JPSC_Sustainable_Developmen(धारणीय विकास)

JPSC Sustainable Developmen(धारणीय विकास)

(संकल्पना और धारणीय विकास के संकेतक, आर्थिक, सामाजिक और वातावरणीय धारणीयता, हरित जी.डी.पी. की संकल्पना, भारत में धारणीय विकास की नीति और रणनीति)

सतत विकास

यह अवधारणा वर्तमान में पर्यावरण नीति और अन्तर्राष्ट्रीय विकास का मार्गदर्शक सिद्धान्त बन गयी है। यह अवधारणा सामाजिक व आर्थिक नीति तथा राष्ट्रीय-सामुदायिक या वैयक्तिक स्तर पर पहलकदमी में वांछित दिशा में परिवर्तन कर विवाद और निर्णय के लिए व्यापक रूपरेखा तैयार करता है।

सतत विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उपलब्धा संसाधनों का उपयोग इस तरह से किया जाता है, कि वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाए।

आधुनिक अर्थों में सतत या धारणीय विकास का प्रयोग वर्ष 1972 में क्लव ऑफ रोम ने अपनी रिपोर्ट वृद्धि की सीमाएँ (Limits to Growth) में किया था। डेनिस व डोनेल मीडोज ने वृद्धि की सीमाओं में वैश्विक सन्तुलन (Global Quilibrium) के लिए सतत (Sustainable) शब्द का प्रयोग किया।

वर्ष 1972 में स्वीडन स्टॉकहोम में मानव एवं पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन का आयोजन किया गया तथा इसमें पहली बार पर्यावरणीय विकास को अन्तर्राष्ट्रीय कार्य सूची में शामिल किया गया।

इसके पश्चात्, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme-UNEP) की स्थापना हुई। वर्ष 1983 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पर्यावरण तथा विकास पर विश्व आयोग की स्थापना की। इसकी अध्यक्षता श्रीमती हाटलम ब्रटलैण्ड के नाम पर इसे

ब्रटलैण्ट आयोग (Brundtland Com-mission) भी कहते हैं। ब्रटलैण्ड आयोग द्वारा दी गई सतत विकास की परिभाषा-विकास ऐसा होना चाहिए जो वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति इस तरह करे जिससे भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता पर असर न हो।

इस रिपोर्ट का शीर्षक "हमारा साझा भविष्य' (Our Common Future) था। इस रिपोर्ट में दी गई सतत विकास की परिभाषा में दो अवधारणाएँ निहित हैं

1. आवश्यकता (Need) की अवधारणा-विशेषकर विश्व के निर्धनों की आवश्यकताएँ जिनको प्राथमिकता दी जाए।

2. सीमितता का विचार-इसका निर्धारण प्रौद्योगिकी की स्थिति तथा सामाजिक स्तर के अनुसार किया जाना चाहिए।

ब्रटलैण्ड आयोग की रिपोर्ट से प्रभावित होकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने रियो-डि-जेनेरियो में वर्ष 1992 में एक पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) का आयोजन किया। इस सम्मेलन में यह घोषणा की गई कि, विकास की प्राप्ति इस प्रकार हो, जिससे कि वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों की विकासात्मक तथा पर्यावरणीय आवश्यकताओं की न्याययुक्त पूर्ति हो।

इसमें निम्नलिखित दस्तावेज जारी किए गए-

1. जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अनुबन्ध

2. जैविक विविधता पर अनुबन्ध

3. वन सिद्धान्तों पर वक्तव्य

4. रियो घोषणा

5. एजेण्डा-211

वर्ष 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन सतत विकास की प्राप्ति के लिए प्राथमिकताओं का निर्धारण किया गया। सतत विकास को वर्ष 1987 के अवर कॉमन फ्यूचर नामक रिपोर्ट में परिभाषित किया गया।

एजेण्डा—21 सतत विकास के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक गैर-बाध्यकारी, स्वैच्छिक कार्य योजना है। साथ ही, यह वर्ष 1992 में रियो-डि-जेनेरियो (ब्राजील) में आयोजित पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Conference on Environment and Development : UNCED) की परिणति है। इसमें चार वर्ग हैं, जोकि सतत विकास के लिए व्यापक दिशा निर्देश देते हैं।

सतत विकास के तत्व

1. अर्थव्यवस्था (Economy)-आर्थिक क्रियाएँ ऐसी हों, जो सामान्यmजनता के हित में, आत्मनिर्भर और स्थानीय आधार वाली हों।

2. जैव मण्डल (Biosphere) मनुष्य भी प्रकृति का हिस्सा है। इसmभाव के साथ मनव केन्द्रित दृष्टि का त्याग करना। प्राकृतिकmसंसाधनों की एक सीमा है, उसका सम्मान हो तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व निर्माण में स्थानीय समुदायों को महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।

3. समता (Equality) समाज की सभी गतिविधियों, वितरण, लाभ और निर्णय प्रक्रिया में पूर्ण सहभागिता हो।

सतत विकास के विभिन्न तत्वों के भिन्न-भिन्न आयाम हैं, जिनको वहनीय, व्यवहार्य एवं साम्यपूर्ण होना चाहिए।

सतत विकास के विभिन्न आयाम

किसी भी समाज के सतत एवं सम्पोषणीय होने के लिए कुछ विशेषताओं का होना आवश्यक है, जो निम्नलिखित हैं-

• पुनर्नवीकरणीय (Renewable)-नवीकरणीय संसाधनों को पुनर्जनन की दर के बराबर या उससे कम उपभोग करने से संसाधनों का सतत विकास सम्भव है।

अनुकूलन (Adaptation)-एक सम्पोषणीय रूप से विकासशील समाज में परिवर्तशील पर्यावरण के प्रति अनुकूलन की क्षमता होती है।

प्रतिस्थापन (Replacement)-गैर नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों को नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों से प्रतिस्थापित करके तन्त्र की सततता (Sustainability) को बढ़ाया जा सकता है।

परस्पर निर्भरता (Interdependence)-सम्पोषणीय समाजों में परस्पर निर्भरता की स्थिति सदैव सन्तुलित होती है। सम्पोषणीय समाज किसी अन्य समाज को क्षति पहुँचाकर संसाधनों का आयत अथवा निर्यात नहीं करता है।

संस्थागत प्रतिबद्धता (Institutional Commitment) राजनैतिक समर्थन, संवैधानिक प्रावधान, विधिक ढाँचा आदि सतत विकास की प्राप्ति के लिए संस्थागत ढाँचे का निर्माण करते हैं।

सतत विकास के उद्देश्य (ब्रटलैण्ड आयोग के अनुसार)

I. आर्थिक कुशलता (Economic Efficiency)

2. सामाजिक स्वीकार्यता (Social Acceptability)

3. पारिस्थितिकीय टिकाऊपन (Ecological Sustainability)

सतत विकास के उद्देश्य

1. सभी मनुष्यों को ऐसा जीवन स्तर उपलब्ध कराना जो समानता और न्याय पर आधारित हो।

2. विकास प्रक्रिया के नीति निर्माण में सभी पक्षों को निर्णय क्षमता का अधिकार हो।

3. प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण।

4. विकास की ऐसी अवधारणा जो प्रकृति की पुनढत्पादन क्षमता का सम्मान करे।

5. प्रकृति अनुकूल तकनीकों का प्रयोग हो।

6. देशज ज्ञान एवं विकास को एक साथ जोड़कर स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल एवं प्रासंगिक विकास।

7. सामाजिक अन्यायों की समाप्ति।

8. आर्थिक वंचनाओं से मुक्ति।

सतत विकास के मानक

अन्तर-पीढ़ीगत समता

इसका सम्बन्ध विभिन्न पीढ़ियों के बीच प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण और अनुकूलतम उपयोग से है। यह मुख्यतः नैतिकता का प्रश्न है जिस पर हमारी पिछली पीढ़ियों को सोचना पड़ा था, वर्तमान पीढ़ी को सोचना पड़ रहा है और भविष्य की हर पीढ़ी को सोचना पड़ेगा।

• सभी पीढ़ियों को यह समझना होगा कि मानव समुदाय सभी पीढ़ियों के परस्पर सहयोग से बनने वाला एक समरूपी समुदाय है। विकल्पों का संरक्षण, गुणवत्ता का संरक्षण तथा अधिशेष का संरक्षण कर अन्तर पीढ़ीगत समता को बरकार रखा जा सकता है।

अन्तरा-पीढ़ीगत समता

• घरेलू और वैश्विक दोनों स्तर पर वर्तमान पीढ़ी के मानव समुदायों के बीच संसाधनों का उपयोग न्यायोचित और पारदर्शी तरीके से हो, यही संसाधनों के उपयोग का अन्तरा पीढ़ीगत समता सिद्धान्त है।

समता की अवधारणा को इस सन्दर्भ में लाया गया है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं में एक सम्पूर्ण विश्व है। इसलिए सभी मनुष्यों की आवश्यकताएँ लगभग समान हैं। मानव अधिकारों और मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं के पीछे यही तर्क काम करता है।

लैंगिक-समानता

असमानता पर आधारित समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच श्रम का विभाजन जिस तरीके से किया गया है, उस तरीके से संसाधनों का विभाजन नहीं किया गया है।

सामान्यतः महिलाओं को प्राकृतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संसाधनों पर उतना अधिकार नहीं दिया जाता, जितना उनके कार्य और महत्व के अनुपात में होना चाहिए। यह किसी भी दृष्टिकोण से संपोषणीय समाज नहीं कहा जाएगा। इसलिए सभी समाजों में संसाधनों का वितरण न केवल पुरुषों में समान रूप से हो बल्कि पुरुषों और महिलाओं में भी समान रूप से हो।

वहनीय क्षमता

हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आगामी पीढ़ियों को एक साफ व सुचारु वातावरण प्रदान करें। इसलिए यह हमारा उत्तरदायित्व हो जाता है कि हम किसी सम्पदा का उसकी प्रयुक्त होने की क्षमता अर्थात् वहन क्षमता से अधिक शोषण न करें। जिससे उसका सन्तुलन बना रहे।

पर्यावरण एवं आर्थिक संवद्धि

आर्थिक संवृद्धि यदि असतत हो तो गैर-नवीकरणीय संसाधन के स्टॉक में कमी आएगी तथा पर्यावरणीय क्षरण होगा। फलतः अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में कमी आएगी, चूँकि परम्परागत लेखांकन (Traditional Auditing) की विधियाँ पर्यावरणीय गणना नहीं करती हैं। अतः आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय कोच लेखांकन में नवीन प्रवृत्तियों का समावेशन किया जाना चाहिए।

पर्यावरण की सतता की माप के सम्बन्ध में निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाना है।

1. हरित लेखांकन विधि

चूँकि राष्ट्रीय आय के परम्परागत मापक प्राकृतिक संसाधनों में होने वाली कमी या उनकी गुणवत्ता में होने वाले ह्रास को सम्मिलित नहीं करते हैं। अतः पर्यावरणीय लागत समायोजित GDP, जिसको सतत GDP (Sustainbable GDP) या ग्रीन जी. डी. पी. कहा जाता है तथा इसके आकलन के लिए प्राकृतिक संसाधान लेखकर (Natural Resources Accounting) या हरित लेखांकन का उपयोग किया जाता है, जिसको निम्न प्रकार व्यक्त किया जाता है।हरित GDP = GDP - पर्यावरणीय लागत

2. संयुक्त सुचकांक (Composite Index)

यह विधि निबल पोषणीयता (Net Sustainanbility) की माप प्रस्तुत करती हैं। इसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय सूचकांक शामिल हैं। इसके दो मापक हैं-

(i) इकोलॉजिकल फुटप्रिण्ट विधि

इसे येल तथा कोलम्बिया विश्वविद्यालय वर्ष 2002 में विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) के सहयोग से विकसित किया।

यह विधि मानव द्वारा जैवमण्डल पर डाले गए बोझ के आधार पर सततता को मापती है। विकसित देशों में प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की मात्रा अधिक होती है। फलतः उनका इकोलॉजिकल फुटप्रिण्ट भी अधिक होता है।

(ii) पर्यावरणीय निष्पादन सूचकांक (Environmental Performance Index-EPI):

• इसमें 25 विभिन्न पर्यावरणीय संकेतकों (Envronmental Indicators) का प्रयोग किया जाता है तथा इससे किसी भी संगठन के पर्यावरणीय तत्वों के निष्पादन का पता लगाया जाता है।

3. मानव सतत विकास सूचकांक

स्वतन्त्र अर्थशास्त्रियों द्वारा मानव सतत विकास सूचकांक का विकास वर्ष 2010 में किया गया। यह मानव विकास सूचकांक के चौथे महत्त्वपूर्ण संकेतक के रूप में प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन पर निर्भर करता है। इस सूचकांक के अन्तर्गत प्रथम 5 शीर्ष देश हैं-नॉर्वे, न्यूजीलैण्ड, स्वीडन, स्विट्जरलैण्ड तथा फ्रांस।

सतत विकास : आवश्यक दशाएँ एवं रणनीति

निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत सतत विकास के लिए आवश्यक दशाओं को दर्शाया गया है-

मानव जनसंख्या को पर्यावरण की धारण क्षमता के स्तर तक सीमित करना होगा।

• नवीकरणीय संसाधनों का उत्खनन/निष्कर्षण धारणीय आधार पर हो, ताकि पुनसृजन की दर, निष्कर्षण की दर से अधिक न हो।

गैरनवीकरणीय संसाधनों की अपक्षय दर नवीनीकृत प्रतिस्थापकों से अधिक नहीं होनी चाहिए।

प्रदूषण के कारण उत्पन्न अक्षमताओं में सुधार किया जाना चाहिए।

सतत विकासशील समाज की प्राप्ति के लिए स्थानीय तथा वैश्विक दोनों स्तरों पर नीतिगत एवं संस्थागत दोनों प्रकार के परिवर्तन करने आवश्यक हैं, साथ ही दृष्टिकोण को वैश्विक सोच एवं स्थानीय क्रियान्वयन (Think Globally Act Locally) के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है।

सतत विकास हेतु रणनीति

सतत विकास के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ब्रटलैण्ड आयोग द्वारा आवर कॉमन फ्यूचर रिपोर्ट में कई स्वतन्त्र संस्थानों एवं विद्वानों द्वारा विभिन्न रणनीतियों को बताया गया है, इनका विवरण निम्नवत् है-

1. नागरिकों को प्रभावशाली नीति निर्माण सहभागिता वाली राजनीतिक व्यवस्था।

2. आत्मनिर्भर एवं टिकाऊ आधार वाली तकनीक का विकास करने वाली अर्थव्यवस्था।

3. असन्तोषपूर्ण विकास से उत्पन्न तनावों का समाधान करने वाली सामाजिक व्यवस्था।

4. पर्यावरण का सम्मान करने वाली उत्पादन व्यवस्था।

5. व्यापार और वित्त के टिकाऊ तरीकों को प्रोत्साहित करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था।

6. लचीली और बदलाव की इच्छुक प्रशासनिक व्यवस्था।

7. आर्थिक वृद्धि को ऐसी दिशा में मोड़ना जिससे यह आम जनता की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके।

8. आर्थिक वृद्धि की गुणवत्ता में बदलाव लाना, जिससे आय के वितरण, समता की प्राप्ति में सहभागिता हो, आर्थिक संकट कम हो तथा, प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कम हो।

9. विश्व के आम नागरिकों को उनकी आधारभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को अनिवार्य रूप से उपलब्ध करवाना।

10 ऊर्जा के नवीन टिकाऊ स्रोतों का विकास करना जिससे वर्तमान सीमित संसाधनों पर दबाव कम हो तथा अपशिष्ट प्रबन्धन जैसे प्रयासों पर बल दिया जाए।

11. निर्णय प्रक्रिया में पर्यावरण एवं विकास पर एक साथ विचार किया जाए। यह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित (Interdependent) प्रक्रियाएँ है।

सहस्राब्धि विकास लक्ष्य पर केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मन्त्रालय की रिपोर्ट-

• केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मन्त्रालय ने अगस्त, 2017 में सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) पर भारत की स्थिति से सम्बन्धित रिपोर्ट अचीबिंग मिलोनियम डेवलपमेंट गोल्स : टारगेट ईयर फैक्टशीट-इण्डिया जारी की।

• रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) के लिए वर्ष 2015 तक जो दर्जनभर टारगेट तय किए गए थे उनमें से बमुश्किल आधे ही पूरे हुए हैं।

• रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ एमडीजी लक्ष्यों के 18 टारगेट में से भारत के सम्बन्ध में सिर्फ 12 टारगेट महत्वपूर्ण थे जिनमें से महज छह ही पूरे हुए हैं। भारत को ये टारगेट वर्ष 2015 तक पूरे करने थे।

• भूखमरी और अत्यन्त गरीबी को मिटाने के लक्ष्य के सम्बन्ध में एक डॉलर प्रतिदिन से गुजारा करने वाले लोगों की संख्या वर्ष 2015 तक आधी करने का लक्ष्य पाने में भारत कामयाब रहा है लेकिन भुखमरी से पीड़ित लोगों की संख्या घटाकर आधी करने का लक्ष्य अभी भी अधूरा है।

सबको प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य भी अभी हासिल नहीं हुआ है पर शिक्षा के मामले में असमानताएं दूर करने का लक्ष्य हासिल |किया जा चुका है।

• पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर दो-तिहाई घटाने का लक्ष्य भी पूरी तरह हासिल नहीं हुआ है। मातृत्व मृत्यु दर में वर्ष | 1990 से वर्ष 2015 तक तीन चौथाई कमी करने का लक्ष्य भी अभी हासिल नहीं किया जा सका है।

• एचआइवी एड्स पर अंकुश लगाने तथा मलेरिया और अन्य बीमारियों पर नियन्त्रण का लक्ष्य भी अभी अधूरा है। पर्यावरण को संरक्षित रखने के मामले में तीन टारगेट में से सिर्फ एक को ही पूरा किया जा सका है।

• निजी क्षेत्र के साथ मिलकर प्रौद्योगिकी खासकर सूचना और संचार तकनीक का फायदा लोगों तक पहुँचाने का टारगेट हासिल कर लिया गया है।

सतत विकास लक्ष्य

• ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो शहर में जून, 2012 में सतत विकास सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (रियो + 20) में दि फ्यूचर वी वांट नामक दस्तावेज जारी किया गया। इस दस्तावेज द्वारा अधिदेशित 30 सदस्यीय कार्यदल ने जुलाई, 2014 में 17 सतत विकास लक्ष्य जारी किए हैं। इन लक्ष्यों में व्यापक स्तर पर सम्पोषणीय विकास के मुद्दे शामिल किए गए हैं। इन लक्ष्यों को संयुक्त राष्ट्र के वर्ष 2015 पोस्ट विकास एजेण्डा (Post-2015 Development Agenda) में शामिल किया गया है। इन लक्ष्यों को वर्ष 2030 तक पूरा करना है।

सतत विकास के लिए निर्धारित लक्ष्य निम्नलिखित है-

1. गरीबी के सभी रूपों को पूर्णतः समाप्त करना।

2. भुखमरी को समाप्त करना, खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना और पोषण में सुधार लाना तथा सपोषणीय कृषि को बढ़ावा देना।

3. स्वास्थ्य सुनिश्चित करना और हर उम्र में सभी के लिए स्वास्थ्य को बढ़ावा देना।

4. समावेशी और साम्यपूर्ण स्तरीय शिक्षा सुनिश्चित करना और सबके लिए आजीवन पठन-पाठन के अवसरों को बढ़ावा देना।

5. लैंगिक समानता हासिल करना और सभी महिलाओं एवं बालिकाओंक्षका सशक्तिकरण।

6. सबके लिए जल और स्वच्छता की उपलब्धता और स्थायी प्रबन्धन सुनिश्चित करना।

7. सबके लिए वहनीय, विश्वसनीय और आधुनिक ऊर्जा की उपलब्ध ता सुनिश्चित करना।

8. सबके लिए स्थायी, समावेशी और सतत आर्थिक विकास, पूर्ण एवं लाभकारी तथा उचित रोजगार को बढ़ावा देना।

9. समुत्थानशील अवसंरचना निर्मित करना, समावेशी एवं सम्पोषणीय औद्योगीकरण को बढ़ावा देना तथा नवाचार (Innovation) को प्रोत्साहित करना।

10. देशों के भीतर और आपस में भी असमानता कम करना।

भारत एवं सतत विकास

भारत सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जिसको 12वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण प्रपत्र में देखा जा सकता है। चूँकि, जलवायु परिवर्तन एवं जैव-विविधता दो अन्य प्रमुख मुद्दे हैं, जो सतत विकास हेतु आवश्यक हैं।

वस्तुतः सतत विकास की प्राप्ति सामान्य तौर पर दो मूल विषयों से सम्बन्धित है।

1. अनवरत विकास एवं गरीबी उन्मूलन के सन्दर्भ में हरित अर्थव्यवस्था (Green Economy)

2. अनवरत विकास हेतु संस्थागत रूपरेखा (InstitutionalOutline)

12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17 ) एवं सतत विकास

• 12वीं पंचवर्षीय योजना की रणनीति सम्मिलित एवं अनवरत वृद्धि के साथ जलवायु कार्य के महत्वपूर्ण सह-लाभों की ओर संकेत करती है।

कम आय वाले एक बड़े उत्तरदायी देश के रूप में भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि, इन प्रयासों के साथ इस बोझ को देशों के बीच उनके उत्सर्जन के ऐतिहासिक उत्तरदायित्व को देखते हुए समान एवं उचित रूप से बाँटा जाए।

कम कार्बन वृद्धि रणनीति के अन्तर्गत भारत का स्पष्ट रूप से यह मानना है कि, नीतियों को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों के बीच सम्मिलित, किन्तु अलग-अलग (Common But Differentiated Responsibilities—CBDR) होना चाहिए, ताकि नीति को क्रियान्वित किए जाने की लागत को कम किया जा सके तथा उस भार को राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से बाँटे जाने के तन्त्र का अनुसरण किया जा सके।

कम कार्बन रणनीति पर तात्कालिक योजना आयोग द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समूह ने कार्बन न्यूनीकरण करने वाले प्रमुख महत्वपूर्ण क्षेत्रों हेतु कम कार्बन (Low Carbon) रणनीतियों को रेखांकित किया है।

• विद्युत आपूर्ति विद्युत आपूर्ति के क्षेत्र में कोयला आधारित ऊष्मा विद्युत संयन्त्रों को अति संकटकालीन स्थितियों में अपनाना चाहिए। संयुक्त ऊष्मा एवं विद्युत संयन्त्रों में गैस का प्रयोग करना चाहिए, नवीकरणीय प्रौद्योगिकी में निवेश तथा अनवरत रूप से जल विद्युत का विकास करना चाहिए।

अति-सक्षम इलेक्ट्रिकल उपकरणों के प्रयोग में तेजी लाएँ। हानि कोविश्व के औसत स्तर पर लाने हेतु प्रेषण एवं वितरण को आधुनिक बनाना चाहिए तथा विद्युत क्षेत्र के सुधारों में तेजी लाना चाहिए।

परिवहन-परिवहन के क्षेत्र में कुल माल परिवहन में रेल की भागीदारी को बढ़ाएँ। रेल माल परिवहन की क्षमता में सुधार लाना चाहिए, माल एवं सवारी परिवहन के बीच क्रॉस सब्सिडाइजेशन के स्तर को कम करके इसे मूल्य प्रतियोगी बनाना चाहिए, समर्पित रेल मालगाड़ी कॉरीडोर (Dedicated Rail Rreight Coridor) को पूरा करना चाहिए, सार्वजनिक परिवहन तन्त्र की भागीदारी एवं क्षमता में सुधार लाना चाहिए।

• लोहा व इस्पात तथा सीमेण्ट क्षेत्रों के ग्रीनफील्ड संयन्त्रों में उत्तम प्रौद्योगिकी को अपनाना चाहिए। मौजूदा संयन्त्रों (विशेषकर, लघु एवंश्रमध्यम संयन्त्रों) को आधुनिक बनाना चाहिए तथा पारदर्शी वित्तीय तन्त्र के साथ ग्रीन प्रौद्योगिकी को तीव्र गति से अपनाना चाहिए।

सरकार के द्वारा सभी स्तरों पर ग्रीन बिल्डिंग कोड्स संस्थापित किया जाना चाहिए।

सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में भारत के प्रयास

भारत सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों के क्रियान्वयन, निगरानी रखने व समन्वयन की जिम्मेदारी नीति आयोग को सौंपी है। नीति आयोग ने वर्ष 2016 में सभी 169 लक्ष्यों (भारत के सन्दर्भ में) का अध्ययन कर सम्बन्धित मन्त्रालयों में बाँट दिया है और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित कर गई है।

भारतीय संसद का अध्यक्षीय शोध पहल (Speakinrs Research Initiative SRI) सतत विकास के मुद्दों पर सांसदों द्वारा विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श को सुविधाजनक बनाता है।

• सभी राज्यों को सतत विकास लक्ष्यों के सम्बन्ध में अपना दृष्टि पत्र (Vision Document) बनाने को कहा गया है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय को भारतीय परिप्रेक्ष्य में सतत विकास लक्ष्यों से सम्बन्धित सूचकों (Indicators) को विकसितकरने का कार्य सौंपा गया है।

यह एक वित्तीय इकाई (Financial Unit) होती है जो पर्यावरण से एक टन CO2 (Corbon Dioxide) को हटाने के प्रयासों को प्रदर्शित करती है। इस सन्दर्भ में सम्बन्धित कम्पनियों या राष्ट्रों द्वारा हरित परियोजनाओं (सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि) में निवेश किया जाता है।

• इसी प्रकार कोई भी राष्ट्र या कम्पनी यदि क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत आवंटित किए गये और AAU (Assigned Amount Unit) की तुलना में या CO3 का कम उत्सर्जन करता है तो उन्हें कार्बन क्रेडिट मिलता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि एक AAU एक टन CO3 को पर्यावरण में उत्सर्जित करने की छूट देता है।

• यदि कोई राष्ट्र आवंटित AAU की तुलना में अधिक उत्सर्जन करता है तो उसे कार्बन क्रेडिट खरीदने होंगे या स्वच्छ प्रौद्योगिकी (Clean Technology) में निवेश करना होगा।

• इस प्रकार कार्बन क्रेडिट की अवधारणा उन कम्पनियों के लिए प्रेरक होती है जो अधिक प्रदूषण करती हैं एवं उनके लिए भी प्रेरक होती हैं जो कम प्रदूषण करती हैं। उपभोक्ताओं द्वारा अपने आय से कम कीमत में उन वस्तुओं को खरीदा जायेगा, जिनका उत्पादन स्वच्छ प्रौद्योगिकी के माध्यम से हो रहा है।

कार्बन कर

प्रदूषणकारी वस्तुओं के उत्पादन या उनके विक्रय पर लगाए जाने वाले करों को कार्बन कर कहा जाता है। भारत एक मात्र राष्ट्र है जो कोयले पर कार्बन कर (Carbon Tax) लगाता है। भारत इसे स्वच्छ पर्यावरण उपकर (Clean Environmental Cess) के नाम से आरोपित करता है।

हरित बॉण्ड्स

कम्पनियों अथवा संस्थाओं द्वारा निकाले जाने वाले ऐसे बॉण्ड्स जिन से प्राप्त की गई धन राशि का प्रयोग हरित परियोजनाओं (Green Projects) में किया जाता है हरित बॉण्ड्स कहलाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक इस प्रकार के बाण्ड्स को प्रोत्साहित कर रहा है।

हरित मसाला बॉण्ड्स

विदेशों में भारतीय कम्पनियों व बैंकों आदि के द्वारा जारी किए जाने वाले रुपये डिनोमिनेटेड बॉण्ड्स को मसाला बॉण्ड्स कहते हैं। यदि मसाला बॉण्ड्स से प्राप्त धन का प्रयोग हरित परियोजना में किया जाता है तो ऐसे बॉण्ड्स को हरित मसाला ब्रॉण्ड्स कहते हैं।

• HDFC द्वारा वर्ष 2016 में लन्दन स्टॉक एक्सचेंज में इन बॉण्ड्स को सूचीबद्ध करवाया गया। इस सन्दर्भ में HDFC भारत की पहली कम्पनी है।

शब्दिक अर्थों में हरित जीडीपी से तात्पर्य जैव-विविधता की कमी और जलवायु परिवर्तन के कारणों का मापन है। हरित जीडीपी का अर्थ पारंपरिक जीडीपी के उन आँकड़ों से है, जो आर्थिक गतिविधियों में पर्यावरणीय तरीकों को स्थापित करते हैं। वर्ष 2009 में भारत ने हरित जीडीपी का आँकड़ा जारी करने की दिशा में कदम बढ़ाया। इसकी प्रथम सूची वर्ष 2015 में जारी की गई।

वास्तविक अर्थों में हरित जीडीपी को समझने के लिए विश्व के संसाधनों पर लगातार बढ़ रहे आर्थिक दबाव और उसके परिणामस्वरूप हो रहे पर्यावरणीय क्षति का आंकलन जरूरी है। बदलती जीवन शैली, औद्योगिक क्रांति का बढ़ता दबाव, जनसंख्या विस्फोट, प्रदूषण का खतरनाक स्तर आदि के कारण जिस तरह जलवायु परिवर्तन पर दबाव पड़ रहा है, उससे विश्व पर लगातार सतत और हरित विकास संबंधी क्रियाओं के अपनाने का दबाव बढ़ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, यदि हम खेतो, बागवनी, मत्स्य पालन, जीवाश्व ईधन के प्रयोग जैसे क्षेत्रों में जैविक संसाधनों के इस्तेमाल को प्रोस्तसाहित करें और इस दिशा में एक मानक फंड का उपयोग करें। विश्व को हरा-भरा रखने में यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण कदम होगा।

हरित जीडीपी के प्रोत्साहन हेतू कुछ उपाय

• सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसी नवीकरणीय उपायों को बढ़ावा देना।

जैविक खेती को प्रोत्साहन देना।

• जीवाश्म ईंधन की जगह वैकल्पिक उपायों को बढ़ावा देना। उदाहरण के लिए युरोप के कुछ देशों में पेट्रोल की खपत कम करने हेतू साइकिलिंग आदोलन को बढ़ावा दिया जा रहा है।

अपशिष्ट पदार्थों का दोबारा प्रयोग हेतु तकनीक का विकास करना।

जल संरक्षण के उपाय आदि।

आर्थिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय धारणीयता

सतत विकास संबंधी अवधारणा को नई दिशा देने हेतु वर्ष 2002 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानसबर्ग में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिससे निर्वहनीय (सतत) विकास के तीन मुख्य आयामों पर फोकस किया गया। इस घोषणा पत्र के अनुसार, “निर्वहनीयता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए एक संयुक्त उत्तरदायित्व हैं ताकि इसके तीन पारस्परिक निर्भर व प्रोत्साहक स्तंभ आर्थिक विकस, सामाजिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण को क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर सशक्त बनाया जा सकें।"

इन तीनों घटकों में भी पर्यावरण पर विशेष जोड़ दिया गया है, क्योंकि किसी भी सामाजिक अथवा आर्थिक प्रक्रियाओं का अस्तित्व मौलिक रूप से पर्यावरण पर ही आकर टिकता है। प्रत्येक समाज में सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन होते रहते हैं, किंतु प्रत्येक प्रणाली पृथ्वी के चतुक्षेत्र पर्यावरण पर ही निर्भर करती है। अतः यह विकसित व विकसशील देशों का संयुक्त उत्तरदायित्व है कि वह निर्वहनीय विकास सुनिश्चित करने के लिए वैसी नीतियों का क्रियान्वयन करना जो विकास और पर्यावरण के मध्य समन्वय स्थापित करें। पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले क्रियाकलापों को हतोत्साहित करना आदि।

हरित जीडीपी की अवधारणा

पर्यावरणीय स्थायित्व को वरीयता प्रदान करने की अवधारणा ही हरित जीडीपी की अवधारणा है। इस अर्थव्यवस्था में इस बात की प्रमुखता होती है कि अर्थव्यवस्था की समुचित क्रियान्वयन में कार्बन उत्सर्जन न्यून हो, प्रदूषण की उचित सीमा का पालन हो, ऊर्जा एवं संसाधनों का प्रभावोत्पाकता बढ़े और जैव-विविधता तथा पर्यावरणीय अनुकूलन को कम नुकसान पहुँचाए।

भारत में सतत विकास की रणनीति और नीति

भारत सहित 193 देशों ने सतत विकास लक्ष्यों को वर्ष 2015 में स्वीकार किया है और इसे 1 जनवरी, 2016 से लागू की किया है। सतत विकास का लक्ष्य सबके लिए न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध विश्व का निर्माण करना आदि है।

इस संबंध में भारत राष्ट्रपति महात्मा गाँधी की चेतावनी कि 'इस पृथ्वी पर इतना नहीं कि किसी एक के स्वाथे की पूर्ति हो सके' को ध्यान में रखकर इसके क्रियास्वयन की प्रक्रिया में आगे बढ़ता रहा है। भारत ने अपने 2030 के सतत विकास एजेंडे में निर्धनता को पूर्णतः समाप्त करने का लक्ष्य रखा है। वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान, राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना आदि का क्रियान्यव्यन इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास है। इस संबंध में न केवल संघर सरकार के स्तर पर वरन् राज्य और पंचायत स्तर पर की नोडल एजेंसियों का गठन किया गया है ताकि इस दिशा में जड़ स्तर तक प्रयास हो। सतत विकास लक्ष्यों को विकास नीतियों में शामिल करने के लिए अनेक मोर्चों पर कार्य किया जा रहा है। केंद्र सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन पर निगरानी रखने और इसके समन्वयन की जिम्मेदारी नीति आयोग को सौंपी है।

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