता चलता है कि न तो भारत उन देशों में से है जिनमें मनुष्य भूमि अनुपात अधिक है और नहीं भारत उन देशों की श्रेणी में है जिसमें मनुष्य भूमि अनुपात कम है। भारत की स्थिति न तो जापान, इंग्लैण्ड और इटली जितनी बुरी है और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस जितनी अच्छी। जनघनत्व के आधार पर भारत का स्थान मध्यम जनघनत्व वाले देशों में है।
जनघनत्व
किसी देश की अपने आश्रित व्यक्तियों का पालन पोषण करने के लिए क्षमता का उचित सूचक
नहीं है। कोई देश कितने लोगों का पालन पोषण कर सकता है यह इस बात पर निर्भर करता
है कि उसके पास प्राकृतिक संसाधन कितने हैं और उसका उपयोग करने के लिए किस सीमा तक
उन्नत तकनीक का प्रयोग होता है। दूसरे शब्दों में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि
और औद्योगीकरण की मात्रा के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है कि किस सीमा तक
जनसंख्या के उच्च घनत्व का निर्वाह संभव है। उदाहरणतया जापान में जनसंख्या का घनत्व
भारत की तुलना में लगभग दुगुना है, किन्तु जापान अपेक्षाकृत अधिक जनसंख्या का
उच्चतर जीवन स्तर पर पालन पोषण करता है। इसका प्रधान कारण है कि जापान का
औद्योगीकरण हो चुका है जबकि भारत की 68 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में जीवन स्तर का बहुत ऊंचा होना आशिक रूप में अत्यन्त
अनुकूल मनुष्य भूमि अनुपात और प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त
आर्थिक विकास की उच्च अवस्था प्राप्त करने के कारण भी अमेरिका में उच्च जीवन स्तर
संभव हुआ है। संक्षेप में, जनसंख्या का घनत्व न तो किसी देश की निर्धनता का सूचक
है और न ही सम्पन्नता का।
भारत में विभिन्न वर्षों में लिंगानुपात
प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या लिंगानुपात को बताता है। वर्ष 1901 के दशक में लिंगानुपात 972 था वह इसके बाद वर्ष 1941 के दशक तक लगातार घटाता रहा, जो वर्ष 1941 के दशक में 945 से बढ़कर वर्ष 1951 के दशक में 946 हो गया। इसके बाद भी इसमें 1971 तक लगातार गिरावट रही। वर्ष 1971 के दशक में 930, वर्ष 1981 के दशक में बढ़कर 934, वर्ष 1991 के दशक में पुनः घटकर 927, वर्ष 2001 के दशक में बढ़कर 933 और 2011 के दशक में 940 हो गया है। वर्ष 1901 से लेकर 2011 के बीच सबसे कम लिंगानुपात 1971 के में 930 रहा। वर्ष 1971 के दशक में ही सबसे अधिक कमी 11 संख्या की हुई थी। वर्ष 1901 से लेकर 2011 के बीच संख्या के रूप में सबसे अधिक वृद्धि सात वर्ष 2011 के दशक में रही। संख्या के रूप में कमी 11 की वर्ष 1971 के दशक में हुई।
जनसंख्या नीति : एक परिचय
विश्व
का प्रत्येक देश आर्थिक दृष्टि से उन्नति का आकांक्षी है। एक देश का आर्थिक विकास
मुख्य रूप से दो बातों पर निर्भर करता है : प्रथम, प्राकृतिक संसाधन एवं द्वितीय,
मानवीय संसाधन। वास्तविक रूप में, आर्थिक विकास में सबसे अधिक योगदान मानवीय
संसाधन अर्थात् उस देश में उपलब्ध जनसंख्या का ही होता है। जनसंख्या के सक्रिय
सहयोग के बिना आर्थिक उन्नति और विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
प्राकृतिक साधन एवं पूंजी आदि को उत्पादन कार्य में लगाने के लिए मानवीय प्रयत्नों
की ही आवश्यकता होती है। मनुष्य अपनी बौद्धिक एवं शारीरिक शक्ति से भौतिक साधनों
का शोषण करता है, नवप्रवर्तनों द्वारा उत्पादन प्रक्रिया को विकसित करता है और इस
प्रकार आर्थिक विकास के मार्ग को प्रशस्त करता है। स्पष्टतः जनसंख्या आर्थिक विकास
का साधन ही नहीं वरन् साध्य भी है और यह विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्राचीन समय में विभिन्न विचारक अधिक जनसंख्या को 'प्रगति एवं सम्पन्नता का सूचक'
मानते थे, परन्तु वर्तमान में जनसंख्या की समस्या मानव की सबसे जटिल समस्या बन गई
है। मानव की अपनी संख्या ने उसके समक्ष अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं। विशेषकर,
अल्पविकसित एवं विकासशील देशों के लिए जनसंख्या एक गम्भीर समस्या का रूप लेती जा
रही है जो इन देशों के समान विकास में बाधा उत्पन्न कर रही है।
जनसंख्या नीति से आशय
जनसंख्या
नीति से आशय उन समस्त गतिविधियों से है जो देश की आवश्यकता के अनुरूप जनसंख्या में
वृद्धि अथवा कमी करने एवं विद्यमान जनसंख्या के उत्पादक गुणों में वृद्धि करने के
लिए की जाती हैं। इस नीति के माध्यम से किसी देश में जनसंख्या का नियोजन किया जाता
है। इसमें जनसंख्या के परिमाणात्मक एवं गुणात्मक दोनों पहलुओं का अध्ययन किया जाता
है। जनसंख्या नीति के परिमाणात्मक पहलू के अन्तर्गत जनसंख्या के आकार एवं संरचना
को देश के राष्ट्रीय साधनों के अनुपात में नियन्त्रित किया जाता है, जबकि गुणात्मक
पहलू के अन्तर्गत जनसंख्या के गुणों (जैसे- स्वास्थ्य स्तर, जीवन प्रत्याशा,
शिक्षा आदि) में वृद्धि करने का प्रयास किया जाता है। वास्तव में, जनसंख्या नीति
वह नीति जिसके माध्यम से जनसंख्या को आर्थिक विकास के अनुरूप लाने का प्रयत्न किया
जाता है।
जनसंख्या नीति के सम्बन्ध में विभिन्न विचार निम्न प्रकार हैं
संयुक्त
राष्ट्र संघ के जनसंख्या आयोग के अनुसार, "जनसंख्या नीति के अन्तर्गत वे
समस्त कार्यक्रम एवं कार्यवाहियां शामिल की जाती हैं जो जनसंख्या के आकार, उसके
वितरण एवं विशेषताओं में परिवर्तन लाकर आर्थिक, सामाजिक जनांकिकी, राजनीति अथवा
अन्य किसी सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त की जाती है।"
जनसंख्या नीति के उद्देश्य
•
देश की आवश्यकता के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि अथवा कमी कर इसे
अनुकूलतम स्तर पर लाना,
•
आर्थिक विकास को प्रोत्साहन,
• जनसंख्या के वितरण में संतुलन,
•
जनसंख्या में गुणात्मक सुधार, आदि।
भारत में जनसंख्या नीति
भारत
में जनसंख्या नीति की दो प्रकार से देखा जा सकता है : प्रथम, स्वतन्त्रता प्राप्ति
के पूर्व जनसंख्या नीति तथा द्वितीय, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जनसंख्या
नीति।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जनसंख्या नीति
ब्रिटिश
काल में शासन जनसंख्या पर नियन्त्रण लगाने के विरुद्ध था परन्तु बुद्धिजीवियों
द्वारा लगातार इसकी मांग की जा रही थी। सन् 1916 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'The
Population Problems in India' में प्यारे कृष्ण वाटल ने जनसंख्या को नियोजित करने
पर बल दिया। सन् 1925 में गणित के प्रोफेसर आर.डी. कर्वे ने महाराष्ट्र में सतित
निग्नह चिकित्सालय (बर्थ कन्ट्रोल क्लोनिक) स्थापित किया। उस समय किसी ने यह
कल्पना भी नहीं की थी कि भविष्य में संतति निग्रह को एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम
के रूप में मान्यता प्रदान की जायेगी। कुछ समय बाद मद्रास में 'नवमाल्थसवादी संघ'
की स्थापना की गयी। 11 जून, 1930 को मैसूर सरकार ने सरकारी बर्थ कन्ट्रोल क्लीनिक
की स्थापना की। ऐसा करने वाला यह विश्व के पहला राज्य था। इसी वर्ष मद्रास सरकार
ने गर्भ नियन्त्रण के सम्बन्ध में शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ किया तथा 1932
में संतति निग्रह के हेतु अनेक चिकित्सालयों की स्थापना की। इसी वर्ष लखनऊ में
'अखिल भारतीय महिला सम्मेलन' में संतति निग्रह चिकित्सालयों से महिलाओं एवं पुरुषों
को जन्म-नियन्त्रण की सुविधायें एवं सूचनायें दिये जाने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित
किया गया।
सन्
1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने श्री जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में
'राष्ट्रीय नियोजन समिति' का गठन किया। इस समिति ने भारत की जनसंख्या वृद्धि का
जीवन स्तर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों, परिवार नियोजन को राज्य की नीति का अभिन्न
अंग बनाने, परिवार के आकार को सीमित करने हेतु विवाह की आयु में वृद्धि करने एवं
बहुपत्नी प्रथा की समाप्ति करने, संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की नसबन्दी
किये जाने, जनांकिकी सर्वेक्षण द्वारा बार-बार सर्वे कर जनसंख्या समंकों के गुणों
में सुधार किये जाने से सम्बन्धित सिफारिशें प्रस्तुत की।
1935-36
में 'अखिल भारतीय महिला सभा' के आमंत्रण पर परिवार कल्याण
कार्यक्रम की विशेषज्ञ अमेरिका की श्रीमती मार्गरेट सेंगर भारत आयीं। उन्होंने इस
क्षेत्र में अपने अनुभवों के आधार पर भारत की जनसंख्या नीति में परिवार कल्याण
कार्यक्रम को शामिल किये जाने की सलाह दी। सन् 1935 में श्रीमती कोवास जी जहांगीर
की अध्यक्षता में परिवार स्वास्थ्य उत्थान अध्ययन समिति गठित की गई। सन् 1936 में
संतति निग्रह के प्रबल समर्थक डॉ. ए.पी. पिल्लै ने संतति निग्रह के सम्बन्ध में प्रशिक्षण
देने हेतु विभिन्न स्थानों पर केन्द्रों की स्थापना की। 1938 में अखिल भारतीय
कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाष चन्द बोस ने परिवार नियोजन की आवश्यकता पर
बल दिया। 1939 से उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में संतति निग्रह अर्थात्
जन्म-नियन्त्रण चिकित्सालयों की स्थापना की गई। सन् 1940 में पी.एन. सपू ने
Council of States में 'संतति नियमन चिकित्सालयों' की स्थापना का प्रस्ताव रखा
जिसे बहुमत से पारित कर दिया गया। सन् 1945 में जोजेफ भोर की अध्यक्षता में
'स्वास्थ्य सर्वेक्षण एवं विकास समिति' की स्थापना की गई जिसने जन्म-नियन्त्रण
सेवाओं के विकास की संस्तुति की। महात्मा गांधी भी भारत में जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न
समस्याओं को हल करने हेतु जन्म-नियन्त्रण के पक्षधर थे किन्तु वे कृत्रिम विधियों
के स्थान पर ब्रह्मचर्य को उचित ठहराते थे। उनका कहना था कि 'वर्तमान भारत में
गुलामों की संख्या में वृद्धि पर रोक लगा देना हमारा परम कर्तव्य है।' सन् 1938
में भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आर्थिक प्रगति में तीव्रता
लाने एवं आम जनता को खुशहाल बनाने हेतु जन्म-नियन्त्रण को अपनाने का सुझाव दिया
था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी लिखा कि परिवार नियोजन स्त्रियों को अनावश्यक मातृत्व
से बचाता है। देश को अनावश्यक जनसंख्या से बचाता है तथा भुखमरी से बचाता है। भारत
जैसे भूखग्रस्त देश में और बच्चे पैदा करना न केवल बेकसूर बच्चों की मौत बुलाना है
वरन् सम्पूर्ण परिवार व देश को निकृष्ट जीवन में डालना है। इस अन्याय को नहीं होने
देना चाहिए। भारत के सन्दर्भ में गुन्नार मिर्डल के शब्द भी महत्वपूर्ण हैं। उनका
कहना था कि 'संक्षेप में ब्रिटिश शासनकाल की समाप्ति आने तक बुद्धिजीवियों ने ऐसा
वातावरण तैयार कर दिया था कि स्वतंत्र भारत की सरकार को एक प्रभावी जनसंख्या नीति
अपनानी आवश्यक हो जायेगी।'
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जनसंख्या नीति
भारत
में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व जनसंख्या के उचित नियोजन हेतु विभिन्न प्रयत्न
किये गये थे, परन्तु यह प्रयत्न संगठित नहीं थे और न ही इस दिशा में कोई स्पष्ट
नीति बनाई गई थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में जनसंख्या नीति की
वास्तविक शुरुआत योजनाबद्ध विकास के साथ हुई। देश में पंचवर्षीय योजनाएं लागू की
गई और इसके अन्तर्गत ही जनसंख्या नियोजन की ओर कदम उठाए गए, जो निम्नलिखित हैं
:
पंचवर्षीय योजनाओं में जनसंख्या नीति
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) :
प्रथम पंचवर्षीय योजना अवधि में योजना आयोग ने जनसंख्या का भारत के आर्थिक विकास पर
पड़ने वाले प्रभावों के सम्बन्ध में मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की। इसमें इस तथ्य
को स्वीकार किया गया था दिया कि जनसंख्या वृद्धि का प्रति व्यक्ति आय से प्रत्यक्ष
सम्बन्ध नहीं होता है अपितु बढ़ती हुई जनसंख्या समस्त उत्पादन एवं उपभोग व्यवस्था
को प्रभावित करता है। परन्तु बाद में आयोग ने यह भी अनुभव किया कि जनसंख्या में
तीव्र वृद्धि जीवन-स्तर को बढ़ाने में बाधक है। यह रहन-सहन के स्तर में सहायक होने
की अपेक्षा इसे हतोत्साहित करती है। इस कारण से जनसंख्या नीति का मुख्य लक्ष्य जन्म-दर
में करना था जिससे परिवारों का आकार सीमित किया जा सके।
प्रथम योजना में जनसंख्या नियन्त्रण नीति के अन्तर्गत कार्यक्रम
•
परिवार नियोजन के लिए प्रचलित विभिन्न विधियों के सम्बन्ध में वास्तविक
अनुभवों को संकलित करना तथा उनकी उपयुक्तता, लोकप्रियता और प्रभावशीलता ज्ञात
करना।
•
परिवार नियोजन के सम्बन्ध में जनता को जागरूक करने की विभिन्न
विधियों की जांच करना।
•
जनता के अलग-अलग वर्गों के प्रतिनिधियों से प्रजनन प्रवृत्ति,
परिवार के आकार एवं परिवार के प्रति उनके दृष्टिकोण आदि सम्बन्ध में जानकारी
एकत्रित करना।
•
मानवीय उर्वरता के मनोवैज्ञानिक तथा चिकित्सकीय पक्षों का अनुसंधान करना।
•
आर्थिक, सामाजिक तथा जनसंख्या परिवर्तनों के पारस्परिक प्रभावों का
अध्ययन करना।
वास्तव
में, प्रथम पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या नीति केवल परिवार नियोजन कार्यक्रम की
प्रारम्भिक तैयारी मात्र तक सीमित थी क्योंकि इसमें केवल तथ्यों का संकलन तथा
वास्तविक समस्या को चिन्हित करने पर ही विशेष ध्यान दिया गया था। प्रथम योजना के
अन्तर्गत 147 परिवार नियोजन केन्द्रों की स्थापना की गयी। इनमें 126 केन्द्र शहरी
क्षेत्रों तथा 21 ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए गए। इस योजना में
65 लाख रुपये व्यय करने का प्रावधान था किन्तु वास्तविक व्यय
केवल 18 लाख रुपये ही किया गया।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61):
द्वितीय पंचवर्षीय योजना में यह तत्य स्वीकार किया गया कि जनता के दृष्टिकोण में
इतनी तीव्रता से परिवर्तन आ रहा है कि निश्चित अवधि के लिए इससे सम्बन्धित किसी
स्थायी नीति का निर्धारण कठिन कार्य है। इसलिए प्रथम योजना में अपनाये गये
जनसंख्या नीति के दीर्घकालीन दृष्टिकोण को त्याग कर उसके स्थान पर द्वितीय योजना
में जनसंख्या की वर्तमान समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया गया।
प्रथम
पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन के महत्व को अवश्य स्वीकार किया गया था परन्तु
इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम का निर्धारण द्वितीय पंचवर्षीय योजना
में ही किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्नलिखित तथ्यों का समावेश किया गया
:
•
शिक्षा का प्रसार किया जाये। इससे एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो सकेगा
जिसमें जनता निरोधक उपायों का स्वीकार करेंगे।
•
जन्म-नियन्त्रण हेतु निरोधक उपायों की ग्रामीण एवं शहरी
स्वास्थ्य केन्द्रों पर उपलब्धता के साथ ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर
नसबन्दी की सुविधा उपलब्ध हो।
•
परिवार नियोजन कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण को उचित व्यवस्था की
जाये।
•
जनसंख्या समस्या से सम्बन्धित अनुसंधान को प्रोत्साहन दिया जाए।
•
एक सुसंगठित केन्द्रीय संगठन की स्थापना की जाए।
द्वितीय
पंचवर्षीय योजना में इस दिशा में विभिन्न कार्य किए गए, जैसे-सरकारी प्रयासों से
शिक्षा की दर में वृद्धि हुई, परिवार नियोजन कार्यक्रम को गांव-गांव तक प्रचारित
किया गया, लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 15 वर्ष कर दी गयी, प्रसव केन्द्रों
की स्थापना से इस कार्यक्रम को बल मिला, विभिन्न सर्वेक्षणों से स्पष्ट हुआ कि
महिलाएं परिवार नियोजन की विभिन्न विधियों को जानने की इच्छा रखती हैं।
इस
योजनाकाल में परिवार नियोजन केन्द्रों की संख्या बढ़कर 2206 हो गयी जिसमें 827
शहरी क्षेत्रों में तथा 1379 ग्रामीण क्षेत्रों में थे। एक लाख लोगों की नसबन्दी
भी की गयी। इस योजना में 5 करोड़ रुपये व्यय करने का प्रावधान था किन्तु वास्तव
में 2.15 करोड़ रुपये ही व्यय किये गये। इसके साथ ही बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली तथा
त्रिवेन्द्रम में जनसंख्या अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना की गयी।
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) :
प्रथम एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं में तमाम प्रयासों के बाद भी जब 1961 की
जनगणना हुई तो उसमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके। देश में मृत्यु दर तो अनुमान से
कहीं अधिक कमी दर्ज हुई परन्तु जन्म दर में कमी परिलक्षित नहीं हुई। इसके
परिणामस्वरूप तृतीय पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ में जनसंख्या अनुमान की अपेक्षा
अधिक तीव्र गति बढ़ी। इस कारण सरकार का ध्यान जनसंख्या नीति से हटकर जनसंख्या नियन्त्रण
पर केन्द्रित हो गया। इस प्रकार, जनसंख्या नीति का स्थान परिवार नियोजन कार्यक्रम
ने ले लिया। इस कार्यक्रम के महत्व की विवेचना इन शब्दों में की गई–'परिवार नियोजन
को केवल विकास कार्यक्रम के रूप में ही अपनाना नहीं है, अपितु एक राष्ट्रव्यापी
आन्दोलन के रूप में इसे अपनाना है, जिससे व्यक्ति, परिवार एवं समाज के जीवन में
सुधार लाया जा सके।' 1962-63 में सरकार ने जनसंख्या नीति को उद्देश्य को स्पष्ट
करते हुए बताया कि परिवार नियोजन कार्यक्रम का उद्देश्य जन्म दर को 41 प्रति हजार
से घटाकर 1973 तक 25 प्रति हजार के स्तर पर लाना है।
इस
योजना में जनसंख्या नीति का आधार जन्म नियन्त्रण तक ही सीमित होने के परिणामस्वरूप
जनांकिकीय अनुसंधान भी केवल परिवार नियोजन तक ही सीमित गया। प्रथम योजना के
महत्वपूर्ण बिन्दु 'जनांकिकीय विनियोग' को भी इस योजना में छोड़ दिया गया। तृतीय
योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम पर 27 करोड़ रुपये व्यय करने का प्रावधान था
किन्तु
25 करोड़ रुपये ही व्यय किये गये। परिवार नियोजन केन्द्रों की संख्या बढ़कर 11,474 होना, अनेक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना होना, दिल्ली
में तकनीकी परामर्श हेतु परिवार कल्याण संस्था की स्थापना होना, कानपुर में लूप
बनाने के कारखाने का प्रारम्भ होना, लूप के प्रचार-प्रसार में वृद्धि होना इस
योजनाकाल में अपनायी गयी ‘प्रचार नीति' की प्रमुख उपलब्धियां रहीं।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) :
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में तृतीय योजना का ही अनुसरण किया गया। चतुर्थ योजना में
माना गया कि यदि जनसंख्या इसी तीव्र गति से बढ़ती गयी तो राष्ट्रीय निवेश, शक्ति तथा
प्रयत्नों का बहुत बड़ा भाग केवल वर्तमान रहन-सहन के स्तर को बनाये रखने में ही
उपयोग होगा। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि एक गम्भीर चुनौती प्रस्तुत करती है। यह
समस्या की ओर गम्भीरता और राष्ट्रीय तत्परता की मांग करती है।
जनसंख्या
में निरन्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप चतुर्थ योजना में परिवार नियोजन को सर्वोच्च
प्राथमिकता प्रदान की गई, साथ ही मातृत्व एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रमों को अधिक
महत्व दिया गया। इस योजना में लक्ष्यों को निर्धारित कर इनकी प्राप्ति हेतु
कार्यक्रम चलाये गये, जनता को परिवार नियोजन की विधियों से प्रशिक्षित किया गया,
नसबन्दी कार्यक्रम पर विशेष ध्यान दिया गया। इसमें स्वास्थ्य मंत्रालय का नाम
स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय कर दिया गया जिसे बाद में स्वास्थ्य एवं परिवार
कल्याण मंत्रालय में परिवर्तित कर दिया गया। इस योजना में जन्म दर 40 प्रति हजार
से घटकर 38 प्रति हजार हो गयी। इसी योजना में सन् 1972 में गर्भपात को कानूनी
मान्यता प्रदान की गयी। योजना में 284.43 करोड़ रुपये व्यय किये गये। योजना के
दौरान देश में ग्रामीण परिवार कल्याण केन्द्र, ग्रामीण उपकेन्द्र तथा शहरी परिवार
कल्याण केन्द्रों की संख्या वृद्धि दर्ज की गयी।
पंचम पंचवर्षीय योजना (1974-78) :
पंचम अर्थात् पांचवी पंचवर्षीय योजना में भी जनसंख्या नीति क परिमाणात्मक पक्ष पर
अधिक बल दिया गया। इसमें जनसंख्या नीति को परिवार नियोजन कार्यक्रम तक ही सीमित कर
दिया गया। इसमें जनसंख्या नीति तथा परिवार नियोजन को गरीबी निवारण हेतु आवश्यक
माना गया। इस योजना में परिवार नियोजन हेतु निर्धारित 497.4 करोड़ रुपये में से
केवल 409 करोड़ रुपये ही व्यय किये जा सके। परिवार नियोजन कार्यक्रम को 'परिवार
कल्याण कार्यक्रम' के रूप में अपनाते हुए इस योजनावधि में 22 प्रतिशत
सन्तानोत्पत्ति योग्य दम्पत्तियों को इस कार्यक्रम के अन्तर्गत लाया गया।
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति : 1976 (आपातकाल के दौरान)
भारत
में जून 1975 में आपातकाल की घोषणा की गई। इसी दौरान 16 अप्रैल, 1976 को कांग्रेस
सरकार ने नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य
जन्म दर में कमी लाकर जनसंख्या विस्फोट की समस्या का त्वरित समाधान करना था। इस
नीति की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
•
राज्य सरकारों को यह अधिकार प्रदान किया गया कि यदि वे चाहें तो
कानून बनाकर बन्ध्याकरण को अनिवार्य कर सकते हैं।
•
विभिन्न परिस्थितियों में अप्रैल 1972 से गर्भपात को वैध घोषित कर
दिया गया।
•
विवाह की न्यूनतम आयु को लड़कों हेतु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष
तथा लड़कियों हेतु 15 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया।
•
केन्द्र द्वारा राज्यों की योजनाओं हेतु दी जाने वाली सहायता में आठ प्रतिशत परिवार नियोजन कार्यक्रमों पर व्यय हेतु निर्धारित किया गया।
•
जनसंख्या नियन्त्रण हेतु 1976 से दो जीवित बच्चों के बाद बन्ध्याकरण कराने पर प्रोत्साहनस्वरूप 150 रुपये, तीन बच्चों के बाद 100 रुपये तथा
चार या अधिक बच्चों के बाद 70 रुपये क्षतिपूर्ति तथा एक सप्ताह का अवकाश दिये जाने
की व्यवस्था की गयी।
•
प्रजनन-दर में कमी लाने हेतु महिला शिक्षा के साथ ही बच्चों की उचित
आहार व्यवस्था पर विशेष बल दिया गया।
•
परिवार नियोजन कार्यक्रम को जन-जन तक पहुंचाने हेतु नयी बहुमुखी
प्रेरणात्मक प्रचार नीति अपनायी गयी।
आपातकाल
के दौरान घोषित जनसंख्या नीति में जनसंख्या नियन्त्रण हेतु उपरोक्त उपायों के साथ
ही अन्य प्रयास भी किये गये। इस नीति में बन्ध्याकरण आदि के लक्ष्य निर्धारित कर
उन्हें कठोरता से प्राप्त करने का प्रयास किया गया। इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु
जनता के साथ जोर-जबरदस्ती भी की गयी। इस नीति में जन-सामान्य की खराब प्रतिक्रिया
हुई।
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति : 1977 (आपातकाल के पश्चात् )
1976
की जनसंख्या नीति में अनिवार्यता एवं जोर-जबरदस्ती के कारण सरकार
का पतन हो गया तथा केन्द्र में अगली सरकार जनता पार्टी की बनी जिसने 1977 में नई
जनसंख्या नीति की घोषणा की। 1977 की इस नीति का आधार 1976 की जनसंख्या नीति ही था
परन्तु इस नीति में परिवार नियोजन कार्यक्रम को सकारात्मक रूप प्रदान करते हुए
इसमें 'अनिवार्यता' के स्थान पर 'स्वेच्छा' के सिद्धान्त को महत्व प्रदान किया
गया। परिवार नियोजन के प्रति विरोध को शान्त करने के लिए 'परिवार
नियोजन कार्यक्रम' का नाम बदलकर 'परिवार कल्याण कार्यक्रम' कर दिया गया। इस नीति
में परिवार नियोजन को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के साथ ही जन्म नियन्त्रण हेतु
आवश्यक सुविधाएं देना, इस हेतु सामाजिक संस्थाओं की सेवा लेना, जनसंख्या शिक्षा को
प्रोत्साहन देना, प्रचार-प्रसार के नवीन साधनों का उपयोगकरना आदि उपाय किये गये।
परन्तु, परिवार नियोजन कार्यक्रम के क्रियान्वयन में लचीला रुख अपनाने के कारण इस कार्यक्रम
को अपनाने वालों की संख्या में 68 प्रतिशत तथा बन्ध्याकरण के ऑपरेशन में 98
प्रतिशत को बड़ी गिरावट दर्ज की गयी।
छठवीं पंचवर्षीय योजना (1980-85):
छठवीं पंचवर्षीय योजना में भी परिवार नियोजन कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता
प्रदान की गई। इस योजना में कार्यक्रम पर 3,412 करोड़ रुपये रुपये व्यय किये गए।
योजना में जन्म दर को 30 से घटाकर 25 प्रति हजार पर लाने तथा 24 मिलियन लोगों को
बन्ध्याकरण के दायरे में लाने का लक्ष्य था परन्तु वास्तव में
17 मिलियन को ही इस दायरे में लाया जा सका। इसमें 7 मिलियन लूप लगाये
गये जबकि लक्ष्य 7.9 मिलियन का था।
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति : 1981
केन्द्रीय
स्वास्थ्य परिषद तथा केन्द्रीय परिवार कल्याण परिषद का सातवां संयुक्त सम्मेलन
15-17 जून, 1981 की अवधि में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में सम्पन्न हुआ जिसमें
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति तथा राष्ट्रीय चिकित्सा एवं
स्वास्थ्य शिक्षा नीतियों को स्वीकृति प्रदान की गयी। 1981 में घोषित जनसंख्या
नीति की विशेषताओं में सन् 2000 तक जन्म दर को 21 प्रति हजार पर लाना, इसी अवधि
में मृत्यु दर को घटाकर 9 प्रति हजार पर लाना, वर्ष 2000 तक 90 प्रतिशत
दम्पत्तियों को परिवार नियोजन कार्यक्रम के अन्तर्गत लाना, बन्ध्याकरण की
भ्रान्तियों को दूर करना, छोटे परिवार हेतु जागरूकता लाना, जनसंख्या नियन्त्रण
हेतु दीर्घकालीन नीतियों पर बल देना, परिवार नियोजन साधनों की सुलभता सुनिश्चित
करना, महिला शिक्षा को बढ़ावा देना, विभिन्न संगठनों को आर्थिक एवं तकनीकि सहायता
प्रदान करना आदि प्रमुख हैं।
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) :
सातवीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने स्वास्थ्य नीति में संशोधन किया तथा वर्ष
1990 तक परिवार कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न लक्ष्य निर्धारित किए, जैसे-प्रभावी
दम्पत्ति संरक्षण दर को 42 प्रतिशत तक लाना, अशोधित जन्मदर तथा अशोधित मृत्युदर को
घटाकर क्रमश: 29.1 तथा 10.4 प्रति हजार पर प्रतिरक्षीकरण करना आदि। इस योजना में
लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु 3,121 करोड़ रुपये व्यय किये गये। योजना में निर्धारित
लक्ष्यों की प्राप्ति में काफी हद तक सफलता भी प्राप्त हुई। उदाहरणार्थ, 1990 में
जन्मदर तथा मृत्युदर घटकर क्रमश: 30.2 तथा 9.7 प्रति हजार हो गयी, जबकि शिशु
मृत्युदर कम होकर 80 प्रति हजार हो गई।
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) :
दिसम्बर 1991 में योजना आयोग ने राष्ट्रीय विकास परिषद को एक दस्तावेज 'जनसंख्या
नियन्त्रण : चुनौतियां एवं व्यूह रचना' प्रस्तुत किया जिसमें उसने माना कि
जनसंख्या विस्फोट देश के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है। यदि तीव्र गति से बढ़ती इस
जनसंख्या को नहीं रोका गया तो इस जनसंख्या का भरण-पोषण कठिन होगा तथा सभी को
सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने के लक्ष्य की भी पूर्ति नहीं हो पायेगी। इसलिए आठवीं
पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या परिमाण को नियन्त्रित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता
प्रदान की गयी। इस योजना में विभिन्न लक्ष्य निर्धारित किये गये, जैसे- योजना के
अन्त तक जन्मदर तथा मृत्युदर को कम कर क्रमशः 27 तथा 9.2 प्रति हजार तक लाना,
जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर को 1.78 प्रतिशत पर लाना, प्रजनन दर में कमी करना,
जीवन-प्रत्याशा में वृद्धि करना आदि। योजना में परिवार कल्याण कार्यक्रम पर 6,500
करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान था परन्तु वास्तव में 7294 करोड़ रुपये व्यय किये
गये।
नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002 ) :
नौवीं पंचवर्षीय योजना में माना गया कि देश की जनसंख्या वृद्धि में 15-44 प्रजनन
आयुवर्ग का योगदान सबसे अधिक है, जन्म नियन्त्रण उपकरणों की पर्याप्त उपलब्ध ता न
होना जनसंख्या में 20 प्रतिशत वृद्धि करता है तथा 20 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि देश
में उच्च शिशु मृत्युदर के कारण हो जाती है। इन्हीं तथ्यों को देखते हुए नौवीं
योजना में प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम पर विशेष ध्यान दिया गया। इस योजना
के प्रमुख लक्ष्य शिशु मृत्युदर को 56-50 प्रति हजार तक लाना,
अशोधित जन्मदर को 23 प्रति हजार तक लाना, कुल प्रजनन दर 2.6 तक
लाना तथा युगल सुरक्षित दर 51-600 तक लाना था।
भारत की नवीन राष्ट्रीय जनसंख्या नीति : 2000
परिवार
कल्याण कार्यक्रम पर विशेष ध्यान दिये जाने के बाद भी जब देश 1 अरब जनसंख्या की ओर
बढ़ रहा था तो इस कार्यक्रम के अपने लक्ष्यों में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाने
की चर्चाएं होने लगीं। विभिन्न संगठनों ने सरकार पर अपनी जनसंख्या नीति पर
पुनर्विचार करने का दबाव डालना प्रारम्भ कर दिया। उसी समय राष्ट्रीय जनसंख्या नीति
पर सलाह देने के लिए डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित दल ने विभिन्न
महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किये। इस प्रकार, सन् 1996 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति
का एक प्रारूप तैयार कर इसे संसद से स्वीकृति प्रदान की गयी और केन्द्र सरकार ने
15 फरवरी, 2000 को नई राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की। इसमें परिवार नियोजन
को स्वैच्छिक बनाये रखने, परिवार नियोजन के लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु बाध्य न
करने और प्रोत्साहन तथा हतोत्साहन उपायों को न अपनाने का निर्णय लिया गया। इस नीति
में जनसंख्या के परिमाण को राष्ट्रीय साधनों के अनुरूप नियन्त्रित करने एवं
जीवन-स्तर में गुणात्मक सुधार लाने के लिए निम्नलिखित तीन उद्देश्य निश्चित किये
गये:
•
तात्कालिक उद्देश्य : पर्याप्त मात्रा में गर्भ निरोधक उपायों का विस्तार करने के लिए स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे का विकास करना, जिससे परिवार
नियोजन की सुविधाओं से वंचित लोगों को यह सुविधाएं प्राप्त हो सके।
•
मध्यमकालीन उद्देश्य : कुल प्रजनन दर को सन् 2010 तक 2.1 के प्रतिस्थापन
स्तर तक लाना।
•
दीर्घकालीन उद्देश्य : सन् 2045 तक जनसंख्या ऐसे स्तर पर स्थिर करना
जो आर्थिक वृद्धि, सामाजिक विस्तार तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अनुकूल हो।
नवीन
जनसंख्या नीति में वंचित लोगों तक प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने, 14
वर्ष तक के बच्चों हेतु शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने, प्राथमिक एवं
माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की दर को घटाकर 20 प्रतिशत तक लाने,
मातृत्व मुत्युदर को 100 प्रति एक लाख जीवित जन्म तथा शिशु मृत्युदर
को 30 प्रति हजार जीवित जन्म तक लाने, सभी बच्चों का टीकाकरण
करने, लड़कियों के विवाह को 20 वर्ष के बाद करने को प्रोत्साहन देने, 80 प्रतिशत
प्रसव संस्थाओं में तथा 100 प्रतिशत प्रसव प्रशिक्षित दाइयों द्वारा करवाने, जन्म,
मृत्यु, विवाह तथा गर्भाधान का पंजीकरण करवाने, संक्रामक बीमारियों की रोकथाम
करने, परिवार कल्याण कार्यक्रम को जन-जन पहुंचाने आदि लक्ष्य रखे गये। इस नीति में
छोटे परिवार के प्रोत्साहन हेतु विभिन्न प्रेरक उपायों की घोषणा की गयी, जिनमें
प्रमुख हैं : छोटे परिवार को बढ़ावा देने वाली पंचायतों एवं जिला परिषदों को
केन्द्र सरकार द्वारा पुरस्कृत करना, गरीबी रेखा से नीचे के उन परिवारों को 5000
रुपये की स्वास्थ्य बीमा की सुविधा देना जिनके केवल दो बच्चे हैं और उन्होंने
बन्ध्याकरण करवा लिया है, बाल-विवाह निरोधक अधिनियम तथा प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण
तकनीकी निरोधक अधिनियम को कड़ाई से लागू किया जाना, गर्भपात सुविधा योजना को मजबूत
करना, ग्रामीण क्षेत्रों में बन्ध्याकरण की सुविधा हेतु सहायता देना आदि। इसके साथ
ही देश में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग, राज्य जनसंख्या आयोग एवं योजना आयोग में
समन्वय प्रकोष्ठ का गठन भी किया गया।
दसवीं पंचवर्षीय योजना ( 2002-2007) :
दसवीं पंचवर्षीय योजना में परिवार कल्याण कार्यक्रम से सम्बन्धित समस्त आवश्यकताओं
की पूर्ति करने पर बल दिया गया। इसमें परिवार कल्याण कार्यक्रम हेतु 27,125 करोड़
रुपये का प्रावधान किया गया। इस योजना में शिशु एवं मातृ मृत्युदर को तेजी से कम
करने की पहल की गयी। इसमें शिशु मृत्युदर को योजना के अन्त तक घटाकर 45 प्रति हजार
पर लाने तथा 2012 तक 28 प्रति हजार पर पहुंचाने, मातृ मृत्युदर को 2007 तक 2 प्रति
हजार जीवित जन्म तथा 2012 तक 01 प्रति हजार पर लाने के साथ ही
2001-2011 के दशक तक जनसंख्या की दशकीय वृद्धि दर को 16.2 प्रतिशत
तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया। योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं
उपलब्ध कराने हेतु राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन पर विशेष ध्यान केन्द्रित
किया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी जनसंख्या नीति के अन्तर्गत परिवार कल्याण
कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय ग्नामीण स्वास्थ्य मिशन पर विशेष ध्यान दिया गया। इसके अतिरिक्त
जनसंख्या के स्थिरीकरण में पंचायती राज संस्थाओं के महत्व को स्वीकार किया गया।
ग्यारहवीं योजना में जनसंख्या के स्थिरीकरण हेतु योजना आयोग द्वारा एक कार्यदल का
गठन किया। इस दल के कार्यों में देश में जनसंख्या स्थिरीकरण को दृष्टिगत रखते हुए
ग्यारहवीं योजना हेतु वर्तमान जनांकिकीय प्रक्षेपणों का पुनरीक्षण करना, वर्ष 2000
की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के लक्ष्यों का पुनरीक्षण करना, जनसंख्या स्थिरीकरण के
लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विभिन्न बिन्दुओं पर नीतिगत सुझाव देना आदि शामिल हैं। इस
योजना में जनसंख्या नियन्त्रण हेतु आवश्यक सुविधाओं तक लोगों की पहुंच बढ़ाने तथा
शिशु एवं मातृ मृत्युदर को निरन्तर कम करने के प्रयास किये गये। इस योजना के अन्त
तक अशोधित जन्म दर को घटाकर 19 प्रति हजार तथा युगल संरक्षण दर 64 प्रतिशत तक लाने
का लक्ष्य रखा गया।
जनसंख्या नीति : एक मूल्यांकन
भारत
में जनसंख्या नीति की वास्तविक शुरुआत योजनाबद्ध विकास के साथ ही हुई। पूर्व में
जनसंख्या को कोई समस्या नहीं मानने के कारण इस नीति पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया
परन्तु जब तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि हुई तो देश
में जनसंख्या नियन्त्रण हेतु एक प्रभावी नीति का अनुसरण किया गया। चौथी योजना में
जनसंख्या नीति के अन्तर्गत परिवार नियोजन कार्यक्रमों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई
जबकि पांचवीं योजना में आपातकाल के दौरान 16 अप्रैल, 1976 को प्रभावी राष्ट्रीय
जनसंख्या नीति की घोषणा की गई। इसमें राज्य सरकारों को जनसंख्या नियन्त्रण हेतु
'अनिवार्य बन्ध्याकरण' का कानून बनाने का अधिकार देने के साथ ही लक्ष्यों की
प्राप्ति हेतु विभिन्न कठोर उपा किये गये। इस अनिवार्यता एवं जोर जबरदस्ती के कारण
सरकार का पतन हुआ तथा अगली सरकार ने 1977 में नई जनसंख्या नीति की घोषणा की जिसमें
'अनिवार्यता' के स्थान पर 'स्वेच्छा' के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी साथ
ही 'परिवार नियोजन कार्यक्रम' को जन-जन तक पहुंचाने के लिए इसका नाम बदलकर 'परिवार
कल्याण कार्यक्रम' कर दिया गया। इसके पश्चात जून 1981 में भी सरकार ने राष्ट्रीय
जनसंख्या नीति में संशोधन किया तथा फरवरी 2000 में देश की नवीन राष्ट्रीय जनसंख्या
नीति की घोषणा गयी।
देश
में अभी तक जो जनसंख्या नीति लागू की गई हैं, उनके परिणामस्वरूप जनसंख्या के बढ़ने
की दर में प्रभावी कमी आयी हैं, जन्मदर, मृत्युदर, शिशु मृत्युदर में भी कमी
परिलक्षित हुई है जबकि जीवन प्रत्याशा, युगल संरक्षण दर आदि में वृद्धि हुई है।
परन्तु, जनसंख्या नीति में निर्धारित विभिन्न लक्ष्यों की प्राप्ति में पूर्ण रूप
से सफलता प्राप्त नहीं हो पायी है। देश में कुछ राज्यों में आज भी कुल प्रजनन दर
लक्ष्य से दुगुनी है जो हमारे उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधनों पर प्रतिकूल असर डाल रहा
है। आज, देश की कुल जनसंख्या लगभग 122 करोड़ है जो विश्व में चीन के पश्चात्
द्वितीय स्थान पर है और यह 1.41 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है। सम्भावना है कि
सन् 2030 में भारत चीन को पीछे छोड़कर विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन
जायेगा। इन परिस्थितियों में जनसंख्या नीति की सफलता हेतु आवश्यक है कि इसमें
लक्ष्यों का निर्धारण देश की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों की विविधता
को ध्यान में रखते हुए किया जाये, नीति के परिमाणात्मक पहलू के साथ-साथ गुणात्मक
पहलू को भी समान महत्व दिया जाये साथ ही परिवार नियोजन कार्यक्रम के उचित
क्रियान्वयन हेतु इसमें संगठनात्मक सुधार किये जायें और इसे विकास कार्यक्रमों से
जोड़ा जाए।
महत्वपूर्ण बिन्दु
•
भारत की आबादी अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राजील, पाकिस्तान, बांग्लादेश
और जापान की कुल आबादी के बराबर है।
•
भारतीय जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर होती है। भारत की
जनसंख्या की सर्वाधिक वृद्धि 1961 – 71 के दशक में 24.80% हुई है।
•
2001 11 के मध्य में जनसंख्या वृद्धि दर व्यक्ति रूप में 17.7% रही
है।
•
2001 - 11 के दौरान वार्षिक वृद्धि दर 1.64% रही।
•
देश की जनगणना का दायित्व भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 में केंद्र सरकार को दिया
गया है।
•
देश में सबसे कम शिशु मृत्यु दर गोवा व मणिपुर में 11 प्रति हजार
रही।
•
भारत में 15 – 49 वर्ष के बीच की उम्र को प्रजनन काल कहा जाता
है।
•
2011 की अंतिम भारतीय जनगणना के अनुसार देश का लिंगानुपात 943 है।
•
2011 में 0-6 वर्ष के बच्चों का लिंगानुपात राष्ट्रीय स्तर पर 919 है।
•
भारत के प्रदेशों में नगरीय लिंगानुपात, ग्रामीण लिंगानुपात की तुलना
में कम है।
•
भारत की साक्षरता दर 73.0% है।
•
साक्षरता की गणना हेतु 7 वर्ष से ऊपर के आयुवर्ग को सम्मलित किया
जाता है। कोई भी व्यक्ति यदि वह पढ़ लिख सकता है, तो वह साक्षर है।
•
पुरुष शिक्षा प्रतिशत 80.9% है तथा महिला 64.6% है।
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