(आर्थिक सुधार और ग्रामीण बैंकिंग का ग्रामीण साख पर प्रभाव, ग्रामीण
साख के श्रोत और समस्याएँ)
आज
के परिदृश्य में हम जिस अर्थ में बैंकिंग शब्द का प्रयोग करते हैं उसकी उत्पत्ति
पश्चिमी दुनिया में हुई थी और भारत का इससे परिचय ब्रिटिश शासकों ने 17वीं शताब्दी
में करवाया था। तबसे बहुत कुछ हो चुका है और आज भारतीय बैंकों को विकासशील दुनिया
के सबसे अच्छे बैंकों में गिना जाता है और दुनिया के सबसे अच्छे बैंकों के रूप में
उभरने की कोशिश जारी है।
एनबीएफसी (NBFCs)
बैंक
एक वित्तीय संस्था है, जिसका प्राथमिक काम उसके खातों में जमा पैसों का इस्तेमाल
करना और ऋण देना है। इनके जमा और ऋण काफी विभेदीकृत प्रकृति के होते हैं। बैंकों
का विनियमन RBI (भारतीय रिजर्व बैंक) करता है। वित्तीय संस्थाओं की दूसरी श्रेणी
गैर-बैंक (नॉन-बैंक) का काम करीब-करीब एक जैसा ही होता है लेकिन मुख्य अंतर यह है
कि गैर-बैंक अपने यहां पैसे जमा करने वालों को खाते से पैसे निकालने नहीं देते।
एनबीएफसी
(नॉन-बैंकिंग फायनांशियल कंपनी) भारतीय वित्तीय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण
सेगमेंट के तौर पर तेजी से उभर रही है। ये अलग-अलग संस्थाओं का एक समूह (वाणिज्य
और सहकारी बैंक के अलावा) है जो पैसे जमा लेने, ऋण देने, लीज देने, किश्तों पर
खरीदने जैसी वित्तीय मध्यस्थता के काम करते हैं। एनबीएफसी-कृषि, उद्योग और
खरीद-बिक्री या अचल संपत्ति के निर्माण जैसे कुछ काम अपने व्यवसाय के तौर पर नहीं
कर सकतीं।
एनबीएफसी
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर लोगों से पैसे जुटाते हैं और उसे ज्यादा खर्च करने
वालों को ऋण के तौर पर देते हैं। ये कई थोक और खुदरा व्यापारियों, छोटे उद्योगों
और स्व-नियोजित लोगों को ऋण देते हैं। इसलिए एनबीएफसी वित्तीय क्षेत्र के उत्पादों
को विस्तार और विविधता दी है। धीरे-धीरे इनकी पहचान बैंकिंग क्षेत्र के पूरक की
तरह होने लगी है, क्योंकि :
(i)
ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक सेवा देते हैं।
(ii)
कार्यप्रणाली सरल है।
(iii)
जमा राशि पर आकर्षक ब्याज दर, और
(iv)
निर्दिष्ट क्षेत्र की ऋण जरूरतों को समय पर और लचीले तरीके के
साथ पूरा करते हैं।
एनबीएफसी
के नियामक आरबीआई ने ऐसी कंपनियों की व्यापक परिभाषा दी है। आरबीआई की परिभाषा के
मुताबिक एनबीएफसी एक कंपनी के तौर पर बनी ऐसी वित्तीय संस्थाएं है जो किसी भी
तरीके से पैसे जमा करने और ऋण देने का काम करती हैं। काम को देखते हुए इन्हें दो
मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है :
(i)
जमा लेने वाली एनबीएफसी (एनबीएफसीडी), और
(ii)
जमा नहीं लेने वाली एनबीएफसी (एनबीएफीसएनडी)।
एनबीएफसी
के लिए राशि जमा लेने वाली कंपनी के तौर पर आरबीआई में रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है।
रजिस्ट्रेशन के लिए इनका कंपनी होना (कंपनी एक्ट 1956 के तहत शामिल) और कम-से-कम 2
करोड़ एनओएफ (Net Owend Fund) होना चाहिए।
अभी
आरबीआई में 11781 एनबीएफसी रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से 212 एनबीएफसी-एनडी और 11,569
एनबीएफसी-एनडी हैं। इनमें एससीबी (अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक)
की 14.8 फीसदी संपत्ति और 0.3 फीसदी जमा राशि है।
भारतीय रिजर्व बैंक
भारतीय
रिजर्व बैंक (RBI) की स्थापना वर्ष 1935 में (CBI Act, 1934) एक निजी बैंक के रूप
में की गयी थी। इसे सामान्य बैंकिंग व्यवसाय के साथ दो अन्य कार्य-भारत में
विद्यमान बैंकों का नियमन तथा नियंत्रण करना एवं सरकार के बैंक की भूमिका निभाना
भी दिए गए थे। भारत द्वारा वर्ष 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण (इसके शत-प्रतिशत शेयर
निजी स्वामित्व से खरीद लिए गए) कर दिया गया तथा इसे विश्व के अन्य देशों की तरह
'केंद्रीय बैंकिंग निकाय' (Central Banking Body) का दर्जा प्रदान किया गया। इसके
साथ ही RBI तकनीकी तौर पर एक 'बैंक' नहीं रह गया (अर्थात् यह सामान्य बैंकिंग
व्यवसाय नहीं कर सकता।) RBI राष्ट्रीयकरण अधिनियम तथा आने वाले समय की
अपनी कई घोषणाओं के माध्यम से सरकार द्वारा इसे कई कार्य
(Functions) सौंपे गए, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
(i) निर्गम एजेंसी (Issuing Agency)-यह
एक रुपए के नोट एवं सिक्कों तथा छोटे सिक्कों को छोड़कर सभी
करेंसी नोट एवं सिक्कों का 'निर्गम एजेंसी' का कार्य करता है (एक रुपए के नोट एवं
सिक्के तथा एक रुपए से छोटे सिक्के प्रत्यक्षत: वित्त मंत्रालय द्वारा निर्गमित'
होते हैं)।
(ii) वितरणकारी एजेंसी (Distributing Agency)-RBI
अपने एवं सरकार (वित्त मंत्रालय) द्वारा निर्गमित नोटों एवं
सिक्कों का 'वितरणकर्ता' भी है।
(iii) सरकार का बैंक (Banker of the Government)-इसके
अन्तर्गत RBI भारत सरकार के बैंक बैंकर का कार्य किया जाता है। इसके अन्तर्गत यह सरकार के ऋण का प्रबन्धन, उसके द्वारा किए गए ट्रेजरी
बिलों (Treasury Bills) की खरीद इत्यादि कार्य सम्पादित करता है।
(iv) अन्तिम घड़ी का बैंक (Bank of the Last Resort)-इसके
अन्तर्गत RBI देश में कार्य करने वाले सभी अनुसूचित वाणिज्यिक
बैंकों (SCBs). वित्तीय संस्थानों को संकट की अवधि में आर्थिक सहायता (ऋण स्वरूप)
उपलब्ध कराता है।
(v) मौद्रिक एवं साख नीति (Credit and Monetary)-RBI
द्वारा ही भारत की मौद्रिक एवं साख नीति की घोषणा की जाती है।
आमतौर पर इसकी घोषणा वर्ष में दो बार व्यस्त काल (Busy Season) तथा सुस्त काल
(Slack Season) के प्रारम्भ होने के पूर्व की जाती है, लेकिन
आवश्यकता पड़ने पर इसमें सामयिक परिवर्तन भी होता रहता है।
(vi) विनिमय दर स्थिरीकरण (Exchange Rate Stabilisation -
RBI को भारतीय मुद्रा 'रुपए' के विनिमय दर को स्थिरीकृत रखने का
भी कार्य सौंपा गया है।
(vii) मुद्रास्फीति स्थिरीकरण (Inflation Stabilisation) मुद्रास्फीति
दर के बार-बार उच्च-स्तरीय होने की स्थिति में सरकार ने इसे (1970
के दशक के उत्तरार्द्ध में) मुद्रास्फीति स्थिरीकरण का भी कार्य
सौंपा। वर्ष 2015 में मुद्रास्फीति 'टारगेटिंग' (CPI-C) कार्य सौंपा गया।
(viii) विदेशी विनिमय भंडार का संग्रहकर्ता (Keeper of the Foreign
Exchange Reserves)-भारत के विदेशी विनिमय भंडार का यह अन्तिम संग्रहकर्ता है तथा यह इसका प्रबन्धन भी करता है।
(ix) सरकार का एजेंट (Agent of the Government)-इसके
अन्तर्गत यह अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), इत्यादि में सरकार
के एजेंट (प्रतिनिधि) के रूप में कार्य करता है।
(x) विकास/प्रोत्साहन सम्बन्धी कार्य (Developmental/Promotional
Function)-उपरोक्त कार्यों (जो विश्व की लगभग सभी केन्द्रीय बैंकों द्वारा किए जाते हैं) के अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा इसे
अर्थव्यवस्था विकास एवं प्रोत्साहन का भी कार्य सौंपा गया है। अपने इस
उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए RBI द्वारा कई विशेषीकृत वित्तीय संस्थानों/
बैंकों की स्थापना की गयी हैं भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), भारतीय लघु
उद्योग विकास बैंक (SIDBI), राष्ट्रीय कृषि विकास बैंक (NABARD), राष्ट्रीय आवासीय
बैंक (NHB) इत्यादि।
मौद्रिक एवं साख नीति
किसी
अर्थव्यवस्था की वह नीति, जिसके द्वारा उसमें होने वाले मुद्रा प्रवाह/प्रचलन की
मात्रा विनियमित होती है उसकी मौद्रिक एवं साख नीति कहलाती है। विश्व की सभी
अर्थव्यवस्थाओं में इसकी घोषणा वहाँ के 'केन्द्रीय बैंक' द्वारा की
जाती है। कुछ देशों में इस नीति को 'निर्मित' करने का कार्य भी
इन्हें ही सौंपा गया है। भारत में स्थिति भिन्न है। यहाँ इस पर अंतिम निर्णय वित्त
मंत्रालय (भारत सरकार) का है। वैसे उदारीकरण की अवधि में भारत में इस विषय पर काफी
विवाद भी रहा। इस मामले में (RBI) को पूरी स्वायत्तता (Autonomy) देने की सलाह दी
गयी थी (नरसिंहम समिति-I) सरकार द्वारा ऐसा कुछ किया नहीं गया, लेकिन इस मामले में आज RBI को लगभग 'कार्यकारी स्वायत्तता' (Working Autonomy)
प्राप्त है ऐसा माना जाता है।
आरबीआई
सीआरआर, एसएलआर, बैंक रेट, रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट, एमएसएफ रेट, ओमएमओ जैसे
कई साधनों से जरूरी क्रेडिट और मॉनिटरी (ऋण या साख और मौद्रिक नीति) पॉलिसी
नियंत्रण में रखती है। जिन पर आरबीआई का नियंत्रण है।
नकद आरक्षण अनुपात
नकद
आरक्षण अनुपात (Cash Reserve Ratio-CRR) भारत में कार्य करने वाले अनुसूचित बैंकों
(देशी एवं विदेशी) के सकल जमाओं का वह अनुपात है, जो उन्हें RBI के पास 'नकद' रूप
में रखना अनिवार्य है। इस अनुपात की मात्रा क्या होगी इसे RBI तय करती है जो 3 से 15
प्रतिशत के बीच हुआ करता था। सरकार ने एक संशोधन द्वारा (वर्ष 2007) इसके निचले स्तर
की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अत: अब यह ) 15 प्रतिशत के
बीच हो सकता है।
मार्च
2018 में यह 4 प्रतिशत था तथा इसमें । प्रतिशत की वृद्धि से भारतीय बैंकिंग उद्योग
से RBI की ओर 98,000 करोड़ रु. प्रवाहित होता है। वित्तीय व्यवस्था पर नरसिम्ह
समिति की सिफारिशों (1991) पर कार्रवाई करते हुए सरकार ने सीआरआर से संबंधित दो
प्रमुख बदलाव किए :
(i)
सीआरआर को कम करना एक मध्यम-अवधि के एक लक्ष्य के रूप में तय
किया गया और इसे धीरे-धीरे 1992 में इसके शीर्ष 15 फीसदी से जून 2003 तक
4.5 पर ले आया गया। जून 2006 में आरबीआई (संशोधन) कानून के लागू
होने के बाद, आरबीआई अब सीआरआर को बगैर किसी न्यूनतम या अधिकतम दर के अनुसूचीबद्ध
बैंकों के लिए भी निर्धारित कर सकता था इसलिए तीन फीसदी की वैधानिक न्यूनतम सीआरआर
सीमा को हटा दिया गया।
(ii)
सीआरआर राशि का अनुसूचीबद्ध बैंकों को आरबीआई द्वारा ब्याज दिया
जाना वित्त वर्ष 1999-2000 में शुरू हुआ (बैंकिंग में सुस्ती आने के बाद)। हालांकि
आरबीआई ने 2007 के मध्य से ब्याज का भुगतान बंद कर दिया।
सांविधिक तरलता अनुपात
सांविधिक
तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio-SLR) भारत में कार्य करने वाले सभी
अनुसूचित बैंकों (देशी तथा विदेशी) की सकल जमाओं का वह अनुपात है, जिसे उन्हें
अपने ही पास विद्यमान रखना है-यह गैर-नकद (Non-Cash) भी हो सकता है। इसके स्तर को
RBI निर्धारित करती है, जिसे वह 25-40 प्रतिशत के बीच रख सकती है।
यह
अनुपात 25 फीसदी तक कम कर दिया गया (सीएफएस सुझावों के बाद अक्टूबर 1997 में किया
गया।) यह 38.5 फीसदी तक ऊंचा हुआ करता था। सीएफएस ने सरकार को सलाह दी थी कि वह इस
राशि का इस्तेमाल बैंकों को सरकारी सिक्योरिटी (जी-सिक्स) देने के लिए करें। यह
सलाह दी गई थी कि इसके बजाय सरकार को बाजार आधारित ब्याज देने चाहिए। हालांकि
सरकार ने इस संबंध में बाद में कोई बात नहीं की। भारत सरकार ने एक संशोधन (2007)
के जरिये एसएलआर के लिए न्यूनतम 25 फीसदी को खत्म कर दिया जिससे इसे तय करने के
लिए आरबीआई स्वतंत्र हो गया। मार्च 2018 तक यह 19.5 प्रतिशत था।
बैंक दर
वह
ब्याज दर जिस पर RBI द्वारा अपने ग्राहकों (सरकारों, सरकारी कंपनियों, बैंकों,
वित्तीय संस्थानों, इत्यादि) को दीर्घावधिक (Long-Term) ऋण दिया जाता है, 'बैंक
दर' कहलाती है। जो ब्याज दर आरबीआई अपने लंबी अवधि के ऋणों पर वसूलता है उसे बैंक
रेट कहते हैं। जो ग्राहक इस तरह के ऋण लेते हैं वे होते हैं भारत सरकार, राज्य
सरकारें, बैंक, वित्तीय संस्थान, को-ऑपरेटिव बैंक, एनबीएफसी आदि। इस दर का भारतीय
वित्त प्रणाली में सक्रिय संबंधित ऋणदाता संस्थाओं के लंबी अवधि के ऋणों पर सीधा
असर पड़ता है। फरवरी 2012 में इस दर को एमएसएफ (मार्जिनल स्टैंडिंग
फैसिलिटी) के अनुरूप किया गया था। मार्च 2018 में यह दर 6.25
प्रतिशत थी।
रेपो दर
वह
ब्याज दर जिस पर RBI द्वारा अपने ग्राहकों को लघु अवधि (Short- Term)
ऋण उपलब्ध कराया जाता है उसे भारत में 'रेपो दर' कहते हैं। वास्तव
में यह 'पुनर्खरीद दर' (Rate Of Repurchase) का लघु रूप है जिसे पश्चिम की विकसित
अर्थव्यवस्थाओं में 'पुनर्कटौती दर' (Rate of Discount) कहा जाता है।
व्यवहार
में इसे ब्याज दर नहीं कहा जाता बल्कि पुरानी सरकारी सिक्योरिटीज पर छूट माना जाता
है, जिन्हें संस्थान कम-अवधि के ऋण के लिए जमा करते हैं। जब उन्हें अपनी
सिक्योरिटी आरबीआई, से मिल जाती है, उसकी कीमत वर्तमान रेपो रेट की राशि जितनी कम
हो जाती है। भारत का कॉल मनी मार्केट या माग मुद्रा बाजार (अंतर बैंक बाजार) इसी
दर पर काम करता है और बैंक इस रास्ते का इस्तेमाल रातों-रात उधार लेने के लिए करते
हैं। इस दर का सीधा संबंध उस दर (क्योंकि ये बैंकों की ऑपरेशन कॉस्ट पर असर डालता
है) से है जिस पर बैंक ग्राहकों को लोन देते हैं। यह दर मार्च 2018 में 6 फीसदी
थी। अक्टूबर 2013 में एक रात से ज्यादा की नकदी के लिए पहली बार 'टर्म
रेपोस' (अलग-अलग तरह के, जैसे 7/14/28 दिन) का इस्तेमाल किया
गया। मजबूत मुद्रा बाजार, स्थिरता और ऋण से जुड़े उत्पादों का बेहतर लागत निर्धारण
जैसे इसके कई लक्ष्य हैं।
प्रतिवर्ती रेपो दर
वह
ब्याज दर, जो RBI अपने ग्राहकों को उनसे लिए गए लघु अवधि के ऋणों पर दी जाती है
'प्रतिवर्ती रेपो दर कहलाती है जो वर्तमान (मार्च 2018) में 5.75 प्रतिशत
थी।
व्यवहार
में भारत में काम कर रहे वित्तीय संस्थान अपना अतिरिक्त धन आरबीआई के पास कम अवधि
के लिए लगाकर उससे पैसा कमाते हैं। इसका सीधा असर बैंकों और वित्तीय संस्थानों
द्वारा तरह के ऋणों की ब्याज दरों पर पड़ता है।
इस
रास्ते का इस्तेमाल आरबीआई ने भारतीय बैंकों को अतिरिक्त मुद्रा आपूर्ति और कम ऋण
जारी करने के बाद किया था। यह बैंकों के घाटे और प्रचलित ब्याज दर को कम करने के
दोहरे उद्देश्य से किया गया था। यह सस्ते ब्याज वाले शासन-जो सुधार शुरू होने के
बाद से आमतौर पर आरबीआई की नीति रही है की दिशा में चलने के लिए एक महत्वपूर्ण
उपकरण के रूप में उभरा है।
मार्जिनल स्टैंडिंग सुविधा
एमएसएफ
एक नई योजना है जिसकी घोषणा आरबीआई ने 2011-12 की मौद्रिक नीति में की, जो मई,
2011 से लागू है। इस योजना के तहत, बैंक रातों-रात अपनी रेट डिमांड एंड टाइम
लायबिलिटीज (एनडीटीएल) का एक फीसदी आरबीआई से उधार ले सकते हैं, वर्तमान रेपो रेट
से एक फीसदी (100 बेसिस पॉएंट्स) ज्यादा। रुपये को मजबूत करने और अपनी गिरती हुई
विनिमय दर पर नियंत्रण के लिए आरबीआई ने 'रेपो' और 'एमएसएफ' के बीच
अंतर तीन फीसदी तक बढ़ा दिया था (जुलाई 2013)।
एमएसएफ
रेट को दंडात्मक दर यानी पीनल रेट के रूप में शुरू किया गया था और 2015 के मध्य से
आरबीआई ने इसे वर्तमान रेपो रेट से एक फीसदी अधिक रखा है। मार्च 2018 में यह दर
6.25 फीसदी थी जो कि बैंक रेट के जितनी ही थी।
दूसरे साधन
उपर्युक्त
साधनों के अलावा आरबीआई क्रेडिट और मॉनिटरी पॉलिसी (ऋण या साख और मौद्रिक
नीति) को गतिशील रखने के लिए कई तरह के उपाय करती है :
(i) कॉल मनी मार्केट-कॉल मनी मार्केट, मुद्रा बाजार
का एक अहम हिस्सा है जहां फंड उधार लेने और देने का काम रातों
रात होता है। आजकल भारत में कॉल मनी मार्केट में हिस्सा लेने वालों में क्षेत्रीय
ग्रामीण बैंकों को छोड़कर अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (एससीबी), को-ऑपरेटिव बैंक
(भूमि विकास बैंक के अलावा) बीमा कंपनियां आदि शामिल हैं। कॉल मनी मार्केट में इन
सभी के लिए उधार देने और लेने दोनों की एक विवेकसम्मत सीमा आरबीआई ने तय की है।
हाल के दिनों में इस बाजार में आरबीआई ने कई बदलाव किए हैं। अप्रैल 2016 तक रेपो
रेट पर ओवरनाइट फैसिलिटी के तहत बैंक अपने एनडीटीएल (नेट डिमांड एंड टाइम
लायबिलिटीज यानी बैंक की कुल जमा राशि) का सिर्फ एक फीसदी ही उधार दे सकते थे।
एनडीटीएल के बाकी 0.75 फीसदी के लिए बैंक अलग-अलग आशय के टर्म रेपो का इस्तेमाल कर
सकते हैं। एक मायने में 2013 के अन्त से आरबीआई बैंकों को अल्पकालिक वित्तीय
जरूरतों को पूरा करने के लिए रेपो को इस्तेमाल करने को हतोत्साहित कर रहा है और
बदल में टर्म रेपो को बढ़ावा दे रहा है। स्थिरता बढ़ाना और ऋण की बेहतर कीमत इस
बदलाव का उद्देश्य है।
(ii) ओपन मार्केट ऑपरेशंस (ओएमओ)-आरबीआई बाजार में से
सरकारी प्रतिभूति की खरीद/बिक्री के जरिए ओएमओ का संचालन करती
है। इस उद्देश्य बाजार में नकदी की स्थिति को व्यवस्थित करना होता है। ओएमओ आरबीआई
का प्रभावी नीतिगत हथियार है लेकिन किसी समय में सरकारी प्रतिभूति के मौजूद स्टॉक
के कारण उसकी मजबूरी भी नजर आती है। संस्थानों के अलावा अब अकेला व्यक्ति भी इस
बाजार में हिस्सा ले सकता है (वर्ष 2017 के इस निर्णय का कार्यान्वयन अभी होना
है।
(iii) लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी (एलएएफ)-एलएएफ
आरबीआई की मौद्रिक नीति संरचना परिचालन में काफी अहम है। हर दिन
आरबीआई तय ब्याज दर (रेपो और रिवर्स रेपो रेट) पर जरूरत के हिसाब से बैंकों से
पैसे उधार लेने या देने के लिए तैयार रहता है। बैंकों के फंड में असन्तुलन पर
नियंत्रण के साथ एलएएफ ऑपरेशन आरबीआई को प्रभावी तरीके से ब्याज दर के संकेत बाजार
को भेजने में मदद करता है। रेपो उधार और टर्म रेपो के नियम से जुड़े हालिया बदलाव
से 2013 के बाद इस सेवा में काफी बदलाव आया है।
(iv) मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम (एमएसएस)-मौद्रिक
प्रबन्धन के लिए एमएसएस 2004 में शुरू किया गया। बड़ी मात्रा में
पूँजी के बाजार में आने से ज्यादा समय तक रहने वाली अतिरिक्त नकदी को अल्पकालिक
सरकारी प्रतिभूति और राजकोष बिल के जरिए कम किया जाता है। जुटाई गई राशि को रिजर्व
बैंक के एक अलग खाते में रखा जाता है। इसलिए इसमें एसएलआर और सीआरआर दोनों की
विशेषताएँ हैं।
(v) स्टैडिंग डिपॉजिट फैसिलिटी स्कीम (SDFS)-इस
नयी योजना की घोषणा संघीय बजट 2018-19 में की गयी। वैसे इस
प्रकार की योजना की आवश्यकता की घोषणा आरबीआई द्वारा नवम्बर 2015 में ही की
गयी थी। इस योजना का उद्देश्य है-आरबीआई के हाथों में एक ऐसा
साधन (tool) प्रदान करना जिसके माध्यम से वह अर्थव्यवस्था में प्रवाहित अत्यधिक फंड
(मुद्रा) का बेहतर प्रबन्धन कर सके। नवम्बर 2016 में सरकार द्वारा जब विमुद्रीकरण
किया गया था तब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई थी।
बेस दर
बेस
रेट वह ब्याज दर है जिसके नीचे अनुसूचीबद्ध व्यावसायिक बैंक (एससीबी)
अपने ग्राहकों को कोई ऋण नहीं देंगे-इसका अर्थ यह हुआ कि यह
प्राइम लेडिंग रेट (पीएलआर) की तरह है और पहले की मानदंड पीएलआर है और दरअसल ब्याज
की एक न्यूनतम दर है। इसने एक जुलाई, 2010 को बीपीएलआर के मौजूदा विचार की जगह ले
ली।
बीपीएलआर
प्रणाली (जबकि मौजूदा प्रणाली पीएलआर थी) को 2003 में पेश किया गया, लेकिन
यह उधार देने की दरों में पारदर्शिता लाने के अपने मूल उद्देश्य
को पूरा करने में नाकाम रही। यह मुख्यत: इस वजह से हुआ कि इस प्रणाली के तहत बैंक
बीपीएलआर से नीचे भी ऋण दे सकते थे। इससे कर्जदाता बैंक के साथ मोल भाव करते थे और
अन्ततः एक कर्जदाता दूसरे के मुकाबले सस्ता ऋण ले लेता था और ऋण व्यापार में
पारदर्शिता लाने की कोशिशों को धुंधला कर देता था। इसी वजह से रिजर्व बैंक की नीति
दरों (रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, बैंक रेट) से लेकर बैंकों की उधार देने की दरों
तक सम्प्रेषण का अनुमान लगाना मुश्किल हो गया था। बेस रेट सिस्टम का उद्देश्य
बैंकों की उधार देने की दरों में पारदर्शिता लाना और मौद्रिक नीति के सम्प्रेषण का
अनुमान लगाना बेहतर बनाना था।
2010
में आरबीआई द्वारा इसके विनियमन के बाद बैंक अपना बेस रेट खुद तय
करते हैं। इसलिए अलग-अलग बैंकों के बेस रेट उनकी ऑपरेशनल कॉस्ट के हिसाब से
अलग-अलग होते हैं। बैंक अपने बेस रेट से कम दर पर लोन नहीं दे सकते। मार्च 2017 तक
बैंकों के बेस रेट 9.25 से 9.65 के बीच थे।
वित्तीय
वर्ष 2015-16 तक क्रेडिट और मौद्रिक नीति प्रबन्धन के लिए कई नए कदम उठाए गए।
प्रमुख कदम नीचे दिए जा रहे है-
(i)
अब हर महीने में एक बार मौद्रिक नीति की समीक्षा।
(ii)
अवस्फीति के लिए जाने के रास्ते को मान्यता (ग्लाइड पाथ फॉर डिसइंफ्लेशन)
उर्जित पटेल समिति की रिपोर्ट लागू)। इसके तहत सीपीआई-सी को आरबीआई मौद्रिक
प्रबन्धन के लिए 'हेडलाइन इंफ्लेशन' (Headline Inflation) के तौर पर इस्तेमाल करती
है।
(iii)
एक मॉनिटरी पॉलिसी फ्रेमवर्क (मौद्रिक नीति ढाँचा) बनाया गया है-इसको
लेकर भारत सरकार और आरबीआई के बीच 2015 में एक समझौते पर दस्तखत हुए। इस ढाँचे के
तहत आरबीआई 2 फीसदी के परिवर्तन के साथ 4 फीसदी महँगाई का लक्ष्य रखेगी। इसका ये मतलब हुआ कि महँगाई की दर 2 से 6 फीसदी (सीपीआई-सी
की) के बीच ही होनी चाहिए।
(iv)
मौजूदा रेपो रूट के अलावा 7, 14 और 28 दिन का टर्म रेपो शुरू किया
गया है।
(v)
आरबीआई धीरे-धीरे बैंकों की नकदी (तय रेपो रेट पर) तक पहुँच कम
कर रहा है और टर्म रेपो पर निर्भरता को बढ़ावा दे रहा है। मार्च 2016 तक बैंक कॉल
मनी मार्केट से अपने एनडीटीएल का सिर्फ एक फीसदी ही उधार ले सकते थे। रेपो के जरिए
0.25 फीसदी और बाकी 0.75 फीसदी टर्म रेपो के जरिए। आरबीआई का लक्ष्य पूरे इंटरेस्ट
रेट स्पेक्ट्रम में नीतियों के प्रभाव का प्रसार बेहतर करना और लोन बाजार को
स्थिरता देना है।
एमसीएलआर
देश
भर के बैंकों ने 2016-17 के वित्तीय साल से (पहली अप्रैल, 2016 से) उधार देने की
अपनी ब्याज दर को तय करने के लिए नई विधि अपनाई है। इस विधि का नाम है एमसीएलआर
(मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स बेस्ड लेंडिंग रेट-धन की सीमान्त लागत के आधार पर ऋण
दर)। इसे भारतीय रिजर्व बैंक ने दिसम्बर, 2015 में जारी किया था। एमसीएलआर की
मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं
•
यह समय आधारित आन्तरिक बेंचमार्क होगा, जिसे सालाना तौर पर तय
किया जा सकता है।
•
वास्तविक ब्याज दर एमसीएलआर में वृद्धि जोड़ने पर तय होगी।
•
इसकी प्रत्येक महीने समीक्षा होगी और वह भी पहले से घोषित तिथि
को।
•
मौजूदा कर्जदार को उससे चुनने का विकल्प होगा।
•
बैंक अपने बेस रेट की समीक्षा करते रहेंगे और उसे जारी भी करेंगे। जिस तरह से अब तक करते रहे हैं।
आरबीआई
के प्रावधान के मुताबिक मौद्रिक संचरण के लिए ब्याज दरों की पॉलिसी रेट के प्रति
संवेदनशील होना चाहिए। लेकिन यह अभी नहीं हो रहा है। 2015-16 के दौरान रिजर्व बैंक
ने रेपो रेट (पॉलिसी रेट) में 1.25 फीसदी की कमी की थी। लेकिन उसकी तुलना में
बैंकों ने अपनी दरों में अधिकतम 0.6 प्रतिशत की कटौती की थी। अब से बैंक अपने बेस
रेट निर्धारित करने के लिए निम्नाकित तीन तरीकों में से किसी का इस्तेमाल करेंगे-
(a)
फंड का औसत मूल्य
(b)
फंड का सीमान्त मूल्य या
(e)
फंड का मिश्रित मूल्य (देनदारी)
भारतीय
रिजर्व बैंक के मुताबिक एमसीएलआर से निम्नांकित फायदे होंगे-
•
पॉलिसी रेट की दर पर ही बैंकों की ब्याज दर होगी।
•
बैंकों के ब्याज दर निर्धारित करने की प्रक्रिया ज्यादा पारदर्शी
होगी।
•
कर्ज का मूल्य लेने वाले उपभोक्ताओं के साथ-साथ बैंक के लिए भी
अनुकूल होंगे।
•
इसके जरिए बैंक ज्यादा प्रतिस्पर्धा होकर काम कर पाएंगे और ये लम्बी
अवधि के लिहाज से उनके लिए भी बेहतर होगा।
भारत बैंकिंग का राष्ट्रीयकरण एवं विकास
भारत
में बैंकिंग उद्योग का विकास उसके राष्ट्रीयकरण की कहानी से जुड़ा हुआ है। एक बार
जब 1949 में जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का राष्ट्रीयकरण हो गया और यह एक
केन्द्रीय बैंक के तौर पर स्थापित हो गया तो सरकार ने निम्नलिखित प्रमुख कारणों से
कुछ चुने हुए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विचार किया-
(i)
बैंक क्योंकि निजी क्षेत्र द्वारा प्रबन्धित और संचालित किए जाते थे ऐसे में बैंकिंग सुविधाओं की पहुँच बेहद सीमित थी आम लोगों की बैंकिंग सेवाओं
तक कोई पहुँच नहीं थी।
(ii)
सरकार को संसाधनों को ऐसे निर्देशित करने की जरूरत थी जिससे ज्यादा
जनता का फायदा हो सके।
(iii)
अर्थव्यवस्था के व्यवस्थित विकास के लिए यह जरूरी है कि अर्थव्यवस्था
में आ रही पूँजी पर एक निश्चित हद तक सरकार का नियंत्रण हो। भारत में बैंकों का
राष्ट्रीयकरण निम्नलिखित दो चरणों में हुआ।
एसबीआई का उद्भव
1955
में एसबीआई एक्ट को लागू करने के साथ भारत सरकार ने तीन शाही
बैंकों (मुख्य रूप से तीन पूर्व सूबों में 466 ब्रांचों के जरिए संचालित) को आंशिक
तौर पर राष्ट्रीयकृत कर दिया और उनका नाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया रखा-इसके साथ भारत
में पहला सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक सामने आया। इस आंशिक राष्ट्रीयकरण से आरबीआई
ने 92 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली।
इस
प्रयोग से सन्तुष्ट होकर सरकार ने सम्बन्धित कदम उठाते हुए आठ और निजी बैंकों
(अच्छी क्षेत्रीय उपस्थिति वाले) का एसबीआई (एसोसिएट) एक्ट, 1959 के जरिए
आंशिक रूप से राष्ट्रीयकृत कर दिया और इन्हें एसबीआई के सहयोगी
बैंक का नाम दिया गया। आरबीआई ने इनमें भी 92 फीसद की हिस्सेदारी हासिल कर ली।
स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर और स्टेट बैंक ऑफ जयपुर के आपस में विलय के बाद आरबीआई स्टेट
बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर लेकर आया। एसबीआई समूह में अब कुल 6 बैंक हैं जिनमें एक
एसबीआई है और पाँच उसके सहयोगी बैंक हैं।
राष्ट्रीयकृत बैंकों का उद्भव
आशिक
राष्ट्रीयकरण के प्रयोग की सफलता के बाद सरकार ने बैंकों के पूर्ण राष्ट्रीयकरण का
फैसला किया। बैंकिंग राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1969 की मदद से सरकार ने कुल 20 निजी
बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया-
(i)
50 करोड़ से ज्यादा की जमा पूँजी वाले 14 बैंकों का जुलाई 1969 में
राष्ट्रीयकरण किया गया।
(ii)
200 करोड़ से ज्यादा की जमा पूँजी वाले 6 बैंकों का अप्रैल 1980 में
राष्ट्रीयकरण किया गया।
सितम्बर
1993 में घाटे में चल रहे न्यू बैंक ऑफ इंडिया के पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) में
विलय के बाद राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या घटकर 19 हो गई। आज भारत में
सार्वजनिक क्षेत्र के 27 बैंक हैं जिनमें से 11) राष्ट्रीयकृत हैं (यद्यपि किसी भी
तथाकथित राष्ट्रीयकृत
बैंक
में सरकार का सौ फीसदी स्वामित्व नहीं है।) बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सरकार
ने प्राइवेट सेक्टर में बैंक खोलने बन्द कर दिए हालाँकि कुछ निजी विदेशी बैंकों को
देश में संचालन की इजाजत दी गई जिससे वो बाह्य मुद्रा में कर्ज उपलब्ध करा सकें।
आर्थिक
सुधारों की दिशा में भारत के बढ़ने के बाद सरकार ने वित्त वर्ष 1992-93 में
बैंकिंग सिस्टम में समग्र सुधार शुरू किया। इसी से जुड़े तीन कदमों से देश में
बैंकिंग सेक्टर के और विस्तार को दिशा मिली-
(i)
1993 में एसबीआई (संशोधन) अधिनियम के जरिए एसबीआई को पूँजी बाजार
में उतरने की इजाजत मिली। इस अधिनियम के तहत एसबीआई 33 फीसदी तक अपने शेयर बेच
सकता था। फिलहाल भारत सरकार के पास एसबीआई के 591.73 फीसद शेयर हैं (9 जुलाई, 2007
को भारत सरकार ने आरबीआई से समूची हिस्सेदारी ले ली थी। इसलिए आरबीआई का अब एसबीआई
या उसके सहयोगी बैंकों पर कोई स्वामित्व नहीं है।) 10 अक्टूबर, 2007 को सरकार
ने एसबीआई में अपने शेयर को 53 फीसद तक करने के प्रस्ताव का ऐलान किया, जिससे बैंक
पूँजीकरण के लिए जा सकें।
(ii)
1994 में सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों को भी बैंकिंग कम्पनी (संशोधन) अधिनियम,
1994 के जरिए अपने 33 फीसद तक शेयर बेचकर पूँजी बाजार में उतरने
की इजाजत दे दी। इसके बाद से ही अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए कई राष्ट्रीयकृत बैंक
पूँजी बाजार का रूख अख्तियार कर चुके हैं। इनमें इंडियन ओवरसीज बैंक अग्नणी था। इन
बैंकों को यद्यपि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कहना ही सही होगा (क्योंकि इन बैंकों
में भारत सरकार की 50 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी है। लेकिन इन्हें अब भी
राष्ट्रीयकृत बैंक के तौर पर ही जाना जाता है।
(iii)
1994 में खुद सरकार ने देश में निजी बैंकों को खोलने की इजाजत दे
दी। इस नए दौर का पहला निजी बैंक था-यूटीआई बैंक। इसके बाद से देश में अब तक कई
दर्जन भारतीय और विदेशी बैंक खुल चुके हैं।
इस
लिहाज से हम देख सकते हैं कि 1993-94 के बाद देश में बैंकों को लेकर नीतियों में
व्यापक बदलाव हुआ। एक सामान्य सिद्धान्त के तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र और राष्ट्रीयकृत
बैंकों को निजी क्षेत्र की कम्पनियों में बदला जाना है। लेकिन इनमें सरकार की
न्यूनतम होल्डिंग क्या हो ये अब भी बहस का विषय है और इसका निर्धारण नहीं हुआ है।
बैंकों को सुदृढ़ करने की नीति सरकार अब भी अपना रही है, जिससे ये बैंक अपनी पूंजी
के दायरे को विस्तार दे पाएं और ग्लोबल बैंकिंग प्रतिस्पर्धा में महत्वपूर्ण
खिलाड़ी के तौर पर उभर सकें। विशेषज्ञों के मुताबिक इसमें होने वाली कोई भी देरी
उनके हितों को बाधित करेगी।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (RRBS)
क्षेत्रीय
ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) की स्थापना 2 अक्टूबर, 1975 को की गई थी। तब इनकी संख्या
पांच थी। इनका उद्देश्य बैंकिंग सेवा को ग्रामीण जनता के घरों तक पहुंचाने का था,
खास तौर पर दूरदराज के इलाकों में जहां बैंकिंग की कोई सुविधा नहीं थी। इसे दो
दायित्वों का निर्वह्न करना था :
(i)
समाज के कमजोर वर्ग को सस्ती ब्याज दर पर उधार उपलब्ध कराना जो
पहले साहूकारों पर ही निर्भर था, और
(ii)
ग्रामीण इलाकों में बचत को बढ़ावा देना और वहां उत्पादक गतिविधियों
में सहयोग देना।
आरआरबी
के लिए भारत सरकार, संबंधित राज्य सरकार और उसे प्रायोजित करने वाला बैंक पूंजी
साझा करते थे। ये अनुपात क्रमश: 50 फीसदी, 15 फीसदी और 35 फीसदी का रहता है।
आरआरबी का संचालन क्षेत्र राज्य में अधिसूचित कुछ जिलों तक ही सीमित होता है।
केलकर
समिति की सिफारिशों को मानते हुए सरकार ने 1987 में नए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों
की स्थापना बंद कर दी। उस समय तक इनकी संख्या 196 थी। सामाजिक बैंकिंग की
तरफ अत्यधिक झुकाव और आर्थिक रूप से बेहद कमजोर वर्ग को कर्ज
देने के चलते 1980 के दशक की शुरुआत में ये बैंक काफी घाटे में चले गए। इन बैंकों
के पुनर्गठन और मजबूती के लिए सरकार ने दो समितियां बनाईं। भंडारी समिति (1994-95)
और बासु समिति (1995-96)। 1998-99 में जब सरकार ने कुछ गंभीर फैसले लिए तक 196 में
से 171 बैंक घाटे में चल रहे थे। ये फैसले थेः
(i)
रियायती लोन की बाध्यता खत्म होगी और आरआरबी अपने कर्ज पर ब्याज
की वाणिज्यिक दरें वसूलने लगे।
(ii)
लक्षित ग्राहक वर्ग (ग्रामीण जनता, कमजोर वर्ग) को ही कर्ज देने की
बाध्यता खत्म यानी अब कोई भी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक से कर्ज ले सकता था।
उपरोक्त
नीतिगत बदलावों के बाद क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक लाल निशान/घाटे से उबरने लगे।
सीएफएस ने अनुशंसा की कि आरआरबी का उनका प्रबंधन करने वाले राष्ट्रीयकृत या
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में विलय कर देना चाहिए और अंतत: उन्हें भारत के होने
वाले त्रि-स्तरीय बैंकिंग सेक्टर का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। फिलहाल देश में 40
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (एकीकरण के पश्चात्) काम कर रहे हैं यद्यपि उनके
एकीकरण की प्रक्रिया जारी है।
सहकारी बैंक
भारत
में बैंकों को मुख्यतः दो मदों में रखा जा सकता है-व्यावसायिक बैंक और सहकारी
बैंक। जहां व्यावसायिक बैंकों (राष्ट्रीकृत बैंक, स्टेट बैंक समूह, निजी क्षेत्र
के बैंक, विदेशी बैंक और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक) के पास बैंकिंग व्यवसाय का भारी
हिस्सा है वहीं सहकारी बैंक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शुरुआत में इन्हें
ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण देने वाले स्थानीय स्त्रोतों, विशेषकर साहूकारों, को
हटाने के लिए स्थापित किया गया था, आज ये कृषि और सहायक गतिविधियों, गांव आधारित
उद्योगों और कुछ कम स्तर तक शहरी केंद्रों की व्यापार और उद्योग की जरूरतों को
पूरा करते हैं। सहकारी बैंकों का एक त्रिस्तरीय ढांचा होता है :
(i)
प्राथमिक ऋण संस्थाएं पीसीएस (कृषि शहरी),
(ii)
जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक डीसीसीबी, और:
(iii)
राज्य सहकारी बैंक-एससीबी (शीर्ष स्तर पर)।
यूसीबी : शहरी क्षेत्रों में
प्राथमिक ऋण संस्थाएं (पीसीएस) जो कुछ निश्चित निर्दिष्ट शर्तों को पूरा करती हैं,
आरबीआई को शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) खोलने के लिए बैंकिंग लाइसेंस के लिए आवेदन
कर सकती हैं। वह संबंधित राज्य के सहकारी संस्था कानून के तहत पंजीकृत होती हैं और
बैंकिंग नियमन कानून, 1949 के तहत संचालित होती हैं और इस तरह दोहरे नियामक
नियंत्रण में होती हैं। इन बैंकों के प्रबंधकीय पक्ष-पंजीकरण, प्रबंधन, व्यवस्था,
नियुक्ति, एकीकरण, ऋणशोधन, आदि का नियंत्रण राज्य सरकार के पास होता है जबकि
बैंकिंग से जुड़े मुद्दों को आरबीआई नियंत्रित करता है।
पारंपरिक
रूप से, यूसीबी का कार्यक्षेत्र महानगरों, शहरी या अर्द्ध-शहरी केंद्रों तक सीमित
रहता है और ये छोटे ऋणकर्ताओं की जरूरतें पूरी करती हैं, जिनमें एमएसएमई, खुदरा
व्यापारी, छोटे उद्यमी, पेशेवर और वेतनभोगी वर्ग शामिल होता है। हालांकि ऐसी कोई
औपचारिक बाध्यता नहीं है और यूसीबी उस पूरे जिले में व्यवसाय कर सकते हैं, जिसमें
वह पंजीकृत हैं, ग्रामीण क्षेत्रों समेत 50 करोड़ रुपये तक के जमा वाले ऐसे यूएसबी
जिनका प्रबंध बहुत अच्छा है वह अन्य राज्यों में भी काम कर सकते हैं, कुछ निश्चित
शर्तों के साथ।
चूंकि
वे आरबीआई अधिनियम, 1934 (द्वितीय अनुसूची) के तहत आते हैं इसलिए उनके कुछ अधिकार
और दायित्व हैं-आरबीआई से फिर से पैसा और ऋण पाने का अधिकार और दायित्व-जैसे कि
आरक्षित नकदी बनाए रखने, मुनाफे को आरबीआई को जमा करना आदि। मौजूदा समय में 29
यूसीबी हैं।
डीसीसीबी और एससीबी : जैसा कि इनके नाम
बताते हैं ये जिला और राज्य स्तर पर काम करते हैं। किसी भी जिले में एक से अधिक
डीसीसीबी नहीं हो सकता और कई सारे डीसीसीबी, एससीबी को रिपोर्ट करते हैं। पहले ये
आरबीआई के निरीक्षण में थे-बाद में ये काम नाबार्ड को सौंप दिया गया।
इन बैंकों की समस्याएं
सहकारी
बैंक भारत के वित्तीय ढांचे में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन उनमें
कुछ बहुत गहरी कमियां भी मौजदू हैं-हम संक्षेप में उन पर नजर डाल लेते हैं :
•
विनियमन सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है क्योंकि ये दोहरे नियामकों
के नियंत्रण में रहते हैं-यूसीबी आरबीआई और सहकारी संस्थाओं के पंजीयक (आरसीएस) के
तहत आते हैं जबकि डीसीसीबी और एससीबी नाबार्ड, आरबीआई और आरसीएस के तहत आते हैं।
सरकारी बैंकों और राजनेताओं के नजदीकी संबंधों को देखते हुए और इस तथ्य के साथ कि
आरसीएस राज्य सरकार के तहत काम करते हैं, वास्तविकता में ये सहकारी बैंकों की ये
दोहरी (या तिहरी) निगरानी के चलते व्यावहारिता में खराब देखरेख और नियंत्रण की ओर
ले जाती है। इसके अलावा ज्यादातर सहकारी बैंकों में कौशल और विशेषज्ञता का अभाव
होता है।
•
ज्यादातर स्तरों पर भर्तियां और नियुक्तियों का राजनीतिकरण होता
है।
•
व्यावसायिक बैंकों के लिए 90 के दशक की शुरुआत में आय की शिनाखत
और विवेक भरे जिन नियमों को 90 के दशक में शुरू किया था (बैंकिंग सुधारों की
प्रक्रिया के तहत) उन्हें अब भी इस क्षेत्र में लाना है।
सहकारी
बैंक खबरों में अक्सर फर्जीवाड़े की वजह से रहते हैं। संघीय प्रवृत्ति के ढांचे
जिसमें कई नियामक संस्थाएं हैं, में इन बैंकों को उचित मानकों के साथ चलाना
मुश्किल हो जाता है। इस बीच भारत सरकार ने निर्णय किया है (संघीय बजट 2017-18) कि
सहकारी बैंकों को 'मूल बैंकिंग' ढांचे के दायरे में लाया जाए। मूल बैंकिंग ढांचे
(सीबीएस) के तहत ग्राहक बैंक की सभी शाखाओं से सेवाएं प्राप्त कर सकते हैं सिर्फ उसी
शाखा में जहां उनकी खाता है कि बाध्यता नहीं रहती-इससे वे बैंक के ग्राहक बनते हैं
ब्रांच के नहीं।
वित्तीय क्षेत्र में सुधार
वर्ष
1991 में शुरू हुई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया ने अर्थव्यवस्था में सरकार की
भूमिका को पुनर्परिभाषित कर दिया है-आने वाले समय में विकास के लिए अर्थव्यवस्था
निजी क्षेत्र की भागीदार पर ज्यादा निर्भर करेगी। विकास के प्रति इस बदले हुए
नजरिए को अर्थव्यवस्था के निवेश ढांचे के संपूर्ण निरीक्षण की जरूरत थी। अब निजी
क्षेत्र वित्तीय प्रणाली से भारी विनियोज्य पूंजी की मांग करने जा रहा था। इस तरह
भारत की संपूर्ण वित्तीय प्रणाली के पुनर्गठन को उभरती जरूरत को महसूस किया गया।
राष्ट्रीयकरण
के बाद के तीन दशकों में देश में बैंकिंग प्रणाली का वित्तीय और भौगोलिक विस्तार
देखा गया। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में पता चला कि इसमें कुछ खास किस्म की
कमिया आ गई हैं, यह महसूस किया गया कि इन्हें दूर किए बिना वित्तीय प्रणाली एक
सक्षम और प्रतियोगी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा पाएगी।
इसलिए 14 अगस्त, 1991 को वित्तीय प्रणाली पर एक उच्च स्तरीय समिति (सीएफएस) का गठन
किया गया। इसे वित्तीय प्रणाली के सभी पहलुओं-ढांचा, संगठन, संचालन और प्रक्रिया
की पड़ताल करनी थी। इसकी सिफारिशों के आधार पर वित्त वर्ष 1992 93 में बैंकिंग प्रणाली
में व्यापक सुधार शुरू किए गए।
सीएफएस
की सिफारिशों का आधार कुछ मान्यताएं थीं, जो बैंकिंग व्यवस्था का आधार हैं। इस
बारे में भी कोई दो राय नहीं कि इन मान्यताओं के लिहाज से समिति की सिफारिशें
तार्किक लगती हैं। यह मान्यता कहती है कि, "बैंकों के संसाधन आम जनता से आते
हैं और बैंकों द्वारा इस विश्वास के साथ रखे जाते हैं कि उन्हें जमाकर्ताओं के अधिकतम
लाभ के लिए लगाया जाएगा।" इस मान्यता से खुद-ब-खुद यह अर्थ निकलता है :
(i)
सरकार को भी आर्थिक नियोजन, सामाजिक बैंकिंग, गरीबी उन्मूलन आदि
के लिए बैंकों और संसाधनों का इस्तेमाल करने के बहाने से राष्ट्रीकृत बैंकों की कर
चुकाने की क्षमता (सॉलवेन्सी), स्वास्थ्य और क्षमता को खतरे में डालने का अधिकार
नहीं है।
(ii)
इसके अलावा सरकार को कोई अधिकार नहीं है कि वह बैंक की राशि को
कम ब्याज दर पर ले और उनका इस्तेमाल अपने उपभोग व्यय (मतलब राजस्व और वित्तीय
घाटा) के लिए करे और इस तरह जमाकर्ताओं से धोखा करे।
सीएफएस (नरसिम्हन समिति) की सिफारिशों का लक्ष्य था :
(i)
संचालन में एक हद तक लोचनीयता सुनिश्चित करना;
(ii)
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में आंतरिक स्वायत्तता, औरः
(iii)
बैंकिंग कार्यों को काफी हद तक पेशेवराना बनाना।
सीएफएस की सिफारिशें
सीएफएस
की सिफारिशों को मुख्यतः निम्न पांच बिंदुओं में बांटा जा सकता है:
1. प्रत्यक्ष निवेश पर
आरबीआई
ने मौद्रिक और ऋण नियंत्रण को मुख्य हथियार के रूप में सीआरआर को इस्तेमाल न करने
की चेतावनी दी है, इसके बजाय खुले बाजार के संचालन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल
किया जाना चाहिए। सीआरआर को लेकर दो प्रस्ताव हैं
(i)
सीआरआर को वर्तमान के ऊंचे स्तर 15 फीसदी से धीरे-धीरे कम करते 3
से 5 फीसदी तक लाया जाना चाहिए. और;
(ii)
आरबीआई को बैंकों के सीआरआर पर ब्याज देना चाहिए जो आधारभूत
न्यूनतम ब्याज दर से ऊपर और बैंकों के एक साल के जमा के ब्याज के बराबर होना
चाहिए।
एसएलआर
के बारे में सुझाव है कि इसे वर्तमान के उच्च स्तर से अगले पांच साल में न्यूनतम
स्तर (मतलब 25 फीसदी) तक ले आना चाहिए। सरकार को यह भी सलाह दी गई थी कि वह बाजार
आधारित ऋण कार्यक्रम की दिशा में बढ़े ताकि बैंकों को एसएलआर निवेशों के आर्थिक
फायदे मिल सके।
इन
सुझावों को उद्देश्य बैंकों के पास धन की उपलब्धता बढ़ाना, बेकार पड़े धन को
इस्तेमाल में लाना और बैंकों द्वारा ऋणों पर लिए जाने वाले ब्याज की दर में कटौती
करना था।
2. प्रत्यक्ष ऋण कार्यक्रम पर
इस
उप-शीर्षक के तहत सुझाव बैंकों द्वारा निजी क्षेत्र के ऋणों की विवशता के
इर्द-गिर्द केंद्रित हैं :
(i)
प्रत्यक्ष ऋण योजना को धीरे-धीरे खत्म कर देना चाहिए। समिति के अनुसार
कृषि और लघु उद्योग (एसएसआई) पहले ही विकसित और परिपक्व स्थिति तक पहुंच चुका है
और इसे किसी विशेष सहयोग की जरूरत नहीं है, दो दशक तक ब्याज पर सब्सिडी पर्याप्त
थे। इसलिए ब्याज दरों में छूट को समाप्त कर देना चाहिए।
(ii)
प्रत्यक्ष ऋण एक नियमित कार्यक्रम नहीं होना चाहिए यह कुछ कमजोर
तबकों को असामान्य सहयोग का एक मामला होना चाहिए-इसके अलावा, यह अस्थाई होना
चाहिए, स्थायी नहीं।
(iii)
पीएसएल की अवधारणा को पुनर्परिभाषित करके इसमें सिर्फ ग्रामीण भारत
के कमजोर तबकों, जैसे कि अति गरीब किसान, ग्रामीण शिल्पकार, गांवों और झोंपड़ी
उद्योगों, बहुत छोटे क्षेत्रों आदि को रखना चाहिए।
(iv)
'पुनर्परिभाषित पीएसएल' को बैंकों के औसत ऋण का 10 फीसदी मिलना
चाहिए।
(v)
पीएसएल की संरचना की तीन साल बाद समीक्षा होना चाहिए।
3. ब्याज दर के ढांचे पर
ब्याज
दर के ढांचे पर मुख्य सिफारिशें इस प्रकार हैं
(i)
ब्याज दरें आमतौर पर बाजार की ताकतों से ही तय होनी चाहिए।
(ii)
जमा और ऋण की ब्याज दरों पर सारा नियंत्रण हटा दिया जाना चाहिए:
(iii)
छोटे आकार के पीएसएल पर रियायती ब्याज दर को धीरे-धीरे समाप्त कर
देना चाहिए और आईआरडीपी ऋणों पर सब्सिडी को हटा लेना चाहिए:
(iv)
बैंक दर को आधार दर होना चाहिए और अन्य सभी ब्याज दरें इससे
नजदीकी से जुड़ी होनी चाहिए, और;
(v)
ब्याज दर ढांचे को सरल बनाने के लिए आरबीआई की अंतिम प्राधिकारी
होना चाहिए।
4. बैंक के संरचनात्मक पुनर्गठन के लिए
बैंक
के संरचनात्मक पुनर्गठन के लिए कुछ मुख्य सुझाव इस तरह हैं :
(i)
बैंक की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए विलय और अधिग्रहण के जरिए
पीएसबी की संख्या में पर्याप्त कटौती,
(ii)
आरबीआई और (वित्त मंत्रालय के) बैंकिंग संकाय के दोहरे नियंत्रण के
लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए और बैंकिंग व्यवस्था के नियमन के लिए आरबीआई को
प्राथमिक संस्था बनाया जाना चाहिए,
(iii)
पीएसबी को स्वतंत्र और स्वायत्तशासी बनाना चाहिए,
(iv)
बैंकों को स्वतंत्र और स्वायत्तशासी बनाने के संदर्भ में बैंक व्यवसाय के लिए जारी सभी दिशा निर्देशों और नीतियों की आरबीआई को पड़ताल करनी
चाहिए,
(v)
सभी पीएसबी को कार्यविधि और कार्य संस्कृति के मामले में बड़े
स्तर पर परिवर्तन करने चाहिए, ताकि वह आंतरिक तौर पर प्रतिस्पर्धात्मक बन सकें और
विदेशों में बड़े फलक पर हो रहे नए परिवर्तन से बराबरी कर सकें और;
(vi)
अंत में, बैंक के मुख्य प्रबंधक (सीएमडी) की नियुक्ति के संबंध में
सलाह है कि ये राजनीतिक दखल के आधार पर न होकर पेशेवराना अंदाज और समग्रता के आधार
पर हो। विशेषज्ञों का एक स्वतंत्र पैनल की भी सलाह दी जाती है जो कि इस पद के लिए
सही उम्मीदवार का सुझाव और चयन कर सके।
5. परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियां कोष
बैंक
और वित्तीय संस्थाओं की भारी अलाभकारी परिसंपत्तियों (एनपीए) के खतरे से निपटने के
लिए, समिति की सलाह है कि परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी कोष की स्थापना की जाए
(अमेरिका के अनुभव से सबक लेते हुए।)
रिपोर्ट
के मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों यानी पीएसबी की खराब स्थिति के लिए समिति
भारत सरकार और वित्त मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराती है। इन बैंकों का भारत सरकार,
अधिकारियों, बैंक कर्मचारियों और व्यापार संघों द्वारा इस्तेमाल और अपमान हुआ है।
ये
सिफारिशें कई मामलों में बेहद क्रांतिकारी थीं और इनका बैंक यूनियन और वामपंथी
राजनीतिक दलों द्वारा विरोध किया गया।
समिति
के कुछ अन्य मुख्य सुझाव भी थे, जिसके चलते सरकार द्वारा उठाए गए निम्न कदम संभव
हो सके :
(i)
नए निजी क्षेत्र के बैंकों का खुलना जिसके लिए 1993 में अनुमति दी
गई.
(ii)
आरबीआई द्वारा तय निष्पक्ष कसौटी के आधार पर आय की पहचान, परिसंपत्ति
वर्गीकरण और बैंकों द्वारा उपलब्ध करवाई जाने वाली सेवाओं से संबंधित मितव्ययी
नियम,
(iii)
अंतराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप पूंजी की प्रचुरता के नियमों की शुरुआत
(मतलब, सीएआर का प्रावधान),
(iv)
बैंक नियमों का सरलीकरण (जैसे 1994 में वित्तीय देखरेख के लिए
समिति बनाना।)
बैंक क्षेत्र में सुधार
साल
1991 में सीएफएस के सुझावों के बाद सरकार ने 1992-93 में वित्तीय व्यवस्था में
सुधार प्रक्रिया व्यापक स्तर पर शुरू की। दिसंबर 1997 में सरकार ने बैंक व्यवसाय
के क्षेत्र में सुधार के लिए एम. नरसिम्हन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
स्थापना के समय ही समिति के उद्देश्यों को कार्यक्षेत्र में स्पष्ट कर दिया गया था
:
"बैंक
व्यवसाय के क्षेत्र में सुधार की प्रगति का समयबद्ध पुनरीक्षण और
वित्तीय क्षेत्र में सुधार के लिए कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना जो भारत की वित्तीय
व्यवस्था को मजबूत बनाने और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के काबिल बनाने के लिए
जरूरी है।"
नरसिम्हन
समिति-2 (आमतौर पर भारत सरकार यही कहती है) ने अप्रैल 1998 में अपनी रिपोर्ट सौंपी
जिसमें निम्न मुख्य सुझाव दिए गए:
(i)
एक मजबूत बैंक व्यवस्था की आवश्यकता जिसके लिए पीएसबी और वित्तीय
संस्थाओं (एआईएफआई) के विलय की सलाह दी गई-ज्यादा मजबूत बैंक और डीएफआई (वित्तीय
विकास संस्था, मतलब-एआईएफआई) का विलय कर दिया जाए जबकि कमजोर और अलाभकारी को बंद
कर दिया जाए।
(ii)
विलय के बाद त्रि-स्तरीय बैंकिंग संरचना की सलाह दी गई :
(a)
स्तर 1-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के दो से तीन बैंक,
(b)
स्तर 2-राष्ट्रीय स्तर के 8 से 10 बैंक, और:
(c)
स्तर 3 बड़ी संख्या में स्थानीय बैंक।
पहला
और दूसरा स्तर अर्थव्यवस्था में कॉर्पोरेट क्षेत्र की बैंकिंग जरूरतों की देखभाल
के लिए है।
(iii)
जोखिम-वाली-पूजी के ऊंची शर्ते-भारित प्रचुरता अनुपात (सीआरएआर) को 10 फीसदी तक बढ़ाने
की सलाह दी गई।
(iv)
पीएसबी के लिए बजट में पूजीकरण लाभकारी नहीं है और इसे छोड़ना
चाहिए।
(v)
ऋण वसूली के कानूनी ढांचे को मजबूत बनाया जाना चाहिए (सरकार ने एसएआरएफएईएसआई कानून,
2002 पारित किया था)।
(vi)
सभी बैंकों के लिए शुद्ध एनपीए में कटौती कर वर्ष 2000 तक 5 फीसदी के नीचे और वर्ष
2003 में तीन फीसदी के नीचे लाने की सलाह दी गई।
(vii)
पीएसबी की सभी शाखाओं और कर्मचारियों के परिमेयकरण की सलाह।
(viii)
नए निजी बैंकों का लाइसेंस कायम रखना (घरेलू और विदेशी दोनों)।
(ix)
आरबीआई की देखरेख में बैंक के बोर्ड को राजनीतिक हस्तक्षेप से
दूर रखना चाहिए।
(x)
भारत में संपूर्ण बैंकिंग, वित्त और एनबीएफसी के वित्तीय नियमन और
देखरेख के लिए बोर्ड (बीएफआरएस) की स्थापना करनी चाहिए।
डीआरआई (DRI)
ब्याज
की अंतरात्मक दर (डीआरआई) एक ऋण कार्यक्रम है जिसे सरकार ने अप्रैल, 1972 में शुरू
किया था। इसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों का यह दायित्व बनता है कि वह
पिछले साल दिए गए ऋण के एक फीसदी को 'सबसे गरीब' को चार फीसदी सालाना की दर से
दें।
प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण
सभी
भारतीय बैंकों को प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण (पीएसएल) के अनिवार्य लक्ष्य को
पूरा करना होता है। भारत में पीएसल में कृषि, छोटे और मध्यम उद्यम (एसएमई), सड़क
और जल परिवहन, खुदरा व्यापार, छोटे व्यवसाय, लघु आवास ऋण (10 लाख से ज्यादा नहीं),
सॉफ्टवेयर उद्योग, स्वयं-सहायता समूह, कृषि-प्रसंस्करण, छोटे और सीमांत किसान,
शिल्पकार, विपदाग्रस्त शहरी गरीब और कर्ज में डूबे गैर-सांस्थानिक कर्जदारों के
अलावा अनुसूचित जाति, असूचित जनजाति और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के लोग। साल
2007 में आरबीआई ने पांच अल्पसंख्यक समुदायों को भी पीएसल में शामिल किया-बौद्ध, ईसाई,
मुसलमान, पारसी और सिख। मार्च 2015 के नए दिशा-निर्देशों में आरबीआई ने इसमें
'मध्यम उद्यम, स्वच्छता और अक्षय ऊर्जा' को भी जोड़ा। भारत में काम करने वाले
बैंकों में पीएसएल के लक्ष्य को निम्न तरह से हासिल किया जाना चाहिए :
(i)
भारतीय बैंकों को (सार्वजनिक क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र के बैंक भी) हर साल अपने कुल ऋणदान का 40 फीसदी प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को
ऋण देना होता है। इसका एक उप-लक्ष्य भी है-कुल ऋणदान का 18 फीसदी कृषि क्षेत्र को
और कुल ऋणदान का 10 फीसदी या पीएएसएल का 25 फीसदी (जो भी ज्यादा हो) अनिवार्य रूप से कमजोर वर्गों को दिया जाना चाहिए। पीएसएल के अन्य
हिस्सों को बची हुई राशि में से-मतलब, कुल ऋणदान का 12 फीसदी-बांटा जाता है।
(ii)
विदेशी बैंकों (जिनकी 20 से कम शाखाएं हैं) को पीएसएल के सिर्फ
32 फीसदी लक्ष्य को ही पूरा करना होता है। इनके उप लक्ष्य हैं, निर्यात (12 फीसदी)
और छोटे और मध्यम उद्यम (10 फीसदी)। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें पीएसएल के अन्य
क्षेत्रों के लिए अपने कुल ऋणदान के बचे हुए 12 फीसदी में से देना
होता है (बोझ कम है)।
वित्तीय
प्रणाली यह समिति (सीएफएस, 1991) का सुझाव था कि इसे तुरंत घटाकर सभी बैंकों के
लिए 10 फीसदी कर दिया जाए और अर्थव्यवस्था के, विशेषकर बैंकिंग क्षेत्र के भले के
लिए इस नीति को धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाए। समिति ने यह भी सुझाव दिया था कि पीएसएल
के तहत आने वाले क्षेत्रों को हर तीन साल में बदला जाए। सरकार ने विदेशी बैंकों के
लिए पीएसएल के लक्ष्य को 40 फीसदी से घटाकर 32 फीसदी करने के सिवा इस पर आगे की
कार्रवाई नहीं की (20 से कम ब्रांच वाले बैंकों के लिए 40 प्रतिशत
ही रहा।) इस दौरान पीएसएल में कुछ नए क्षेत्र जोड़े गए हैं।
गैर-लाभकारी एवं दाब परिसंपत्तियां
अलाभकारी
परिसंपत्तियां (एनपीए) बैंकों के बड़े ऋण (Bad Debt) हैं जिनकी वसूली मुश्किल हो
जाती है। ऐसी संपत्तियों की पहचान की परिभाषा समय-समय पर बदलती रहती है। बेहतरीन
अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली को व्यवहार में लाने और पारदर्शिता के लिए आरबीआई ने
वर्तमान पॉलिसी को 2004 में अपनाया। इसके तहत, उस ऋण को एनपीए मान लिया जाता है जो
एक अवधि (90 दिन) तक यूं ही पड़ी रहती है। इसे '90 दिन' अतिरिक्त देय नियम के तौर
पर जाना जाता है। कृषि ऋण के लिए ये मियाद उस फसल की मियाद के साथ जुड़ा है जो दो
फसल चक्र से लेकर एक साल तक है।
एनपीए को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया
(a)
उप-मानक (Sub-Standard): 12 महीनों तक के या इससे कम अवधि के
एन.पीए.ए.।
(b)
संदिग्ध (Doubtful): 12 महीनों से अधिक अवधि के एन.पी.ए.।
(c)
हानि परिसंपत्तियां (Loss Assets): वैसे एन.पी.ए. जिन्हें बैंक की आंतरिक या बाह्य परीक्षकों (जैसे आर.बी.आई.) द्वारा ऐसा घोषित कर दिया
गया है। यह राशि माफ नहीं की जाती और बैंक के बैलेंस शीट में वर्णित की जाती है।
वित्त
वर्ष 2017-18 में बैंकिंग क्षेत्र, विशेषकर सरकारी बैंकों (PSBS) का निष्पादन
निम्न बना रहा है। इस वर्ष (मार्च-सितंबर) अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (SCBs) की
सकल गैर-निष्पादनकारी परिसम्पत्तियों (GNPAS) की मात्रा 9.6 प्रतिशत
से बढ़कर 10.2 प्रतिशत पहुंच गयी थी। वैसे इस अवधि में इनके
पुनसंरचित मानक परिसम्पत्तियों की मात्रा 2.5 प्रतिशत से घटकर 2.0 प्रतिशत हुई।
इन बैंकों की दाब परिसम्पत्तियों (Stressed Assets) में मामूली वृद्धि हुई जो 2.1 प्रतिशत
से बढ़कर 2.2 प्रतिशत हो गयी। इधर सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों
(PSBs) के एन.पी.ए. में वृद्धि जारी रही जो सितंबर 2017 तक 13.5 प्रतिशत के उच्च
स्तर तक पहुंच चुकी थी (मार्च 2017 में यह 12.5 प्रतिशत थी।) इन बैंकों की दाब
परिसम्पत्तियां इस अवधि में 16.2 प्रतिशत हो गई (15.6 प्रतिशत से बढ़कर)। सरकारी
बैंकों के उच्च स्तरीय एन.पी.ए. के लिए अन्यान्य कारण बताये गए हैं वैसें वर्तमान
समय में निम्न कारकों को इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है
(i)
वैश्विक एवं घरेलू स्तर पर व्यापक आर्थिक अस्थिरता के कारण अर्थव्यवस्था
में सुस्ती (Slowdown) की स्थिति उत्पन्न हुई और कंपनियों की ऋण भुगतान क्षमता में
ह्रास हुआ (उनके लाभ में हुई गिरावट के कारण।)
(ii)
परियोजनाओं के अनुमोदन मे विलंब होने से इनके लागत में वृद्धि हुई
और ऋण भुगतान शक्ति क्षीण हुई।
(iii)
बैंकों द्वारा संगठित क्षेत्र को आक्रामक (Aggressive) तरीके से ऋण
दिया गया जिन पर बड़े ऋणों का पहले ही उच्च बोझ था।
(iv)
ज्ञानकृत चूक (Wildful Default) की उच्च घटनाएं।
(v)
ऋण संबंधी धोखाधड़ी।
(vi)
बैंकिंग संस्थाओं से जुड़े भ्रष्टाचार की घटनाएं।
एनपीए के समाधान
एक
तरफ, नए दिशा-निर्देश जारी कर आरबीआई ने बैंकों के एनपीए को बढ़ने से रोकने की
कोशिश की, दूसरी ओर, इसने समस्या को सुलझाने के लिए कई कदम भी उठाए। फरवरी 2017 तक
(2014-15 से), आरबीआई ने बैंकों की एनपीए समस्या के समाधान की खातिर कई योजनाओं को
लागू किया संक्षेप में नीचे वर्णन हैं :
5/25 पुनर्वित्त पोषण : बुनियादी ढांचा क्षेत्र और
8 करोड़ उद्यमों में दबाव झेल रही परिसंपत्तियों के पुनर्जीवन के
लिए यह योजना एक बड़ा अवसर प्रस्तुत करती है। इस योजना के तहत कर्जदार ऋण की समय
सीमा 25 वर्ष तक बढ़ा सकता था जिसमें ब्याज दरें प्रत्येक पांच वर्ष पर समायोजित
की जातीं, ताकि ऋण चुकाने का समय इस क्षेत्र में दीर्घ समायावधि के अनुरूप रहे।
अत: इस योजना का मकसद ऋण लेने वाले के क्रेडिट प्रोफाइल और नकदी की स्थिति को
बेहतर करना था, जबकि बैंकों को इन ऋणों को अपनी बैलेंस शीट में सामान्य की तरह बरतने
की अनुमति दी गई, जिससे एनपीए के लागत को कम रखा जा सके। हालांकि, ये ऋणशोधन लंबे
समय तक खिंच गया, इस व्यवस्था का यह मतलब भी था कि कंपनियों पर ऊंची ब्याज दरों का
भार पड़ गया, जिन्हें वापस चुकाना उनके लिए मुश्किल हो गया, जिससे मजबूरी में
बैंकों को अतिरिक्त कर्ज देना पड़ा (जिसे 'एवरग्रीनिंग' कहा जाता है।) इसकी वजह से
शुरुआती समस्या बढ़ गई।
एआरसी (परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियां) :
एनपीए के भार की समस्या दूर करने के विशेषज्ञ के रूप में एआरसी भारत में सरफेसी
अधिनियम (2002)
के तहत शुरू की गई। लेकिन एआरसी (ज्यादातर निजी स्वामित्व वाली
हैं) ने खरीदें हुए एनपीए का निपटारा मुश्किल पाया, अब ऐसे ऋणों को कम कीमत पर ही
खरीदने की इच्छुक हैं। नतीजतन, बैंक बड़ी मात्रा में ऐसे ऋण बेचने के इच्छुक नहीं
रहे। चूंकि (2014) एआरसी के फीस की रूपरेखा संशोधित थी (एआरसी से खरीदे हुए ऋणों
के बड़े अनुपात को नकद में बैंकों को भुगतान करने की मांग की गई), उनके द्वारा
एनपीए की खरीद आगे धीमी पड़ती चली गई-2014-15 और 2015-16 के दौरान कुल एनपीए
का सिर्फ 5 प्रतिशत ही बेचा गया।
एसडीआर (रणनीतिक ऋण पुनर्गठन ) :
जून 2015 में, आरबीआई एसडीआर योजना के साथ आया जिसमें बैंकों को कंपनियों (जिनके
दबाव वाली परिसंपत्तियों का पुनर्गठन किया गया था लेकिन ऐसे पुनर्गठन के लिए जरूरी
शर्तों को वे अंततः पूरा नहीं कर पा रहे थे) के ऋण का 51 प्रतिशत इक्विटी में बदल
कर सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेचने का मौका दिया-इसमें मालिकाना हक बदलता है।
दिसंबर 2016 के अंत तक, ऐसे सिर्फ दो सौदे ही कार्यान्वित हो सके, क्योंकि
ज्यादातर उद्यम वित्तीय तौर पर अलाभकारी बने रहे, क्योंकि उनके ऋण का एक छोटा
हिस्सा ही इक्विटी में बदल सका।
एक्यूआर (परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा) :
फसी हुई परिसंपत्तियों की समस्या के समाधान के लिए ऐसे परिसंपत्तियों की सही परख
की आवश्यकता थी। यह पड़ताल करने के लिए कि बैंक ऋणों का मूल्यांकन आरबीआई ऋण
वर्गीकरण नियमों के मुताबिक ही कर रहे हैं, आरबीआई ने एक्यूआर पर जोर दिया। ऐसे
नियमों में किसी भी तरह की चूक को मार्च 2016 तक जांचना था।
एस4ए (दबाव वाली परिसंपत्तियों की स्थायी संरचना के लिए योजना ):
जून 2016 में पेश की गई, इसमें, बैंकों द्वारा एक स्वतंत्र एजेंसी को यह निर्णय
लेने के लिए नियुक्त किया गया कि कंपनी का दबावयुक्त ऋण का कितना हिस्सा वहन किया
जा सकता है। बाकी (वहन न किया जा सकने वाले) हिस्से को इक्विटी और अधिमानी शेयर
में बदल देते हैं। एसडीआर समझौते से हटकर, इसमें कंपनी के स्वामित्व में कोई बदलाव
नहीं होता।
सार्वजनिक क्षेत्र परिसंपत्ति पुनरुद्धार संस्था (पारा)
'बैलेंस
शीट सिण्ड्रोम' (बैंक के साथ कॉर्पोरेट क्षेत्र की भी) की दोहरी समस्या
के समाधान के लिए, आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 ने सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र
परिसंपत्ति पुनरुद्धार संस्था (पारा) गठित करने का सुझाव दिया-'सिण्ड्रोम' के सबसे
बड़े और पेचीदा मामलों के प्रभार सहित। 1990 के मध्य में मुद्रा संकट से ग्रस्त
दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ऐसी पहलकदमियों ने सफलतापूर्वक
दोहरी बैलेंस शीट की समस्या को नियंत्रित किया। सर्वेक्षण के मुताबिक, संस्था को
सबसे बड़े और सबसे पेचीदा मामलों को सुलझाने का जिम्मा दिया गया। ऋण के समाधान से जुड़ी
ज्यादातर बाधाओं को ऐसे उपायों से खत्म किया जा सकता है :
•
ऐसे मामले में समन्वय की समस्या, ऋण को एक संस्था में केंद्रित किया
जा सकेगा।
•
एक तय समयावधि में वसूली को ज्यादा-से-ज्यादा रखने के लिए स्पष्ट
आदेश देकर यह यथोचित प्रोत्साहन राशि के साथ गठित किया जा सकता है, और।
•
यह ऋण के समाधान की समस्या की प्रक्रिया को बैंक के पूंजी की चिंताओं
से अलग करेगा।
सर्वेक्षण
ने पारा के गठन के प्रस्ताव को समर्थन देने के लिए सात कारणों को रेखांकित किया
है, जो नीचे दिए गए है
(i)
यह सिर्फ बैंक के बारे में नहीं होगा, यह ज्यादातर कंपनियों के बारे
में हैं। अब तक, एनपीए से जुड़ी चिंताओं बैंकों की पूंजी और उन्हें कैसे धन दिया
जाए ताकि वे फिर ऋण देना शुरू कर सकें, के इर्द-गिर्द ही घूमती थीं। लेकिन ज्यादा
अहम मुद्दा कॉर्पोरेट घरानों द्वारा बनाए गए एनपीए का निपटारा करने का तरीका ढूंढना
है (तब क्यों वे दबाव में थे)।
(ii)
यह एक आर्थिक समस्या है, कोई कथोपदेश नहीं। धन को दूसरे कामों
में लगाना (जानबूझकर भुगतान नहीं करना) निःसंदेह ऋण का भुगतान नहीं करने के पीछे
की एक वजह रहा। लेकिन बड़ी संख्या में ऋण न चुकता कर पाना आर्थिक वातावरण में उम्मीद
के विपरीत बदलावों की वजह से हुआ था-समयसारणी, विनिमय दरें, और वृद्धि दर के
अनुमान गलत हो गए।
(iii)
दबाव वाले ऋण मुख्यत: अधिक बड़ी कंपनियों के थे। यह एक अवसर है,
क्योंकि अपेक्षाकृत कम संख्या वाले मामलों को सुलझाकर टीबीएस उबर सकेगा। लेकिन यह
ज्यादा बड़ी चुनौती पेश करता है क्योंकि बड़ी संख्या वाले मामले सुलझाना स्वाभाविक
रूप से ज्यादा मुश्किल है।
(iv)
ऐसी बहुत सारी कंपनियां हैं जो मौजूदा हालत में ऋण माफी या ऋण को
बट्टा खाते में डालने की स्थिति में नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में बड़े दबाव वाली
कंपनियों में पूंजी का प्रवाह घट रहा है, इस स्थिति तक कि सामान्य रूप से काम करते
रहने के लिए 50 प्रतिशत से अधिक ऋण की वापसी की जरूरत है। इसका एकमात्र उपाय ऋण को इक्विटी में बदलना होगा, कंपनियों को अपने कब्जे
में लेना और उन्हें घाटे में बेच देना।
(v)
उनकी मदद के लिए ऐसी योजनाओं के प्रसार के बावजूद बैंक ऐसे
मामलों को सुलझाने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। दूसरी समस्याओं के बीच, वे कई तरह
की समन्वय की दिक्कतों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि विभिन्न फायदों के साथ बड़े
कर्जदारों के पास कई ऋणदाता हैं। यदि पीएसबी बड़ी मात्रा में ऋण को बट्टा खाते में
डाल देते हैं तो इससे जांच संस्थाओं का ध्यान खींच सकता है। उसी तरह बड़ी कंपनियों
को अपने कब्जे में लेना भी राजनीतिक रूप से मुश्किल होगा।
(vi)
देर करने से और नुकसान होगा। चूंकि बैंक बड़े मामले नहीं सुलझा सकता,
वे आमतौर पर कर्जदारों को दोबारा वित्त मुहैया कराते हैं-जिससे स्थिति और खराब हो
जाती है। लेकिन यह सरकार के लिए महंगा पड़ता है, क्योंकि इसका मतलब फंसे हुए कर्ज
बढ़ते रहेंगे, सरकार के लिए पुनः पूंजीकरण विधेयक और उससे जुड़ी राजनीतिक
कठिनाइयां अंततः बढ़ेगी। देरी अर्थव्यवस्था के लिए भी महंगी पड़ेगी, क्योंकि अक्षम
बैंक अपने कर्ज बढ़ा रहे थे जबकि दबाव में आई कंपनियां अपने निवेश घटा रही थीं।
(vii)
प्रगति के लिए 'पारा' की जरूरत पड़ सकती है। एआरसी (परिसंपत्ति पुनर्गठन
कंपनियां) फंसे हुए कर्ज को खत्म करने के लिए बैंकों की तुलना में बहुत ज्यादा सफल
साबित नहीं हो पाई हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय अनुभव दर्शाता है कि इस बारे में
पेशेवर तरीके से चलाई जाने वाली केंद्रीय संस्था, सरकार के सहयोग से (अपनी खुद की
मुश्किलों के बिना नहीं) समाधान निकाल सकती है।
फरवरी
2017 के अंत में, सरकार ने पारा के विचार पर अपने रुझान के संकेत दिए। लेकिन इससे
पहले की यह विचार अमली जामा पहने, सरकार द्वारा कई सम्बद्ध मुद्दों को निपटाना
होगा, जैसे कि-इसको धन देने की प्रक्रिया बैलेंस शीट समाधान के लिए कंपनियों का
चयन करना बैंकों के एनपीए की वसूली की प्रक्रिया इत्यादि इनमें से कुछ हैं।
शोधन-अक्षमता एवं दिवालियापन
बैंकों
की उच्च गैर-निष्पादनकारी परिसम्पत्तियों के समाधान के लिए सरकार एवं भारतीय
रिजर्व बैंक द्वारा हाल के वर्षों में कई कदम उठाये गए लेकिन वे इतने प्रभावी नहीं
रहे। एक समय ऐसा आ गया जब अर्थव्यवस्था के समक्ष दोहरी बैलेंस शीट संकट (Twin
Balance Sheet Crisis) की समस्या उत्पन्न हो गयी। स्थिति की गंभीरता और जटिलता को
ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा दिवालियापन संबंधी कानून में बदलाव का निर्णय
लिया गया। ऋण लेने वाली कंपनियों की शोधन-अक्षमता (Insolvency) की स्थिति का
बैंकिंग व्यवस्था पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इधर दिवालियापन स्थापित करने की
वैधानिक प्रक्रिया के जटिल एवं लंबी होने से ऐसे मामलों का सही समय पर निपटारा
संभव नहीं हो पा रहा था। अंततः ऋणदाता (बैंक एवं वित्तीय संस्थान) एवं ऋण लेने
वाला निकाय (निजी क्षेत्र की कंपनियां) दोनों ही पर इसका उच्च वित्तीय कुप्रभाव
पड़ता है।
सरकार
द्वारा नये शोधन-अक्षमता एवं दिवालियापन कानून के नवंबर
2017 में प्रवर्तित कर दिया गया। तब से लेकर इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है कार्पोरेट दिवालियापन समाधान प्रक्रिया (CIRP) का संपूर्ण
कार्य तंत्र तैयार किया गया है। इस कार्य के लिए आवश्यक संस्थानों एवं पेशेवरों
(Professionals) को तैयार करने के लिए कई नियम-कानूनों की घोषणाएं की गयी हैं।
बहुत सारे मामलों को दिवालियापन प्रक्रिया के अंतर्गत लाया गया है जबकि कई मामले
इस प्रक्रिया से बाहर भी आ चुके है। जनवरी 2018 तक कार्पोरेट दिवालियापन के 525 से
भी अधिक मामले नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्युनल (NCLT) के समक्ष लाये जा चुके थे। नये
दिवालियापन कानून की उच्च प्रभावशीलता के लिए इसकी न्याय-निर्णय (Adjudication)
प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत एक सख्त (Strict) समय-सीमा (Time Limit) का प्रावधान
है। इस कारण से दिवालियापन के आवेदनों का द्रुत निपटारा संभव हो पा रहा है। इस पूरी
प्रक्रिया में एक बेहतर कानूनी प्रक्रिया का उद्भव विकास हुआ है जो आने वाले समय
की कानूनी अनिश्चितता को कम करेगा।
कार्पोरेट
शोधन-अक्षमता समाधान प्रक्रिया में, लेनदारों की समिति
(Committee of Creditors) आवेदकों से समाधान योजनाएं आमंत्रित करती
है तथा एक योजना का चयन करती है। इस कानून के अंतर्गत
समाधान
आवेदकों पर कोई पाबंदी नहीं लगाती लेकिन कुछ आवेदकों को इसके लिए अयोग्य अवश्य
ठहराती है :
(i)
कोई अमुक्त (Undischarged) दिवालिया।
(ii)
कोई 'ज्ञानकृत चूककर्ता' (Wilful Defaulter)|
(iii)
एक ऐसा कर्जदार जिसके खाते को एक वर्ष या अधिक के लिए एन.पी.ए.
घोषित किया गया हो तथा उसने अब तक अपनी देनदारी नहीं चुकाई हो।
(iv)
कोई व्यक्ति जिसे दो या दो अधिक वर्षों के कारावास वाले किसी अपराध
में दोषी माना गया है।
(v)
कोई व्यक्ति जिसे कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत एक निदेशक (Director) के रूप में
अयोग्य घोषित किया गया है।
(vi)
कोई व्यक्ति जिसे प्रतिभूतियों (Securities) के व्यापार से प्रतिबंधित किया गया हो।
(vii)
कोई व्यक्ति जो अवमूल्यित (Under Valued) या लेन-देन की धोखाधड़ी
के मामले से जुड़ी किसी संस्था का संस्थापक प्रबंधक रहा हो।
(viii)
कोई व्यक्ति जिसने किसी ऐसे, जो समाधान प्रक्रियारत किसी चूककर्ता
(Defaulter) का लेनदार हो, के लिए कोई प्रवर्तनीय (Enforceable) गारंटी दी हो।
(ix)
ऊपर लिखित किसी विषय से जुड़ा कोई व्यक्ति जो भारत के क्षेत्राधिकार
(Jurisdiction) के बाहर हो, या।
(x)
कोई व्यक्ति जो किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति से जुड़ा हो जो ऊपर लिखित
विषय में अयोग्य ठहराया गया हो।
इस
कानून का बल इस बात पर है कि अवांछनीय व्यक्तियों का देनदार (ऋणी) के लिए बोली
लगाने (Bidding) से रोका जाए। इसके अंतर्गत प्रवर्तकों (Promoters) को अपनी ही
फर्म के लिए बोली लगाने से रोकने का प्रावधान है। समाधान योजना में वित्तीय तथा
परिचालित लेनदारों का मूल्य कटौती (Haircut) का प्रावधान किया जा सकता है। इस
प्रक्रिया में बिना किसी गारंटी के बोली लगाने की अनुमति देने से व्यापक
विसगंतियां उत्पन्न हो सकती हैं कोई व्यक्ति जिसने अपनी फर्म को दिवालिया घोषित
किया है अपनी फर्म के लिए बोली लगाकर उसे सस्ते मूल्यों में वापस पा सकता है, ऐसे
में नैतिक संकट (Moral Hazard) की स्थिति बन सकती है जिसमें धोखेबाज
प्रवर्तकों को एक तरह से पारितोषिक (Reward) प्राप्त होगा (अपनी
ही कंपनी को सस्ते मूल्यों में वापस पाने से) और दूसरी तरफ ऋणदाताओं को दंड मिलेगा
(क्योंकि ऋण के एक बड़े भाग से हाथ धोना पड़ सकता है या उन्हें माफ
कर देना होगा)।
इस
प्रकार इस कानून द्वारा एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास किया गया है ताकि
सी.ओ.सी. सभी आवेदकों में से सर्वोत्तम समाधान योजना का चयन करने की अपनी
स्वतंत्रता रखते हुए अविवेकपूर्ण (Imprudent) समाधानों से बच सके। सरकार के इस
दिवालियापन कानून को विशेषज्ञों एवं उद्यमियों दोनों ही द्वारा एक अच्छा कदम माना
जा रहा है।
भारत में ग्राम-ऋण की व्यवस्था
ग्रामीण ऋण की आवश्यकता एवं स्त्रोत
भारतीय
कृषक की वित्तीय आवश्यकताओं को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। यह वर्गीकरण इस
बात पर आधारित है कि किसान को किस उद्देश्य के लिए और कितने समय के लिए ऋण की
आवश्यकता है। वे तीन वर्ग निम्नलिखित हैं-
(क)
कृषक को खेती-बाड़ी घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए 15 मास से
भी कम समय के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरणतया, उसे बीज, उर्वरक और चारा
आदि खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होती है। जिस वर्ष फसल अच्छी न हुई हो, उस वर्ष
अपने परिवार का निर्वाह करने के लिए भी उसे धन की आवश्यकता हो सकती है। वे ऋण
अल्पावधि ऋण (Short-tem Loans) होते हैं जो साधारणतया फसल काटने पर चुका दिए
जाते
(ख)
कृषक को अपनी भूमि में सुधार करने, पशु खरीदने और कृषि उपकरण
(Agricultural Implements) प्राप्त करने के लिए 15 महीने में लेकर 5 वर्ष तक के
मध्यावधि ऋणों (Medium-Term Loans) की भी आवश्यकता होती है। अल्पावधि ऋणों की
तुलना में ये ऋण अधिक होते हैं और उन्हें अपेक्षाकृत अधिक समय के
बाद ही चुकाया जा सकता है।
(ग)
कृषक को अतिरिक्त भूमि खरीदने, भूमि में स्थाई सुधार करने, ऋण
अदा करने और महंगे कृषि यन्त्र खरीदने के लिए ऋण की आवश्यकता पड़ती है। ये ऋण 5
वर्ष से भी अधिक अवधि के लिए लिए जाते हैं। कृषक इन ऋणों को अनेक वर्षों में
थोड़ा-थोड़ा करके चुका पाता है। इन्हें दीर्घकालीन ऋण (Long-Term Loans) कहते हैं।
एक
और दृष्टि से हम किसानों की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं को दो वर्गों में बाँट सकते
हैं-उत्पादक और अनुत्पादक ऋण। उत्पादक ऋणों में ऐसे उधार शामिल किए जाते हैं : जो
किसानों को कृषि क्रियाओं में सहायया देते हैं या अपनी भूमि उन्नत करने में सहायता
देते हैं, जैसे बीज, खाद, औजार आदि क्रय करने के लिए ऋण, सरकार को कर का भुगतान
करने के लिए ऋण और भूमि पर स्थायी उन्नतियां करने, जैसे कुओं को खोदने एवं गहरा
करने, बाढ़ लगाने आदि के लिए ऋण। इसके अतिरिक्त, भारतीय किसान प्रायः अनुत्पादक
कार्यों के लिए भी उधार लेता है, जैसे विवाह, जन्म एवं मृत्यु, मुकद्दमेबाजी के
लिए ऋण। यदि अनुत्पादक ऋण ब्याज की अत्यधिक दर पर लिए जाएं, तो यह बहुत अनुचित और
अविवेकपूर्ण बात है।
ग्राम ऋण के स्रोत
किसान
अपनी अल्पावधि और मध्यावधि वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहूकारों, सहकारी
ऋण समितियों और सरकार से रुपया उधार लेता है। दीर्घावधि आवश्यकताओं को पूरा करने
के लिए वह साहूकारों, भूमि विकास बैंकों और सरकार से रुपया उधार लेता है।
1. गैर-संस्थानात्मक स्रोत (Non-Institutional Sources)
साहूकार
गाँवों
में दो प्रकार के साहूकार हैं। एक वे साहूकार हैं जो खेती और साहूकारी दोनों ही
कार्य करते हैं इन्हें कृषक साहूकार (Agriculturist Moneylenders) कहते
हैं। ये मूलतः खेती करते हैं किन्तु सहायक व्यवसाय के रूप में
रुपया उधार देने का भी काम करते हैं। गाँव का दुकानदार भी साहूकारी कर लेता है।
इसके अलावा, एक दूसरे प्रकार के साहूकार होते हैं जिनका व्यवसाय रुपया उधार देना
होता है।
किसान
को नकद रुपये की आवश्यकता के लिए साहूकार पर निर्भर रहना पड़ता है। पिछले वर्षों
से किसान को नकद धन देने वाले साधन के रूप में साहूकार का महत्व तेजी से कम होता
जा रहा है।' उदाहरणतया, अखिल भारतीय ग्राम ऋण-सर्वेक्षण (1954) की जाँच के अनुसार
सम्पूर्ण ग्राम-ऋण में साहूकारों द्वारा दिये गये ऋण का भाग लगभग
70 प्रतिशत था किन्तु 1991 में किए गए एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार साहूकारों के ऋण का अंश केवल 18 प्रतिशत था। इससे यह बात स्पष्ट हो
जाती हैं कि संस्थानात्मक अभिकरणों (Institutional Agencies) के मुकाबले साहूकार
पिछड़ते जा रहे हैं। किन्तु फिर भी गाँवों में साहूकारों की प्रधानता के अनेक कारण
हैं :
(क)
साहूकार उत्पादक और अनुत्पादक दोनों प्रकार के प्रयोजनों के लिए
तथा अल्पावधि और दीर्घावधि दोनों प्रकार की आवश्यकताओं के लिए किसान को खुले रूप
में ऋण देता है। (ख) साहूकार तक किसान आसानी से जा सकता है। साहूकार का कृषक के
परिवार से कई पीढ़ियों से पारिवारिक सम्बन्ध होता है। (ग) उनके लेन-देन के तरीके
सरल और
लचीले
होते हैं। (घ) स्थानीय स्थिति से परिचित रहने के कारण वह जमीन और प्रोनोट दोनों के
ही बदले ऋण दे सकता है। ऋण का रुपया वापस लेने की कला वह भली-भाँति जानता है।
व्यापारी एवं कमीशन एजेण्ट
व्यापारी
एवं कमीशन एजेण्ट किसानों को फसल के पकने से पूर्व उत्पादक उद्देश्यों के लिए ऋण
उपलब्ध कराते हैं। वे किसानों को मजबूर करते हैं कि वे फसल को कम कीमतों पर बेचें
और वे अपने लिए भारी कमीशन वसूल करते हैं। वित्त का यह स्रोत नकद फसलों अर्थात
रूई, मूंगफली, तम्बाकू आदि या फलों के बगीचों, आमों आदि के लिए विशेष रूप से
महत्वपूर्ण है। व्यापारी एवं कमीशन एजेण्टों का कृषि-वित्त में भाग जो 1951-52 में
5.5 प्रतिशत था, बढ़कर 1961-62 में 8.7 प्रतिशत हो गया परन्तु 1991 में कम होकर
2.5 प्रतिशत हो गया। व्यापारी एवं कमीशन एजेण्टों को भी महाजनों जैसा ही समझा जा
सकता है क्योंकि उनके द्वारा किसानों को दिए गए उधार की दरें अत्यधिक होती हैं और इनके
अन्य अवांछनीय प्रभाव भी होते हैं।
सम्बन्धी
किसान
अपने सम्बन्धियों से नकद या वस्तुओं के रूप में उधार करते हैं ताकि वे अस्थायी
कठिनाइयों को दूर कर सकें। ये ऋण सामान्यतः अनौपचारिक रूप में दिए जाते हैं, इन पर
ब्याज या तो लिया ही नहीं जाता या ब्याज की दर बहुत नीची होती है और ये ऋण फसल
कटने के बाद लौटा दिए जाते हैं। परन्तु वित्त का यह स्त्रोत अनिश्चित है और आधुनिक
कृषि की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के कारण, किसान इस स्रोत पर अधिक निर्भर नहीं रह
सकता।
भू-स्वामी एवं अन्य
किसान,
विशेषकर छोटे किसान एवं काश्तकार, भू-स्वामियों एवं अन्य पर अपनी आवश्यकताओं के
लिए निर्भर रहते हैं। वित्त के इस स्रोत में वे सभी दोष विद्यमान हैं जो महाजनों,
व्यापारियों या कमीशन एजेण्टों द्वारा उपलब्ध कराये गये वित्त में पाये जाते हैं। प्रायः
इस वित्त से छोटे किसानों से उनकी भूमि छल द्वारा हर ली जाती है। भूमिहीन श्रमिकों
को बन्धुआ श्रम (Bonded Labour) बनने के लिए मजबूर किया जाता है। इससे भी बुरी बात
यह है कि वित्त का यह स्रोत अधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है यह 1951 52 में 3.3
प्रतिशत से बढ़कर 1961 62 में 14.5 प्रतिशत वित्त जुटाने लगा परन्तु
1991 में इसका भाग कम होकर 4.0 प्रतिशत रह गया।
कृषि वित्त के गैर-संस्थानात्मक स्त्रोतों के मुख्य दोष हैं : अनुत्पादक
उपभोग कार्यों के लिए ऋण का प्रयोग, ब्याज की ऊँची दरें और इस प्रकार किसानों
द्वारा मूलधन एवं ब्याज लौटाने की असमर्थता, छोटे किसानों द्वारा ऋण प्राप्त करने
की कठिनाई, आदि।
2. ऋण के संस्थानात्मक स्रोत
संस्थानात्मक
ऋण में ऐसी राशियाँ शामिल की जाती हैं जो सहकारी समितियों, वाणिज्य बैंकों और
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों (Regional Rural Banks) द्वारा उपलब्ध करायी जाती हैं।
राज्यीय सरकारें राज्यीय सहकारी बैंकों और भूमि विकास बैंकों को वित्तीय सहायता
देने के अतिरिक्त "तक्कावी ऋण" (Taccavi Loans) भी उपलब्ध कराती हैं।
सहकारिता के क्षेत्र में, प्राथमिक कृषि उधार समितियाँ (Primary Agricultural
Credit
Societies) अल्पकालीन एवं मध्यमकालीन ऋण उपलब्ध करती हैं और भूमि
विकास बैंक कृषि के लिए दीर्घकालीन ऋणों का प्रबन्ध करते हैं। वाणिज्य बैंक जिनमें
क्षेत्रीय ग्राम बैंक भी शामिल हैं कृषि तथा सम्बद्ध क्रियाओं के लिए अल्पकालीन
एवं सावधि ऋण दोनों ही उपलब्ध कराते हैं। कृषि तथा ग्राम विकास के लिए राष्ट्रीय
बैंक (NABARD) राष्ट्रीय स्तर पर कृषि उधार के लिए शिखर संस्थान है और ऊपर वर्णित
सभी एजेन्सियों को पुनर्वित सहायता (RefinanceAssistance) उपलब्ध कराता है। भारतीय
रिजर्व बैंक, देश के केन्द्रीय बैंक के रूप में ग्राम-उधार के लिए व्यापक निर्देश
और राष्ट्रीय बैंक को इसके कार्यों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
संस्थानात्मक ऋण की आवश्यकता गैर-सरकारी एजेन्सियों द्वारा उपलब्ध कराये गये उधार
की अपर्याप्तता और इनके दोषों के कारण उत्पन्न होती है।
(i) सहकारी ऋण समितियाँ
सहकारी
वित्त प्रबन्ध ग्राम ऋण का सबसे सस्ता और बढ़िया स्रोत है। इसमें किसान के शोषण का
भय नहीं रहता। ब्याज की दर भी काफी कम है। 1992-93 में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से
सहायता प्राप्त होने के कारण 88,000 प्राथमिक सहकारी ऋण समितियों द्वारा 5,080
करोड़ रुपये के अल्पकालीन एवं मध्यमकालीन ऋण उपलब्ध कराये गये। 1994-95 में ये
बढ़कर 6,600 करोड़ रुपये तक हो गया। सक्रिय प्राथमिक उधार समितियाँ (Primary
Credit Societies) 86 प्रतिशत ग्रामों तक फैली हुई हैं और इन से 86 प्रतिशत ग्राम
जनसंख्या को लाभ होता है। सहकारी समितियों द्वारा 1981 में कृषि के लिए कुल उधार
(जिसमें सहकारी ऋण समितियाँ एवं भूमि विकास बैंक भी शामिल हैं।) की आवश्यकता का 33
प्रतिशत जुटाया गया जबकि 1951-52 में यह अनुपात केवल 3 प्रतिशत था। कृषि वित्त के
अन्य संस्थागत स्रोतों में भारी वृद्धि के कारण हालांकि सहकारी क्षेत्र के कुल
कृषि वित्त में भारी वृद्धि हाल ही के वर्षों में दिखाई देती है लेकिन फिर भी उनका
कृषि वित्त में योगदान मात्र 21 प्रतिशत ही गया है।
फिर
भी किसानों को महाजनों के चंगुल से पूर्णतया छुड़ाया नहीं जा सका। किसानों की सभी
ऋण सम्बन्धी आवश्यकताएँ सहकारी समितियों द्वारा पूरी नहीं की गयी हैं। इसके
अतिरिक्त, छोटे किसान अपनी आवश्यकताए सहकारी समितियों से भी पूरी करने में कठिनाई
अनुभव करते हैं। साथ ही, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान जैसे विशाल
क्षेत्र हैं जहाँ यह आन्दोलन या तो फैल नहीं सका या इसकी जड़ें गहरी नहीं हुई हैं
और परिणामत: किसान सहकारी समितियों के लाभों से वंचित रहे हैं। बहुत सी जगहों पर
सहकारी समितियों का कार्य सिद्धान्तहीन और बेईमान किसानों द्वारा बुरी तरह बर्बाद
कर दिया गया है और इस प्रकार जरूरतमन्द किसानों को सहकारिता के लाभ उपलब्ध नहीं हो
पाये हैं।
(ii) भूमि-बन्धक बैंक या भूमि-विकास बैंक
दीर्घकालीन
ऋणों की आवश्यकता भूमि बन्धक बैंकों (Land Mortage Banks) (जिन्हें आजकल
भूमि-विकास बैंक कहा जाता है) से पूरी हो रही है। इन बैंकों का
उद्देश्य किसान को उसकी भूमि बन्धक रखकर दीर्घकालिक ऋण प्रदान करना है। भूमि विकास
बैंकों से मिलने वाला ऋण काफी सस्ता होता है और उसकी अदायगी काफी लम्बे समय में करनी
होगी। अत: यदि पिछले ऋणों की अदायगी करनी हो या नई जमीन खरीदनी हो या भूमि या
ट्यूबवैल आदि के रूप में कोई सुधार करना हो, तो इन बैंकों से उधार लेना
सुविधापूर्ण होता है। ऋण, साधारणतया, 15 से 20 वर्ष तक की लम्बी अवधि के लिए दिए
जाते हैं। यद्यपि भारतवर्ष में पिछले कुछ वर्षों में भूमि-विकास बैंकों ने काफी
प्रगति की है किन्तु फिर भी किसान की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति में उनका
योगदान अधिक नहीं रहा है। बहुत से ऋणों के लिए किसानों को इन बैंकों के बारे में
जानकारी उपलब्ध नहीं है और न ही वे इनकी लाभदायकता से परिचित हैं। दूसरे, इन
बैंकों की व्यवस्था करना कठिन है। केन्द्रीय भूमि विकास बैंकों की संख्या 1950-51
में 5 से बढ़कर 1983-84 में 19 हो गई जब कि प्राथमिक भूमि-विकास बैंकों (Primary
Land Development Banks) की संख्या इसी काल के दौरान 286 से बढ़कर 1,170 हो
गई। परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि लगभग 70 प्रतिशत भूमि
विकास बैंक दक्षिण भारत के तीन राज्यों अर्थात् तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और
कर्नाटक में स्थित हैं। जबकि 1950-51 में इन बैंकों द्वारा केवल 3 करोड़ का उधार
उपलब्ध कराया गया, इसकी मात्रा 1997-98 में बढ़कर 3,640 करोड़ रुपये हो गयी। भूमि
विकास बैंक भूमि की प्रतिभूति (Security) के विरुद्ध ऋण देते हैं और बड़े भू
स्वामियों ने इनका लाभ उठाया है और मोटे तौर पर छोटे किसानों को इनसे लाभ प्राप्त
नहीं हुआ।
(iii) वाणिज्य बैंक और ग्राम वित्त
चिरकाल
से भारत में वाणिज्य बैंकों ने अपनी क्रियाएँ शहरी क्षेत्रों तक सीमित रखीं, वे
शहरी जनता से जमा स्वीकार करते और शहरी क्षेत्रों में व्यापार और उद्योग के लिए
वित्त जुटाते। इनके खिलाफ बहुत समय से यह शिकायत की जा रही थी कि वे कृषि क्षेत्र
को उधार उपलब्ध नहीं कराते। 1969 के बैंक राष्ट्रीयकरण के पश्चात् इन्हें कृषि
क्षेत्र की ओर विशेष रूप से ध्यान देने के लिए बाध्य किया गया। जून 1969 में अनुसूचित
वाणिज्य बैंकों द्वारा 44 करोड़ रुपये का वित्त उपलब्ध कराया गया। 2006-07 में
वाणिज्य बैंकों ने क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के साथ कृषि क्षेत्र को 1,40,380 करोड़
रुपये के प्रत्यक्ष ऋण उपलब्ध कराए।
(iv) क्षेत्रीय ग्राम बैंक
ये
बैंक 1975 से स्थापित किए गए और इनका विशेष उद्देश्य छोटे तथा सीमान्त किसानों,
कृषि मजदूरों, देहाती दस्तकारों आदि को प्रत्यक्ष ऋण उपलब्ध कराना था। ये ऋण
उत्पादन कार्यों के लिए दिए जाते हैं। 2006-07 तक 196 क्षेत्रीय
ग्राम बैंक कायम हो चुके थे और वे ग्रामीण जनता को लगभग 20,440
करोड़ रुपये वार्षिक उधार के रूप में उपलब्ध कराते रहे हैं। इन बैंकों के ऋणों का
90 प्रतिशत ग्राम क्षेत्रों के कमजोर वर्गों को दिया जाता है।
(v) सरकार और ग्रामीण-उधार
सरकार
ग्राम-वित्त का अल्पकाल एवं मध्यकाल के लिए महत्वपूर्ण स्रोत रही है। सरकार द्वारा
किसानों को दिए गए ऋण आपातकाल या संकट के समय जैसे अकाल, बाढ़ आदि में सामान्यत:
दिए जाते हैं। इन पर ब्याज की दर नीची होती है-6 प्रतिशत के करीब-और इनकी वापसी का
ढंग बहुत आसान होता है। ये ऋण आसान किस्तों में भू–कर
(Land Tax) के साथ लौटाए जाते हैं। ये ऋण, ब्याज की दर नीची होने के कारण चाहे लोकप्रिय हैं परन्तु ये कभी भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाए।
1951-52 में कुल ग्राम ऋणों में इनका भाग केवल 3.3 प्रतिशत था जो 1991 में थोड़ा बढ़
कर 6.1 प्रतिशत हो गया। राज्यीय सरकारों ने कृषि के अल्पकालीन
ऋणों के लिए 350 करोड़ रुपये से 400 करोड़ रुपये के अग्रिम दिए। इस असन्तोषजनक
स्थिति के कई कारण हैं : किसान तक्कावी ऋणों को प्राप्त करने में बहुत कठिनाई
महसूस करते हैं, इसकी प्राप्ति में बहुत सी परिस्थितियों में अफसरों से ऋण स्वीकृत
कराने के लिए कुछ रिश्वत भी देनी पड़ती है। इसलिए तक्कावी ऋण लोकप्रिय नहीं बन
पाए।
निष्कर्ष
1950
में ग्राम-भारत में महाजन का सबसे अधिक महत्त्व था और संस्थानात्मक
स्रोतों द्वारा कृषि उधार की कुल आवश्यकताओं का 3 प्रतिशत से अधिक नहीं जुटाया
जाता था। चाहे महाजन अभी भी महत्वपूर्ण हैं परन्तु उनका एकाधिकार बीते युग की बात
हो गयी है। विभिन्न योजनाओं के आधीन कृषि उधार के अधिकाधिक संस्थानीकरण (Institution-alisation)
के कारण अल्पकालीन एवं मध्यकालीन उत्पादक उधार का लगभग 80 प्रतिशत इन स्रोतों से
उपलब्ध कराया गया। सहकारी उधार पर आगामी वर्षों में और भी बल दिया जाएगा जब
वाणिज्य बैंक प्रत्यक्ष उधार देने की अपेक्षा अल्पकालीन उत्पादक उधार के लिए
सहकारी प्रणाली का अधिकाधिक प्रयोग करने लगेंगे।
कृषि-वित्त के विशेष लक्षण
कृषि-वित्त
की आवश्यकता स्थिर एवं निरन्तर रहती है और यह उत्पादन की मात्रा की बजाय
कृषि-क्रियाओं के स्वभाव अधिक निर्भर करती है। किसी वर्ष के दौरान कृषि-उत्पादन
में घट-बढ़ मानसून, मौसम या अन्य प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण हो सकती है
परन्तु कृषि क्रियाओं के लिए वित्त की मात्रा एक या दूसरे वर्ष के लिए लगभग स्थिर
रहती है। समय के साथ साथ कृषि टैक्नोलॉजी में परिवर्तन के परिणामस्वरूप वित्त की
आवश्यक मात्रा में वृद्धि होती रहती है।
जबकि
कोई उद्योगपति वस्तुओं के संग्रह, मशीनरी आदि के विरुद्ध जो कि आसानी से नकदी में
परिवर्तित किए जा सकते हैं, उधार ले सकता है, वहाँ किसान तो केवल अपनी भूमि को
बन्धक रख कर ही ऋण प्राप्त कर सकता है और भूमि ऐसी परिसम्पत् है जिसे आसानी एवं शीघ्रता
से नकदी में तब्दील नहीं किया जा सकता। यदि किसान अपने खाद्यान्नों या कच्चे माल
के विपण्य अतिरेक (Marketable Surplus) के विरुद्ध उधार लेने को तैयार हो जाएँ, तो
उनके लिए बैंकों से वित्त-प्रबन्ध करना आसान हो जाएगा परन्तु यह भारत में सामान्य
व्यवहार नहीं रहा है। किसानों को खेती और उत्पादन सम्बन्धी अन्य क्रियाओं के लिए
उधार लेना पड़ता है। भूमि को छोड़ किसी अन्य भौतिक प्रतिभूति (Tangible
Security) के अभाव, और उत्पादन, न कि विपणन के लिए उधार लेने की
प्रवृत्ति ये दो ऐसे महत्त्वपूर्ण कारण हैं जो भूतकाल में वाणिज्य बैंकों को
किसानों को उधार देने से रोकते रहे हैं।
तकनीकी
प्रगति या हरी क्रान्ति के बावजूद, अभी भी भारतीय कृषि
'मानसून में जुआ' ही है। उत्पादन में इतनी अनिश्चितता के कारण कृषि को वाणिज्य बैंकों एवं बीमा कम्पनियों के लिए एक जोखिमपूर्ण व्यवसाय ही
समझा जाता है।
भारतीय
किसान, विशेषकर छोटे किसानों की भारी मात्रा, को न केवल उत्पादक कार्यों के लिए
ऋणों की आवश्यकता पड़ती है बल्कि उपभोग कार्यों के लिए भी। छोटे किसान को कम
काम-काज के मौसम में भी उधार की आवश्यकता पड़ती है या ऐसे समय पर जब फसल पूर्णतया विफल
हो जाती है। इसके अतिरिक्त, परम्परा से भी हमारे किसान अपनी शक्ति के बाहर खर्च
करने के आदी हैं और ये खर्चे जन्म, मृत्यु, शादियों और धार्मिक उत्सवों पर किए
जाते हैं। मुकदमेबाजी उधार की आवश्यकता का एक अन्य अनुत्पादक परन्तु महत्वपूर्ण
कारण है। भारतीय महाजन किसानों की इन बहुविधा आवश्यकताओं को ध्यान में रखता है और सभी
मौसम में और उद्देश्यों के लिए ऋण देता है जबकि सहकारी समितियाँ अपने ऋणों को
मुख्यतः उत्पादक उद्देश्यों के लिए सीमित रखती हैं।
छोटे
किसानों, सीमान्त कृषकों और भूमिहीन मजदूरों और ग्रामीण दस्तकारों की अपनी विशेष
समस्याएँ हैं। जबकि बड़े किसानों के पास अपनी धनराशि होती है या वे सहकारी
समितियों, वाणिज्य बैंकों से उधार प्राप्त कर सकते हैं, छोटे किसानों के सामने
अपनी आवश्यकताओं के लिए ऋण प्राप्त करने में वस्तुत: बहुत सी कठिनाइयाँ हैं। उनके
पास ऋणों को लौटाने की सामर्थ्य होती है। कई बार तो सहकारी समितियाँ भी इनके
विरुद्ध भेदभाव करती हैं। इस प्रकार वे मजबूर होकर महाजनों से ऋण लेते हैं और अपनी
थोड़ी बहुत जायदाद या अपने आपको बन्धक रख देते हैं। ग्रामीण ऋणग्रस्तता और बन्धुआ
श्रम (Bonded Labour) का आविर्भाव ऋण सुविधाओं के अभाव का प्रत्यक्ष परिणाम है।
अन्तिम,
भारतीय किसानों की मूल आवश्यकता सस्ते उधार की प्राप्ति है जो पर्याप्त मात्रा में
और उचित समय पर उपलब्ध होना चाहिए। सहकारी समितियाँ जिन्हें किसानों की वित्तीय
आवश्यकताओं को पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी, सस्ता उधार तो उपलब्ध कराती हैं
परन्तु उनकी सहायता पर्याप्त नहीं है। किसानों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत सहकारी समितियों
के ऋणों से वंचित रहता है। सहकारी ऋण सस्ते तो अवश्य है परन्तु समय पर प्राप्त
नहीं होते। इन सभी परिस्थितियों में उत्पादन क्रियाओं पर दुष्प्रभाव पड़ता है और
किसानों को (और विशेषकर छोटे किसानों को) मजबूर होकर महाजनों से ऋण प्राप्त करने
पड़ते हैं जो अत्यधिक ब्याज दर प्राप्त करते हैं और उनके पास बन्धक के रूप में रखी
गयी भूमि हड़प कर लेते हैं। चाहे महाजनों से पर्याप्त उधार मिल जाता है और यह उचित
समय पर भी मिल जाता है परन्तु यह बहुत ही महँगा है। अतः भारत में ग्रामीण ऋण का
मूल दोष यह है कि यह न तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है, न ही उचित समय पर
और यह ब्याज की उचित दर भी उपलब्ध नहीं होता।
ग्रामीण वित्त में बहु-एजेन्सी दृष्टिकोण
राष्ट्रीय नीति और उद्देश्य
कृषि
विकास कार्यक्रमों के लिए कृषि-उधार सबसे अधिक महत्वपूर्ण आदान है। बहुत समय तक
निजी साहूकार कृषि-उधार का मुख्य स्त्रोत था। यह स्रोत अपर्याप्त, अत्यन्त महँगा
और शोषणात्मक था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् किसानों को सस्ता और पर्याप्त
उधार उपलब्ध कराने के लिए बहु-एजेन्सी प्रणाली अपनायी गयी जिसमें सहकारी समितियाँ,
वाणिज्य बैंक और क्षेत्रीय ग्राम बैंक संस्थानात्मक ऋण (Institutional Credit) में
शामिल किए गए। कृषि-ऋण की नीति का मुख्य लक्ष्य संस्थानात्मक स्रोतों को बढ़ावा
देना रहा है ताकि कृषि तथा ग्राम विकास प्रोग्रामों के लिए कमजोर वर्गों और कम
विकसित क्षेत्रों को समय पर और पर्याप्त मात्रा में ऋण उपलब्ध कराया जाए।
नीति के मूल उद्देश्य इस प्रकार हैं:-
(क)
फार्म-क्षेत्र को उधार का अधिक एवं समय पर प्रवाह आश्वस्त करना;
(ख)
साहूकारों के महत्व को ग्राम क्षेत्र में कम और धीरे-धीरे समाप्त कर देनाः
(ग)
ऋण-सुविधाओं को देश के सभी क्षेत्रों में उपलब्ध कराना अर्थात् क्षेत्रीय
असन्तुलनों (Regional Imbalances) को कम करना; और
(घ)
ऐसे क्षेत्र जिनमें विशेष कार्यक्रम जैसे दाल-विकास प्रोग्राम, विशेष चावल उत्पादन प्रोग्राम और राष्ट्रीय तिलहन विकास प्रोग्राम चल रहे
हैं, को अधिक ऋण सहायता उपलब्ध कराना।
संस्थानात्मक ऋण ( Institutional Credit) की आवश्यकता
संस्थानात्मक
ऋण की आवश्यकता इस कारण अनुभव की गयी क्योंकि निजी एजेन्सियों द्वारा उपलब्ध कराए
गए ऋण अपर्याप्त माने गए और उनमें बहुत से दोष भी पाए गए। निजी ऋण के मुख्य दोष
निम्नलिखित हैं:-
1.
निजी उधार लाभ प्रेरणा पर आधारित होता है और इस कारण यह सदैव
शोषणात्मक होता है।
2.
यह बहुत महँगा होता है और भूमि की उत्पादिता से इसका कोई सम्बन्ध
नहीं होता।
3.
यह न तो सबसे अधिक वांछनीय दिशाओं में प्रवाहित होता है और न ही
सबसे अधिक जरूरतमन्द व्यक्तियों को प्राप्त होता है;
4.
यह कृषि में सुधार करने की क्रियाओं के लिए उपलब्ध नहीं होता और
इस कारण कृषि उत्पादन में बहुत सी उन्नतियाँ नहीं की जा सकती क्योंकि इनके लिए
लम्बे समय और ब्याज की सस्ती दरों पर धन-राशि उपलब्ध नहीं होती; और
5.
इसका समन्वय कृषकों की अन्य आवश्यकताओं के साथ उचित रूप में नहीं
किया जाता।
इसके
विरुद्ध, संस्थानात्मक उधार शोषणात्मक नहीं होता और इसका बुनियादी उद्देश्य सदा
किसान की सहायता करना होता है ताकि उसकी उत्पादिता बढ़े और आय अधिकतम हो सके।
ब्याज की दर न केवल कम होती है बल्कि यह किसानों के विभिन्न वर्गों और विभिन्न
उद्देश्यों के लिए अलग-अलग हो सकती है। संस्थान अल्पकालीन ऋणों और दीर्घकालीन ऋणों
की आवश्यकताओं में स्पष्ट भेद भी कर लेते हैं और इनकी आवश्यकतओं के अनुसार ऋण देते
हैं। अन्तिम , संस्थानात्मक ऋण को किसानों की अन्य आवश्यकताओं के साथ पूर्णतया
समन्वित कर लिया जाता है।
बहु-एजेन्सी प्रणाली का विकास
कृषि
उत्पादन की बिगड़ती हुई समस्या और साहूकारों और महाजनों के लालची रवैये को देखते
हुए सरकार ने सहकारी समितियाँ और भूमि बन्धक बैंक स्थापित किए। सहकारी समितियों से
बहुत अधिक प्रत्याशाएँ थीं क्योंकि सहकारी उधार आन्दोलन का नेतृत्व स्वयं किसानों
के हाथ में था। 1950-51 में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि सहकारी समितियाँ
किसानों की कुल ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं का केवल 3.3 प्रतिशत उपलब्ध कराती हैं जबकि
साहूकार 93 प्रतिशत ऋण मुहैय्या करते हैं। अखिल भारतीय ऋण सर्वेक्षण समिति (1954)
ने उल्लेख किया: "सहकारिता विफल हो गयी हैं परन्तु सहकारिता
को सफल बनाना होगा।" इस समिति की सिफारिशों के आधार पर
भारतीय रिज़र्व बैंक ने सहकारी आन्दोलन को मजबूत बनाने के लिए बहुत से उपाय किए।
1955
में भारतीय स्टेट बैंक स्थापित किया गया जिनका लक्ष्य अन्य उद्देश्यों
के साथ कृषि-ऋण के लिए विशेष चिन्ता करना था। अखिल भारतीय ग्राम ऋण सर्वेक्षण
समिति (All-India Rural Credit Survey Committee) (1969) ने ही बहु-एजेन्सी
प्रणाली द्वारा ग्राम-क्षेत्र को वित्त उपलब्ध कराने की सिफारिश
की थी। पहली बार सरकार ने यह स्वीकार किया कि ग्राम-ऋण केवल सहकारी समितियों
द्वारा उपलब्ध नहीं कराया जा सकता और वाणिज्य बैंकों को भी ग्राम-क्षेत्र में
महत्वपूर्ण कार्य भाग निभाना होगा। 1969 में 20 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण का
यही मूल कारण था। इसके बाद क्षेत्रीय ग्राम बैंक (Regional Rural Banks) स्थापित
किए गए। अत: इस प्रकार बहुत से वर्षों में कृषि के लिए
संस्थानात्मक ऋण के रूप में बहु-एजेन्सी प्रणाली का विकास हुआ।
जबकि
भारतीय रिजर्व बैंक सहकारी क्षेत्र के प्रत्यक्ष रूप में सहायता दे रहा था, यह
महसूस किया गया कि बहु-एजेन्सी प्रणाली द्वारा ग्राम-वित्त के लिए एक विशेष
बैंकिंग संस्थान की आवश्यकता है जो ग्राम-वित्त में विशिष्ट कार्य कर रहे सभी
संस्थानों की क्रियाओं को समन्वित कर सकें और उनकी सहायता भी कर सके। इस कारण
ग्राम-वित्त के लिए शीर्ष बैंक (Apex Bank) के रूप में कृषि तथा ग्राम विकास के
लिए राष्ट्रीय बैंक (National Bank For Agriculture and Rural Development- NABARD)
1982 में स्थापित किया गया।
तालिका
से व्यक्त होता है कि चाहे कृषि के लिए संस्थानात्मक ऋण लगातार बढ़ता रहा है,
परन्तु
(क)
ग्राम ऋण में सहकारी बैंकों का योगदान प्रतिशत रूप में घटता जा रहा
है 1984-85 में 55 प्रतिशत से 2008-09 में 13 प्रतिशत;
(ख)
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों का भाग महत्त्वहीन है-6 प्रतिशत से 8 प्रतिशत के बीच
(ग)
वाणिज्य बैंकों के भाग में लगातार वृद्धि हुई है-45 प्रतिशत से 2008-09 में 78 प्रतिशत
तक।
यह
अच्छा होगा कि यदि सहकारी बैंक एवं क्षेत्रीय ग्राम बैंक, वाणिज्य बैंकों के अनुषगी (Subsidiaries) बना दिए जाएं।
किसानों के लिए संस्थानात्मक ऋण का विकास
तालिका
से पता चलता है कि कुल संस्थानात्मक स्रोतों से कृषि-ऋण लगातार बढ़ता गया और यह
1984-85 में 6,230 करोड़ से बढ़कर 1997-98 में 31960 करोड़ रुपये
हो गया। इसके 2010-11 में 4,47,514 करोड़ रुपये हो गया। सहकारी
समितियों का भाग जो 1984 85 कुल ऋण का 55 प्रतिशत था कम हो कर 2009-10 में 17
प्रतिशत हो गया है। तदनुरूप वाणिज्य बैंकों और क्षेत्रीय ग्राम बैंकों का भाग 45
प्रतिशत से बढ़कर 83 प्रतिशत हो गया।
दसवीं
योजना (2002-07) कृषि क्षेत्र में संस्थानात्मक उधार का लक्ष्य
736,000 करोड़ रुपये रखा जोकि नौंवी योजना की तुलना में लगभग तीन
गुना था। इस प्रकार औसत वार्षिक कृषि उधार को 1 49,120 करोड़ रुपये तक ले जाने का
लक्ष्य तय किया गया जबकि नौवीं योजना में वार्षिक औसत उधार 46,000 करोड़ रुपये था।
किन्तु
तालिका से पता चलता है कि 2002-03 से 2010-11 के दौरान संस्थानात्मक उधार में
महत्वपूर्ण वृद्धि हुई और यह 4,47,514 करोड़ रुपये तक पहुंच गया।
संस्थानात्मक ऋण की कमियाँ
पंचवर्षीय
योजनाओं में कृषि-ऋण के क्रमिक संस्थानीकरण (Institulionalisation)
के परिणामस्वरूप सहकारी समितियों वाणिज्य बैंकों, सरकारी विभागों
और क्षेत्रीय ग्राम बैंकों द्वारा अल्पकालीन एवं मध्यमकालीन उत्पादन ऋण का 60 प्रतिशत से अधिक उपलब्ध कराया जाता है। आने वाले
वर्षों में सहकारी ऋण पर अधिक बल दिया जाएगा क्योंकि वाणिज्य बैंक, कृषि को
प्रत्यक्ष रूप में ऋण उपलब्ध कराने की अपेक्षा-जैसा कि वे अब कर रहे हैं-सहकारी
प्रणाली का (अल्पकालीन उत्पादक ऋण के लिए) अधिकाधिक प्रयोग करेंगे।
किन्तु
यह याद रखना होगा कि पिछले 30 वर्षों में ग्रामीण ऋण के बारे में किए गए सभी
परिवर्तन एवं सुधार गरीबी पर करारी चोट करने में विफल रहे हैं। न ही वे देश की
ग्रामीण जनसंख्या के निम्नतम 70 प्रतिशत की आर्थिक दिशा को सुधारने के लिए
पर्याप्त ऋण उपलब्ध करा पाए हैं। इस सम्बन्ध में यह साधिकार कहा जा सकता है कि
(i)
सरकार द्वारा स्थापित बहुत से संस्थानों और उनके द्वारा ग्राम-वित्त की सुविधाओं के भारी विस्तार को देश के मध्यम एवं समृद्ध किसानों के
उच्चतम 30 प्रतिशत ने हथिया लिया।
(ii)
वे ऋण-सुविधाएँ जो विशेष रूप से सीमान्त और छोटे किसानों और
आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए कायम की गयीं, वे भी लक्षित वर्ग समूहों तक
नहीं पहुँचतीं और उन्हें भी समृद्ध किसान सरकारी अफसरों और राजनीतिज्ञों के साथ
मिलकर हथिया लेते हैं।
(iii)
ग्राम-जनसंख्या के सबसे कमजोर वर्गों अर्थात् बन्धुआ श्रमिकों, भूमिहीन
कृषि मजदूरों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों आदि के लिए कुछ भी नहीं किया गया। ये
लोग, जो ग्राम जनसंख्या का 25 से 30 प्रतिशत हैं उच्चजातियों के साहूकारों एवं
भू-पतियों द्वारा अब भी बड़ी बेरहमी से शोषित किए जाते हैं। इसी कारण पूरे देश
में, विशेषकर आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में किसानों द्वारा विस्तृत रूप में
आत्महत्याएं की जा रही हैं।
(iv)
वाणिज्य बैंकों, सहकारी समितियों एवं बैंकों, क्षेत्रीय ग्राम बैंकों आदि द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता का केवल प्रचार की दृष्टि से महत्व
तो है परन्तु इसने 70 प्रतिशत निम्नतम ग्राम-जनसंख्या के ऋण की समस्या को छुआ तक
भी नहीं है।
बहु-एजेन्सी प्रणाली की समस्याएँ
सरकार
का यह मत था कि ग्रामीण ऋण पर बहु-एजेन्सी प्रणाली छोटे किसानों को साहूकारों एवं
महाजनो के चंगुल से मुक्त कराने कार सही समाधान है। परन्तु थोड़े ही समय में, बहुत
सी समस्याएँ उभर कर सामने आयीं। श्री सी.ई. कामथ की अध्यक्षता में कार्यदल
(Working Group) ने इस प्रणाली की निम्नलिखित मुख्य समस्याएं बतायी हैं:-
(i)
एक ही क्षेत्र में काम करने वाली विभिन्न एजेन्सियों में कोई तालमेल
नहीं था और इसके परिणामस्वरूप कुछ क्षेत्रों में बहुत अधिक वित्त जुटाया गया और
कुछ अन्य क्षेत्रों में कम मात्रा में वित्त जुटाया गया।
(ii)
अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme) और जिला ऋण योजनाओं को
अपनाने के बावजूद, विभिन्न एजेन्सियां प्रायः एक अर्थपूर्ण कृषि-ऋण प्रोग्राम के
निर्माण एवं विकास में विफल रहीं।
(iii)
भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मार्गदर्शी निर्देश जारी करने के बावजूद, विभिन्न एजेन्सियों ने ऋण प्रदान करने और उनकी वसूली के बारे में
अलग-अलग कार्यविधि और नीति अपनायी। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न एजेन्सियों में
अनावश्यक प्रतियोगिता होने लगी।
(iv)
भिन्न-भिन्न एजेन्सियों द्वारा एक ही प्रतिभूति (Security) के विरुद्ध दिए गए ऋणों की वसूली के बारे में व्यावहारिक समस्याएँ पैदा हो गयीं।
इसके नतीजे के तौर पर भारी बकाया राशियाँ कायम हो गयीं।
हाल
ही में चालू की गयीं सेवा क्षेत्र प्रणाली (Service Area
Approach) निश्चित ही ऋण-प्रदान करने की प्रणाली में एक सुधार है परन्तु इसके परिणामस्वरूप बहु-एजेन्सी प्रणाली की कमजोरियाँ समाप्त नहीं
की जा सकी।
उधार
देने वाली संस्थाओं, विशेषकर सहकारी समितियों की मुख्य समस्या बकाया राशियों का
असंतोषजनक स्तर है। बकाया राशियों (Overdues) का अनुपात सहकारी
समितियों के लिए 40 से 42 प्रतिशत है क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के
लिए 47 प्रतिशत है। अत: देश के विभिन्न भागों में सहकारी समितियों और वाणिज्य
बैंकों की हालत बड़ी शोचनीय है। योजना आयोग ने बड़े खेद से इस स्थिति को स्वीकार
करते हुए उल्लेख किया
है
: "बहुत से राज्यों जिनमें महाराष्ट्र और गुजरात जैसे कुछ प्रगतिशील राज्य भी
शामिल है, में जान-बूझकर ऋणवापसी में चूक के परिणामस्वरूप बकाया राशियों को मात्रा
लगातार बढ़ती जा रही है। इन ऋणों को बट्टे खाते में डाल कर सरकारी खजाने से
साहाय्य (Subsidies) उपलब्ध कराते जाने से, कुछ राज्यों ने देश में एक अनुचित
उदाहरण कायम किया है। यदि इस प्रवृत्ति को पलटा न गया, और यदि बैंकों को अनुदान
(Grants) उपलब्ध कराने वाले संस्थानों में तबदील कर दिया गया और दुर्लभ साधनों का
बार-बार प्रयोग न किया गया जिससे देश को अधिकतम लाभ प्राप्त हो, तो बैंकिंग
प्रणाली किसानों की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के लिए अधिक ऋण उपलब्ध नहीं करा
सकेगी।"
किसान
वर्ग सारे देश में गुस्से और असंतोष के कारण अत्यन्त दु:खी था कि बैंक दरों में
गिरावट का लाभ उन्हें प्राप्त नहीं हो रहा है और उन्हें साहूकारों से ऊंची दरों पर
ऋण प्राप्त करना पड़ता है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब में किसानों द्वारा
अनेक आत्हत्याएं भी की गयीं। 2004 में राजग सरकार की हार का यह प्रमुख
कारण था।
संप्रग
सरकार ने कृषि में ऋण-प्रवाह तेज़ करने की आवश्यकता महसूस की। इसके लिए नाबार्ड,
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और वाणिज्य बैंकों से परामर्श भी किया और फिर सरकार ने
कृषि के लिए एक पैकेज की घोषणा की। जून 2004 में घोषित पहल में निम्नलिखित बातें
शामिल की गयों:-
(i)
सभी उधार देने वाले संस्थानों अर्थात् सहकारी बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और वाणिज्य बैंकों से कृषि-उधार को 85,000 करोड़ रूपये से
बढ़ाकर 1,05,000 करने का आग्रह किया अर्थात् 30 प्रतिशत की वृद्धि जो साल-दर-साल
जारी रखनी होगी। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार की फार्म-उधार सम्बन्धी
प्रतिष्ठा साल-दर साल बढ़ रही है-2004-05 में 125.000 करोड़ रुपये से 2006-07 में
1,80,480 करोड़ रुपये। यदि ये आंकड़े सही हैं, तो किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे
हैं?
(ii)
वाणिज्य बैंकों और क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की शाखों को प्रोत्साहित किया जायेगा ताकि वे कृषि-उधार को बढ़ाएं।
(iii)
विशेष कृषि उधार योजना के आधीन, प्रत्येक ग्रामीण एवं अर्द्ध-ग्रामीण
बैंक-शाखा को कम-से-कम 100 नए किसानों को प्रत्येक वर्ष में ऋण उपलब्ध कराना होगा।
(iv)
बागान और उद्यान खेती, मत्यस्यों, आर्गेनिक कृषि आदि के लिए प्रत्येक
शाखा को कम-से-कम दो नए प्रोजेक्टों के लिए वित्त उपलब्ध कराना होगा।
(v)
पट्टे पर खेती करने वाले और मौखिक पटें पर खेती करने वाले किसानों
को उधार उपलब्ध कराना होगा।
(vi)
ऋण-परिसमापन (Debt Write-off) की अपेक्षा ऋण संरचना (Debt Restructuring) निम्नलिखित
रूप में करना होगा:-
(क)
कष्ट से व्यथित किसानों को राहत देने के लिए उनके ऋणों को पुनः
अनुसूचित (Rescheduling) किया जाएगा और उन्हें ताजे ऋणों के लिए हकदार बनाया
जाएगा।
(ख)
छोटे और सीमान्त किसानों के लिए एक-मुश्त निपटारा करना होगा और
उन्हें ताज़ा ऋणों के लिए हकदार बनाना होगा।
इनमें
से कोई भी प्रस्ताव व्यवहार में संतोषजनक रूप में कार्य नहीं कर सका। साहूकारों का
शिकंजा गरीब एवं सीमान्त किसानों पर बदस्तूर कायम है। बैंकों ने समृद्ध किसानों को
उधार बढ़ाने में ही अधिक योगदान दिया है. परिणामत: गरीब किसानों में आत्महत्याएं
जारी हैं।
वाणिज्य बैंक और ग्राम-वित्त
ग्राम-वित्त
में वाणिज्य बैंकों की दिलचस्पी पहली बार तब शुरू हुई जब 1955 में स्टेट बैंक की
सहायता के पश्चात् सहकारी विधायन और विपणन समितियों (Co-Operative Processing and
Marketing Societies) को उधार सुविधाओं की व्यवस्था की गई। स्टेट बैंक
और इसके अनुषंगी बैंकों ने अर्धनगरीय और ग्राम क्षेत्रों में
शाखाओं का एक जाल बिछा दिया परन्तु इस नेतृत्व का वाणिज्य बैंकों ने लाभ न उठाया और
वे कृषि वित्त की समस्याओं से पृथक् ही रहे। 1967 में बैंकों के सामाजिक नियन्त्रण
(Social control of banks) से स्थिति में कुछ सुधार हुआ। जुलाई 1969 तक सभी
वाणिज्य बैंकों की ग्राम और अर्द्धनगरीय क्षेत्रों में लगभग 1860 शाखाएँ थीं, 2002
के मध्य तक इनकी संख्या बढ़कर 47, 120 हो गयी। 2002 तक 150 लाख कृषि उधार खाते थे और
इन खातों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल बकाया राशि 63,080 करोड़ रुपए थी,
जबकि जून 1969 में इन बैंकों में 1.6 लाख खातों में कुल बकाया राशि 160 करोड़ रुपए
थी। उधार लेने वालों में बड़ी संख्या में ग्राम सहकारी समितियाँ हैं। इनमें से कुछ
अन्य वित्तीय एजेन्सियों से भी उधार प्राप्त करती है।
वाणिज्य बैंक और प्रत्यक्ष वित्त
1969
में बैंक राष्ट्रीयकरण के पश्चात् आरम्भिक अवस्था में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने अपना ध्यान बड़े किसानों और ऐसे किसानों पर केन्द्रित किया जो
अधिक उपजाऊ किस्म के बीजों द्वारा खाद्यान्नों के उत्पादन को बढ़ाने में व्यस्त
थे। आज अल्पकालीन ऋण (Short-term loans) वाणित्य बैंकों द्वारा किसानों को कुल
वितरित ऋणों का 42 से 45 प्रतिशत हैं। इन्हें पम्पिंग सेट, ट्रैक्टर, अन्य कृषि
मशीनरी, कुएँ तथा ट्यूबवैल लगाने के प्रत्यक्ष सीधे ऋण (Direct loans) दिए गए।
ये
ऋण कुल सावधि ऋणों (Term loans) का लगभग 35 से 37 प्रतिशत हैं। अन्तिम, इसी प्रकार
फल तथा बागानी फसलों, भूमि को हमवार तथा विकसित करने, दुधारू पशु खरीदने, मुर्गी
पालन आदि के लिए भी ऋण दिए गए। ये ऋण कुल वितरित ऋणों का 15 से 16 प्रतिशत हैं। क्षेत्रवार,
दक्षिण भारत के वाणिज्य बैंकों द्वारा अधिकतर ऋण उपलब्ध कराया जो कुल वितरित उधार
का 52 प्रतिशत था।
वाणिज्य बैंकों द्वारा अप्रत्यक्ष वित्त-प्रबन्धन
चाहे
आगामी कुछ वर्षों में वाणिज्य बैंकों द्वारा प्रत्यक्ष वित्त प्रबन्ध
(Direct financing) का क्षेत्र सीमित ही रहेगा, परन्तु इनके द्वारा अप्रत्यक्ष वित्त-प्रबन्ध की बहुत गुंजाइश है। उदाहरणार्थ, वाणिज्य
बैंक सहकारी समितियों को वित्त उपलब्ध करा सकते हैं ताकि वे किसानों के लिए
उत्पादन सम्बन्धी उधार का विस्तार कर सकें। विशेष रूप में, वे विपणन एवं विधायन
में लगी हुई सहकारी समितियों को उधार दे सकते हैं या कृषि में सहायक क्रियाओं
अर्थात् डेरी उद्योग (Dairy farming), मुर्गी पालन आदि के लिए वित्त उपलब्ध करा
सकते हैं। दूसरे, वाणिज्य बैंक ऐसी एजेंसियों को जो आदानों (Inputs) के सम्भरण या
कृषि उत्पाद के विधायन एवं विपणन में लगी हुई हैं, उधार देकर अप्रत्यक्ष रूप में किसानों
को उत्पादन सम्बन्धी अप्रत्यक्ष उधार मुहैया कर सकते हैं। तीसरे, वे ऐसी उत्पादन
या वितरक फार्मों, एजेन्सियों और सहकारी समितियों को उधार दे सकते हैं जो
कृषि-मशीनरी या पम्प-सेट किराया खरीद-पद्धति (Ilire purchase system) द्वारा
या अन्यथा उपलब्ध कराती हैं। चौथे, वें भारतीय खाद्य निगम,
राज्यीय सरकारों और संस्थाओं को खाद्यान्नों की वसूली, संग्रहण एवं वितरण के लिए
उधार दे सकते हैं। अन्तिम, वाणिज्य बैंक केन्द्रीय विकास बैंकों के ऋण-पत्र
(Debentures) खरीद सकते हैं और उन्हें अग्रिम दे सकते हैं। उनके उधार पर केन्द्रीय
विकास बैंक किसानों को भूमि विकास के मध्यम तथा दीर्घकालीन अग्रिम दे सकते हैं।
वाणिज्य बैंक और समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम
अक्टूबर
1980 के पश्चात् सरकार ने समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम
(Integrated Rural Development Programme) का विस्तार देश के सभी
विकास खण्डों में कर दिया और वाणिज्य बैंकों को यह निर्देश दिया कि वे इस
कार्यक्रम के लिए वित्त प्रबन्ध करें। परन्तु यह देखने में आया है कि वाणिज्य
बैंकों ने इस कार्यक्रम को उत्साह के साथ लागू नहीं किया। परन्तु वाणिज्य बैंकों
के मन्दोत्साह के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, वाणिज्य बैंकों को यह कहा गया है कि वे
सरकारी एजेन्सियों द्वारा निश्चित किए गए आर्थिक दृष्टि से एवं अन्यथा पिछड़े
लोगों को वित्त उपलब्ध कराएँ। वाणिज्य बैंकों ने यह पाया कि अधिकतर समृद्ध किसानों
ने अपने नाम लाभग्राहियों (Beneficiaries) की सूची में या तो सरकारी अफसरों को
रिश्वत देकर या राजनीतिक दबाव का प्रयोग करके दाखिल करवा लिए हैं। दूसरे शब्दों
में यह कहना सही होगा कि सभी भावी उधार लेने वाले वास्तव में आर्थिक दृष्टि से
पिछड़े हुए नहीं हैं और बैंकों को वैध लाभग्राहियों को ढूँढने का दायित्व भी
निभाना पड़ता है।
दूसरे,
बैंकों ने यह भी देखा है कि सभी लाभग्राही प्राप्त ऋण का प्रयोग उस उद्देश्य के
लिए नहीं करते जिसके लिए ऋण दिया गया हो। बहुत-सी परिस्थितियों में, किसान
बैंक-उधार का प्रयोग अनुत्पादक कार्यों में करते हैं, परन्तु फर्जी विक्रेताओं के
माध्यम से भैंसों के क्रय की रसीद पेश कर देते हैं। ऐसे विक्रेताओं को वे थोड़ा
कमीशन दे देते हैं। वाणिज्य बैंकों को क्रय-विक्रय के सौदों की विश्वसनीयता की
छानबीन करनी पड़ती है। अन्तिम, छोटे एवं सीमान्त किसान सरकारी अफसरों, स्थानीय
राजनीतिज्ञों और पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा ठगे जाते हैं इसके पहले कि वे
बैंक-उधार के लाभग्राही बन सकें। अन्ततोगत्वा, भारी बकाया राशि के लिए बैंकों को
हानि उठानी पड़ती है। इस कारण बैंक समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम के लिए वित्त
उपलब्ध नहीं कराना चाहते।
वाणिज्य बैंक एवं छोटे किसान
यह
अनुमान लगाया गया कि 2 हेक्टेयर से कम भूमि-स्वामित्व रखने वाले लगभग 70 प्रतिशत
किसानों को बैंक-उधार प्राप्त नहीं हुआ; केवल बड़े किसान ही ऋण-पात्रता की दृष्टि
से उचित समझे गए और उन्हें ही बैंक-उधार दिया गया। परन्तु यह स्थिति लम्बे समय तक
चल नहीं सकती। योजना आयोग के निर्देश पर छोटे किसानों के विकास की एजेन्सियाँ
(Small Farmers Development Agencies) कायम की गयीं ताकि वे छोटे किसानों की पहचान
करें और कृषि विकास की आर्थिक दृष्टि से समक्ष योजनाएँ तैयार करें। वाणिज्य बैंकों
को उधार-सहायता के लिए विभिन्न वर्गों में समूह बनाने होंगे ताकि इन्हें सक्षम
काश्तकार बना सकें। उदाहरणार्थ, ऐसे क्षेत्रों में जहाँ भूमिगत जल का स्तर ऊँचा
है, बैंकों द्वारा छोटे काश्तकारों की सहायता करनी होगी ताकि वे अपनी खुश्क जोतों
को तर जोतों (Wet holdings) में परिवर्तित कर सकें। पम्पिंग सेट से किसान अपने फसल
ढाँचे में तब्दीली ला सकता है और भूमि को दो फसल या बहु-फसल के लिए तैयार कर सकता
है। जहाँ नगर क्षेत्रों के नजदीक रहने वाले छोटे किसानों का सम्बन्ध है, वे सिंचाई
सुविधाओं का लाभ उठाकर, वाणिज्य बैंकों से प्राप्त सहायता का प्रयोग मुर्गी पालन
के लिए कर सकते हैं अथवा एक या दो सब्जियाँ उगा सकते हैं और इन्हें दुधारू पशुओं
की देखभाल के साथ जोड़ सकते हैं।
कृषि उधार में वाणिज्य बैंकों की समस्याएँ
आगामी
कुछ वर्षों में कृषि-क्षेत्र की उधार आवश्यकताएँ 2,00,000 से 3,00,000
करोड़ रुपए के बीच आँकी गई हैं। इन्हें पूरा करना एक कठिन कार्य
है और इसकी जिम्मेदारी सहकारी समितियों एवं वाणिज्य बैंकों को लेनी होगी। चूँकि
वाणिज्य बैंकों के पास इस कार्य के लिए सीमित साधन हैं, इसलिए उनके लिए यह अधिक
महत्त्वपूर्ण है कि वे इस क्षेत्र में अपने सीमित संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग
करें।
कृषि
के लिए वित्त-प्रबन्ध के क्षेत्र में समस्या केवल मात्रा की दृष्टि से ऋण उपलब्ध
कराने की ही नहीं बल्कि 5,50,000 ग्रामों तक पहुँचाने की है जिनमें छोटे किसानों
की अधिकतम जनसंख्या निवास करती है। इन सबको केवल 36,000 बैंक शाखाओं द्वारा पहुँच
पाना बहुत ही कठिन कार्य है। आगामी 5 या 10 वर्षों के शाखा विस्तार कार्यक्रम को
दृष्टि में रखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि वाणिज्य बैंक इन सभी ग्रामों तक
पहुँच नहीं सकेंगे। अत: छोटे किसानों की दशा सुधारने के लिए वित्त प्रबन्ध की कुछ
नई योजनाएँ चलानी होगी। अतः कृषि विकास एवं छोटे किसानों की दशा सुधारने के लिए
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने निम्नलिखित योजनाएँ आरम्भ की हैं-
रिजर्व
बैंक ऑफ इंडिया द्वारा वाणिज्य बैंकों के लिए कृषि-उधार के वित्त प्रबन्ध के
मार्गदर्शी सिद्धान्त
1970
में, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने वाणिज्य बैंकों को एक परिपत्र द्वारा
कृषि सम्बन्धी ऋण उपलब्ध कराने के लिए मार्गदर्शी सिद्धान्त भेजे ताकि वाणिज्यों
बैंकों को वृद्धि ऋण देने का औचित्य, नीतियाँ एवं कार्यविधि स्पष्ट हो जाए।
(i)
उधार के मानदण्ड एवं वित्त की सीमा वाणिज्य बैंकों ने न केवल पहले
ही सक्षम कृषकों को ऋण उपलब्ध कराए परन्तु इन्हें सीमान्त किसानों एवं सक्षम बन
सकने वाले कृषकों के लिए ऋण मुहैया कराना और भी आवश्यक है।
(ii)
प्रतिभूति का मार्जिन-बैंकों को कृषकों के बारे में उदार रूख अपनाना
चाहिए और उन्हें कम मार्जिन (Margin) पर ऋण उपलब्ध कराने चाहिएँ। अधिकतर वाणिज्य बैंक
25 प्रतिशत मार्जिन रखते हुए किसानों को उधार मुहैया कराते हैं और इसे यथा सम्भव
कम करना चाहिए।
(ii)
किसानों के लिए ऋणों के विरुद्ध प्रतिभूति (Security)-जहाँ तक
उत्पादक ऋणों का सम्बन्ध है, अल्पकालीन उधार के लिए केवल फसलों को रेहन
(Hypothecation) रखना काफी होगा। इसके अतिरिक्त, बैंक मशीनरी, भूमि बन्धक रख कर,
सोने के आभूषणों को गिरवी रख कर या किस एक या दो व्यक्तियों की गारंटी के आधार पर
भी ऋण दे सकते हैं। दृष्टिकोण यह था कि किसान आवश्यक प्रतिभूति के बिना कठिनाई के
ऋण प्राप्त कर सके।
(iv)
चूक की वसूली-वाणिज्य बैंकों को उचित नियम एवं कार्यविधि का निर्माण
करना होगा ताकि उन परिस्थितियों को निर्धारित किया जाए जिनमें फसल के विफल होने पर
चूक को माफी दी जा सके और किसानों को ऋण लौटाने में राहत दी जा सके। उदाहरणार्थ,
ऋण की अवधि को बढ़ाना या एक अल्पकालीन ऋण को दीर्घकालीन ऋण में परिवर्तित कराना।
जहाँ तक जान-बूझ कर चूककर्ताओं की क्रियाओं का प्रश्न है, इनसे निपटने के लिए कुशल
पर्यवेक्षण ओर समय पर कार्रवाई करनी होगी ताकि इस प्रवृत्ति को रोका जा सके।
(v)
समन्वय की आवश्यकता-आरम्भिक अवस्थाओं में जब वाणित्य बैंकों ने
नाम वित्त में प्रवेश किया, तब अपरिहार्य दोहरापन हुआ और यह पाया गया कि एक से
अधिक वाणिज्य बैंक और सहकारी समितियों ने एक ही उधार प्राप्तकर्ता को उसी उद्देश्य
और उसी प्रतिभूति के विरुद्ध ऋण दे दिया। इस प्रकार के दोहरेपन को दूर करना होगा।
इसके
अतिरिक्त, बैंकों के प्रबन्धकों और सहकारी समितियों के अधिकारियों को मिलकर वित्त
का रूप एवं मात्रा तय करनी होगी। इसके साथ-साथ राज्यीय सरकारों और वाणिज्य बैंकों
के बीच लगातार परामर्श और विचार-विनिमय होना चाहिए और वाणिज्य बैंकों द्वारा
किसानों को उपलब्ध करायी गयी सुविधाओं की जानकारी राज्यीय सरकारों को देनी चाहिए।
फार्म
उधार पर रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के नए मार्गदर्शी सिद्धान्त (1998)
कृषि
ऋण पर श्री आर.बी. गुप्त की अध्यक्षता में स्थापित समिति ने अपनी रिपोर्ट अप्रैल
1998 को पेश की। गुप्त समिति की महत्वपूर्ण सिफारिशें निम्नलिखित है
(क)
फार्म-ऋणों पर ब्याज दरें निश्चित करने की स्वतंत्रता-गुप्त समिति के अनुसार सहकारी समितियों एवं क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की भाँति वाणिज्य
बैंकों को सभी आकार के ऋणों पर ब्याज-दर निश्चित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
अभी तक बैंकों को 2 लाख रुपए से ऊपर के ऋणों पर ब्याज दर निर्धारित करने की
स्वतंत्रता है परन्तु 2 लाख रुपए के नीचे के ऋणों पर 12 प्रतिशत ब्याज वसूल करना
होगा। बैंक ऊँची राशि के ऋणों पर 19 प्रतिशत की ऊँची दर वसूल करते हैं। गुप्त
समिति इसे क्रास-साहाय्यीकरण (Cross subsidisation) मानती है और इसके समाधान
के लिए ब्याज दरों के निर्धारण में स्वतंत्रता की सिफारिश की।
समिति के अनुसार, किसान वर्ग ब्याज की नीची दरों की अपेक्षा समय पर पर्याप्त ऋण
उपलब्ध कराने को अधिक महत्वपूर्ण समझता है। गुप्त समिति की यह सिफारिश सबसे अधिक
विवादपूर्ण है।
(ख)
कृषि-उधार के लिए 18 प्रतिशत के लक्ष्य को समाप्त करना-कृषि-उधार के लक्ष्य निश्चित करने के बजाए, भारतीय रिजर्व बैंक को गत वर्ष की
तुलना में किसी निश्चित वर्ष के दौरान ऋण-प्रवाह में प्रत्याशित वृद्धि के संकेत
देना चाहिए ताकि बैंक इस सम्बन्ध में उचित ऋण-योजनाएँ तैयार कर सकें।
(ग)
सेवा-क्षेत्र पद्धति का संशोधन-भारतीय रिजर्व बैंक को सेवा-क्षेत्र पद्धति (Service Area Approach) में संशोधन करना चाहिए ओर बैंकों को
अपने सेवा क्षेत्रों के बाहर जाने की इजाजत देनी चाहिए और उधार-प्राप्तकर्ताओं को
किसी भी बैंक के पास जाने की छूट होनी चाहिए।
(घ)
किसानों को संयुक्त उधार पैकेज प्रस्तुत करना-बैंकों को किसानों की
सभी अल्पकालीन ऋण आवश्यकताओं के लिए एक संयुक्त उधार पैकेज (Composite Credit
Package) का निर्माण करना चाहिए और इसे प्रस्तुत करना चाहिए।
(ङ)
एक तरल बचत पैकेज (Liquid Savings Package) तैयार करना-यह बात
सभी जानते हैं कि किसानों की प्रवृत्ति सोने और जमीन पर निवेश करने की होती है।
इसके लिए बैंकों को एक तरल बचत पैकेज तैयार करना चाहिए।
मई
1998 में भारतीय रिजर्व बैंक ने गुप्त समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और
अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को इन्हें लागू करने के लिए तुरन्त कार्रवाई करने का
निर्देश दिया ताकि फार्म क्षेत्र के उधार का प्रवाह तेज किया जा सके। सरकार ने भी
भारतीय रिजर्व बैंक और नेबार्ड को निर्देश दिया कि वे किसानों को बड़े पैमाने पर
हुई आत्महत्याओं को ध्यान में रखते हुए किसानों को दिए गए ऋणों पर ब्याज की माफी
दे दें क्योंकि देश के बहुत से भागों में फसल विफल हुई है।
1.
बैंकों को सभी कृषि-परिवारों के लिए वार्षिक संयुक्त नकद सीमा (Composite cash
limit) लागू करनी होगी और सभी ऋण नकद रूप में वितरित करने होंगे
ताकि उधार प्राप्त करने में बैंकों का चयन सुविधाजनक बन सके और इस प्रकार विश्वास का
वातावरण कायम हो।
2.
बैंकों को अपने शाखा-प्रबन्धकों को पर्याप्त अधिकार देने होंगे ताकि
वे शाखा के स्तर पर 90 प्रतिशत आवेदनों का निपटारा कर सकें।
3.
उधार प्राप्तकर्ता के स्वीकृति-पूर्व मूल्यांकन के लिए उसकी आय पर
ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और उसकी विश्वसनीयता, प्रस्तावित क्रियाओं को
कार्यान्वित करने की क्षमता और प्रस्ताव की तकनीकी सक्षमता का अनुमान लगाना चाहिए।
प्रबन्धक को इसके लिए अतिरिक्त प्रतिभूति (Security) नहीं माँगनी चाहिए।
4.
बैंकों को गैर-फार्म क्षेत्र के उधार प्राप्तकर्ताओं की जरूरत के लिए विशिष्ट उधार उत्पाद (Specific loan products) का निर्माण करना
चाहिए ताकि अपनी फार्म-क्रियाओं के साथ अपनी आय को बढ़ाने के लिए बहुत-सी
गैर-फार्म क्रियाओं के लिए किसान प्रयास कर सकें।
5.
बैंक को एक पूर्णतया तरल बचत मापदण्ड (Liquid saving module) जिस पर उचित प्रत्याय
प्राप्त हो, उधार उत्पाद (Loan product) के रूप में कायम करना चाहिए। इसमें प्रतिकूल
कीमत उच्चावचन या प्राकृतिक विपदाओं में किसानों के हितों का
ध्यान रखना होगा।
6.
बैंकों को अपने उधार-प्राप्तकर्ताओं को उपलब्ध उधार सुविधाओं का
स्पष्ट विवरण देना चाहिए जिसमें विभिन्न फीसों और दातव्यों (Charges) का अलग-अलग
उल्लेख हो।
7.
बैंकों को अपनी ग्रामीण शाखाओं को क्रियाओं को किसानों की कल्बों
के साथ जोड़ना चाहिए ताकि जहाँ सम्भव हो सके कृषि क्रियाओं सम्बन्धी तकनालाजीय
हस्तान्तरण (Technology transfer) किया जा सके।
8.
बैंकों को सभी हाई-टेक कृषि शाखाओं की समीक्षा करनी चाहिए ताकि
जो शाखाएँ अपर्याप्त विशेषज्ञता या माँग के अभाव के कारण अच्छी प्रकार कार्य नहीं
कर रही हैं, उनकी पहचान की जा सके और यह सुनिश्चित किया जाए कि इन शाखाओं का
प्रयोग सूचना प्रसार के लिए किया जाए जिसका सम्बन्ध कृषि-क्रियाओं, विशेषकर उच्च
मूल्य की फसलों की खेती से है। बैंकों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि किसानों को
फसलों की खेती या आदानों (Inputs) के प्रयोग के लिए सही परामर्श दिया जाता है।
9.
बैंकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गैर-सरकारी संस्थाओं (NGOs) के लिए प्रलेखों
का एक मॉडल सैट तैयार करें जैसा कि कार्यदल ने निर्धारित किया है
जो ऋण सम्बन्धी करारनामें और निवदेन-पत्रों को मानक रूप दे दे।
सामान्यतया,
भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशकों से आग्रह किया है कि वे
राज्यों का दौरा करते समय ग्रामीण शाखओं में भी बिना बताए जाएँ ताकि क्षेत्र के
स्टाफ को उचित संकेत मिलें। आन्तरिक निरीक्षण दलों को कुछ सेवा क्षेत्र ग्रामों का
दौरा करना चाहिए और किसानों से शाखाओं के अफसरों के व्यवहार के बारे में जमीनी जानकारी
प्राप्त करनी चाहिए।
यह
एक आम बात है कि साहूकारों से अत्यधिक ब्याज दरों पर ऋण लेने के परिणामस्वरूप भारी
रूप में ऋणग्रस्त किसानों ने अनेक आत्महत्याएँ की हैं। भारतीय रिजर्व बैंक या
सरकार द्वारा कितने भी मार्गदर्शी सिद्धान्त भले ही भेजे जाएँ परन्तु इनका तब तक
कोई असर नहीं होगा जब तक कि सभी स्तरों पर बैंक अधिकारियों के रवैये में आमूल
परिवर्तन न हो। अतः निकट भविष्य में फार्म-उधार की मात्रा और गुणवत्ता में अधिक परिवर्तन
की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
क्षेत्रीय ग्राम बैंक
20-सूत्री
कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंश धीरे-धीरे ग्राम-ऋणग्रस्तता को
समाप्त करना था और ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों एवं कारीगरों को संस्थानात्मक
उधार उपलब्ध कराना था। नए आर्थिक कार्यक्रम को इस पहलू को आगे बढ़ाने के लिए ही
भारत सरकार ने 26 सितम्बर, 1975 को एक अध्यादेश द्वारा देश भर में क्षेत्रीय ग्राम
बैंक स्थापित करने की घोषणा की। क्षेत्रीय ग्राम बैंकों का मुख्य उद्देश्य विशेष
रूप में छोटे तथा सीमान्त किसानों, कृषि-मजदूरों, कारीगरों तथा छोटे उद्यमकर्ताओं
को उधार तथा अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना है ताकि वे ग्राम-क्षेत्रों में
कृषि-व्यापार, वाणिज्य, उद्योग एवं अन्य उत्पादक क्रियाओं को विकसित कर सकें।
आरम्भ
में, 2 अक्टूबर 1975 को पाँच क्षेत्रीय बैंक म., स्थापित किए गए-उत्तर प्रदेश में
मुरादाबाद और गोरखपुर में, हरियाणा में भिवानी, राजस्थान में जयपुर और पश्चिम
बंगाल में माल्दा के स्थान पर। ये बैंक क्रमशः सिण्डीकेट बैंक, स्टेट बैंक ऑफ
इण्डिया, पंजाब नेशनल बैंक, यूनाइटेड कमर्शल बैंक और यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया
द्वारा चालू किए गए। प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की अधिकृत पूँजी (Authorised
capital) 1 करोड़ रुपए और जारी एवं चुकती पूँजी (Issued and Paid- up capital) 25 लाख
रुपए थी। क्षेत्रीय ग्राम बैंक की हिस्सा पूँजी में केन्द्रीय
सरकार द्वारा 50 प्रतिशत, राज्यीय सरकार द्वारा 15 प्रतिशत और चलाने वाले वाणिज्य
बैंक द्वारा 35 प्रतिशत योगदान दिया जाता है। चाहे मूल रूप में क्षेत्रीय बैंक
अनुसूचित वाणिज्य बैंक ही हैं, किन्तु वे कुछ पहलुओं में इनसे भिन्न हैं-
(क)
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का कार्यक्षेत्र राज्य के एक या कुछ जिलों के निर्धारित इलाके तक सीमित कर दिया जाता है।
(ख)
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक छोटे तथा सीमान्त किसानों (Marginal farmers), देहाती कारीगरों,
कृषि-मजदूरों और अन्य कम सम्पत्ति वाले व्यक्तियों को उत्पादक
उद्देश्यों के लिए ऋण तथा अग्रिम देते हैं।
(ग)
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को उधार-दरें किसी विशेष राज्य में सहकारी समितियों की उधारों-दरों की तुलनीय हैं।
रिजर्व
बैंक ने क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की उधार नीति के गुणात्मक पक्षों की जाँच से पता
चलता है कि मोटे तौर पर ये बैंक अपने लक्ष्यों में सफल हुए हैं-
(क)
इन बैंकों ने रिजर्व बैंक और भारत सरकार द्वारा निर्धारित उधार नीति
एवं कार्यविधि सम्बन्धी हिदायतों का अनुकरण किया।
(ख)
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के स्थापित करने का मूल उद्देश्य ग्राम क्षेत्रों में कृषि, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग एवं अन्य उत्पादक क्रियाओं को विकसित
करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना है।
(ग)
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों ने लक्षित समूहों को उधार सुविधाएँ देकर लोगों के मन में यह धारणा कायम की है कि ये छोटे व्यक्तियों के बैंक हैं।
इनमें छोटे तथा सीमान्त किसान, कृषि-मजूदर, दस्तकार और उत्पादक उद्यमों में कार्य
कर रहे छोटे उद्यम शामिल किए जाते
क्षेत्रीय ग्राम बैंक तथा नाबार्ड (NABARD)
जुलाई
1982 में नाबार्ड की स्थापना के पश्चात क्षेत्रीय ग्राम बैंकों को रिजर्व बैंकों
से प्राप्त होने वाली पुनर्वित्त सुविधा नाबार्ड से मिलने लगी। नाबार्ड अब
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की पुनर्वित्त परियोजनाओं के प्रशासन, उनके कार्य-निष्पादन
की देख-रेख और शाखा विस्तार तथा कानूनी निरीक्षण के लिए रिजर्व बैंक के साथ एक
कड़ी के रूप में कार्य करेगा।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का मूल्यांकन
रिजर्व
बैंक की रिपोर्ट के अनुसार क्षेत्रीय ग्राम बैंक समाज के कमजोर वर्गों को
संस्थानात्मक उधार उपलब्ध कराने में सफल हो गए हैं परन्तु कुल मिलाकर इन ऋणों की वसूली
की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है।
वित्तीय
प्रणाली पर नरसिम्हम समिति (1991) (Narasimham Commitee) ने क्षेत्रीय ग्राम
बैंकों का मूल्यांकन करते हुए उल्लेख किया कि इन बैंकों का
उद्देश्य वाणिज्य बैंकों की कार्य कर रही शाखाओं को एक कम-लागत वाला विकल्प उपलब्ध
कराना था परन्तु इन बैंकों का कार्य निष्पादन काफी चिन्ता का विषय रहा है। समिति
के अनुसार, तीन बुनियादी समस्याएँ हैं-
(क)
इनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं पर बहुत से सीमा बन्धन होने के
कारण क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की आय कमाने की क्षमता निम्न है।
(ख)
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के मजदूरी और वेतनमान वास्तव में बढ़ते ही जा रहे हैं और हाल ही में घोषित वृद्धि से वाणिज्य बैंकों के लगभग बराबर
हो जाएँगे। वेतनमान में वृद्धि के साथ क्षेत्रीय ग्राम बैंकों की स्थापना का
महत्वपूर्ण तार्किक आधार समाप्त हो गया है।
(ग)
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के प्रवर्तक बैंक (Sponsoring Banks) भी अपनी ग्रामीण शाखाएँ इन बैंकों के क्षेत्रों में चला रहे हैं। इस कारण कई प्रकार
के नियन्त्रण एवं प्रशासन पर होने वाले परिहार्य व्यय कम किए जा सकते हैं।
नरसिम्हम
समिति के अनुसार सरकार को ऐसे ग्रामीण बैंकिंग ढाँचे के निर्माण में सहायता देनी
चाहिए जो क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के स्थानीय लक्षणों को वाणिज्य बैंकों की वित्तीय
शक्ति एवं संगठनात्मक तथा प्रबन्धकीय कुशलता से प्रभावी रूप में जोड़ दें। इस
सम्बन्ध में समिति ने दो मूल समस्याओं का उल्लेख किया है। पहली, प्रतिस्पर्धा जो
वाणिज्य बैंक प्रणाली का अनिवार्य लक्षण है, को ग्रामीण बैंक व्यवस्था के सन्दर्भ में
परित्याग करना होगा। दूसरी, ग्रामीण भारत में ऋण उपलब्ध कराने में काफी बड़ा अन्तर
है और इस अन्तर को समाप्त करने में समय लगेगा। इन दो बातों को दृष्टि में रखते हुए
नरसिम्हम समिति ने यह सिफारिश की है कि वाणिज्य बैंकों को अपनी ग्रामीण शाखाओं के
परिचालन को अनुषंगी कम्पनियाँ (Subsidiaries) कायम करके अलग कर देना चाहिए। इन
अनुषंगियों को अपने निर्धारित परिचालन क्षेत्र में मानवशक्ति की भर्ती एवं प्रयोग
की इजाजत होनी चाहिए।
नरसिम्हम
समिति ने यह भी सिफारिश की कि बैंकों को अपनी ग्रामीण शाखाओं के विनियमन की
स्वतन्त्रता होनी चाहिए। ऐसे बैंक जिनकी किसी क्षेत्र विशेष में थोड़ी ग्रामीण
शाखाएँ हैं, उन्हें ये शाखाएँ उन बैंकों के पक्ष में छोड़ देनी चाहिए जिनकी उस
क्षेत्र में अधिक शाखाएँ हैं। परन्तु डॉ. ए.एम. खुसरो की अध्यक्षता में स्थापित
कृषि उधार समीक्षा समिति का मत है कि क्षेत्रीय ग्राम बैंकों को ये कमजोरियाँ
अन्तर्निहित हैं और अक्षमता उनके संगठनात्मक ढाँचे का अंग है। अत: क्षेत्रीय ग्राम
बैंकों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे समाज के सबसे बड़े वर्ग की सेवा उनसे
प्रत्याशित ढंग से कर पाएँगे। खुसरों समिति के अनुसार देश की उधार प्रणाली में
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के लिए निकट भविष्य में कोई स्थान नहीं हैं और उनका
प्रवर्तक बैंकों के साथ विलयन (Merge) कर देना चाहिए।
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों का निष्पादन
2004
में प्रोफेसर बी.एस. व्यास की अध्यक्षता में स्थापित समिति ने यह सिफारिश की कि क्षेत्रीय ग्राम बैंकों के विलयन (Amalgamation) कर देना
चाहिए ताकि ये अधिक सक्षम एवं लाभदायक इकाइयाँ बन सकें। परिणमत: जहाँ 2005 में 196
क्षेत्रीय ग्राम थे, इनकी संख्या 2006 में 96 कर दी गई। 31 मार्च 2010 को इन
बैंकों की संख्या 82 (46 विलयीकृत तथा 36 पृथक) हो गई। इन बैंकों के वित्तिय
सुदृढीकरण के एक भाग के रूप में 31 मार्च 2007 को नकारात्क नेटवर्थ वाले 27 बैंकों
के पुनः पूंजीकरण का काम 2007-08 में प्रारम्भ किया गया था। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों
के पूँजीगति आधार को मजबूती प्रदान करने के लिए 1100 करोड़ रुपये की केन्द्रीय
सहायता 2011 में प्रदान की गई। इन बैंकों को पूंजी में केन्द्र सरकार, राज्य सरकार
व प्रर्वतक बैंक का योगदान क्रमशः 50, 15 व 35 प्रतिशत होता है।
नाबार्ड और ग्राम उधार
रिजर्व
बैंक ने अपने आरम्भ होने के समय से ही कृषि उधार में गहरी रुचि दिखाई और इसके लिए
एक पृथक विभाग कायम किया। रिजर्व बैंक राज्यीय स्तर के सहकारी बैंकों तथा
भूमि-विकास बैंकों के माध्यम से कृषि को अल्पकालीन मौसमी उधार के साथ मध्यकालीन
एवं दीर्घकालीन उधार को व्यवस्था करता रहा। साथ ही, रिजर्व बैंक ने कृषि
पुनर्वित्त निगम (Agricultural Refinance Corporation) की स्थापना की ताकि कृषि
विकास प्रोग्रामों, विशेषकर सावधि- उधार (Term credit) सुविधाओं को विकसित किया जा
सके। 'कृषि-उधार' से 'ग्राम-विकास' के रूप में बैंक उधार के कार्यभाग में विस्तार
के कारण इस बात की जरूरत महसूस की गई कि ग्राम विकास प्रोग्रामों के प्रतिपादन एवं
कार्यान्वयन के लिए शिखर-स्तर (Apex level) पर एक अधिक विस्तृत संस्था होनी चाहिए
जो उधार संस्थानों की सहायता कर सके और इनका मार्गदर्शन भी कर सके। इस उद्देश्य को
लेकर कृषि तथा ग्राम विकास राष्ट्रीय बैंक (National
Bank for Agriculture and Rural Development-NABARD) की जुलाई
1982 में स्थापना की गई ताकि यह कृषि-पुनर्वित्त विकास बैंकों के कार्य एवं रिजर्व
बैंक के सहकारी समितियों एवं क्षेत्रीय ग्राम बैंकों सम्बन्धी पुनर्वित्त के
कार्यों का भार सम्भाल सके। नाबार्ड का रिजर्व बैंक से सीधा सम्बन्ध है और इसके
लिए रिजर्व बैंक ने इसकी हिस्सा पूँजी के आधे के बराबर योगदान दिया है और शेष आधा
भाग भारत सरकार द्वारा जुटाया गया है। रिजर्व बैंक को नेबार्ड के निदेशक मण्डल (Board
of Directors) पर अपने तीन केन्द्रीय बोर्ड के निदेशकों को मनोनीत करने ओर अपने एक उप-गवर्नर (Deputy Governor) को नेबार्ड का अध्यक्ष नियुक्त
करने का अधिकार है।
नाबार्ड के संसाधन
नाबार्ड
की अधिकृत पूँजी 500 करोड़ रुपए है और चुकती पूँजी (Paid-up
capital) करोड़ रुपए है। अपनी ऋण-सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के
लिए नाबार्ड भारत सरकार, विश्व बैंक तथा अन्य एजेन्सियों से राशियाँ प्राप्त करता
है, यह बाजार से भी निधियाँ प्राप्त करता है और राष्ट्रीय कृषि (दीर्घकालीन
क्रियाओं और स्थिरीकरण) निधि के संसाधनों का भी प्रयोग करता है। नाबार्ड की चुकती
पूँजी 100 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 1990-00 में 2,000 करोड़ रुपए कर दी गयी। जहाँ
तक अल्पकालीन उधार एवं पूँजी आवश्यकताओं का सम्बन्ध है, नाबार्ड
रिजर्व बैंक पर निर्भर करता है। रिजर्व बैंक से हस्तान्तरित राशियों के अतिरिक्त,
नाबार्ड विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय विकास संस्था (International Development
Association) से भी उनके द्वारा वित्त-प्रबन्ध की गई परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए राशियाँ प्राप्त करता है।
नाबार्ड
के संसाधनों का अब सबसे महत्वपूर्ण स्रोत ग्रामीण आधार संरचना विकास निधि (Rural
Infrastructure Development Fund-RIDF) है। हाल ही के वर्षों में नाबार्ड
की संसाधन-स्थिति में महत्वपूर्ण उन्नति हुई है, इसके मुख्य कारण
हैं-
(क)
वाणिज्य बैंकों द्वारा ग्रामीण आधार संरचना विकास निधि के आधीन जमा
राशि में महत्वपूर्ण वृद्धि।
(ख)
पूँजी लाभ बांड (Capital gains bonds) और प्राथमिकता क्षेत्र बांडों को जारी करना और इनका कर-मुक्त बांडों (Tax free bonds) के रूप में
प्रयोग।
(ग)
निजी बैंकों से प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के लिए जमा-राशि स्वीकार करना।
नाबार्ड
अल्पकालीन सार्वजनिक जमा स्वीकार नहीं कर सकता और इसे 1982 में आरम्भ के पश्चात्
उधार के सामान्य प्रकार (General Line of Credit-GLC) पर निर्भर करना पड़ता
है और इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक से प्राप्त साधनों द्वारा
नाबार्ड अपने अल्पकालीन उधार और कार्यकारी पूँजी (Working capital) की आवश्यकताओं
को पूरा करना है।
नबार्ड के कार्य
(i)
समन्वित ग्राम विकास को प्रोन्नत करने के लिए नाबार्ड कृषि, छोटे उद्योगों, कुटीर तथा ग्राम उद्योगों, हस्तशिल्पों और ग्रामीण
दस्तकारियों और अन्य सम्बन्धित क्रियाओं के सभी प्रकार के उत्पादन एवं निवेश के
लिए पुनर्वित्त संस्थान (Refinance Institution) के रूप में कार्य करता है।
(ii)
यह राज्यीय सहकारी बैंकों (State Co-operative Banks), क्षेत्रीय ग्राम बैंकों, भूमि विकास बैंकों एवं रिजर्व बैंक द्वारा मान्यता
प्राप्त वित्तीय संस्थानों को अल्पकालीन, मध्यमकालीन एवं दीर्घकालीन उधार उपलब्ध
कराता है।
(iii)
यह राज्यीय सरकारों को (20 वर्ष की अवधि तक) दीर्घकालीन उधार
देता है ताकि वे सहकारी उधार समितियों की हिस्सा-पूँजी में योगदान दे सकें।
(iv)
यह केन्द्र सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त किसी भी संस्थान को दीर्घकालीन
उधार दे सकता है या कृषि एवं ग्राम विकास से सम्बन्धित, किसी भी संस्थान की हिस्सा
पूँजी या प्रतिभूतियों में निवेश में योगदान दे सकता है।
(v)
इसे यह दायित्व सौंपा गया है कि यह केन्द्र एवं राज्यीय सरकारों, योजना आयोग और अन्य अखिल-भारतीय एवं राज्यीय-स्तर के संस्थानों की उन
क्रियाओं का समन्वय करे जो लघु-स्तर, कुटीर तथा ग्राम उद्योगों, ग्रामीण
दस्तकारियों, पिद्दी (Tiny) एवं विकेन्द्रीकृत क्षेत्रों में उद्योगों आदि के
विकास से सम्बन्धित हैं।
(vi)
इसे यह दायित्व सौंपा गया है कि प्राथमिक सहकारी समितियों को छोड़कर
क्षेत्रीय ग्राम बैंकों और सहकारी बैंकों का निरीक्षण करें।
(vii)
यह कृषि तथा ग्राम विकास में अनुसंधान को प्रोन्नत करने के लिए अनुसंधान
एवं विकास-निधि भी रखता है।
नाबार्ड की कार्य प्रगति
नाबार्ड
कृषि, लघु-स्तर उद्योगों, कुटीर एवं ग्राम उद्योगों, हस्तशिल्पों और अन्य ग्राम
दस्तकारियों एवं ग्रामीण क्षेत्र की समस्त क्रियाओं के लिए शिखर संस्था है जो इन
से सम्बन्धित सभी मामलों में नीति निर्धारण, आयोजन और कार्यान्वयन के पहलुओं के
लिए उत्तरदायी है ताकि इन क्षेत्रों को उधार का प्रवाह हो सके। राष्ट्रीय बैंक सभी
प्रकार की कृषि एवं ग्राम विकास क्रियाओं की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं को समन्वित
करने की एकमात्र एजेन्सी है।
नाबार्ड
अपने विभिन्न कार्यों को भली प्रकार एवं कुशल रूप में निभा रहा है। उदाहरणार्थ,
इसने 2003-04 के दौरान अल्पकालीन उधार के रूप में 8,820 करोड़ रुपए के ऋणों की
स्वीकृति दी और ये ऋण मौसमी कृषि-क्रियाओं को बैंक-दर से 3 प्रतिशत नीची रियायती
दर पर दिए गए। नए 20-सूत्री कार्यक्रम के आधीन कमजोर वर्गों को उधार की उपलब्धि
सुनिश्चित करने के लिए नाबार्ड ने बैंकों को इस बात के लिए बाध्य कर दिया कि वे
अपने अल्पकालीन ऋणों का एक निश्चित प्रतिशत छोटे तथा सीमान्त किसानों और अन्य
आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को उपलब्ध कराएंगे।
नाबार्ड
ने मध्यमकालीन उधार के सम्बन्ध में रिजर्व बैंक द्वारा स्वीकृत कृषि उद्देश्यों के
आधीन प्रतिपादित नीति का लगातार पालन किया है। यह राज्यीय सरकारों को दीर्घकालीन
ऋण देता है ताकि वे सहकारी उधार संस्थानों की हिस्सा पूँजी में योगदान कर सकें।
नाबार्ड
दो प्रकार का पुनर्वित्त उपलब्ध कराता है। पहली प्रकार का पुनर्वित्त क्षेत्रीय
ग्राम बैंकों, राज्य सहकारी बैंकों तथा राज्य सरकारों को मुहैया करवाया जाता है।
दूसरी प्रकार का पुनर्वित्त ग्राम उधार के जमीनी स्तर पर प्रयोग के विस्तार के लिए
किया जाता है।
पहली
प्रकार में पुनर्वित्त राज्य सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्राम बैंकों को मुहैया
कराया जाता है ताकि वे अपनी अल्पकालीन एवं मध्यम कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति कर
सकें। इनके पास जून 2007 के अन्त तक 15,040 करोड़ रुपए का बकाया
ऋण था। राज्य सरकारों को नाबार्ड की पुनर्वित्त सुविधाओं का
उद्देश्य लम्बे समय के लिए राशि उपलब्ध कराना है ताकि राज्य सरकारें कमजोर साख
सहकारी समितियों एवं बैंकों की हिस्सा-पूँजी में योगदान कर सकें। राज्य सरकारों के
पास जून 2002 के अन्त तक पुनर्वित्त की बकाया राशि 7,080 करोड़ रुपए थी।
दूसरे
प्रकार के पुनर्वित्त का उद्देश्य जमीनी स्तर के ऋण (Ground
level loans) उपलब्ध कराना है ताकि उधार सहकारी समितियों द्वारा अल्पकालीन
मौसमी कृषि क्रियाओं के लिए वित्त-प्रबन्ध किया जा सके। केन्द्रीय सहकारी बैंक
नाबार्ड से कुछ न्यूनतम शर्तों या मापदण्डों के अधीन पुनर्वित्त सुविधाएँ प्राप्त
कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, केन्द्रीय सहकारी बैंकों को 50 प्रतिशत तक न्यूनतम ऋण
वसूली करनी होगी या अपनी गैर लाभकारी परिसम्पत्तितों (Non-paying assets) को बकाया
ऋणों एवं अग्रिमों के 20 प्रतिशत तक सीमित करना होगा। मौसमी कृषि क्रियाओं के
अतिरिक्त, नाबार्ड उर्वरकों एवं अन्य आदानों के क्रय, संग्रहण एवं वितरण के लिए
पुनर्वित्त उपलब्ध कराता है। इसके अलावा, बुनकरों की समितियों, औद्योगिक सहकारी
समितियों आदि की उत्पादन एवं विपणन क्रियाओं के लिए भी पुनर्वित्त सुविधा दी जाती
है। इन सभी उद्देश्यों के लिए नाबार्ड से 2001-02 के दौरान 12,000 करोड़ रुपए का
पुनर्वित्त प्राप्त किया गया।
नाबार्ड
के पुनर्वित्त (Refinancing) के लिए फार्म-यन्त्रीकरण (Farm
mechanisaton) एक मुख्य क्षेत्र रहा है। समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम का विशेष उद्देश्य ग्राम समुदाय को पुनर्वित्त उपलब्ध कराकर कमजोर
वर्गा की सहायता करना है। भूमि विकास, कमान-क्षेत्र विकास (Command Area
Development), बागान एवं उद्यान-कृषि, मुर्गीपालन, भेड़ पालन आदि
नाबार्ड द्वारा वित्त उपलब्ध करायी जाने वाली अन्य अधिक महत्वपूर्ण योजनाएँ हैं।
नाबार्ड
कम-विकसित बैंकिंग की दृष्टि से अल्प-विकसित राज्यों अर्थात् उत्तर प्रदेश, बिहार,
मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं उड़ीसा में, इसी क्रम से अधिकाधिक लाभ पहुँचा रहा है और
इन राज्यों में कृषि क्षेत्र में विनियोग को प्रोन्नत करने का भरसक प्रयास करता
रहा है।
नाबार्ड
ने देश में सहकारी ढाँचे का पुनर्गठन करने और इसे मजबूत बनाने का कार्य बड़े
उत्साह से करना आरम्भ कर दिया है। सहकारी समितियों का क्रमिक ढंग से पुनर्गठन कर
इनके भावी विकास और आयोजन के लिए नेबार्ड ने मार्गदर्शी सिद्धान्त प्रतिपादित किए
हैं। नाबार्ड सहकारी साख संस्थानों के प्रभावी समन्वय का कार्य भी कर रहा है। इसी
प्रकार रिजर्व बैंक के मूल सुझाव के अनुरूप यह अल्पकालीन एवं मध्यमकालीन उधार में
भी कार्यात्मक समन्वय का प्रयास कर रहा है। नाबार्ड केन्द्रीय सहकारी बैंकों के
पुन: स्थापन प्रोग्राम की लगातार समीक्षा करता रहता है, इन बैंकों की पहचान
'कमजोर' बैंकों के रूप में की गई जिन्हें पुनः स्थापित करने की आवश्यकता अनुभव की
गई। इसी प्रकार नाबार्ड राज्यीय भूमि विकास बैंकों और प्राथमिक भूमि विकास बैंकों
की व्यवस्था और प्रबन्धकीय कौशल को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। अतः नाबार्ड से
बहुत-सी आशाएँ बँधी हैं कि यह कृषि उधार के माध्यम को बहुत मजबूत करके कृषि तथा
ग्राम विकास को प्रोन्नत करेगा।
स्वयं सहायता समूह
स्वयं
सहायता समूह 15-20 सदस्यों का विशेषकर आर्थिक दृष्टि से एक समान ग्रामीण निर्धनों
का छोटा समूह होता है। इस समूह की जरूरतें समूह के भीतर एक जैसी होती हैं और सब
मिलकर सामूहिक रूप से एक ही कार्य करना चाहते हैं।
इसका
उद्देश्य ग्रामीण निर्धनों की ऋण की जरूरतों की पूर्ति के लिए पूरक ऋण नीतियाँ
बनाना, बैंकिंग गतिविधियों को बढ़ावा देना, बचत तथा ऋण के लिए सहयोग करना तथा समूह
कि सदस्यों के भीतर आपसी विश्वास को बढ़ावा देना है।
सूक्ष्म वित्त
माइक्रोफाइनेंस
को लागू करने के पीछे प्रमुख विचार समावेशी विकास और ग्रामीण उत्थान के लिए
वित्तीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना था। कारण यह कि वहाँ तक बैंकिंग की पहुँच नहीं थी
और न ही पारंपरिक वित्तीय सेवाएँ उचित तरह से काम कर रही थीं।
माइक्रोफाइनेंस
को लघु-स्तरीय वित्तीय सेवाओं के लिए उपयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत ऋण तथा बचत
दोनों ही प्रकार की सेवाएँ आती हैं, जो शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के गरीबों
के उत्थान के लिए है। इस प्रकार से माइक्रोफाइनेंस आर्थिक सेवाओं में जोखिम कम
करने, बचत एवं आत्म सशक्तिकरण को बढ़ाने का कार्य करता है।
माइक्रोफाइनेंस
संस्थाओं, स्वयं सहायता समूहों, व्यक्तियों, सामाजिक संस्थाओं तथा गैर-सरकारी
संगठनों (एनजीओ) के माध्यम से कार्य करता है।
अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक
ऐसे
बैंक जो रिजर्व बैंक की दूसरी अनुसूची में सम्मिलत हैं और जो अपनी जमा का
निर्धारित प्रतिशत नकद आरक्षित अनुपात (Cash, Reserve Ratio) के रूप में रिजर्व
बैंक के पास रखें, अनुसूचित वाणिज्यक बैंक कहलाते हैं।
कहने
का तात्पर्य यह है कि अनुसूचित बैंक, वह बैंक है जिसका नाम रिजर्व बैंक अधिनियम
1934 की अनुसूची द्वितीय में सम्मिलित किया गया है।
वित्तीय समावेशन
वित्तीय
समावेशन सरकार की महत्वपूर्ण प्राथमिकता है। इसका उद्देश्य है बहिष्कृत वर्गों,
जैसे- कमजोर वर्गों, अल्प आय समूहों आदि के लिए विभिन्न-वित्तीय सेवाएँ जैसे कि
बचत बैंक खाता, जरूरत आधारित खर्च, भुगतान सुविधा, बीमा तथा पेंशन के लिए पहुँच
सुनिश्चित करना।
रिजर्व
बैंक के अनुसार वित्तीय समावेशन का अर्थ है अल्प आय तथा कमजोर वर्ग के लोगों, जोकि
सामान्य रूप से बैंकिंग सेवाओं को लाभ नहीं उठा पा रहे हैं, को वहनीय लागत पर
बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध कराना। वित्तीय समावेशन के लिये तीन प्रमुख बातों का होना
आवश्यक है-
•
देश के सभी भागों विशेषकर पिछड़े इलाकों में बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध होना।
•
लोगों को बैंकिंग प्रणाली से परिचित कराना तथा अधिक-से-अधिक लोगों
को बैंकों में खाता खोलने हेतु प्रेरित करना।
•
पिछड़े इलाकों में लोगों को वहनीय तथा न्यूनतम लागत पर ऋण प्रदान
करना, जिससे कि लोग महाजनों, साहूकारों के चंगुल में न फंसे।