JPSC_Industrial_Economy(औद्योगिक अर्थव्यवस्था)

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(नीतिगत कदम और मूल्य)

देश में औद्योगिक विकास में औद्योगिक नीतियों एवं पंचवर्षीय योजना के महत्व को जानते हुए भारतीय अर्थशास्त्रियों ने अनेक औद्योगिक नीतियाँmबनायी हैं। इन नीतियों के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है।

योजनाकाल में भारत का औद्योगिक विकास

1947 में देश में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना एवं विकास के लिए 1951 में आयोजन अपनाने के बाद योजनाकर्ताओं ने देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ एवं संतुलित विकास प्रदान करने के लिए औद्योगिक विकास के प्रति विशेष रूचि दिखाई। इनके फलस्वरूप औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत हुआ। योजनाकाल में उद्योगों का विकास उत्साहवर्द्धक रहा है। विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत औद्योगिक विकास निम्न प्रकार हुआ है-

पहली पंचवर्षीय योजना ( 1951-56)

देश की अल्पविकसित अर्थव्यवस्था तथा आयोजन के पूर्व की परिस्थितियों को देखते हुए योजनाकर्ताओं ने देश की प्रथम पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास को नहीं, बल्कि कृषि विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। अतः इस योजना में कृषि क्षेत्र की ओर विशेष ध्यान दिया गया था। फिर भी इस योजना के अन्तर्गत औद्योगिक विकास की उपेक्षा नहीं की गई थी।

इस योजना के अन्तर्गत केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा किया गया कुल व्यय ₹ 2069 करोड़ था। सार्वजनिक क्षेत्र के विकास कार्यक्रमों पर किया गया कुल व्यय निम्न तालिका से स्पष्ट :

इस योजना के अन्तर्गत उद्योग पर किया गया व्यय 173 करोड़ था जिसमें से ₹ 140 करोड़ वृहद उद्योगों में लगाया गया और ₹ 27 करोड़ कुटीर एवं लघु उद्योगों में लगाया गया। विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान और खनिज पदार्थ के विकास के लिए ₹ 6 करोड़ व्यय किए गये। इस योजना में औद्योगिक विकास के लिए कुल विनिमय ₹ 477 करोड़ था।

प्रगति

पहली पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास मुख्य रूप से उपभोक्ता वस्तु, उद्योग जैसे सूती वस्त्र, चीनी, नमक, कागज आदि उद्योग तक सीमित था। मधयवर्ती उद्योग जैसे कोयला, सीमेंट, इस्पात, ऊर्जा शक्ति, अलौह धातुएँ, रसायन इत्यादि भी थे परन्तु उनकी उत्पादन (सीमेंट को छोड़कर) आवश्यकता से काफी कम थी। पूँजीगत वस्तु उद्योग की शुरूआत की गई थी। इस योजनाकाल में अनेक आधारभूत उद्योगों सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किए गए-जैसे हिन्दुस्तान शिपयार्ड, हिन्दुस्तान मशीन, टूल्स, सिन्दरी फर्टिलाइजर फैक्ट्री (अमोनियम सल्फेट) हिन्दुस्तान एंटीबॉयाटिक्स, हिन्दुस्तान केबिल्स, हिन्दुस्तान इंसैक्टिसाइड्स, इंट्रीगल कोच फैक्ट्री, यू.पी. गवर्नमेण्ट सीमेंट फैक्ट्री तथा नेपा (न्यूजप्रिंट) निजी क्षेत्र में भी बाइसिकल, टाइपराइटर्स, डीजल पम्प एवं इंजन मशीनरी औजार आदि के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। इस अवधि में औद्योगिक उत्पादन में 74 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

दूसरी पंचवर्षीय योजना ( 1956-61)

प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल में कृषि क्षेत्र में काफी प्रगति होने के कारण देश में तीव्र औद्योगिक विकास के लिए स्थितियाँ अब कहीं अधिक अनुकूल थी। फलस्वरूप दूसरी पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया गया। इस योजना का कुल व्यय ₹ 4800 करोड़ था जिसमें से ₹ 3800 करोड़ पूंजीगत उद्योगों के विकास के लिए रखे गए शेष राशि ₹ 1000 करोड़ चालू विकास खर्च के लिए रखे गए। सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े पैमाने के उद्योग जिसमें खनन, अनुसंधान इत्यादि के लिए ₹ 690 करोड़ निर्धारित किए गये।

इस योजना के अन्तर्गत आधारभूत उद्योग जैसे लोहा एवं इस्पात, कोयला, उर्वरक, इंजीनियरिंग, उद्योग एवं भारी इलेक्ट्रिकल कल-पूर्जा व मशीनों के विकास पर बल दिया गया। ग्रामीण एवं लघु और कुटीर उद्योगों के विकास के लिए ₹ 200 करोड़ निर्धारित किए गये। इसमें से ₹ 59.5 करोड़ और ₹ 5 करोड़ हैण्डलूम उद्योग एवं लघु पैमाने के उद्योग के लिए खर्च किए गये तथा ₹ 55.5 करोड़ खादी एवं ग्रामीण उद्योग पर व्यय किये गये। इस योजना में उन उद्योगों के विकास को महत्व दिया गया जो देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़, आत्मनिर्भर बनाने में मदद कर सकें। ये उद्योग थे-इस्पात, पूँजीगत उद्योग, मशीन टूल्स आदि। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के साथ-साथ निजी क्षेत्र के उद्योगों में भी ₹ 575 करोड़ नया विनिवेश इस उम्मीद से किया गया कि ये उद्योग योजना के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करेंगे।

प्रगति

1. सार्वजनिक क्षेत्र में तीन बड़े इस्पात कारखानों की स्थापना भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर में की गई।

2. सार्वजनिक क्षेत्र ने लोहा व इस्पात, लिग्नाइट, उर्वरक, रेलवे इंजन व डिब्बे, मशीन टूल्स, भारी रसायन, जहाज निर्माण, एंटिबायोटिक्स इत्यादि का उत्पादन शुरू कर दिया।

3. इस योजना में विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि दर का लक्ष्य 10.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रखा गया था लेकिन 7.25 प्रति वर्ष प्राप्त किया जा सका।

4. इस योजना में मूल उद्योगों का विकास तीव्र गति से हुआ।

तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66)

पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास का आधार बनाने का लक्ष्य रखा गया वहीं तीसरी पंचवर्षीय योजना में इस आधार को और मजबूत बनाने और इसका आगे विस्तार एवं उत्पादक उद्योगों को विद्यमान क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करने एवं नवीन क्षमताओं का सृजन करने का प्रयास किया गया। इस योजनाकाल में उन औद्योगिक परियोजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई जिन्हें विदेशी विनिमय संकट के कारण कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ा था। उत्पादन क्षमता में तीव्र गति से विस्तार सुनिश्चित करने के लिए उत्पादन उद्योगों (भारी मशीनरी तथा इंजीनियरिंग, लोहा व इस्पात, उर्वरक तथा पेट्रोलियम) को प्राथमिकता की दृष्टि से दूसरा स्थान प्रदान किया गया। तीसरे स्थान पर आधारभूत कच्चे पदार्थ जैसे-एल्युमीनियम, खनिज तथा रासायनिक तत्वों के उत्पादन को रखा गया। इसके अतिरिक्त औद्योगिक विस्तार के कार्यक्रम पर बल दिया गया विशेषकर पूँजीगत एवं उत्पादक उद्योग जिसमें प्रबन्धन क्षमता को बढ़ाना, तकनीकी विकास पर विशेष जोर दिया गया। इस योजना का कुल व्यय ₹ 7500 करोड़ था।

प्रगति-

1. एल्यूमीनियम, आटोमोबाइल्स, बिजली के ट्रांसफार्मर्स, मशीन टूल्स, डीजल इन्जन, वस्त्र उद्योग के लिए आवश्यक मशीनरी इत्यादि में 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष से अधिक संवृद्धि दर प्राप्त करने में सफलता मिली।

2. इस योजनाकाल के शुरुआत में तो औद्योगिक उत्पादन में काफी तेजी से वृद्धि हुई परन्तु अन्तिम वर्ष में उत्पादन में कमी आ गयी। कुल मिलाकर औद्योगिक उत्पादन में 6.8 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि हुई, जो निर्धारित लक्ष्य (10.7 प्रतिशत) से लगभग चार प्रतिशत कम थी।

वार्षिक योजनाएँ (1966-69)

तीसरी पंचवर्षीय योजना के बाद चौथी पंचवर्षीय योजना को तीन वर्षों के लिए स्थगित करना पड़ा ओर इस अवधि में (1966 69) में तीन वार्षिक योजनाओं का सहारा लिया गया। अन्तिम 8 वर्ष में (जिसमें तीसरी पंचवर्षीय योजना और वार्षिक योजना भी शामिल है) औद्योगिक प्रगति में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिला। प्रथम चार वर्ष औद्योगिक निवेश एवं संवृद्धि के अनुकूलतम थे परन्तु उसके बाद के तीन वर्षों में अर्थव्यवस्था में स्थिरता सी आ गयी। 1964-65 की अवधि में दो भयंकर सूखा एवं 1965 के युद्ध के कारण औद्योगिक संवृद्धि में गिरावट हुई।

प्रगति

1. 1968-69 के अन्त में 1,40,000 लघु पैमाने की इकाईयों का पंजीकरण हुआ।

2. 1961-69 के दौरान सहकारी औद्योगिक इकाईयों जिसमें हैण्डलूम, हैण्डीक्राफ्ट आदि शामिल थीं। इनकी संख्या 37,000 से बढ़करm51,000 तक पहुँच गयी। इनके सदस्यों की संख्या भी 2.92 मिलियन से बढ़कर 3.88 मिलियन हो गई। इनके बिक्री में भी वृद्धि दर्ज हुई जो 111.9 करोड़ से बढ़कर 331.9 करोड़ हो गई।

3. 1967-68 में कृषि उत्पादन में वृद्धि होने के कारण औद्योगिक प्रगति में सुधार हुआ।

4. 1968 में ही आगत क्रान्ति (अर्थात्, बीज, उर्वरक, सिंचाई) हुई जिसे हरित क्रान्ति के नाम से जानते हैं।

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74)

चौथी योजना के अन्तर्गत औद्योगिक ढाँचे के असंतुलन को दूर करने एव सृजित क्षमता को अधिकतम उपयोग में लाए जाने पर विशेष बल दिया गया। इस योजना काल का कुल व्यय ₹ 24882 करोड़ निर्धारित किया गया। कुल व्यय में से ₹ 15902 करोड़ और ₹ 8980 करोड़ सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र के लिए क्रमशः निर्धारित किया गया। निवेश के लिए ₹ 13655 करोड़ और उत्पादक पूँजी के लिए 22635 करोड़ रुपये के व्यय की व्यवस्था की गई। 2247 करोड़ रुपये चालू व्यय के लिए निर्धारित की गई। इस योजना में औद्योगिक निवेश के लिए निम्न उद्देश्य रखे गए : (1) पहले से चल रहे विनियोग कार्यों को पूरा करना, (2) भावी विकास की आवश्यकतानुसार वर्तमान क्षमता में वृद्धि लाना, विशेष रूप से आयात प्रतिस्थापन एवं निर्यात संवर्धन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में जरूरी चीजों को देश में उपलब्ध करने के लिए व्यवस्था, (3) घरेलू उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए नए उद्योगों की स्थापना अथवा उद्योगों के लिए नए आधारों को निर्माण करना।

प्रगति-औद्योगिक उत्पादन में मात्र 3.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई जबकि लक्ष्य 8.10 प्रतिशत प्रति वर्ष था। इस धीमी विकास के कई कारण जिम्मेदार थे जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं : (1) माँग की कमी, (2) आधारभूत कच्चे माल की कमी, (3) मजदूरों में बढ़ती हुई कीमतों के कारण असन्तोष (4) परिवहन सम्बन्धी कठिनाइयाँ, (5) ऊर्जा शक्ति की कमी।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)

चौथी योजना के काल में औद्योगिक क्षेत्र में हुई असन्तोषजनक प्रगति को ध्यान में रखते हुए पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में आत्मनिर्भरता तथा संवृद्धि के साथ सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को प्राथमिकता दी गई। निवेश और उत्पादन के निम्न पैटर्न की संकल्पना की गई : (1) दीर्घकालिक आर्थिक विकास की दृष्टि से प्रमुख क्षेत्र या आधार मूलक क्षेत्र उद्योग जैसे इस्पात, अलौह धातु, उर्वरक, खनिज तेल, कोयला और मशीन निर्माण उद्योगों के विस्तार को उच्च प्राथमिकता दी गयी। निर्यात संवर्धन उद्योग, लोक-उपभोग वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति, ग्रामीण व लघु उद्योगों को बढ़ावा, औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए इलाकों का विकास तथा अनावश्यक वस्तुएँ के उत्पादन पर रोक लगायी गई। पाँचवीं योजना का कुल व्यय 39,426 करोड़ रुपये था जिसमें औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 8,989 करोड़ रुपये (22.8 प्रतिशत) था।

प्रगति

1. औद्योगिक संवृद्धि का लक्ष्य 7 प्रतिशत प्रतिवर्ष रखा गया था जबकि उपलब्धि 5.9 प्रति वर्ष रही।

2. औद्योगिक सम्बन्धों में बिगाड़ तथा असन्तोषजनक प्रबन्धन।

3. इस योजना के राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा प्रणाली के कारण 1979 के सूखे को बिना खाद्यान्न आयात के ही काबू पा लिया गया।

छठी पंचवर्षीय योजना ( 1980-85)

छठी पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम चलाए गए। इस योजना के अन्तर्गत आधारभूत ढांचा एवं औद्योगिक विकास को बहुत ऊँची प्राथमिकता दी गई। उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम प्रयोग, उत्पादन एवं उत्पादकता में सुधार, प्रविधि का विकास आदि पर बहुत जोर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत बड़े पैमाने के उद्योगों के विकास पर अधिक बल दिया गया। औद्योगिक विकास के सन्दर्भ में इन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया-(1) उपभोग वस्तुओं एवं पूँजीगत वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाना, (2) उत्पादन तकनीकी में सुधार लाने के लिए अनुसंधान की समुचित व्यवस्था करना, तथा (3) पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए नर्य उपायों की खोज करना अथवा उपयुक्त कार्य-नीतियाँ तैयार करना आदि। इस योजना में सार्वजनिक क्षेत्र के विकास के लिए 97500 करोड़ रुपये 1979-80 के कीमत पर निर्धारित किया गया।

प्रगति

1. औद्योगिक उत्पादन में 5 गुना की वृद्धि दर्ज की गई।

2. औद्योगिक उत्पादन में वार्षिक वृद्धि दर लगभग 6.2 प्रतिशत थी, जो 6.9 प्रतिशत के निर्धारित लक्ष्य से थोड़ी कम थी।

सातवीं पंचवर्षीय योजना ( 1985-90)

सामाजिक न्याय, आत्मनिर्भरता, आधुनिकीकरण के साथ आर्थिक संवृद्धि तथा उत्पादकता में सुधार के निर्देशक सिद्धान्तों के अनुसार सातवीं पंचवर्षीय योजनाए में औद्योगिक क्षेत्र के लिए निम्न उद्देश्य निर्धारित किए गए :

(1) उचित कीमतों पर और अच्छे किस्म की लोक-उपभोग की वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति को सुनिश्चित करना, (2) व्यापक घरेलू बाजार तथा निर्यात संभाव्यता वाले उद्योगों के विकास पर जोर देना, (3) उपलब्ध सुविधाओं का पुनर्गठन और तकनीकी सुधार के सहारा भरपूर प्रयोग करना, (4) नये एवं उभरते हुए उद्योग का विकास करना जैसे-इलेक्ट्रोनिक्स एवं कम्प्यूटर उद्योग आदि तथा (5) महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता एवं कुशल और प्रशिक्षित श्रमिकों के रोजगार सृजन की दिशा में एकीकृत नीति अपनाना। इस योजना के अन्तर्गत रोजगार सृजन एवं उत्पादन में वृद्धि के अलावा सामाजिक आर्थिक उद्देश्य भी रखे गये थे जैसे संवृद्धि का क्षेत्रीय फैलाव, ग्रामीण और लघु उद्योगों के विकास को बढ़ावा देना तथा एकाधिकार को रोकना आदि।

प्रगति

1 योजना के प्रथम दो वर्षों में प्रगति संतोषजनक रही। दोनों वर्षों में प्रगति लक्ष्य से अधिक रही। वार्षिक वृद्धि दर 1985-86 में 8.7 प्रतिशत और 1981-87 में 9.1 प्रतिशत थी।

2. इस योजनाकाल में औद्योगिक उत्पादन में हुई वार्षिक वृद्धि दर 8.5mप्रतिशत थी, जो कि 8.3 प्रतिशत के निर्धारित लक्ष्य से थोड़ी सी अधिक थी।

वार्षिक योजना (1991-92)

इस योजना अवधि में 22 जुलाई, 1991 को औद्योगिक नीति बनाई गई। इसके अन्तर्गत जो 17 उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में थे उनको घटा कर 8 कर दिया गया। शेष उद्योग निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए।

प्रगति

1. मार्च 31, 1991 में भारत सरकार का 246 केन्द्रीय लोक क्षेत्र उद्यम का स्वामित्व था। जिसमें कुल निवेश 1.13, 234 करोड़ था। इन उद्यमों में सं मात्र 236 सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम कार्यरत थे जिसमें 101,702 करोड़ की पूँजी लगी थी और 23.1 लाख कर्मचारी थे। इसमें से 131 उद्यम 1990-91 की अवधि में 5,731 करोड़ का लाभ कमाए तथा 109 उद्यमों को 3064 करोड़ रुपये की हानि हुई।

2. 1991 में ही नई आर्थिक नीति का निर्माण हुआ जिसे उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नाम से जाना गया।

3. अगस्त 1991 में लघु, सूक्ष्म एवं ग्रामीण उद्योग के लिए पैकेज नीति तैयार की गयी।

आठवीं पंचवर्षीय योजना ( 1992-97)

आठवीं पंचवर्षीय योजना में आर्थिक सुधार एवं उदारीकरण का दौर आरम्भ हुआ जिसमें वर्ष 1991 में प्रस्तुत उदारीकृत औद्योगिक नीति के अधीन आठवीं योजना में मात्रात्मक लक्ष्यों पर कम जोर दिया गया। विभिन्न क्षेत्रों में वाछित संवृद्धि प्राप्त करने के लिए इस योजना में औद्योगिक, व्यापार तथा राजकोषीय नीतियों में आवश्यक फेर बदल तथा करों व शुल्कों में परिवर्तनों का सहारा लेने की बात की गई न कि आयातो निर्यातों पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध अथवा लाइसेंसिंग पद्धति का सहारा। 1991 में अपनाई गई औद्योगिक नीति के नए उदारीकृत रूप में निजी क्षेत्र का अधिक जोर दिया गया जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के औद्योगिक कार्यक्रमों के लिए परिव्यय कम कर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र अब अधिकाधिक रूप से मूलभूत तथा कोर उद्योगों तक ही केन्द्रित कर दिया गया।

प्रगति

1. औद्योगिक क्षेत्र के लिए आठवीं योजना में 7.3 प्रतिशत प्रति वर्षmसंवृद्धि का लक्ष्य रखा गया जबकि उपलब्धि 7.4 प्रतिशत प्राप्ति प्रति वर्ष रही।

2. उत्पादन वृद्धि दर 1992-93 में 4.2 प्रतिशत थी जबकि 1996-97 में अनुमानित वृद्धि दर (8.7 प्रतिशत) के आधार पर इस योजनाmके दौरान वृद्धि दर 8.1 प्रतिशत आँकी गई जो निर्धारित औद्योगिक विकास के वार्षिक लक्ष्य 8.2 प्रतिशत के लगभग बराबर थी।

नौवीं पंचवर्षीय योजना ( 1997-2002)

नौवीं पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य 'न्यायपूर्ण वितरण एवं समानता के साथ विकास' रखा गया। विभिन्न कारणों से इस योजना में सर्वोच्च प्राथमिकता ऊर्जा के विकास को दी गई। उसके बाद प्राथमिकता क्रम में समाज सेवा, कृषि ओर परिवहन का स्थान रहा। इस प्रकार उद्योग को दी गई प्राथमिकता अपेक्षाकृत काफी नीची रही। नौवीं योजना में औद्योगिक संवृद्धि का लक्ष्य 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष रखा गया। इस योजना में औद्योगिक विकास के लिए निम्न नीतियों को अपनाने की बात की गई: (1) पर्याप्त मात्रा में तथा उपयुक्त किस्म की आधारिक संरचना प्रदान करना, (2) औद्योगिक और वित्तीय पुनः संरचना बोर्ड के कामकाज की समीक्षा करना और उसमें ऐसे परिवर्तन लाना जिससे कि बीमार औद्योगिक इकाईयों को पुनः जीवनदान दिया जा सके तथा जिन बीमार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को पुनः जीवित करना संभव नहीं है उन्हें बन्द करने के लिए आवश्यक कदम उठाना (3) उत्तर-पूर्वी राज्यों के औद्योगिक विकास के लिए एक विशिष्ट पैकेज कार्यक्रम अपनाना, (4) औद्योगिक विकास के द्वारा उत्पन्न क्षेत्रीय विषमताओं को कम करना।

प्रगति

1. निजी क्षेत्र के उद्योगों का विकास हुआ।

2. अर्थव्यवस्था के तीनों प्रमुख क्षेत्रों कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्र में वृद्धि दरें निर्धारित किए गए लक्ष्यों के वृद्धि काफी निकट रही, (a) उद्योग एवं सेवाओं के क्षेत्र में सालाना वृद्धि क्रमश: 8.90 प्रतिशत प्रति वर्ष का लक्ष्य था, इन क्षेत्रों में क्रमश: 9.17 प्रतिशत व 9.30 प्रतिशत की सालाना वृद्धि प्राप्त की गयी। (b) इस योजना में निवेश की दर सकल घरेलू उत्पाद का 32.1 रही है, जबकि लक्ष्य 28.41 प्रतिशत का था।

दसवीं पंचवर्षीय योजना ( 2002-07)

इस योजना का उद्देश्य देश में गरीबी और बेरोजगारी समाप्त करना था। प्रतिव्यक्ति आय दोगुनी करना भी इसका लक्ष्य था। सकल घरेलू उत्पाद में वार्षिक 8% की वृद्धि का लक्ष्य रखा गया। योजना में प्रतिवर्ष 7.5 अरब डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लक्ष्य रखा गया।

प्रगति-इस योजना में 7.6 प्रतिशत की सलाना वृद्धि दर प्राप्त की गई। अर्थव्यवस्था के तीनों प्रमुख क्षेत्रों-कृषि, उद्योग व सेवा में वृद्धि दरें निर्धारित लक्ष्यों के काफी निकट रहीं।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना ( 2007-2012)

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का केन्द्रीय लक्ष्य है-“तीव्र गति के साथ आर्थिक समावेशी विकास" इस पंचवर्षीय योजना का कुल अनुमानित व्यय 36,44,718 करोड़ रुपये था जिसमें केन्द्र सरकार और राज्य व केन्द्रशासित प्रदेश का क्रमश: 2156571 करोड़ रुपये व 1488147 करोड़ रुपये का भागीदारी था। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सकल घरेलू उत्पादन का 9.0 प्रतिशत संवृद्धि दर प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का भौतिक लक्ष्य तालिका 9.1 में दिया गया है। इस योजना के मुख्य औद्योगिक लक्ष्य निम्नलिखित है :

1. 9 प्रतिशत प्रति वर्ष संवृद्धि दर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह अनुमान लगाया गया है कि उद्योग और विनिर्माण को प्रति वर्ष 9.8 प्रतिशत की औसत दर से वृद्धि करनी होगी।

2. वर्ष 2015 तक उद्योगों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा एवं प्रदूषण के मानक को अपनाना।

3. जहाज निर्माण के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास के लिए 170 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया।

4. खनन मंत्रालय को 8404 करोड़ रुपये आवंटित किए गए।

5. सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधनों को सकल घरेलू उत्पादन का 9.46 प्रतिशत जो दसवीं पंचवर्षीय योजना में थी को बढ़ाकर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 13.54 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया है।

12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

12वीं योजना 1 अप्रैल, 2012 से प्रारम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य तीव्र धारणीय तथा अधिक समावेशी विकास था। इस योजना में 9% सालाना विकास दर का लक्ष्य रखा गया जिसे बाद में 8.7% कर दिया गया। इस योजना में गरीबी अनुपात को 30% से घटाकर 10% तक लाने का लक्ष्य रखा गया।

औद्योगिक संवृद्धि के चरण

औद्योगिक संवृद्धि को अध्ययन की दृष्टि से चार चरणों में बांटा जाता है।

पहला चरण.    दूसरा चरण.     तीसरा चरण.      चौथा चरण

(1951-65).    (1965-80).     (1980-1991).  (1991 के बाद)

औद्योगिक संवृद्धि ( 1951-65)

औद्योगिक संवृद्धि के पहले चरण में प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं का काल आता है। इस चरण में औद्योगिक विकास के लिए मजबूत आधार तैयार किया गया। हैरोड-डोमर मॉडल पर आधारित प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास व असंतुलन को दूर करने की रणनीति बनाई गई। महालेनोबिस मॉडल पर आधारित दूसरी पंचवर्षीय योजना एवं जॉन सैण्डी एवं चक्रवर्ती मॉडल पर आधारित तीसरी पंचवर्षीय योजना में पूँजीगत वस्तु उद्योगों तथा मूलभूत उद्योगों के विकास पर विशेष जोर दिया गया। पहली तीन योजनाओं में औद्योगिक उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर में बढ़ोतरी हुई और यह दर पहली योजना में 5.7 प्रतिशत बढ़कर दूसरी योजना में 7.2 प्रतिशत तथा तीसरी पंचवर्षीय योजना में 9.0 प्रतिशत हो गयी।

औद्योगिक संवृद्धि का दूसरा चरण ( 1965-80)

औद्योगिक संवृद्धि दर 1966 से 1976 की अवधि में मात्र 4.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष रहीं। 1966-80 की अवधि में पूँजीगत वस्तु उद्योगों तथा मूल उद्योगों की संवृद्धि दरों में गिरावट आई थी। इसका कारण था संरचनात्मक प्रतिगमन अर्थात इस अवधि में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर उच्च आय वर्गों के लिए विलासिता को उपभोग वस्तुओं का उत्पादन किया गया। उदाहरण के लिए महंगे कपड़े, मदिरा, परफ्यूम व कॉस्मेटिक्स, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं और घड़ियाँ इत्यादि। 1965 से 1980 के बीच औद्योगिक क्षेत्र में मंदी व संरचनात्मक प्रतिगमन के लिए अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग कारकों को जिम्मेदार ठहराया जो निम्नलिखित है-

(क) सरकार ने बाह्य कारकों जैसे 1965 व 1971 के युद्ध, 1973 के तेल संकट, सूखे की स्थिति, आधारिक संरचना (विशेष तौर पर बिजली व परिवहन) को जिम्मेदार ठहराया।

(ख) के.एन. राज ने कृषि में अपर्याप्त संवृद्धि होने के कारण औद्योगिक वस्तुओं की माँग में कमी को जिम्मेदार ठहराया।

(ग) पी. पटनायक और एस.के. राव के अनुसार दूसरे चरण में जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कम हुआ वहीं दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहन कम हुआ।

औद्योगिक संवृद्धि तीसरा चरण (1980-1991)

इस काल को मोटे रूप से औद्योगिक पुनरूत्थान का काल कहा जाता है। 1980-81 के आधार पर वर्ष पर आधारित औद्योगिक उत्पादन की संवृद्धि दर 1981-85 में 6.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो सातवीं योजना (1985-90) में बढ़कर 8.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो गई तथा 1990-91 में घटकर 8.3 प्रतिशत रह गई। 1980 के दशक में औद्योगिक पुनरूत्थान के निम्नलिखित कारण थे

(क) सरकार की उदार औद्योगिक व व्यापार नीतियों ने वस्तुओं की पूर्ति को बढ़ाने में मदद किया।

(ख) उदार राजकोषीय नीति अपनाने से निर्मित वस्तुओं की मांग में वृद्धि हुई। उदार राजकोषीय व्यवस्था के मुख्य तत्व थे (1) बजट घाटा,

(2) ऊँची ब्याज दरों पर अधिक ऋण लेना, तथा (3) निर्बचन में वृद्धि।

(ग) कृषि एवं सेवा क्षेत्र के विकास से अस्सी के दशक में औद्योगिक पुनरूत्थान में उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं की मांग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(घ) आधारिक संरचना में निवेश में वृद्धि के साथ-साथ दक्षता में सुधार ने औद्योगिक पुनरूत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1979-80 से 1984-85 के बीच आधारिक संरचना में निवेश 9.7 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही जबकि 1986-87 में यह निवेश बढ़कर 18,3 प्रतिशत हो गया।

औद्योगिक संवृद्धि का चौथा चरण ( 1991 के बाद की अवधि)

1991 से आर्थिक उदारीकरण के एक नए युग की शुरुआत हुई। इस नई आर्थिक नीति में तीन बिन्दु सम्मिलित थे-(1) सार्वजनिक क्षेत्र को संकुचित कर निजीकरण को नीति अपनाना, (2) आयात-निर्यात के लिए परमिट प्रणाली के स्थान पर विश्वव्यापीकरण की नीति, (3) औद्योगिक लाइसेंसिंग और कार्यवाही नियमों व नियंत्रणों में व्यापक उदारीकरण की नीति।

1990 के दशक के उत्तरार्ध में (अर्थात् नौवीं के दौरान) औद्योगिक उत्पादन की संवृद्धि दर 5.0 प्रतिशत प्रति वर्ष रही जबकि 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध (अर्थात् आठवीं योजना के दौरान) की औद्योगिक संवृद्धि दर 7.4 प्रतिशत प्रति वर्ष रही। उदारीकरण के बाद के दशक में औद्योगिक उत्पादन में काफी वार्षिक उतार-चढ़ाव दिखाई देते हैं। हालांकि वर्ष 2005-06 में औद्योगिक संवृद्धि दर 8.2 प्रतिशत थी। 1991 के बाद की उदारीकरण की अवधि में (जिसे सुधार अवधि भी कहा जाता है)

औद्योगिक प्रगति असंतोषजनक थी।

इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1. कमजोर आधारिक संरचना-आधारिक संरचना जैसे परिवहन व्यवस्था, बिजली, सड़क, बंदरगाह इत्यादि के कमजोर होने के कारण औद्योगिक विकास पर बुरा असर पड़ा, उत्पादन को लागतों में वृद्धि और विदेशी उद्योगों में प्रतिस्पर्धा करने में देशी औद्योगिक इकाईयां कमजोर पड़ गई।

2. उपभोक्ताओं की मांग में कमी-1990 के दशक में कृषि क्षेत्र में संवृद्धि दर में कमी आने के कारण ग्रामीणों की क्रय शक्ति में कमी आयो फलस्वरूप औद्योगिक वस्तुओं की माँग की भी संकुचित हो गयी। इसके अतिरिक्त आय के वितरण में असमानता, रोजगार संवृद्धि में गिरावट, शेयर बाजार में घोटाले तथा वास्तविक परिसंपदा की कीमतों में शिथिलता के कारण जनता के हाथ में क्रय शक्ति के कम हो जाने के कारण मांग में कमी होने लगी।

3. पूँजी निर्माण में कमी-सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में पूंजी निर्माण औद्योगिक विकास की गति को उछाल देता है। पूंजी निर्माण में प्रत्यक्ष वृद्धि होने से जनता द्वारा वस्तुओं की मांग में वृद्धि आती है और परोक्ष रूप से जनता द्वारा उद्योग निवेश में वृद्धि आती है। परन्तु 1990 के दशक में पूँजी निर्माण में कमी देखने को आई। इसका कारण था अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा भारत सरकार को 1991 में समष्टि आर्थिक समायोजन कार्यक्रम अपनाने को विवश किया जिसके कारण सार्वजनिक व्यय में भारी कटौती करनी पड़ी।

इसके अतिरिक्त विदेशी प्रतिस्पर्धा, पूँजी बाजार का अविकसित होना, घरेलू उद्योगों की अधिक उत्पादन लागत, निर्यातों में कमी, 1997 के मध्य में पूर्व एशियाई देशों में आए आर्थिक संकट के कारण इन देशों की मुद्राओं का अवमूल्यन हुआ जिससे भारतीय निर्यात अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में इन देशों के निर्यातों की तुलना में अधिक महंगे हो गए। प्रशुल्क संरचना में विसंगतियों के कारण घरेलू उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

औद्योगिक नीति

औद्योगिक विकास और इसका स्वरूप बहुत बड़ी सीमा तक सरकार की औद्योगिक नीति पर निर्भर करता है। इसलिए औद्योगिक नीति का अर्थ एवं औद्योगिक नीति की आवश्यकता क्यों पड़ती है। इसकी जानकारी होना नितान्त आवश्यक है।

औद्योगिक नीति का अर्थ

औद्योगिक नीति से तात्पर्य सरकार द्वारा की जाने वाली ऐसी औपचारिक घोषणा से है जिसके द्वारा सरकार औद्योगिक विकास के प्रति दृष्टिकोण एवं उद्देश्यों का उल्लेख करती हैं।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में निजी लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य प्रमुख होता है इसलिए यह निजी सम्पत्ति के प्रति आस्था एवं बाजार-उन्मुख संसाधनों पर आधारित होता है। सामान्यतः पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास की गति और उसका स्वरूप बाजार-शक्तियों पर निर्भर करता है। समाजवाद संसाधनों के समाजीकरण पर आधारित होता है। केन्द्रीय नियोजन इसकी प्रमुख शर्त होती है। साम्यवाद वर्गरहित समाज प्रणाली की बात करता है जहाँ समाज के सभी वर्गों की समानता प्राप्त हो। साम्यवाद का प्रमुख सिद्धान्त है-'प्रत्येक को क्षमता अनुसार कार्य करना चाहिए एवं आवश्यकता के अनुरूप उपभोग करना चाहिए मिश्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत निजी क्षेत्र (बाजार) और सार्वजनिक क्षेत्र नियोजन के अनुरूप सामाजिक प्राथमिकताओं और निजी क्षेत्रों की क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार औद्योगिक उद्देश्य निश्चित करती है।

औद्योगिक नीति का तीसरा घटक औद्योगिक विचारधारा को क्रियान्वित करने वाले नियम तथा उपकरण से है जो नीति के पीछे निहित विचारधारा को ठोस रूप देते हैं पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार की ओर से हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यह बाजार-मूलक अर्थव्यवस्था होती है। कभी-कभी बाजार की विकृतियों को दूर करने के लिए सरकार आवश्यक मौद्रिक व राजकोषीय नीति अपनाती है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में औद्योगिक संरचना एवं विकास की योजना केन्द्रीय नियोजन द्वारा किया जाता। सरकार उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं दंड जैसे उपकरणों का भी प्रयोग करती है। मिश्रित औद्योगिक में बाजार तंत्र और सरकारी हस्तक्षेप, दोनों उपकरणों का प्रयोग करके उद्देश्यों की पूर्ति करती है। आवश्यकता पड़ने पर निजी क्षेत्र का नियंत्रण व नियमन भी करती है।

औद्योगिक नीति की आवश्यकता

औद्योगिकरण देश के संसाधनों का भरपूर उपयोग कर आर्थिक और सामाजिक विकास करने में मदद करता है। भारत जैसे बड़े देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रणाली में औद्योगिकरण के विशाल कार्य के संचालन के लिए औद्योगिक नीति को आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती है :

1. आधारभूत एवं भारी उद्योगों की स्थापना निजी क्षेत्र नहीं कर सकते।

2. सामाजिक आधारिक संरचना जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि के विकास के लिए।

3. आर्थिक आधारिक संरचना जैसे परिवहन, संचार इत्यादि का विकास।

4. निजी क्षेत्र को नियंत्रण व प्रोत्साहित करने के लिए।

5. यह सुनिश्चित करने के लिए कि निजी क्षेत्र नियोजन में निर्धारित दिशा की ओर ही अनुगमन करें, उनका विनिमय करना आवश्यक होता है।

घरेलू उद्योगों पर नीतियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। वैश्वीकरण के युग में घरेलू उद्योगों को विदेशी उद्योगों से सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करने के लिए नीति की आवश्यकता पड़ती है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात की औद्योगिक नीति

स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र के विकास के सम्बन्ध में भारत सरकार ने अभी तक छः औद्योगिक नीति प्रस्तुत की हैं (1) औद्योगिक नीति, 1948, (2) औद्योगिक नीति, 1956 (3) औद्योगिक नीति, 1977, (4) औद्योगिक नीति, 1980 और (5) औद्योगिक नीति, 1991

औद्योगिक नीति, 1948

भारत सरकार ने अपनी पहली औद्योगिक नीति 6 अप्रैल, 1948 को घोषित की। इस नीति में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र दोनों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया तथा उद्योगों की चार श्रेणियों में विभाजित किया गया-

1. सरकार के अधिकार का क्षेत्र-इस श्रेणी में तीन उद्योग थे : (क) अस्त्र-शस्त्र व युद्ध सामग्री, (ख) परमाणु शक्ति का उत्पादन और नियंत्रण, तथा (ग) रेल परिवहन के स्वामित्व और प्रबन्धन।

2. सरकारी नियंत्रण व विनियमन का क्षेत्र-इस श्रेणी में राष्ट्रीय महत्व के 18 उद्योगों को शामिल किया गया जिनके विकास का उत्तरदायित्व सरकार ने अपने ऊपर नहीं लिया परन्तु इन पर काफी नियंत्रण रखा। इस श्रेणी में कुछ आधारमूलक उद्योगों को शामिल किया जैसे इंजीनियरिंग भारी मशीनें, उर्वरक, अलौह धातु उद्योग, सीमेन्ट, सूती वस्त्र, कागज, चीनी, खनिज से सम्बद्ध उद्योग आदि।

3. मिश्रित क्षेत्र-इस क्षेत्र में 6 उद्योग रखे गए जिनकी इकाई की स्थापना का उत्तरदायित्व सरकार द्वारा निश्चित किया गया, परन्तु पुराने इकाईयों को निजी क्षेत्र में ही बने रहने दिया गया। ये उद्योग थे: (क) कोयला, (ख) लोहा तथा इस्पात, (ग) वायुयान निर्माण, (घ) जलयान निर्माण, (ङ) टेलीफोन, टेलीग्राफ तथा वायरलेस के यंत्र एवं उपकरणों का निर्माण (इसमें रेडियो सेट शामिल नहीं था) तथा (च) खनिज तेल।

4. निजी उद्यम के क्षेत्र-उपर्युक्त उद्योगों के अलावा शेष उद्योगों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया। परन्तु उद्योग विशेष की प्रगति असंतोषजनक होने पर सरकार को इस क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करने का अधिकार था।

इस नीति में मिश्रित एवं नियंत्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई जिससे औद्योगिक विकास तीव्र गति से आगे बढ़ सके। रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से लघु एवं कुटीर उद्योग को महत्व को भी स्वीकार किया गया।

औद्योगिक नीति, 1956

संसद 'समाज के समाजवादी ढंग' को आधारभूत सामाजिक और आर्थिक नीतियों के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। इसके औद्योगिक आधार के लिए एवं दूसरी पंचवर्षीय योजना के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार ने 30 अप्रैल, 1956 को दूसरी औद्योगिक नीति के प्रस्ताव को मंजूरी दी। इस औद्योगिक नीति के अन्तर्गत दोनों क्षेत्रों सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के सहअस्तित्व के साथ-साथ उनके बीच परस्पर सहयोग पर जोर दिया गया। 1948 की औद्योगिक नीति की तुलना में 1956 की औद्योगिक नीति में सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार पर अधिक जोर दिया। 1948 की औद्योगिक नीति के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि इसमें लघु तथा बड़े उद्योगों के विकास को समन्वित करने के लिए अधिक दृढ़ एवं ठोस प्रयास की व्यवस्था की गई। इस उद्योग नीति की तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया

1. केन्द्रीय सरकार का अधिकार क्षेत्र-प्रथम श्रेणी, अर्थात् अनुसूचित 'क' के उद्योगों को केवल सरकार लिए सुरक्षित कर दिया गया। इस श्रेणी में सुरक्षा संबंधी उपकरणों से संबंधित उद्योगों (क) अस्त्रशस्त्र और सैन्य सामग्री, (ख) परमाणु शक्ति, (ग) रेल परिवहन के अतिरिक्त 14 अन्य बुनियादी उद्योगों को भी इस श्रेणी में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार कुल उद्योगों की संख्या 17 हो गई। इसमें से 4 उद्योगों में सरकारी एकाधिकार की व्यवस्था की गई। ये उद्योग थे-(क) अस्त्र-शस्त्र और सैन्य सामग्री, (ख) परमाणु ऊर्जा, (ग) रेलवे तथा (घ) वायु परिवहन। बाकी के 13 उद्योगों में यद्यपि यह कहा गया कि नई इकाईयाँ सरकार द्वारा स्थापित की जाएंगी तथापि निजी क्षेत्र में कार्यरत इकाईयों को काम करते रहने की अनुमति दी गयी। इतना ही नहीं यह भी कहा गया कि राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए इन उद्योगों (लौह और इस्पात, भारी ढुलाई, भारी मशीनें, भारी बिजली सामान उद्योग, कोयला, तेल, लौह धातुएं तथा तांबा, सीसा, जस्ता, खनिज, टेलीफोन, तार ओर रेडियो उपकरण, विद्युत का जनन और वितरण) में निजी क्षेत्र को नई इकाईयां लगाने की अनुमति भी दी जा सकती हैं।

2. मिश्रित क्षेत्र-दूसरी श्रेणी अर्थात् अनुसूची 'ख' में ऐसे उद्योग रखे गए जिन पर राज्य का अधिकार बढ़ता जाएगा और जिनमें साधारणतः राज्य नये उद्यमों की स्थापना करेगा किन्तु इसमें सरकारी प्रयास की कमी को निजी उद्यमी द्वारा पूरा किए जाने की अपेक्षा की गई थी। इस श्रेणी में आने वाले 12 उद्योग थे, लघु खनिजों के अतिरिक्त खनिज, अल्युमीनियम, मशीन औजार, लौह मिश्रित धातु तथा औजार, इस्पात, आधारभूत वस्तुएं, औषधि का निर्माण, रंग बनाना, प्लास्टिक आदि, अन्य आवश्यक औषधियां उर्वरक, कृत्रिम रबर, कोल कार्बनाइजेशन, रासायनिक कागज की लुगदी, सड़क परिवहन तथा समुद्री परिवहन।

3. निजी उद्योग का क्षेत्र-तीसरी श्रेणी में उद्योग रखे गए जो अनुसूची 'क' और अनुसूची 'ख' में नहीं थे। सरकार इन उद्योगों की स्थापना में सामान्यतः प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेगी। वह निजी उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करने के लिए परिवहन, ऊर्जा एवं वित्त जैसी सुविधाएं प्रदान करेगी। जरूरत पड़ने पर यदि सरकार चाहे तो इन उद्योगों में भी अपनी इकाईयों की स्थापना कर सकती थी।

औद्योगिक नीति, विशेष तौर पर औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम, 1951 की विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा कड़ी आलोचना की गई तथा यह कहा गया कि इससे औद्योगिक विकास अवरूद्ध हुआ है तथा भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसलिए सरकार ने 1970 तथा 1980 के दशक में औद्योगिक नीति के उदारीकरण में दिशा में कई कदम उठाए। इस प्रक्रिया में सबसे क्रान्तिकारी परिवर्तन 1991 में उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण नीति के द्वारा किया गया।

औद्योगिक नीति, 1977

जनता सरकार द्वारा 23 दिसंबर, 1977 को औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। नीति वक्तव्य में साफ कहा गया कि अभी तक की औद्योगिक नीति बड़े पैमाने के उद्योग पर ध्यान दिया गया इसलिए इस नीति में छोटे पैमाने के क्षेत्र के विकास पर बल दिया गया जैसे लघु तथा कुटीर उद्योग। लघु क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित किया गया-(क) कुटीर तथा घरेलू उद्योग, (ख) पिछड़े क्षेत्र तथा (ग) लघु उद्योग।

इस नीति के अन्तर्गत बड़े पैमाने के उद्योगों को जनसंख्या की मूल न्यूनतम आवश्यकताओं के कार्यक्रम के साथ जोड़ा गया ताकि वे लघु क्षेत्र के उद्योगों के विकास में मदद कर सकें। इसलिए इस नीति में बड़े पैमाने के उद्योग के विकास के लिए आधारभूत उद्योग, पूंजी वस्तु उद्योग एवं उच्च टेक्नोलॉजी उद्योग के विकास को भी बढ़ावा दिया गया। सार्वजनिक उद्योगों को सामाजिक वस्तुओं के उत्पादन के साथ-साथ उपभोक्ताओं को अनिवार्य वस्तुओं के निरन्तर सम्भरण कायम करने में एक स्थायीकरण शक्ति के रूप में किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र को यह भी जिम्मेदारी सौंपी गयी कि छोटे उद्योगों के विकास में मदद करें।

औद्योगिक नीति, 1980

कांग्रेस (इ) की सरकार 1956 की औद्योगिक नीति को आधार मानते हुए, छोटे, मध्यम तथा बड़े पैमाने के उद्योगों के विकास को प्रोन्नत करने के लिए 23 जुलाई, 1980 को औद्योगिक नीति, 1980 की घोषणा की। इस नीति के तीन उद्देश्य थे : (1) आधुनिकीकरण, (2) स्वतः विस्तार तथा (3) पिछड़े क्षेत्रों का विस्तार। इस नीति की विशेषता थी कि आर्थिक संघवाद की धारणा को प्रोन्नत करके निजी क्षेत्र का औद्योगिक विकास में समन्वय कायम करना। समन्वित औद्योगिक विकास के लिए पिछड़े क्षेत्रों में जिला स्तर पर कुछ केन्द्रक संयंत्र स्थापित करने की योजना बनाई गयी जिनका उद्देश्य सहायक, छोटी तथा कुटीर इकाईयों को जितना संभव हो सके कायम करना होगा।

औद्योगिक नीति, 1990

राष्ट्रीय मोर्चा सरकार 1989 के अन्त में सत्ता में आने के बाद औद्योगिक नीति मई 1990 में देश के सामने रखी। गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने के लिए तथा अर्थव्यवस्था के समुचित विकेन्द्रीकरण के लिए इसmनीति में लघु क्षेत्र के उद्योगों एवं खेती पर आधारित उद्योगों के विकास को बढ़ावा दिया गया। इस नीति में निर्यात, विदेशी बाजार में भारतीय उद्योगों की प्रतिस्पर्धा शक्ति बढ़ाने के लिए काफी उपाय किए गए। इस नीति के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था को और अधिक खुला रूप देने का प्रयास किया गया जिससे कि देश के उद्योग आधुनिक रूप धारण कर विश्व-प्रतियोगिता का भली प्रकार सामना कर सके।

औद्योगिक नीति, 1991

श्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में स्थापित कांग्रेस (इ) की सरकार ने जुलाई 24, 1991 को नयी औद्योगिक नीति की घोषणा की। इस नीति के अन्तर्गत बहुत से उदारवादी कदम उठाए गए-लाइसेंसिंग व्यवस्था के लगभग समाप्त कर दिया गया, बहुत से आरक्षित उद्योगों के द्वारा निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गये, एकाधिकार और प्रतिबन्धक व्यापार व्यवहार अधिनियम के अधीन उद्योगों की परिसम्पत्ति सीमा समाप्त कर दी गई तथा विदेशी फर्मों को और रियायतें दी गई। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का एकीकरण करने की नीति बनाई गई। इस नीति की मुख्य बातें निम्नलिखित थी-

1. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उपक्रमों में कमी की गई। इसमें समय केवल 4 उद्योग ही सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल किए गये हैं-(क) सुरक्षा, (ख) रेल परिवहन, (ग) आणविक ऊर्जा (घ) 1995 की सूची में दर्ज खनिज पदार्थ।

2. पाँच उद्योगों (शराब, सिगरेट, खतरनाक रसायन, सुरक्षा का सामान तथा औद्योगिक विस्फोटक) को छोड़कर लगभग सभी उद्योगों की लाइसेंसिंग से मुक्त कर दिया गया है।

3. एकाधिकार और प्रतिबन्धक व्यापार व्यवहार अधिनियम को उदार बनाया गया। अब नई इकाईयों की स्थापना, विस्तार, विलयन समामेलन तथा आधीनीकरण के लिए तथा निदेशकों की नियुक्ति के लिए केन्द्र सरकार से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं रहा है।

4. विदेशी तकनीकी विशेषज्ञ नियुक्त करने अथवा देश में विकसित तकनीक का विदेशों में परीक्षण कराने के लिए विदेशी मुद्रा भुगतान की इजाजत लेने की आवश्यकता समाप्त कर दी गयी है।

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