JPSC_New_Economic_Reforms (नवीन-आर्थिक सुधार)

New Economic Reforms (नवीन-आर्थिक सुधार)

(उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण सुधारों की प्रासंगिकता और आवश्यकता, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ)

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने पुनरुत्थानशील भारत की शानदार दूरदर्शिता के साथ आर्थिक नियोजन की शासन प्रणाली अपनाई तथा राष्ट्र की संपत्ति के न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के साथ प्रगति के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ा। लाइसेंस देने से संबंधित नीतियों का केंद्र बिंदु सार्वजनिक क्षेत्र रहा तथा आयात प्रतिस्थापन नीतियों एवं व्यापारिक रुकावटों को लागू करने के लिए शिशु उद्योग तर्क का समर्थन किया। इन नीतियों के समूह से अतिसंरक्षण, अकुशल संसाधन उपयोग, उच्च आगम घाटे, फर्मों एवं अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन, न्यून तकनीकी विकास तथा विदेशी विनिमय की कमी उत्पन्न हो गई।

इनके फलस्वरूप होने वाले तनावों एवं दबावों ने नीतिगत ढाँचे के पुनरावलोकन के लिए सरकार को बाध्य कर दिया। इसका परिणाम आर्थिक नीतियों में परिवर्तनों के समूह के रूप में आया जिसे विस्तृत अर्थ में आर्थिक सुधार के रूप में पहचान गया। आर्थिक सुधारों का प्रमुख उद्देश्य वैश्वीकरण के एक युग में प्रवेश करना था जिसका अर्थ (क) वस्तुओं एवं सेवाओं का स्वतंत्र प्रवाह, (ख) तकनीक का स्वतंत्र प्रवाह, (ग) पूँजी का स्वतंत्र प्रवाह, (घ) मानव का स्वतंत्र आवागमन, विशेष रूप से श्रम का एक देश से दूसरे देश में आवागमन था। अतः आर्थिक सुधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता थी तथा आर्थिक सुधारों के अंतर्गत जोर आयात प्रतिस्थापन युक्ति से हटकर निर्यात प्रेरित वृद्धि युक्ति में परिवर्तित हो गया।

आर्थिक सुधारों के पक्ष में तर्क

आर्थिक नियोजन के पहले चार दशकों की अवधि (1950-1990) में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक नियंत्रित थी। पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य भारी तथा मौलिक उद्योगों को स्थापित करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विकास, आत्मनिर्भरता, आयात प्रतिस्थापन व्यूहरचना, राष्ट्रीयकरण एवं राज्य हस्तक्षेप शासन प्रणाली पर केंद्रित थे। यद्यपि एक ओर इसने सेल, ओएनजीसी, भेल इत्यादि जैसे कुछ महत्वपूर्ण उद्योगों को स्थापित करने में सहायता की, किन्तु दूसरी ओर, इसने निजी क्षेत्र या निजी व्यावसायिक योजनाओं की वृद्धि को प्रतिबंधित किया तथा नौकरशाही प्रेरित भ्रष्टाचार, रुग्ण सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बिगड़ते हुए व्यापार शेष तथा 1990 के दशक में आर्थिक एवं वित्तीय संकट उत्पन्न किया। भारत को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से विदेशी विनिमय उधार लेना पड़ा तथा इसके द्वारा लगाई गई स्थिरीकरण एवं संरचनात्मक स्थिरता कार्यक्रम, व्यापार संबंधी रुकावटों में कमी, मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों में संशोधन, बाजार के लिए सक्रिय भूमिका तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण जैसी शर्तों को स्वीकार करना पड़ा। संक्षेप में, आर्थिक सुधार के तीन मूल तत्व भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण थे (जिसे LPG व्यूहरचना के नाम से भी जाना जाता है)।

आर्थिक सुधारों के महत्वपूर्ण लक्षण

आर्थिक सुधार प्रक्रिया की अवधि में नई आर्थिक नीति (NEP) ने नव उदारवाद को प्रतिबिंबित किया। आर्थिक सुधारों के पक्ष में तर्क सरकार द्वारा। वर्ष 1991 में घोषित औद्योगिक नीति द्वारा दिया गया। इसके मूल दर्शन के संक्षेप में परिवर्तन के साथ निरंतरता' कहा गया। इसके महत्वपूर्ण उद्देश्यों को संक्षेप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

(क) भारतीय औद्योगिक अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नौकरशाही नियंत्रणों की जकड़नों से मुक्त करना।

(ख) भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण के उद्देश्य से उदारीकरण की शुरुआत करना।

(ग) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) पर नियंत्रणों को हटाना तथा घरेलू साहसियों के लिए एम आर टीपी अधिनियम के नियंत्रणों को कम करना।

(घ) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के एकाधिकार को कम करना तथा नए निजी उपक्रमों से प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करना।

उदारीकरण

घरेलू एवं बाह्य दोनों मोर्चों पर अपनाई गई उदार नीति का उद्देश्य 1990 के दशक की अवधि के प्रारंभ में वित्तीय संकट का सामना करना था। इसके अंतर्गत निम्न उपाय सम्मिलित थे।

(क) सुरक्षा तथा सामरिक महत्व, सामाजिक क्षेत्र, विपत्तिजनक रसायनों, पर्यावरण संबंधी कारणों तक सर्वोत्तम उपभोग के मदों के उद्योग सहित 18 उद्योगों को छोड़कर सभी औद्योगिक लाइसेंस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। (इस समय 5 उद्योग ही लाइसेंस व्यवस्था के अधीन हैं)

(ख) घरेलू एवं वैश्विक प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए लघु पैमाने के उद्योग के मदों के आरक्षण को 1990 से धीरे-धीरे कम किया जा रहा है। वर्तमान में आरक्षण के अंतर्गत आने वाली मदों की संख्या 21 है जो 1996 में 836 की तुलना में बहुत कम है।

(ग) पूर्व प्रवेश नियंत्रणों को हटाने, आर्थिक शक्ति के संकेंद्रण, प्रभुता उपक्रमों तथा MRTP कंपनियों से संबंधित परिसंपत्तियों के प्रवेश द्वार सीमाओं की जवाबदेही के लिए MRTP अधिनियम में संशोधन किया गया। (बाद में MRTP अधिनियम को वापस लेकर MRTP आयोग को बन्द कर दिया गया।)

निजीकरण

निजीकरण से अभिप्राय ऐसी प्रक्रिया है जो राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियों में राज्य सार्वजनिक क्षेत्र के दखल को कम करता है। स्वतंत्रता के उपरांत सार्वजनिक क्षेत्र को बड़ा करने पर जोर के विपरीत वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों ने निजी क्षेत्र को वृद्धि के इंजन के रूप में माना गया तथा विकास प्रक्रिया में निजी क्षेत्र की भूमिका में वृद्धि करने के लिए नीतियों का निर्माण किया गया। भारत जैसी मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत निजीकरण अनेक रूपों में हो सकता है जैसे-

(क) संपूर्ण विराष्ट्रीयकरण - इसका अभिप्राय उत्पादक परिसंपत्तियों का राजकीय स्वामित्व से निजी हाथों में पूर्ण हस्तांतरण से होता है। भारत में कुछ प्रमुख उदाहरण अलविन निसान, मंगलौर केमिकल एवं फर्टिलाइजर तथा महाराष्ट्र स्कूटर्स है जो निजी हाथों में हस्तांतरित कर दिए गए।

(ख) संयुक्त उपक्रम - इसका अभिप्राय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में 25 से 50 प्रतिशत या इससे भी अधिक के निजी स्वामित्व के आंशिक प्रवेश से होता है जो उपक्रम की प्रकृति तथा इस संबंध में राजकीय नीति पर निर्भर करता है। मूल उद्देश्य फर्मों की कार्यकुशलता, उत्पादकता एवं लाभनीयता में सुधार लाना होता है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाते हैं।

- निजी क्षेत्र द्वारा 26 प्रतिशत का स्वामित्व (बैंक, पारस्परिक निजी निगम, व्यक्ति)। श्रमिकों को भी स्वामित्व में सम्मिलित किया जाना होता है तथा 5 प्रतिशत तक के सममूल्य अंश उन्हें हस्तांतरित किये जाते हैं।

- 51 प्रतिशत सममूल्य अंश सरकार द्वारा रखे जाते हैं तथा 49 प्रतिशत निजी क्षेत्र को बेच दिया जाता है।

- 74 प्रतिशत सममूल्य अंश निजी क्षेत्र को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं तथा 26 प्रतिशत अंश सरकार रखती है।

(ग) श्रमिकों की सहकारिता - यह निजीकरण का अन्य रूप है जिसके अंतर्गत हानि में होने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की फर्मों को श्रमिकों को हस्तांतरित कर दिया जाता है। भारतीय स्थिति में एक ज्वलन्त उदाहरण 'इंडियन कॉफी हाउस' है जो श्रमिक सहकारी समितियों द्वारा संचालित है। जिसे स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजों से प्राप्त किया गया था। तथापि, व्यवसाय में विस्तार के लिए विनियोगों की आवश्यकता के कारण इसने आर्थिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई।

(घ) सांकेतिक निजीकरण - इसे 'घाटे के निजीकरण' या 'विनिवेश' भी कहा जाता है। इसका अभिप्राय लाभ में होने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के 5-10 प्रतिशत अंश बाजार में बेच दिए जाते हैं जिसका उद्देश्य बजट घाटे को कम करके आय प्राप्त करना होता है। औसतन विनिवेश प्राप्तियों ने 1992 2012 की अवधि में 5 प्रतिशत से अधिक आगम घाटा तथा 4 प्रतिशत राजकोषीय घाटे को पूरा किया है।

सरकार ने 5 नवम्बर, 2009 को एक नई नीति घोषित की जिसके दो संघटक हैं। एक लाभ अर्जित करने वाली सूचीबद्ध इकाइयों से संबंध रखती है तथा दूसरी अन्य सभी सरकारी स्वामित्व की कंपनियों तक विस्तृत है। यद्यपि सूचीबद्ध न होने वाली कंपनियों को (जो 3 मापदण्ड-घनात्मक नेटवर्थ, शून्य संचित आरक्षित निधि, तथा लगातार वर्षों में विशुद्ध लाभ) समान धनराशि विनिवेश करके स्टाक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कराने का विकल्प देना होगा।

वैश्वीकरण

वैश्वीकरण विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की एक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं, तकनीक, पूँजी तथा श्रम सम्मिलित हैं। मानवीय पूँजी के प्रवाह पर किसी प्रकार की रुकावट का सृजन नहीं किया जाता है। इसके चार संघटक होते हैं।

(क) तटकर/अभ्यंश/परिणात्मक प्रतिबंधों के रूप में व्यापार को रुकावटों में कमी करना ताकि विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में वस्तुओं तथा सेवाओं के स्वतंत्र प्रवाह की उन्हें अनुमति हो,

(ख) ऐसे वातावरण का सृजन करना जिसमें राष्ट्रों के बीच पूँजी (विनियोग) का स्वतंत्र प्रवाह हो सके,

(ग) तकनीक के स्वतंत्र प्रवाह के लिए सक्षम परिवेश का सृजन करना, तथा

(घ) विकासशील देशों के दृष्टिकोण से एक ऐसे परिवेश का सृजन करना जिसमें विश्व के विभिन्न देशों में श्रम या मानवीय संसाधनों का स्वतंत्र प्रवाह हो सके।

आवश्यक रूप से, वैश्वीकरण, उदारीकरण की प्रक्रिया का अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विस्तार है। अत: यह अंतर्राष्ट्रीयकरण तथा उदारीकरण का योगफल होता है।

भारत में वैश्वीकरण की प्रक्रिया वर्ष 1990 से आर्थिक सुधारों की अवधि में LPG मॉडल अपनाने से हुई। इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण लक्षण निम्न हैं-

(क) इसका महत्वपूर्ण प्रभाव भारत के सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से तेज गति से वृद्धि के उद्योगों जैसे सूचना तकनीक (IT), सूचना तकनीक सक्षम सेवाओं (ITES), बाह्यस्रोतीकरण (Outsourcing), दूरसंचार, पर्यटन, जायदाद, परिवहन, बैंकिंग बीमा, मनोरंजन इत्यादि पर पड़ा।

(ख) विदेशी विनियोग प्रवाहों (FDIs + FIIs) को प्रोत्साहन से कार्यकुशलता प्रतिस्पर्धा, लाभनीयता तथा उत्पादकता तथा आर्थिक वस्तुओं की गुणवत्ता में वैश्विक स्तर आ गया है। विलय, संयुक्त उपक्रम, सार्वजनिक निजी क्षेत्र की भागीदारी (PPPS), विदेशियों के ठेके से भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास प्रक्रिया तेज हो गई है।

(ग) आर्थिक सुधारों के दो दशकों में निर्यात की दरों एवं प्रवास (घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय) में वृद्धि हो गई है।

सार्वजनिक-निजी साझेदारी (PPP)

भारत सार्वजनिक-निजी साझेदारी में सफल उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है तथा महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित कर रहा है। सार्वजनिक निजी भागीदारी के प्रमुख लाभ परियोजनाओं की कुशल एवं तीव्र गति से सुपुर्दगी, अर्थव्यवस्था में क्षमता की सीमितताओं एवं अड़चनों को दूर हटाना, विश्व स्तर की सुविधाएँ प्रदान करने में नवप्रवर्तन एवं विविधता, अनुकूलतम जोखिम हस्तांतरण एवं जोखिम प्रबंधन के माध्यम से करदाताओं को उनकी धनराशि का मूल्य प्रदान करना इत्यादि हैं। सार्वजनिक-निजी साझेदारी के विभिन्न मॉडल हैं जिसमें से कुछ का प्रारम्भ में अनुगमन किया गया है, वे निम्न हैं-

- निर्माण-संचालन-हस्तांतरण (BOT) उदाहरण - अनिल अंबानी समूह द्वारा संचालित मुम्बई मेट्रो रेल

- निर्माण-स्वामित्व-संचालन-हस्तांतरण : उदाहरण राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, हैदराबाद

- रियायत

- डिजाइन-निर्माण-वित्त व्यवस्था-संचालन (DBFQ)

- प्रबंधन ठेका

- परिसंपत्ति बिक्री

ये मॉडल राजमार्गों (एक्सप्रेस मार्ग, अपरिसेतु, भूमिगत मार्ग, पैदल अपरिसेतु) रेलवे (IRCTC), मेट्रो रेल तथा हवाई अड्डों के लिए परियोजनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किए जा रहे हैं। इस समय लगभग 450 सार्वजनिक-निजी साझेदारी परियोजनाएँ क्रियान्वयन के अंतर्गत है। संक्षेप में, आर्थिक सुधार अवधि (1991-2012) में विभिन्न नीति-निर्माण कार्यों में महत्वपूर्ण रूपांतरण को तालिका 6.1 में संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।

भारत में आर्थिक प्रबंधन का मॉडल

सुधार-पूर्व युक्तियाँ

आर्थिक सुधार  की युक्तियाँ

उदारीकरण प्रणाली

लाइसेंस, नियंत्रण, नौकरशाही

लाइसेंस प्रधान शासन को न्यूनतम करना

राजनीतिक रूप से प्रशासित कीमतें

अधिकांशत: बाजार निर्धारित कीमतें

राज्य प्रेरित आर्थिक वृद्धि

बाजार निर्धारित आर्थिक वृद्धि

घाटे की अधिक चिन्ता नहीं

सभी प्रकार के घाटे का नियमन

मुद्रा स्फीति प्रक्रिया द्वारा

मुद्रा विस्फीतिकारी मौद्रिक विकास एवं राजकोषीय

नीतियाँ

करेंसी के आवागमन पर प्रतिबंध

 प्रतिबंधों से उदारीकरण

राज्य द्वारा नियन्त्रित ब्याज दरें

ब्याज दरों से नियंत्रण हटाना

राज्य द्वारा नियंत्रित साख

 साख नीति सुधार

अल्पविकसित पूँजी बाजार

पूँजी बाजार में सुधार

निजीकरण

PSU वृद्धि के इंजन के

निजी विनियोग वृद्धि के रूप में इंजन

बार-बार राज्य का हस्तक्षेप

चयनात्मक एवं प्रभावकारी राज्य-हस्तक्षेप

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों

निजी हित के क्षेत्रों का प्रभुत्व वहिर्गमन

प्राकृतिक एकाधिकार का

सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों दर्शन के बीच अंतर न्यूनतम करना

वैश्वीकरण

बन्द अर्थव्यवस्था

खुली अर्थव्यवस्था

आत्मनिर्भरता

विश्व बाजारों के साथ एकीकरण

आयात प्रतिस्थापन व्यूहरचनाएँ FDI एवं MNCs पर

निर्यातोन्मुख व्यूहरचनाएँ FDI एवं MNCs को प्रतिबन्ध प्रोत्साहन


तर्कसंगत सुधार की आवश्यकता

आर्थिक सुधारों के पक्षधर उल्लेख करते हैं कि सुधार प्रक्रिया के अंतर्गत आर्थिक वृद्धि को तीव्र करने की संभावना होती है। 1990 के दशक के प्रारंभ में आर्थिक वातावरण में प्रारंभिक अस्त-व्यस्त अर्थ व्यवस्था के पश्चात् आर्थिक वृद्धि में सुधार हुआ है तथा हाल के वर्षों में GDP वृद्धि का औसत लगभग 7.5 प्रतिशत रहा है। तथापि, वृद्धि प्रक्रिया में एकरूपता में नहीं रही है तथा उसमें वर्ष-प्रतिवर्ष उतार-चढ़ाव होते रहे हैं। ऐसा कभी घरेलू विपरीत तत्वों के कारण तो कभी बाह्य वातावरण के विपरीत होने के कारण हो जाता है। उदाहरण के लिए. तीन वर्षों ( 2005-08) की वृद्धि समान रूप से स्थिर बनी रही जब तक कि वैश्विक मंदी नहीं आ गई। इस वैश्विक मंदी ने विश्व में लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित किया। भारत इसका अपवाद नहीं रहा है। तथापि, एक ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि मंदी के दबावों ने अन्य देशों की तुलना में भारत की वृद्धि दर में अपेक्षाकृत कम कमी की तथा अगले वर्ष ही वृद्धि ने गति पकड़ ली जो भारतीय अर्थव्यवस्था की मज़बूती का संकेत करती है। इसका अभिप्राय यह है कि आर्थिक सुधारों ने अंततः विकास प्रक्रिया पर अपने सकारात्मक प्रभावों को प्रदर्शित किया है।

आर्थिक सुधारों ने निर्धनता अनुपात में कमी उत्पन्न की है। किन्तु सभी वर्षों में समान रूप से नहीं। 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या के प्रतिशत में वृद्धि हुई है जो निर्धनता कम करनेकी अप्प्रभावकारी व्यूहरचना का संकेत करती है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने ग्रामीण वृद्धि में स्थैतिकता को इसके बड़े कारण के रूप में पहचान की है। सारांश में, सुधार के पश्चात् की अवधि में संपूर्ण परिवेश भारत में निर्धनता में अप्रभावकारी कमी को प्रदर्शित करता है।

क्या एक देश को आर्थिक वृद्धि तीव्र करने के लिए ध्यान केंद्रित करना चाहिए या इसके प्रयास समावेशी किन्तु अपेक्षाकृत कम वृद्धि पर आधारित होने चाहिए? क्या भारत में निर्धनता एवं बेरोज़गारी दो सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं जो विकास गाथा से भी परस्पर संबंधित हैं? इसका उत्तर एक सरल वृद्धि रोजगार के संबंधों पर बातचीत है। यदि वृद्धि में तीव्रता के साथ रोजगार अवसरों में तीव्रता नहीं आती है तो इससे बेरोजगारी या अल्परोजगार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो निर्धनता के पीछे एक बड़ा कारण है। सरल रूप में, प्रस्तुत करने पर सामान्यतः वृद्धि एवं गुणात्मक रोज़गार में तीव्रता, निर्धनता एवं बेरोजगारी तथा अल्परोज़गार में कमी लाती है। तथापि इस तर्क का आधार प्रभावशाली नहीं है। भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 1994-2000 की अवधि में 2.12 प्रतिशत से कम होकर 1.93 प्रतिशत हो गई। फिर भी, इसी अवधि में श्रम शक्ति तथा रोजगार में भी कमी हो गई जिसने आर्थिक सुधारों के प्रभाव पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इस आश्चर्यजनक विकास ने संगठित क्षेत्र के रोजगार के सुधारों के पूर्व की अवधि में 1.20 से कम करके सुधारों के बाद की अवधि में 0.53 कर दिया जो स्पष्ट रूप से रोजगार की गुणवत्ता में कमी की पुष्टि करता है।

इस प्रवृत्ति के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न प्रकार हैं :-

1. यद्यपि सुधार के बाद की अवधि 1994-2000 में जनसंख्या एवं श्रमशक्ति की वृद्धि दर में कमी हुई किन्तु उसी अवधि में रोजगार में वृद्धि भी कम हो गई तथा यह पर्याप्त अधिक गहनता से 1999-2005 की अवधि में 2.39 प्रतिशत से कम होकर 2004-10 की अवधि में 1.71 प्रतिशत रह गई। यह वैश्वीकरण के युग में एक गंभीर बाधा है क्योंक बढ़ती हुई श्रमशक्ति को रोजगार में लगाने के लिए रोजगार में वृद्धि तथा उसकी तीव्रता में संगति आवश्यक है। यद्यपि इस प्रकार की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण कार्यक्रम के स्वाभाविक प्रभावों के आधार पर विवेकीकरण किया गया था तथापि बहुत विलंब हो जाने से पूर्व उस स्थिति की जांच कर लेना महत्वपूर्ण है।

2, इस तालिका के आँकड़े हमें बताते हैं कि 1999-2000 से 2004-05 तक की अवधि में रोजगार की दशाओं में सुधार बहुत कम तथा 2004-05 से 2009-10 तक की अवधि में बहुत पर्याप्त था। प्रथम अवधि में संगठित क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि रोजगार या श्रमशक्ति में संपूर्ण वृद्धि की अपेक्षा बहुत धीमी थी। इस प्रकार बढ़ी हुई श्रमशक्ति अधिकांशतः असंगठित क्षेत्र में रोजगार हेतु जाती थी। इसके विपरीत द्वितीय अवधि में, श्रमिकों का असंगठित से संगठित क्षेत्र की ओर बहुत अधिक चलन था जिसके परिणामस्वरूप असंगठित क्षेत्र में काम पर लगे श्रमिकों की संख्या में वृद्धि, श्रम शक्ति में वृद्धि की अपेक्षा काफी धीमी दर से हुई।

3. संगठित क्षेत्र में औपचारिक रोजगार उसी अवधि में 1.73 प्रतिशत से बढ़कर 4.02 प्रतिशत हो गया है जो एक स्वस्थ प्रवृत्ति प्रस्तुत करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संगठित क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि रोजगार की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक होती है। इसके अतिरिक्त रोज़गार के अवसरों का सृजन करने में निजी क्षेत्र ने सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा बेहतर कार्य किया है।

अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थायें तथा भारतीय अर्थव्यवस्था में इनकी भूमिका

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्थापना यद्यपि जुलाई, 1944 में हो चुकी थी तथापि इसके अनुच्छेदों (Articles) का प्रवर्तन 27 दिसंबर, 1945 को हुआ। इसके मुख्य कार्यों में विनिमय दर, विनियमन, दुनियाभर से सदस्य देशों के लघु अवधि की विदेशी मुद्रा देनदारियों की खरीद, सदस्य देशों को विशेष आहरण अधिकार आवंटित करना (एसडीआर) आदि है। सबसे महत्वपूर्ण भुगतान संतुलन संकट की स्थिति में सदस्य देशों की सहायता करना और विनिमय दर स्थिरता और विनिमय क्रम व्यवस्था को बढ़ावा देना शामिल है।

IMF के मुख्य कार्य (Functions) निम्न प्रकार हैं :

(i) अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग का प्रोत्साहन;

(ii) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का संतुलित विकास एवं विनिमय दरों का स्थिरीकरण (stabilisation);

(iii) विनिमय प्रतिबंधों (restrictions) की समाप्ति तथा बहुपक्षीय भुगतान (multi-lateral payments) की व्यवस्था;

(iv) भुगतान संतुलन (Balance of Payment) की समस्या की स्थिति में सदस्य देशों को आर्थिक सहायता की उपलब्धि तथा अंतर्राष्ट्रीय भुगतान में आने वाले संकट का निपटारा तथा उनकी अवधि में कमी।

वर्तमान में IMF के सदस्य देशों की संख्या 188 है। इस कोष का संचालन एक 'बोर्ड ऑफ गवर्नर्स' द्वारा किया जाता है, जो प्रत्येक सदस्य देश से एक गवर्नर और एक वैकल्पिक गवर्नर से मिलकर बनता है, भारत के लिए बोर्ड में वित्त मंत्री पदेन गवर्नर जबकि रिजर्व बैंक के गवर्नर वैकल्पिक गवर्नर होता है।

आईएमएफ का रोजमर्रा का कामकाज प्रबंध निदेशक देखता है जो कि कार्यकारी निदेशक मंडल का चेयरमैन होता है। आईएमएफ में भारत का प्रतिनिधित्व कार्यकारी निदेशक करते हैं, जो भारतीय उप-महाद्वीप के तीन और देशों बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान का भी प्रतिनिधित्व करता है।

IMF अपने सदस्यों के 'कोटे' (Quota) का प्रत्येक 5 वर्षों में समीक्षा करता है। इस समीक्षा के उपरांत भारत का कोटा बढ़कर 2.75 प्रतिशत हो गया है (पहले 2.44 प्रतिशत था) तथा उसका 'रैंक' आठवाँ हो गया है (ग्यारहवाँ से बढ़कर)। ज्ञात हो कि IMF के कुल 24 अंशभूत (Constituency) हैं तथा भारत के अंशभूत में 3 अन्य देश भी शामिल हैं भूटान, बांग्लादेश एवं श्रीलंका।

विश्व बैंक

आज विश्व बैंक समूह अपने 5 अंत:संबंधित आर्थिक संस्थानों के द्वारा अपने सदस्य राष्ट्रों में कार्यशील है। इसके संस्थानों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:

अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक

IBRD विश्व बैंक का सबसे पुराना संस्थान है जो वर्ष 1945 से कार्य कर रहा है। इसका मूल उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध में युद्ध जर्जित अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण था। इसके पुनर्निर्माण के पश्चात् इसके द्वारा अन्य सदस्य देशों के विकास के लिए ऋण उपलब्ध कराया जाने लगा। बहुत कम ब्याज दर (सालाना 1.55 प्रतिशत) पर कर्ज देने का मुख्य उद्देश्य मानव विकास था। प्रमुख क्षेत्रों में कृषि, सिंचाई, शहरी विकास, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, दुग्ध विकास, इत्यादि थे। इसने भारत के लिए कर्ज देना वर्ष 1949 में शुरू कर दिया था। विश्व बैंक के 2010 में सुधार प्रक्रिया शुरू करने के बाद, भारत को आईबीआरडी में अतिरिक्त शेयर (अभी 56,739 शेयर्स जिनका मूल्य 684.47 करोड़ डॉलर है) जारी किए गए। इसके साथ ही भारत आईबीआरडी में सातवां सबसे बड़ा शेयरधारक (11वीं पायदान से ऊपर उठकर) बन गया है जिसके वोटिंग अधिकार 2.91 प्रतिशत हो गए हैं, जो पहले 2.77 प्रतिशत थे।

अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी

IDA की स्थापना 1960 में की गई। इसे विश्व बैंक की 'उदार खिड़की' (Soft Window) भी कहा जाता है, क्योंकि विश्व बैंक का कोई भी ऋण इससे 'सस्ता' नहीं होता। इसके द्वारा प्रदत्त ऋणों का उद्देश्य सदस्य देशों में आधारभूत संरचना आर्थिक सेवाओं का विकास है। वैसे देश जिनकी प्रति व्यक्ति आय $895 से कम है, उन्हें इसकी सुविधा उपलब्ध है। ऋणों का किश्त भुगतान सदस्य देशों द्वारा ग्यारहवें वर्ष प्रारंभ होता है। आज IBRD और IDA के ऋणों के बीच के उद्देश्यों का अंतर लगभग समाप्त हो गया है।

विश्व बैंक से प्राप्त होने वाला यह सबसे आकर्षण ऋण है। यही कारण है कि योग्य सदस्य देशों द्वारा प्रत्येक वर्ष उच्चस्तरीय राजनयिक प्रयास किए जाते हैं ताकि वे इसका अधिक-से-अधिक हिस्सा अपनी

तरफ आकर्षित कर सकें। स्थापना के समय से भारत IDA का सबसे बड़ा लाभ प्राप्तकर्ता रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम

IFC की स्थापना वर्ष 1956 में की गई। इसे विश्व बैंक की 'निजी भुजा/शाखा' (Private Arm) भी कहा जाता है। जहाँ IBRD एवं IDA द्वारा सदस्य राष्ट्रों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराये जाते हैं वहीं IFC सदस्य देशों के निजी क्षेत्रीय संगठनों कंपनियों को वाणिज्यिक ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है।

यह अपने सदस्य देशों की निजी क्षेत्र की कंपनियों को कर्ज देता हैं। वसूली जाने वाली ब्याज दरें व्यावसायिक होती हैं, लेकिन तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती हैं। आईएफसी द्वारा दिए जाने वाले कर्ज में कई आकर्षक विशेषताएं हैं। यह निजी निवेशकों के साथ निजी-सार्वजनिक उपक्रमों और परियोजनाओं को कर्ज और सलाह देता है और अपने परामर्श कार्य के जरिए सदस्य देशों की सरकारों के लिए ऐसी स्थितियां बनाने में सहायता करता है जिससे घरेलू और विदेशी निजी बचत और निवेश के प्रवाह में तेजी आए।

यह अपने सदस्य देशों में उत्पादक उद्यमों और कुशल पूंजी बाजार को बढ़ावा देकर आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देने में ध्यान केंद्रित करता हैं। यह निवेश में तभी भाग लेता है जब यह विशेष योगदान कर सके, जो बाजार निवेशक विदेशी वित्तीय निवेशक (एफएफआई) के रूप में) की भूमिका की पूरक हो।

बहुपक्षीय निवेश गारंटी एजेंसी

MIGA की स्थापना वर्ष 1988 में विकासशील देशों में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए की गई। इसके द्वारा विदेशी निवेशकों को सदस्य देशों में निवेश की मात्रा पर एक बीमा उपलब्ध कराया जाता है जो उनके गैर- वाणिज्यिक जोखिम (non-commercial risk) का वहन करता है। मुद्रा हस्तांतरण संबद्ध समस्या, नागरिक उपद्रव, स्वामित्वहरण (expropriation) इत्यादि जोखिमों के प्रति यह एक तरह की 'गारंटी' है। इसके अतिरिक्त यह सदस्य देशों को विदेशी निवेश के अवसरों संबंधी तकनीकी सहायता एवं सूचनाएँ भी उपलब्ध कराता है। भारत इस एजेंसी का एक सदस्य है।

अंतर्राष्ट्रीय निवेश विवाद निपटारा केंद्र

वर्ष 1966 में स्थापित अतर्राष्ट्रीय निवेश विवाद निपटान केंद्र (आईसीएसआईडी) एक निवेश विवाद निपटान संस्था है जिसके निर्णय सभी पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं। यह वर्ष 1966 में देशों और दूसरे देशों के नागरिकों के बीच निवेश संबंधी विवादों के सम्मेलन के तहत स्थापित हुआ। हालांकि इसकी मद्द लेना स्वैच्छिक है, लेकिन पक्षों के मध्यस्थता के लिए सहमत होने के बाद, वे अपनी सहमति एकतरफा वापस नहीं ले सकते। यह निवेश करने वाली विदेशी कंपनियों और मेजबान कंपनियों, जिनमें कि निवेश किया गया है, के बीच होने वाले निवेश विवादों को सुलझाती है।

भारत इसका सदस्य नहीं है (यही कारण है कि 'एनरॉन' से जुड़े निवेश विवाद को इसके द्वारा नहीं निपटाया गया था)। विशेषज्ञों की राय में इसकी सदस्यता विदेशी निवेशकों को उस देश में निवेश के लिए प्रोत्साहित करती है। दूसरी तरफ इसकी सदस्यता को सदस्य देश की 'संप्रभुता' (sovereignty) के हास का द्योतक भी माना जाता है।

विश्व व्यापार संगठन

वर्ष 1947 में सीमा शुल्क और व्यापार के लिए सामान्य समझौता (गैट) की स्थापना के बाद से बहुराष्ट्रीय व्यापार प्रणाली के विकास के फलस्वरूप विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई। उरुग्वे दौर की बातचीत का लंबा सिलसिला 1986-94 तक चला, जिसकी परिणति विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के रूप में हुई। इस वार्ता में वस्तुओं के व्यापार से संबद्ध बहुपक्षीय नियमों और अनुशासन की पहुंच का भरपूर विस्तार हुआ और कृषि व्यापार (कृषि समझौता), सेवा व्यापार (सेवा व्यापार के बारे में सामान्य समझौता-जी.ए.टी.एस.) के साथ-साथ बौद्धिक संपदा अधिकार से संबद्ध व्यापार के बारे में बहुपक्षीय नियम लागू हुए।

विश्व व्यापार संगठन नियम-आधारित, पारदर्शी और सुनिश्चित बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली प्रदान करता है। विश्व व्यापार संगठन नियम, विश्व व्यापार संगठन के अन्य सदस्यों के बाजारों को भारत के निर्यात को राष्ट्रीय व्यापार और अत्यधिक वरीयता वाले देश (एम.एफ.एन.) के रूप में भेदभाव रहित व्यवस्था प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय व्यपाहार यह सुनिश्चित करता है कि एक बार भारत के उत्पाद विश्व व्यापार संगठन के अन्य सदस्य देश के यहाँ आयात हो गए है तो उस देश के उत्पादों की तुलना में उनसे भेदभाव नहीं किया जाएगा। एम.एफ.एन. व्यापार सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि सदस्य देश विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों के बीच भेदभाव नहीं करेंगे। यदि कोई सदस्य देश यह महसूस करता है कि अन्य सदस्य की व्यापारिक नीतियों के कारण उसे निश्चित लाभ नहीं मिल रहा है तो वह विश्व व्यापार संगठन के विवाद निपटारा तंत्र के तहत मामला दायर कर सकता है। विश्व व्यापार संगठन के नियमों में आयात के प्रावधान भी हैं, जिनके सदस्य देशों को भुगतान संतुलन समस्या और अयात में तेजी से वृद्धि करने जैसी आयात स्थितियों से निपटने में मदद मिलती है। घरेलू उत्पादकों को नुकसान पहुँचाने वाले अनुचित व्यापार व्यवहार से निपटने के लिए डंपिंग-विरोधी समझौते और सब्सिडी तथा समतुल्य उपाय समझौता के तहत डपिंग-विरोधी या समतुल्य कर लगाने का प्रावधान है।

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